आईना देखें शहनावाज, कितने बड़े मुस्लिम नेता है ?



आज वरूण गांधी को कोसा जा रहा है, वे भड़काऊँ बयान दे रहे है। वरूण गांधी जो कर रहे है इस काम का विश्‍लेषण करना चुनाव आयोग का काम है। परन्‍तु भारतीय जनता पार्टी के अंदर अपने अस्तित्‍व को बचाये रखने वाले शहनावज हुसैन और मुख्‍तार अब्‍बास नकवी के जो बयान आये वो निन्‍दनीय ही नही सर्वथा भारतीय राजनीति की पराकाष्‍ठा पर चोट करने वाले थे। शहनावज का बयान किसी भारतीय जनता पार्टी के नेता बयान न लग कर किसी मौलवी का बयान ज्‍यादा लग रहा था।

अखिर वरूण गांधी ने क्‍या गलत कहा कि जो भारतीय जनता पार्टी को अपने दोयम दर्जे के कार्यालय में बैठने वाले मुस्लिम मुखौटो को आगे लाना पड़ा ? भारतीय जनता पार्टी को बार थूक कर चाटने की आदत जो पड़ गई है। शाहनवाज हुसैन यह भूल जाते है कि जहां कही से वे चुनाव लड़ते है वहां उन्हें उतने मुस्लिम भी वोट नहीं मिलते जितने उनके नाक में बाल होते होंगे। शाहनवाज हुसैन को यह भी नही भूलना चाहिये कि उनके जैसे सैकड़ों नेता आज सेक्युलर पार्टियों के आकाओं तलवे रहे है तब पर भी उन्हें वो स्थान नहीं मिला जो उन्हें भारतीय जनता पार्टी जैसे साम्‍प्रदायिक पार्टी में मिल रहा है। आज तक शहनावज हुसैन अगर सांसद या विधायक बने है तो सिर्फ उन हिन्‍दू वोटों के से जिनकी रक्षा करने का प्रण वरुण गांधी ने किया था।

मैने अपने पिछले लेख में जो कुछ कहा था मुझे अनुमान नही था कि आज फिर से उस लेख का स्मरण करना पड़ेगा। अन्याय का प्रतिकार करना किस किताब में लिखा है कि गलत है ? उनका सिर्फ इतना ही करना था कि हिंदुओं की तरफ उठने वाले हाथो को वरुण गांधी काट डालेगा। तो इसमें गलत क्‍या है? आखिर जब तक कोई हाथ हिन्दुओं पर नही उठेगा तब तक काटने का प्रश्न नहीं उठता किन्तु जब गोधरा की भांति कोई हाथ उठाता है तो गुजरात की भांति उनका प्रतिकार न करना कहाँ तक उचित होगा? देश के सभी नागरिक देश के पूत बन कर रहे यह किसे अच्छा नहीं लगेगा किन्‍तु देश की छाती पर मूँग दलने वाले को संरक्षण देना समझ के परे की बात है।

