भारत के अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान



जन्म:- भारत के अन्तिम प्रतापी हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय, का जन्म गुजरात के अन्हिलवाड़ा नामक स्थान पर दिनांक 7 जून, 1166 ज्येष्ठ कृष्ण 12 वि. स. 1223 को हुआ था। उनके पिता का सोमेश्वर चौहान और माता का नाम कमला देवी कर्पूरी देवी तंवर था, जो कि अजमेर के सम्राट थे। कमला देवी की बड़ी बहिन सुर सुन्दरी, कनौज के राजा विजयपाल जयचन्द राठौड़ की पत्नी थी। पृथ्वीराज के जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि पृथ्वीराज बड़े-बड़े राजाओं का घमण्ड चूर करेगा और कई राजाओं को जीतकर दिल्ली पति चक्रवर्ती सम्राट बनेगा।

पृथ्वीराज चौहान की फोटो
पृथ्वीराज चौहान की फोटो  
बाल्यकाल:- जब पृथ्वीराज 11 वर्ष के थे, तब उनके पिता सोमेश्वर का वि.स. 1234 में देहांत हो गया। इस प्रकार 14 वर्ष की आयु में इनका राजतिलक कर उन्हें राजगद्दी पर आसीन किया गया। पृथ्वीराज की आयु कम होने के कारण उनकी माता ने प्रधानमंत्री केमास की देखरेख में राज्य का कार्यभार संभाला और पुत्र को शिक्षित किया। पृथ्वीराज ने 25 वर्ष की आयु तक कुलगुरू आचार्य से 64 कलाओं, 14 विद्याओं और गणित, युद्ध-शास्त्र, तुरंग विद्या, चित्रकला, संगीत, इंद्रजाल, कविता, वाणिज्य, विनय तथा विविध देशो की भाषाओं का ज्ञात प्राप्त किया। पृथ्वीराज को शब्द-भेदी धनुर्विद्या उनके गुरू ने देकर आशीर्वाद दिया था कि ‘‘इस शब्द-भेदी बाण-विद्या से तुम विश्व में एक मात्र योद्धा कहलाओगे और धनुर्विद्या में कोई तुम्हारा मुकाबला नहीं कर पाएगा और तुम चक्रवर्ती सम्राट कहलाओगे।’’ इस प्रकार ज्योतिषियों की भविष्यवाणी के तदनुसारसार पृथ्वीराज ने अपने दरबार के 150 सामंतों के सहयोग से छोटी सी उम्र में दिग्विजय का बीड़ा उठाया और चारों दिशाओं के राजाओं पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती सम्राट बन गया।
युवावस्था:- पृथ्वीराज को कविता में रूचि थी। उनके दरबार में कश्मीरी पंडित कवि जयानक, विद्यापति गौड़, वणीश्वर जर्नादन, विश्वरूप प्रणभनाथ और पृथ्वी भट्ट जिसे चंद्रबरदायी कहते थे, उच्च कोटि के कवि थे। पत्राचार और बोल-चाल की भाषा संस्कृत थी। उज्जैन और अजमेर के सरस्वती कण्ठ भरण विद्यापीठ से उत्तीर्ण छात्र प्रकाण्ड पण्डित माने जाते थे। पृथ्वीराज के नाना अनंगपाल तंवर दिल्ली के राजा थे, और उनके कोई संतान नहीं होने के कारण पृथ्वीराज को 1179 में दिल्ली की राजगद्दी मिली। अनंगपाल ने अपने दोहित्र पृथ्वीराज को शास्त्र सम्मत युक्ति के अनुसार उत्तराधिकारी बनाने हेतु अजमेर के प्रधानमंत्री कैमास को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने यह लिखा कि ‘‘मेरी पुत्री का पुत्र पृथ्वीराज 36 कुलों में श्रेष्ठ चौहान वंश का सिरमौर है। मैं वृद्धावस्था के कारण उसे उत्तरदायित्व देकर भगवत् स्मरण को जाना चाहता हॅूं, तद्नुसार व्यवस्था करावें।’’ इस प्रकार हेमन्त ऋतु के आरम्भ में वि.स. 1229 मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी गुरूवार को पृथ्वीराज का दिल्लीपति घोषित करते हुए राजतिलक किया गया। दिल्ली में पृथ्वीराज ने एक किले का निर्माण करवाया जो ‘‘राय पिथौरा किले’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

