श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या की समय गाथा



 
यदि राष्ट्र की धरती छिन जाए तो शौर्य उसे वापस ला सकता है, यदि धन नष्ट हो जाए तो परिश्रम से कमाया जा सकता है, यदि राज्यसत्ता छिन जाए तो पराक्रम उसे वापस ला सकता है परन्तु यदि राष्ट्र की चेतना सो जाए, राष्ट्र अपनी पहचान ही खो दे तो कोई भी शौर्य, श्रम या पराक्रम उसे वापस नहीं ला सकता। इसी कारण भारत के वीर सपूतों ने, भीषण विषम परिस्थितियों में, लाखों अवरोधों के बाद भी राष्ट्र की इस चेतना को जगाए रखा। इसी राष्ट्रीय चेतना और पहचान को बचाए रखने का प्रतीक है श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण का संकल्प।

गौरवमयी अयोध्या
अयोध्या की गौरवगाथा अत्यन्त प्राचीन है। अयोध्या का इतिहास भारत की संस्कृति का इतिहास है। अयोध्या सूर्यवंशी प्रतापी राजाओं की राजधानी रही, इसी वंश में महाराजा सगर, भगीरथ तथा सत्यवादी हरिशचन्द्र जैसे महापुरुष उत्पन्न हुए, इसी महान परम्परा में प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ। पाँच जैन तीर्थंकरों की जन्मभूमि अयोध्या है। गौतम बुद्ध की तपस्थली दंत धावन कुण्ड भी अयोध्या की ही धरोहर है। गुरुनानक देव जी महाराज ने भी अयोध्या आकर भगवान श्रीराम का पुण्य स्मरण किया था, दर्शन किए थे। अयोध्या में ब्रह्मकुण्ड गुरूद्वारा है। मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम का जन्मस्थान होने के कारण पावन सप्तपुरियों में एक पुरी के रूप में अयोध्या विख्यात है। सरयु के तट पर बने प्राचीन पक्के घाट शताब्दियों से भगवान श्रीराम का स्मरण कराते आ रहे हैं। श्रीराम जन्मभूमि हिन्दुओं की आस्था का प्रतीक है। अयोध्या मन्दिरों की ही नगरी है। हजारों मन्दिर हैं, सभी राम के हैं। विश्व प्रसिद्ध स्विट्स्बर्ग एटलस में वैदिक कालीन, महाभारत कालीन, 8वीं से 12वीं, 16वीं, 17वीं शताब्दी के भारत के मानचित्र मौजूद हैं। इन मानचित्रों में अयोध्या को धार्मिक नगरी के रूप में दर्शाया गया है। ये मानचित्र अयोध्या की प्राचीनता और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाते हैं। सभी सम्प्रदायों ने भी ये माना है कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित अयोध्या यही है।

आक्रमण का प्रतिकार
श्रीराम जन्मभूमि पर कभी एक भव्य विशाल मंदिर खड़ा था। मध्ययुग में धार्मिक असहिष्णु, आतताई, इस्लामिक आक्रमणकारी बाबर के क्रूर प्रहार ने जन्मभूमि पर खड़े सदियों पुराने मन्दिर को ध्वस्त कर दिया। आक्रमणकारी बाबर के कहने पर उसके सेनापति मीर बाकी ने मंदिर को तोड़कर ठीक उसी स्थान पर एक मस्जिद जैसा ढांचा खड़ा कराया। 1528 ई0 के इस कुकृत्य से सदा-सदा के लिए हिन्दू समाज के मस्तक पर अपमान का कलंक लग गया। श्रीराम जन्मस्थान पर मंदिर का पुनर्निर्माण इस अपमान के कलंक को धोने के लिए तथा हमारी आस्था की रक्षा के साथ-साथ भावी पीढ़ी को प्रेरणा देने के लिए आवश्यक है। अपमान का यह कलंक काशी और मथुरा में भी हमें सताता है।
इस स्थान को प्राप्त करने के लिए अवध का हिन्दू समाज 1528 ई0 से ही निरंतर संघर्ष करता आ रहा है। सन् 1528 से 1949 ई0 तक जन्मभूमि को प्राप्त करने के लिए 76 युद्ध हुए। इस संघर्ष में भले ही समाज को पूर्ण सफलता नहीं मिली पर समाज ने कभी हिम्मत भी नहीं हारी। आक्रमणकारियों को कभी चैन से बैठने नहीं दिया। बार-बार लड़ाई लड़कर जन्मभूमि पर अपना कब्जा जताते रहे। हर लड़ाई में जन्मभूमि को प्राप्त करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़े। 1934 ई0 का संघर्ष तो जग जाहिर है, जब अयोध्या की जनता ने ढांचे को भारी नुकसान पहुँचाया था। इन सभी संघर्षों में लाखों रामभक्तों ने अपना सर्वस्व समर्पण कर आहुतियाँ दी। 6 दिसम्बर, 1992 की घटना इस सतत् संघर्ष की ही अन्तिम परिणिति है, जब गुलामी का प्रतीक तीन गुम्बद वाला मस्जिद जैसा ढांचा ढह गया और श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर के पुनःनिर्माण का मार्ग खुल गया।

