आज कल न्यायालय पर कई प्रकारों के आरोप लगाये जा रहे है कि न्यायपालिका गऊ नहीं है, न्यायपालिका दूध की धुली नहीं है। निश्चित रूप से यह प्रश्न उठाये जाने जायज है किन्तु आज हमारा संविधान हमें इस बात की अनुमति नहीं देता है कि हम इस प्रकार के प्रश्न न्यायपालिका से कर सके।
हाल के दिनों में देखा जाता है कि कितने सार्थक तथ्यों को वकीलों द्वारा रखने के पश्चात भी माननीय लोग अपने आतार्किक फैसलों से कई जिंदगी को तार-तार कर देते है। यहीं तक कि कुछ माननीय अधिवक्ताओं की बात सुनने को ही तैयार नहीं होते है। निश्चित रूप से यह व्यवस्था को बदलना होगा कि सही तथ्यों को सुना जाना चाहिए और भारतीय संविधान में जिस प्रकार की पारदर्शी न्याय की इच्छा की गई थी उसके स्वरूप को भी बरकरार किया जाना चाहिए।
हाल के मिड डे प्रकरण ने पूरे मीडिया जगत को हिलाकर रख दिया, मीडिया ने क्या सही किया मैं यह नहीं जानता किंतु इतना जानता हूँ कि अभी संविधान ने न्यायालय पर टिप्पणी का हक नहीं देता है। शायद इसलिए कि देश का सबसे निचला वर्ग का विश्वास इस पर न टूट जाये। जजों के फैसले को भी एक दायरे में लाना चाहिए, मैं यह नहीं कहता हूँ कि हर न्याय गलत होता है किन्तु कभी-कभी न्यायमूर्तियों द्वारा अहम के कारण यह फैसले विरोध में हो जाते है। माननीयों द्वारा अहं के प्रश्न पर न्याय की समीक्षा जरूरी होती है। न्याय के पैमाने पर आज यह जरूरी है कि न्याय की समीक्षा हो, किन्तु यह भी आवश्यक है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम किसी नागरिकों द्वारा खुले आम माननीयों को भी बदनाम न किया जाए। क्योंकि कभी-कभी नादानी में इतने कठोर शब्दों का प्रयोग न्यायाधीशों पर पत्रकारों द्वारा कर दिये जाते है जो निश्चित रूप से गलत होता है। निश्चित रूप से पत्रकार मिड डे मामले में नैतिक रूप से सही हो किन्तु संवैधानिक रूप से वे गलत है। भारत की प्रणाली नैतिक मूल्यों से नहीं संवैधानिक रूप से चलती है।
मेरे ख्याल से सभी राज्यों में एक अवकाश प्राप्त न्यायमूर्तियों की ऐसी कमेटी होनी चाहिए जो वर्तमान माननीयों की फैसले को थोपे जाने से रोका जा सके। क्योंकि कभी-कभी न्याय प्राप्तकर्ता इतना गरीब होता है कि धन के अभाव में वह सर्वोच्च न्यायालय नहीं जा सकता है। पर इतना तो जरूर सत्य है कि भारत का संविधान और न ही न न्यायपालिका अपने ऊपर आक्षेप करने की अनुमति देता है।
कितना जरूरी है न्यायपालिका पर प्रहार ?
महान भारतीय अमर शहीद स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह पर निबंध
सबसे लोकप्रिय छवि। 29 अप्रैल 1929 को असेंबली में बम फेंकने से पहले वे फणींद्रनाथ घोष से मिलने बिहार गए। घोष ने ही पहचान बदलने को कहा। शहीद के भांजे प्रो. जगमोहन सिंह बताते हैं- भगत ने फिरोजपुर के शाह गंज मोहल्ले के तूड़ी बाजार में वतन के नाम केश कुर्बान किए। वहीं, गज्जू नाई ब्रिटिश सरकार का गवाह नंबर-295 बना।
पहले प्रश्न के पहले भाग के लिए हमारा उत्तर स्वीकारात्मक है, लेकिन तथाकथित चश्मदीद गवाहों ने इस मामले में जो गवाही दी, वह सरासर झूठ है। चूंकि हम बम फेंकने से इनकार नहीं कर रहे हैं, इसलिए यहां इन गवाहों के बयानों की सच्चाई की परख भी हो जानी चाहिए। उदाहरण के लिए हम यहां बतला देना चाहते हैं कि सार्जेंट टेरी का यह कहना कि उन्होंने हममें से एक के पास से पिस्टल बरामद की, एक सफ़ेद झूठ मात्र है। क्योंकि जब हमने अपने आप को पुलिस के हाथों सौंपा तो हम में से किसी के पास कोई पिस्तौल न थी। जिन गवाहों ने कहा है कि उन्होंने हमें बम फेंकते देखा था, वे झूठ बोलते हैं। न्याय तथा निष्कपट व्यवहार को सर्वोपरि मानने वाले लोगों को इन झूठी बातों से एक सबक लेना चाहिये।
पहले प्रश्न के दूसरे हिस्से का उत्तर देने के लिए हमें इस बमकांड जैसी ऐतिहासिक घटना के कुछ विस्तार में जाना पड़ेगा। हमने वह काम किस अभिप्राय से तथा किन परिस्थितियों के बीच किया, इसकी पूरी एवं खुली सफ़ाई आवश्यक है।
जेल में हमारे पास कुछ पुलिस अधिकारी आये थे। उन्होंने हमें बतलाया कि लार्ड इर्विन ने इस घटना के बाद ही असेम्बली के दोनों सदनों के सम्मिलित अधिवेशन में कहा है कि ‘यह विद्रोह किसी व्यक्ति विशेष के खि़लाफ़ नहीं, वरन संपूर्ण शासन व्यवस्था के विरुद्ध था।’ यह सुनकर हमने तुरंत भांप लिया कि लोगों ने हमारे उद्देश्य को सही तौर पर समझ लिया है।
मानवता को प्यार करने में हम किसी से भी पीछे नहीं हैं। हमें किसी से व्यक्तिगत द्वेष नहीं है और हम प्राणी मात्र को हमेशा आदर की निगाह से देखते आये हैं। हम न तो बर्बरतापूर्ण उपद्रव करने वाले देश के कलंक हैं, जैसा कि सोशलिस्ट कहलाने वाले दीवान चमनलाल ने कहा है, और न ही हम पागल हैं, जैसा कि लाहौर के ‘ट्रिब्यून’ तथा कुछ अन्य समाचार पत्रों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है। हम तो केवल अपने देश के इतिहास, उसकी मौजूदा परिस्थिति तथा अन्य मानवोचित आकांक्षाओं के मननशील विद्यार्थी होने का विनम्रतापूर्वक दावा कर सकते हैं। हमें ढोंग तथा पाखंड से नफ़रत है।
यह काम हमने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा विद्वेष की भावना से नहीं किया है। हमारा उद्देश्य केवल उस शासन-व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिवाद प्रकट करना था जिसके हर एक काम से उसकी अयोग्यता ही नहीं, वरन अपकार करने की उसकी असीम क्षमता भी प्रकट होती है। इस विषय पर हमने जितना विचार किया, उतना ही हमें इस बात का दृढ़ विश्वास होता गया कि वह केवल संसार के सामने भारत की लज्जाजनक तथा असहाय अवस्था का ढिंढोरा पीटने के लिए ही क़ायम है और वह गैर जिम्मेदार तथा निरंकुश शासन का प्रतीक है।
जनता के प्रतिनिधियों ने कितनी ही बार राष्ट्रीय मांगों को सरकार के सामने रखा, परंतु उसने उन मांगो की सर्वथा अवहेलना करके हर बार उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया। सदन द्वारा पास किये गये गंभीर प्रस्तावों को भारत की तथाकथित पार्लियामेंट के सामने ही तिरस्कार पूर्वक पैरों तले रौंदा गया है।
दमनकारी तथा निरंकुश कानूनों को समाप्त करने की मांग करने वाले प्रस्तावों को हमेशा अवज्ञा की दृष्टि से ही देखा गया है और जनता द्वारा निर्वाचित सदस्यों ने सरकार के जिन कानूनों तथा प्रस्तावों को अवांछित एवं अवैधानिक बताकर रद्द कर दिया था, उन्हें केवल कलम हिलाकर ही सरकार ने लागू कर लिया है।
संक्षेप में, बहुत कुछ सोचने के बाद भी एक ऐसी संस्था के अस्तित्व का औचित्य हमारी समझ में नहीं आ सका जो बावजूद उस तमाम शान-ओ-शौकत के, जिसका आधार भारत के करोड़ों मेहनतकशों की गाढ़ी कमाई है, केवल मात्र दिल को बहलाने वाली थोथी, दिखावटी और शरारतों से भरी हुई एक संस्था है। हम सार्वजनिक नेताओं की मनोवृत्ति को समझ पाने में भी असमर्थ हैं। हमारी समझ में नहीं आता कि हमारे नेतागण भारत की असहाय परतंत्रता की खिल्ली उड़ाने वाले इतने स्पष्ट एवं पूर्व नियोजित प्रदर्शनों पर सार्वजनिक संपत्ति एवं समय बर्बाद करने में सहायक क्यों बनते हैं?
