भीष्म द्वादशी महत्व, पूजन विधि एवं मंत्र




भीष्म द्वादशी माघ मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को आती है। मान्यता है कि इस दिन व्रत करने से उत्तम संतान की प्राप्ति होती है और यदि संतान है तो उसकी प्रगति होती है। इसके साथ ही सभी मनोकामनाएं पूर्ण होकर सुख-समृद्धि मिलती है। भीष्म द्वादशी को गोविंद द्वादशी भी कहते हैं। धर्म एवं ज्योतिष के अनुसार माघ मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी का व्रत किया जाता है। इसे गोविंद द्वादशी भी कहते हैं। इस दिन खास तौर पर भगवान विष्णु का पूजन तिल से किया जाता है तथा पवित्र नदियों में स्नान व दान करने का नियम है। इनसे मनुष्य को शुभ फलों की प्राप्ति होती है। हमारे धार्मिक पौराणिक ग्रंथ पद्म पुराण में माघ मास के महात्म्य का वर्णन किया गया है, जिसमें कहा गया है कि पूजा करने से भी भगवान श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। अत: सभी पापों से मुक्ति और भगवान वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान अवश्य ही करना चाहिए। महाभारत में उल्लेख आया है कि जो मनुष्य माघ मास में तपस्वियों को तिल दान करता है, वह कभी नरक का दर्शन नहीं करता। माघ मास की द्वादशी तिथि को दिन-रात उपवास करके भगवान माधव की पूजा करने से मनुष्य को राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। अतः इस प्रकार माघ मास के स्नान-दान की अपूर्व महिमा है। यह भी मान्यता है कि भीष्म द्वादशी का व्रत करने से सभी मनोकामना पूरी होती हैं। शास्त्रों में माघ मास की प्रत्येक तिथि पर्व मानी गई है। यदि असक्त स्थिति के कारण पूरे महीने का नियम न निभा सके तो उसमें यह व्यवस्था भी दी है कि 3 दिन अथवा 1 दिन माघ स्नान का व्रत का पालन करें। इतना ही नहीं इस माह की भीष्म द्वादशी का व्रत भी एकादशी की तरह ही पूर्ण पवित्रता के साथ चित्त को शांत रखते हुए पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से किया जाता है तो यह व्रत मनुष्य के सभी कार्य सिद्ध करके उसे पापों से मुक्ति दिलाता है। अत: इस दिन के पूजन-अर्चन का बहुत अधिक महत्व है।

