कछवाहा (कछवाह) क्षत्रिय सूर्यवंशी राजपूत राजवंश



कछवाहा (कछवाह) क्षत्रिय सूर्यवंशी राजपूत राजवंश
Kachwaha (Kachwaha) Kshatriya Suryavanshi Rajput Dynasty

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कछवाहा क्षत्रिय सूर्यवंशी
गोत्र - गौतम, मानव मानव्य (राजस्थान में) पहले कश्यप गोत्र था, प्रवर - गौतम (उ०प्र० में) वशिष्ठ, वार्हस्पत्य मानव, कुलदेवी - जमुआय (दुर्गा - मंगला)/ जमवाय माता, वेद - सामवेद, शाखा - कौथुमी (उ० प्र० में) तथा माध्यन्दिनी (राजस्थान में), सूत्र - गोभिल,गृहसूत्र, निशान - पचरंगा ध्वज (पहले सफ़ेद ध्वज था जिसमे कचनार का वृक्ष था), नगाड़ा - यमुना प्रसाद, नदी - सरयू, छत्र - श्वेत, वृक्ष - वट (बड़), पक्षी - कबूतर, धनुष - सारंग, घोडा - उच्चैश्रव, इष्ट- रामचन्द्र, प्रमुख गद्दी - नरवरगढ़ और जयपुर, गायत्री - ब्रम्हायज्ञोपवीत, पुरोहित - खांथडिया पारीक (राजस्थान में) पहले गंगावत थे।
कछवाहा अयोध्या राज्य के सूर्यवंश की एक शाखा है। कुश के एक वंशज कुरम हुए, जिनके कुछ वंशज कच्छ चले गए और कछवाहे कहे जाने लगे जिसके नाम पर कछवाहा कूर्मवंशी भी कहलाये। नरवरगढ़ और ग्वालियर के राजाओं के मिले कुछ संस्कृत शिलालेखों में इन्हे कच्छपघात या कच्छपारी कहा गया है। जनरल कन्निंघम इन शिलालेखों को मान्यता देते हुए कहता है की कच्छपघात या कच्छपारी या कच्छपहन का एक ही अर्थ है - कछुओं को मारने वाला। कुछ लोगों का अनुमान है कछवाहों की कुलदेवी का नाम पहले कछवाही (कच्छपवाहिनी) था जिसके कारण ही इस वंश का नाम कछवाहा पड़ा।
उपरोक्त सभी मत मनगढंत है क्यूंकि कछुवे मारना राजपूतों के लिए कोई गौरव की बात नहीं है जो कि इनके नाम का कारण बनता। कुशवाहा नाम भी कछवाहों के किसी प्राचीन शिलालेख या ग्रन्थ में नहीं मिलता। वास्तव में ये भगवन राम के द्वितीय पुत्र कुश के ही वंशज हैं। कर्नल टॉड शैरिंग, इलियट व क्रुक ने भी इसी मत को मान्यता दी है। राम के बाद कुश ने अपनी राजधानी कुशावती को बनाया था, परन्तु किसी दुःस्वप्न का विचार आने पर उन्होंने उसे छोड़ फिर अयोध्या को अपनी राजधानी बना लिया था। अयोध्या का इन्होने ही पुनरुद्वार किया था। (रघुवंश, सर्ग 16) इसके अंतिम राजा सुमित्र के पुत्र कूर्म तथा कूर्म के पुत्र कच्छप हुए। कच्छप के पिता कूर्म के कारण ही कछवाहों की एक उपाधि कूर्म भी है।
कछवाहे पहले परिहारों के सामंत के रूप में रहे थे, परन्तु परिहारों के निर्बल हो जाने पर ये स्वतंत्र शासक बन गए। ग्वालियर का वि. सं. 977 और 1034 का शिलालेख के अनुसार लक्ष्मण के पुत्र वज्रदामा कछवाहा ने विजयपाल प्रहार से ग्वालियर का दुर्ग छीनकर वहां के स्वतंत्र स्वामी बन गए। वज्रदामा के पुत्र कीर्तिराज के वंशज तो क्रमशः मूलदेव, देवपाल, पधपाल और महापाल, कुतुबुद्दीन ऐबक के शासन काल तक ग्वालियर के राजा बने रहे और छोटे पुत्र सुमित्र के वंशज क्रमशः मधु, ब्रम्हा, कहान, देवानिक, ईशसिंह - ईश्वरीसिंह, सोढदेव, दैहलराय (दुर्लभराज या ढोला राय हुए। जिनकी एक रानी का नाम मरवण था।) ढोला राय दौसा (जयपुर) के बडगूजर क्षत्रियों के यहाँ ब्याहे गए परन्तु विश्वासघात करके उन्होंने दौसा और फिर आसपास के बड़गुजरों को वहां से निकालकर स्वयं वहां के राजा बन गए। इस तरह सारे ढूंढाड़ (वर्तमान जयपुर) के स्वामी बन गए। इनके पुत्र काकिलदेव ने वि. सं. 1207 में मीणों से आमेर छीनकर उसे अपनी राजधानी बना ली।