हम इन्हीं प्रश्नों तथा मज़दूर आंदोलनों के नेताओं की धरपकड़ पर विचार कर ही रहे थे कि सरकार ट्रेड डिस्प्यूट बिल लेकर सामने आयी। हम इसी संबंध में असेंबली की कार्यवाही देखने गये। वहां मारा यह विश्वास और भी दृढ़ हो गया कि भारत की लाखों मेहनतकश जनता एक ऐसी संस्था से किसी बात की भी आशा नहीं कर सकती जो भारत के बेबस मेहनतकशों की दासता तथा शोषकों की गलघोटू शक्ति का हित चाहती है।
अंत में, वह कानून जिसे हम बर्बर एवं अमानवीय समझते हैं, देश के प्रतिनिधियों के सरों पर पटक दिया गया और इस प्रकार करोड़ों संघर्ष रत भूखे मजदूरों को प्राथमिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया और उनके हाथों से उनकी आर्थिक मुक्ति का एकमात्र हथियार भी छीन लिया गया। जिस किसी ने भी कमरतोड़ परिश्रम करने वाले मूल मेहनतकशों की हालत पर हमारी तरह सोचा है, वह शायद स्थिर मन से यह सब नहीं देख सकेगा। बलिदान के बकरों की भांति शोषकों, और सबसे बड़ा शोषक स्वयं सरकार है, की बलिवेदी पर आये दिन होने वाली मजदूरों की इन मूक कुर्बानियों को देख कर जिस किसी का दिल रोता है, वह अपनी आत्मा की चीत्कार की उपेक्षा नहीं कर सकता।
गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी-समिति के भूतपूर्व सदस्य स्वर्गीय श्री एस. आर. दास ने अपने प्रसिद्ध पत्र में अपने पुत्र को लिखा था कि इंग्लैंड की स्वप्न निद्रा भंग करने के लिए बम का प्रयोग आवश्यक है। श्री दास के इन्हीं शब्दों को सामने रखकर हमने असेंबली भवन में बम फेंके थे। हमने वह काम मज़दूरों की तरफ से प्रतिरोध प्रदर्शित करने के लिए किया था। उन असहाय मज़दूरों के पास अपने मर्मांतक क्लेशों को व्यक्त करने का और कोई साधन भी तो नहीं था। हमारा एकमात्र उद्देश्य था, ‘बहरे को सुनाना’ और उन पीड़ितों की मांगों पर ध्यान न देने वाली सरकार को समय रहते चेतावनी देना। हमारी ही तरह दूसरों की भी परोक्ष धारणा है कि प्रशांत सागर रूपी भारतीय मानवता की ऊपरी शांति किसी भी समय फूट पड़ने वाले एक भीषण तूफ़ान का द्योतक है। हमने तो उन लोगों के लिए सिर्फ़ खतरे की घंटी बजायी है, जो आने वाले भयानक खतरे की परवाह किये बग़ैर तेज़ रफ़्तार से आगे की तरफ भागे जा रहे हैं। हम लोगों को सिर्फ़ यह बतला देना चाहते हैं कि ‘काल्पनिक अहिंसा’ का युग अब समाप्त हो चुका है और आज की उठती हुई नयी पीढ़ी को उसकी व्यर्थता में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं रह गया है।
मानवता के प्रति हार्दिक सद्भाव तथा अमिट प्रेम रखने के कारण उसे व्यर्थ के रक्तपात से बचाने के लिए हमने चेतावनी देने के इस उपाय का सहारा लिया है और उस आने वाले रक्तपात को हम ही नहीं, लाखों आदमी आगे से ही देख रहे हैं। ऊपर हमने ‘काल्पनिक अहिंसा’ शब्द का प्रयोग किया है। यहां पर उसकी व्याख्या कर देना भी आवश्यक है। आक्रमण-उद्देश्य से जब बल का प्रयोग होता है तो उसे हिंसा कहते हैं, और नैतिक दृष्टिकोण से उसे उचित नहीं कहा जा सकता। लेकिन जब उसका उपयोग किसी वैध आदर्श के लिए किया जाता है तो उसका नैतिक औचित्य भी होता है। किसी हालत में बल प्रयोग नहीं होना चाहिये, यह विचार काल्पनिक और अव्यावहारिक है। इधर देश में जो नया आंदोलन तेज़ी के साथ उठ रहा है, और उसकी पूर्व सूचना हम दे चुके हैं, वह गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, वाशिंगटन, ग़ैरीवाल्डी और लेनिन के आदर्शों से ही प्रस्फुटित है और उन्हीं के पद चिद्दों पर चल रहा है। चूंकि भारत की विदेशी सरकार तथा हमारे राष्ट्रीय नेतागण दोनों ही इस आंदोलन की ओर से उदासीन लगते हैं और जान बूझकर उसकी पुकार की ओर से अपने कान बंद करने का प्रयत्न कर रहे हैं, अतः हमने अपना कर्तव्य समझा कि हम एक ऐसी चेतावनी दें जिसकी अवहेलना न की जा सके। अभी तक हमने इस घटना के मूल उद्देश्य पर ही प्रकाश डाला है। अब हम अपना अभिप्राय भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं।
यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि इस घटना के सिलसिले में मामूली चोटें खाने वाले व्यक्तियों तथा असेम्बली के किसी अन्य व्यक्ति के प्रति हमारे दिलों में कोई वैयक्तिक भावना नहीं थी। इसके विपरीत हम एक बार फिर स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम मानव जीवन को अकथनीय पवित्रता प्रदान करते हैं और किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुंचाने के बजाय हम मानव जाति की सेवा में हंसते-हंसते अपने प्राण विसर्जित कर देंगे। हम साम्राज्य शाही की सेना के भाड़े के सैनिकों जैसे नहीं हैं जिनका नर हत्या ही काम होता है। हम मानव जीवन का आदर करते हैं और बराबर उसकी रक्षा का प्रयत्न करते हैं। इसके बाद भी हम स्वीकार करते हैं कि हमने जान-बूझकर असेम्बली भवन में बम फेंका। घटनाएं स्वयं हमारे अभिप्राय पर प्रकाश डालती हैं और हमारे इरादों की परख हमारे काम के परिणाम के आधार पर होनी चाहिए, न कि अटकल एवं मनगढ़ंत परिस्थितियों के आधार पर। सरकारी विशेषज्ञ की गवाही के विरुद्ध हमें यह कहना है कि असेम्बली भवन में फेंके गये बमों से वहां की एक ख़ाली बेंच को ही नुकसान पहुंचा और लगभग आधा दर्जन लोगों को मामूली सी खरोंचें भर आयीं। सरकारी वैज्ञानिकों ने कहा है कि बम बड़े ज़ोरदार थे और उनसे अधिक नुकसान नहीं हुआ, इसे एक अनहोनी घटना ही कहना चाहिये। लेकिन हमारे विचार से उन्हें वैज्ञानिक ढंग से बनाया ही ऐसा गया था। पहले तो दोनों बम बेंचों तथा डेस्कों की ख़ाली जगह में गिरे थे। दूसरे उनके फूटने की जगह से दो फीट पर बैठे हुए लोगों को भी, जिनमें मि. पी. आर. राउ, मि. शंकर राव तथा सर जार्ज शुस्टर के नाम उल्लेखनीय हैं, या तो बिल्कुल ही चोटें न आयीं या मामूली मात्र आयीं। अगर उन बमों में जोरदार पोटेशियम क्लोरेट और पिक्रिक एसिड भरा होता जैसा कि सरकारी विशेषज्ञ ने कहा है, तो उन बमों ने उस लकड़ी के घेरे को तोड़कर कुछ गज की दूरी पर खड़े हुए लोगों तक को उड़ा दिया होता और यदि उनमें कोई और भी शक्तिशाली विस्फोटक भरा होता तो निश्चय ही वे असेंबली के अधिकांश सदस्यों को उड़ा देने में समर्थ होते। यही नहीं, यदि हम चाहते तो उन्हें सरकारी कक्ष में फेंक सकते थे जो कि विशिष्ट व्यक्तियों से खचाखच भरा था। या फिर उससे सर जान साइमन को अपना निशाना बना सकते थे जिसके अभागे कमीशन ने प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के दिल में उसकी ओर से गहरी नफरत पैदा कर दी थी और जो उस समय असेम्बली की अध्यक्ष दीर्घा में बैठा था। लेकिन इस तरह का हमारा कोई इरादा न था और उन बमों ने उतना ही काम किया जितने के लिये उन्हें तैयार किया गया था। यदि उससे कोई अनहोनी घटना हुई तो यही कि वे निशाने पर अर्थात निरापद स्थान पर गिरे। इसके बाद हमने इस कार्य का दंड भोगने के लिए अपने आप को जानबूझकर पुलिस के हाथों समर्पित कर दिया। हम साम्राज्यवादी शोषकों को यह बतला देना चाहते थे कि मुट्ठी भर आदमियों को मारकर किसी आदर्श को समाप्त नहीं किया जा सकता और न ही दो नगण्य व्यक्तियों को कुचल कर राष्ट्र को दबाया जा सकता है। हम इतिहास के इस सबक पर ज़ोर देना चाहते थे कि परिचय पत्र या परिचय चिद्द तथा वैस्टाइल (फ्रान्स की कुख्यात जेल जहां राजनैतिक बंदियों को घोर यातनाएं दी जाती थीं) फ्रांस के क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलने में समर्थ नहीं हुए थे, फांसी के फंदे और साइबेरिया की खानें रूसी क्रांति की आग को बुझा नहीं पायी थीं। तो फिर क्या अध्यादेश और सेफ़्टी बिल्स भारत में आज़ादी की लौ को बुझा सकेंगे? षड्यंत्रों का पता लगाकर या गढ़े हुए षड्यंत्रों द्वारा नौजवानों को सज़ा देकर या एक महान आदर्श के स्वप्न से प्रेरित नवयुवकों को जेलों में ठूंस कर क्या क्रांति का अभियान रोका जा सकता है? हां, सामयिक चेतावनी से, बशर्ते कि उसकी उपेक्षा न की जाये, लोगों की जानें बचायी जा सकती हैं और व्यर्थ की मुसीबतों से उनकी रक्षा की जा सकती है। आगाही देने का यह भार अपने ऊपर लेकर हमने अपना कर्तव्य पूरा किया है। क्रांति के लिए खूनी लड़ाइयां अनिवार्य नहीं हैं और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए स्थान है। वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है, अन्याय पर आधारित मौजूदा समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन।
समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी मज़दूरों को आज उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उसकी गाढ़ी कमाई का सारा धन शोषक पूंजीपति हड़प जाते हैं। दूसरों के अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मुहताज हैं। दुनिया भर के बाज़ारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढंकने भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गंदे बाड़ों में रह कर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोंक शोषक पूंजीपति ज़रा-ज़रा सी बातों के लिए लाखों का वारा न्यारा कर देते हैं।
यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिये जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक क़ायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठकर रंगरलियां मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित जनता एक भयानक खड्ड के कगार पर चल रहे हैं।
सभ्यता का यह प्रसार यदि समय रहते संभाला न गया तो शीघ्र ही चरचराकर बैठ जायेगा। देश को एक अमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं, उनका कर्त्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्य शाही नाम से विख्यात है, समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक मानवता को क्लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व-शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज़ ढोंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। क्रांति से हमारा मतलब अंततोगत्वा एक ऐसी समाज-व्यवस्था की स्थापना से है, जो इस प्रकार के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्व हारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा और जिसके फलस्वरूप स्थापित होने वाला विश्व-संघ पीडि़त मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।
यह है हमारा आदर्श और इसी आदर्श से प्रेरणा लेकर हमने एक सही तथा पुरज़ोर चेतावनी दी है। लेकिन अगर हमारी इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया गया और वर्तमान शासन व्यवस्था उठती हुई जनशक्ति के मार्ग में रोड़े अटकाने से बाज़ न आयी तो क्रांति के इस आदर्श की पूर्ति के लिए एक भयंकर युद्ध का छिड़ना अनिवार्य है। सभी बाधाओं को रौंद कर आगे बढ़ते हुए उस युद्ध के फलस्वरूप सर्वहारा-वर्ग के अधिनायक-तंत्र की स्थापना होगी। यह अधिनायक तंत्र क्रांति के आदर्शों के लिए मार्ग प्रस्तुत करेगा। क्रांति मानव जाति का जन्मजात अधिकार है जिसका अपहरण नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। श्रमिक वर्ग ही समाज का वास्तविक पोषक है। जनता की सर्वोपरि सत्ता की स्थापना श्रमिक वर्ग का अंतिम लक्ष्य है। इन आदर्शों के लिए और इस विश्वास के लिए हमें जो भी दंड दिया जायेगा, हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे। क्रांति की इस पूजावेदी पर हम अपना यौवन नैवेद्य के रूप में लाये हैं क्योंकि ऐसे महान आदर्श के लिए बड़े से बड़ा त्याग भी कम है। हम संतुष्ट हैं और क्रांति के आगमन की उत्सुकता पूर्वक प्रतीक्षा कर रहे हैं।इंक़लाब! जि़ंदाबाद!