भीष्म द्वादशी की पौराणिक कथा
भीष्म द्वादशी के बारे में प्रचलित एवं पौराणिक कथा के अनुसार राजा शांतनु की रानी गंगा ने देवव्रत नामक पुत्र को जन्म दिया और उसके जन्म के बाद गंगा शांतनु को छोड़कर चली जाती हैं, क्योंकि उन्होंने ऐसा वचन दिया था। शांतनु गंगा के वियोग में दुखी रहने लगते हैं। परंतु कुछ समय बीतने के बाद शांतनु गंगा नदी पार करने के लिए मत्स्यगंधा नाम की कन्या की नाव में बैठते हैं और उसके रूप-सौंदर्य पर मोहित हो जाते हैं।
राजा शांतनु कन्या के पिता के पास जाकर उनकी कन्या के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखते हैं। परंतु मत्स्यगंधा के पिता राजा शांतनु के समक्ष एक शर्त रखते हैं कि उनकी पुत्री को होने वाली संतान ही हस्तिनापुर राज्य की उत्तराधिकारी बनेगी, तभी यह विवाह हो सकता है। यही (मत्स्य गंधा) आगे चलकर सत्यवती नाम से प्रसिद्ध हुई।
राजा शांतनु यह शर्त मानने से इनकार करते हैं, लेकिन वे चिंतित रहने लगते हैं। देवव्रत को जब पिता की चिंता का कारण मालूम पड़ता है तो वह अपने पिता के समक्ष आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेते हैं। पुत्र की इस प्रतिज्ञा को सुनकर राजा शांतनु उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान देते हैं। इस प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत, भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए।
जब महाभारत का युद्ध होता है तो भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे होते हैं और भीष्म पितामह के युद्ध कौशल से कौरव जीतने लगते हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण एक चाल चलते हैं और शिखंडी को युद्ध में उनके समक्ष खड़ा कर देते हैं। अपनी प्रतिज्ञा अनुसार शिखंडी पर शस्त्र न उठाने के कारण भीष्म युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग देते हैं। जिससे अन्य योद्धा अवसर पाते ही उन पर तीरों की बौछार शुरू कर देते हैं। महाभारत के इस महान योद्धा ने शर शय्या पर शयन किया।
इसलिए कहा जाता है कि सूर्य दक्षिणायन होने के कारण शास्त्रीय मतानुसार भीष्म ने अपने प्राण नहीं त्यागे और सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। उन्होंने अष्टमी को अपने प्राण त्याग दिए थे। उनके पूजन के लिए माघ मास की द्वादशी तिथि निश्चित की गई है, इसलिए इस तिथि को भीष्म द्वादशी कहा जाता है। भगवान ने यह व्रत भीष्म पितामह को बताया था और उन्होंने इस व्रत का पालन किया था, जिससे इसका नाम भीष्म द्वादशी पडा। यह व्रत एकादशी के ठीक दूसरे दिन द्वादशी को किया जाता है। यह व्रत समस्त बीमारियों को मिटाता है। इस उपवास से समस्त पापों का नाश होकर मनुष्य को अमोघ फल की प्राप्ति होती है।

भीष्म द्वादशी व्रत का महत्व
माघ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी के नाम से जाना जाता है। इस द्वादशी को गोविंद द्वादशी भी कहते हैं। इस व्रत को करने वालों को संतान की प्राप्ति होकर समस्त धन-धान्य, सौभाग्य का सुख मिलता है। पद्म पुराण में माघ मास के महात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि पूजा करने से भी भगवान श्री हरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। इसलिए सभी पापों से मुक्ति और भगवान वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान करना चाहिए। इस दिन सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प लें। भगवान विष्णु जी की केले के पत्ते, पंच मृत, सुपारी, पान, तिल, मौली, रोली, कुमकुम, फल आदि से पूजन करें। पूजन के लिए दूध, शहद, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत का प्रसाद बनाकर भगवान को भोग लगाएं तथा भीष्म द्वादशी की कथा सुनें अथवा पढ़ें। इस दिन विष्णु जी के साथ देवी लक्ष्मी का पूजन तथा स्तुति करें और पूजन के पश्चात चरणामृत एवं प्रसाद का वितरण करें। ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान में दक्षिणा एवं तिल अवश्य दें। ब्राह्मण भोजन के बाद ही स्वयं भोजन करें। इस दिन 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः' का जाप किया जाना चाहिए। इस दिन भगवान विष्णु के साथ मां लक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए ताकि यह व्रत सफल हो सकें।

