Benefits of Deep Breathing




1. Breathing Detoxifies and Releases Toxins
Your body is designed to release 70% of its toxins through breathing. If you are not breathing effectively, you are not properly ridding your body of its toxins i.e. other systems in your body must work overtime which could eventually lead to illness. When you exhale air from your body you release carbon dioxide that has been passed through from your bloodstream into your lungs. Carbon dioxide is a natural waste of your body's metabolism.

2. Breaw your body feels when you are tense, angry, scared or stressed. 
It constricts. Your muscles get tight and your breathing becomes shallow. When your breathing Releases Tension Think hothing is shallow you are not getting the amount of oxygen that your body needs.

3. Breathing Relaxes the Mind/Body and Brings Clarity
Oxygenation of the brain reducing excessive anxiety levels. Paying attention to your breathing. Breathe slowly, deeply and purposefully into your body. Notice any places that are tight and breathe into them. As you relax your body, you may find that the breathing brings clarity and insights to you as well.

4. Breathing Relieves Emotional Problems
Breathing will help clear uneasy feelings out of your body.

5. Breathing Relieves Pain.
You may not realize its connection to how you think, feel and experience life. For example, what happens to your breathing when you anticipate pain? You probably hold your breath. Yet studies show that breathing into your pain helps to ease it.

6. Breathing Massages Your Organs
The movements of the diaphragm during the deep breathing exercise massages the stomach, small intestine, liver and pancreas. The upper movement of the diaphragm also massages the heart. When you inhale air your diaphragm descends and your abdomen will expand. By this action you massage vital organs and improves circulation in them. Controlled breathing also strengthens and tones your abdominal muscles.

7. Breathing Increases Muscle
Breathing is the oxygenation process to all of the cells in your body. With the supply of oxygen to the brain this increases the muscles in your body.

8. Breathing Strengthens the Immune System
Oxygen travels through your bloodstream by attaching to haemoglobin in your red blood cells. This in turn then enriches your body to metabolise nutrients and vitamins.

9. Breathing Improves Posture
Good breathing techniques over a sustained period of time will encourage good posture. Bad body posture will result of incorrect breathing so this is such an important process by getting your posture right from early on you will see great benefits.

10. Breathing Improves Quality of the Blood
Deep breathing removes all the carbon-dioxide and increases oxygen in the blood and thus increases blood quality.

11. Breathing Increases Digestion and
Assimilation of food
The digestive organs such as the stomach receive more oxygen, and hence oper;ates more efficiently. The digestion is further enhanced by the fact that the food is oxygenated more.

12. Breathing Improves the Nervous System
The brain, spinal cord and nerves receive increased oxygenation and are more nourished. This improves the health of the whole body, since the nervous system communicates to all parts of the body.

13. Breathing Strengthen the Lungs
As you breathe deeply the lung become healthy and powerful, a good insurance against respiratory problems.

14. Proper Breathing makes the Heart Stronger.
Breathing exercises reduce the workload on the heart in two ways. Firstly, deep breathing leads to more efficient lungs, which means more oxygen, is brought into contact with blood sent to the lungs by the heart. So, the heart doesn't have to work as hard to deliver oxygen to the tissues. Secondly, deep breathing leads to a greater pressure differential in the lungs, which leads to an increase in the circulation, thus resting the heart a little.

15. Proper Breathing assists in Weight Control.
If you are overweight, the extra oxygen burns up the excess fat more efficiently. If you are underweight, the extra oxygen feeds the starving tissues and glands.


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शिव महिम्न: स्तोत्रम



 Shiva Mahmin Stotra
शिवमहिम्न स्तोत्र में 43 श्लोक हैं, श्लोक तथा उनके भावार्थ निम्नलिखित हैं-

पुष्पदंत उवाच -
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी।
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्।
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।। १।।

भावार्थ: पुष्पदंत कहते हैं कि हे प्रभु ! बड़े बड़े विद्वान और योगीजन आपके महिमा को नहीं जान पाए तो मैं तो एक साधारण बालक हूँ, मेरी क्या गिनती? लेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती? मैं ये नहीं मानता क्योंकि अगर ये सच है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलाएगी। मैं तो ये मानता हूँ कि सबको अपनी मति अनुसार स्तुति करने का अधिकार है। इसलिए हे भोलेनाथ! आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति का स्वीकार करें।
 
अतीतः पंथानं तव च महिमा वांमनसयोः।
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः।
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।। २।।

भावार्थ: आपकी व्याख्या न तो मन, न ही वचन द्वारा संभव है। आपके संदर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा 'नेति नेति' का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं। आपकी महिमा और आपके स्वरूप को पूर्णतया जान पाना असंभव है, लेकिन जब आप साकार रूप में प्रकट होते हो तो आपके भक्त आपके स्वरूप का वर्णन करते नहीं थकते। ये आपके प्रति उनके प्यार और पूज्य भाव का परिणाम है।

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः।
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः।
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता।। ३।।

भावार्थ: हे वेद और भाषा के सृजक! आपने अमृतमय वेदों की रचना की है। इसलिए जब देवों के गुरु, बृहस्पति आपकी स्तुति करते है तो आपको कोई आश्चर्य नहीं होता। मैं भी अपनी मति अनुसार आपके गुणानुवाद करने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि इससे आपको कोई आश्चर्य नहीं होगा, मगर मेरी वाणी इससे अधिक पवित्र और लाभान्वित अवश्य होगी।

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्।
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं।
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः।। ४।।

भावार्थ: आप इस सृष्टि के सृजनहार है, पालनहार है और विसर्जनकार है। इस प्रकार आपके तीन स्वरूप है – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा आप में तीन गुण है – सत्व, रज और तम। वेदों में इनके बारे में वर्णन किया गया है फिर भी अज्ञानी लोग आपके बारे में उटपटांग बातें करते रहते है। ऐसा करने से भले उन्हें संतुष्टि मिलती हो, किन्तु यथार्थ से वो मुंह नहीं मोड़ सकते।

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं।
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः।
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः।। ५।।

भावार्थ: मूर्ख लोग अक्सर तर्क करते रहते है कि ये सृष्टि की रचना कैसे हुई, किसकी इच्छा से हुई, किन वस्तुओं से उसे बनाया गया इत्यादि। उनका उद्देश्य लोगों में भ्रांति पैदा करने के अलावा कुछ नहीं है। सच पूछो तो ये सभी प्रश्नों के उत्तर आपकी दिव्य शक्ति से जुड़े है और मेरी सीमित बुद्धि से उसे व्यक्त करना असंभव है।

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां।
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो।
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।। ६।।

भावार्थ: हे प्रभु, आपके बिना ये सब लोक (सप्त लोक – भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्य) का निर्माण क्या संभव है? इस जगत का कोई रचयिता न हो, ऐसा क्या संभव है?आपके अलावा इस सृष्टि का निर्माण भला कौन कर सकता है? आपके अस्तित्व के बारे केवल मूर्ख लोगों को ही शंका हो सकती है।

त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति।
प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।। ७।।

भावार्थ: हे परमपिता!!! आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग है – सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि। लोग अपनी रुचि के अनुसार कोई एक मार्ग को पसंद करते है। मगर आखिरकार ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समुद्र में जाकर मिलता है, वैसे ही, आप तक पहुंचते है। सचमुच, किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है।

महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः।
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां।
न हि स्वात्मारामं विषय मृगतृष्णा भ्रमयति।। ८।।

भावार्थ: आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण ऐश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ कुल्हाड़ी, बैल, व्याघ्रचर्म, शरीर पर भस्म तथा हाथ में खप्पर (खोपड़ी)! इससे ये फलित होता है कि जो आत्मानंद में लीन रहता है वो संसार के भोग पदार्थों में नहीं फंसता।

ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं।
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव।
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।। ९।।

भावार्थ: इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है। लोग जो भी कहें, आपके भक्त तो आपको हमेशा सत्य मानते है और आपकी भक्ति में आनंद पाते है। मैं भी उनका समर्थन करता हूँ, चाहे किसी को मेरा ये कहना धृष्टता लगे, मुझे उसकी परवाह नहीं।

तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः।
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः।।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्।
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।। १०।।

भावार्थ: जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद हुआ की दोनों में से कौन महान है, तब आपने उनकी परीक्षा करने के लिए अग्नि स्तंभ का रूप लिया। ब्रह्मा और विष्णु – दोनों नें स्तंभ को अलग अलग छोर से नापने की कोशिश की मगर वो सफल न हो सके। आखिरकार अपनी हार मानकर उन्होंने आपकी स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर आपने अपना मूल रूप प्रकट किया। सचमुच, अगर कोई सच्चे दिल से आपकी स्तुति करें और आप प्रकट न हों ऐसा कभी हो सकता है भला?

अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं।
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्।।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः।
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।। ११।।

भावार्थ: आपके परम भक्त रावण ने पद्म की जगह अपने नौ-नौ मस्तक आपकी पूजा में समर्पित कर दिये। जब वो अपना दसवाँ मस्तक काटकर अर्पण करने जा रहा था तब आपने प्रकट होकर उसको वरदान दिया। इस वरदान की वजह से ही उसकी भुजाओं में अटूट बल प्रकट हुआ और वो तीनो लोक में शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ रहा। ये सब आपकी दृढ़ भक्ति का नतीजा है।

अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं।
बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।।
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि।
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।। १२।।

भावार्थ: आपकी परम भक्ति से रावण अतुलित बल का स्वामी बन बैठा मगर इससे उसने क्या करना चाहा ? आपकी पूजा के लिए हर रोज कैलाश जाने का श्रम बचाने के लिए कैलाश को उठाकर लंका में गाड़ देना चाहा। जब कैलाश उठाने के लिए रावण ने अपनी भुजाओं को फैलाया तब पार्वती भयभीत हो उठीं। उन्हें भयमुक्त करने के लिए आपने सिर्फ अपने पैर का अंगूठा हिलाया तो रावण जाकर पाताल में गिरा और वहाँ भी उसे स्थान नहीं मिला। सचमुच, जब कोई आदमी अनधिकृत बल या संपत्ति का स्वामी बन जाता है तो उसका उपभोग करने में विवेक खो देता है।
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं।
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः।
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः।। १३।।

भावार्थ: आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन गया तथा तीनों लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर ! जो मनुष्य आपके चरण में श्रद्धा भक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है।

अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा-
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो।
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भंग-व्यसनिनः।। १४।।