ढांचे की रचना
तथाकथित बाबरी मस्जिद कहे जाने वाले इस ढांचे में सदैव प्रभु श्रीराम की पूजा-अर्चना होती रही। इसी ढांचे में काले रंग के कसौटी पत्थर के 14 खम्भे लगे थे, जिस पर हिन्दु धार्मिक चिन्ह् उकेरे हुए थे। जो यह बताते थे कि पुराने मन्दिर के कुछ पत्थर मीरबाकी ने इस मस्जिदनुमा ढांचे के निर्माण में लगवाए। यह भी तथ्य है कि वहाँ कोई मीनार नहीं थी, वजु करने के लिए पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी।

भ्रमणकारी पादरी की डायरी
हिंदुओं के आराध्य भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का वर्णन अनेक विदेशी लेखकों और भ्रमणकारी यात्रियों ने किया है। फादर टाइफैन्थेलर का यात्रा वृत्तान्त इसका जीता-जागता उदाहरण है। ऑस्ट्रिया के इस पादरी ने 45 वर्षों तक (1740 से 1785) भारतवर्ष में भ्रमण किया, अपनी डायरी लिखी। लगभग पचास पृष्ठों में उन्होंने अवध का वर्णन किया, उन्होंने लिखा कि रामकोट में तीन गुम्बदों वाला ढांचा है उसमें 14 काले कसौटी पत्थर के खंभे लगे हैं, इसी स्थान पर भगवान श्रीराम ने अपने तीन भाइयों के साथ जन्म लिया। जन्मभूमि पर बने मंदिर को बाबर ने तुड़वाया। आज भी हिन्दू यहाँ साष्टांग दंडवत करते हैं, श्रद्धालु लोग इस स्थान की परिक्रमा करते हैं।

भगवान का प्राकट्य
समाज की श्रद्धा और इस स्थान को प्राप्त करने के सतत संघर्ष का एक रूप आजादी के बाद 22 दिसंबर, 1949 की रात्रि को देखने को मिला, जब ढांचे के अंदर भगवान प्रकट हुए। पंडित जवाहर लाल नेहरू उस समय देश के प्रधानमंत्री, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पंत और फैजाबाद के कलेक्टर के. के. नायर थे। नायर साहब ने ढांचे के सामने की दीवार में लोहे की सींखचों वाला दरवाजा लगवाकर ताला डलवा दिया, भगवान की पूजा के लिए पुजारी नियुक्त हुआ। पुजारी रोज सवेरे शाम भगवान की पूजा के लिए भीतर जाता था, जनता ताले के बाहर से पूजा करती थी, अनेक श्रद्धालु वहाँ कीर्तन करने बैठ गए, जो 6 दिसम्बर, 1992 तक उसी स्थान पर होता रहा।