सर्वप्रथम तो इस देश की सबसे बड़ी रही है कि मुस्लिमों को भारतीय जनमानस में एक भारतीय की तरह जोड़ने की कोशिश ही नही की गई। सर्वथा उन्‍हे एक वोट बैंक की तरह उपयोग किया गया। आज यही कारण है कि मुस्लिम समाज भारतीय जन भावनाओं की जड़ो तक नहीं पहुंच पा रहा है। वह आतंक और बाहुबल के बल पर इस देश में अपना राजनैतिक बर्चस्‍व कायम करना चाहते है। इसके उदाहरण के तौर पर शहबुद्दीन, अतीक अहमद उनके भाई अफजल, मुख्‍तार अंसारी तथा अनेक ऐसे नाम है जिन्‍होने सत्‍ता की सीढि़याँ चड़ने के लिये खून से अपने हाथ रंगे है। मुझे याद है कि किस प्रकार 26 जनवरी के दिन मुलायम की सत्‍ता के संगरक्षण में बसपा के विधायक राजूपाल को सड़को पर दौड़ा-दोड़ा कर मारा गया। जिसके मुख्‍य आरोपी अतीक अहमद और उनके भाई अफजल थे, कारण सिर्फ इतना था कि इलाहाबाद शहर पश्चिमी मे लोकतंत्र की जीत हुई थी। बसपा के विधायक ने अ‍तीक की इस सीट को उनके हाथो से छीन ली। इस घटना के साथ ही साथ एक घटना और याद आती है कि इलाहाबाद में एक मस्जित के समाने कुरान के पन्‍ने फटे पाये जाते है और पूरा शहर सम्‍प्रदायिक दंगो के आतंक से कफ्यू में चला जाता है, जॉंच के बाद मुस्लिम लड़को का ही हाथ समाने आता है। आगरा में भी एक घटना घटती है जिसमें एक ट्रक की टक्‍कर से एक मुस्लिम लड़के की मौत हो जाती है और मुस्लिम तत्‍वो ने पूरे आगरा शहर में हिन्‍दुओं की दुकानो को चुन चुन कर तोड़ा। आखिर इन सबके पीछे मंशा क्‍या होती है, इसे उजागर करना होगा।
कांग्रेस हो या सपा या अन्‍य धर्मर्निपेक्ष दल, यदि ये मुस्लिमो को सन्‍तुष्‍ट करने हिंसक नीतियो का हमेशा सर्मथन करती है। वे मुस्लिमों को देश की मुख्यधारा में जोड़ना ही नही चाहते है। इसीलिये तो देश में उनके लिये भी अलग से आरक्षण की मांग की जाती है। मै नही मानता की वरुण गांधी ने जो कहा वो गलत है किन्तु यह जरूर गलत है कि आज भारतीय जनता पार्टी कुछ कार्यालयी नेता मुस्लिम परस्ती दिखाने के लिये वरुण का विरोध कर रहे है।
चलते चलते रामचरित मानस की ये पंक्तियां याद करना चाहूँगा -

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति



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मुस्लिमो के उत्‍थान से अल्‍ला‍ह नाराज नही होगें



आज की परिस्थितियों में यह देखने में आता है कि जो व्‍यक्ति हिन्दू हितों की बात करता है उसे साम्‍प्रदायिक कहा जाता है किन्तु मुस्लिम चोला ओड़ते ही सब धर्मनिर्पेक्ष ताकत हो जाते है। यह कहना गलत न होगा कि मऊ दंगों में जो कुछ मुस्लिमों ने किया उसे तत्कालीन मुलायम प्रशासन का मौन समर्थन प्राप्त था। किन्तु मुस्लिम वोट बैंक के आड़ में मुलायम यह भूल गये कि वोट बैंक से ज्यादा उनके वे यादव समाज के लोग जो सुबह घर से दूध लेकर निकले थे किंतु शाम को उनकी लाशे घर पहुँची। आज जिस मुख्तार अंसारी को मुलायम ने समर्थन दिया था, वो आज मायावती के तलवे चाट रहा है। राजनीति में कोई अपना नही होता है, मुलायम भी यादव समाज के अपने नहीं हुए। हो सकता है मित्र अभिषेक को यह बाते बुरी लग रही हो।

तत्कालीन परिस्थितियों किसी मीडिया वाले को बोलने की हिम्मत नहीं हुई कि किस प्रकार मऊ दंगे में सत्ता के संरक्षण में मुख्तार का दंगाई चेहरा भी देखने को मिला। इस दौर में अकेले गाजीपुर में दो दर्जन से ज्यादा मुख्तार विरोधियों की हत्या हुई। तब कौन मरा था ?