भावार्थ: जब समुद्र मंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था। आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया। विषपान करने से आपके कंठ में नीला चिन्ह हो गया और आप नीलकंठ कहलाये। परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरूप बनाता है ? कदापि नहीं, ये तो आपकी शोभा को और बढ़ाता है। जो व्यक्ति औरों के दुःख दूर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजा पात्र बन जाता है।

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे।
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्।
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।। १५।।

भावार्थ: कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव हों। पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भस्म कर दिया। श्रेष्ठ जनो के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता।

मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं।
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्।।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा।
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।। १६।।

भावार्थ: जब संसार के कल्याण हेतु आप तांडव करने लगते हैं तब समग्र सृष्टि भय के मारे कांप उठती है, आपके पद प्रहार से पृथ्वी अपना अंत समीप देखती है ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। आपकी जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोक व्याकुल हो उठता है और आपकी भुजाओं के बल से वैकुंठ में खलबली मच जाती है। हे महादेव! आश्चर्य ही है कि आपका बल अतिशय कष्टप्रद है।

वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः।
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति।
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः।। १७।।

भावार्थ: गंगा नदी जब मंदाकिनी के नाम से स्वर्ग से उतरती है तब नभोमंडल में चमकते हुए सितारों की वजह से उसका प्रवाह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है, मगर आपके सिर पर सिमट जाने के बाद तो वह एक बिंदु समान दिखाई पड़ती है। बाद में जब गंगा जी आपकी जटा से निकलती है और भूमि पर बहने लगती है तब बड़े बड़े द्वीपों का निर्माण करती है। ये आपके दिव्य और महिमावान स्वरूप का ही परिचायक है।

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो।
रथांगे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः।
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।। १८।।

भावार्थ: आपने (तारकासुर के पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंश करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को दो पहिये मेरु पर्वत का धनुष बनाया और विष्णु जी का बाण लिया। हे शम्भू ! इस वृहद प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता? आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रही) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी।

हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः।
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः।
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्।। १९।।

भावार्थ: जब भगवान विष्णु ने आपकी सहस्र कमलों (एवं सहस्त्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया। तब भक्ति भाव से विष्णु जी ने अपनी एक आँख को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया। उनकी इसी अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं। हे प्रभु, आप तीनो लोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) की रक्षा के लिए सदैव जागृत रहते हो।

क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां।
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं।
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः।। २०।।

भावार्थ: यज्ञ की समाप्ति होने पर आप यज्ञकर्ता को उसका फल देते हो। आपकी उपासना और श्रद्धा बिना किया गया कोई कर्म फलदायक नहीं होता। यही वजह है कि वेदों में श्रद्धा रखके और आपको फल दाता मानकर हर कोई अपने कार्यो का शुभारंभ करते है।

क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां।
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व्यसनिनः।
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः।। २१।।

भावार्थ: यद्यपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तद्यपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेरित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है इसीलिए दक्ष प्रजापति के महायज्ञ यज्ञ को जिसमें स्वयं ब्रह्मा तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि सम्मिलित हुए, आपने नष्ट कर दिया क्योंकि उसमें आपका सम्मान नहीं किया गया। सचमुच, भक्ति के बिना किये गये यज्ञ किसी भी यज्ञकर्ता के लिए हानिकारक सिद्ध होते है।

प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं।
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममु।
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः।। २२।।

भावार्थ: एक बार प्रजापिता ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गए। जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरूप धारण कर भागने की कोशिश की तो कामातुर ब्रह्मा भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे। हे शंकर ! तब आप ने व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा को मार भगाया। आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा में अदृश्य अवश्य हुए परंतु आज भी वह आपसे भयभीत हैं।

स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्।
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्।
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः।। २३।।

भावार्थ: जब कामदेव ने आपकी तपश्चर्या में बाधा डालनी चाही और आपके मन में पार्वती के प्रति मोह उत्पन्न करने की कोशिश की, तब आपने कामदेव को तृणवत् भस्म कर दिया। अगर तत्पश्चात् भी पार्वती ये समझती है कि आप उन पर मुग्ध है क्योंकि आपके शरीर का आधा हिस्सा उनका है, तो ये उनका भ्रम होगा। सच पूछो तो हर युवती अपनी सुंदरता पे मुग्ध होती है।

श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाः सहचराः।
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-परिकरः।।
अमंगल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं।
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मंगलमसि।। २४।

भावार्थ: आप श्मशान में रमण करते हैं, भूत - प्रेत आपके मित्र हैं, आप चिता भस्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाला धारण करते हैं। ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं। तब भी हे श्मशान निवासी ! उन भक्तों जो आपका स्मरण करते है, आप सदैव शुभ और मंगल करते है।

मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः।
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्संगति-दृशः।।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये।
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्।। २५।।

भावार्थ: आपको पाने के लिए योगी क्या क्या नहीं करते ? बस्ती से दूर, एकांत में आसन जमा कर, शास्त्रों में बताई गई विधि के अनुसार प्राण की गति को नियंत्रित करने की कठिन साधना करते है और उसमें सफल होने पर हर्ष अश्रु बहाते है। सचमुच, सभी प्रकार की साधना का अंतिम लक्ष्य आपको पाना ही है।

त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः।
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रतु गिरं।
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत्वं न भवसि।। २६।।

भावार्थ: आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं। आप ही आत्मा भी हैं। हे देव!! मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों।

त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्।
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः।
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्।। २७।।

भावार्थ: (हे सर्वेश्वर! ॐ शब्द अ, ऊ, म से बना है। ये तीन शब्द तीन लोक स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल; तीन देव – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा तीन अवस्था – स्वप्न, जागृति और सुषुप्ति के द्योतक है। लेकिन जब पूरी तरह से ॐ कार का ध्वनि निकलता है तो ये आपके तुरीय पद (तीनों से पर) को अभिव्यक्त करता है।

भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्।
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि।
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते।। २८।।

भावार्थ: वेद एवं देवगण आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं भव, सर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं ईशान। हे शम्भू! मैं भी आपकी इन नामों की भावपूर्वक स्तुति करता हूँ।

नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः।
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः।
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः।। २९।।

भावार्थ: आप सब से दूर हैं फिर भी सब के पास है। हे कामदेव को भस्म करने वाले प्रभु ! आप अति सूक्ष्म है फिर भी विराट है। हे तीन नेत्रों वाले प्रभु! आप वृद्ध है और युवा भी है। आप सब में है फिर भी सब से पर है। आपको मेरा प्रणाम है।

बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ, भवाय नमो नमः।
प्रबल-तमसे तत् संहारे, हराय नमो नमः।।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ, मृडाय नमो नमः।
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये, शिवाय नमो नमः।। ३०।।

भावार्थ: मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपके ब्रह्म स्वरूप को नमन करता हूँ। तमोगुण को धारण करके आप जगत का संहार करते हो, आपके उस रुद्र स्वरूप को मैं नमन करता हूँ। सत्वगुण धारण करके आप लोगों के सुख के लिए कार्य करते हो, आपके उस विष्णु स्वरूप को नमस्कार है। इन तीनों गुणों से पर आपका त्रिगुणातीत स्वरूप है, आपके उस शिव स्वरूप को मेरा नमस्कार है।

कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं।
क्व च तव गुण-सीमोल्लंघिनी शश्वदृद्धिः।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्।
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्।। ३१।।

भावार्थ: मेरा मन शोक, मोह और दुःख से संतप्त तथा क्लेश से भरा पड़ा है। मैं दुविधा में हूँ कि ऐसे भ्रमित मन से मैं आपके दिव्य और अपरंपार महिमा का गान कैसे कर पाउँगा ? फिर भी आपके प्रति मेरे मन में जो भाव और भक्ति है उसे अभिव्यक्त किये बिना मैं नहीं रह सकता। अतः ये स्तुति की माला आपके चरणों में अर्पित करता हूँ।

असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे।
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं।
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।। ३२।।

भावार्थ: यदि समुद्र को दवात बनाया जाए, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड की शाखा को लेखनी बनाकर और पृथ्वी को कागज बनाकर स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें तो भी आप के गुणों की पूर्णतया व्याख्या करना संभव नहीं है।

असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः।
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।।
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः।
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार।। ३३।।

भावार्थ: आप सुर, असुर और मुनियों के पूजनीय है, आपने मस्तक पर चंद्र को धारण किया है और आप सभी गुणों से परे है। आपकी इसी दिव्य महिमा से प्रभावित होकर मैं, पुष्पदंत गंधर्व, आपकी स्तुति करता हूँ।

अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्।
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान् यः।।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र।
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च।। ३४।।

भावार्थ: पवित्र और भक्ति भावपूर्ण हृदय से जो मनुष्य इस स्तोत्र का नित्य पाठ करेगा, तो वो पृथ्वीलोक में अपनी इच्छा के अनुसार धन, पुत्र, आयुष्य और कीर्ति को प्राप्त करेगा। इतना ही नहीं, देहत्याग के पश्चात् वो शिवलोक में गति पाकर शिवतुल्य शांति का अनुभव करेगा। शिवमहिम्न स्तोत्र के पठन से उसकी सभी लौकिक व पारलौकिक कामनाएँ पूर्ण होंगी।

महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः।
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्।। ३५।।

भावार्थ: शिव से श्रेष्ठ कोई देव नहीं, शिवमहिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोइ स्रोत नहीं है, भगवान शंकर के नाम से अधिक महिमावान कोई मंत्र नहीं है और ना ही गुरु से बढ़कर कोई पूजनीय तत्व।

दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाः क्रियाः।
महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। ३६।।

भावार्थ: शिवमहिम्न स्तोत्र का पाठ करने से जो फल मिलता है वो दीक्षा या दान देने से, तप करने से, तीर्थाटन करने से, शास्त्रों का ज्ञान पाने से तथा यज्ञ करने से कहीं अधिक है।

कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः।
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्।
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः।। ३७।।

भावार्थ: पुष्पदन्त गंधर्वों का राजा, चन्द्रमौलेश्वर शिव जी का परम भक्त था। मगर भगवान शिव के क्रोध की वजह से वह अपने स्थान से च्युत हुआ। महादेव को प्रसन्न करने के लिए उसने ये महिम्न स्तोत्र की रचना की है।

सुरवरमुनिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं।
पठति यदि मनुष्यः प्रांजलिर्नान्य-चेताः।।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः।
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्।। ३८।।

