स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है बरगद, पीपल और गूलर



बरगद, पीपल और गूलर मोरासी परिवार का सबसे उपयोगी स्वास्थ्यवर्धक और धामिक महत्व कावृक्ष है। यह अक्सर हर स्थान पर उपलब्ध है। इनवृक्षों के बारें में जानकारी निम्नवत है:-

बरगद (फ़ाइकस वेनगैलेंसिस)
 
बरगद या वटवृक्ष एक विशाल आकार का दीर्घायु वृक्ष है। मोरासी परिवार के इस सदस्य का वानस्पतिक नाम 'फ़ाइकस वेनगैलेंसिस'है। यह वृक्ष हमारे पौराणिक ग्रंथों से भी जुड़ा हैं। पुराणों में इसका उल्लेख न्यग्रोध नाम से मिलता है। बरगद के पत्ते चैड़े, गोलाकार, दुग्धस्रावीः एवं मोटे होते हैं। इसके फल फरवरी और मई के बीच लगते हैं जिनका आकार छोटा होता है। पकने पर ये चमकीले लाल हो जाते हैं। लोगों का ऐसा विश्वास होता है कि वट में फूल नहीं लगते परन्तु यह ठीक नहीं है इसके फूल बहुत सूक्ष्म होते हैं। नर तथा मादा दोनों ही फूल एक ही ग्राह के अंदर रहते हैं। इसकी जटाएं एवं शाखाएं मिलकर नया वृक्ष बना लेती हैं। बरगद का वृक्ष भारत के लगभग सभी भागों से पाया जाता है। पर्वतीय जंगलों में यह बहुतायत में मिलता है। पाकिस्तान में भी यह सर्वत्र मिलता है तथा बोया जाता है। इस वृक्ष के लगभग सभी भाग जैसे जटा, पत्ते, छाल, कोंपल आदि सभी औषधीय रूप से बहुत उपयोगी होते हैं।
  • आयुर्वेद के अनुसार बरगद शीतल, रूक्ष, भारी, मीठा, कसैला, स्तंभक, ग्राही एवं कफ तथा पित्त दोषों को दूर करने वाला होता है। विभिन्न योनि रोगों, बुखार, दाद, उल्टी, बेहोशी, खून बहने, तीव्र प्यास, विसर्प जख्म और शोथ आदि को दूर करने में भी इसका प्रयोग किया जाता है।
  • वट की पत्तियों का दूध बहुत उपयोगी और बहुत सारी बीमारियों की दवा है। यह दूध वेदना शामक होता है। आमवात, कमर, जोड़ों का दर्द तथा अन्य दर्दों में बरगद के दूध का लेप किया जाता है। पैरों में बिवाइयां फटने पर कटे-फटे स्थानों पर इसके दूध को भरने से आराम मिलता है। किसी जख्म में यदि कीड़े पड़ जाएं तो भी उस पर दूध लगाने से काफी आराम मिलता है।
  • त्वचीय रोगों जैसे कुष्ठ में भी वट का दूध बहुत लाभ पहुंचाता है। इसके लिए सात रातों तक वट के दूध का लेप प्रभावित स्थान पर करने तथा उस पर छाल का कल्क बांधने से आश्चर्यजनक लाभ होता है।
  • वट के दूध की चार-पांच बूंदें बताशे में रखकर या टपका कर स्वप्नदोष, शीघ्र पतन जैसे विकारों के इलाज के लिए दी जाती हैं। वट का दूध हमारे दांतों को भी मजबूत बनाता है। दांत हिल रहे हों, दर्द करते हों या खोखले हो गए हों तो उसमें वट का दूध लगाने या भरने से दर्द दूर होता है। मसूढ़ों पर भी इसके दूध का लेप किया जाता है। कान में होने वाली छोटी-मोटी फोड़े-फुंसी के इलाज के लिए भी कान में वट का दूध टपकाते हैं।
  • बरगद की जटा के भी अनेक चिकित्सकीय उपयोग होते हैं। वात रक्त या गठिया में इसकी जटाओं का काढ़ा बहुत उपयोगी है। रक्त प्रदर के निदान के लिए बरगद की जटा को पीसकर चटनी-सी बना लें, एक दूसरे बर्तन में जटा का काढ़ा भी बनाएं फिर इस चटनी तथा काढ़े में घी मिलाकर आग पर पका लें।