हर वर्ष गुजरात दंगों की बर्थडे पर मीडिया वाले पहुँच जाते है मुस्लिमों के परिवारों का दर्द देश के सामने दिखाने को किन्तु आज तक किसी ने मऊ और गाजीपुर के हिन्दू पीड़ित घरों में किसी ने झांकने की कोशिश की ? इसकी जरूरत इसलिए नहीं पड़ी क्योंकि हिन्दू तो कभी वोट बैंक रहा ही नही। कांग्रेस पडि़तो को ले गई, भाजपा बनियो को, सपा यादव छत्रिय और हरिजन मायावती की संपत्ति है। इसलिये उनके वोट की कीमत नहीं है। 20% मुस्लिम आज 80% हिन्दू वोट पर भारी पड़ते है। यह परिवर्तन लाना ही होगा।

तुष्टिकरण की नीति बदलना होगा, चाहे हिंदू हो मुसलमान, जिसे भारत में रहना होगा उसे भारतवासी बनकर ही रहना होगा। यह कैसी नीति है कि भारत माता की जय या वंदे मातरम बोलने में मुस्लिम धर्म का वजूद खतरे में पड़ जाता है? जो धर्म मातृभूमि की इबादत करने को नाजायज ठहराता हो, उस धर्म की मानसिकता को भली भांति से समझा जा सकता है। मुस्लिम समाज अपना उत्थान तभी कर सकता है जबकि वह फतवों की जकड़ से निकल सके। नहीं तो हर दिन नये नये शोध समाने आते है- कि कंडोम का प्रयोग नाजायज है, नसबंदी करवाने से अल्लाह रूठ जायेगा। इन फतवों से ऊब कर अल्लाह तो अल्लाह मुस्लिमों की किस्मत भी रूठ गई। जो विकास के मार्ग में रुके पड़े है। मुस्लिमो को विकसित और विकासशील मुस्लिम देशो से सीख लेनी चाहिए, जो कंडोम का उपयोग कर रहे है और नसबंदी भी करवा रहे है, और उनसे अल्लाह भी खुश है और उसकी किसमत भी जिससे वे तो वे उनका देश भी उन्नति कर रहा है।


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उत्‍तर प्रदेश सरकार का मंत्री निकला मेरा सहपाठी है, 2 माह के लिये परीक्षा निरस्‍त



अत्यंत हर्ष का विषय है, कि गिरीश बिल्लोरे '' मुकुल'' की तरफ से दिनांक 14 को आयोजित ''बावरे फकीरा'' सीडी एल्बम के विमोचन का कार्यक्रम आयोजित कर रहे है। जब श्री गिरीश जी ने इस कार्यक्रम की सूचना मुझे दी, मुझे बहुत ही अच्छा लगा। मै स्वयं इस कार्यक्रम का हिस्सा बनना चाह रहा था किन्तु मेरी परीक्षा 17 मार्च से प्रारंभ होने को थी किन्तु मुझे आज ही पता चला कि मेरी परीक्षाएं अब स्थगित होकर 18 मई को प्रारंभ होगी। खबर है कि उत्तर प्रदेश सरकार का कोई मंत्री मेरा सहपाठी है और चुनाव के चलते वो परीक्षा देने में असमर्थ है इस लिये विश्वविद्यालय प्रशासन को यह निर्णय लेना पड़ा। भला हो मंत्री का कि कल तक मेरे हाथ में किताब थी आज कीबोर्ड है। :) जब परीक्षा देने जाऊँगा तो मुंह से निकलेगा सत्यानाश हो मंत्री का की मई-जून की गर्मी में पेपर देना पड़ा रहा है। 



जब मेरी श्री गिरीश जी से बात हुई थी तो उन्होंने मुझे इस विमोचन कार्यक्रम में मुझे हार्दिक निमत्रित किया। उनका निमंत्रण मेरे लिये आदेश के समान था किन्‍तु जब मैने अपनी परिस्थिति उनके सामने रखी तो उन्‍होने कहा कि तुम्‍हारा काम ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है, आप उसे करों। साथ ही साथ उन्होने मुझे आदेश दिया कि मै महाशक्ति व महाशक्ति समूह के पाठकों को इस कार्यक्रम का खुला आमंत्रण दूँ ताकि वो इस कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर, कार्यक्रम की शोभा में चार-चाँद लगाये।
यह कार्यक्रम तथा ''बावरे फकीरा'' कई मायनों में महत्‍वपूर्ण है। बावरे फकीरा की सीडी में आवाज दिया है, उभरते सितारे आभास जोशी जो कई टैलेंट हंट प्रतियोगिता में सहभागिता की थी। इस सीडी के बारे में यह भी बताना चाहूंगा कि यह पूरा काम निस्वार्थ भाव से विकलांग बच्‍चों के सहायतार्थ आयोजित किया जा रहा है। इस सीडी से प्राप्त संपूर्ण धन इन बच्‍चों के ऊपर खर्च किया जायेगा।

