सती शिव की कथा



दक्ष प्रजापति की अनेको पुत्रियां थी। सभी पुत्रियां गुणवती थीं किन्तु दक्ष के मन में संतोष नहीं था। वे चाहते थे, उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो शक्ति-संपन्न हो। सर्व-विजयिनी हो। दक्ष एक ऐसी पुत्री के लिए तप करने लगे। तप करते-करते अधिक दिन बीत गए, तो भगवती आद्या ने प्रकट होकर कहा, 'मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं। मैं स्वयं पुत्री रूप में तुम्हारे यहां जन्म लूँगी, मेरा नाम होगा सती। मैं सती के रूप में जन्म लेकर अपनी लीलाओं का विस्तार करूंगी।' फलतः भगवती आद्या ने सती रूप में दक्ष के यहां जन्म लिया। सती दक्ष की सभी पुत्रियों में अलौकिक थीं। उन्होंने बाल्यकाल में ही कई ऐसे अलौकिक कृत्य कर दिखाए थे, जिन्हें देखकर स्वयं दक्ष को भी विस्मय की लहरों में डूब जाना पड़ा।
जब सती विवाह योग्य हुई, तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता हुई। उन्होंने ब्रह्मा जी से परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, 'सती आद्या का अवतार हैं। आद्या आदिशक्ति और शिव आदि पुरुष हैं। अतः सती के विवाह के लिए शिव ही योग्य और उचित वर हैं।' दक्ष ने ब्रह्मा जी की बात मानकर सती का विवाह भगवान शिव के साथ कर दिया। सती कैलाश में जाकर भगवान शिव के साथ रहने लगीं। यद्यपि भगवान शिव के दक्ष के जामाता थे, किंतु एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण दक्ष के हृदय में भगवान शिव के प्रति बैर और विरोध पैदा हो गया। *घटना इस प्रकार थी— एक बार ब्रह्मा ने धर्म के निरूपण के लिए एक सभा का आयोजन किया था। सभी बड़े-बड़े देवता सभा में एकत्र थे। भगवान शिव भी एक ओर बैठे थे। सभा मंडल में दक्ष का आगमन हुआ। दक्ष के आगमन पर सभी देवता उठकर खड़े हो गए, पर भगवान शिव खड़े नहीं हुए। उन्होंने दक्ष को प्रणाम भी नहीं किया। फलतः दक्ष ने अपमान का अनुभव किया। केवल यही नहीं, उनके हृदय में भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या की आग जल उठी। वे उनसे बदला लेने के लिए समय और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। भगवान शिव को किसी के मान और किसी के अपमान से क्या मतलब? वे तो समदर्शी हैं। उन्हें तो चारों ओर अमृत दिखाई पड़ता है। जहां अमृत होता है, वहां कड़वाहट और कसैलेपन का क्या काम?
भगवान शिव कैलाश में दिन-रात राम-राम कहा करते थे। सती के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो उठी। उन्होंने अवसर पाकर भगवान शिव से प्रश्न किया, 'आप राम-राम क्यों कहते हैं? राम कौन हैं?' भगवान शिव ने उत्तर दिया, 'राम आदि पुरुष हैं, स्वयंभू हैं, मेरे आराध्य हैं। सगुण भी हैं, निर्गुण भी हैं।' किंतु सती के कंठ के नीचे बात उतरी नहीं। वे सोचने लगीं, अयोध्या के नृपति दशरथ के पुत्र राम आदि पुरुष के अवतार कैसे हो सकते हैं? वे तो आजकल अपनी पत्नी सीता के वियोग में दंडक वन में उन्मत्तों की भांति विचरण कर रहे हैं। वृक्ष और लताओं से उनका पता पूछते फिर रहे हैं। यदि वे आदि पुरुष के अवतार होते, तो क्या इस प्रकार आचरण करते? सती के मन में राम की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ। सीता का रूप धारण करके दंडक वन में जा पहुंची और राम के सामने प्रकट हुईं। भगवान राम ने सती को सीता के रूप में देखकर कहा, 'माता, आप एकाकी यहाँ वन में कहां घूम रही हैं? बाबा विश्वनाथ कहां हैं?' राम का प्रश्न सुनकर सती से कुछ उत्तर देते न बना। वे अदृश्य हो गई और मन ही मन पश्चाताप करने लगीं कि उन्होंने