यह बड़ा पेचीदा मामला है, इसलिए कोई भी व्यक्ति आपकी सेवा में विचारों के विकास की वह ऊंचाई प्रस्तुत नहीं कर सकता, जिसके प्रभाव में हम एक ख़ास ढंग से सोचने और व्यवहार करने लगे थे। हम चाहते हैं कि इसे दृष्टि में रखते हुए ही हमारी नीयत और अपराध का अनुमान लगाया जाये। प्रसिद्ध कानून-विशारद सालोमन के अनुसार किसी भी व्यक्ति को, उसके अपराधी उद्देश्यों को जाने बिना उस समय तक सज़ा नहीं मिलनी चाहिए, जब तक उसका कानून-विरोधी आचरण सिद्ध न हो। सेशन जज की अदालत में हमने जो लिखित बयान दिया था, वह हमारे उद्देश्य की व्याख्या करता था और इस रूप में हमारी नीयत की व्याख्या करता था। लेकिन सेशन जज महोदय ने कलम की एक ही नोंक से यह कहकर कि ‘आमतौर पर अपराध को व्यवहार में लाने वाली बात कानून के कार्य को प्रभावित नहीं करती और इस देश में कानूनी व्याख्याओं में कभी-कभार उद्देश्य और नीयत की चर्चा होती है’, हमारी सब कोशिशें बेकार कर दीं।
माई लार्ड, इन परिस्थितियों में सुयोग्य सेशन जज के लिए उचित था कि या तो अपराध का अनुमान परिणाम से लगाते या हमारे बयान की मदद से मनोवैज्ञानिक पहलू का फैसला करते, पर उन्होंने इन दोनों में से एक से भी काम न लिया।
पहली बात यह है कि असेम्बली में हमने जो दो बम फेंके, उनसे किसी भी व्यक्ति की शारीरिक या आर्थिक हानि नहीं हुई। इस दृष्टिकोण से जो सज़ा हमें दी गयी है, यह कठोरतम ही नहीं है, बदला लेने की भावना वाली भी है। यदि दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाये, तो जब तक अभियुक्त की मनोभावना का पता न लगाया जाये, उसके असली उद्देश्य का पता ही नहीं चल सकता। यदि उद्देश्य को पूरी तरह भुला दिया जाय, तो किसी भी व्यक्ति के साथ न्याय नहीं हो सकता, क्योंकि उद्देश्य को नज़रों में न रखने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति साधारण हत्यारे नज़र आयेंगे, सरकारी कर वसूल करने वाले अधिकारी चोर-जालसाज़ दिखायी देंगे और न्यायाधीशों पर भी क़त्ल करने का अभियोग लगेगा। इस तरह तो समाज व्यवस्था और सभ्यता, खून-ख़राबा, चोरी और जालसाजी बनकर रह जायेगी। यदि उद्देश्य की उपेक्षा की जाये, तो किसी हुकूमत को क्या अधिकार है कि समाज के व्यक्तियों से न्याय करने को कहे? उद्देश्य की उपेक्षा की जाये तो हर धर्म प्रचारक झूठ का प्रचारक दिखायी देगा और हरेक पैगंबर पर अभियोग लगेगा कि उसने करोड़ों भोले और अनजान लोगों को गुमराह किया। यदि उद्देश्य को भुला दिया जाये, तो हजरत ईसा मसीह गड़बड़ कराने वाले, शांति भंग करने वाले, विद्रोह का प्रचार करने वाले दिखायी देंगे और कानून के शब्दों में ‘ख़तरनाक व्यक्तित्व’ माने जायेंगे! लेकिन हम उनकी पूजा करते हैं, उनका हमारे दिलों में बेहद आदर है, उनकी मूर्ति हमारे दिलों में आध्यात्मिकता का स्पंदन पैदा करती है। यह क्यों? यह इसलिए कि उनके प्रयत्नों का प्रेरक एक ऊंचे दर्जे का उद्देश्य था। उस युग के शासकों ने उनके उद्देश्यों को नहीं पहचाना, उन्होंने उनके बाहरी व्यवहार को ही देखा, लेकिन उस समय से लेकर इस समय तक उन्नीस शताब्दियां बीत चुकी हैं। क्या हमने तब से लेकर अब तक कोई तरक्की नहीं की? क्या हम ऐसी ग़लतियां दुहरायेंगे? अगर ऐसा हो तो इंसानियत की कुर्बानियां, महान शहीदों के प्रयत्न बेकार रहे और आज भी हम उसी स्थान पर हैं, जहां आज से बीस शताब्दियां पहले थे।
कानूनी दृष्टि से उद्देश्य का प्रश्न ख़ास महत्व रखता है। जनरल डायर का उदाहरण लीजिए, उन्होंने गोली चलायी और सैकड़ों निरपराध और शस्त्रहीन व्यक्तियों को मार डाला, लेकिन फौजी अदालत ने उन्हें गोली का निशाना बनाने के हुक़्म की जगह लाखों रुपये इनाम दिये। एक और उदाहरण पर ध्यान दीजिए, श्री खड्ग बहादुर सिंह ने, जो एक नौजवान गोरखा हैं, कलकत्ता में एक अमीर मारवाड़ी को छुरे से मार डाला। यदि उद्देश्य को एक तरफ रख दिया जाये, तो खड्ग बहादुर सिंह को मौत की सज़ा मिलनी चाहिए थी, लेकिन उसे कुछ वर्षों की सज़ा दी गयी और अवधि से बहुत पहले ही मुक्त कर दिया गया।
क्या कानून में कोई दरार रखनी थी जो उसे मौत की सज़ा नहीं दी गयी? या उसके विरुद्ध हत्या का अभियोग सिद्ध न हुआ? उसने भी हमारी तरह अपना अपराध स्वीकार किया था, लेकिन उसका जीवन बच गया और वह स्वतंत्र है। मैं पूछता हूं, उसे फांसी की सज़ा क्यों नहीं दी गयी? उसका कार्य नपा तुला था। उसने पेचीदा ढंग की तैयारी की थी। उद्देश्य की दृष्टि से उसका कार्य हमारे कार्य की अपेक्षा ज़्यादा घातक और संगीन था। उसे इसलिए बहुत ही नर्म सज़ा मिली, क्योंकि उसका मक़सद नेक था। उसने समाज की एक ऐसी जोंक से छुटकारा दिलाया जिसने कई एक सुंदर लड़कियों का ख़ून चूस लिया था। श्री खड्ग बहादुर को महज कानून की प्रतिष्ठा रखने के लिए कुछ वर्षों की सज़ा दी गयी। यह इस सिद्धांत की अवहेलना है कि-‘कानून आदमियों के लिए है, आदमी कानून के लिए नहीं है।’ इस स्थिति में क्या कारण है कि हमें भी वे रियायतें न दी जायें, जो श्री खड्ग बहादुर सिंह को मिली थीं, क्योंकि उसे नर्म सज़ा देते समय उसका उद्देश्य दृष्टि में रखा गया था, अन्यथा कोई भी व्यक्ति जो किसी दूसरे को क़त्ल करता है, फांसी की सज़ा से नहीं बच सकता। क्या इसलिए हमें आम कानूनी अधिकार नहीं मिल रहा है कि हमारा कार्य हुकूमत के विरुद्ध था या इसलिए कि इस कार्य का राजनीतिक महत्व है?
