कानपुर की यात्रा और यादें



कानपुर का अपना ही महत्व है, कानपुर भुलाये नहीं भूलता, कैसे भूलेगा बचपन के 5-6 साल जो वहां बीते थे। 18 अगस्‍त को व्‍यक्तिगत काम से कानपुर जाना हुआ। 1994 के बाद कानपुर को नजदीक से देखने का यह पहला मौका था। 2007 में अनूप जी से मिलना हुआ था किन्तु वह एक भागम-भाग यात्रा थी, भागमभाग तो इस बार की थी किन्तु कानपुर छाप नही छूटी।

कानपुर सेंट्रल पर उतर कर हम रिक्शा लेकर नवीन मार्केट पर पहुंचे, रास्ते में एक थाना था अब नाम याद नही शायद कर्नलगंज रहा होगा। उस पर बड़े बड़े शब्दों में लिखा था दलालो का प्रवेश वर्जित है वाकई यह एक हास्‍यास्‍पद बात ही लगी, कोई दलाली करने आये बंद कर दो थाने में और दिला दो याद छठी के दूध का पर नहीं भारतीय पुलिस है, ऐसे थोड़े ही काम करेगी।

नवीन मार्केट में भारतीय मजदूर संघ के प्रादेशिक कार्यालय पर कुछ देर का विश्राम किया, जो भी कार्यालय पर अधिकारी नेता व पिताजी का पुराना परिचित मिला भैया जी को तो पहचान लिया किंतु मुझे पहचाना नही पाया। शायद यह लम्‍बे अंतराल के कारण था। 16-17 साल पहले जिस कार्यलय में बचपन के कुछ छण व्‍य‍तीत किये वहाँ फिर से पहुँच कर बहुत अच्‍छा अनुभव रहा।

अच्‍छा अनुभव काफी देर बरकरार नही रहा, चौराहे पर एक आदमी और भीड़ के मध्‍य विवाद से रूबरू होना पड़ा, करीब आधा दर्जन लोग एक 35-45 वर्ष के अधेड़ को मारे जा रही थी। सुनने में आया कि छेड़खानी का मामला था। वाकई कितना विपरीत समय आ गया है कि 45 साल तक की उम्र पहुँचने के बाद छेड़खानी करने की आदत नही गई।

हम कल्‍यानपुर पहुँचने के लिये आटो पर बैठ गये और कानपुर विश्वविद्यालय पहुँचे, रास्‍ते के नज़ारे देखने लायक थे, चौड़ी सड़के और सड़को के किनारे हुये विकास और बदलाव अच्‍छी अनुभूति दे रहे थे। कानपुर विश्वविद्यालय पहुँच कर विभिन्‍न अधिकारियो से मिलना हुआ। करीब ढ़ाई-तीन बजे सोचा कि अनूप जी से मिला जा सकता है, नम्‍बर तो था नही सिद्धार्थ जी से उनका नम्‍बर प्राप्‍त हुआ और पता चला कि उनकी ब्‍लाग अधारित पुस्‍तक 30 अगस्‍त को हमारे बीच ला रहे है। अनूप जी से बात हुयी और समय की परिस्‍थति के अनुसार मिल न पाने खेद जाहिर कर कानपुर छोड़ने की अनुमति चाही। उस समय 4.30 के आस-पास हुए थे इलाहाबाद के लिए चौरी-चौरा 5.30 पर कानपुर सेंट्रल पर तैयार खड़ी रहती है। मेरी बात को सुनते हुए न मिल पाने पर अनूप जी ने खेद जाहिर किया और कहा कि मै 30 को सम्‍भवत: इलाहाबाद आ ही रहा हूँ, और वही बैठकी हो जायेगी।