व्यर्थ ही राम पर संदेह किया। राम सचमुच आदि पुरुष के अवतार हैं। सती जब लौटकर कैलाश गयी, तो भगवान शिव ने उन्हें आते देख कहा, 'सती, तुमने सीता के रूप में राम की परीक्षा लेकर अच्छा नहीं किया। सीता मेरी आराध्या हैं। अब तुम मेरी अर्धांगिनी कैसे रह सकती हो! इस जन्म में हम और तुम पति और पत्नी के रूप में नहीं मिल सकते।' शिव जी का कथन सुनकर सती अत्यधिक दुखी हुईं, पर अब क्या हो सकता था। शिव जी के मुख से निकली हुई बात असत्य कैसे हो सकती थी? शिव जी समाधिस्थ हो गए। सती दुख और पश्चाताप की लहरों में डूबने उतारने लगीं।
उन्हीं दिनों सती के पिता कनखल में बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने यज्ञ में सभी देवताओं और मुनियों को आमंत्रित किया था, किंतु शिव जी को आमंत्रित नहीं किया था, क्योंकि उनके मन में शिव जी के प्रति ईर्ष्या थी। सती को जब यह ज्ञात हुआ कि उसके पिता ने बहुत बड़े यज्ञ की रचना की है, तो उनका मन यज्ञ के समारोह में सम्मिलित होने के लिए बेचैन हो उठा। शिव जी समाधिस्थ थे। अतः वे शिव जी से अनुमति लिए बिना ही वीरभद्र के साथ अपने पिता के घर चली गई।
कहीं-कहीं सती के पितृगृह जाने की घटना का वर्णन एक दूसरे रूप में इस प्रकार मिलता है— एक बार सती और शिव कैलाश पर्वत पर बैठे हुए परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय आकाश मार्ग से कई विमान कनखल की ओर जाते हुए दिखाई पड़े। सती ने उन विमानों को देखकर भगवान शिव से पूछा, 'प्रभो, ये सभी विमान किसके है और कहां जा रहे हैं?'
भगवान शंकर ने उत्तर दिया, 'आपके पिता ने यज्ञ की रचना की है। देवता और देवांगनाएं इन विमानों में बैठकर उसी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए जा रहे हैं।'
सती ने दूसरा प्रश्न किया, 'क्या मेरे पिता ने आपको यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए नहीं बुलाया?'
भगवान शंकर ने उत्तर दिया, 'आपके पिता मुझसे बैर रखते है, फिर वे मुझे क्यों बुलाने लगे?'
सती मन ही मन सोचने लगीं, फिर बोलीं, 'यज्ञ के अवसर पर अवश्य मेरी बहनें आएंगी। उनसे मिले हुए बहुत दिन हो गए। यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं भी अपने पिता के घर जाना चाहती हूं। यज्ञ में सम्मिलित हो लूंगी और बहनों से भी मिलने का सुअवसर मिलेगा।'
भगवान शिव ने उत्तर दिया,'इस समय वहां जाना उचित नहीं होगा। आपके पिता मुझसे जलते हैं,हो सकता है वे आपका भी अपमान करें। बिना बुलाए किसी के घर जाना उचित नहीं होता'
भगवान शिव ने उत्तर दिया,'हां, विवाहिता लड़की को बिना बुलाए पिता के घर नहीं जाना चाहिए, क्योंकि विवाह हो जाने पर लड़की अपने पति की हो जाती है। पिता के घर से उसका संबंध टूट जाता है।' किंतु सती पीहर जाने के लिए हठ करती रहीं। अपनी बात बार-बात दोहराती रहीं। उनकी इच्छा देखकर भगवान शिव ने पीहर जाने की अनुमति दे दी। उनके साथ अपना एक गण भी कर दिया, उस गण का नाम वीरभद्र था। सती वीरभद्र के साथ अपने पिता के घर गईं, किंतु उनसे किसी ने भी प्रेमपूर्वक वार्तालाप नहीं किया। दक्ष ने उन्हें देखकर कहा,'तुम क्या यहाँ मेरा अपमान कराने आई हो? अपनी बहनों को तो देखो, वे किस प्रकार भांति-भांति के अलंकारों और सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित हैं। तुम्हारे शरीर पर मात्र बाघंबर है। तुम्हारा पति श्मशान वासी और भूतों का नायक है। वह तुम्हें बाघंबर छोड़कर और पहना ही क्या सकता है।' दक्ष के कथन से सती के ह्रदय में पश्चाताप का सागर उमड़ पड़ा। वे सोचने लगीं, ‘उन्होंने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया। भगवान ठीक ही कह रहे थे, बिना बुलाए पिता के घर भी नहीं जाना चाहिए। पर अब क्या हो सकता है? अब तो आ ही गई हूं।'