ताला खुला

इसी ताले को खुलवाने का संकल्प सन्तों ने 8 अप्रैल, 1984 को विज्ञान भवन, दिल्ली में लिया। यही सभा प्रथम धर्म संसद कहलाई। श्रीराम जानकी रथों के माध्यम से व्यापक जन-जागरण हुआ। फैजाबाद के जिला न्यायाधीश श्री के. एम. पाण्डेय ने 01 फरवरी, 1986 को ताला खोलने का आदेश दे दिया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री वीरबहादुर सिंह थे।

शिला पूजन व शिलान्यास

भावी मंदिर का प्रारूप बनाया गया। अहमदाबाद के प्रसिद्ध मंदिर निर्माण कला विशेषज्ञ श्री सी. बी. सोमपुरा ने प्रारूप बनाया। इन्हीं के दादा ने सोमनाथ मन्दिर का प्रारूप बनाया था। मंदिर निर्माण के लिए जनवरी, 1989 में प्रयागराज में कुम्भ मेला के अवसर पर पूज्य देवरहा बाबा की उपस्थिति में गांव-गांव में शिला पूजन कराने का निर्णय हुआ। पौने तीन लाख शिलाएं पूजित होकर अयोध्या पहुँची। विदेश में निवास करने वाले हिन्दुओं ने भी मन्दिर निर्माण के लिए शिलाएं पूजित करके भारत भेजीं। पूर्व निर्धारित दिनांक 09 नवम्बर, 1989 को सब अवरोधों को पार करते हुए सबकी सहमति से मंदिर का शिलान्यास बिहार निवासी श्री कामेश्वर चैपाल के हाथों सम्पन्न हुआ। तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कांग्रेस के श्री नारायण दत्त तिवारी और भारत सरकार के गृह मंत्री श्री बूटा सिंह तथा प्रधानमंत्री स्व0 राजीव गांधी थे।

प्रथम कारसेवा
24 मई, 1990 को हरिद्वार में विराट हिन्दू सम्मेलन हुआ। सन्तों ने घोषणा की कि देवोत्थान एकादशी (30 अक्टूबर, 1990) को मंदिर निर्माण के लिए कार सेवा प्रारम्भ करेंगे। यह संदेश गांव-गांव तक पहुँचाने के लिए 01 सितम्बर, 1990 को अयोध्या में अरणी मंथन के द्वारा अग्नि प्रज्वलित की गई, इसे ‘रामज्योति’ कहा गया। दीपावली 18 अक्टूबर, 1990 के पूर्व तक देश के लाखों गांवों में यह ज्योति पहुँचा दी गई। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जी ने अहंकारपूर्ण घोषणा की कि ‘अयोध्या में परिन्दा भी पर नहीं मार सकता’, उन्होंने अयोध्या की ओर जाने वाली सभी सड़कें बन्द कर दीं, अयोध्या को जाने वाली सभी रेलगाडि़याँ रद्द कर दी गईं, 22 अक्टूबर से अयोध्या छावनी में बदल गई। फैजाबाद जिले की सीमा से श्रीराम जन्मभूमि तक पहंुचने के लिए पुलिस सुरक्षा के सात बैरियर पार करने पड़ते थे। फिर भी रामभक्तों ने 30 अक्टूबर को वानरों की भांति गुम्बदों पर चढ़कर झण्डा गाड़ दिया। सरकार ने 02 नवम्बर, 1990 को भयंकर नरसंहार किया। कलकत्ता निवासी दो सगे भाइयों में से एक को मकान से खींचकर गोली मारी गई, छोटा भाई बचाव में आया तो उसे भी वहीं गोली मार दी (कोठारी बन्धुओं का बलिदान)। कितने लोगों को मारा कोई गिनती नहीं। देशभर में रोष छा गया। कारसेवक दर्शन करके ही लौटे। कई दिन तक निरन्तर सत्याग्रह चला। कारसेवकों की अस्थियों का देशभर में पूजन हुआ। 14 जनवरी, 1991 को अस्थियाँ माघ मेला के अवसर पर प्रयागराज संगम में प्रवाहित कर दी गईं। मन्दिर निर्माण का संकल्प और मजबूत हो गया। घोषणा की गई कि सरकार झुके या हटे।