  • इस मिश्रण को धीमी आग पर तब तक पकाना चाहिए जब तक कि पानी का अंश पूरी तरह न जल जाए। जब केवल घी शेष रह जाए तो इसे छान कर, ठंडा कर रोगी को पिलाना चाहिए इससे रक्त प्रदर दूर होता है। श्वेत प्रदर के उपचार के लिए छाल के काढ़े के साथ लोध का कल्क पीना चाहिए।
  • जिन स्त्रियों को गर्भपात का डर हो वे यदि वट की छाल, कोंपल अथवा जटा को पानी में घोंटकर पी लें तो निश्चित लाभ होगा। बहुमूत्र में भी छाल के काढ़े का सेवन बहुत लाभकारी होता है। जख्मों को इसकी कोंपल के काढ़े से धोकर, उन्हीं को पीसकर लेप कर देने से सूजन उतर जाती है।
  • दस्तों में इसकी कोपलों या दाढ़ी को चावल के मांड में पीसकर छाछ के साथ पीने से शीघ्र लाभ होता है। कोंपलों का फांट भी अतिसार तथा पेचिश में बहुत उपयोगी है। बरगद के पीले पत्तों को भुने हुए चावलों के साथ पकाकर काढ़ा बनाकर पिलाने से बुखार दूर होता है। इस काढ़े का प्रयोग नियमित रूप से किया जाना चाहिए।
पीपल (फीकुस रेलिजिओसा लिनिअस)
पीपल का पेड़ मोरासी परिवार का सदस्य है और हमारे देश का एक पवित्र धार्मिक वृक्ष है। इसका वनस्पतिक नाम फीकुस रेलिजिओसा लिनिअस है। मंदिरों, धर्मशालाओं, बावडियों तथा रास्ते के किनारों पर यह आमतौर पर लगाया जाता है। पीपल एक विशाल आकार का मानूसनी वृक्ष है। पीपल के पत्ते हृदयाकार होते हैं। इसका तना ललाई लिए हुए सफेद व चिकना होता है। इसके फल छोटे गोल तथा छोटी शाखाओं पर लगते हैं। इसकी छाल भूरे रंग की होती है तने तथा शाखाओं को गोदने पर इससे सफेद गाढ़ा दूध निकलता है।
  • पीपल धार्मिक रूप से ही नहीं औषधीय रूप से भी बहुत उपयोगी वृक्ष है। अनेक छोटी बड़ी बीमारियों के इलाज में पीपल बहुत उपयोगी होता है। पीपल के पांच पत्तों को दूध में उबालकर चीनी या खांड डालकर दिन में दो बार, सुबह-शाम पीने से जुकाम, खांसी और दमा में बहुत आराम होता है। इसके सूखे पत्ते का चूर्ण भी खासा उपयोगी होता है। इस चूर्ण को जख्मों पर छिड़कने से फायदा होता है।
  • पीपल के अकुंरों को मिलाकर पतली खिचड़ी बनाकर खाने से दस्तों में आराम मिलता है। यदि रोगी को पीले रंग के दस्त जलन के साथ हो रहे हों तो इसके कोमल पत्तों का साग रोगी को दिया जाना चाहिए।
  • पेचिश, रक्तस्राव, गुदा का बाहर निकलना तथा बुखार में पीपल के अकुंरों को दूध में पकाकर इसका एनीमा देना बहुत लाभकारी होता है। पीपल के फल भी बहुत उपयोगी होते हैं। इसके सूखे फलों का चूर्ण पानी के साथ चाटने से दमा में बहुत आराम मिलता है। खांसी होने पर इसी चूर्ण को शहद के साथ चाटना चाहिए। दो माह तक लगातार नियमित रूप से इस चूर्ण का सेवन करने से गर्भ ठहरने की संभावना बहुत बढ़ जाती है।
