भोजशाला का इतिहास और सच्चाई



राजा भोज द्वारा निर्मित म.प्र. के धार जिला में माँ सरस्वती का विशाल मदिर एवं महाविद्यालय था जो भोजशाला के नाम से विख्यात था। जहाँ आज नमाज पढ़ी जाती है। हमारे देश का दुर्भाग्य रहा कि देश के प्राचीन मंदिर एवं महाविद्यालयों को आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त कर उसमें मस्जिद या दरगाह बना दिया गया। कुछ आक्रमणकारी जो बाहर से आये वो मंदिरों को तोड़कर उसमें रखी हुई धन सम्पत्ति को लूटकर चले गए तथा बहुत से सल्तनत और मुगल कालीन शासकों ने देश में मंदिर और महाविद्यालयों को ध्वस्त कर उसमें मस्जिद या दरगाह बना दिया। हिन्दुस्तान में ऐसे मंदिरों की संख्या हजारों में है। जिसमें भोजशाला भी एक है।
परमार वंश का शासक राजा भोज का 1000 से 1055 तक प्रभाव रहा। म.प्र. के धार जिला में राजा भोज का मंदिर है। राजा भोज मां सरस्वती के उपासक थे, फलस्वरूप राजा भोज ने मां सरस्वती का विशाल मंदिर और एक महाविद्यालय की स्थापना की, जो भोजशाला के नाम से विख्यात हुआ। उन दिनों राजा भोज की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी, मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और ओड़ीशा में ज्ञानार्जन करने हेतु आते थे। उनका प्रभाव अधिक था। भोजशाला के महाविद्यालय में देश- विदेश से विद्यार्थी अपनी राजा भोज की कृपा से विद्यार्थी वेद, योग, सांख्य, न्याय, ज्योतिष, धर्म, वस्तुशास्त्र, औषधि विज्ञान, राज व्यवहार शास्त्र सहित कई शास्त्रों का अध्ययन करते थे। हजारों की संख्या में विद्यार्थी यहाँ के विद्धानों, आचार्यों के सानिन्ध्य में आलोकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। इन आचार्यों में भवभूति, माघ, वाणभट्ट, कालिदास, मानतुंग, भास्करभट, धनपाल, बौद्ध संत बन्सवाल, समुद्रघोष आदि विश्व विख्यात हैं। कहने का तात्पर्य यह महाविद्यालय बहुत बड़ा शिक्षा का केन्द्र था। जहाँ सभी विषयों का अध्ययन अध्यापन होता था। भोजशाला में माँ सरस्वती की आराधना के साथ-साथ विशाल हवन कुंड में हवन एवं वेद मंत्रों के उच्चारण से भोजशाला गूंजता था। भोजशाला एक खुले प्रांगण में बना है। जिसमें विशाल स्तम्भों की श्रंखला है-जिसके पीछे एक विशाल प्रार्थना घर है। नक्काशीदार स्तम्भ तथा नक्काशीदार छत भोजशाला की पहचान है। राजा भोज सरस्वती के उपासक थे इसलिए उन्होंने वाग्देवी का विशाल मंदिर बनवाया था, जिसमें राजा भोज द्वारा आराधना की जाती थी। 1902 में लार्ड कर्जन के शासन काल में वाग्देवी की प्रतिमा लंदन ले जाया गया। आज भी लंदन के संग्रहालय में वाग्देवी की प्रतिमा मौजूद है।

राजा भोज के शासन के पश्चात् 200 वर्षों तक भोजशाला में अध्ययन- अध्यापन का कार्य भोज के शासनकाल की भांति निरन्तर जारी रहा जैसे राजा में था। हजारों की संख्या में दूर दराज से विद्यार्थी अध्ययन-अध्यापन का कार्य करते थे। 1305 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने भोजशाला पर आक्रमण कर माँ वाग्देवी की प्रतिमा को खंडित कर दिया। इसके अलावा उसने भोजशाला के कुछ भाग को ध्वस्त कर करीब 1200 आचार्यों एवं विद्यार्थियों की हत्या कर हवन कुंड में डाल दिया। कहा जाय तो भोजशाला का बहुत सा भाग ध्वस्त कर दिया। उस समय वहाँ का शासक मेदनी मौलाना कमालुद्दीन का मकबरा और दरगाह का निर्माण करवाया क्योंकि खिलजी शासकों के समय में मौलाना कमालुद्दीन बहुत प्रसिद्ध था। मौलाना कमालुद्दीन हिन्दुओं का धर्मान्तरण कर इस्लाम कुबुल करवाता था। इस्लाम न कुबुल करने पर हिन्दुओं का कत्ल करवा देता। इसलिए कमालुद्दीन खिलजी शासकों का प्रिय मौलाना था। महमू खिलजी द्वारा कमालुद्दीन का मकबरा और दरगाह बनने के बाद भोजशाला पर मुस्लिमों का अधिकार हो गया। भोजशाला में नमाज अदा होने लगी। माँ सरस्वती की पूजा के लिए हिन्दुओं को बहुत संघर्ष करना पड़ा। अभी भी माँ सरस्वती की पूजा संघर्ष चल है।