पूजा विधि
  • भीष्म द्वादशी की सुबह स्नान आदि करने के बाद व्रत का संकल्प लें।
  • भगवान की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंच मृत, सुपारी, पान, तिल, मौली, रोली, कुमकुम, दूर्वा का उपयोग करें।
  • पूजा के लिए दूध, शहद केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार कर प्रसाद बनाएं व इसका भोग भगवान को लगाएं।
  • इसके बाद भीष्म द्वादशी की कथा सुनें।
  • देवी लक्ष्मी समेत अन्य देवों की स्तुति करें तथा पूजा समाप्त होने पर चरणामृत एवं प्रसाद का वितरण करें।
  • ब्राह्मणों को भोजन कराएं व दक्षिणा दें।
  • ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करें और सम्पूर्ण घर-परिवार सहित अपने कल्याण धर्म, अर्थ, मोक्ष की कामना करें।
भीष्म द्वादशी के व्रत से होती से संतान की उन्नति और मिलता है सौभाग्य
पितामह भीष्म महाभारत के एक प्रमुख पात्र थे। भीष्म का बचपन में नाम देवव्रत था और वो राजा शांतनु की रानी गंगा के सुपुत्र थे। देवव्रत के जन्म के साथ ही उनकी माता उनको छोड़कर चली गई थी। इस कारण महाराज शांतनु हमेशा दुखी रहते थे। तभी महाराज शांतनु एक मत्स्यगंधा नाम की कन्या को दिल दे बैठे। महाराज शांतनु ने मत्स्यगंधा के पिता के सामने उससे विवाह का प्रस्ताव रखा। तब मत्स्यगंधा के पिता ने कहा कि विवाह इसी शर्त पर होगा कि मत्स्यगंधा की संतान हस्तिनापुर राज्य के सिंहासन पर बैठेगी। शांतनु ने ऐसा वचन देने से इंकार कर दिया, लेकिन मत्स्यगंधा उनके दिल में बसी हुई थी इसलिए वो उसको लेकर परेशान रहने लगे। देवव्रत को जब पिता की इस चिंता का पता चला तो उन्होंने अपने पिता के सामने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प ले लिया। पुत्र के इस तरह से प्रतिज्ञा लेने पर पिता शांतनु ने उनको इच्छा-मृत्यु का वरदान दिया। देवव्रत आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।

मान्यता
मान्यता है कि भीष्म द्वादशी का व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। भीष्म द्वादशी पर भगवान विष्णु के साथ मां लक्ष्मी की आराधना करें। ब्राह्मणों को भोजन कराएं व सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा दें। इस दिन स्नान-दान करने से सुख-सौभाग्य, धन-संतान की प्राप्ति होती है। ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करें। इस उपवास से समस्त पापों का नाश होता है। भीष्म द्वादशी का उपवास संतोष प्रदान करता है।


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जया एकादशी पौराणिक कथा, महत्व, व्रत व पूजा विधि




जया एकादशी पौराणिक कथा
कथा के अनुसार एक समय नंदन वन में उत्सव मनाया जा रहा था। उस उत्सव में सभी देवता और ऋषि मुनि शामिल हुए। उत्सव में गंधर्व गाने रहे थे और अप्सराएं नृत्य कर रही थी। गंधर्व में से एक गंधर्व जिनका नाम माल्यवान था। उनके गाने को सुनकर पुष्पवती नाम की अप्सरा मोहित हो गई। वह मल्लवान को अपनी और आकर्षित करने के लिए प्रयत्न करने लगी। पुष्पवती के ऐसा करने से मल्लवान का सुर ताल खराब होने लगा। सपर ताल खराब होने की वजह से महोत्सव का आनंद फीका पड़ गया।
यह देख कर सभी देवताओं को बहुत खराब लगा। तब देवों के राजा इंद्र ने क्रोध में आकर दोनों को श्राप दे दिया। जिसके कारण वह दोनों स्वर्ग लोक से मृत्युलोक आ गए। मृत्युलोक में आने के बाद उन दोनों हिमालय के जंगल में पिशाचों की तरह जीवन व्यतीत करने लगें। अपनी इस जीवन को देखकर वह दोनों बहुत दुखी थे। एक बार की बात है। माघ शुक्ल की जया एकादशी के दिन उन्होंने कुछ नहीं खाया था ना कुछ पिया था। वह पूरे दिन फल फूल खाकर अपना गुजारा कर रहे थे। भूख से व्याकुल होकर वह दोनों एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर अपनी पूरी रात गुजारी।
अपने हालत देखकर उन्हें अपनी गलती का पछतावा हो रहा था। उन्होंने अपनी गलती को सुधारने के लिए प्रण किया। अगली सुबह उन दोनों की मृत्यु हो गई। जिस दिन उनकी मृत्यु हुई उस दिन जया एकादशी था। अनजाने में उन्होंने इस व्रत को बिना खाए पिए किया था, इस वजह से पिशाच योनि से मुक्त मिल गई और वह स्वर्ग लोक में चले गए। स्वर्ग लोक में उन्हें देखकर इंद्र को बहुत आश्चर्य हुआ। तब उन्होंने उनसे श्राप मुक्ति के बारे में पूछा।
तब दोनों ने जया एकादशी व्रत के प्रभाव के बारे में भगवान इंद्र को बताया। उन्होंने बताया कि वह अनजाने में जया एकादशी का व्रत किया था, जिसके प्रभाव से मोक्ष की प्राप्ति हुई और हम स्वर्ग लोक में आ गए। इससे साफ पता चलता है कि जया एकादशी व्रत करने से हमें मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।