पिता के कटु और अपमानजनक शब्द सुनकर भी सती मौन रहीं। वे उस यज्ञमंडल में गईं जहां सभी देवता और ऋषि-मुनि बैठे थे तथा यज्ञ कुंड में धू-धू करती जलती हुई अग्नि में आहुतियां डाली जा रही थीं। सती ने यज्ञ मंडप में सभी देवताओं के तो भाग देखे, किंतु भगवान शिव का भाग नहीं देखा। वे भगवान शिव का भाग न देखकर अपने पिता से बोलीं, 'पितृश्रेष्ठ! यज्ञ में तो सबके भाग दिखाई पड़ रहे हैं, किंतु कैलाशपति का भाग नहीं है। आपने उनका भाग क्यों नहीं दिया?' दक्ष ने गर्व से उत्तर दिया, 'मै तुम्हारे पति कैलाश को देवता नहीं समझता। वह तो भूतों का स्वामी, नग्न रहने वाला और हड्डियों की माला धारण करने वाला है। वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नहीं हैं। उसे कौन भाग देगा।
सती के नेत्र लाल हो उठे। उनकी भौंहे कुटिल हो गईं। उनका मुखमंडल प्रलय के सूर्य की भांति तेजोद्दीप्त हो उठा। उन्होंने पीड़ा से तिलमिलाते हुए कहा,'ओह! मैं इन शब्दों को कैसे सुन रहीं हूं, मुझे धिक्कार है। देवताओ, तुम्हें भी धिक्कार है! तुम भी उन कैलाशपति के लिए इन शब्दों को कैसे सुन रहे हो, जो मंगल के प्रतीक हैं और जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। वे मेरे स्वामी हैं। नारी के लिए उसका पति ही स्वर्ग होता है। जो नारी अपने पति के लिए अपमानजनक शब्दों को सुनती है, उसे नरक में जाना पड़ता है। पृथ्वी सुनो, आकाश सुनो और देवताओं, तुम भी सुनो! मेरे पिता ने मेरे स्वामी का अपमान किया है। मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती।' सती अपने कथन को समाप्त करती हुई यज्ञ के कुण्ड में कूद पड़ी। जलती हुई आहुतियों के साथ उनका शरीर भी जलने लगा। यज्ञमंडप में खलबली पैदा हो गई, हाहाकार मच गया। देवता उठकर खड़े हो गए। वीरभद्र क्रोध से कांप उटे। वे उछ्ल-उछलकर यज्ञ का विध्वंस करने लगे। यज्ञमंडप में भगदड़ मच गई। देवता और ऋषि-मुनि भाग खड़े हुए। वीरभद्र ने देखते ही देखते दक्ष का मस्तक काटकर फेंक दिया। समाचार भगवान शिव के कानों में भी पड़ा। वे प्रचंड आंधी की भांति कनखल जा पहुंचे। सती के जले हुए शरीर को देखकर भगवान शिव ने अपने आपको भूल गए। सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने शंकर के मन को व्याकुल कर दिया। उन शंकर के मन को व्याकुल कर दिया, जिन्होंने काम पर भी विजय प्राप्त की थी और जो सारी सृष्टि को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। वे सती के प्रेम में खो गए, बेसुध हो गए।
भगवान शिव ने उम्मत की भांति सती के जले हुए शरीर को कंधे पर रख लिया। वे सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। शिव और सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गई, हवा रूक गई, जल का प्रवाह ठहर गया और रुक गईं देवताओं की सांसे। सृष्टि व्याकुल हो उठी, सृष्टि के प्राणी पुकारने लगे— पाहिमाम! पाहिमाम! भयानक संकट उपस्थित देखकर सृष्टि के पालक भगवान विष्णु आगे बढ़े। वे भगवान शिव की बेसुधी में अपने चक्र से सती के एक-एक अंग को काट-काट कर गिराने लगे। धरती पर इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे। जब सती के सारे अंग कट कर गिर गए, तो भगवान शिव पुनः अपने आप में आए। जब वे अपने आप में आए, तो पुनः सृष्टि के सारे कार्य चलने लगे।
