स्वामी विवेकानंद का चिंतन : बौद्धिक विकास एवं बौद्धिक ज्ञान (जन्मदिन पर)



स्वामी विवेकानंद का चिंतन : बौद्धिक विकास एवम् बौद्धिक ज्ञान 
 
12 जनवरी 1863 ई. तदनुसार संवत 1919 विक्रमी की मकर संक्रांति के पुण्य पर्व पर प्रात: कलकत्ता के नर-नारी गंगा स्नान को जा रहे थे, उसी समय श्री विश्वनाथ दत्त के घर सामाजिक एवं धार्मिक संक्रांति के अग्रदूत ने जन्म लिया। बचपन का नाम विले था जो बाद में नरेंद्र दत्त कहलाये। विले बचपन से शूर-वीर, नटखट, निडर व कुसाग्र बुद्धि के बालक थे। इनके बारे कहा जाता था कि बड़े से बड़ा पाठ नरेन्द्र कुछ मिनटों में याद कर लेते थे। नरेंद्र प्रारम्भ में नास्तिक थे, 17 वर्ष की आयु में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क मे आये।सन् 1884 में पिता श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु के पश्चात घर की स्थिति खराब होने के कारण नौकरी ढूंढने निकले। इनका संपर्क स्वामी रामकृष्ण परमहंस से हो चुका था, राम कृष्ण परमहंस के गुरुत्व में नरेंद्र को मां काली के साक्षात दर्शन हुए। निर्धनता के कारण काली माँ से आर्थिक सहायता माँगने कई बार गये, किन्तु दर्शन होने पर उनसे भक्ति, ज्ञान व वैराग्य ही माँगा। स्‍वामी रामकृष्‍ण परमहंस ने अपनी साधना के तेज और अपनी अदृश्‍यदर्शिनी दृष्टि को उन्‍हें देकर नरेन्‍द्र से विवेकानन्‍द बना दिया, और स्‍वामी रामकृष्‍ण परमहंस के निर्देश पर सारे भारत का भ्रमण किया।

स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति, देशप्रेम और विश्व बंधुत्व की जीवंत प्रतिमा थे, जिन्होंने विश्व में गहन आध्यात्मिकता और मानव मूल्यों के भारतीय दर्शन की स्थापना की। युवा नरेन्द्र अपने गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस की उस रहस्यमयी ऊर्जा के समन्वय थे, जाे भारतीय ऋषियों ने युगों से विश्व विरासत की उदात्त भावना के परिपेक्ष्य में अपने शिष्यों को विरासत में दी है। ऊर्जा और अध्यात्म धमर् और समाज संस्कृति और समन्वय का ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में ही नहीं मिलता जो स्वामी जी के विराट व्यक्तित्व में समाहित रहा है।स्वामी विवेकानंद ने मात्र 38 वर्ष की आयु में विश्व भ्रमण कर 11 सितम्बर 1893 के Parliament of Religions में शिकागो में उद्बोधन दिया, वह हमेशा विश्व इतिहास की धरोहर रहेगा, जिसमें उन्होंने My American brothers and sisters सम्बोधन से प्रारंभ कर अपनी और भारतीय संस्कृति की महान परंपरा को प्रमाणित रूप से विश्व के सामने रखकर वास्तव में धर्म के प्रति विश्व चेतना को झकझोर कर धर्म के वास्तविक मूल्यों की स्थापित किया। यह उद्बोधन गरीबी, शोषण, गुलामी और अज्ञान की जंजीरों में जकड़े तत्कालीन भारत की उस असीम ऊर्जा का एक अंश था, जिसमें मानवीय मूल्यों, आदर्शों और समन्वय की उदात्त भारतीय परम्परा को पहली बार सारगर्भित रूप में विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। स्वामी जी की अल्प आयु में इस विराट विद्वत्ता को देख कर सारा विशेष, विशेष कर पश्चिम का तथाकथित अभिजात्य वर्ग हतप्रभ रहा है।

स्वामी विवेकानंद का दर्शन भारत को उसके पुरातन मूल्यों से अवगत करा कर विश्व गुरु के रूप में स्थापित करने का अतुलनीय प्रयास था। उन्होंने अनेक देशों में भ्रमण कर अपने जीवन दर्शन, धर्म, अध्यात्म के ज्ञान से पश्चिम के विचारों को और विद्वानों के बीच उपेक्षित और निम्नतर समझे जाने वाले भारत की कीर्ति ध्वजा विश्व भर में स्थापित की। पूरे भारत का भ्रमण कर उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, अज्ञान, अशिक्षा, नारी उत्पीड़न, परतंत्रता जैसे समकालिक विषयों पर अपनी ओजस्वी वाणी से जनमानस में नई चेतना और ऊर्जा का संचार किया, जिसकी परिणिति आगे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी देखने को मिलती है। कविवर रवीन्द्र ने प्रसिद्ध फ्रेंच उपन्यासकार रमण राॅलेन से कहा था "If you went to know India study Vivekanand" स्वामी के विराट व्यक्तित्व को नमन करता यह वक्तत्व विश्व की दो महान विभूतियों का उनके प्रति असीम सम्मान का