कानपुर यात्रा का अभी सबसे महत्वपूर्ण और रोमांचक सिरा बाकी था, कानपुर विवि पर ऑटो मिल गया था, गाड़ी ऐसे चला रहा था कि जैसे सनी पाजी गदर में ट्रक चला रहे थे। आटो ऐसा चला रहा था लग रहा था कि भगवान अब बुला ले कि तब, सभी की सांसे अटकी हुई थी। घंटाघर से 200 मीटर पहले ही आटो रोकर उसने कहा कि हे भगवान गाड़ी में गैस खत्म हो गई अब क्या करें? और हम लोगों से करबद्ध निवेदन किया कि आप लोग पैदल चले जाये स्टेशन थोड़ी दूर ही पर है, मुझे और ऑटो पर बैठे दो चार और आदमियों को दया आ रही थी और हम उतरने को तैयार थे, तभी ऑटो में बैठी गंभीर और उम्मीद से ज्यादा मोटी और भारी महिला ने विरोध किया, तुम आटो धक्‍का देकर पहुँचाओं मै नही उतरू‍गीं, उसके सुर में सुर मिलाने वालों की संख्या बढ़ गई, और उस ड्राइवर से कहा जाने लगा कि तुम सबसे 2-2 रूपये कम लो हम उतर जाएंगे या कोई और गाड़ी पर हमें बैठाओं हम पैसा उसी को देंगे और तुम उसके हिसाब करना, तरह तरह की बाते सुन कर वो गाड़ी वाला खीज पड़ा और कहा आप लोग नही उतरेगे, नही उतरेगे और नही उतरेगे कहा हुआ ऑटो स्टार्ट किया और पागलों की तरह बड़बड़ाता हुआ कि भलाई का ज़माना ही नही रह गया है, रिक्वेस्ट कर रहा था पर किसी को सुनाई नहीं देता, महिला बोली बोल गैस कहां से आ गई ? यह सुनते ही वह और पागल टाइप का हो गया और हल्की गति में जा कर एक रिक्शे वाले से भिड़ गया, हमने उसे पैसा दिया और उसका तमाशा अभी जारी था।

चौरी-चौरा स्टेशन पर खड़ी थी और उस पागल आदमी का स्टंट इसी प्रकार चलता रहता था हमारी ट्रेन पूरी तरह से छूटने को तैयार थी।


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मुस्लिम महिलाओं का दर्द




जो बात श्री गिरीश जी ने खत्म की थी वहीं से मै शुरूआत मैं उसी के आगे से करना चाहूँगा। बहुत से लोग ऐसे होते है, जो हिन्दु धर्म और संस्कृति को गाली देने में अपना बड़प्‍पन समझते है। उनकी यह समझ उतनी ही सही हो सकती है जितनी की गर्म तावे पर पड़ने वाली बूँद के अस्तित्‍व इतनी ही।

यहाँ मेरा किसी धर्म का विरोध प्रस्‍तुत करना नही है बस उतना ही प्रस्‍तुत करना चाहूँगा जितना कि सच है। इस्लाम मे महिलाओं की स्थिति क्‍या है किसी से छिपी नही है किसी को बताने की जरूरत भी नही है। शाहवानो से लेकर तस्लीमा तक सभी इस्लाम में आपकी स्थिति को बयान कर रही है। किसी को महिला को आपने शौहर के सम्पत्ति में जगह नही मिल पा रही है तो कोई महिला कठमुल्लाओं से आपने आबरू और प्राण की रक्षा के लिये जूझ रही है। इस्लाम में नारी की आबरू को नंगा करने में कोई कसर नही छोड़ी जा रही है, कुछ कठमुल्ले नारी के पति को उनकी औलाद तो कभी उसके स्वसुर को उसका पति घोषित कर देता है।
इस्लाम की वर्जनाएं समाप्‍त नही होती है हम महिलाओं के प्रति अत्याचार निम्‍न रूप में देख सकते है-