धरती पर जिन इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे थे, वे ही स्थान आज शक्ति के पीठ स्थान माने जाते हैं। आज भी उन स्थानों में सती का पूजन होता हैं, उपासना होती है। धन्य था शिव और सती का प्रेम। शिव और सती के प्रेम ने उन्हें अमर बना दिया है, वंदनीय बना दिया है।


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वेद- Veda



वेद- Veda

वेद(४)
1. ऋग्वेद,
2. यजुर्वेदवेद,
3. सामवेद,
4.अथर्ववेद
वेद शब्द संस्कृत भाषा के "विद्" धातु से बना है जिसका अर्थ है: जानना, ज्ञान इत्यादि। वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है । वेदों को श्रुति भी कहा जाता है, क्योंकि पहले मुद्रण की व्यवस्था न होने से इनको एक दूसरे से सुन- सुनकर याद रखा गया इस प्रकार वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक/श्रुति = श्रवण परम्परा की अनुपम कृति है जो पीढी दर पीढी पिछले चार-पाँच हजार वर्षों से चली आ रही है । वेद ही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्म ग्रन्थ हैं ।
वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक ज्ञान देना ही है। अतः वेद में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड - इन दोनों विषयों का सर्वांगीण निरुपण किया गया है। वेदों का प्रारम्भिक भाग कर्मकाण्ड है और वह ज्ञानकाण्ड वाले भाग से अधिक है। जिन अधिकारी वैदिक विद्वानों को यज्ञ कराने का यजमान द्वारा अधिकार प्राप्त होता है, उनको ‘ऋत्विक’ कहते हैं। श्रौतयज्ञ में इन ऋत्विकों के चार गण हैं। (१) होतृगण, (२) अध्वर्युगण, (३) उद्गातृगण तथा (४) ब्रह्मगण। उपर्युक्त चारों गणों के लिये उपयोगी मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेद चार हुए हैं।
(१) ऋग्वेद- इसमें होतृवर्ग के लिये उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें ‘ऋक्’ संज्ञक (पद्यबद्ध) मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ऋग्वेद हुआ। इसमें होतृवर्ग के उपयोगी गद्यात्मक (यजुः) स्वरुप के भी कुछ मन्त्र हैं।
(२) यजुर्वेद- इसमें यज्ञानुष्ठान सम्बन्धी अध्वर्युवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें ‘गद्यात्मक’ मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ‘यजुर्वेद’ है। इसमें कुछ पद्यबद्ध, मन्त्र भी हैं, जो अध्वर्युवर्ग के उपयोगी हैं। यजुर्वेद के दो विभाग हैं- (क) शुक्लयजुर्वेद और (ख) कृष्णयजुर्वेद।
(३) सामवेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें गायन पद्धति के निश्चित मन्त्र होने के कारण इसका नाम सामवेद है।
(४) अथर्ववेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। अथर्व का अर्थ है कमियों को हटाकर ठीक करना या कमी-रहित बनाना। अतः इसमें यज्ञ-सम्बन्धी एवं व्यक्ति सम्बन्धी सुधार या कमी-पूर्ति करने वाले मन्त्र भी है। इसमें पद्यात्मक मन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध है। इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द-शैली के आधार पर नहीं है, अपितु इसके प्रति पाद्य विषय के अनुसार है। इस वैदिक शब्द राशि का प्रचार एवं प्रयोग मुख्यतः अथर्व नाम के महर्षि द्वारा किया गया। इसलिये भी इसका नाम अथर्ववेद है।


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शिव शून्य हैं



प्रायः हम प्रकाश को सत्य, ज्ञान , शुभ, पुण्य तथा सात्विक शक्तियों का द्योतक समझते हैं तथा अंधकार की तुलना अज्ञान, असत्य जैसे अवगुणों से करते हैं। फिर शिव "रात्रि" क्यों? क्यों शिव को अंधकार पसंद है? क्यों महाशिवरात्रि शिव भक्तों के लिए सर्वाधिक महत्व रखता है?