विराट प्रदर्शन

04 अप्रैल, 1991 को दिल्ली के वोट क्लब पर विशाल रैली हुई। देशभर से पचीस लाख रामभक्त दिल्ली पहुँचे। यह भारत के इतिहास की विशालतम रैली कहलाई। इस रैली की विशालता को देखकर बोट क्लब पर सभाएं करना प्रतिबंधित ही कर दिया गया। रैली में सन्तों की गर्जना हो रही थी तभी सूचना मिली कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। श्रीराम जन्मभूमि पर देश में जनादेश प्राप्त हो गया। उत्तर प्रदेश में पुनः चुनाव हुए। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का विरोध करने वाले पराजित हुए। श्री कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने।

समतलीकरण
श्रीराम जन्मभूमि न्यास ने उत्तर प्रदेश सरकार से राम कथाकुंज के लिए भूमि की मांग की। मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह जी ने 42 एकड़ भूमि श्रीराम कथाकुंज के लिए राम जन्मभूमि न्यास को पट्टे पर दी। यह भूमि ढांचे के पूर्व व दक्षिण दिशा में थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी 2.77 एकड़ भूमि तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अधिग्रहण की। जून, 1991 में उत्तर प्रदेश सरकार जब इस उबड़-खाबड़ भूमि का समतलीकरण करा रही थी, तब ढांचे के दक्षिणी, पूर्वी कोने की जमीन से अनेक पत्थर प्राप्त हुए, जिनमें शिव पार्वती की खंडित मूर्ति, सूर्य के समान अर्ध कमल, मन्दिर के शिखर का आमलक, उत्कृष्ट नक्काशी वाले पत्थर व अन्य मूर्तियाँ थी।

सर्वदेव अनुष्ठान व नींव ढलाई
09 जुलाई, 1992 से 60 दिवसीय सर्वदेव अनुष्ठान प्रारंभ हुआ। जन्मभूमि के ठीक सामने शिलान्यास स्थल से भावी मंदिर की नींव के चबूतरे की ढलाई भी प्रारंभ हुई। 15 दिनों तक ढलाई का काम चला। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने संतों से कुछ समय मांगा और नींव ढलाई का काम बन्द करने का निवेदन किया। संतों ने प्रधानमंत्री की बात मान ली और कुछ दूरी पर बनने वाले शेषावतार मंदिर की नींव के निर्माण के काम में लग गए। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर की जिस नींव की ढलाई हुई वह त्।थ्ज् है। यह नींव 290 फीट लम्बी, 155 फीट चैडी और 2-2 फीट मोटी एक-के-ऊपर-एक तीन परत ढलाई करके कुल 6 फीट मोटी बनेगी।

पादुका पूजन
नंदीग्राम में भरत जी ने 14 वर्ष वनवासी रूप में रहकर अयोध्या का शासन भगवान की पादुकाओं के माध्यम से चलाया था, इसी स्थान पर 26 सितम्बर, 1992 को श्रीराम पादुकाओं का पूजन हुआ। अक्टूबर मास में देश के गांव-गांव में इन पादुकाओं के पूजन द्वारा जन जागरण हुआ। रामभक्तों ने मन्दिर निर्माण का संकल्प लिया।

द्वितीय कारसेवा
दिल्ली में 30 अक्टूबर, 1992 को सन्त पुनः इकट्ठे हुए। यह पांचवीं धर्मसंसद थी। सन्तों ने फिर घोषणा की कि गीता जयन्ती (6 दिसम्बर, 1992) से कारसेवा पुनः प्रारम्भ करेंगे। सन्तों के आवाहन पर लाखों रामभक्त अयोध्या पहुँच गए। निर्धारित तिथि व समय पर रामभक्तों का रोष फूट पड़ा, जो ढांचे को समूल नष्ट करके ही शान्त हुआ।