एकादशी का महत्व
हिंदू धर्म में एकादशी तिथि का विशेष महत्व है, जो कि हर माह के दोनों पक्षों में आती है। लेकिन इनमें जया एकादशी खास मानी गई है, जिसे समस्त पापों का हरण करने वाली तिथि माना गया है। ये दिन श्री हरि यानी कि भगवान विष्णु को समर्पित होता है। यह अपने नाम के अनुरूप फल भी देती है। इस दिन व्रत धारण करने से व्यक्ति को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है व जीवन के हर क्षेत्र में विजय प्राप्त होती है। शास्त्रों के मुताबिक, इस दिन व्रत करने से स्वर्ण दान, भूमि दान, अन्न दान और गौ दान से अधिक पुण्य मिलता है। भगवान शिव ने महर्षि नारद को उपदेश देते हुए कहा कि एकादशी महान पुण्य देने वाला व्रत है। श्रेष्ठ मुनियों को भी इसका अनुष्ठान करना चाहिए। एकादशी व्रत के दिन का निर्धारण जहाँ ज्योतिष गणना के अनुसार होता है, वहीं उनका नक्षत्र आगे-पीछे आने वाली अन्य तिथियों के साथ संबंध व्रत का महत्व और बढ़ाता है। जया एकादशी का पावन व्रत इस दिन भगवान विष्णु की संपूर्ण विधि विधान से पूजा की जाती है। माघ मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को जया एकादशी के रूप में मनाते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार जया एकादशी को, अन्नदा एकादशी और कामिका एकादशी के नामों से भी जाना जाता है। जया एकादशी के दिन भगवान विष्णु की जो भी व्यक्ति सच्ची श्रद्धा व संपूर्ण विधि विधान से पूजा करता है भगवान विष्णु उसकी सभी मनोकामना पूरी कर देते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं इस एकादशी का महत्व बताते हुए कहा है कि जो व्यक्ति इस व्रत को श्रद्धा पूर्वक रखता है, उसे ब्रह्म हत्या जैसे महापाप से भी मुक्ति मिल जाती है। भगवान विष्णु की कृपा से उसके सभी दुखों का अंत होता है और वो शख्स भूत, प्रेत और पिशाच जैसी नीच योनि से मुक्त हो जाता है।

व्रत व पूजा विधि
एकादशी से पहले दिन यानी दशमी को एक वेदी बनाकर उस पर सप्तधान रखें फिर अपनी क्षमतानुसार सोने, चांदी, तांबे या फिर मिट्टी का कलश बनाकर उस पर स्थापित करें। एकादशी के दिन पंचपल्लव कलश में रखकर भगवान विष्णु का चित्र या की मूर्ति की स्थापना करें और धूप, दीप, चंदन, फल, फूल व तुलसी आदि से श्री हरि की पूजा करें। द्वादशी के दिन ब्राह्मण को भोजन आदि कराएं व कलश को दान कर दें। इसके बाद व्रत का पारण करें। व्रत से पहली रात्रि में सात्विक भोजन ही ग्रहण करना चाहिए, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। इस प्रकार विधिपूर्वक उपवास रखने से उपासक को कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी विजय प्राप्त होती है।