वस्तुतः अंधकार की तुलना अज्ञान तथा अन्य असात्विक गुणों से करना ही सबसे बड़ी भ्रांति है। वास्तव में अंधकार एवं प्रकाश एक दूसरे के पूरक हैं जैसे शिव और उनकी सृष्टी । अंधकार शिव हैं, प्रकाश सृष्टी । जो भी हम देखते हैं … धरती, आकाश, सूर्य, चंद्र, ग्रह नक्षत्र, जीव, जंतु, वृक्ष, पर्वत, जलाशय, सभी शिव की सृष्टी हैं, जो नहीं दिखता है वह शिव हैं। जिस किसी का भी स्रोत होता है, आदि होता है, उसकी एक निर्धारित आयु होती है तथा उसका अंत भी होता है। प्रकाश का एक स्रोत होता है । प्रकाशित होने के लिए स्रोत स्वयं को जलता है तथा कुछ समय के उपरांत उसकी अंत भी होता है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि प्रकाश का स्रोत क्या है, वह सूर्य समान विशाल है या दीपक सामान छोटा, अथवा उसकी आयु कितनी है। महत्वपूर्ण यह है कि उसकी एक आयु है। क्योंकि प्रकाश का स्रोत होता है, श्रोत के अभाव में प्रकाश का भी अभाव हो जाता है। आँख के बंद कर लेने से अथवा अन्य उपायों से व्यवधान उत्पन्‍‌न कर पाने कि स्थिति में प्रकाश आलोपित हो सकता है। क्योंकि प्रकाश कृत्रिम है।
अंधकार अनादि है, अनंत है, सर्वव्यापी है। अंधकार का कोई स्रोत नहीं होता अतः उसका अंत भी नहीं होता। कृत्रिम उपचारों से प्रकाश की उपस्थिति में हमें अंधकार के होने का आभास नहीं होता, पर जैसे ही प्रकाश की आयु समाप्त होती है हम अंधकार को स्थितिवत पाते हैं। अंधकार का क्षय नहीं होता। वह अक्षय होता है। अंधकार स्थायी है। अंधकार शिव तुल्य है।
अंधकार को प्रायः अज्ञान का पर्याय भी गिना जाता है। वास्तव में प्रकाश को हम ज्ञान का स्रोत मानते हैं क्योंकि प्रकाश हमें देखने की शक्ति देता है। पर अगर ध्यान दिया जाये तो प्रकाश में हम उतना ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं जितना की प्रकाश की परिधि। विज्ञान प्रकाश है। यही कारण है कि जो विज्ञान नहीं देख सकता उसे वह मानता भी नहीं है। वह तब तक किसी तथ्य को स्वीकार नहीं करता जब तक वह उसके प्रकाश की परिधि में नहीं आ जाती। पर यह तो सिद्ध तथ्य है कि विज्ञान अपने इस विचारधारा के कारण हर बार अपनी ही जीत पर लज्जित हुआ है। क्योंकि हर बार जब विज्ञान ने कुछ ऐसा नया खोजा है जिसे खोज के पहले उसने ही नकारा था तो वस्तुतः उसने स्वयं की विचारधारा की खामियों को ही उजागर किया है। हर खोज विज्ञान की पुरानी धारणा को गलत सिद्ध करती हुई नई धारणा को प्रकाशित करती है जिसे शायद कुछ समयोपरांत कोई नई धारणा गलत सिद्ध कर दे। क्या यह भ्रांति मृगतृष्णा (Mirage) नहीं है? स्मरण रहे मृगतृष्णा (Mirage) प्रकाश अथवा दृष्टि का ही दोष है। अंधकार में देखना कठिन अवश्य है पर उसमें दृष्टि दोष नहीं होता। प्रकाश में देखने में अभ्यस्त हमारी आँखें अंधकार में सही प्रकार देख नहीं सकतीं पर अंधकार में देखने में अभ्यस्त आँखें प्रकाश में स्वतः ही देख सकती हैं। निर्णय?