  • पीपल की छाल से काढ़े या फाॅट से कुल्ला करने से दांत दर्द में आराम मिलता है और मसूढ़े मजबूत होते हैं। जख्मों को छाल के काढ़े से धोने से वे जल्दी भरते हैं। जख्मों पर यदि खाल न आ रही हो तो बारीक चूर्ण नियमित रूप से छिड़कने पर त्वचा आने लगती है। जलने से बने फफोलों या घाव पर भी छाल का चूर्ण बुरकना चाहिए।
  • छाल को घिसकर फोड़े पर लेप करने से यह तो बैठ जाता है या फिर पककर फूट जाता है। विसर्प की जलन शांत करने के लिए छाल का लेप घी मिलाकर किया जाना चाहिए। हड्डी टूटने पर छाल को बारीक पीसकर बांधने से लाभ मिलता है। छाल को पीसकर लेप करने से रक्त-पित्त विकार शांत होता है। साथ ही रोगी को इसके काढ़े से स्नान कराना चाहिए।
  • कान में दर्द के उपचार के लिए पीपल के कोमल पत्ते पीसकर उसे तिल के तेल में हल्की आंच पर पका लें फिर इसे ठंडा कर लें और हल्का सा गुनगुना रहने पर कान में डालने से तुरंत आराम मिलता है। पैरों की एडि़यां फटने या त्वचा के फटने पर उसमें पीपल का दूध लगाया जाना चाहिए।
  • पीपल के फल, जड़ की छाल और कोंपलों को दूध में पकाकर छान लें। इसमें शहद या चीनी मिलाकर पीने से पुंसत्व शक्ति बढ़ती है। पीपल की जड़ के काढ़े में नमक और गुड़ मिलाकर पीने से तीव्र कुक्षि शूल में शीघ्र लाभ होता है। पीपल की सूखी छाल को जलाकर जल में बुझा लें। इस जल के सेवन से उल्टी तथा प्यास शांत हो जाती है।
  • शुक्र क्षीण होने तथा छाती में जख्मों की स्थिति में पीपल की छाल के काढ़े में दूध पकाकर जमा दें। उससे निकाले गए घी में चावल पकाकर रोगी को खिलाने से आराम मिलता है। यदि मूत्र नीले रंग का आता हो तो रोगी को पीपल की जड़ की छाल का काढ़ा दें।
  • प्रमेह विकारों में पीपल के 6 ग्राम बीज हिरण के सींग का दंड बनाकर घोंट लें और इसमें शहद मिलाकर छाछ के साथ इसका सेवन करें। गनोरिया में भी पीपल की छाल बहुत उपयोगी है। विभिन्न यौन विकारों में पीपल के काढ़े से योनि प्रक्षालन को श्रेष्ठ माना गया है। मूत्र तथा प्रजनन संहति के पैत्तिक विकारों में पीपल की छाल के काढ़े में शहद मिलाकर सेवन करने से तुरन्त लाभ मिलता है।

गूलर (फीकुस ग्लोमेराता रौक्सबुर्ग)
मोरासी परिवारी का सदस्य गूलर लंबी आयु वाला वृक्ष है। इसका वनस्पतिक नाम फीकुस ग्लोमेराता रौक्सबुर्ग है। यह सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। यह नदी-नालों के किनारे एवं दलदली स्थानों पर उगता है। उत्तर प्रदेश के मैदानों में यह अपने आप ही उग आता है। इसके भालाकार पत्ते 10 से सत्रह सेमी लंबे होते हैं जो जनवरी से अप्रैल तक निकलते हैं। इसकी छाल का रंग लाल-घूसर होता है। फल गोल, गुच्छों में लगते हैं। फल मार्च से जून तक आते हैं। कच्चा फल छोटा हरा होता है पकने पर फल मीठे, मुलायम तथा छोटे-छोटे दानों से युक्त होता है। इसका फल देखने में अंजीर के फल जैसा लगता है। इसके तने से क्षीर निकलता है।