भावार्थ: जो मनुष्य अपने दोनों हाथों को जोड़कर, भक्ति भावपूर्ण, इस स्तोत्र का पठन करेगा, तो वह स्वर्ग-मुक्ति देने वाले, देवता और मुनियों के पूज्य तथा किन्नरों के प्रिय ऐसे भगवान शंकर के पास अवश्य जायेगा। पुष्पदंत द्वारा रचित यह स्तोत्र अमोघ और निश्चित फल देनेवाला है।

आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्।
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्।। ३९।

भावार्थ: पुष्पदंत गन्धर्व द्वारा रचित, भगवान शिव के गुणानुवाद से भरा, मनमोहक, अनुपम और पुण्यप्रदायक स्तोत्र यहाँ पर संपूर्ण होता है।

इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छंकर-पादयोः।
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां में सदाशिवः।। ४०।।

भावार्थ: वाणी के माध्यम से की गई मेरी यह पूजा आपके चरण कमलों में सादर अर्पित है। कृपया इसका स्वीकार करें और आपकी प्रसन्नता मुझ पर बनाए रखें।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः।। ४१।।

भावार्थ: हे शिव!! मैं आपके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता। लेकिन आप जैसे भी है, जो भी है, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः।
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते।। ४२।।

भावार्थ: जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वह सर्व प्रकार के पाप से मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है।

श्री पुष्पदन्त-मुख-पंकज-निर्गतेन।
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन।
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः।। ४३।।

भावार्थ: पुष्पदंत के कमल रूपी मुख से उदित, पाप का नाश करने वाले, भगवान शंकर की अति प्रिय यह स्तुति का जो पठन करेगा, गान करेगा या उसे सिर्फ अपने स्थान में रखेगा, तो भोलेनाथ शिव उन पर अवश्य प्रसन्न होंगे।
।। इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नः स्तोत्रं सम्पूर्णम्।।


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स्‍वतंत्रता सेनानी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन




आजादी की लड़ाई की अगली कतार के नेताओं में टंडन की गिनती थी। भारत की सभ्यता-संस्कृति और विरासत को लेकर उन्हें गर्व था। हिन्दी भाषा के प्रति उनका समर्पण अनूठा था। 1910 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के प्रांगण में उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की। 1918 में हिन्दी विद्यापीठ और 1947 में हिन्दी रक्षक दल का गठन किया। आजादी की लड़ाई में अहम योगदान देने वाले कांग्रेस के पूर्व अध्‍यक्ष राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन (Purushottam Das Tandon Birthday) का आज जन्‍मदिन है। 1 अगस्त, 1882 को इलाहाबाद में जन्मे पुरुषोत्तम दास टंडन पढ़ाई के दौरान ही कांग्रेस से जुड़ गए। विदेशी हुकूमत के विरोध के कारण उन्‍हें म्योर कॉलेज से निकाल दिया गया। 1906 में सर तेज बहादुर सप्रू के अंडर में उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में वकालत शुरू की। 1921 में महात्‍मा गांधी के आह्वान पर वकालत छोड़ कर खुद को देश-समाज के लिए समर्पित कर दिया। अनेक जेल यात्राएं की। किसानों-मजदूरों को संगठित करने की कोशिशें कीं। पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। वे बेहतरीन वक्ता थे।
‘‘स्वाधीनता और स्वभाषा का घना संबंध है। बिना अपनी भाषा की नींव दृढ़ किए स्वतंत्रता की नींव दृढ़ नहीं हो सकती। जो लोग इस तत्त्व को समझते हैं, वे मर-मिटने तक अपनी भाषा नहीं छोड़ते। जिंदा देशों में यही होता है। मुर्दा और पराधीन देशों की बात मैं नहीं कहता, उन अभागे देशों में तो ठीक इसके विपरीत ही दृश्य देखा जा सकता है।’’