1935 में म.प्र. के धार स्टेट का दीवान नाडकार ने भोजशाला को कमाल मौलाना का मस्जिद बताते हुए सिर्फ मुस्लिमों को नमाज अदा करने की अनुमति दे दिया। तथा हिन्दुओं को माँ सरस्वती की आराधना का अधिकार समाप्त कर दिया। 1997 में म.प्र. के कांग्रेसी मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने तो हिन्दुओं का भोजशाला में प्रवेश ही बंद करवा दिया। उसी वर्ष बहुत संघर्ष के बाद 12 मई 1997 को कलेक्टर द्वारा हिन्दुओं को बसंत पंचमी पर पूजा करने की अनुमति मिली। 2002 में शुक्रवार को बसंत पंचमी और कमाल मौलाना का जन्मदिन एक साथ पड़ा। उस दिन बहुत हंगामा हुआ। सरकारी आज्ञानुसार सुबह से 12 बजे तक सरस्वती पूजा एवं 1 बजे से 3 बजे तक नमाज अदा करने की अनुमति मिली। उस दिन 12 बजते ही पूजा बंद करवा दी गयी, हवन कुंड में पानी डाल कर मंदिर परिसर खाली करा दिया गया। मंदिर परिसर खाली करते समय थोड़ा विलम्ब होने पर पुलिस ने लाठियां बरसाना शुरु कर दिया। पथराव होने लगा। बच्चे महिलाओं सहित 1400 लोग घायल हुए, 2 दर्जन गम्भीर रूप से घायल हुए। सारा फसाद राजनैतिक कुटिलता और तुष्टीकरण की प्रवित्ति के कारण हुआ।

इससे स्पष्ट होता है कि मस्जिद और दरगाह भोजशाला को तोड़कर ही बनाया गया है। राजाभोज के भोजशाला में अगर नमाज अदा की जाती है इसपर तर्क संगत विचार होना चाहिए। सही इतिहास पर चर्चा होना चाहिए। लेकिन आज सम्प्रदाय विशेष की तुष्टीकरण के लिए ही सही इतिहास छुपाने की परम्परा चल गयी है। मंदिर एवं स्थलों पर, जहाँ पूजा और नमाज अदा की जाती है, उसे एकता का मिसाल कह कर सेक्यूलरिस्ट अपना पल्ला झाड़ते हैं। एकता का मिसाल जब माना जाता जब आज नवनिर्मित मस्जिदों में भी एक छोटा से ही पूजा स्थल बना दिया जाता, तब हम गर्व से कहते कि भारत के मंदिरों में मस्जिद होना एकता की मिसाल है।


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सम्पूर्ण शिव तांडव स्त्रोत और इसकी रचना कैसे हुई



 
भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए रचे गए सभी अन्य स्तोत्रों में रावण रचित या रावण द्वारा गाया गया शिव तांडव स्तोत्र भगवान शंकर को सबसे अधिक प्रिय है, ऐसी हिन्दू धर्म की मान्यता है और माना जाता है कि ‘शिव तांडव स्तोत्र’ द्वारा भगवान शिव की स्तुति करने से व्यक्ति को कभी भी धन-सम्‍पत्ति की कमी नहीं होती, साथ ही व्यक्ति को उत्कृष्ट व्यक्तित्व की प्राप्ति होती है। अर्थात व्यक्ति का चेहरा तेजस्वी बनता है तथा उसके आत्मविश्वास में भी वृद्धि होती है।
 