भगवान विष्णु का करें ध्यान
पूजा से पूर्व एक वेदी बनाकर उस पर सप्त धान रखें। वेदी पर जल कलश स्थापित कर, आम या अशोक के पत्तों से सजाएं। इस वेदी पर भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें। पीले पुष्प, ऋतुफल, तुलसी आदि अर्पित कर धूप-दीप से आरती उतारें। भगवान श्री नारायण की उपासना करें। व्रत की सिद्धि के लिए घी का अखंड दीपक जलाएं।

एकादशी का फल
जया एकादशी व्रत करने वाले के पितृ, कुयोनि को त्याग कर स्वर्ग में चले जाते हैं। एकादशी व्रत करने वाले की पितृ पक्ष की दस पीढियां, मातृ पक्ष की दस पीढ़ियां और पत्नी पक्ष की दस पीढ़ियां भी बैकुंठ प्राप्त करती हैं। इस एकादशी व्रत के प्रभाव से पुत्र, धन और कीर्ति बढ़ती है।

जया एकादशी व्रत में क्या खा सकते हैं और क्या नहीं
  • एक समय फलाहारी भोजन ही किया जाता है। व्रत करने वाले को किसी भी तरह का अनाज सामान्य नमक, लाल मिर्च और अन्य मसाले नहीं खाने चाहिए।
  • कुट्टू और सिंघाड़े का आटा, रामदाना, खोए से बनी मिठाइयां, दूध-दही और फलों का प्रयोग इस व्रत में किया जाता है और दान भी इन्हीं वस्तुओं का किया जाता है।
  • एकादशी का व्रत करने के बाद दूसरे दिन द्वादशी को भोजन योग्य आटा, दाल, नमक,घी आदि और कुछ धन रखकर सीधे के रूप में दान करने का विधान है।
जया एकादशी व्रत में भूलकर भी न करें ये काम, हो सकता है अशुभ
  • जया एकादशी व्रत के नियम का पालन तीन दिनों तक चलता है। इसके नियम दशमी तिथि की शाम से शुरू होते हैं और द्वादशी तिथि तक चलते हैं।
  • दशमी के दिन मांस, मीट, लहसुन, प्याज, मसूर की दाल और चने की दाल वगैरह नहीं खाएं। सात्विक भोजन करें। द्वादशी के दिन व्रत का पारण करते समय भी इस बात का ध्यान रखें।
  • जया एकादशी के दिन घर पर चावल किसी को भी न खाने दें। जया एकादशी के दिन चावल खाने की मनाही है।
  • दशमी से लेकर द्वादशी तक संयम के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
  • एकादशी के दिन घर में झाड़ू नहीं लगाना चाहिए क्योंकि चींटी आदि सूक्ष्म जीवों की मृत्यु का भय रहता है। अगर लगाना ही है तो संभलकर लगाएं, जिससे किसी जीव को हानि न पहुंचे।
  • जया एकादशी का दिन बेहद पुण्य दायी और भगवान की आराधना का दिन होता है इसलिए इस दिन सुबह जल्दी उठ जाएं। शाम के समय सोना नहीं चाहिए। अगर संभव हो तो एकादशी की रात में भी जागरण करके भगवान के भजन और कीर्तन करने चाहिए।
  • व्रत का तात्पर्य है आपके मन की शुद्धि और इन्द्रियों पर नियंत्रण। इसलिए किसी के लिए भी मन में द्वेष की भावना न लाएं। न ही किसी की बुराई करें और न ही किसी का दिल दुखाए। किसी से झूठ न बोलें।
  • इस दिन बाल नहीं कटवाना चाहिए और न ही किसी से ज्यादा बात करनी चाहिए। ज्यादा बोलने से एनर्जी बर्बाद होती है, साथ ही कई बार गलत शब्द मुंह से निकलने का डर रहता है। ऐसे में मौन रहकर भगवान का मनन करें।
  • यदि संभव हो तो दिन में किसी समय गीता का पाठ करें या सुनें। द्वादशी के दिन स्नान के बाद किसी जरूरतमंद को भोजन खिलाएं और दान दक्षिणा दें, इसके बाद ही व्रत खोलें।


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