हिंदी के अनन्य प्रेमी पुरुषोत्तम दास टंडन (संक्षेप में पी.डी. टंडन) के हिंदी के संबंध में स्पष्ट धारणा थी कि ‘ऐसी भाषा हिंदी ही है, जो समूचे देश में सहज ही फैलाई जा सकती है।’ दरअसल, किसी राजनेता ने हिंदी के लिए उतना कार्य नहीं किया जितना टंडन जी ने। उन्होंने ही ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की नींव रखी थी। इलाहाबाद के जिस मुहल्ले में उनका जन्म हुआ था पं. मदनमोहन मालवीय तथा पं. बालकृष्ण भट्ट का निवास स्थान भी वही मुहल्ला था। उन्हें अपने छात्रा जीवन में भट्ट जी के शिष्य होने का सुयोग मिला था। भट्ट जी ‘हिंदी-प्रदीप’ नामक पत्रा निकालते थे। उनकी ही प्रेरणा से वे हिंदी-लेखन की ओर झुके। उन दिनों सरकारी तंत्रा में हिंदी को उचित प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी। मालवीय जी के नेतृत्व में छिड़े हिंदी आंदोलन में टंडन जी उनके विशेष सहयोगी बने।
उन दिनों काशी में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हो चुकी थी। यहीं हिंदी साहित्य सम्मेलन की भी स्थापना
10 अक्तूबर, 1910 को हुई। सम्मेलन के गठन का उद्देश्य था हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाना। महात्मा गाँधी भी बाद में सम्मेलन के विशिष्ट अंग बने। ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ भी इसी सम्मेलन की देन थी। ‘हिंदी विद्यापीठ’ और ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ (वर्धा) भी टंडन जी की ही देन हैं। पं. राहुल सांकृत्यायन ने टंडन जी को हिंदी का ‘प्रतीक’ कहा था। टंडन जी ने केन्द्रीय सचिवालय में संसदीय हिंदी परिषद् का गठन करके हिंदी के अध्यापन की व्यवस्था करवाई थी। 14 सितंबर को ‘हिंदी दिवस’ इसी संसदीय हिंदी परिषद् की ओर से मनाया जाता है।
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के गौरवमयी किस्से
  • नेहरू और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की अदावत -कांग्रेस पार्टी के लम्बे इतिहास में अध्यक्ष पद के दो यादगार चुनाव हुए। एक 1939 में, जब गांधी जी के न चाहने के बाद भी सुभाष चन्द्र बोस अध्यक्ष चुन लिए गए। दूसरी बार 1950 में जब पंडित नेहरू के खुले विरोध के बाद भी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जीत गए। दोनों चुनावों में एक दिलचस्प समानता और रही। सुभाष चंद्र बोस को जीतकर भी इस्तीफा देना पड़ा। टंडन जी के साथ भी यही हुआ।
  • 1948 में अध्यक्ष पद का चुनाव हार चुके थे टंडन - पंडित नेहरू और सरदार पटेल इस चुनाव के पूर्व किसी एक नाम पर सहमति बनाने के लिए साथ बैठे थे। टंडन उस समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का इससे पहले 1948 का चुनाव वह हारे थे। समर्थक उन पर फिर से चुनाव लड़ने के लिए दबाव बनाए हुए थे। निजी तौर पर उनके प्रति आदर-लगाव रखने के बाद भी पंडित नेहरू उनकी उम्मीदवारी के पक्ष में नही थे। टंडन की दाढ़ी, विभाजन का प्रबल विरोध और हिंदी के प्रति उत्कट प्रेम के चलते नेहरू की नजर में उनकी छवि एक पुरातनपंथी और साम्प्रदायिक नेता की थी। टंडन के स्वतंत्र व्यक्तित्व और शरणार्थियों के एक सम्मेलन की अध्यक्षता ने भी पंडित नेहरू को उनसे दूर किया था। एक दूसरा नाम शंकर राव देव का था। देव भाषायी आधार पर वह बृहत्तर महाराष्ट्र के तगड़े पैरोकार थे। इसमें वे सेंट्रल प्रॉविन्स और हैदराबाद के कई जिले शामिल कराना चाहते थे। इसके चलते सरदार पटेल से उनकी दूरियां बढ़ी हुई थीं। एचसी मुखर्जी और एसके पाटिल का भी नाम चला पर बात नही बनी।
  • दोहरी जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहते थे नेहरू - पंडित नेहरू और सरदार पटेल दोनों ही शुरुआती दौर में एक राय के थे कि जेबी कृपलानी को उम्मीदवार नहीं बनाना है। कृपलानी 1946-47 में अध्यक्ष रहे थे। नेहरू-पटेल का उनसे तालमेल नहीं बन सका था। अध्यक्ष के तौर पर अपनी उपेक्षा की कृपलानी की भी शिकायतें थीं। इस बीच सीआर राजगोपालाचारी ने अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल का नाम सुझाया। नेहरू खामोश रहे। लगा कि शायद नेहरू प्रधानमंत्री के साथ अध्यक्ष पद की भी जिम्मेदारी संभालना चाहेंगे। सरदार पटेल सहमत थे। नेहरू 2 अगस्त को पटेल के घर पहुंचे और सीआर राजगोपालाचारी को अध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया। सरदार पटेल इस प्रस्ताव पर भी राजी थे, लेकिन सीआर ने इनकार कर दिया। ये भी साफ हुआ कि पंडित नेहरू दोहरी जिम्मेदारी नहीं चाहते, पर टंडन को हराना उनकी प्राथमिकता है।
  • टंडन को नेहरू ने सीधे पत्र लिख जताया विरोध - नेहरू ने पटेल के रोकने के बाद भी मौलाना आजाद के घर वर्किंग कमेटी के दिल्ली में मौजूद सदस्यों की बैठक बुलाई। दो टूक कहा कि अध्यक्ष के पद पर टंडन उन्हें स्वीकार्य नही हैं। 8 अगस्त, 1950 को पंडित नेहरू ने टंडन को सीधे पत्र लिखकर उनका विरोध किया। पत्र में लिखा- 'आपके चुने जाने से उन ताकतों को जबरदस्त बढ़ावा मिलेगा, जिन्हें मैं देश के लिए नुकसानदेह मानता हूं।' टंडन ने 12 अगस्त को नेहरू को उत्तर दिया- 'हम बहुत से सवालों पर एकमत रहे हैं। अनेक बड़ी समस्याओं पर साथ काम किया है पर कुछ ऐसे विषय हैं, जिस पर हमारा दृष्टिकोण एक नहीं है। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जाना और देश का विभाजन इसमें सबसे प्रमुख है। मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि मेरे प्रति आपकी कटुतम अभिव्यक्ति भी मुझे कटु नहीं बना पाएगी और न ही आपके प्रति मेरे प्रेम में अवरोध कर सकेगी। मैंने सालों से अपने छोटे भाई की तरह विनम्रता के साथ आपसे प्रेम किया है।'
  • किदवई थे चुनाव में नेहरू के सलाहकार - पर पंडित नेहरू मन बना चुके थे। टंडन के पत्र के एक दिन पहले ही 11 अगस्त को उनका नाम लिए बिना नेहरू ने एक बयान जारी किया- 'जब तक वह (नेहरू) प्रधानमंत्री हैं, उन्हें (टंडन) अध्यक्ष स्वीकार करना उचित नहीं होगा। उम्मीद जताई कि राजनीतिक, साम्प्रदायिक और अन्य समस्याओं के बारे में फैसले कांग्रेस की पुरानी सोच के मुताबिक ही लिए जाएंगे। इस बयान के जरिये नेहरू ने टंडन को लेकर अपना रुख सार्वजनिक कर दिया। रफी अहमद किदवई इस चुनाव में पंडित नेहरू के मुख्य सलाहकार थे। किदवई को एहसास था कि टंडन के सभी विचारों से सहमत न होने के बाद भी निष्ठा और ईमानदार छवि के कारण खासतौर पर हिंदी पट्टी के राज्यों में कांग्रेसजन के बहुमत का उन्हें समर्थन प्राप्त है। शंकर राव देव को उनके मुकाबले टिकने की उम्मीद नहीं थी।
  • किदवई ने नेहरू को समझाने का किया प्रयास - किदवई ने नेहरू का मन बदलने की कोशिशें शुरू कीं। वह उन्हें समझाने में सफल रहे कि गुजरात, बिहार और उत्तर प्रदेश में अर्से से सक्रिय रहे कृपलानी ही टंडन का मुकाबला कर सकते हैं। सरदार पटेल के लिए ये खबर चौंकाने वाली थी। किसी भी दशा में कृपलानी को स्वीकार न करने की नेहरू के साथ देहरादून में 5 जुलाई को हुई बातचीत उन्होंने याद की। सीआर से कहा, 'मैं भीतर तक हिल गया हूं। मुझे आश्रम चले जाना चाहिए।' सीआर को भी कृपलानी को उम्मीदवार बनाए जाने पर नेहरू से शिकायत थी। दोनों ने नेहरू को समझाने की कोशिश की कि हिन्दू-मुस्लिम और शरणार्थियों के सवाल पर कृपलानी ने नेहरू की टंडन के मुकाबले अधिक कड़ी आलोचना की हैं। पर नेहरु फैसला बदलने को तैयार नहीं थे।
  • सरदार पटेल को लुभा रही थी टंडन की लोकप्रियता - सरदार पटेल का टंडन के पक्ष में झुकाव शुरू हुआ। सरकार के भीतर भी खींचतान थी। सरदार को लग रहा था कि उन्हें किनारे किया जा रहा। कैबिनेट की वैदेशिक मामलों की कमेटी का सदस्य होने के बाद भी विदेशी मामलों में उनसे सलाह-मशविरा नही किया जा रहा था। खुद उनके गृह और राज्य मंत्रालय मामलों में नेहरू की आलोचनात्मक दखल बढ़ रही थी। कांग्रेसियों के बीच टंडन की लोकप्रियता सरदार को लुभा रही थी। 25 अगस्त को किदवई की पहल पर नेहरू और कृपलानी की बैठक हुई। बैठक के बाद कृपलानी ने पत्रकारों से नेहरू के रुख पर अपना आभार व्यक्त किया। कांग्रेस के वोटरों के बीच साफ संदेश पहुंच चुका था कि यह कृपलानी-टंडन नहीं नेहरू-पटेल के बीच का भी मुकाबला है।
  • पटेल ने नेहरू से कहा- 'आपको कभी समझ नहीं पाया' - 25 अगस्त को ही नेहरू ने पटेल को लिखा, 'टंडन का चुना जाना वह अपने लिए पार्टी का अविश्वास मानेंगे। अगर टंडन जीतते हैं तो वह न तो वर्किंग कमेटी में रहेंगे और न ही प्रधानमंत्री रहेंगे।' पटेल ने सीआर से कहा कि वह जानते हैं कि नेहरू ऐसा कुछ नहीं करेंगे। 27 अगस्त को पटेल ने नेहरू से कहा, 'आपको 30 वर्षों से जानता हूं पर आज तक नहीं जान पाया कि आपके दिल में क्या है?' पटेल ने एक संयुक्त बयान का प्रस्ताव किया कि उम्मीदवारों को लेकर असहमति के बाद भी बुनियादी सवालों पर हम एक हैं। अध्यक्ष जो भी चुना जाए, उसे कांग्रेस की नीतियों पर चलना होगा। नेहरू का जवाब था, 'बयान का समय बीत चुका है।'
  • यूपी में टंडन को मिले वोट ही वोट - 29 अगस्त को 24 स्थानों पर मतदान हुआ। 1 सितम्बर को गिनती हुई। टंडन 1306 वोट पाकर जीत गए। कृपलानी को 1092 और देव को 202 वोट मिले। उत्तर प्रदेश जो नेहरू और टंडन दोनों का गृह प्रदेश था, वहां टंडन को अच्छी बढ़त मिली। सरदार पटेल के गृह राज्य गुजरात के सभी वोट टंडन को मिले। नतीजों के बाद पटेल ने सीआर से पूछा, 'क्या नेहरू का इस्तीफा लाए हैं?' पटेल की उम्मीद के मुताबिक, नेहरू इरादा बदल चुके थे। 13 सितम्बर 1950 को नेहरू ने एक बयान में कहा, 'टंडन की जीत पर साम्प्रदायिक और प्रतिक्रियावादी तत्वों ने खुलकर खुशी का इजहार किया है।'
  • अब किदवई के नाम को लेकर अड़े नेहरू - सितम्बर के तीसरे हफ़्ते में कांग्रेस के नासिक सम्मेलन में टंडन ने अध्यक्षीय भाषण में हिन्दू सरकार की अवधारणा को खारिज किया। सम्मेलन ने नेहरु-लियाकत समझौते, साम्प्रदायिकता और वैदेशिक मामलों में भी सरकार के स्‍टैंड का समर्थन किया। टंडन वर्किंग कमेटी के चयन में नेहरू की इच्छाओं का सम्मान करने को तैयार थे सिवाय रफी अहमद किदवई के नाम को लेकर। नेहरू ने शर्त लगा दी कि वह बिना किदवई के कमेटी में शामिल नहीं होंगे। टंडन को समझाने की कोशिशें शुरू हुईं। मौलाना आजाद आगे आए। इनकार में टंडन ने कहा कि वे उनकी तुलना में किदवई को कहीं ज्यादा जानते हैं। किदवई ने कहा था कि टंडन के जीतने पर अगर नेहरू इस्तीफा नहीं देते तो मैं बयान जारी करूंगा कि वह ( नेहरू) अवसरवादी हैं। नतीजों के बाद किदवई ने खामोशी साध ली। मौलाना और सीआर ने पटेल से सिफारिश की। पटेल ने कहा कि टंडन से किदवई को कमेटी में लेने के लिए कहने की जगह वह सरकार छोड़ना पसंद, नेहरू से पूछिए, वह सिर्फ इशारा करें। मैं सरकार से निकलने को तैयार हूं। सीआर ने कहा, मैं ऐसा कैसे कह सकता हूँ ? इससे देश का नुकसान होगा। दो दिन बाद नेहरू बिना किदवई के वर्किंग कमेटी में शामिल होने को तैयार हो गए। टंडन के साथ नेहरू, पटेल और मौलाना आजाद, पटेल के घर पर बैठे, जहां अन्य नामों पर सहमति बन गई।
  • आखिरकार पार्टी अध्यक्ष चुन लिए गए नेहरू - पर आगे की राह टंडन के लिए आसान नहीं थी। 15 दिसम्बर 1950 को सरदार पटेल के निधन के बाद पार्टी के भीतरी समीकरणों में भारी फेर-बदल हुआ। अनेक समाजवादी पहले ही कांग्रेस से अलग हुए थे। जून 1951 में आचार्य कृपलानी ने कांग्रेस छोड़ी। कृपलानी के इस फैसले के कारणों में टंडन की अगुवाई में पार्टी के पुरातनपंथी बन जाने का आरोप शामिल था। अध्यक्ष के तौर पर टंडन को नेहरू कभी स्वीकार नहीं कर पाए। सितम्बर 1951 में वर्किंग कमेटी से इस्तीफा देकर नेहरू ने नए सिरे से दबाव बनाना शुरू किया। उनका यह कदम इसी महीने बंगलौर में एआईसीसी की बैठक में शक्ति परीक्षण की तैयारी का हिस्सा था। पहला आम चुनाव पास था। पार्टी की कलह चरम पर थी। टंडन ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर प्रधानमंत्री नेहरू की राह आसान कर दी। बंगलौर में नेहरू अध्यक्ष चुन लिए गए। अब पार्टी और सरकार दोनों नेहरू के हाथ में थी। यही वह मुकाम था, जब सत्ता में दल के संगठन की दखल खत्म हो गई। आने वाले दिनों में कांग्रेस के इस फार्मूले को उसकी विरोधी पार्टियों ने भी सिर-माथे लिया।
  • हिन्दी के प्रति टंडन का अनूठा प्रेम, हर जगह उठाई आवाज - आजादी की लड़ाई की अगली कतार के नेताओं में टंडन की गिनती थी। भारत की सभ्यता-संस्कृति और विरासत को लेकर उन्हें गर्व था। हिन्दी भाषा के प्रति उनका समर्पण अनूठा था। 1910 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के प्रांगण में उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की। 1918 में हिन्दी विद्यापीठ और 1947 में हिन्दी रक्षक दल का गठन किया। हिन्दी की मान-प्रतिष्ठा, प्रचार-प्रसार का संघर्ष उन्होनें अंग्रेजों के दौर में शुरू किया। आजादी के बाद भी यह जारी रहा। उन्‍होंने संविधान सभा में हिन्दी का सवाल जोर-शोर से उठाया। 1937 से 1950 के 13 वर्षों की अवधि में उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में भी वह हिन्दी के पक्ष में काम करते रहे।
  • विभाजन के चलते आजादी के जश्न से रहे दूर - 1952 में लोकसभा में प्रवेश के बाद सदन में हिन्दी के लिए उनकी आवाज गूंजती रही। 1956 में वह राज्यसभा सदस्य चुने गए। वहां भी वह हिन्दी को उसका उचित स्थान न मिलने की शिकायत करते रहे। टंडन का हिन्दी के लिए संघर्ष सड़क से सदन तक जीवनपर्यन्त जारी रहा। वह जिस भी मंच पर पहुंचे, वहां उन्होंने हिन्दी के लिए आवाज उठाई। विभाजन के वह प्रबल विरोधी थे। देश के दो टुकड़े होने की पीड़ा के चलते वह आजादी के जश्न से दूर रहे। शरणार्थियों के कष्टों ने उन्हें बेचैन किया। उनके आंसू पोंछने की कोशिशों ने उनके अपनों की निगाहें तिरछी कर दीं। अपनी इन कोशिशों की उन्होंने बड़ी राजनीतिक कीमत चुकाई। पर वह अपने या परिवार के लिए कुछ हासिल करने के लिए राजनीति और सार्वजनिक जीवन में नही आए थे।
  • सुमित्रानंदन पंत्र को लेकर जब कही बड़ी बात - संसद सदस्य के नाते तब चार सौ रुपया महीना मिलता था। किसी अवसर पर भुगतान करने वाले लोकसभा स्टॉफ से उन्होंने पूछा कि क्या यह राशि सीधे सरकारी सहायता कोष में नहीं जा सकती? बगल में खड़े एक सांसद ने उनसे कहा, 'सिर्फ चार सौ रुपये मिलते हैं। उन्हें भी आप दान कर देना चाहते हैं।' टंडन का उत्तर था, 'मेरे लड़के कमाते हैं। सब मिलकर सात सौ रुपये देते हैं। तीन-चार सौ ही खर्च है। बचे रुपये भी दूसरों के काम आते हैं।' स्वास्थ्य कारणों से टंडन ने 1961 में राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। 23 अप्रैल 1961 को उन्हें भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया गया। इसी वर्ष कविवर सुमित्रानंदन पन्त को पद्मभूषण सम्मान घोषित किया गया। टंडन ने सुप्रसिद्ध साहित्यकार वियोगी हरि को इस विषय में जो लिखा, वह उनके महान व्यक्तित्व की एक झलक दिखाता है। उन्‍होंने लिखा- 'मुझे भारत रत्न और सुमित्रानंदन पन्त को पद्मभूषण? यह ठीक है कि उम्र में मैं बड़ा हूं। मैंने भी काम किए हैं। पर आगे चलकर लोग पुरुषोत्तम दास टंडन को भूल जाएंगे। लेकिन पन्त जी की कविताएं तो हमेशा अमर रहेंगी। उनकी कविताएं लोगों की जुबान पर जिंदा रहेंगी। उनका काम मुझसे ज्यादा स्थायी है। इसलिए सुमित्रानंदन पन्त को भारत रत्न मिलना चाहिए।'
  • पुरुषोत्तम दास टंडन को देवराहा बाबा ने दी थी राजर्षि की उपाधि - राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन एक स्वतंत्रता सेनानी थे। संविधान सभा में देवनागरी लिपि के साथ हिंदी को उन्होंने राजभाषा का दर्जा दिलवा कर ही छोड़ा। अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना काल से ही टंडन जी इससे जुड़े रहे। देवराहा बाबा ने उन्हें राजर्षि की पदवी दी। 
प्रमुख तथ्‍य - 
  1. भारत के प्रमुख स्वाधीनता सेनानी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में 1 अगस्त 1882 को हुआ था।
  2. भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी नेता के साथ-साथ वे एक समाज सुधारक, कर्मठ पत्रकार, हिंदी के अनन्य सेवक तथा तेजस्वी वक्ता भी थे।
  3. उनकी प्रारंभिक शिक्षा सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में हुई। तत्पश्चात उन्होंने लॉ की डिग्री हासिल कर 1906 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में (लॉ की प्रैक्टिस के लिए) काम करना शुरू किया।
  4. सन् 1899 अपने विद्यार्थी जीवन से ही वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे। 1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रतिनिधि (इलाहाबाद से) चुने गए।
  5. सन् 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड का अध्ययन करने वाली कांग्रेस पार्टी की समिति से संबद्ध थे।
  6. सन् 1920 में असहयोग आंदोलन, 1921 में सामाजिक कार्यों तथा गांधीजी के आह्वान पर स्वतंत्रता संग्राम में काम के लिए हाईकोर्ट का काम छोड़ कर वे इस संग्राम में कूद पड़े।
  7. सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में सन् 1930 में बस्ती में गिरफ्तार हुए तथा कारावास भी मिला।
  8. लंदन में आयोजित (सन् 1931 - गांधीजी के वापस लौटने से पहले) गोलमेज सम्मेलन में पंडित नेहरू के साथ-साथ राजर्षि टंडन को भी गिरफ्तार किया गया था।
  9. भारत की आजादी के बाद उन्होंने विधानसभा (उत्तर प्रदेश) के प्रवक्ता के रूप में 13 वर्षों तक काम किया। इस दौरान 1937 से 1950 के लंबे कार्यकाल में कई बार विधानसभा को संबोधित किया था।
  10. भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी को प्रतिष्ठित करवाने में उनका खास योगदान माना जाता है तथा देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भी उन्हें दिया गया।
  11. भारत सरकार द्वारा सन् 1961 में 'भारत रत्न' की उपाधि से विभूषित किया गया। ऐसे महान कर्मयोगी, 'राजर्षि' के नाम से विख्यात, स्वतंत्रता सेनानी पुरुषोत्तम दास टंडन का 1 जुलाई 1962 को निधन हो गया।