जब हमारी मंजिल भौगोलिक होती है नजदीक होती है तो प्रकाश सहायक होता है। पर हिन्दू धर्म, तथा प्रायः हर धर्म एवं आस्था के अनुसार मानव जाति की सर्वोच्च इच्छा मोक्ष (Salvation) होती है। मोक्ष क्या है? इच्छाओं का अंत । जब कोई इच्छा नहीं, कोई मंजिल नहीं कोई जरूरत नहीं तो वहां क्या होगा। अंधकार। सर्वव्यापी एवं अनन्त अंधकार। तब हम शिव को प्राप्त कर लेते हैं। यह तो विज्ञान भी मानेगा की अनेक महत्वपूर्ण खोज स्वप्न में हुए हैं । तथा वहाँ अंधकार का साम्राज्य है।

सृष्टि विस्तृत है। हमारी विशाल धरती सौरमंडल का एक छोटा सा कण मात्र है। सूर्य में सैकड़ों पृथ्वी समाहित हो सकती हैं। पर सूर्य अपने नवग्रहों तथा उपग्रहों के साथ आकाशगंगा (Milky way galaxy) का एक छोटा तथा गैर महत्वपूर्ण सदस्य मात्र है। आकाश गंगा में एसे सहस्रों तारामंडल विद्यमान हैं। वे सारे विराट ग्रह, नक्षत्र जिनका समस्त ज्ञान तक उपलब्ध नहीं हो पाया है शिव की सृष्टि है। पर प्रश्न यह है कि यह विशाल साम्राज्य स्थित कहाँ है? वह विशाल शून्य क्या है जिसने इस समूचे सृष्टि को धारण कर रखा है? वह विशाल शून्य वह अंधकार पिण्ड शिव है। शिव ने ही सृष्टी धारण कर रखी है। वे ही सर्वसमुद्ध कारण हैं। वे ही संपूर्ण सृष्टी के मूल हैं, कारण हैं।
सहायक होता है। पर हिन्दू धर्म, तथा प्रायः हर धर्म एवं आस्था के अनुसार मानव जाति की सर्वोच्च इच्छा मोक्ष (Salvation) होती है। मोक्ष क्या है? इच्छाओं का अंत । जब कोई इच्छा नहीं, कोई मंजिल नहीं कोई जरूरत नहीं तो वहां क्या होगा। अंधकार। सर्वव्यापी एवं अनन्त अंधकार। तब हम शिव को प्राप्त कर लेते हैं। यह तो विज्ञान भी मानेगा की अनेक महत्वपूर्ण खोज स्वप्न में हुए हैं । तथा वहाँ अंधकार का साम्राज्य है। सृष्टि विस्तृत है।
हमारी विशाल धरती सौरमंडल का एक छोटा सा कण मात्र है। सूर्य में सैकड़ों पृथ्वी समाहित हो सकती हैं। पर सूर्य अपने नवग्रहों तथा उपग्रहों के साथ आकाशगंगा (Milky way galaxy) का एक छोटा तथा गैर महत्वपूर्ण सदस्य मात्र है। आकाश गंगा में एसे सहस्रों तारामंडल विद्यमान हैं। वे सारे विराट ग्रह, नक्षत्र जिनका समस्त ज्ञान तक उपलब्ध नहीं हो पाया है शिव की सृष्टि है। पर प्रश्न यह है कि यह विशाल साम्राज्य स्थित कहाँ है? वह विशाल शून्य क्या है जिसने इस समूचे सृष्टि को धारण कर रखा है? वह विशाल शून्य वह अंधकार पिण्ड शिव है। शिव ने ही सृष्टी धारण कर रखी है। वे ही सर्वसमुद्ध कारण हैं। वे ही संपूर्ण सृष्टि के मूल हैं, कारण हैं। ईश्वर एक हैं। वे तीन त्रिदेवों अथवा ३३ करोड देवताओं में ही नहीं, अपितु संपूर्ण सृष्टि के कण कण में व्याप्त हैं। वे हमारे नश्वर शरीर के अंदर की आत्मा है। वे हमारे सदविचार हैं।
ब्रह्मा कर्ता हैं, विष्णू कार्य तथा कार्यफल हैं, शिव कारण हैं। त्रिदेव एक वृक्ष के सामन हैं। ब्रह्म उस वृक्ष के तना हैं, विष्णु उस वृक्ष के विस्तार है, डालिया, पत्ते, पुष्प तथा फल सामान है। सदाशिव उस वृक्ष के जड हैं। शिव जी की आरती इसी तत्व को संबोधित है। वास्तव में ये त्रिगुण शिवजी की आरती है जिसमे स्पष्ट शब्दों में उल्लेखित है …
