मनमोहन की हठ - जेपीसी नही पीसीए



2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस आवंटन विवाद संसद क्या रुकी प्रधानमंत्री को यह कहना पड़ा कि संसदीय प्रणाली खात्मे की ओर है। कांग्रेस भी करीब 10 साल विपक्ष की भूमिका मे रही है और उसने भी सरकार के समक्ष विपक्ष की भूमिका निभाई है किन्तु भ्रष्टाचार में लिप्त यूपीए सरकार ने जिस प्रकार विपक्ष की जेपीसी की मांग को खारिज कर रही है उससे तो यही प्रतीत होता है कि वाकई सरकार पर दाग गहरे है। आज जनता जानने को उत्सुक है कि अ‍ाखिर क्यो सोनिया ने कहा कि जेपीसी नहीं है, तो मनमोहन का कहना भी स्वाभाविक है कि जेपीसी नही, किन्तु आज सरकार सबसे बड़ी बात यह बताने में विफल रही कि जेपीसी क्यो नही है? आखिर क्या बात है कि यह वही प्रधानमंत्री है जो कि लोक लेखा समिति पीएसी के समक्ष हाजिर होने के तैयार हो जाते है किन्तु जेपीसी के सामना नही करना चाहते है।
जहाँ तक निष्‍पक्षता की बात आती है तो पीएसी को तो लोकसभा के अध्‍यक्ष की अनु‍मति के बिना मंत्रियों को भी बुलाने का अधिकार नहीं है प्रधानमंत्री की बात ही दूर है प्रधानमंत्री लाख पीएसी के समक्ष उ‍पस्थित होने की बात कहे किन्‍तु बिना लोकसभा अध्‍यक्ष की अनुमति के बिना पीएसी के अध्‍यक्ष उन्‍हे बुला नही सकते। मनमोहन की पीएसी के समक्ष जाने की जिद्द तो यही कहती है कि छोटा बच्‍चा मोतीचूर के लड्डू के लिये कर बैठता है चाहे उसे कितनी ही कीमती सामान न दो वो उसी लड्डू के लिये के लिये ही हठ किये बैठा रहेगा। अगर प्रधानमंत्री को लगता है कि पीएसी ही उचित मंच है तो मनमोहन जी को चाहिये कि पीएसी के समक्ष उपस्थित होने की क्‍या जरूरत है जरूरी है कि एक पंचायत बुला ले जो पंच कह देगे वही मान्‍य होगा।


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भाजपा के प्रदेश दफ्तर मे अमर उजाला का चाटुकार पत्रकार



लखनऊ यात्रा के दौरान एक दिन भाजपा के प्रदेश कार्यालय पर जाना हुआ। साथ में एक सम्मानित पत्रकार थे जिन्‍होने कही कि चल कर कुछ मित्र नेताओं की फोटो ले लिया जाये। मैने भी हामी भर दी, जब वहाँ पहुँचे तो भाजपा के बड़े नेता ने उन पत्रकार महोदय ये पूछा कि महोदय यह क्या करवा रहे है? (मजाकिये लहजें) उन पत्रकार महोदय ने कोई उत्तर न दिया मेरे मुँह से निकल आया कि सर अपने मोस्‍ट वॉन्‍टेड के चित्र संग्रह कर रहे है। हल्की सी मुस्कान के साथ बात खत्म हो रही थी किन्तु वहाँ उन नेताजी के साथ घूम रहे एक अमर उजाला के पत्रकार उम्र करीब 30 की रही होगी, मेरी बात उनको बहुत खराब लग गई।
नेताजी के सामने अपना कद और मै नेताजी का हितैषी हूँ साबित करने के लिये तपाक से मेरे से बोले कि तमीज से बात करो, जान नहीं रहे हो कि किससे बात कर रहे हो।
मैने भी उनकी तमीज उनके मुँह पर दे मारी और बोला कि अपनी लमीज अपने पास रखों और ये देखो की बात का माहौल किस लहजे का है।
फिर उनको अपनी चटुकारिका की पत्रकारिता का दम्भ दिखा और बोले कि फोटोग्राफर हो, फोटोग्राफर की तरह रहो।
मैने भी बोल दिया कि जिस हद(चाटुकारिता) की पत्रकारिता कर सकते तो तुम वही कर रहे हो, और जब किसी को फोटोग्राफर कभी लेकर टहल सकना तो किसी को फोटोग्राफर कहना।
उसने कहा कि तुम हो कौन ?
इसी बीच मामला गंभीर होता जा रहा था, हमारे साथ के वरिष्ठ पत्रकार ने हस्तक्षेप करते हुए, मेरा परिचय दिया कि फला मेरे मित्र है और इलाहाबाद से आये और अधिवक्ता है मेरे आग्रह पर कुछ चित्र लेने चले आये।
यह बात सुनकर अमर उजाला के चाटुकार का चेहरा मुझे घूरे जा रहा था पता नहीं क्यों ? और हम वहाँ से मंद मंद मुस्करा दिये और अपने काम को संपन्न कर वहाँ से चल दिये पर वो अभी तक मुझे देख रहा था।
मेरे मन ने मन ही मन में कहा कि वाह पत्रकारिता (चाटुकारिता)


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