परिचालक है। उनकी अलौकिक वाक्शक्ति ने उन्हें एक प्रभावशाली वक्ता, कवि, लेखक और चिंतक के रूप में स्थापित किया। ‘‘बर्तमान भारत‘‘ उनका प्रसिद्ध बंगाली निबंध 1899 में उद्बोधन नामक बंगाली पत्रिका में प्रकाशित हुआ तथा उनके निबंधों का संग्रह 1905 में पुस्तक के रूप में संग्रहित है। अपने जीवनकाल में उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की जिसके आधार पर हम कह सकते है कि एक कमंडल, दो वस्त्र एक मृगछाल धारण करने वाला युवा संन्यासी विश्व को इतनी सम्पत्ति दे गया है, जिससे युगों युगों तक भावी पीढ़ियां आलोकित होती रहेगी। अक्टूबर 1892 में पहली बार पूना में लोकमान्य तिलक की स्वामी जी से भेंट हुई जो इतने प्रभावित हुए कि उन्हें 10 दिनों तक अपने घर ले गये।

स्वामी विवेकानंद का उद्भव 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उस समय हुआ जब भारत में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही प्रमुख समुदाय अंग्रेजों के सामने झुक चुके थे। ब्रिटिश राज एक औपनिवेशिक राज्य था जिसका उद्देश्य भारत का शोषण तथा भारतीयों को अंग्रेजी शिक्षा तथा पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगना था। उस समय भारतीय समाज में शिक्षा की दशा बहुत खराब थी। राधा मुखर्जी के अनुसार ‘‘भारत में शिक्षा की व्यवस्था मात्र शिक्षा प्रचार के लिए नहीं बल्कि धर्म के एक अंग के रूप में की गई थी। हिन्दू समाज सुधार तथा राष्ट्र निर्माण के लिए विवेकानंद शिक्षा के प्रचार को आवश्यक मानते थे, शिक्षा के संबंध में उनकी धारणाएं बड़ी वैज्ञानिक थी। उनके अनुसार वेदान्त दर्शन मानता है कि प्रत्येक बालक में ‘‘असीम ज्ञान और विकास की सम्भावना होती है। परन्तु उसे इन शक्तियों का पता नहीं होता है, केवल शिक्षा द्वारा उसे उसकी प्रतीति कराई जा सकती है और उसके विकास में सहायता की जा सकती है। वे कहते थे कि राष्ट्र को ऐसे मनुष्यों की आवश्यकता है जो अपने उद्देश्य की पूर्ति करने हेतु समुद्र तल की तह में जाने तथा साक्षात मृत्यु का भी सामना करने में सक्षम हो। उनके अनुसार हम मनुष्य बनाने वाला धर्म ही चाहते हैं तथा सभी क्षेत्रों में समाज एवं राष्ट्र का निर्माण सम्भव होगा। मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही चाहते है। विवेकानंद यह मानते कि ‘‘धर्म शिक्षा का मेरूदण्ड है।’’ लेकिन यह धर्म वह है जो ‘‘सर्वधर्मसम्मत’’ हो।

विवेकानंद ने वेदान्त दर्शन में शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहाः- ‘‘शिक्षा द्वारा मनुष्य का निर्माण किया जाता है । समस्त अध्ययनों का अन्तिम लक्ष्य मनुष्य का विकास करना है ताकि मनुष्य की संकल्पशक्ति का प्रवाह संगठित होकर प्रभावोत्पादक बन सके।’’ उन्होंने शिक्षा के द्वारा जिस ‘‘सर्वांगीण विकास’’ के लक्ष्य की ओर संकेत किया था वह शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसका प्रयोजन ‘मानव निर्माण’ ‘चरित्र निर्माण’ और जीवन निर्माण हो। उनका कहना था कि हमें उन विचारों को अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है जो जीवन निर्माण तथा चरित्र निर्माण में सहायक हो। उनके अनुसार ‘‘यदि तुम केवल पांच परखे हुए विचार आत्मसात कर उसके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हो तो तुम एक पूरे ग्रन्थ को कंठस्थ करने वाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो।’’ विवेकानंद अपनी बात के पक्ष में शंकराचार्य को उद्धृत करते है जिसके अनुसार हर व्यक्ति ‘‘अनन्त ज्ञान से युक्त है।’’ परन्तु अविद्या एवं अज्ञान के कारण वह इस ‘‘अनंत ज्ञान, दिव्य दृष्टि एवं अनन्त शक्ति’’ को पहचान नहीं पाता तथा अपने को अज्ञानी, सीमित दृष्टि वाला तथा निर्बल पाता है। शिक्षा ही मनुष्य को ‘‘सच्चे ज्ञान’’ की ओर प्रेरित करती है।