  • आयुर्वेदिक चिकित्सकों के अनुसार गूलर का कच्चा फल कसैला एवं दाहनाशक है। पका हुआ गूलर रुचिकारक, मीठा, शीतल, पित्तशामक, तृषाशामक, श्रमहर, कब्ज मिटाने वाला तथा पौष्टिक है। इसकी जड़ में रक्तस्राव रोकने तथा जलन शांत करने का गुण है। गूलर के कच्चे फलों की सब्जी बनाई जाती है तथा पके फल खाए जाते हैं। इसकी छाल का चूर्ण बनाकर या अन्य प्रकार से उपयोग किया जाता है।
  • गूलर के नियमित सेवन से शरीर में पित्त एवं कफ का संतुलन बना रहता है। इसलिए पित्त एवं कफ विकार नहीं होते। साथ ही इससे उदरस्थ अग्नि एवं दाह भी शांत होते हैं। पित्त रोगों में इसके पत्तों के चूर्ण का शहद के साथ सेवन भी फायदेमंद होता है।
  • गूलर की छाल ग्राही है, रक्तस्राव को बंद करती है। साथ ही यह मधुमेह में भी लाभप्रद है। गूलर के कोमल-ताजा पत्तों का रस शहद में मिलाकर पीने से भी मधुमेह में राहत मिलती है। इससे पेशाब में शर्करा की मात्रा भी कम हो जाती है।
  • गूलर के तने को दूध बवासीर एवं दस्तों के लिए श्रेष्ठ दवा है। खूनी बवासीर के रोगी को गूलर के ताजा पत्तों का रस पिलाना चाहिए। इसके नियमित सेवन से त्वचा का रंग भी निखरने लगता है।
  • हाथ-पैरों की त्वचा फटने या बिवाई फटने पर गूलर के तने के दूध का लेप करने से आराम मिलता है, पीड़ा से छुटकारा मिलता है। गूलर से स्त्रियों की मासिक धर्म संबंधी अनियमितताएं भी दूर होती हैं। स्त्रियों में मासिक धर्म के दौरान अधिक रक्तस्राव होने पर इसकी छाल के काढ़े का सेवन करना चाहिए। इससे अत्याधिक बहाव रुक जाता है। ऐसा होने पर गूलर के पके हुए फलों के रस में खांड या शहद मिलाकर पीना भी लाभदायक होता है। विभिन्न योनि विकारों में भी गूलर काफी फायदेमंद होता है। योनि विकारों में योनि प्रक्षालन के लिए गूलर की छाल के काढ़े का प्रयोग करना बहुत फायदेमंद होता है।
  • मुंह के छाले हांे तो गूलर के पत्तों या छाल का काढ़ा मुंह में भरकर कुछ देर रखना चाहिए। इससे फायदा होता है। इससे दांत हिलने तथा मसूढ़ों से खून आने जैसी व्याधियों का निदान भी हो जाता है। यह क्रिया लगभग दो सप्ताह तक प्रतिदिन नियमित रूप से करें।
  • आग से या अन्य किसी प्रकार से जल जाने पर प्रभावित स्थान पर गूलर की छाल को लेप करने से जलन शांत हो जाती है। इससे खून का बहना भी बंद हो जाता है। पके हुए गूलर के शरबत में शक्कर, खांड या शहद मिलाकर सेवन करने से गर्मियों में पैदा होने वाली जलन तथा तृषा शांत होती है।
  • नेत्र विकारों जैसे आंखें लाल होना, आंखों में पानी आना, जलन होना आदि के उपचार में भी गूलर उपयोगी है। इसके लिए गूलर के पत्तों का काढ़ा बनाकर उसे साफ और महीन कपड़े से छान लें। ठंडा होने पर इसकी दो-दो बूंद दिन में तीन बार आंखों में डालें। इससे नेत्र ज्योति भी बढ़ती है।
  • नकसीर फूटती हो तो ताजा एवं पके हुए गूलर के लगभग 25 मिली लीटर रस में गुड़ या शहद मिलाकर सेवन करने या नकसीर फूटना बंद हो जाती है।


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