माई लार्ड, मुझे यह कहने की आज्ञा दी जाये कि जो हुकूमत इन कमीनी हरकतों का सहारा लेती है, जो हुकूमत व्यक्ति के कुदरती अधिकार छीनती है, उसे बने रहने का हक़ नहीं। अगर वह कायम है तो आराजी तौर पर और हज़ारों बेगुनाहों का खून उसकी गरदन पर है। यदि कानून उद्देश्य नहीं देखता, तो न्याय नहीं हो सकता और न ही स्थायी शांति स्थापित हो सकती है। आटे में संखिया मिलाना जुर्म नहीं, बशर्ते कि उसका उद्देश्य चूहों को मारना हो, लेकिन यदि उससे किसी आदमी को मार दिया जाये, तो वह क़त्ल का अपराधी बन सकता है। लिहाज़ा ऐसे कानूनों को, जो दलील पर आधारित नहीं और न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध हैं, समाप्त कर देना चाहिए। ऐसे ही न्याय विरोधी कानूनों के विरुद्ध बड़े-बड़े श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों ने विद्रोह किया है।
हमारे मुक़दमे के तथ्य बिलकुल सरल हैं। 8 अप्रैल 1929 को हमने सेन्ट्रल असेम्बली में दो बम फेंके। उनके धमाके से चंद लोगों को खरोंचें आयीं। चैम्बर में हंगामा हुआ, सैकड़ों दर्शक और सदस्य बाहर निकल गये। कुछ देर बाद खा़मोशी छा गयी। मैं और साथी बी. के. दत्त खा़मोशी के साथ दर्शक गैलरी में बैठे रहे और हमने स्वयं अपने को गिरफ़्तारी के लिए प्रस्तुत किया। हमें गिरफ़्तार कर लिया गया। अभियोग लगाये गये और हत्या करने के अपराध में सज़ा दी गयी। सेशन जज ने स्वीकार किया कि यदि हम भागना चाहते तो भाग सकते थे। हमने अपना अपराध स्वीकार किया और अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए बयान दिया। हमें सज़ा का भय नहीं है, लेकिन हम नहीं चाहते कि हमें ग़लत समझा जाये। हमारे बयान से कुछ पैराग्राफ़ काट दिये गये हैं। यह वास्तविक स्थिति की दृष्टि से हानिकारक है।
समग्र रूप से हमारे वक्तव्य के अध्ययन से साफ़ प्रकट होता है कि हमारे दृष्टिकोण से हमारा देश एक नाजुक दौर से गुज़र रहा है। इस दशा में काफ़ी ऊंची आवाज़ में चेतावनी देने की ज़रूरत थी और हमने अपने विचारों के अनुसार चेतावनी दी है। संभव है, हम ग़लती पर हों, हमारे सोचने का ढंग जज महोदय के सोचने के ढंग से भिन्न हो, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हमें अपने विचार प्रकट करने की इजाज़त न दी जाये और ग़लत बातें हमारे साथ जोड़ी जायें। ‘इंक़लाब जि़ंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के संबंध में हमने जो व्याख्या अपने बयान में दी है, उसे उड़ा दिया गया है, हालांकि यह हमारे उद्देश्य का ख़ास भाग है। ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ से हमारा वह उद्देश्य नहीं था जो आमतौर पर ग़लत अर्थ में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इंक़लाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है और यही चीज़ थी जिसे हम प्रकट करना चाहते थे। हमारे इंक़लाब का अर्थ पूंजीवाद और पूंजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अंत करना है। मुख्य उद्देश्य और उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया को समझे बिना किसी के संबंध में निर्णय देना उचित नहीं है। ग़लत बातें हमारे साथ जोड़ना साफ-साफ़ अन्याय है।
यह चेतावनी बहुत आवश्यक थी। बेचैनी रोज़-रोज़ बढ़ रही है। यदि उचित इलाज न किया गया, तो रोग ख़तरनाक रूप ले लेगा। कोई भी मानवीय शक्ति इसकी रोकथाम न कर सकेगी। अब विश्वास है कि यदि सत्ताधारी शक्तियां ठीक समय पर सही कार्यवाही करतीं, तो फ्रांस और रूस की खूनी क्रांतियां न होतीं। दुनिया की कई बड़ी-बड़ी हुकूमतें विचारों के तूफान को रोकते हुए खून-ख़राबी के वातावरण में डूब गयीं। सत्ताधारी लोग परिस्थितियों के प्रवाह को बदल सकते हैं। हम चेतावनी देना चाहते थे। यदि हम कुछ व्यक्तियों की हत्या करने के इच्छुक होते, तो हम अपने मुख्य उद्देश्य में असफल हो जाते।
माई लार्ड, इस नीयत, भावना और उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए हमने कार्रवाई की और इस कार्रवाई के परिणाम हमारे बयान का समर्थन करते हैं। एक और नुक़्ता स्पष्ट करना आवश्यक है। यदि हमें बमों की ताक़त के संबंध में कोई ज्ञान न होता, तो हम पंडित मोतीलाल नेहरू, श्री जयकर, श्री जिन्ना जैसे सम्माननीय राष्ट्रीय व्यक्तियों की उपस्थिति में क्यों बम फेंकते? हम नेताओं के जीवन को किस तरह खतरे में डाल सकते थे? हम पाग़ल तो नहीं हैं और अगर पागल होते, तो जेल में बंद करने के बजाय हमें पागलखाने में बंद किया जाता। बमों के संबंध में हमें निश्चित जानकारी थी। उसी के कारण ऐसा साहस किया। जिन बेंचों पर लोग बैठे थे, उन पर बम न फेंकना निहायत मुश्किल काम था। अगर बम फेंकने वाले सही दिमाग के न होते तो बम ख़ाली जगह की बजाय बेंचों पर गिरते। मैं तो कहूंगा कि ख़ाली जगह के चुनाव के लिए जो हिम्मत हमने दिखाई, उसके लिए हमें इनाम मिलना चाहिए। इन हालातों में, माई लार्ड, हम सोचते हैं, हमें ठीक तरह नहीं समझा गया। आपकी सेवा में हम सज़ाओं की कमी कराने नहीं आये बल्कि अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए आये हैं। हम तो चाहते हैं कि न तो हमसे अनुचित व्यवहार किया जाये और न ही हमारे संबंध में अनुचित राय दी जाए। सजा का सवाल हमारे लिये गौण है।
चलो इक बार फिर से, अजनबी बन जायें हम दोनों
चलो इक बार फिर से ...
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँ दिलनवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो गलत अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये मेरी बातों से
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्म-कश का राज़ नज़रों से
चलो इक बार फिर से ...
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जलवे पराए हैं
मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माझी की - २
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साये हैं
चलो इक बार फिर से ...
तार्रुफ़ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर
ताल्लुक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन - २
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
चलो इक बार फिर से ...
ताल्लुक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन - २
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
पंगेबाज पर ताला और ब्लागवाणी का टूलबार
उनके द्वारा बनाया गया टूलबार निश्चित रूप से हम जैसे कम जानकार के लिये प्रेरक है कि बिना जानकारी के कुछ करने की इच्छा के कारण कुछ भी असम्भव नही है। मुझे याद है कि जब मै उनके ब्लाग पर अतिथि के रूप में साज सज्जा किया करता था तो वे मुझ जैसे अल्पज्ञानी से काफी कुछ सीखने की इच्छा रखते थे। यहॉं तक कि मेरे निर्देशन मे उन्होने अपने ब्लाग पर काउन्टर, ब्लागों के लिंक, फोटों आदि लगाया था। अपने से बडें को सिखाकर मेरा भी सीना गर्व और अभिमान से चौड़ा रहा था। किन्तु धीरे धीरे उन्होने कार्टून से लेकर टूलबार के क्षेत्र में हाथ अजमा रहे है, इससे ज्यादा मुझे खुशी और क्या होगी क्योकि एक शिक्षक के लिये उसके शिष्य को आगे बढते देखते हुऐ और अच्छा क्या हो सकता था। मै उनके कम्प्युटर ब्लागिंग का प्रथम गुरू रहा हूँ। :)
आज मुझे खुशी हो रही है कि वे टूल जैसे औजारों के निर्माण कर सार्थक काम कर रहे है। कहीं ताले के पीछे विरोधियों को पटखनी देने के लिये ब्लागिंग पहलवानी के नये पैतरे तो नही सीख रहे है। :) मै तो बच के रहना चाहूँगा आज लिंक देकर और यह कहकर अच्छा नही किया कि उन्होने मुझसे बात नही किया। मै सदा सर्वदा किसी भी प्रकार के ताले के पीछे कोई काम करने का विरोध करूँगा चाहे वो जो हो। जो भी काम हो उसमें पारदर्शिता होनी चाहिऐ।
अरूण जी ने जैसा टूलाबार बनाया है निश्चित रूप से एक ब्लागर के तौर पर उनकी उपलब्धी है। अरूण जी के द्वारा टूलबार काम से स्पष्ट हो गया कि वे सार्थक कार्य में ही भाग ले रहे है। और हर व्यक्ति को अपने सार्थक कार्य में ही रूचि लेनी चाहिए। आज एक और टूलबार के बारे में पढ़ था काफी अच्छा लगा था मन में आया कि क्यो न अरूण को गुस्से को शान्त करने के लिये इसकी व्याख्या ही कर दी जाये कि यह कैसे काम करता है।
ब्लागवाणी के लिये अरूण जी द्वारा बनाया गया यह टूलबार किसी अन्य ब्लागरों की तुलना में सरल है सुविधालब्ध है। इस टूलबार को हम कई भागों में बांट सकते है। जैसे ब्लागवाणी, हिन्दी चिटठे, समाचार, ब्लागवाणी पर हाल के चिट्ठे, हिन्दी टंकड़ टूल, रेडियों आदि प्रमुख है।
1. ब्लागवाणी पर- इस टूलबार पर हम सम्पूर्ण ब्लागवाणी का दर्शन कर सकते है। जैसे मुख्य पन्ना, झटपट नजर, ज्यादा पढे गये लेख, ज्यादा पंसद किये गये लेख, टूलबार का लिंक तथा साइट सुझाऐ जैसी सुविधाऐ है।
2. कम्प्युटिंग पर- इस पर विभिन्न टाइपिंग टूल का लिंक दिया गया है जिस पर सिर्फ एक क्लिक से पहुँच सकते है। कैफे हिन्दी टाइपिंग टूल, इण्डिक आईएमई, बारहा, हिन्दी कलम, युनीनागरी जैसे लिंक दिये गये है।
3. खबरे इस शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दी जाल पर उपलब्ध सम्पूर्ण हिन्दी समाचार पत्रों का लिंक दिया गया है। अर्थात अब खबरों के लिंक के लिये भटकने की जरूरत नही होगी।
4. नई प्रविष्टियॉं - इस श्रेणी में टूल पर ही ब्लावाणी पर उपलब्ध सारी अनपढ़ी पोस्टो को देखा और बिना ब्लागवाणी पर गये उसे खोला जा सकता है।
5. रेडियों - इस भाग में नेट पर उपलब्ध समस्त आनलाईन रेडिया कार्यक्रम प्रसरित करने वाले चैनल उपलब्ध है।
6. वेबजाल - इसमें नेट पर उपलब्ध कुछ अच्छी पत्रिकाओं व ब्लागों के अलावां सांसद जी जैसे लिंक मौजूद है। इस पर मेरा ब्लाग भी दिख रहा है। पर क्या मेरा ब्लाग इस लायक है कि इतने अच्छों ब्लागों के साथ मेरे ब्लाग का नाम जोडा गया है?