विवेकानन्द तथ्यात्मक ज्ञान अथवा सूचना को शिक्षा नहीं मानते थे। उन्होंने एक स्थान पर कहा :- ‘‘विदेशी भाषा में दूसरे के विचारों को रटकर अपने मस्तिष्क में उन्हें ठूंस कर और विश्वविद्यालय की कुछ पदवियां प्राप्त कर तुम अपने को शिक्षित समझते हो, क्या यही शिक्षा है। इन विचारों से स्पष्ट है कि वे पाश्चात्य प्रणाली से संतुष्ट नहीं थे लेकिन उनका अभिप्राय यह भी नहीं था कि वे आधुनिक शिक्षा के पूर्णतः खिलाफ थे बल्कि वे ऐसी शिक्षा चाहते थे, जिसमें व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो। उन्होंने शारीरिक शिक्षा के साथ-साथ संपूर्ण बौद्धिक विकास पर भी बल दिया। उनका मानना था कि ‘‘बुद्धि से ही ज्ञान और ज्ञान से भक्ति तथा योग संभव है।’’ बौद्धिक विकास एवम् बौद्धिक ज्ञान के लिए गणित, विज्ञान, धर्मशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र तथा तकनीकी आदि सभी विषयों का अध्ययन करना चाहिए क्योंकि इनके ज्ञान से देश को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। वे कहते थे कि राष्ट्र को ऐसे मनुष्यों की आवश्यकता है जो अपने उद्देश्य की पूर्ति करने हेतू समुद्र तल की तह में जाने तथा साक्षात मृत्यु का भी सामना करने में सक्षम हो। उनके अनुसार हम मनुष्य बनाने वाला धर्म ही चाहते है तथा सभी क्षेत्रों में समाज एवं राष्ट्र का निर्माण सम्भव होगा। मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही चाहते है। विवेकानंद यह मानते कि ‘‘धर्म शिक्षा का मेरूदण्ड है।’’ लेकिन यह धर्म वह है जो ‘‘सर्व धर्म सम्मत’’ हो। उनका मानना था कि धर्म आधारित शिक्षा से ही उन्होंने शिक्षित एवं प्रबुद्धजनों के उपनिषदों को ‘आदर्श ग्रंथ’ घोषित किया। उन्होंने कहा ‘‘उपनिषदों के सत्य’’ तुम्हारे सामने है, उन्हें अपनाओं और उनकी उपलब्धि कर उन्हें कार्य रूप में परिणति करो। लेकिन विवेकानंद कोरी बौद्धिक शिक्षा के भी पक्षधर नहीं थे। वे कहते थे कि पाश्चात्य सभ्यता की बुराइयों में एक बुराई यह भी है कि वहां ‘‘हृदय की परवाह न करते हुए केवल बौद्धिक शिक्षा ही दी जाती थी।’’ लेकिन ऐसी शिक्षा मनुष्य को ‘‘दस गुणा अधिक स्वार्थो’’ बना देती है। उनके शब्दों में जब हृदय तथा मस्तिष्क में द्वन्द्व उपस्थित हो, उस समय हृदय का ही अनुसरण करना चाहिए। हृदय ही हमें उस उच्चतम राज्य में ले जाता है जहां बुद्धि कभी नहीं पहुंच सकती है। उसे अन्तः प्रेरणा कहते हैं। अतः सदैव हृदय का ही संस्कार करो। हृदय में ही ईश्वर बोला करता है। विवेकानंद का कहना था कि ‘‘अपने चरित्र का निर्माण करो और अपने प्रकृति स्वरूप को उसी ज्योतिर्मय, उज्जवल, नित्य शुद्ध स्वरूप को प्रकाशित करो तथा प्रत्येक में उसी आत्मा को जगाओ। उन्होंने यूरोप में अनेक नगरों की यात्रा की ओर देखा की वहां गरीबों की सुविधा व सुख के लिए शिक्षा का प्रबंध करने की कोशिश की जाती थी, उसे देखकर उनके मन में अपने देश के गरीबों की दुर्दशा का दृश्य आ जाता था और उनकी आंखों से आंसू झलकने लगते थे। उनको गरीबों के उत्थान की बहुत चिंता थी। देश की शिक्षा व्यवस्था में विवेकानंद प्रादेशिक भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा की शिक्षा देने के पक्ष में भी थे। उनके अनुसार ‘‘संस्कृत में पठित होने से ही भारत में सम्मान होगा तुम्हारे विरुद्ध कोई कुछ कहने का साहस नही करेगा, अतः इसे पढ़ो और जानो। इसके साथ-साथ वे अंग्रेजी शिक्षा के भी उतने ही पक्ष में थे क्योंकि वे जानते थे कि इसके द्वारा ही वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षेत्रों में विदेशों में हुए अनुसंधान को जाना जा सकता है। विवेकानन्द शिक्षा व्यवस्था में ‘राष्ट्रीय भावना’ को भी स्थान देने के पक्ष में थे । वे कहते थे -‘‘गर्व से कहो कि मैं भारतवासी हूं हर भारतवासी मेरा भाई है। तुम यह चिल्लाकर कहो कि ज्ञानी-अज्ञानी भारतवासी सभी मेरे भाई है। तुम पुकारते हुए यह कहो कि भारतवासी मेरे प्राण है, भारत के देवी-देवता मेरे ईश्वर है। भारत का समाज मेरे बाल्यकाल का झूला, यौवन की फुलवारी तथा बुढ़ापे की काशी है। भाई कहो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है।’’