ढांचे से प्राप्त शिलालेख
6 दिसम्बर, 1992 को जब ढांचा गिर रहा था तब उसकी दीवारों से शिलालेख प्राप्त हुआ। विशेषज्ञों ने पढ़कर बताया कि यह शिलालेख 1154 ई0 का संस्कृत में लिखा है, इसमें 20 पंक्तियाँ हैं। ऊँ नमः शिवाय से यह शिलालेख प्रारम्भ होता है। विष्णुहरि के स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर का इसमें वर्णन है। अयोध्या के सौन्दर्य का वर्णन है। दशानन के मान-मर्दन करने वाले का वर्णन है। ये समस्त पुरातात्त्विक साक्ष्य उस स्थान पर कभी खड़े रहे भव्य एवं विशाल मन्दिर के अस्तित्व को ही सिद्ध करते हैं।


संविधान निर्माताओं की दृष्टि में राम
भारतीयों के लिए तो राम आदर्श हैं, मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। संविधान निर्माताओं ने भी जब संविधान की प्रथम प्रति का प्रकाशन किया तब भारत की सांस्कृतिक व ऐतिहासिक प्राचीनता को दर्शाया है। संविधान की इस प्रति में तीसरे नम्बर का चित्र प्रभु श्रीराम, माता जानकी व लक्ष्मण जी का उस समय का है, जब वे लंका विजय के पश्चात पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या को वापस आ रहे हैं। संविधान निर्मात्री सभा में सभी मत-मतान्तरों के लोग थे, किसी ने आपत्ति नहीं उठाई। आखिर सबकी सहमति से ही वह चित्र छपा होगा। इसी संविधान में वैदिक काल के आश्रम (गुरुकुल), युद्ध के मैदान में विषादयुक्त अर्जुन को प्रेरणा देते हुए भगवान श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी आदि भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ पूज्य पुरुषों के चित्र संविधान निर्माताओं ने रखे हैं। अतः ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के जन्मस्थान की रक्षा करना हमारा संवैधानिक दायित्व भी है।

हस्ताक्षर अभियान
वर्ष 1993 में दस करोड़ नागरिकों के हस्ताक्षरों से युक्त एक ज्ञापन तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय को सौंपा गया था, जिसमें एक पंक्ति का संकल्प था कि ‘‘आज जिस स्थान पर रामलला विराजमान है, वह स्थान ही श्रीराम जन्मभूमि है, हमारी आस्था का प्रतीक है और वहाँ एक भव्य मन्दिर का निर्माण करेंगे।’’ सांस्कृतिक गुलामी से मुक्ति एक सतत प्रक्रिया श्रीराम जन्मभूमि को प्राप्त करने का यह अभियान ठीक वैसा ही है जैसा आजादी के बाद देश के गृहमंत्री सरदार पटेल ने देश से गुलामी के चिन्हों को हटाने के लिए संकल्प लिया था और आक्रमणकारी महमूद गजनी द्वारा तोड़े गए भगवान सोमनाथ के मन्दिर के पुनर्निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया था। सोमनाथ मन्दिर में प्राण-प्रतिष्ठा के समय तो तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद जी स्वयं उपस्थित रहे। भारत सरकार ने 1947 के बाद देश के पार्कों, चैराहों से विक्टोरिया की मूर्तियाँ हटाई। सड़कों के नाम बदले। दिल्ली का इर्विन होस्पिटल जयप्रकाश नारायण अस्पताल बना। विलिंग्टन होस्पिटल राम मनोहर लोहिया अस्पताल कहलाने लगा। मिन्टो ब्रिज को शिवाजी ब्रिज कहने लगे। मद्रास, कलकत्ता, बाॅम्बे के नाम बदल कर चेन्नई, कोलकाता और मुम्बई कर दिए, क्योंकि ये सब गुलामी की याद दिलाते थे।