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महा मृत्‍युंजय मंत्र का अर्थ



Maha Mrityunjaya Mantra
Maha Mrityunjaya Mantra in Sanskrit with Meaning Explained

ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्‍बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उ
र्वारुकमिव बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात्ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ !!

||महा मृत्‍युंजय मंत्र का अर्थ ||

Maha Mrityunjaya Mantra

समस्‍त संसार के पालनहार, तीन नेत्र वाले शिव की हम अराधना करते हैं। विश्‍व में सुरभि फैलाने वाले भगवान शिव मृत्‍यु न कि मोक्ष से हमें मुक्ति दिलाएं।

महामृत्युंजय मंत्र के वर्णो (अक्षरों) का अर्थ 

महामृत्युंघजय मंत्र के वर्ण पद वाक्यक चरण आधी ऋचा और सम्पुतर्ण ऋचा-इन छ: अंगों के अलग-अलग अभिप्राय हैं।

ओम त्र्यंबकम् मंत्र के 33 अक्षर हैं जो महर्षि वशिष्ठर के अनुसार 33 देवताआं के घोतक हैं। उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्यठ 1 प्रजापति तथा 1 षटकार हैं। इन तैंतीस देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहीत होती है जिससे महा महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही हैं । साथ ही वह नीरोग, ऐश्व‍र्य युक्ता धनवान भी होता है । महामृत्युंरजय का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से सुखी एवम समृध्दिशाली होता है । भगवान शिव की अमृतमययी कृपा उस निरन्तंर बरसती रहती है।

त्रि - ध्रववसु प्राण का घोतक है जो सिर में स्थित है।
यम - अध्ववरसु प्राण का घोतक है, जो मुख में स्थित है।
ब - सोम वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण कर्ण में स्थित है।
कम - जल वसु देवता का घोतक है, जो वाम कर्ण में स्थित है।
य - वायु वसु का घोतक है, जो दक्षिण बाहु में स्थित है।
जा- अग्नि वसु का घोतक है, जो बाम बाहु में स्थित है।
म - प्रत्युवष वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण बाहु के मध्य में स्थित है।
हे - प्रयास वसु मणिबन्धत में स्थित है।
सु -वीरभद्र रुद्र प्राण का बोधक है। दक्षिण हस्त के अंगुलि के मुल में स्थित है।
ग -शुम्भ् रुद्र का घोतक है दक्षिणहस्त् अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
न्धिम् -गिरीश रुद्र शक्ति का मुल घोतक है। बायें हाथ के मूल में स्थित है।
पु- अजैक पात रुद्र शक्ति का घोतक है। बाम हस्तह के मध्य भाग में स्थित है।
ष्टि - अहर्बुध्य्त् रुद्र का घोतक है, बाम हस्त के मणिबन्धा में स्थित है।
व - पिनाकी रुद्र प्राण का घोतक है। बायें हाथ की अंगुलि के मुल में स्थित है।
र्ध - भवानीश्वपर रुद्र का घोतक है, बाम हस्त अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।
नम् - कपाली रुद्र का घोतक है । उरु मूल में स्थित है।
उ- दिक्पति रुद्र का घोतक है । यक्ष जानु में स्थित है।
र्वा - स्था णु रुद्र का घोतक है जो यक्ष गुल्फ् में स्थित है।
रु - भर्ग रुद्र का घोतक है, जो चक्ष पादांगुलि मूल में स्थित है।
क - धाता आदित्यद का घोतक है जो यक्ष पादांगुलियों के अग्र भाग में स्थित है।
मि - अर्यमा आदित्यद का घोतक है जो वाम उरु मूल में स्थित है।
व - मित्र आदित्यद का घोतक है जो वाम जानु में स्थित है।
ब - वरुणादित्या का बोधक है जो वाम गुल्फा में स्थित है।
न्धा - अंशु आदित्यद का घोतक है । वाम पादंगुलि के मुल में स्थित है।
नात् - भगादित्यअ का बोधक है । वाम पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में स्थित है।
मृ - विवस्व्न (सुर्य) का घोतक है जो दक्ष पार्श्वि में स्थित है।
र्त्यो् - दन्दाददित्य् का बोधक है । वाम पार्श्वि भाग में स्थित है।
मु - पूषादित्यं का बोधक है । पृष्ठै भगा में स्थित है ।
क्षी - पर्जन्य् आदित्यय का घोतक है । नाभि स्थिल में स्थित है।
य - त्वणष्टान आदित्यध का बोधक है । गुहय भाग में स्थित है।
मां - विष्णुय आदित्यय का घोतक है यह शक्ति स्व्रुप दोनों भुजाओं में स्थित है।
मृ - प्रजापति का घोतक है जो कंठ भाग में स्थित है।
तात् - अमित वषट्कार का घोतक है जो हदय प्रदेश में स्थित है।उपर वर्णन किये स्थानों पर उपरोक्तध देवता, वसु आदित्य आदि अपनी सम्पुर्ण शक्तियों सहित विराजत हैं । जो प्राणी श्रध्दा सहित महामृत्युजय मंत्र का पाठ करता है उसके शरीर के अंग - अंग ( जहां के जो देवता या वसु अथवा आदित्यप हैं ) उनकी रक्षा होती है ।