सच कहूँ तो मुझे इस टूलबार की सादगी बहुत अच्छी लगी मेन मेन्यु में ज्यादा बोझ नही दिया गया है। और व्यवस्थित रूप से एक श्रेणी के रूप रखा गया है। मेरा मानना है कि अभी इसमें कुछ कमियां है जो सुधार की जाने योग्य है। प्रथम कि इसका सम्पूर्ण हिन्दी करण किया जाये, दूसरा यह कि अनावश्यक लिंकों को हटा दिया जाये जैसे मौसम की जानकारी। एक और काम किया जा सकता है एक साथ सम्पूर्ण हिन्दी ब्लागों को लिंक भी कहीं इस ब्लाग या ब्लागवाणी पर दिया जाना चाहिए। निश्चित रूप से इसमें नित सुधार होते रहेगें। अरूण जी एक निवेदन है, कि आप अपने ब्लाग का ताला हटा दीजिए, आप नही जानते कि कितने पाठको नाराज करना ठीक नही। :) आपको अपनी अनुपम कृति के लिये बधाई।
ब्लागवाणी टूलवार डाऊनलोड कीजिए मजे जीजिऐ -
फायरफाक्स
इन्टरनेट एक्सप्लोरर
दिल्ली यात्रा - बिना लंका काण्ड के रामायण भी अधूरी ही रहेगी
मै पिछली बारके यात्रा वृतान्त में शैलेश जी के घर पर था और मैन कहा था कि मै अगले हिस्से में इण्डिया गेट का वर्णन करूँगा। यह पढाव इतना कष्टकारी और अकेलापन महसूस करायेगा मैने सोचा भी नही था। सुना था कि दिल्ली वालों के पास दिल होता है किंतु शायद यूपी की मिलावट के कारण वह दिल चोट पहुंचाने वाला निकला। मैने सोचा था कि मै अपनी यात्रा वृतांत के इस भाग को नहीं लिखूँगा किन्तु बाद में लगा कि बिना लंका कांड के रामायण भी अधूरी ही रहेगी।
आइये फिर चलते है इण्डिया गेट। लगभग 4 बजे 20-25 किमी की यात्रा समाप्त करने के बाद हमने कुछ देर आराम किया। तभी अनुमान हुआ कि शैलेश के यहां ठहरे अन्य बंधु इण्डिया गेट की ओर भ्रमण करने का कार्यक्रम बना रहे है। तभी शैलेश जी ने प्रस्ताव रखा कि आप भी जाना चाहते हो तो घूम आइये। हमें क्या था घूमने आये ही थे तो राजी हो गये। किन्तु जिनते विश्वास के साथ शैलेश जी ने हमें जाने के लिये उत्साहित किया था उतने उत्साह में ले जाने वाले नहीं थे। और वे लोग हमें लिये बिना चले भी गये और हम दोनों कमरे पर ही रह गये। यहीं से पराये शहर में अपनेपन की कमी या फिर कहें कि स्पष्ट अलगाव दिखने लगा था फिर क्या था मै और तारा चन्द्र ने हार नहीं मानी और शैलेश जी रूट मार्ग की जानकारी लेकर चल दिया भ्रमण करने भारत-द्वार का।
कमरे से निकलने पर पैर में दोपहर का थकान का अनुभव हो रहा था किन्तु चेहरे पर इसकी छवि जरा भी नहीं दिख रही थी, शायद यह दिल्ली भ्रमण की समय की कमी के कारण ही था। हम लोग बस स्टैड पर पहुँच गये जहॉं से हमें इण्डिया गेट के लिये जाना था। वहां पर हमसे पहले शैलेश जी के कमरे से निकली टोली मौजूद थी हमारे बीच किसी प्रकार की कोई बातचीत नहीं हुई, और मैने भी करना उचित नहीं समझा क्योंकि मुझे अनुभव हो गया था कि जब कोई हमें साथ ले जाने को तैयार नही है तो उनके व्यक्तिगत यात्रा को क्यों कबाब में हड्डी बन कर खराब किया जाये। जैसा कि मैने फोन पर आलोक जी से रात्रि 8:30 इण्डिया गेट पर मिलने का समय दिया था। इसलिए हम लोगों ने बस पर ही योजना बना लिया था कि हम पहले राष्ट्रपति भवन की ओर जाएंगे फिर लगभग 8 बजे रात्रि राष्ट्रपति भवन से इण्डिया गेट की ओर वापसी करेंगे। ताकि आलोक जी से मुलाकात हो सके। बस की योजनाएं योजनाएं ही रह गई और लगभग 6 बजे हम लोग कृर्षि भवन पर उतर चुकें थे और राष्ट्रपति भवन की ओर जाने लगे, वह मंडली भी हम लोगों के बाद उतरी तथा सड़क पार कर इण्डिया गेट की ओर जाने लगी, तभी तारा चंद्र ने मुझसे कहा कि वह लोग हमे बुला रहे है।
मै भी वापस इण्डिया गेट की ओर चलने लगा तब तक ट्रफिक चालू हो चुका था जिस कारण हम पार करने में 3-4 मिनट का समय लग गया था। और वे लोग हमारा इन्तजार किये बिना ही चल दिये और जब हम सड़क पार किया तो वे लोग भरी भीड़ में लगभग 200 मीटर से अधिक दूरी पर थे। फिर मुझे उनकी बेरूखी का अनुभव हो गया था। फिर हमने अपना रास्ता अपना लिया टहलते हुऐ हम लगभग 7:30 बजे इण्डिया गेट पर पहुँच गये थे। वहॉं का नाजरा बहुत ही मनमोहक था एक बिना उत्सव का जनसैलाब देखकर मन में अतीव प्रसन्नता हो रही थी। पर कहीं से दिल में एक सिकन थी इतने लोगों को अपने परिवार के साथ देख अपने आप अकेले होने का, पर क्या कर सकता था। बस याद करके ही रहा गया। फिर मैने अपने घर पर फोन मिलाया और सभी से बातें की और अभी तक जितना भी इण्डिया गेट पर देखा सबको बताया भी, एक प्रकार से फोन पर मै लाइव कमेन्ट्री कर रहा था। घर पर बात कर थोड़ा सूकून का अनुभव कर रहा था। जब मै यह सब करने में व्यस्त था तो तारा चन्द्र जी एक मीडिया चैनल के खुलासे का वर्णन का दर्शन कर रहे थें। फिर पल पल का समय भारी पढ रहा था। मैने पिछले आधे घंटे में आलोक जी को दर्जनों काल की कब आ रहे है।
इस दौर मे मैने अरूण जी से बात करने की कोशिश की तो भी निराशा हुई उन्होंने फोन उठाया और कहा प्रमेन्द्र भाई भाई मै अभी मै विशेष मीटिंग में हूँ बाद में काल कीजियेगा। उनकी यह बात अकेले कचोटते मन पर एक और प्रहार करती है। लगभग 8:30 आलोक जी का कॉल आया और मैने उसे काट कर तुरन्त कॉल बैक किया क्योंकि मुझे रिसीविंग करने पर ज्यादा पैसा देना पर रहा था। मुझे यह कॉल एक विशेष पर की खुशी दे गई, आलोक जी का उत्तर था कि मै आ गया हूँ। मै ठेठ पूर्वी उत्तर प्रदेश की भाषा का प्रयोग कर जिससे वहां के लोगों के चेहरे पर मेरी वजह से थोड़ी मुस्कान भी दिखी। आलोक जी ने कहा भाई आप कहां है? मै उत्तर दूँ भी तो क्या? इनती बड़ी भीड़ मे एक दूसरे को खोजना कठिन काम था, वो भी तब जब आप एक दूसरे के चेहरे से वाकिफ न हो। फिर मैंने तपाक से जवाब दिया कि भाई जो तीन ठौ झन्डवा दिख रहा है ठीक वही के सामने मिलते थे। मैने तारा चंद्र को बुलाया जो मीडिया में दिलचस्पी ले रहे थे। और झंडे की ओर चल दिया वहां पर पहले से मौजूद आलोक जी ने जय श्री राम शब्द के उद्घोष के साथ गले मिल कर एक दूसरे का अभिवादन किया। अब तक यह यह वाक्या मुझे काफी कुछ सिखा चुका था, शायद कुछ ज्यादा ही, वो था अपने और पराये में फर्क। जिनके साथ मै था वह बात न मिली जो एक पल में मिले आलोक जी से मिली। मै कह सकता था कि वक्त ने भी हमें सब रंग दिखाये। मेरी इस पहली यात्रा में मेरा मेरे साथ मेरा मित्र( तारा और आलोक) न रहा होता तो मै तो इस यात्रा से टूट ही गया होता। जो भी मेरे साथ वाक्या हुआ मैने यह सब किसी से कहना उचित नही समझा।
मै घर से इतनी दूर अपनत्व पाने के लिये गया था न किसी बौरहे पागल की तरह घूमने। अब मुझे लग रहा है कि इस पोस्ट में बहुत कुछ ज्यादा लिख गया हूँ वह सब जो मैने उस दौर में महसूस किया था, दिल चाह रहा था कि इसी पोस्ट में आलोक जी के साथ घूमने का भी वर्णन कर दूँ। पर इतना अधिक हो जायेगा तो मजा नहीं आयेगी। तो ठीक है अगली कड़ी में मै आपको बताऊँगा कि रात्रि 8:30 से 11:00 बजे तक हमने क्या किया ? यह सब अगली कड़ी में।
टेनिस (Tennis) की शब्दावली
श्री राम तथा श्री कृष्ण के युगों की प्रामाणिकता
श्रीराम जन्म के ग्रह योग का नक्शा
1- सूर्य मेष राशि में
2- शनि तुला में
3- बृहस्पति कर्क में
4- शुक्र मीन में
5- मंगल मकर में
6- चैत्र माह, शुक्ल पक्ष
7- चंद्रमा पुनर्वसु के निकट
8- कर्क राशि
9- नवमीं को दोपहर
10- समय करीब 12 बजे
जब उपर्युक्त खगोलीय स्थिति को कंप्यूटर मे एंटर किया गया तो प्लैनेटेरियम सॉफ़्टवेयर के माध्यम से यह पता चला कि प्रभु राम की डेट ऑफ़ बर्थ (जन्मतिथि) 10 जनवरी 5114 ई पू है।
छडि़काऐं
न तुम पास आती हो,
जाने क्यूँ घबराती हो।
वफा करते है तुमसे,
नफा पाने के खातिर।
(2)
जानम तेरी प्यार में,
हम पागल हो गयें।
घर मे जब मार पड़ी
तो हम घायल हो गये।
...................................