अस्थायी मन्दिर का निर्माण
6 दिसम्बर, 1992 को ढांचा ढह जाने के बाद तत्काल बीच वाले गुम्बद के स्थान पर ही भगवान का सिंहासन और ढांचे के नीचे परंपरा से रखा चला आ रहा विग्रह सिंहासन पर स्थापित कर पूजा प्रारंभ कर दी। हजारों भक्तों ने रात और दिन लगभग 36 घंटे मेहनत करके बिना औजारों के केवल हाथों से उस स्थान के चार कोनों पर चार बल्लियाँ खड़ी करके कपड़े लगा दिए, 5-5 फीट ऊँची, 25 फीट लम्बी, 25 फीट चैड़ी ईंटों की दीवार खड़ी कर दी और बन गया मन्दिर। आज भी इसी स्थान पर पूजा हो रही है, जिसे अब भव्य रूप देना है।

न्यायालय द्वारा दर्शन की पुनः अनुमति
08 दिसम्बर 1992 अतिप्रातः सम्पूर्ण अयोध्या में कफ्र्यू लग गया। परिसर केन्द्रीय सुरक्षा बलों के हाथ में चला गया। परन्तु केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवान भगवान् की पूजा करते रहे। हरिशंकर जैन नाम के एक वकील ने उच्च न्यायालय में गुहार की, कि भगवान् भूखे हैं। राग, भोग, पूजन की अनुमति दी जाए। 01 जनवरी, 1993 को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी ने दर्शन-पूजन की अनुमति प्रदान की। अधिग्रहण एवं दर्शन की पीड़ादायी प्रशासनिक व्यवस्था 07 जनवरी 1993 को भारत सरकार ने ढांचे वाले स्थान को चारों ओर से घेरकर लगभग 67 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया। इस भूमि के चारों ओर लोहे के पाईपों की ऊँची-ऊँची दोहरी दीवारें खड़ी कर दी गईं। भगवान् तक पहंुचने के लिए बहुत संकरा गलियारा बनाया, दर्शन करने जानेवालों की सघन तलाशी की जाने लगी। जूते पहनकर ही दर्शन करने पड़ते हैं। आधा मिनट भी ठहर नहीं सकते। वर्षा, शीत, धूप से बचाव के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। इन कठिनाइयों के कारण अतिवृद्ध भक्त दर्शन करने जा ही नहीं सकते। अपनी इच्छा के अनुसार प्रसाद नहीं ले जा सकते। जो प्रसाद शासन ने स्वीकार किया है वही लेकर अन्दर जाना पड़ता है। दर्शन का समय ऐसा है मानो सरकारी दफ्तर हो। दर्शन की यह अवस्था अत्यन्त पीड़ादायी है। इस अवस्था में परिवर्तन लाना है।

भावी मंदिर की कार्यशाला
श्रीराम जन्मभूमि पर बनने वाला मन्दिर तो केवल पत्थरों से बनेगा। सीमेंट, कंक्रीट से नहीं। मंदिर में लोहा नहीं लगेगा। नींव में भी नहीं। मन्दिर दो मंजिला होगा। भूतल पर रामलला और प्रथम तल पर राम दरबार होगा। सिंहद्वार, नृत्य मंडप, रंग मण्डप, गर्भगृह और परिक्रमा मन्दिर के अंग हैं। 270 फीट लम्बा, 135 फीट चैड़ा तथा 125 फीट ऊँचा शिखर है। 10 फीट चैड़ा परिक्रमा मार्ग है। 106 खंभे हैं। 6 फीट मोटी पत्थरों की दीवारें लगेंगी। दरवाजों की चौखटें सफेद संगमरमर पत्थर की होंगी।
1993 से मन्दिर निर्माण की तैयारी तेज कर दी गई। मंदिर में लगने वाले पत्थरों की नक्काशी के लिए अयोध्या, राजस्थान के पिंडवाड़ा व मकराना में कार्यशालाएं प्रारम्भ हुईं। अब तक मन्दिर के फर्श पर लगने वाला सम्पूर्ण पत्थर तैयार किया जा चुका है। भूतल पर लगने वाले 16.6 फीट के 108 खम्भे तैयार हो चुके हैं। रंग मण्डप एवं गर्भगृह की दीवारों तथा भूतल पर लगने वाली संगमरमर की चैखटों का निर्माण पूरा किया जा चुका है। खम्भों के ऊपर रखे जाने वाले पत्थर के 185 बीमों में 150 बीम तैयार हैं। मन्दिर में लगने वाले सम्पूर्ण पत्थरों का 60 प्रतिशत से अधिक कार्य पूर्ण हो चुका है।
हम समझ लें कि श्रीराम जन्मभूमि सम्पत्ति नहीं है। हिन्दुओं के लिए श्रीराम जन्मभूमि आस्था है। भगवान की जन्मभूमि स्वयं में देवता है, तीर्थ है व धाम है। रामभक्त इस धरती को मत्था टेकते हैं। यह विवाद सम्पत्ति का विवाद ही नहीं है। इस कारण यह अदालत का विषय नहीं है। अदालत आस्थाओं पर फैसले नहीं देती।