  1. पैगंबर मोहम्मद ने कहा था की यदि नमाज़ पढ़ते समय आपके सामने से गधा, कुत्ता या औरत निकले तो नमाज़ हराम है। दो औरतों की गवाही एक पुरुष की गवाही के बराबर है. नरक में 95 प्रतिशत महिलाएं हैं।
  2. एक मुस्लिम महिला की जुब़ानी उसी की कहानी - हादिया के बयान और हक़ीकत बिल्कुल बरअक्स हैं. इस्लाम में औरतों की हालत किसी मुस्लिम लड़की के बाप या भाई से पूछो। हमारी ज़िंदगी से तो मौत अच्छी. हर बात पर हमारी औकात बता दी जाती है. मेरा भाई एक ईसाई लड़की से शादी करना चाहता था, वो एक बार मुझसे बाहर मिली और जब मैने उसे अपने तौर तरीके बताए तो उसके चेहरे का रंग उतर गया. उसके मां बाप ने इसके बाद मेरे भाईजान को अपने घर बुलाकर बात चीत की। मुझे पता चला कि मेरा भाई उनके सवालों का कोई जवाब नहीं दे सका। उस दिन के बाद वो मेरे भाई से दुबारा नहीं मिली. मेरा भाई, मेरे अब्बा से बहुत ज़्यादा उखड़ चुका है. अब ये हाल है कि मेरा भाई जो पाँच वक़्त का नमाज़ी था, मज़हब के नाम से ही चिढ़ने लगा है. बड़ी बात नहीं अगर मुझे पता चले कि उसने अपना मज़हब बदल लिया है। सच पूछो तो मुझे अपने भाई से बहुत हमदर्दी है मगर मुस्लिम लड़कियों की ज़िंदगी अख़बार मे छपने वाली बातें नहीं हक़ीकत होती है, जो ना तो रंगीन है और ना ही सपनीली।
  3. एक और महिला कहती है - बहुत बहुत शुक्रिया आप सब का. जब किसी औरत ने अपने उपर हुए ज़ुल्म की वजह से कराहने की जुर्रत की तो सभी लगे मशविरे देने. खुदा करे आप सब एक बार ज़रूर औरत की ज़ात में पैदा हों. तब दर्द का अहसास होगा.मु‍स्लिम धर्म में महिलाओं पर ज्‍यातियॉं स्‍वयं ही धर्म बन चुकी है, आज यह स्थिति है कि एक महिला को मुस्लिम हो सिर्फ कुछ लोगो की जा‍गीर मात्र बन कर रह गई है।
  4. हिन्दुस्तान तरक्की की ऊचाइयाँ छू रहा है वहीं देश का अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय विशेषकर मुस्ल्मि महिलाएँ पिछड़ा हुआ जीवन व्यतीत करने पर अभिशप्त हैं। अशिक्षा, गरीबी, बेरोज़गारी, अधिकारों के प्रति अनभिग होने के कारण हमारे समाज की 14.6 प्रतिशत आबादी (कुल मुस्लिम आबादी, 27 जनवरी 2011 की जनगड़ना के आधार पर) शैक्षिक, आर्थिक एंव सामाजिक रूप से अत्यन्त पिछड़ी हुई है। यदि मुस्लिम महिलाओं का विकास नही हुआ तो पूरे वर्ग को खाई मे गिरने से कोई नही रोक सकता।
  5. कुरान और सही हदीस को देखे तो मालूम होगा कि इस्लाम ने सामाजिक, आर्थिक, नागरिक, कानूनी एंव पारिवारिक मामलों मे जितने अधिकार महिलाओं को दिए है; लिखित रूप से किसी भी धर्म मे नही दिए गए हैं। इन सब के बावजूद आज मुस्लिम महिलाओं को पिछड़ापन, अशिक्षा, बंदिश और पारिवारिक प्रातारणा जैसे चैतरफा दबाव झेलने पड़ते हैं। इस्लाम मे औरतो को उच्च शिक्षा ग्रहण करने और आवश्यकता पड़ने पर घर की चहारदीवारी से बाहर निकल कर रोज़गार करने मे कोई मनाही नही है; पर इसके लिए कुछ शरई (इस्लामी) कानून बनाए गए हैं जिनका पालन करना अत्यन्त आवश्यक है। शरीयत के हिसाब से महिलाएँ अंग प्रदर्शन न करते हुए अपने शरीर को अच्छी तरह से ढ़के। इसके यह ज़रूरी नहीं कि सर से पैर तक बुर्का पहना जाए। वे अपना हाथ और चेहरा खोल कर बाहर जा कर कार्य कर सकती हैं, परन्तु मुस्लिम बुद्धिजीवियों और उलेमा ने इस्लाम को जटिल स्वरूप दे दिया है। बचपन से ही बच्चियों के मासूम ज़हन मे ऐसी मानसिकता गढ़ दी जाती है कि वे डरी, सहमी और स्वयं को अयोग्य महसूस करती है। उन्हें यह सिखाया जाता है कि वे पुरूषों की कभी बराबरी नही कर सकतीं और उनके सहारे के बिना वे बेबस और लाचार हैं। उन्हें केवल उतनी ही शिक्षा ग्रहण कराई जाती है जिससे वे निकाह के बाद अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकें।