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका।



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महान संतों और व्यक्तियों की उक्तियाँ एवं अनमोल वचन



महान संतों और व्यक्तियों की उक्तियाँ एवं अनमोल वचन

  • अगर किसी को कुछ देना है तो उसे अच्छा वक्त दो। क्योंकि आप हर चीज वापस ले सकते हो, मगर किसी को दिया हुआ अच्छा वक्त वापस नहीं ले सकते।
  • जिन्दगी में कभी समझौता करना पड़े तो कभी हिचकिचाहट मत रखो, झुकता वही है जिसमें जान होती है, अकड़ ही तो मुर्दे की पहचान होती है।
  • जब छोटे थे तब बड़े होने की बड़ी चाहत थी, पर अब पता चला कि: अधूरे एहसास और टूटे सपनों से, अधूरे होमवर्क और टूटे खिलौने अच्छे थे।
  • जब लोग किसी को पसंद करते हैं, तो उसकी बुराइयां भूल जाते हैं, और जब किसी से नफरत करते हैं, तो उसकी अच्छाइयां भूल जाते हैं।
  • इंसान की फितरत को समझते हैं सिर्फ परिंदे.. जितना भी मुहब्बत से बुलाओ, मगर पास नहीं आते।
  • इंसान जब तरक्की की चरम सीमा पर होता है, तो लोगों को भूल जाता है और जब बरबादी की चरम सीमा तक आता है, तब तक लोग उसे भूल जाते हैं।
  • हर किसी को अपने ज्ञान का तो अभिमान होता है, मगर अपने अभिमान का ज्ञान नहीं होता।
  • ज़रा सी देर में, दिल में उतरने वाले लोग; ज़रा सी देर में, दिल से उतर भी जाते हैं।
  • अगर दूसरों को दुखी देखकर, तुम्हें भी दुःख होता है, तो समझ लो, की भगवान ने तुम्हें इंसान बनाकर कोई गलती नहीं की है।
  • गर्मी में लड़के ने जब पसीना गर्लफ्रेंड के दुपट्टे से पोछा, तो वह बोली दुपट्टा गंदा न करो और जब लड़के ने माँ के आँचल से पोंछा, तो माँ बोली ये गंदा है साफ देती हूँ।
  • इंसान को बादाम खाने से नही, जिन्दगी में ठोकर खाने से अक्ल आती है।
  • यूँ ही रखते रहे बचपन से दिल साफ़ हम अपना, पता नहीं था की कीमत तो चेहरों की होती है।
  • दुनिया में सिर्फ दिल ही है जो बिना आराम किये काम करता है, इसलिए उसे खुश रखो चाहे वो अपना हो या अपनों का।
  • इंसान को इंसान धोखा नहीं देता बल्कि वो उम्मीदें धोखा देती हैं जो वो दूसरों से रखता है।
  • अगर आप अपनी जिम्मेदारी खुद ले लेते हैं तो आप में अपने सपने सच करने की चाहत अपने आप विकसित हो जाएगी।
  • सच वह दौलत है जिसे पहले खर्च करो और ज़िंदगी भर आनंद करो, झूठ वह क़र्ज़ है जिससे क्षणिक सुख पाओ और ज़िंदगी भर चुकाते रहो।
  • किसी की दृष्टि खराब हो जाये तो उसका उपचार संभव है, किन्तु अगर दृष्टिकोण ही खराब हो जाये तो उसका उपचार संभव नहीं।
  • यदि आप गुस्से के एक क्षण में धैर्य रखते हैं तो आप दुःख के सौ दिन से बच सकते हैं।
  • ज़िंदगी में जो हम चाहते हैं वो आसानी से नहीं मिलता, लेकिन ज़िंदगी का यह भी एक सच है कि जो हम चाहते वो आसान नहीं होता।
  • इत्र से कपड़ों को महकाना बड़ी बात नहीं, मज़ा तो तब है जब मेरे किरदार से खुशबु आये।
  • अपनी कीमत उतनी रखिये जो अदा हो सके अगर अनमोल हो गए तो तन्हा हो जाओगे।
  • लोग प्यार करने के लिए होते हैं और चीज़ें इस्तेमाल करने के लिए, लेकिन असल में हम चीज़ों से प्यार कर रहे हैं का इस्तेमाल!


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