अदालती प्रक्रिया
श्रीराम जन्मभूमि के लिए पहला मुकदमा हिन्दु की ओर से जिला अदालत में जनवरी, 1950 में दायर हुआ। दूसरा मुकदमा रामानन्द सम्प्रदाय के निर्माेही अखाड़ा की ओर से 1959 में दायर हुआ। सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड की ओर से तो दिसम्बर, 1961 में मुकदमा दायर हुआ। 40 साल तक फैजाबाद की जिला अदालत में ये मुकदमे ऐसे ही पड़े रहे। वर्ष 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश देवकीनन्दन अग्रवाल (अब स्वर्गीय) ने स्वयं रामलला और राम जन्मस्थान को वादी बनाते हुए अदालत में वाद दायर कर दिया, मुकदमा स्वीकार हो गया। सभी मुकदमे एक ही स्थान के लिए है अतः सबको एक साथ जोड़ने और एक साथ सुनवाई का आदेश भी हो गया। विषय की नाजुकता को समझते हुए सभी मुकदमे जिला अदालत से उठाकर उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को दे दिए गए। दो हिन्दू और एक मुस्लिम न्यायाधीश की पूर्ण पीठ बनी। इस पीठ के समक्ष 20 साल से इन मुकदमों की सुनवाई हो रही है। पीठ का 12 बार पुनर्गठन हो चुका है परन्तु अभी प्रक्रिया अधूरी है।

महामहिम राष्ट्रपति का प्रश्न व उत्खनन से प्राप्त अवशेष
भारत के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने ढांचा गिर जाने के बाद वर्ष 1993 में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की धारा 143 के अन्तर्गत अपना एक प्रश्न प्रस्तुत किया और उसका उत्तर चाहा। प्रश्न था कि ‘‘क्या ढांचे वाले स्थान पर 1528 ईसवी के पहले कोई हिन्दू मंदिर था ?’’ सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्न के उत्तर का दायित्व उच्च न्यायालय की अदालती प्रक्रिया पर डाल दिया। उच्च न्यायालय को इस प्रश्न का उत्तर खोजना था।
यदि 1528 ई0 में मन्दिर तोड़ा गया तो उसके अवशेष जमीन में जरूर दबे होंगे, यह खोजने के लिए उच्च न्यायालय ने स्वयं प्रेरणा से 2003 ई0 में राडार तरंगों से जन्मभूमि के नीचे की फोटोग्राफी कराई। फोटो विशेषज्ञ कनाडा से आए, उन्होंने अपने निष्कर्ष में लिखा कि किसी भवन के अवशेष दूर-दूर तक दिखते हैं। रिपोर्ट की पुष्टि के लिए खुदाई का आदेश हुआ। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने खुदाई की। खुदाई की रिपोर्ट फोटोग्राफी रिपोर्ट से मेल खा गयी। खुदाई में 27 दीवारें, दीवारों में लगे नक्काशीदार पत्थर, प्लास्टर, चार फर्श, दो पंक्तियों में बावन स्थानों पर खम्भों के नीचे की नींव की रचना मिली। एक शिव मंदिर प्राप्त हुआ। उत्खनन करने वाले विशेषज्ञों ने लिखा कि यहां उत्तरभारतीय शैली का कोई मंदिर कभी अवश्य रहा होगा। सभी तथ्य आज अदालत के रिकार्ड पर मौजूद हैं। पर उच्च न्यायालय का क्या फैसला आएगा ?कब आएगा ?यह यक्ष प्रश्न हमारे सामने मुँह बाए खड़ा है। न्यायालय कब और क्या निर्णय करेगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। अदालतों के निर्णयों के क्रियान्वयन का नैतिक बल सरकार के पास होगा या नहीं, यह कहना बहुत कठिन है। लेकिन यह तय है कि जागरुक और स्वाभिमानी समाज अपने सम्मान की रक्षा के लिए संकल्पबद्ध है।