इस ‘शिव तांडव स्तोत्र’ का प्रतिदिन पाठ करने से व्यक्ति को जिस किसी भी सिद्धि की महत्वाकांक्षा होती है, भगवान शिव की कृपा से वह आसानी से पूर्ण हो जाती है। साथ ही ऐसा भी माना जाता है कि इस स्तोत्र के नियमित पाठ से वाणी सिद्धि की भी प्राप्ति होती है। यानी व्यक्ति जो भी कहता है, वह वैसा ही घटित होने लगता है। नृत्य, चित्रकला, लेखन, योग, ध्यान, समाधि आदि सिद्धियां भगवान शिव से ही सम्‍बंधित हैं, इसलिए शिवतांडव स्तोत्र का पाठ करने वाले को इन विषयों से सम्‍बंधित सफलता सहज ही प्राप्त होने लगती हैं। इसकी इतनी महिमा है कि शनि को काल माना जाता है जबकि शिव महाकाल हैं, अत: शनि से पीड़ित व्यक्ति को इसके पाठ से बहुत लाभ प्राप्त है। साथ ही जिन लोगों की जन्‍म-कुण्‍डली में सर्प योग, कालसर्प योग या पितृ दोष होता है, उन लोगों के लिए भी शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करना काफी उपयोगी होता है क्योंकि हिन्दू धर्म में भगवान शिव को ही आयु, मृत्यु और सर्प का स्वामी माना गया है।
 ‘शिव तांडव स्तोत्र’ के पीछे की कहानी यह है कि कुबेर व रावण दोनों ऋषि विश्रवा की संतान थे और दोनों सौतेले भाई थे। ऋषि विश्रवा ने सोने की लंका का राज्‍य कुबेर को दिया था लेकिन किसी कारणवश अपने पिता के कहने पर वे लंका का त्याग कर हिमाचल चले गए। कुबेर के चले जाने के बाद इससे दशानन बहुत प्रसन्न हुआ। वह लंका का राजा बन गया और लंका का राज्य प्राप्त करते ही धीरे-धीरे वह इतना अहंकारी हो गया कि उसने साधु जनों पर अनेक प्रकार के अत्याचार करने शुरू कर दिए। जब दशानन के इन अत्‍याचारों की ख़बर कुबेर को लगी तो उन्होंने अपने भाई को समझाने के लिए एक दूत भेजा, जिसने कुबेर के कहे अनुसार दशानन को सत्य पथ पर चलने की सलाह दी। कुबेर की सलाह सुन दशानन को इतना क्रोध आया कि उसने उस दूत को बंदी बना लिया व क्रोध के मारे तुरन्त अपनी तलवार से उसकी हत्या कर दी। कुबेर की सलाह से दशानन इतना क्रोधित हुआ कि दूत की हत्या के साथ ही अपनी सेना लेकर कुबेर की नगरी अलकापुरी को जीतने निकल पड़ा और कुबेर की नगरी को तहस-नहस करने के बाद अपने भाई कुबेर पर गदा का प्रहार कर उसे भी घायल कर दिया लेकिन कुबेर के सेनापतियों ने किसी तरह से कुबेर को नंदनवन पहुँचा दिया जहाँ वैद्यों ने उसका इलाज कर उसे ठीक किया। चूंकि दशानन ने कुबेर की नगरी व उसके पुष्पक विमान पर भी अपना अधिकार कर लिया था, सो एक दिन पुष्‍पक विमान में सवार होकर शारवन की तरफ चल पड़ा। लेकिन एक पर्वत के पास से गुजरते हुए उसके पुष्पक विमान की गति स्वयं ही धीमी हो गई। चूंकि पुष्पक विमान की ये विशेषता थी कि वह चालक की इच्छानुसार चलता था तथा उसकी गति मन की गति से भी तेज थी, इसलिए जब पुष्पक विमान की गति मंद हो गर्इ तो दशानन को बडा आश्चर्य हुआ। तभी उसकी दृष्टि सामने खडे विशाल और काले शरीर वाले नंदीश्वर पर पडी। नंदीश्वर ने दशानन को चेताया कि- यहाँ भगवान शंकर क्रीड़ा में मग्न हैं इसलिए तुम लौट जाओ।
 
लेकिन दशानन कुबेर पर विजय पाकर इतना दंभी हो गया था कि वह किसी कि सुनने तक को तैयार नहीं था। उसे उसने कहा कि- कौन है ये शंकर और किस अधिकार से वह यहाँ क्रीड़ा करता है? मैं उस पर्वत का नामों-निशान ही मिटा दूँगा, जिसने मेरे विमान की गति अवरूद्ध की है। इतना कहते हुए उसने पर्वत की नींव पर हाथ लगाकर उसे उठाना चाहा। अचानक इस विघ्न से शंकर भगवान विचलित हुए और वहीं बैठे-बैठे अपने पाँव के अंगूठे से उस पर्वत को दबा दिया ताकि वह स्थिर हो जाए। लेकिन भगवान शंकर के ऐसा करने से दशानन की बाँहें उस पर्वत के नीचे दब गई। फलस्वरूप क्रोध और जबरदस्त पीडा के कारण दशानन ने भीषण चीत्कार कर उठा, जिससे ऐसा लगने लगा कि मानो प्रलय हो जाएगा। तब दशानन के मंत्रियों ने उसे शिव स्तुति करने की सलाह दी ताकि उसका हाथ उस पर्वत से मुक्‍त हो सके। दशानन ने बिना देरी किए हुए सामवेद में उल्लिखित शिव के सभी स्तोत्रों का गान करना शुरू कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दशानन को क्षमा करते हुए उसकी बाँहों को मुक्त किया। दशानन द्वारा भगवान शिव की स्तुति के लिए किए जो स्‍त्रोत गाया गया था, वह दशानन ने भयंकर दर्द व क्रोध के कारण भीषण चीत्कार से गाया था और इसी भीषण चीत्कार को संस्कृत भाषा में राव: सुशरूण: कहा जाता है। इसलिए जब भगवान शिव, रावण की स्तुति से प्रसन्न हुए और उसके हाथों को पर्वत के नीचे से मुक्त किया, तो उसी प्रसन्नता में उन्होंने दशानन का नाम रावण यानी ‘भीषण चीत्कार करने पर विवश शत्रु’ रखा क्योंकि भगवान शिव ने रावण को भीषण चीत्कार करने पर विवश कर दिया था और तभी से दशानन को रावण कहा जाने लगा। शिव की स्तुति के लिए रचा गया वह सामवेद का वह स्त्रोत, जिसे रावण ने गाया था, को आज भी रावण-स्त्रोत व शिव तांडव स्‍त्रोत के नाम से जाना जाता है।
 