खैर, आप सभी कार्यक्रम के अंग बने, और कार्यक्रम को सफल बनाये, अगर मै अब भी कोई ट्रेन या बस पकडूँगा तब पर भी नहीं पहुंच पाउंगा। कार्यक्रम की सफलता के की कामना करता हूँ, और आग्रह करता हूँ कि कल्याणार्थ सीडी को एक बार जरूर सुने।



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पैमाने पर दोहरे मापदंड कितने सही ?



आज टहलते-घूमते डॉक्टर कविता वाचक्नवी के एक ब्लॉग बालसभा पर पहुँचना हुआ। उनका एक लेख मेरे एक लेख को लेकर लिखा गया था। लेखो पर प्रतिक्रियात्‍मक लेख प्राप्‍त होना बहुत कम लोगो को नसीब होता है। मेरे पिछले लेख पिता बच्‍चे को मार दे तो यह भी मीडिया की खबर होती है मैने सम्‍पूर्ण बाते इकोनामिक्‍स टाईम्स से साभार लिया था। सिर्फ मैने इतना अपनने मन से लिखा था। नोट : इस पोस्‍ट को बाल हिंसा के सर्मथन के रूप में न देखा जाये, हमें न पता था कि पुत्र और पिता के रिश्‍तो में मीडिया भूमिका अहम हो जायेगी। जो भी इस पोस्‍ट को पढ़ रहा होगा, कभी न कभी वह अपने पिता-माता-भाई से मार न खाया हो। अगर खाया भी होगा तो शायद ही आज उस मार की किसी को खुन्‍नस होगी ?
 
मै मारपीट तथा हिंसा वृत्ति का समर्थन नही कर रहा किन्तु एक यर्थात बात सामने रखना चाह रहा था। आज अगर उस लड़के की पिटाई हुई तो सिर्फ मीडिया के कारण। क्योंकि उसने मीडिया के सम्मुख आने का मना कर रहा था। कविता जी के ब्लॉग पर भी एक टिप्पणी पढ़ने को मिली वह भी मजेदार थी। यहाँ मजा लेना मेरा मकसद नहीं था। बात को हकीकत तक ले जाना था। आज देश में बच्‍चो के साथ क्‍या क्‍या हो रहा है उससे किसी को सरोकार नहीं होता, किन्तु वही अगर किसी सेलिब्रिटी के बच्चे या सेलिब्रिटी बच्‍चे की बात आती है तो पूरा मीडिया झूम उठता है। आखिर सामान्‍य बच्चे की चिंता मीडिया को क्यो नही होती है ? क्योंकि उससे मीडिया को पब्लिसिटी जो नही मिलती है।

उस लेख से मेरा तात्पर्य यही था कि पिता-पुत्र का कोई रिश्ता दुश्मनी का नही होता जो तत्काल में मीडिया ने उस मामले में प्रस्तुत किया था। आज बाल श्रम की बात होती है तो फिल्‍म और टेलीविजन पर काम करने वाले बच्‍चो पर यह क्यों लागू नहीं होता है? आखिर इन बच्चों को मीडिया को भी कमाना रहता है। बालिका वधू के हर एपिसोड की कहानी हर न्‍यूज चैनल पर प्रकाशित होती है और तो और उनके इंटरव्‍यूह का भी घंटों लाइव प्रसारण किया जाता है। क्या सिर्फ होटल और घर में काम करने वाले बच्चो के लिये ही बाल श्रम कानून है। मीडिया और व्यावहारिकता में इसकी दोहरी नीतियों का विश्लेषण होना चाहिये। भावुक होना ही नहीं जागृत होना भी जरूरी है।


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