(3)
खूसट सा चेहरा तेरा,
गिल्ली सी मुँस्कान है।
रंग तेरा देखा कर,
अंधा भी हैरान है।
...............................
(4)
पानी सी जिन्दगी,
रवानी सी जिन्दगी।
ठोकरों के पल्लवन से,
बढ़ती है बंदगी।
..........................
कह-कसाने वो लगा,
और मेरी जिंदगी।
रास्ते मेरे खोये हुऐ,
मंजिलों को ढ़ँडते।
..................................
(6)
तेरे गीतों में न राग है,
न तेरे बोलों में साज है।
प्रिये अब तुम मत बोलो,
तेरी कर्कस आवाज है।
.........................................
दिल्ली यात्रा - खूब चले पैदल
आज काफी दिनों बाद दिल्ली यात्रा गाथा लिखने को समय मिल ही गया। मैंने अनिल जी और सुरेंद्र सुमन पर पिछली बात को छोड़ा था। अब उसके आगे ले चलता हूँ। दिल्ली स्टेशन पर हम काफी देर से अनिल जी का इन्तजार कर रहे थे। तब वे दिख जाते है और परिचय-परिचयी होती है। फिर मैंने अपनी एक बात अनिल भाई को बताया कि मेरे एक मित्र प्लेटफार्म नंबर एक 7:30 पर मिलने को कहा है। अगर उनसे मिलना हो जाये तो अच्छा होगा। अनिल जी ने तुरंत हाँ कर दिया। और मुझे आभास हुआ कि मेरी हर सार्थक बात में उनकी हॉं थी। फिर काँफी खोजते खोजते सुमन भाई मिल ही गये। फिर हम लोगों से कृर्षि भवन तक के लिये एक बस पकड़ी, गौरेतलब की वह ब्लू लाइन ही थी। मै सोच में पड़ गया कई यह टक्कर मार वाहन हमारी फोटो न खिंचवा दें और हम पेपर और टीवी पर न दिखने लगे। :) पर अफसोस की ऐसा हुआ नहीं :(
बस में मै और सुमन जी साथ साथ से और हमारी बातें खत्म होने का नाम ही नही ले रही थी। पर उनके साथ मेरा सफर सिर्फ कृर्षि भवन तक ही था। काफी बातें अधूरी रह गई। सच में हम दोनों को इस बात का दुख है। फिर हम लोग कृर्षि भवन पहुंच गए और उससे पहले बात करते हुए सैन्य भवन, उद्योग भवन, रेल भवन, सहित अनेको मंत्रालयों को देखा। फिर कृर्षि भवन से हम लोगों ने जिया सराय के लिये बस पकड़ी तो रास्ते में राष्ट्रपति भवन और इंडिया गेट भी दिखा। फिर इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका, पाकिस्तान सहित अनेक राष्ट्रों के दूतावास को भी देखा यह निश्चित रूप से एक अच्छा पल था। यह सब देखते हुए अनिल जी से बात हुई। तो पता चला कि वह वही अनिल है जिनसे मैने इलाहाबाद में फोन पर बात की थी पर मिलना नही हो सका था।
अनिल जी के साथ मै और तारा चन्द्र शैलेश जी के यहाँ पहुँचे लगभग नौ बजे के आस पास तब तक और मित्रों का आगमन हो रहा था। लगभग 1 बजे के आस पास मुझे लगा कि हमारे पास समय कम है कुछ दिल्ली घूम लिया जाना चाहिए। फिर क्या था हम लोग निकल दिऐ आईआईटी गेट के सामने वाली सड़क की ओर ग्रीन पार्क/ गार्डन की ओर वहां जाकर पता चला न यहाँ ग्रीन है न ही गार्डन। फिर क्या था मैने कुछ लोगों से पूछा कि आईआईटी गेट जाने का रास्ता तो उन्होंने बताया कि जैसे आये हो वैसे ही चले जाओं। पर मुझे यह ठीक नही लग रहा था कि जिस रास्ते से चप्पल चटकाते हुऐ आया हूँ फिर से उसी रास्ते को नापू फिर हम लोग विपरीत रास्ते पर निकट दिया गया। फिर हम लोग सफदरगंज पहुंचे और देना बैंक के एटीएम और उनकी सुख सुविधाओं का उपयोग किया। फिर हमें एक बड़ा सा पार्क दिखा जिसे लोग हिरण पार्क कहते थे। मुझे यह अनुमान हो गया कि यह वही पार्क हो सकता है जो हमने आई आई टी गेट पर देखा था। हम अपने अनुमान के निकट थे जब हमने पार्क में प्रवेश किया और लोगो से आईआईटी गेट के बारे में पूछा तो हम सही थे और उनके द्वारा बताया गया आप हिरण पार्क में है आगे जाने पर आप रोज गार्डेन में पहुँच जायेगें। हमारी जान में जान आई हम लगभग 20 किमी पैदल का चक्कर लगा चुके थे। किन्तु तारा चन्द्र की मजाकिया बातों से थकान का अनुभव नही हुआ। रोज गार्डेन के प्रेमी जोडों को देख कर एक अच्छी गजल तारा चन्द्र सुना रहे थे। अचनक गेट से बाहर हम पहुँच गये। फिर हमें मजिंल मिल गई थी। लगभग पॉंच बजे को आस-पास हमें शैलेश जी के निवास पर पहुँचे जहॉ वह अकेले हमारे आने का इन्तजार कर रहे थे।
यहॉं तक का वृत्त समाप्त होता है। आगे की कड़ी में मै आपको इण्डिया गेट और अपने एक अन्य प्रिय मित्र आलोक जी के साथ बिताये गये पलो का वर्णन करूँगा। क्योकि यह ही वह पल था जब मेरे लिये सबसे ज्यादा खुशी और दु:ख के थे।
औकात में रहे मीडिया और उनके नुमाइन्दे
अदालत का यह फैसला निश्चित रूप से आधुनिक अंधी पत्रकारिता को उसकी औकात बता रहा है कि पत्रकार जगत जिस अपने आपको लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मनाता है, वह उसकी भूल है। इस देश के संविधान में चौथे स्तम्भ की कोई उल्लेख नही है। पत्रकार अपने आपको लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ होने के मद में अपने पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान पढ़ाये गये पाठों को भूल जाते है। कि पत्रकारों को निष्पक्षता बरतनी चाहिए और कम से कम बिना साक्ष्यों के संवैधानिक पदों पर आसीन (राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, न्यायाधीश व राज्यपाल) के खिलाफ बयानबाजी से बचना चाहिए।
हाल में कुछ माह पहले हिन्दी ब्लागिंग में भी इस प्रकार का प्रकरण देखने को मिला था जिसमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मा. न्यायमूर्ति श्री एसएन श्रीवास्तव को एक सम्मानित टीवी चैनल की महिला पत्रकार आरफ़ा ख़ानम शेरवानी द्वारा कुछ लोगों शह पर किसी पार्टी का एजेन्ट, मानसिक रूप से असंतुलित, सरकारी वेतन भोगी, बेटे को पेट्रोल पंप दिया गया इसलिये दबाव में आकर फैसला दिया गया तथा अनेक प्रकार के अशोभनीय शब्दों का प्रयोग किया गया। जो निश्चित रूप से न्यायालय की अवमानना के दायरे में आता है। जब यह बातें जिम्मेदार पत्रकार के जुबान से निकलती है तो सही में कष्ट होता है कि यह समान आज की चकाचौंध में अपने मूल उद्देश्यों से भटक रहा गया है।
हिन्दी ब्लॉग समुदाय की यह घटना श्री सब्बरवाल के ऊपर लगाए गए आरोपों से भी गंभीर है क्योंकि न सिर्फ न्यायधीश पर आक्षेप है बल्कि मोहतरमा के द्वारा सम्पूर्ण न्यायालय तथा न्यायाधीशों को न सिर्फ गाली दी गयी अपितु भारत के संविधान में वर्णित न्यायाधीशों के अधिकार और सम्मान को चुनौती दी गई थी। भारत के संविधान में साफ वर्णित है कि न्यायाधीश न तो सरकारी मुलाजिम है और न ही सरकार का वेतन भोगी। पत्रकार समुदाय द्वारा संज्ञान में यह कदम उठाना निश्चित रूप से महंगा पड़ सकता है, क्योंकि मिड डे की जगह मोहतरमा का नाम भी हो सकता था।
निश्चित रूप से उच्च न्यायालय का यह फैसला पत्रकारों के मुँह पर तमाचा है जो मीडिया को दम्भ पर गलत काम को बढ़ावा देती है। संवैधानिक पदों पर आक्षेप पर अदालत का यह निर्णय सराहनीय है। न्यायालय का यह आदेश अपने आपको चौथा स्तम्भ मनाने वाली बड़बोली मीडिया और पत्रकारों के लिये सीख भी।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय - गीता हो राष्ट्रीय ग्रन्थ और मदिंरों और हिन्दुओं का संगरक्षण दे सरकार
Allahabad High Court Building at Allahabad
माननीय न्यायमूर्ति ने 104 पृष्ठ का निर्णय में इतिहास के साक्ष्य प्रकट करते हुए कहा कि विगत 1300 वर्षों से लगातार सांप्रदायिक एवं समाज विरोधी तत्वों द्वारा हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त किया जा रहा है इस प्रकार के प्रकरणों से सीख लेते हुए राज्य का यह दायित्व है कि वह हिन्दू मंदिरों व धार्मिक संस्थाओं को संरक्षण प्रदान करें और इसके लिए अलग से पुलिस बल या स्पेशल सेल गठित किया जाये।
