सम्भूति एवं असम्भूति : सम्बन्ध या द्वंद्व



(ईशावास्योपनिषद मे विद्या और अविद्या के साथ-साथ सम्भूति एवं असम्भूति पर काफी विस्तृत चर्चा की जा सकती है। मैं अपना सम्भूति एवं असम्भूति की विषय समस्या पर अपना (विद्यार्थी) दृष्टिकोण रख रहा हूँ।)

sambhuti asambhuti

सम्भूति कार्य प्रकृति और असम्भूति कारण स्वरूप प्रकृति को कहते हैं। असम्भूति अर्थात अव्यक्त प्रकृति के उपासक घोर अंधकार मे प्रवेश करते है तथा जो सम्भूति अर्थात हिरण्यगर्भ नामक कार्य ब्रम्ह की उपासना करते है वह उनसे भी अधिक घोर अंधकार मे प्रवेश करते है। कार्यो की बीज रूप अव्यक्त प्रकृति का सूचक है असम्भूति पद और कार्य ब्रह्म हिरण्यगर्भ के लिये प्रस्तुत है सम्भूति पद। विद्या तथा विद्यापद के समान ही सम्भूति तथा असम्भूति शब्द भी एक दूसरे के विपरीत रूप मे मंत्र मे प्रयुक्त है। ईशावास्योपनिषद का यह मंत्र यह कहता है कि जो उस सम्भूति अर्थात अव्यक्त प्रकृति की वन्दना मे रत है, जो दृश्य मान विकृति अर्थात जगत के मूल कारण प्र‍कृति मे लीन है, वे अंधकार मे प्रवेश करते है अव्यक्त प्रकृति का सरलतम उदाहरण है इन्द्रियां। जिन पुरुषों की इन्द्रियां बर्हिमुखी है प्रकृति के उपासक अंधकार मे मूर्च्छालीन रहते है। इन्द्रियो की साधना के लिये चित्त‍ की विवेक शून्यता अनिवार्य है, विवेकशून्यता की यह स्थिति ही अंधकार की उपलक्षिका है। जो पुरूष आत्मा के रहस्य‍ को नही जानते है फलेच्छा के अवशिष्ट रहने से संसार मे अनासक्त भी नही है, अवाश्यकतानुसार स्‍पृहाभाव से कर्तव्य का निर्वाह कर रहे है, उनके चित्त की ब्रह्म मे सुस्थिरताके लिये सूक्ष्म एवं स्थूल प्रकृति की उपासना को हेय कहा गया है।

सम्भूति अर्थात हिरण्यगर्भ कार्य ब्रह्म की उपासना अणिमादि अष्ट सिद्धियों की अलौकिक सामर्थ्य प्रदान कर अहंकार की उत्पत्ति करती है अहंकार की भूख अनन्त होती है जो कभी समाप्त नहीं होती है। इस अहंकार की इच्छा पूर्ति के लिये व्यक्ति महान्धकार मे उतर जाता चला जाता है। इन्द्रियों पर संयम कर लेने वाला व्यक्ति भी अहंकार की सूक्ष्म उपासना में लिप्त रहता है। अहंकार स्वनिर्मित होता है उनसे मुक्त होना अत्यंत कठिन है, इन्द्रियां प्रकृति प्रदत्त होती है अपेक्षाकृत सरलता से मुक्ति दे देती है इन्द्रियों की उपासना को कम करने का अर्थ है कि इन्द्रियां न्यूनतम आवश्यकता पर ठहर जाये और अहंकार की उपासना को कम करने का तात्पर्य है कि अहंकार शून्य आ जाए। जो न अहंकार की उपासना करता है और न ही इन्द्रियों कि वह प्रकाश में प्रवेश करता है अर्थात वह आत्मा के सन्निकट हो जाता है।

निष्काम कर्म तथा आसक्ति सक पराङ्मुख जो जन केवल सम्भूति सम्भव होना अर्थात उत्पत्ति को ही प्राथमिकता देते है, जीवन की अनिवार्यताओं से अधिक अनिवार्यताओं से अधिक के अर्जन में ही सुख मानते है, जिनकी मानसिक भूख सदा अतृप्त रहती है, गर्व के कारण जो दुर्लभ मानव जीवन का मूल्य न समझ कर अभिमान वश उसे व्यर्थ कर देतें है, हृदय में श्रद्धा और संयम का अभाव होने के कारण वे लोक सेवा और शास्त्र ज्ञान दोनों से संपृक्त रहते हैं, वे मिथ्याभिमानी जन विनाश शील देवताओं की उपासना करने वाले की अपेक्षा अधिक घोर अंधकार में प्रवेश करते है।