वार्ताओं का इतिहास
आज अनेक लोग वार्ता की बात करते हैं। उन्हें जानना चाहिए कि वार्ताएं भी हुई हैं। स्वर्गीय राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में गृहमंत्री बूटा सिंह वार्ता कराया करते थे, हर मीटिंग में वार्ता के मुद्दे ही बदल जाते थे। स्व0 विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में एक वार्तालाप का दिन शुक्रवार था, मुस्लिम पक्ष के लोग दोपहर की नमाज के समय नमाज पढ़ने चले गए, वापस लौटे तो स्वामी सत्यमित्रानंद जी महाराज ने खड़े होकर अपना आंचल फैलाकर कहा कि ‘‘मैं आपसे श्रीराम जन्मभूमि की भीख मांगता हूँ’’, नमाज के बाद जकात (दान) होती है, आप मुझे जकात में दे दीजिए। वहाँ बैठे मुस्लिम पक्ष से जवाब आया कि ‘यह कोई माचिस की डिब्बी है’ जो दे दें। एक बार सैयद शहाबुद्दीन साहब ने स्वयं कहा था कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि किसी मंदिर को तोड़कर यह स्थान बना है, तो हम इसे छोड़ देंगे। अगली बैठक में शहाबुद्दीन साहब अपनी बात से पलट गए। श्री चन्द्रशेखर साहब जब प्रधानमंत्री थे तब भी वार्ताएं हुईं। दोनों पक्षों ने अपने साक्ष्य लिखित रूप में गृह राज्यमंत्री को दिए। साक्ष्यों का आदान-प्रदान हुआ। दोनों पक्षों ने एक दूसरे के साक्ष्यों के उत्तर/आपत्तियाँ दी। निर्णय हुआ कि दोनों पक्षों के विद्वान आमने-सामने बैठकर प्रस्तुत साक्ष्यों पर वार्तालाप करेंगे। 10 जनवरी, 1991 का दिनांक विद्वानों के मिलने के लिए तय हुआ परन्तु मुस्लिम पक्ष के राजस्व और कानूनी विशेषज्ञ मीटिंग में आए ही नहीं। पुनः 25 जनवरी, 1991 को गुजरात भवन में मीटिंग निर्धारित की गई। मुंिस्लम पक्ष का कोई भी विशेषज्ञ नहीं पहुँचा। मुस्लिम पक्ष की अनुपस्थिति को अपमानजनक समझते हुए वार्तालाप का दौर यहीं समाप्त हो गया। अनुभव यह आया कि वे वार्तालाप से भागते हैं या हर बार पैंतरा बदलते हैं। अब वार्ता कहाँ से शुरू होगी? वार्तालाप में लेन-देन भी होता है। भारत में निवास करने वाले वर्तमान मुस्लिम समाज का बाबर से कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है। बाबर कोई धार्मिक पुरुष नहीं था, वह मात्र आक्रमणकारी था। अतः मुस्लिम पक्ष श्रीराम जन्मभूमि से अपना वाद वापस ले और यह स्थान हिन्दू समाज को सौंप दे। हिन्दू समाज बदले में उन्हें अपनी आत्मीयता और सद्भाव देगा, जो अन्य किसी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकता। एकमेव मार्ग है कि सोमनाथ मंदिर निर्माण की तर्ज पर संसद कानून बनाए और श्रीराम जन्मभूमि हिन्दू समाज को सौंप दे। इसी मार्ग से 1528 के अपमान का परिमार्जन माना जाएगा।


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