न्यायालय ने धार्मिक स्वतंत्रता से सम्बन्धित संविधान की अनुच्छेद 25 व 26 का जिक्र करते हुए कहा कि हिन्दुओं को भी धार्मिक आजादी का पूर्ण संरक्षण मिलना चाहिए क्योंकि आजादी के बाद से कुछ विशेष सम्प्रदाय के व्यक्तियों की जनसंख्या पूरे भारत के कुछ जिले/मोहल्लों में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है और इसके फल स्वरूप हिन्दू जनसंख्या अपनी सुरक्षा के लिये अपनी जमीन व मंदिर की संपत्ति बेचकर सुरक्षित हिन्दू बहुल क्षेत्रों में बस रहे है।
न्यायालय ने राज्य को निर्देशित किया कि मंदिरों की सुरक्षा के लिए कानून बनाये ताकि समाज विरोधी सांप्रदायिक तत्वों के मंदिरों पर हमले की प्रवृत्ति पर रोक लगायी जा सके। इसी के साथ न्यायालय ने तिल भांडेश्वर वाराणसी स्थित श्री सालिग्राम शिला गोपाल ठाकुर की प्रतिमा पुनस्र्थापित कर रखरखाव का निर्देश दिया है और राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि वह मंदिर के सेवाइती को पूर्ण सहयोग प्रदान करें ताकि मंदिर में राग, भोग व पूजा शांतिपूर्ण ढंग से चलती रहे। एक संप्रदाय की बढ़ती आबादी व तनाव के चलते मंदिर बेचकर उसे इलाहाबाद लाया जा रहा था। इस मामले में न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय के आदेश को रद कर दिया है। यह आदेश न्यायमूर्ति एसएन श्रीवास्तव ने गोपाल ठाकुर मंदिर के सेवाइत श्यामल राजन मुखर्जी की याचिका को स्वीकार करते हुए दिया है।
न्यायालय ने हिन्दू मंदिरों की देखरेख व सुरक्षा के लिए राज्य सरकार को हिन्दू मंदिरों का बोर्ड गठित करने को भी कहा, जो मंदिरों का पंजीकरण, रखरखाव व प्रबंधन का काम देखेगा इसके सदस्य सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति गिरधर मालवीय तथा प्रमुख सचिव धर्मादा उप्र सरकार सदस्य सचिव होंगे। माननीय न्यायालय ने तदर्थ बोर्ड से कहा कि मामले की जॉच कर चार माह में राज्य सरकार को रिर्पोट सौंप दें। और राज्य सरकार को भी आदेश दिया कि वह किसी को भी मंदिरों या धार्मिक संस्थाओं, मठ आदि की संपत्ति बेचने की अनुमति न दे जब तक कि जिला न्यायाधीश की अनुमति न प्राप्त कर ली गई हो एक अन्य मामले में माननीय न्यायमूर्ति श्री श्रीवास्तव ने फैसला देते हुए कहा कि राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्र गान , राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय पुष्प के समान भगवद् गीता को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र घोषित किया जाना चाहिए। जस्टिस श्रीवास्तव ने वाराणसी के गोपाल ठाकुर मंदिर के पुजारी श्यामल राजन मुखर्जी की याचिका पर फैसला देते हुए कहा कि देश की आजादी के आंदोलन की प्रेरणा स्रोत रही भगवद् गीता भारतीय जीवन पद्धति है। उन्होंने कहा कि इसलिए संविधान के अनुच्छेद 51(ए) के तहत देश के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह इसके आदर्शों पर अमल करें और इस राष्ट्रीय धरोहर की रक्षा करें।
न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि भगवद् गीता के उपदेश किसी खास संप्रदाय की नहीं है बल्कि सभी संप्रदायों की गाइडिंग फोर्स है। गीता के उपदेश बिना परिणाम की परवाह किए धर्म के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं। यह भारत का धर्मशास्त्र है जिसे संप्रदायों के बीच जकड़ा नहीं जा सकता। न्यायमूर्ति एसएन श्रीवास्तव ने कहा कि संविधान के मूल कर्तव्यों के तहत राज्य का यह दायित्व है कि भगवद् गीता को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र की मान्यता दे।
न्यायालय ने यह भी कहा कि भारत में जन्मे सभी सम्प्रदाय, सिख, जैन, बौद्ध आदि हिंदुत्व का हिस्सा है जो भी व्यक्ति ईसाई, पारसी, मुस्लिम, यहूदी नहीं है वह हिन्दू हैं और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 व 26 के तहत अन्य धर्मों के अनुयायियों की तरह हिंदुओं को भी अपने सम्प्रदायों का संरक्षण प्राप्त करने का हक है। न्यायालय ने कहा है कि भगवत गीता हमारे नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों की संवाहक है यह हिन्दू धर्म के हर सम्प्रदाय का प्रतिनिधित्व करती है इसलिए प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह इसके आदर्शों को अमल में लाये। माननीय न्यायमूर्ति के इन फैसलों से इस अल्पसंख्यकों की वास्तविकता स्पष्ट करती है वरन इलाहाबाद और आगरा की घटनाओं के बाद हुई हिंसा से इनकी कट्टरता भी प्रकट करती है। इसके पूर्व में भी माननीय न्यायमूर्ति ने मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं का जो फैसला दिया था वह गलत नहीं था। क्योंकि आज वे संख्या में भले हिन्दुओं से कम है किन्तु आज जिन इलाकों में वे हिन्दुओं से संख्या बल में ज्यादा है वहां पर हिन्दुओं का सर्वाधिक अहित हुआ है। आगरा में ट्रक के टक्कर के परिणाम हिन्दुओं की दुकानों को लूट कर किया गया इलाहाबाद के करेली की अफवाह के परिणाम स्वरूप हिन्दू बस्ती की तरफ हमले की योजना रची गई अगर कर्फ्यू न लगा होता तो शायद वस्तुस्थिति कुछ और होती तथा इसके साथ ही साथ कर्फ्यू के कारण कई परिवारों के भोजन नसीब नहीं हुआ। वास्तव आज न्यायालय के निर्णय समाज और सरकार को वास्तविकता का शीशा दिखा रहा है। जो सरकार आज अल्पसंख्यकवाद का ढोंग रच रही है उसे वास्तविकता के आगे जागना होगा।
माननीय न्यायमूर्ति जी को उनके फैसले तथा स्वर्णिम कार्यकाल के लिये हार्दिक शुभकामनाएं।
आँसू
हर खुशी हर ग़म में बहार आँसुओं की है।
देखें हमने है जि़न्दगी के फ़साने,
यहॉं खुशी और प्यार का दीदार आँसुओं में है।
कुऑं है, दरिया है या है नदी
हमने देखा समंदर संसार का आँसुओं में है।
आखि़र रिश्ता क्या है दिल का ऑंखों से,
जो आता इतना प्यार आँसुओं में है।
कौन कहता है कि बहता है ऑंसुँओं में ग़म,
हर मरने वाले का मिलता प्यार आँसुओं में है।
देख आँसुओं का ये आल़म-ए-मोहब्बत,
मेरा दिल कुर्बान हजार बार आँसुओं पे है।
रत्नों में सौन्दर्य ही नही, स्वस्थ और समृद्धि भी
मनुष्यों तथा ऋषियों ने इस धरा पर जो भी सबसे उपयुक्त सामग्री पायी उसे रत्न की संज्ञा दिया। रत्न शब्द का प्रथम प्रमाण ऋग्वेद के श्लोक में मिलती है। जहाँ पर अग्नि को रत्न की संज्ञा देते हुऐ कहा गया था- अग्निमीहे सुरोहितम् यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्। देवासुर संग्राम के कारण का मुख्य लक्ष्य रत्नों की प्राप्ति ही थी। क्योकि इन रत्नों का प्रयोग भी स्वयं लाभ प्राप्त करना था। क्याकि देव हो या दानव सभी समुद्र से निकले रत्नों को प्राप्त कर शक्तिशाली, विजयी और अमर होना चाहते थे। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया है कि रत्नों से तत्पर्य केवल हीरा, मोती पन्ना मूँगा से न होकर इस विश्व कि सर्वश्रेष्ठ कृति से है। समुद्र मंथन से निकले कौत्सुभ मणि को भगवान विष्णु ने हृदय में धारण किया था। भारतीय परिवेश में रत्न न केवल सौन्दर्य का प्रतीक है वरन यह चिकित्सा पद्धति का भी अंग है। जिसका उल्लेख आयुर्वेद की प्रसिद्ध पुस्तक चरक संहिता में हुआ है। आयुर्वेद के अनुसार रोगनाश करने की जितनी क्षमता औषधि सेवन में है उसी के समान रत्न्ा का धारण करने भी है। भले ही आज के वैज्ञानिक इस बात को न माने किन्तु आचार्य दण्डी रत्न की विशेषता बताते हुऐ कहते है- अचिन्त्यों ही मणिमत्रौषधीनां प्रभावा:।
अथर्ववेद में मणि का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि रत्नों के धारण करने से ही इन्द्र की उन्नति हुई और उसे इन्द्र पद प्राप्त हुआ-
तेनास्मान् ब्राह्मणस्पतोभि राष्ट्राय वर्धय।।
रत्नचौर्यनिन्दा प्रकरण में मनुस्मृति प्रकाश डालते हुऐ कहती है कि-
अय: कास्योंपलाना़ञ्च द्वादशाहं कणन्नता।।