इस वंश के 26वें शासक जयसिंह ने जयगढ़ दुर्ग बनवाया था। 28वें शासक जयसिंह को सवाई की उपाधि से विभूषित किया गया। अतः इनके बाद के सारे शासक सवाई उपाधि धारण करते थे।यह नरेश बड़े ही विद्वान तथा ज्योतिषी थे। जयपुर नगर इन्ही का कीर्ति स्तम्भ है। यहाँ की वेधशाला के अतिरिक्त इन्होने दिल्ली, मथुरा, उज्जैन और बनारस में पांच वेधशालाएं स्थापित की। सवाई माधोसिंह ने सवाई माधोपुर नगर बसाया था।
  1. राजस्थान में जयपुर, अलवर और लावा
  2. उड़ीसा में मोरभंज, ढेंकानाल नरलगिरी, बखद के ओंझर
  3. मध्यप्रदेश में मैहर
  4. उत्तरप्रदेश में जिला सुल्तानपुर में अमेठी, रामपुरा, कछवाहाघार और ताहौर, जिला मैनपुरी में देवपुरा, करोली, कुठोद, कुदरी, कुसमर, खुडैला, जरवा, मरगया, मस्था, जिला जालौन में खेतड़ी, पचवेर, गवार, मालपुरा, मुल्लान, राजपुर, राजोर, वगुरु, सावर आदि।
इसके अतिरिक्त जम्मू और कश्मीर तथा पूँछ की रियासतें। इनके अतिरिक्त अब ये एटा, इटावा, आजमगढ़, जौनपुर, फर्रुखाबाद। बिहार के भागलपुर, सहरसा, पूर्णाया, मुज़्ज़फ़रपुर आदि जिलों में बस्ते हैं।

नरवर के कछवाहे या नरुके कछवाहे/ राजावत
उदयकर्ण की तीसरी रानी के बड़े पुत्र नृसिंह, जो आमेर के सिंहासन पर बैठे, के वंशज राजावत या नरुके कहलाते हैं। अब ये उ. प्र. के खीरी, लखीमपुर, गोंडा आदि जिलों में तथा नेपाल में कहीं कहीं बस्ते हैं। रियासतें - अलवर और लावा

शेखावत
आमेर नरेश उदयकर्णजी के छोटे पुत्र बाला को आमेर से 12 गाँवों का बरवाड़ा मिला था। उनके 12 पुत्रों में बड़े मोकल थे और उनके पुत्र थे शेखा जिनसे कछवाहों की प्रसिद्द शाखा शेखावत चली। मोकल को कई वर्षों तक पुत्र नहीं हुआ। उन्होंने कई महात्माओं की सेवा की। चैतन्य स्वामी के दादा गुरु माधव स्वामी के आशीर्वाद से उनके पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम शेखा रखा। इनका जन्म वि. सं. (ई. 1433) में हुआ। उदयकर्णजी के दूसरे पुत्र बालाजी के पुत्र का नाम राव शेखाजी था। राव शेखाजी के वंशज शेखावत कहलाये। जिला अलवर में ये बड़ी मात्रा में रहते हैं। यह क्षेत्र शेखावाटी भी कहलाता है। ठिकाने - खेतड़ी, सीकर, मंडावा, मुकुंदगढ़, नवलगढ़।

घोड़ेवाहे कछवाहा
गोत्र - कश्यप / कोशल्य या मानव्य, वर - कश्यप, वत्सार, नैध्रुव, वेद - यजुर्वेद, शाखा - वाजसनेयि, माधयंदिन, सूत्र - पारस्कर, गृहसूत्र, कुलदेवी - दुर्गा
अल्लाउद्दीन ख़िलजी के शासनकाल में आमेर के दो राजकुमार ज्वालामुखी देवी (कांगड़ा) की पूजा करने गए थे। वापसी में वे सेना सहित सतलज नदी के किनारे बैठ गए। बाद में अल्लाउद्दीन ख़िलजी ने इनके 18 लड़कों को एक दिन में उनके घोड़ों की पहुँच तक का क्षेत्र देना मंज़ूर किया। इस तरह इन्होने सतलज रावी नदियों के दोनों ओर और चण्डीगढ से लेकर शेखपुरा बख़नौर (जालंधर) तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। घोड़ों की पहुँच तक का क्षेत्र अधिकृत करने से ही ये घोड़े वाले क्षत्रिय कहलाते हैं। चमकौर, बलाचौर, जांडला, राहों, गढ़ शंकर आदि इनके 18 भाइयों की अलग अलग गद्दियां थीं। इनके राजा की उपाधि राय थी। अब ये पंजाब के रोपड़, लुधियाना, जालंधर, होशियारपुर आदि जिलों में बस्ते हैं।