मंत्रगत पदों की शक्तियॉं 

जिस प्रकार मंत्रा में अलग अलग वर्णो (अक्षरों ) की शक्तियाँ हैं । उसी प्रकार अलग - अल पदों की भी शक्तियॉं है।

त्र्यम्‍‍बकम् - त्रैलोक्यक शक्ति का बोध कराता है जो सिर में स्थित है।
यजा- सुगन्धात शक्ति का घोतक है जो ललाट में स्थित है ।
महे- माया शक्ति का द्योतक है जो कानों में स्थित है।
सुगन्धिम् - सुगन्धि शक्ति का द्योतक है जो नासिका (नाक) में स्थित है।
पुष्टि - पुरन्दिरी शकित का द्योतक है जो मुख में स्थित है।
वर्धनम - वंशकरी शक्ति का द्योतक है जो कंठ में स्थित है ।
उर्वा - ऊर्ध्देक शक्ति का द्योतक है जो ह्रदय में स्थित है ।
रुक - रुक्तदवती शक्ति का द्योतक है जो नाभि में स्थित है।
मिव - रुक्मावती शक्ति का बोध कराता है जो कटि भाग में स्थित है ।
बन्धानात् - बर्बरी शक्ति का द्योतक है जो गुह्य भाग में स्थित है ।
मृत्यो: - मन्त्र्वती शक्ति का द्योतक है जो उरुव्दंय में स्थित है।
मुक्षीय - मुक्तिकरी शक्तिक का द्योतक है जो जानुव्दओय में स्थित है ।
मा - माशकिक्तत सहित महाकालेश का बोधक है जो दोंनों जंघाओ में स्थित है ।
अमृतात - अमृतवती शक्तिका द्योतक है जो पैरो के तलुओं में स्थित है।



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॥ श्री रुद्राष्टकम ॥ - Rudrashtak - महाकवि तुलसीदास कृत



Shiva Rudrastakam

श्री रुद्राष्टकम महाकवि तुलसीदास जी ने लिखा था | रुद्राष्टक भगवान शिव की उपासना हैं जिसमे उनके रूप, सौन्दर्य, बल का भाव विभोर चित्रण किया गया हैं |रुद्राष्टक काव्य संस्कृत भाषा में लिखा गया हैं |
महाकवि तुलसीदास द्वारा रचित श्री रुद्राष्टकम


नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् |
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेङहम् ||१||
हे मोक्षस्वरूप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्रीशिवजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरूप में स्थित (अर्थात मायादिरहित), [मायिक] गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन आकाशरूप एवं आकाश को ही वस्त्ररूप में धारण करने वाले दिगम्बर [अथवा आकाश को भी आच्छादित करने वाले] आपको मैं भजता हूँ॥१॥ 

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् |
करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारपारं नतोङहम् ||२||
निराकार, ओङ्कार के मूल, तुरीय (तीनों गणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल,कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ॥२॥ 

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं मनोभूतकोटि प्रभाश्रीशरीरम् |
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगंगा लसदभालबालेन्दुकण्ठे भुजंगा ||३||
जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गम्भीर हैं, जिनके शरीर में करोडों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुन्दर नदी गङ्गाजी विराजमान हैं, जिनके ललाटपर बाल चन्द्रमा (द्वितीया का चन्द्रमा) और गले में सर्प सुशोभित हैं॥३॥ 

चलत्कुण्डलं भ्रुसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् |
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ||४||
 जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुन्दर भ्रुकुटी और विशाल नेत्र हैं; जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं;सिंहचर्म का वस्त्र धारण किये और मुण्डमाला पहने हैं; उन सबके प्यारे और सबके नाथ [कल्याण करने वाले] श्रीशङ्करजी को मैं भजता हूँ॥४॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् |
त्रयः शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं भजेङहं भावानीपतिं भावगम्यम् ||५||
प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोडों सूर्यो के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (दु:खों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किये, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्रीशङ्करजी को मैं भजता हूँ॥५॥ 

कलातिकल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनान्ददाता पुरारी |
चिदानंदसंदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ||६||
कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्पका अन्त (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु सच्चिदानन्दघन, मोह को हरने वाले, मन को मथ डालने वाले कामदेव के शत्रु, हे प्रभो! प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये॥६॥ 

न यावद उमानाथपादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् |
न तावत्सुखं शान्ति संतापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ||७||
 जबतक, पार्वती के पति आपके चरणकमलों को मनुष्य नहीं भजते, तबतक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अत: हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करने वाले प्रभो! प्रसन्न होइये॥७॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोङहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम् |
जरजन्मदुःखौ घतातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ||८||
मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो! बुढापा तथा जन्म (मृत्यु) के दु:खसमूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:ख से रक्षा कीजिये। हे ईश्वर! हे शम्भो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥८॥ 

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।ये पठन्ति नरा भक्तया तेषां शम्भु: प्रसीदति॥
 भगवान रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शङ्करजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढते हैं, उन पर भगवान् शम्भु प्रसन्न होते हैं॥९॥

महाकवि तुलसीदास द्वारा रचित श्री रुद्राष्टकम(Shiva Rudrastakam) श्री रामचरितमानस महाकाव्य ग्रन्थ से

श्री रुद्राष्टकम हिंदी अर्थ सहित - Devnagari (sanskrit) Rudrashtak Rudrashtakam with hindi meaning
महाकवि तुलसीदास द्वारा रचित श्री रुद्राष्टकम(Shiva Rudrastakam) श्री रामचरितमानस महाकाव्य ग्रन्थ से
महाकवि तुलसी दास द्वारा रचित श्री रुद्राष्टकम(Shiva Rudrastakam) श्री राम चरित मानस महा काव्य ग्रन्थ से


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महान्यायवादी मुकुल रोहतगी की नैतिकता



स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर परसों मैंने समाचार पढ़ा कि भारत के महान्यायवादी मुकुल रोहतगी कहते है कि शराब कंपनियों की वकालत इसलिए कर रहे है कि शराब कंपनियां उनकी पुरानी क्लाइंट है और सरकार से अनुमति लेकर वह केरल सरकार के विरूद्ध सुप्रीम कोर्ट में पैरवी है। 
निश्चित रूप से अगर सरकार से अनुमति लेकर भी अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी शराब कम्पनियों की पैरवी कर रहे है तो भी उनका कृत्य सर्वथा अनुचित एवं निंदनीय है। अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी भारत सरकार के वकील होकर शराब कंपनियों की ओर से भारत सरकार के आधीन के  केरल राज्य की सरकार के विरुद्ध वकालत कर रहे हैं। अगर उनके यही क्लाइंट भारत सरकार के विरुद्ध भी उन्हें वकील चुनते तो क्या वो भारत सरकार के विरूद्ध भी प्राइवेट शराब कम्पनियों की करते? उन्हें अपनी निष्ठां जाहिर करनी चाहिए कि वे 16 हजार की फीस के साथ भोकाल देने वाली भारत सरकार के वकील है या करोडो की फीस देने वाले अपने पुराने क्लाइंट के वकील है।
सरकारी वकालत में रूतबा तो होता है किन्तु प्राइवेट प्रेक्टिस जैसी इनकम नहीं होती है। मुकुल रोहतगी जैसे वकील प्राइवेट क्लाइंट से प्रतिदिन की बहस पर 1 करोड़ रूपये लेते है किन्तु सरकार उन्हें मात्र 16000 रूपये देती है किन्तु करोडो रूपये की फीस में "महान्यायवादी" का जलवा नहीं होता है। महान्यायवादी रोहतगी साहब न पद का मोह छोड़ पा रहे है और न ही प्राइवेट प्रेक्टिस का, जिस कारण करोड़ो  की फीस के चक्कर में सरकार के विरूद्ध ही सुप्रीम कोर्ट में जिरह कर रहे है। 
स्वतंत्रता दिवस पर जैसी स्वतंत्रता अटार्नी जनरल रोहतगी साहब को मिली है ऐसी ही स्वतंत्रता भारत सरकार के तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी को भी मिलेगी कि  सरकारी जॉब  साथ एक दो साइड बिजीनेस  इस मंहगाई  के दौर में वो भी कर ले।  :)

शराब लॉबी की पैरवी करने पर घिरे अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी By एबीपी न्यूज़



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॥ श्री भवानी अष्टकं ॥ (Shri Bhavani Ashtakam)



Shri Bhavani Ashtakam

न तातो न माता न बन्धुर्न दाता 
न पुत्रो न पुत्री न भूत्यो न भर्ता।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥१॥
 
Na tato, na mata, na bandhur na data,
Na putro, na putri , na bhrutyo , na bharta,
Na jayaa na Vidhya, na Vrutir mamaiva,
Gatistwam, Gatisthwam Twam ekaa Bhavani.


Neither the mother nor the father,
Neither the relation nor the friend,
Neither the son nor the daughter,
Neither the servant nor the husband,
Neither the wife nor the knowledge,
And neither my sole occupation,
Are my refuges that I can depend, Oh, Bhavani,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani.

******


भवाब्धावपारे महादु:खभीरु:
पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्त:।
कुसंसारपाशप्रबद्ध: सदाहं 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥२॥
Bhavabdhava pare, Maha dhukhah Bheeruh,
Papaata prakami , pralobhi pramatah,
Kusamsara pasha prabadhah sadaham,
gatisthwam, gatisthwam thwam ekaa bhavani..


I am in this ocean of birth and death,
I am a coward, who dare not face sorrow,
I am filled with lust and sin,
I am filled with greed and desire,
And tied I am, by the this useless life that I lead,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani.


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न जानामि दानं न च ध्यानयोगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम् ।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगम् 
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥३॥
Na Janaami Dhanam, Na cha dhyana yogam,
Na janami tantram, na cha stotra mantram,
Na janami poojam, na cha nyasa yogam,
gatistwam, gatistwam twam ekaa bhavani..


Neither do I know how to give,
Nor do I know how to meditate,
Neither do I know Thanthra*,
Nor do I know stanzas of prayer,
Neither do I know how to worship,
Nor do I know the art of yoga,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani
* A form of worship by the yogis


******

न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थ
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित् ।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातर्गतिस्तवं 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥४॥
Na janami Punyam, Na janami theertam,
Na janami muktim, layam vaa kadachit,
Na janami bhaktim, vrutham vaapi maatha,
gatistwam, gatistwam twam ekaa bhavani.