पृथ्वीराज चौहान के विवाह:-
प्रथम विवाह - पृथ्वीराज चौहान का प्रथम विवाह बाल्यकाल में ही नाहर राय प्रतिहार परमार की पुत्री से होना निश्चित हो गया था, परन्तु बाद में नाहर राय ने अपनी पुत्री का विवाह पृथ्वीराज के साथ करने से मना कर दिया। इस पर पृथ्वीराज ने संदेश भिजवाया कि यदि यह विवाह नहीं हुआ तो युद्ध होगा और क्षत्रिय परम्परानुसार हम कन्या का हरण करके विवाह करने को बाध्य होंगे। नाहर राय ने पृथ्वीराज की बात नहीं मानी और दोनों के बीच युद्ध हुआ जिसमें नाहर राय की पराजय हुई तथा पृथ्वीराज ने कन्या का हरण कर विवाह किया।
द्वितीय विवाह - पृथ्वीराज का दूसरा विवाह आबू के परमारों के यहां हुआ, राजकुमारी का नाम ‘‘इच्छानी’’ था। तृतीय विवाह -पृथ्वीराज का तीसरा विवाह चन्दपुण्डीर की पुत्री से हुआ।
चर्तुथ विवाह - पृथ्वीराज का चौथा विवाह दाहिमराज दायमा की पुत्री से हुआ और इसी रानी से पृथ्वीराज को रयणसीदेव पुत्ररत्न प्राप्त हुआ।
पंचम विवाह- पृथ्वीराज का पांचवा विवाह राजा पदमसेन यादव की पुत्री पदमावती से हुआ। पदमावती एक दिन बाग में विहार कर रही थी, तभी उसने वहाँ पर बैठे हुए एक शुक सुवा तोता को पकड़ लिया। वह सुवा पृथ्वीराज चौहान के राज्य का था और शास्त्रवेता होने के कारण उसकी वाणी पर राजकुमारी मुग्ध हो गई तथा वह शुक को अपने पास रखने लगी। उस शुक ने राजकुमारी को पृथ्वीराज चौहान की वीरता एवं शौर्य की कहानी सुनाई, जिसके कारण राजकुमारी पृथ्वीराज चौहान पर मोहित हो गई तथा उस शुक के साथ ही पृथ्वीराज को यह संदेश भिजवाया कि ‘‘आप कृष्ण की भांति रूकमणी जैसा हरण पर मेरे साथ पाणिग्रहण करो, मैं आपकी भार्या हॅू।’’ इस प्रकार पृथ्वीराज का पाचवा विवाह हुआ।
षष्ठम् विवाह- पृथ्वीराज चौहान का छठा विवाह देवगिरी के राजा तवनपाल यादव की पुत्री शशिवृता के साथ हुआ। तनवपाल यादव की रानी ने पृथ्वीराज के पास संदेश भिजवाया कि ‘‘हमारी पुत्री शशिवृता ने आपको परिरूप में वरण करने का निश्चिय किया है। उसकी सगाई कन्नोज के राज जयचन्द राठौड़ के भाई वीरचन्द के साथ हुई है, परन्तु कन्या उसे स्वीकार नहीं करती है, अस्तु आप आकर उसका युक्ति-बुद्धि से वरण करें।’’
सप्तम विवाह - पृथ्वीराज का सातवां विवाह सारंगपुर मालवाद्ध के राजा भीम परमार की पुत्री इन्द्रावती के साथ खड़ग विवाह हुआ। जब पृथ्वीराज विवाह हेतु सारंगपुर आ रहे थे, तब दूत से खबर मिली कि पाटण के राजा भोला सालंकी ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया है। यह समाचार पाकर पृथ्वीराज ने अपनी सैन्य शक्ति के साथ चित्तौड़ की ओर प्रयाण किया और सामंतों से मंत्रणा विवाह हेतु अपना खड़ग आमेर के राजा पजवनराय कछवाहा के साथ सारंगपुर भिजवा दिया। निश्चित दिन राजकुमारी इन्द्रावती का पृथ्वीराज के खड़ग से विवाह की रस्म पूरी हुई।
अष्ठम विवाह- कांगड़ के युद्ध के पश्चात जालंधर नरेश रघुवंश प्रतिहार हमीर की पुत्री के साथ पृथ्वीराज का आठवां विवाह सम्पन्न हुआ।
नवम् विवाह:- पृथ्वीराज का नवां विवाह पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की कहानी के रूप में मशहूर है, कन्नोज के राजा जयचन्द राठौड़ की पुत्री संयोगिता थी । संयोगिता अपने मन में पृथ्वीराज को अपना पति मान चुकी थी और उसने पृथ्वीराज को स्वयंवर में आकर वरण करने का संदेश भिजवाया था। संयोगिता के विवाह हेतु राजा जयचन्द ने स्वयंवर का आयोजन किया था, जिसमें कई राजा-महाराजाओं को निमंत्रित किया गया, लेकिन पृथ्वीराज से मन-मुटाव नाराजगी के कारण उनको निमंत्रण नहीं भिजवाया गया और उपस्थिति के रूप में द्वारपाल के पास पृथ्वीराज की प्रतिमा लगवा दी। स्वयंवर में राजकवि क्रमानुसार उपस्थित राजाओं की विरूदावली बखानते हुए चल रहा था और संयोगिता भी आगे बढ़ती रही। इस प्रकार सभी राजाओं के सामने से गुजरने के बावजूद किसी भी राजा के गले में संयोगिता ने वरमाला पहनाकर अपना पति नहीं चुना और द्वारपाल के पास पृथ्वीराज की प्रतिमा के गले में वरमाला डालकर पृथ्वीराज को अपना पति चुन लिया। संयोगिता के इस कृत्य से जयचन्द बहुत क्रोधित हुआ और दूसरी वरमाला संयोगिता के हाथ में देकर पुनः सभी राजाओं की विरूदावलियों के बखान के साथ संयोगिता को स्वयंवर पाण्डाल में घुमाया गया फिर भी संयोगिता ने पृथ्वीराज के गल्ले में ही अपनी वरमाला पहनाकर अपना पति चुना। इस प्रकार यह क्रम तीसरी बार भी चलाया गया और उसका वही परिणाम हुआ। तभी पृथ्वीराज ने जो कि अपने अंगरक्षकों के साथ उसकी प्रतिमा के पास खड़ा था संयोगिता को उठाकर अपने घोड़े पर बिठा लिया और वहां से चल निकला। जयचन्द ने भी अपने सैनिक पृथ्वीराज संयोगिता के पीछे लगा दिए और बीच रास्ते में पृथ्वीराज और जयचन्द के सैनिकों के बीच युद्ध हुआ जिसमें पृथ्वीराज की विजय हुई और वह संयोगिता को लेकर दिल्ली पहुंच गया। बाद में जयचन्द ने कुल-पुरोहितों को यथोचित भेंट के साथ दिल्ली भिजवाकर पृथ्वीराज और संयोगिता का विधिवत विवाह करवाया और यह संयोगिता के लिए यह संदेश भिजवाया कि ‘‘हे प्यारी पुत्री तुझे वीर चौहान को समर्पित करते हुए दिल्ली नगर में अपनी प्रतिष्ठा दान में अर्पित करता हॅूं।’’