कुश भवनिया (कुच भवनिया) कछवाहे
गोत्र - शांडिल्य, प्रवर - शांडिल्य, असित, देवल, वेद - सामवेद, शाखा - कौथुमी, सूत्र - गोभिल, गृहसूत्र, कुलदेवी - नंदी माता
इसे कुशभो वंश भी कहा जाता है। भगवान राम के पुत्र कुश ने गोमती नदी किनारे सुल्तानपुर में एक नगर बसाया था जिसे कुशपुर या कुशभवनपुर कहते हैं। यहाँ निवास करने के कारण ही ये क्षत्रिय उक्त नाम से प्रसिद्ध हुए। इस क्षेत्र में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम आज भी खंडहर अवस्था में विद्यमान है। जिससे उक्त मत प्रमाणित होता है। अब ये बिहार के आरा, छपरा, गया तथा पटना जिलों में मिलते हैं।

नन्दबक या नादवाक क्षत्रिय सूर्यवंशी (कछवाह की शाखा)
गोत्र - कश्यप, प्रवर - कश्यप, अप्यसार, नैध्रुव, वेद - यजुर्वेदए शाखा - वाजसनेयि, माधयंदिनए त्र - पारस्कर, गृहसूत्र, कुलदेवी - दुर्गा, नानरव (अलवर) से कुछ कछवाहे क्षत्रिय उत्तर प्रदेश में जा बसे थे। ये नन्दबक कछवाहे कहलाते हैं। अब ये क्षत्रिय जौनपुर, आजमगढ़, मिर्ज़ापुर तथा बलिया जिलों में बस्ते हैं।

झोतियाना या जोतियाना (झुटाने) कछवाहा की शाखा, सूर्यवंशी क्षत्रिय
गोत्र - कश्यप, प्रवर - कश्यप, अप्यसार, नैध्रुव, वेद - सामवेद, शाखा - कौथुमी, सूत्र - गोभिल, गृहसूत्र, झोटवाड़ा (जयपुर) से आने के कारण ये जोतियाना या झुटाने कहे जाने लगे। मुजफ्फरपुर और मेरठ जिले में इनके २४ गांव हैं।

मौनस क्षत्रिय सूर्यवंशी (कछवाहा की शाखा)
गोत्र - मानव/मानव्य, शेष प्रवर आदि कछवाहों के समान ही है। इनकी 13वीं शताब्दी में आमेर (जयपुर) से आना और मिर्ज़ापुर और बनारस जिलों के कुछ गाँवों में जाकर बसना बतलाते हैं। अब ये जिला मिर्ज़ापुर, बनारस, जौनपुर तथा इलाहबाद में बस्ते हैं।

पहाड़ी सूर्यवंशी कछवाहे
गोत्र - शोनक, प्रवर - शोनक, शुनक, गृहमद, वेद - यजुर्वेद,शाखा - वाजसनेयी, माध्यन्दिन, सूत्र - पारस्कर, गृहसूत्र, कश्मीर के कछवाहा

जम्मू-कश्मीर को स्वतंत्र राज्य बनाने का श्रेय वीर शिरोमणि महाराजा गुलाब सिंह को जाता है। उन्होंने इस सम्पूर्ण प्रदेश को एक सूत्र में बांधकर सिख राज्य काल में एक छत्र स्वतंत्र शासन किया था। महाराजा गुलाब सिंह के पूर्वज आमेर (जयपुर) के कछवाहा वंश के थे।
मुगल काल में कश्मीर एक मुसलमान वंश के अधिकार में था। इ 1586 में सुल्तान युसूफ खान के विरुद्ध आमेर के राजा भगवंत दास को बादशाह अकबर ने भेजा, उन्होंने 28 मार्च 1586 इ. सुलतान युसूफ खान को लाकर बादशाह के सामने उपस्थित कर दिया। उस आक्रमण में राजा भगवंत दास के साथ उनके काका जगमाल के पुत्र रामचन्द्र भी थे। कश्मीर को साम्राज्य में मिलाकर बादशाह ने रामचन्द्र कछवाहा को कश्मीर में ही जागीर दी तथा नियुक्त किया। इस प्रकार कश्मीर के कछवाहा वंश के रामचंद्र प्रवर्तक हुए।
रामचन्द्र के पिता जगमाल आमेर नरेश राजा पृथ्वीराज के पुत्र थे। रामचंद्र ने अपनी कुलदेवी जमवाय माता के नाम पर जम्मू शहर बसाया। यह डोगरा प्रदेश होने के कारण इन्हे डोगरा भी कहा जाने लगा। वैसे ये जगमालोत कछवाहा हैं। रामचन्द्र के बाद सुमेहल देव, संग्राम देव, हरि देव, पृथ्वी सिंह, गजे सिंह, ध्रुव देव, सूरत सिंह, जोरावर सिंह, किशोर सिंह और गुलाब सिंह हुए।
गुलाब सिंह के बाद रणवीर सिंह, प्रताप सिंह, हरी सिंह और कर्ण सिंह कश्मीर के शासक हुए। भारत के स्वतंत्र होने के बाद कर्ण सिंह को कश्मीर का सदर ए रियासत बनाया गया। इसके बाद कर्ण सिंह केंद्रीय मंत्री परिषद में स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्व काल में मंत्री रहे। ये बड़े विद्वान हैं और इन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं।