Know I not how to be righteous,
Know I not the way to the places sacred,
Know I not methods of salvation,
Know I not how to merge my mind with God,
Know I not the art of devotion,
Know I not how to practice austerities, Oh, mother,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani


******

कुकर्मी कुसङ्गी कुबुद्धि: कुदास:
कुलाचारहीन: कदाचारलीन:।
कुदृष्टि: कुवाक्यप्रबन्ध: सदाहम् 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥५॥
Kukarmi, kusangi, kubudhih, kudhasah,
Kulachara heenah, kadhachara leenah,
Kudrushtih, kuvakya prabandhah, sadaham,
gatisthwam, gatisthwam thwam ekaa bhavani.

Perform I bad actions,
Keep I company of bad ones,
Think I bad and sinful thoughts,
Serve I Bad masters,
Belong I to a bad family,
Immersed I am in sinful acts,
See I with bad intentions,
Write I collection of bad words,
Always and always,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani.



******
 
प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं
दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित् ।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥६॥
 Prajesam, Ramesam, Mahesam, Suresam,
Dhinesam, Nisitheswaram vaa kadachit,
Na janami chanyath sadaham saranye,
gatisthwam, gatisthwam thwam ekaa bhavani.


Neither Do I know the creator,
Nor the Lord of Lakshmi,
Neither do I know the lord of all,
Nor do I know the lord of devas,
Neither do I know the God who makes the day,
Nor the God who rules at night,
Neither do I know any other Gods,
Oh, Goddess to whom I bow always,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani


******

विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥७॥
Vivadhe, Vishadhe, pramadhe, pravase,
Jale cha anale parvathe shatru madhye,
Aranye, saranye sada maam prapahi,
gatistwam, gatistwam twam ekaa bhavani.

 
While I am in a heated argument,
While I am immersed in sorrow,
While I am suffering an accident,
While I am travelling far off,
While I am in water or fire,
While I am on the top of a mountain,
While I am surrounded by enemies,
And while I am in a deep forest,
Oh Goddess, I always bow before thee,
So you are my refuge and my only refuge, Bhavani


******

अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो
महाक्षीणदीन: सदा जाडयवक्त्र:।
विषत्तौ प्रविष्ट: प्रणष्ट: सदाहं 

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥८॥
Anadho, dharidro, jara roga yukto,
Maha Ksheenah dheena, sada jaadya vaktrah,
Vipatou pravishtah, pranshatah sadhaham,
gatisthwam, gatisthwam thwam ekaa bhavani.

While being an orphan,
While being extremely poor,
While affected by disease of old age,
While I am terribly tired,
While I am in a pitiable state,
While I am being swallowed by problems,
And While I suffer serious dangers,
I always bow before thee,
So you are my refuge and only refuge, Bhavanid


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श्रीमदाध्यशङ्कराचार्य विरचित श्री  भवानी अष्टकं
Shri Bhavani Ashtakam by Sri Adi Shankaracharya

Shri Bhavani Durga Maa Devi Adi Shankaracharya

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॥ शिव मानसपूजा ॥ - भावार्थ सहित (Shiv Manas Puja)



Shiv Manas Puja

आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा रचित शिव मानस पूजा शिव की एक अनूठी स्तुति है । यह स्तुति शिव भक्ति मार्ग को अत्यधिक सफलता के साथ ही एक अत्यंत गूढ़ रहस्य को समझाता है । शिव मात्र भक्ति द्वारा प्राप्त हो सकते हैं, उनकी भक्ति हेतु बाह्य आडम्बर की कोई आवश्यकता नहीं है । इस स्तुतिमें हम प्रभु को भक्ति द्वारा मानसिक रूप से कल्पना की हुई वस्तुएं समर्पित करते हैं । हम उन्हें रत्न जड़ित सिंहासन पर आसीन करते हैं, वस्त्र, नैवेद्य तथा भक्ति अर्पण करते हैं; परन्तु ये सभी हम स्थूल रूप में नहीं अपितु मानसिक रूप में अर्पण करते हैं । इस प्रकार हम स्वयं को शिव को समर्पित कर शिव स्वरूप में विलीन हो जाते हैं ।

रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं।
नाना रत्न विभूषितम्‌ मृग मदामोदांकितम्‌ चंदनम॥


जाती चम्पक बिल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा।
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितम्‌ गृह्यताम्‌॥1॥


मैं अपने मन में ऐसी भावना करता हूँ कि हे पशुपति देव! संपूर्ण रत्नों से निर्मित इस सिंहासन पर आप विराजमान हों। हिमालय के शीतल जल से मैं आपको स्नान करवा रहा हूँ। स्नान के उपरांत रत्नजड़ित दिव्य वस्त्र आपको अर्पित है। केसर-कस्तूरी में बनाया गया चंदन का तिलक आपके अंगों पर लगा रहा हूँ।
जूही, चंपा, बिल्वपत्र आदि की पुष्पांजलि आपको समर्पित है। सभी प्रकार की सुगंधित धूप और दीपक मानसिक प्रकार से आपको दर्शित करवा रहा हूँ, आप ग्रहण कीजिए।

सौवर्णे नवरत्न खंडरचिते पात्र धृतं पायसं।
भक्ष्मं पंचविधं पयोदधि युतं रम्भाफलं पानकम्‌॥


शाका नाम युतं जलं रुचिकरं कर्पूर खंडौज्ज्वलं।
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु॥2॥


मैंने नवीन स्वर्णपात्र, जिसमें विविध प्रकार के रत्न जड़ित हैं, में खीर, दूध और दही सहित पाँच प्रकार के स्वाद वाले व्यंजनों के संग कदलीफल, शर्बत, शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मृदु जल एवं ताम्बूल आपको मानसिक भावों द्वारा बनाकर प्रस्तुत किया है। हे कल्याण करने वाले! मेरी इस भावना को स्वीकार करें।

छत्रं चामर योर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निमलं।
वीणा भेरि मृदंग काहलकला गीतं च नृत्यं तथा॥


साष्टांग प्रणतिः स्तुति-र्बहुविधा ह्येतत्समस्तं ममा।
संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो॥3॥


हे भगवन, आपके ऊपर छत्र लगाकर चंवर और पंखा झल रहा हूँ। निर्मल दर्पण, जिसमें आपका स्वरूप सुंदरतम व भव्य दिखाई दे रहा है, भी प्रस्तुत है। वीणा, भेरी, मृदंग, दुन्दुभि आदि की मधुर ध्वनियाँ आपको प्रसन्नता के लिए की जा रही हैं। स्तुति का गायन, आपके प्रिय नृत्य को करके मैं आपको साष्टांग प्रणाम करते हुए संकल्प रूप से आपको समर्पित कर रहा हूँ। प्रभो! मेरी यह नाना विधि स्तुति की पूजा को कृपया ग्रहण करें।

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः॥

संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो।
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्॥4॥

हे शंकर जी, मेरी आत्मा आप हैं। मेरी बुद्धि आपकी शक्ति पार्वती जी हैं। मेरे प्राण आपके गण हैं। मेरा यह पंच भौतिक शरीर आपका मंदिर है। संपूर्ण विषय भोग की रचना आपकी पूजा ही है। मैं जो सोता हूँ, वह आपकी ध्यान समाधि है। मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है। मेरी वाणी से निकला प्रत्येक उच्चारण आपके स्तोत्र व मंत्र हैं। इस प्रकार मैं आपका भक्त जिन-जिन कर्मों को करता हूँ, वह आपकी आराधना ही है।

कर चरण कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम्‌।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व जय जय करणाब्धे श्री महादेव शम्भो॥5॥
हे परमेश्वर! मैंने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र अथवा मन से अभी तक जो भी अपराध किए हैं। वे विहित हों अथवा अविहित, उन सब पर आपकी क्षमापूर्ण दृष्टि प्रदान कीजिए। हे करुणा के सागर भोले भंडारी श्री महादेवजी, आपकी जय हो। जय हो।

इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचिता शिवमानसपूजा सम्पूर्णं

शिवमानसपूजा - भावार्थ सहित (Shiv Manas Puja)


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॥ मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् ॥ Mritasanjeevani Stotram



मृतसञ्जीवन स्तोत्रम्
Mritasanjeevani Stotram
Mritasanjeevani Stotram
एवमारध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमेश्वरं।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत् सदा ॥१॥
evamaradhy gaurishan devan mrityungjayameshvaran ।
mritasangjivanan namna kavachan prajapet sada ॥

गौरीपति मृत्युंजयेश्वर भगवान शंकर की विधि पूर्वक आराधना करने के पश्चात भक्त को सदा मृतसञ्जीवन नामक कवच का सुस्पष्ट पाठ करना चाहिये ॥१॥

सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं ।
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं ॥ २॥
sarat sarataran punyan guhyadguhyataran shubhan ।
mahadevasy kavachan mritasangjivanamakan ॥

महादेव भगवान् शङ्कर का यह मृतसञ्जीवन नामक कवच का तत्त्वका भी तत्त्व है, पुण्यप्रद है गुह्य और मङ्गल प्रदान करनेवाला है ॥२॥

समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं ।
शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥३॥
samahitamana bhootva shrinushv kavachan shubhan ।
shritvaitaddivy kavachan rahasyan kuru sarvada ॥

[आचार्य शिष्य को उपदेश करते हैं कि – हे वत्स! ] अपने मन को एकाग्र करके इस मृतसञ्जीवन कवच को सुनो । यह परम कल्याणकारी दिव्य कवच है । इसकी गोपनीयता सदा बनाये रखना ॥३॥

वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः ।
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥४॥
varabhayakaro yajva sarvadevanishevitah ।
mrityungjayo mahadevah prachyan man patu sarvada ॥

जरा से अभय करने वाले, निरन्तर यज्ञ करने वाले, सभी देवताओं से आराधित हे मृत्युंजय महादेव ! आप पूर्व-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें ॥४॥

दधाअनः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः।
सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥५॥
dadhaanah shaktimabhayan trimukhan shadbhujah prabhuh ।
sadashivo-a-gniroopi mamagneyyan patu sarvada ॥