असंभूति (असंभव) अर्थात विनाश शील शरीर को प्रधान देने वाले जन मृत्यु से भी भयभीत रहते है। इस लोक और परलोक की भोग सामाग्रियों में आसक्त रहकर योगक्षेम में व्‍यस्त रहते है इच्छा की प्रबलता से भोगो की प्राप्ति के लिए देवतादि अधिकारियों की प्रशन्नता मनाते हैा पूर्ति के अभाव मे शोक करते है, और कार्य पद्धति में परिवर्तन न करके भाग्य को दोष देते है। वे मूढ ब्‍यथ्क्ति अशंम्भूति अर्थात विनाश शीलत्व को प्राप्त् होते रहते है। वे अविनाशत्व के महत्व को न समझते हुये मरण मे आसन्न रहते है वे शरीर की मृत्यु पर आत्मा की मृत्यु को समझने लगते है।

कुछ भाष्यकारों के मत में असम्भूति पद वैयक्तिक का पोषक है तथा सम्भूति पद समष्टि वाद का। इसमें एक तो वैयक्तिक स्वतंत्रता की घोषणा करता है तो दूसरा संघ शक्ति की, सबके कल्याण की। व्यष्टि कल्याण मे ही समष्टि सुख की सिद्धि है व्यष्टि से ही समष्टि का प्रवेश द्वार खुलता है। समाज की सुख शान्ति वैयक्तिक अभ्युदय का कारण बनती है और व्यक्तिगत संतुष्टि सामूहिकता को बन्धुत्व भाव को सबल करती है आत्मसंतोष और प्राणि मात्र के हित की भावना से सम्पूरित समाज मोक्ष का वास्तविक प्रतिरूप बन जाता है। सत्य तो यह है कि उपनिषद को न तो मात्र ज्ञान इष्ट है और न केवल कर्म। ज्ञान और कर्म का संतुलित प्रयोक्‍ता पुरुष अमृतत्व का भागी होता है। न केवल जन्म का प्राधान्य है न मृत्यु का ये जीवन के दो महत्वपूर्ण छोर है दोनो के प्रति समन्वय दृष्टि सदा अपेक्षित है। न केवल व्‍यष्टि वाद समाज का हित साध सकता है न समष्टि वाद, आपसी सहायता से एक सुखी स्वस्थ मानव समाज की कल्पना आकार लेती है। जीवन के रहस्य को ग्रहण करने वाला अमृत का अधिकारी होता है।

सम्भूति अर्थात कार्यब्रह्म की उपासना से प्राप्त‍ होने वाला अणिमादि ऐश्वर्य रूप पृथक ही फल का व्‍याख्यान किया गया है तथा असम्भूति अर्थात अव्यक्‍त प्र‍कृति की उपासना से अन्य ही फल बताया गया है। जिसे अन्धतम: प्रविशन्ति आदि वाक्‍य से कहा गया है तथा पौराणिक जन जिसे प्रकृतिलय कहते है ऐसा हमने धीरो अर्थात बुद्धिमानो का वचन सुना है जिन्होंने हमने धीरो अर्थात बुद्धिमानो का वचन सुना है जिन्होंने हमसे उन व्यक्त और अव्यक्‍त अपासनाओ का फल व्‍याख्यान किया था।

जो पुरूष असम्भूति और विनाश इन दोनो की उपासना के समुच्च को जानता है वह जिनके कार्य का धर्म विनाश है दस धर्मी के साथ धर्म के अभेद सम्बन्ध से उसे विनाश कहा गया उस विनाश की उपासना से अधर्म तथा कामना आदि दोषो से उत्पन्न‍ हुये अनैश्वर्यरूप मृत्यु को प्राप्त करके हिरण्यगर्भ की उपासना से अणिमादि ऐश्वर्य की प्राप्ति का फल ही मिलता है, अत: उससे अनैश्वर्य आदि मृत्यु को पार करके असंभूति अव्यक्त की उपासना से अमृत को प्राप्त कर लेता है।

‘सम्भूतिं च विनाशं च’ इस पद स्वरूप प्रकृतिलयरूप फल को बताने बाली श्रुति के अनुरोध से अवर्ण के लोभ पूर्वक निदेष को समझना चाहिये अर्थात असम्भूति को ही सम्भूति कहा गया है।



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ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्‍न चिन्‍ह



