बोध कथा- ध्या‍न और सेवा



भारत के महान संत, संत ज्ञानेश्वर की जयंती। Sant Gyaneshwar


एक बार ज्ञानेश्‍वर महाराज सुब‍‍ह-सुबह‍ नदी तट पर टहलने निकले। उन्होंने देखा कि एक लड़का नदी में गोते खा रहा है। नजदीक ही, एक सन्यासी ऑखें मूँदे बैठा था। ज्ञानेश्वर महाराज तुरंत नदी में कूदे, डूबते लड़के को बाहर निकाला और फिर सन्यासी को पुकारा। संन्यासी ने आँखें खोलीं तो ज्ञानेश्वर जी बोले- क्या आपका ध्यान लगता है? संन्यासी ने उत्तर दिया- ध्यान तो नहीं लगता, मन इधर-उधर भागता है। ज्ञानेश्वर जी ने फिर पूछा लड़का डूब रहा था, क्या आपको दिखाई नहीं दिया? उत्तर मिला- देखा तो था लेकिन मैं ध्यान कर रहा था। ज्ञानेश्वर समझाया- आप ध्यान में कैसे सफल हो सकते है? प्रभु ने आपको किसी का सेवा करने का मौका दिया था, और यही आपका कर्तव्य भी था। यदि आप पालन करते तो ध्यान में भी मन लगता। प्रभु की सृष्टि, प्रभु का बगीचा बिगड़ रहा है1 बगीचे का आनन्द लेना है, तो बगीचे का सँवरना सीखे।

यदि आपका पड़ोसी भूखा सो रहा है और आप पूजा पाठ करने में मस्त है, तो यह मत सोचिये कि आपके द्वारा शुभ कार्य हो रहा है क्योंकि भूखा व्‍यक्ति उसी की छवि है, जिसे पूजा-पाठ करके आप प्रसन्न करना या रिझाना चाहते है। क्या वह सर्व व्यापक नही है? ईश्‍वर द्वारा सृजित किसी भी जीव व संरचना की उपेक्षा करके प्रभु भजन करने से प्रभु कभी प्रसन्न नहीं होगे।

प्रेरक प्रसंग, बोध कथा


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13 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

ज्ञानवर्द्धक उत्तम प्रसंग. आभार.

Atul Chauhan ने कहा…

धार्मिक विषय पर अच्छी जानकारी है।

Srijan Shilpi ने कहा…

बढ़िया प्रसंग सुनाया। प्रेरक सदुपदेश।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

अत्युत्तम लिखा है।

बेनामी ने कहा…

वैसे तो प्रसंग प्रेरक है....लेकिन मेरे कुछ सवाल हैं...

"उनहोनें देखा कि एक लड़का नदी में गोते खा रहा है। नजदीक ही, एक सन्‍यासी ऑखें मूँदे बैठा था। ज्ञानेश्वर महाराज तुरंत नदी में कूदे, डूबते लड़के को बाहर निकाला और फिर सन्‍यासी को पुकारा।"

माफ़ कीजिये, मुझे तो लगता है कि ज्ञानेश्वर महाराज का भगवान् पर विश्वास नहीं था. अगर होता, तो वे इस बात को स्वीकार कर लेते कि 'अगर लड़का नदी में डूबा, तो भी भगवान् की इच्छा की वजह से.' .....या फिर भगवान् ज्ञानेश्वर को महान और उस साधु को 'टुच्चा' साबित करने में लगे थे.

"प्रभु की सृष्टि, प्रभु का बगीचा बिगड़ रहा है1 बगीचे का आनन्‍द लेना है, तो बगीचे का सँवरना सीखे।"

प्रभु का बगीचा अगर बिगड़ता तो वो भी प्रभु की वजह से ही बिगड़ता....उन्होंने ही तो कहा है कि संसार में जो कुछ हो रहा है, सब उन्ही की वजह से हो रहा है.

Mohinder56 ने कहा…

उत्तम प्रसंग है..मानव सेवा मूर्ती पूजा या किसी भी अन्य धर्मकाण्ड से कहीं ऊपर है....धर्म केवल एक मार्ग है परन्तु सेवा एक कार्य एक यथार्त एक यात्रा.

ghughutibasuti ने कहा…

प्रसंग अच्छा है, किन्तु बेनामी जी की बातें भी विचारणीय हैं ।
घुघूती बासूती

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

बेनामी जी, कहने को तो कई बातें कही जा सकती है, किन्‍तु कर्म किये बिना कुछ सम्‍भव नही है। हॉं गाड़ी भगवान भरोसे जरूर चलती है किन्‍तु ड्राइविंग सीट पर बैठ कर भगवान भरोसे गाड़ी नही चलाई जा सकती है। आपको अपना कर्म करना ही होगा। अपना कर्म किये बिना कुछ सम्‍भव नही है।
राम को भी भगवान होने के बाद भी केवट की नाव को चढ़ना पड़ा था यह एक समाजिक परिवेश की बात है वह साम्‍यता लाना चाहते थे, ऐसा नही था कि रावड़ को पराजित करने के लिये भगवान को बानर सेना की जरूरत थी किन्‍तु वह एकता को प्रर्दशित करना चाहते थे। भगवान करता तो स्‍वंय है किन्‍तु माध्‍यम हममें से किसी एक को चुनता है।

प्रकृति का नियम है कि सामान्‍य किस्‍म को सुधारने कि लिये दुष्‍ठ और दुष्‍टों के लिये महा दुष्‍ट और महादुष्‍टों के लिये सज्‍जनों की ही जरूरत होती है। निश्चित रूप से यह उसी का नियम है।

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

अन्‍य सभी सज्‍जनों को आभार

Sanjeet Tripathi ने कहा…

बढ़िया!!
शुक्रिया!!

Admin ने कहा…

बेनामी जी अगर आप नाम लिखते तो मजा आता। हां ईश्वर ने विवेक दयलिए दिया ताकि हम हर पल उस पर निर्भर ना रहें। शेष महाशक्ति को बधाई

राजेंद्र माहेश्वरी ने कहा…

साधु ने स्वप्न देखा कि दोनों हाथों में ऊँचे डंडे ल्रकर वह मोक्षमहल की उपरी मंजिल पर चढ़ने का प्रयास कर रहा है, किंतु चढ़ने में असफल रहता है। कुछ समझ में नही आता की क्या करे। पास ही में खड़े एक बुजुर्ग ने देखा तो वे हँसने लगे और साधु से पूँछा की वे क्या कर रहें? साधू ने कहा-मेरे पास सम्यक ज्ञान और सम्यक दर्शन के दो डंडे है, इनके सहारे मोक्षमहल की ऊपरी मंजिल पर जाना चाहता हूँ, किंतु चढ़ नही पाता, कृपया आप ही मार्गदर्शन करे। बूढे ने कहा-स्वामी जी सम्यक ज्ञान और सम्यक दर्शन के दो डंडो में जब तक सम्यक चारित्र्य की आड़ी सीढियाँ न लगाओगे, तब तक किस पर पैर रख कर ऊपर बढ़ सकोगे। आख़िर टिकने के लिए कुछ तो अवलंबन चाहिए। बिना चरित्र के ज्ञान, कर्म, दर्शन, भक्ति, साधना-उपासना सब कुछ अपूर्ण है। मोक्ष तो नितांत असंभव है।

राजेंद्र माहेश्वरी ने कहा…

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