स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा को नए समाज तथा राष्ट्र के निर्माण हेतु काफी महत्वपूर्ण माना। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य भारत के लिए ‘‘श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण है।’’उन्होंने अपने मिशनरियों को अपनी तमाम शिक्षण संस्थाओं में उसी प्रकार की शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर प्रयास किया। सन् 1893 को शिकागो, अमेरिका में सर्वधर्म सम्मेलन में गये, उन्होंने अमेरिका, इंग्लैंड जैसे पाश्चात्य देशों में वैदिक सांस्कृतिक दिग्विजय कर भारत लौटे। यहां आकर उन्होंने 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और 4 जुलाई 1902 को यह युवा ऊर्जा उसी विश्व पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ कर परम तत्व में लीन हो गई और दे गई विश्व को ऐसी अमर धरोहर जो युगों युगों तक विश्व को केवल मार्गदर्शन करती रहेगी। ऐसे व्यक्तित्व सार्वभौमिक सर्वकालिक और कालजयी है, जो ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम‘‘ की उदात्त भावना से मानव मात्र के कल्याण के लिए अवतरित होते हैं। उनका निर्वाण भी एक अलौकिक घटना थी, जब 9 जुलाई 1902 की सुबह 9.10 बजे पर उन्होंने देह त्याग कर ध्यान में रहते हुए ‘‘महा समाधि‘‘ में प्रवेश किया।
 
चित्रों में स्वामी विवेकानंद
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Vivekananda was a Hindu spiritual leader

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भारतीय संसद - राष्ट्रपति, राज्यसभा और लोकसभा



The Parliament of India is the supreme legislative body in India. Indian-Parliament-President-Rajya-Sabha-and-Lok-Sabha
संसद (पार्लियामेंट) भारत का सर्वोच्च विधायी निकाय है। यह द्विसदनीय व्यवस्था है। भारतीय संसद में राष्ट्रपति तथा दो सदन- लोकसभा (लोगों का सदन) एवं राज्यसभा (राज्यों की परिषद) होते हैं। राष्ट्रपति के पास संसद के दोनों में से किसी भी सदन को बुलाने या स्थगित करने अथवा लोकसभा को भंग करने की शक्ति है। भारतीय संसद का संचालन 'संसद भवन' में होता है। जो कि नई दिल्ली में स्थित है। लोक सभा में राष्ट्र की जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जिनकी अधिकतम संख्या ५५२ है। राज्य सभा एक स्थायी सदन है जिसमें सदस्य संख्या २५० है। राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन / मनोनयन ६ वर्ष के लिए होता है। जिसके १/३ सदस्य प्रत्येक २ वर्ष में सेवानिवृत्त होते है। भारत की राजनीतिक व्यवस्था को, या सरकार जिस प्रकार बनती और चलती है, उसे संसदीय लोकतंत्र कहा जाता है।

From the Roli Archives: The Indian Parliament under construction.

सन 1883 के चार्टर अधिनियम में पहली बार एक विधान परिषद के बीज दिखाई पड़े। 1853 के अंतिम चार्टर अधिनियम के द्वारा विधायी पार्षद शब्दों का प्रयोग किया गया। यह नयी कौंसिल शिकायतों की जांच करने वाली और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करने वाली सभा जैसा रूप धारण करने लगी। 1857 की आजादी के लिए पहली लड़ाई के बाद 1861 का भारतीय कौंसिल अधिनियम बना। इस अधिनियम को ‘भारतीय विधानमंडल का प्रमुख घोषणा पत्र’ कहा गया। जिसके द्वारा ‘भारत में विधायी अधिकारों के अंतरण की प्रणाली’ का उद्घाटन हुआ। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय एवं प्रांतीय स्‍तरों पर विधान बनाने की व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। अंग्रेजी राज के भारत में जमने के बाद पहली बार विधायी निकायों में गैर-सरकारी लोगों के रखने की बात को माना गया।


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