ईश्वर Ishwar Ishwar Hindi calligraphy
एक जगह है चर्चा चल रही थी कि क्या आप ईश्वर को मानते हैं? ,वह चर्चा चर्चा न हो गई हो गई संसद हो गई। कह रहे थे कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। क्या वे कहगे कि मै गंजा हूं? तो क्या मैं मान लूंगा और क्या ये कह देंगे तो हम (सब) मान लेंगे कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है, जैसे संसद समझ कर कोई कानून बना दिया है कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर का अस्तित्व न होता तो करोड़ों लोग धर्म के नाम पर फकीरी गिरी न कर रहे होते। कुछ का कहना है कि ईश्वर को कभी देखा नहीं इस लिये ईश्वर नहीं है, क्या किसी और के बताने से पहले आपको अपने अस्तित्व पता था कि ‘मै कौन हूं मेरे माता-पिता कौन है’ नहीं न, किसी ने आपको बताया था कि आप कौन है। ऐसा नहीं था जन्‍म लेते ही मम्मी-पापा कहना चालू कर दिया था। ईश्वर का महत्व तथा अर्थ तो वह जानता है जो ईश्वर जानता हो, कभी क,ख,ग पढा नही चल दिये बिहारी के पद की व्याख्या करने।
जितने लोग ईश्वर को न मानने का ढोंग करते है, इनमें से एक भी बंदा ऐसा नहीं होगा, जिसने कि कभी ईश्वर के सम्मुख सिर न झुकाया हो, कोई कितना भी नास्तिक हो वह कभी न कभी ईश्वर को जरूर मानता है। हाईटेक जमाना है जहां हंसो के बीच बहुला पहुच कर बांग मारता है तो हंसो को भी लगता है कि हम कही नये दौर में पिछड़ न जाये ऐसे मे कुछ हंस भी है जो बकुला की तरह बाग मारते है कि ईश्वर नहीं है, यह तो वही कहावत हो गई कि ‘कौआ कान ले गया’ अपने कान को न देख कर कौवे के पीछे दौड़ जाना, ऐसे ही कुछ अनुयायी है जो केवल हां में हां मिलाना उचित समझते है। क्या चार लोग मिलकर पचरा कर ले की ईश्‍वर नहीं है तो क्या वास्तव में ईश्वर का अस्तित्व नहीं है।
इस विषय पर मतदान भी हुआ, बात आती है कि कभी-2 वालो के मत को किसमे लिया जाये, क्‍या आप कभी-2 ईश्वर को मानने वाले को आप यह थोड़े ही कह सकते है वह ईश्वर को नही मानता है वह जरुरत पडने पर ईश्वर को मानता है। एक दिन मे सौ बार जरूरत पड़ेगी सौ बार मानेगा तथा नही पडेगी तो नहीं मानेगा। अर्थात वह ईश्वर को अवश्य (जरूरत पर ही सही) मानेगा। चार को तो 50-50 कर लिये पांचवां होता तो क्या हलाल करके उसका वोट लेते। ये चारो झारखण्ड के विधायक थोडे है कि खरीद कर नास्तिक घोषित करवा कर अपनी सरकार बना लोगे लोकतंत्र नहीं भक्त तंत्र है। ये वो भक्त है जो सशर्त समर्थन तो देते है किंतु भगवान की सत्ता को मानने से इंकार नहीं करते है। क्योकि भगवान जी से इन भक्तों की मांग काफी होती है किन्तु देने न देने की इच्छा भगवान पर होती है भगवान दे या न दे पर ये भगवान का साथ नही छोड़ते है क्योकि कल समर्थन न देंगे तो कल किस मुँह से मांगेंगे।
ईश्वर Ishwar Ishwar Hindi calligraphy
भगवान का होना या न होना किसी मतदान से नही तय किया जा सकता है वहां तो कदापि नही जहां विचार रखने वालो की संख्या सीमित हो, यह तो ऐसा होगा 50 किलो के पतीले ढाई चाउर (चावल) की खीर पकाना और फिर पूछना कि कितने खा लेंगे। यह कहावत तो सही है कि यह चावल के 4 दानों को देख कर पकने का पता चल जाता है किन्तु विषय बहुत बडा है यह 6 अरब लोगों के बीच की बात है मात्र दो दर्जन के विचारों को हम 6 अरब व्यक्तियों के विचार नहीं मान सकते है। यहां पतीली भी काफी बडी है ऊपर के जिन चावलो को टो रहे है वे आंच न लगने के कारण पके नही है वे नास्तिक है और वे ईश्वर को नही मानते है, और जो टोने के लिये नीचे पहुँच के बाहर थे वे जल गये वे ईश्वर के ज्ञान को प्राप्त कर लिया, अर्थात ईश्वर को देख लिया। वैसे ईश्वर को मानने न मानने का जो पूर्वानुमान जो निकाला जा रहा है वह चुनाव की एग्जिट पोल की तरह फ्लॉप जायेगा। हर वर्ष प्रयाग में करोड़ों श्रद्धालु माघ मेले मे आते है, अयोध्या आते है, काशी आते है पता नहीं कौन-2 से मतावलम्बी विश्व के कोने कोने मे जाते है। वे सब मूरख है और ये चर्चालु बुद्धिमान।
ईश्‍वर को यह बताने की आवश्यकता नही है मै हूँ वो भी हम जैसे तुच्छ प्राणियों के लिये, जो हर क्षण ज़िन्दगी और मौत से जूझता रहता है। इस विशाल ब्रह्मांड में उपलब्‍ध भगवान की सृष्टि का अध्ययन लाखो करोडो वैज्ञानिक सैकड़ों वर्षो से करते चले आये है और करते रहेंगे। जब ये करोड़ो विद्वान इस परमात्मा की संरचना का ओर छोर नहीं पा सके तो तो चार लोग क्या ईश्वर को मिटा सकेंगे।


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