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नवदुर्गास्तोत्रम NAVDURGA




।।  ॐ ऐं ह्री क्लीं चामूण्डायै विच्चे ।।

मार्कण्डेयपुराणे देवी माहात्म्ये देवि कवचे

...........|| नवदुर्गास्तोत्रम ||..............

ॐ प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चंद्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम।।

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठम कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रिश्च महागौरीति चाष्टमम।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना।।

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ता: शरणम गता: ।।

न तेषां जायते किश्चिदशुभं रणसङ्कटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदु:खभयं नहि ।।

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धि:प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशी रक्षशे नात्रशंशय: ।।

ॐ तत्सत


माता के उक्त नौ रूपों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं ---
  1. शैलपुत्री - पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण मां दुर्गा को शैलपुत्री कहा जाता है।
  2. ब्रह्मचारिणी - ब्रह्मचारिणी अर्थात जब उन्होंने तपश्चर्या द्वारा शिव को पाया था।
  3. चंद्रघंटा - चंद्रघंटा अर्थात जिनके मस्तक पर चंद्र के आकार का तिलक है।
  4. कुष्मांडा - ब्रह्मांड को उत्पन्न करने की शक्ति प्राप्त करने के बाद उन्हें कुष्मांडा कहा जाने लगा। उदर से अंड तक वे अपने भीतर ब्रह्मांड को समेटे हुए हैं। इसीलिए कुष्मांडा कहलाती हैं।
  5. स्कंदमाता - उनके पुत्र कार्तिकेय का नाम स्कंद भी है, इसीलिए वे स्कंद की माता कहलाती हैं।
  6. कात्यायनी - यज्ञ की अग्नि में भस्म होने के बाद महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने उनके यहां पुत्री रूप में जन्म लिया था, इसीलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं।
  7. कालरात्रि - मां पार्वती देवी काल अर्थात हर तरह के संकट का नाश करने वाली हैं, इसीलिए कालरात्रि कहलाती हैं।
  8. महागौरी - माता का वर्ण पूर्णत: गौर अर्थात गौरा (श्वेत) है, इसीलिए वे महागौरी कहलाती हैं।
  9. सिद्धिदात्री - जो भक्त पूर्णत: उन्हीं के प्रति समर्पित रहता है, उसे वे हर प्रकार की सिद्धि दे देती हैं, इसीलिए उन्हें सिद्धिदात्री कहा जाता है।

जय माँ भवानी...












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श्री दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्त्रोतम्



शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने ।
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती ।।

ऊँ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी ।
आर्या दुर्गा जय चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी ।।

पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघंटा महातपाः ।
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः ।।

सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी ।
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्या-भव्या सदागतिः ।।

शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा ।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ।।

अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती ।
पट्टाम्बरपरिधाना कलमञ्जीररञ्जिनी ।।

अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी ।
वनदुर्गा च मातंगी मतंगमुनिपूजिता ।।

ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा ।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरूषाकृतिः ।।

विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा ।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना ।।

निशुम्भ-शुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी ।
मधुकैटभहन्त्री च चण्ड-मुण्डविनाशिनी ।।

सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी ।
सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा ।।

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी ।
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः ।।

अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा ।
महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला ।।

अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी ।
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी ।।

शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी ।
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी ।।

य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम् ।
नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति ।।

धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च ।
चतुर्वर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम् ।।

कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम् ।
पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम् ।।

तस्य सिद्घिर्भवेद् देवि ! सर्वैः सुरवरैरपि ।
राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात् ।।

गोरोचना-लक्तक-कुंकुमेन सिन्दूर-कर्पूर-मधुत्रयेण ।
विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः ।।

भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्र शतभिषां गते ।
विलिख्य प्रपठेत् स्त्रोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम् ।।

।। जय माँ भवानी ।।



नोट ► ये तन्त्रोक्त पाठ स्त्रियों के लिये विशेष है
विशेषतः ये अमावस्या की मध्य रात्रि में मां भगवती का पूजन करें उसके बाद इसका 108 बार पाठ करके लाभ उठा सकती हैं








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