  6. मुस्लिम समुदाय मे युगों से चली आ रही औरतों की दुर्दशा मे नाम मात्र का भी सुधार नही हुआ है। बात केवल उनकी शिक्षा, आज़ादी एंव अधिकार की नही है-ज़रा सी बात पर शौहर का तलाक के तीन शब्द कह कर बीवी को घर से बाहर करना, आकारण एक से अधिक विवाह करना, शौहर के क्रूर व्यवहार और बात-बात पर हाथ उठाने के बावजूद चुपचाप सब सहना, मेहर न अदा करना, शौहर के जनाज़े पर ज़बरदस्ती मेहर माफ कराना, उसकी मृत्यु के पश्चात बीवी के पुनर्विवाह पर परिवार वालो की तरफ से मनाही आदि कई गैर इस्लामी एंव गैर इन्सानी रवायते हैं जिन्हे इस्लाम हरगिज़ सही नही ठहराता। अल्लाह के प्यारे नबी (स0 अ0) का इरशाद है-‘‘ औरतो के साथ सद्व्यवहार की ताकीद करो’’। आपने (स0 अ0) फरमाया-‘‘नमाज़ और औरतों का ख्याल रखना’’।
  7. इस्लाम के अलावा किसी भी धर्म मे लिखत रूप से औरतो को पैतिृक सम्पत्ति मे हिस्सेदार नही बनाया गया है और न ही तलाकशुदा एंव विधवा को दोबारा विवाह करने का अधिकार दिया गया है। ये सारी आज़ादी एंव अधिकार इस्लाम ने औरतों के हित साघन मे दिये है। तलाक को लेकर मुस्लिम समुदाय मे यह मान्यता है कि शौहर यदि एक साथ तीन बार तलाक बोल देता है तो सम्बन्ध विच्छेद हो गया पर यह बिल्कुल गलत हैै । इसके लिए यह शरई कानून है कि एक ही वाक्य मे एक साथ तीन तलाक का देना हराम है और ऐसा करने वाला व्यक्ति अल्लाह के नज़र मे बहुत बड़ा गुनाहगार है। इसका सही तरीका यह है कि पहली और दूसरी बार अलग-अलग समय पर तलाक देने के पश्चात यदि एक माह के भीतर रूजु कर ले अर्थात शौहर-बीवी अपनी गलती का एहसास कर के आपसी रज़ामंदी से पति-पत्नी के रिशते मे बंधे रहना चाहें तो रह सकते है और यदि शैहर ने तीसरी तलाक दे दी तो पति-पत्नी का रिशता खत्म हो जाता है। जहाँ तक मेहर का सवाल है; तलाक देने से पहले या अपनी मृत्यु से पहले शैहर को पूरी रकम (चाहे गहनो या प्रपर्टी के रूप मे हो) बीवी को भुगतान करना आवश्यक है। इसी तरह इस्लाम मे निकाह के लिए औरत और मर्द दानो की रज़ामंदी ज़रूरी करार दिया गया है। ज़बरजस्ती किसी के ज़ोर देने पर हामी भरना कतई गलत बताया गया। अल्लाह के रसूल ने फरमाया है कि निकाह से पहले औरते अपने होने वाले शौहर को एक नज़र देख सकती हैं। शरई तौर पर इतना मज़बूत आधार मिलने के बावजूद कैसे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन हो रहा है, यह किसी से छिपा नही है।
  8. इस मामले मे मलेशिया ऐसी रूढ़ीवादी परम्पराओं को सिरे से नकार कर एक पूर्ण विकसित देश के रूप मे उभर कर सामने आया है। 60-65 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इस देश मे महिलाएँ इस्लामिक शिक्षा के साथ-साथ दुनियावी उच्च शिक्षा भी ग्रहण करती है और हर क्षेत्र मे पुरूषों के बराबर खड़ी नज़र आती हैं। वे अपने अधिकारों के प्रति सजग है और इसमे पुरूष वर्ग उनका भरपूर सहयोग करता है। ओवरकोट और स्कार्फ पहने महिलाएँ युनिवर्सिटी, काॅलेज, दफतर एंव प्रशासन मे ऊँचे ओहदे पर प्रतिष्ठित होने के साथ-साथ नमाज़, कुरान, रोज़ा व अन्य इस्लामिक अपेक्षाओं को पूरी श्रद्धा के साथ करती है। सर्वेक्षण के आधार पर साफ दिखलाई पड़ता है कि आर्थिक विकास के मामले मलेशिया हमसे कई गुना आगे है और वहाँ महिलाएँ हमारे देश की भाँति इतनी अधिक संख्या मे शोषित और प्रताडि़त भी नही होती।
  9. इस्लाम मे दूसरों का हक मारना बहुत बड़ा पाप है। अल्लाह की नज़र मे हर इब्ने-आदम (बाबा आदम की संतान) एक समान है। जिस प्रकार मर्दों को बिन माँगे उनके जायज़ हक (उचित अधिकार) मिलते है उसी प्रकार औरतों को भी बिना किसी भेद-भाव के उनके जायज़ हक मिलने चाहिए।


क्या सही है और क्या गलत ? इसकी शुरूआत कहाँ से हो ? ऐसी व्यर्थ विडम्बनाओं मे सिर खपाने से बेहतर है कि हम कुरान और हदीस देखें। उसका अर्थ समझे, अपने समुदाय की आधी आबादी की भावनाओं को समझे, उनके अधिकार को समझे फिर फैसला लें। ऐसा करना बिल्कुल गलत होगा कि हम इस्लाम की दुहाई भी दें और उसके उसूलों के खिलाफ औरतों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर उनके अधिकारों का हनन भी करें। यह भी गलत है कि जहाँ पुरूष वर्ग का इस्लामिक कानून मे फायदा है वहाँ वह उसे माने और जहाँ इस्लामिक कानून औरतों के पक्ष मे है वहाँ भारतीय संविधान को प्राथमिकता दें।


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