अभय प्रदान करने वाली शक्ति को धारण करने वाले, तीन मुख वाले तथा छ: भुजाओं वाले, अग्रि रूपी प्रभु सदाशिव अग्नि कोण में मेरी सदा रक्षा करें ॥५॥

अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः ।
यमरूपि महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु ॥६॥
ashtadasabhujopeto dandabhayakaro vibhuh ।
yamaroopi mahadevo dakshinnasyan sadavatu ॥

अठारह भुजाओं से युक्त, हाथ में दण्ड और अभयमुद्रा धारण करने वाले, सर्वत्र व्याप्त यम रुपी महादेव शिव दक्षिण-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें ॥६॥

खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः ।
रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु ॥७॥
khadgabhayakaro dhiro rakshogannanishevitah ।
rakshoroopi mahesho man nairrityan sarvadavatu ॥

हाथमें खड्ग और अभयमुद्रा धारण करने वाले, धैर्यशाली, दैत्यगणों से आराधित रक्षोरुपी महेश नैर्ऋत्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें ॥७॥

पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः ।
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु ॥८॥
pashabhayabhujah sarvaratnakaranishevitah ।
varunatma mahadevah pashchime man sadavatu ॥

हाथ में अभयमुद्रा और पाश धाराण करनेवाले, शभी रत्नाकरों से सेवित, वरुणस्वरूप महादेव भगवान् शंकर पश्चिम- दिशा में मेरी सदा रक्षा करें ॥८॥

गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः ।
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा ॥९॥
gadabhayakarah prannanayakah sarvadagatih ।
vayavyan marutatma man shangkarah patu sarvada ॥
हाथों में गदा और अभयमुद्रा धारण करने वाले, प्राणों के रक्षक, सर्वदा गतिशील वायु स्वरूप शंकर जी वायव्य कोण में मेरी सदा रक्षा करें ॥९॥ 
 
शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः ।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः ॥१०॥
shangkhabhayakarastho man nayakah parameshvarah ।
sarvatmantaradigbhage patu man shangkarah prabhuh ॥

हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करने वाले नायक (सर्व मार्ग द्रष्टा) सर्वात्मा सर्वव्यापक परमेश्वर भगवान शिव समस्त दिशाओं के मध्य में मेरी रक्षा करें ॥१०॥

शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः ।
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥११॥
shoolabhayakarah sarvavidyanamadhinayakah ।
eeshanatma tathaishanyan patu man parameshvarah ॥

हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करने वाले, सभी विद्याओं के स्वामी, ईशान स्वरूप भगवान परमेश्वर शिव ईशान कोण में मेरी रक्षा करें ॥११॥

ऊर्ध्वभागे ब्रःमरूपी विश्वात्माऽधः सदावतु ।
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः॥१२॥
oordhvabhage brahmaroopi vishvatma-a-dhah sadavatu ।
shiro me shangkarah patu lalatan chandrashekharah ॥

ब्रह्म रूपी शिव मेरी ऊर्ध्वभाग में तथा विश्व आत्म स्वरूप शिव अधोभाग में मेरी सदा रक्षा करें । शंकर मेरे सिर की और चन्द्रशेखर मेरे ललाट की रक्षा करें ॥१२॥

भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचनेऽवतु ।
भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥१३॥
bhoomadhyan sarvalokeshastrinetro lochane-a-vatu ।
bhrooyugman girishah patu karnau patu maheshvarah ॥

मेरे भौंहों के मध्य में सर्व लोकेश और दोनों नेत्रों की त्रिनेत्र भगवान शंकर रक्षा करें, दोनों भौंहों की रक्षा गिरिश एवं दोनों कानों को रक्षा भगवान महेश्वर करें ॥१३॥

नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः ।
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु ॥१४॥
nasikan me mahadev oshthau patu vrishadhvajah ।
jihvan me dakshinamoortirdantanme girisho-a-vatu ॥
 महादेव मेरी नासिका की तथा वृषभध्वज मेरे दोनों ओठों की सदा रक्षा करें । दक्षिणामूर्ति मेरी जिह्वा की तथा गिरिश मेरे दांतों की रक्षा करें ॥१४॥

मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः।
पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम ॥१५॥
mrituyngjayo mukhan patu kanthan me nagabhooshannah ।
pinaki matkarau patu trishooli hridayan mam ॥

मृत्युञ्जय मेरे मुख की एवं नागभूषण भगवान शिव मेरे कंठ की रक्षा करें । पिनाकी मेरे दोनों हाथोंकी तथा त्रिशूली मेरे हृदय की रक्षा करें ॥१५॥

पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः ।
नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः ॥१६॥
pangchavaktrah stanau patu udaran jagadishvarah ।
nabhin patu viroopakshah parshvau me parvatipatih ॥

पञ्चवक्त्र मेरे दोनों स्तनों की और जगदीश्वर मेरे उदर की रक्षा करें । विरूपाक्ष नाभि की और पार्वती पति पार्श्वभाग की रक्षा करें ॥१६॥

कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः।
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः ॥१७॥
katadvayan girishau me prishthan me pramathadhipah ।
guhyan maheshvarah patu mamoroo patu bhairavah ॥

गिरीश मेरे दोनों कटिभाग की तथा प्रमथ अधिप पृष्ठभाग की रक्षा करें । महेश्वर मेरे गुह्यभाग की और भैरव मेरे दोनों ऊरुओं की रक्षा करें ॥१७॥

जानुनी मे जगद्दर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका ।
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥१८॥
januni me jagaddarta jangghe me jagadambika ।
padau me satatan patu lokavandyah sadashivah ॥

जगत धर्ता मेरे दोनों घुटनों की, जगदम्बिका मेरे दोनों जांघों की तथा लोक वन्दनीय सदाशिव निरन्तर मेरे दोनों पैरों की रक्षा करें ॥१८॥ 

गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम ।
मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः ॥१९॥
girishah patu me bharyan bhavah patu sutanmam ।
mrityungjayo mamayushyan chittan me gannanayakah ॥
गिरीश मेरी भार्या की रक्षा करें तथा भव मेरे पुत्रों की रक्षा करें । मृत्युञ्जय मेरे आयुकी गणनायक मेरे चित्तकी रक्षा करें ॥१९॥ 

सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः ।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम् ॥२०॥
sarvanggan me sada patu kalakalah sadashivah ।
etatte kavachan punyan devatanan ch durlabham ॥

कालों के काल सदाशिव मेरे सभी अंगों की रक्षा करें । [ हे वत्स ! ] देवताओं के लिए भी दुर्लभ इस पवित्र कवच का वर्णन मैंने तुमसे किया है ॥२०॥

मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम् ।
सह्स्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥२१॥
mritasangjivanan namna mahadeven keertitam।
sahsravartanan chasy purashcharannamiritam ॥

महादेव जी ने मृतसञ्जीवन नामक इस कवच को कहा है । इस कवच का सहस्त्र आवृत्ति को पुरश्चरण कहा गया है ॥२१॥

यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः ।
सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥२२॥
yah pathechchhrinuyannityan shravayetsu samahitah ।
sakalamrityun nirjity sadayushyan samashnute ॥

जो अपने मन को एकाग्र करके नित्य इसका पाठ करता है, सुनता अथवा दूसरों को सुनाता है, वह अकाल मृत्यु को जीतकर पूर्ण आयु का उपयोग करता है ॥ २२॥
हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ ।
आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥२३॥
hasten va yada sprishtva mritan sangjivayatyasau ।
aadhayovyadhyastasy n bhavanti kadachan ॥

जो व्यक्ति अपने हाथ से मरणासन्न व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करते हुए इस मृतसञ्जीवन कवच का पाठ करता है, उस आसन्न मृत्यु प्राणी के भीतर चेतना आ जाती है । फिर उसे कभी आधि-व्याधि नहीं होतीं ॥२३॥

कालमृयुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा ।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥२४॥
kalamriyumapi praptamasau jayati sarvada ।
animadigunaishvaryan labhate manavottamah ॥

यह मृतसञ्जीवन कवच काल के गाल में गये हुए व्यक्ति को भी जीवन प्रदान कर देता है और वह मानव उत्तम अणिमा आदि गुणों से युक्त ऐश्वर्यको प्राप्त करता है ॥२४॥

युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं ।
युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥२५॥
yuddarambhe pathitvedamashtavishativarakan ।
yuddamadhye sthitah shatruh sadyah sarvairn drishyate ॥

युद्ध आरंभ होने के पूर्व जो इस मृतसञ्जीवन कवच का २८ बार पाठ करके रणभूमि में उपस्थित होता है, वह उस समय सभी शत्रुओं से अदृश्य रहता है ॥२५॥

न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै ।
विजयं लभते देवयुद्दमध्येऽपि सर्वदा ॥२६॥
n brahmadini chastrani kshayan kurvanti tasy vai ।
vijayan labhate devayuddamadhye-a-pi sarvada ॥

यदि देवताओं के भी साथ युद्ध छिड जाये तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नही कर सकते, वह विजय प्राप्त करता है ॥२६॥

प्रातरूत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं ।
अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥२७॥
pratarootthay satatan yah pathetkavachan shubhan ।
akshayyan labhate saukhyamih loke paratr ch ॥

जो प्रात:काल उठकर इस कल्याणकारी कवच सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा परलोकमें भी अक्षय्य सुख प्राप्त होता है ॥२७॥

सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः ।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥२८॥
sarvavyadhivinirmriktah sarvarogavivarjitah ।
 ajaramarano bhootva sada shodashavarshikah ॥
वह सम्पूर्ण व्याधियों से मुक्त हो जाता है, सब प्रकार के रोग उसके शरीर से भाग जाते हैं । वह अजर-अमर होकर सदा के लिये सोलह वर्ष वाला व्यक्ति बन जाता है ॥२८॥

विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान् ।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम् ॥२९॥
vicharavyakhilan lokan prapy bhoganshch durlabhan ।
tasmadidan mahagopyan kavacham samudahritam ॥
इस लोक में दुर्लभ भोगों को प्राप्त कर संपूर्ण लोकों में विचरण करता रहता है। इसलिये इस महा गोपनीय कवच को मृतसञ्जीवन नाम से कहा है ॥२९॥

मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम् ॥३०॥
mritasangjivanan namna devatairapi durlabham ॥
यह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है ॥३०॥

॥ इति वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् ॥
॥ iti vasishth krit mritasangjivan stotram ॥

॥ इस प्रकार मृतसञ्जीवन कवच सम्पूर्ण हुआ ॥
 
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