मानव जीवन के साथ-साथ मणि व रत्नों में भी संस्कार की बात परिलक्षित होती है। संस्कारित मणि वह है तो शाण पर चढ़ाकर घिसने पर प्राप्त हो। बिना शाण पर चढ़ी मणि संस्कारित नही होती है। यहॉं पर संस्कार से तात्पर्य मणि के गुणवत्ता से है। इसके बारे में कहा गया है कि - शाणाश्मकषणै: काष्णर्यमाकरोत्थं मणेरिव।सुभाषितरत्नभंडार में भी रत्न की संस्कारित व असंस्कारित होने की बात कहते हुऐ कहा गया है कि जो मणि सीधे खान से प्राप्त होती है वह शुद्ध नही होती है उसमें शुद्धता शाण पर चढ़ने पर ही आती है।
निश्चित रूप से भारतीय शास्त्रों और परम्परा में रत्नों का महत्व है, रत्न न के वह सौन्दर्य का प्रतीक बना बल्कि स्वस्थ और समृद्धि का प्रतीक भी सदियों से बना है।
जन्म कुंडली में जो ग्रह शुभ हो लेकिन वह स्वयं अशुभ, पापी व क्रूर ग्रहों से पीडत होकर कमजोर हो तो उसके प्रभाव को बढ़ाने के लिए उससे सम्बन्धी रत्न किसी योग्य ज्योतिषी की सलाह पर पहनना चाहिए ! यहाँ दो बातें ध्यान रखनी चाहिए- पहली बात रत्न वही धारण करना चाहिए जो लग्न को नुकसान ना पहुचाये अर्थात लग्न से मित्रवत (स्थिति व पंचधा मैत्री) होना चाहिए और दूसरी बात ध्यान देने की है की सूर्य और चन्द्रमा को छोडकर शेष ग्रह २-२ राशियों के स्वामी है, जिससे यदि कोई ग्रह एक शुभ और एक अशुभ भाव का स्वामी हो तो उसे प्रभावी बनाने से दोनों भावों के फलों में वृद्धि होगी इस कारण से ऐसे ग्रह का रत्न धारण बहुत ही विचार से करना चाहिए !सभी लग्न में कुछ ग्रहों के रत्नों को मोटे तौर पे त्याग दिया जाता है और कुछ ग्रहों के रत्नों को उपयोग में लेते है ! लग्नों की स्थिति अनुसार सभी का फल निम्नलिखित है !
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
पंचमेश, त्रिकोणेश, योगकारक
|
अतीव शुभ
|
चंद्र – मोती
|
चतुर्थेश, केन्द्रेश, मित्र, तटस्थ
|
सम*
|
मंगल – मूंगा
|
लग्नेश, अष्टमेश
|
शुभ#
|
बुध – पन्ना
|
पराक्रमेश, षष्ठेश, अकारक, शत्रु
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
भाग्येश, व्ययेश, त्रिकोणेश, मित्र
|
सम
|
शुक्र – हीरा
|
मारकेश, केन्द्रेश, शत्रु
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
आयेश, केन्द्रेश, बाधक
|
सम
|
- *केंद्र के ग्रह अपनी शुभता या अशुभता या छोड देते है ! यदि दो राशियों के स्वामी है तो अपनी दूसरी राशि का फल करते है !
- # लग्नेश पर अष्टमेश होने का दोष नहीं लगता है !
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
केन्द्रेश, सुखेश, शत्रु, तटस्थ
|
सम
|
चंद्र – मोती
|
तृतीयेश, पराक्रमेश
|
अशुभ
|
मंगल – मूंगा
|
सप्तमेश, मारकेश, व्ययेश
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
पंचमेश, त्रिकोणेश, धनेश
|
शुभ
|
गुरु – पुखराज
|
अष्टमेश, आयेश, बाधक
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
लग्नेश, षष्ठेश
|
शुभ
|
शनि – नीलम
|
भाग्येश, कर्मेश, योगकारक
|
शुभ
|
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
अकारक, पराक्रमेश
|
अशुभ
|
चंद्र – मोती
|
धनेश, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
षष्ठेश, एकादशेश, अकारक
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
लग्नेश, चतुर्थेश, योगकारक
|
शुभ
|
गुरु – पुखराज
|
सप्तमेश, कर्मेश, बाधक, मारक
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
त्रिकोणेश, व्ययेश, मित्र
|
शुभ
|
शनि – नीलम
|
भाग्येश, अष्टमेश
|
सम
|
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
धनेश, मित्र, सामान्य मारक
|
सम
|
चंद्र – मोती
|
लग्नेश, कारक
|
शुभ
|
मंगल – मूंगा
|
योगकारक, त्रिकोणेश, कर्मेश
|
अतीव शुभ
|
बुध – पन्ना
|
अकारक, पराक्रमेश, व्ययेश
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
षष्ठेश, भाग्येश, तटस्थ
|
सम
|
शुक्र – हीरा
|
बाधक, केन्द्रेश, आयेश
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
मारकेश, अष्टमेश
|
अशुभ
|
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
लग्नेश, कारक
|
शुभ
|
चंद्र – मोती
|
व्ययेश, मित्र, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
योगकारक, त्रिकोणेश, केन्द्रेश
|
शुभ
|
बुध – पन्ना
|
मारक, आयेश, एकादशेश
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
पंचमेश, अष्टमेश, तटस्थ
|
सम
|
शुक्र – हीरा
|
केन्द्रेश, तृतीयेश
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
अकारक, मारक, षष्ठेश
|
अशुभ
|
कन्या लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
व्ययेश
|
अशुभ
|
चंद्र – मोती
|
आयेश, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
अकारक, अष्टमेश, तृतीयेश
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
योगकारक, लग्नेश
|
अतीव शुभ
|
गुरु – पुखराज
|
बाधक, केन्द्रेश
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
भाग्येश, धनेश, मारकेश
|
सम
|
शनि – नीलम
|
त्रिकोणेश, षष्ठेश, मित्र
|
शुभ
|
तुला लग्न :
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
लाभेश, बाधक, शत्रु
|
अशुभ
|
चंद्र – मोती
|
कर्मेश, केन्द्रेश, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
मारकेश, धनेश
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
त्रिकोणेश, व्ययेश, मित्र
|
सम
|
गुरु – पुखराज
|
अकारक, त्रिषडायेश, शत्रु
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
लग्नेश, षष्ठेश, कारक
|
शुभ
|
शनि – नीलम
|
योगकारक, त्रिकोणेश
|
अतीव शुभ
|
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
कर्मेश, मित्र, कारक
|
अतीव शुभ
|
चंद्र – मोती
|
भाग्येश, योगकारक, बाधक
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
लग्नेश, कारक, षष्ठेश
|
शुभ
|
बुध – पन्ना
|
अकारक, अष्टमेश
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
धनेश, पंचमेश, मारक, तटस्थ
|
सम
|
शुक्र – हीरा
|
सप्तमेश, मारकेश, व्ययेश
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
तृतीयेश, केन्द्रेश
|
अशुभ
|
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
त्रिकोणेश, भाग्येश
|
अतीव शुभ
|
चंद्र – मोती
|
अष्टमेश, मित्र, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
पंचमेश, व्ययेश
|
सम
|
बुध – पन्ना
|
बाधक, मारक, केन्द्रेश
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
त्रिकोणेश, लग्नेश, सुखेश
|
शुभ
|
शुक्र – हीरा
|
अकारक, त्रिषडायेश
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
मारक, पराक्रमेश, शत्रु
|
अशुभ
|
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
अष्टमेश, तटस्थ
|
सम
|
चंद्र – मोती
|
सप्तमेश, केंद्रश, तटस्थ
|
सम
|
मंगल – मूंगा
|
बाधक, सुखेश
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
भाग्येश, षष्ठेश
|
सम
|
गुरु – पुखराज
|
अकारक, व्ययेश
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
योगकारक, कर्मेश, मित्र
|
अतीव शुभ
|
शनि – नीलम
|
लग्नेश, धनेश, कारक
|
शुभ
|
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
सप्तमेश, तटस्थ
|
सम
|
चंद्र – मोती
|
षष्ठेश, अकारक
|
अशुभ
|
मंगल – मूंगा
|
केन्द्रेश, तृतीयेश, शत्रु
|
अशुभ
|
बुध – पन्ना
|
पंचमेश, अष्टमेश
|
सम
|
गुरु – पुखराज
|
मारक, एकादशेश
|
अशुभ
|
शुक्र – हीरा
|
योगकारक, सुखेश, भाग्येश
|
अतीव शुभ
|
शनि – नीलम
|
कारक, लग्नेश, व्ययेश
|
शुभ
|
ग्रह – रत्न
|
स्थिति विशेष
|
फल
|
सूर्य - माणिक्य
|
षष्ठेश, तटस्थ
|
सम
|
चंद्र – मोती
|
पंचमेश, कारक
|
शुभ
|
मंगल – मूंगा
|
भाग्येश, धनेश, मारक
|
सम
|
बुध – पन्ना
|
बाधक, मारक, चतुर्थेश
|
अशुभ
|
गुरु – पुखराज
|
योगकारक, लग्नेश, कारक
|
अतीव शुभ
|
शुक्र – हीरा
|
अकारक, अष्टमेश, पराक्रमेश
|
अशुभ
|
शनि – नीलम
|
लाभेश, व्ययेश
|
अशुभ
|