 
सम्पूर्ण शिव तांडव स्‍त्रोत
 
जटाटवीगलज्जल प्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमनिनादवड्डमर्वयं
चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥
घन जटा मंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।
 
जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी
विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥
अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलास पूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।
 
धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-
स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि
कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा।
 
जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-
कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे ।
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।
 
सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-
प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः ।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः
श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥
इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पाद पृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।
 
ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-
निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌ ।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं
महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥
इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजी हम को अक्षय सम्पत्ति दें।
 
कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके ।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥
जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।
 
नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः ।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥
नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।
 
प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों के काटने वाले, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुरहंता, अंधकारसुरनाशक और मृत्यु के नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।
 
अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥
कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारने वाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।
 
जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥
अत्यंत शीघ्र वेग पूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-
र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिकराजाओं के समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।
कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌कदा सुखी भवाम्यहम्‌॥13॥
कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।
 
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥
देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेव जी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।
 
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥15॥
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महा सिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देव कन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगल ध्वनि सब मंत्रों में परम श्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥
इस परम उत्तम शिव तांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्त कंठ से पढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु में भक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।
 
पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥
शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।
 
 इति श्री रावणकृतम् शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌॥
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रामधारी सिंह ''दिनकर''



छायावादी कवियों में प्रमुख नामों में रामधारी सिंह दिनकर का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। 23 सितम्बर 1908 को बिहार के मुंगेर जिले सिमरिया नामक कस्बे में हुआ था। पटना विश्वविद्यालय से इन्‍होने स्नातक बीए की डिग्री हासिल की और तत्पश्चात वे एक सामान्‍य से विद्यालय में अध्यापक नियुक्त हो गये। रामधारी सिंह दिनकर एक ओजस्वी राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत कवि के रूप में जाने जाते थे। उनकी कविताओं में छायावादी युग का प्रभाव होने के कारण श्रृंगार के भी प्रमाण मिलते है।
दिनकर जी को सरकार के विरोधी रूप के लिये भी जाना जाता है, भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्म विभूषण से अलंकृत किया गया। इनकी गद्य की प्रसिद्ध पुस्तक संस्कृत के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी तथा उर्वशी के लिये ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। 24 अप्रैल 1974 को उन्होंने अपने आपको अपनी कविताओं में हमारे बीच जीवित रखकर सदा सदा के लिए अमर हो गये।
दिनकर जी विभिन्‍न सकरकारी सेवाओं में होने के बावजूद उनके अंदर उग्र रूप प्रत्‍यक्ष देखा जा सकता था। शायद उस समय की व्‍यवस्‍था के नजदीक होने के कारण भारत की तत्कालीन दर्द को समक्ष रहे थे। तभी वे कहते है –
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
26 जनवरी,1950 ई. को लिखी गई ये पंक्तियॉं आजादी के बाद गणतंत्र बनने के दर्द को बताती है कि हम आजाद तो हो गये किन्‍तु व्‍यवस्‍था नही नही बदली। नेहरू की नीतियों के प्रखर विरोधी के रूप में भी इन्‍हे जाना जाता है तथा कर्इ मायनों में इनहोने गांधी जी से भी अपनी असहमति भी जातते दिखे है, परसुराम की प्रतीक्षा इसका प्रत्‍यक्ष उदाहरण है । यही कारण है कि आज देश में दिनकर का नाम एक कवि के रूप में नही बल्कि जनकवि के रूप में जाना जाता है।


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