आल्हाखंड में राजकुमारी संयोगिता का अपहरण का वर्णन -

आगे आगे पृथ्वीराज हैं, पाछे चले कनौजीराय।
कबहुंक डोला जैयचंद छिने, कबहुंक पिरथी लेय छिनाय।
जौन शूर छीने डोला को, राखे पांच कोस पर जाय।
कोस पचासक डोला बढ़िगो, बहुतक क्षत्री गये नशाय।
लडत भिडत दोनो दल आवैं, पहुंचे सौरां के मैदान ।
राजा जयचंद नें ललकारो, सुनलो पृथ्वीराज चौहान।
डोला ले जई हौ चोरी से, तुम्हरो चोर कहे हे नाम।
डोला धरि देउ तुम खेतन में, जो जीते सो लय उठाय।
इतनी बात सुनि पिरथी नें , डोला धरो खेत मैदान।
हल्ला हवईगो दोनों दल में, तुरतै चलन लगी तलवार।
झुरमुट हवईग्यो दोनों दल को, कोता खानी चलै कटार।
कोइ कोइ मारे बन्दूकन से, कोइ कोइ देय सेल को घाव।
भाल छूटे नागदौनी के, कहुं कहुं कडाबीन की मारू।
जैयचंद बोले सब क्षत्रीन से, यारो सुन लो कान लगाय।
सदा तुरैया ना बन फुलै, यारों सदा ना सावन होय।
सदा न माना उर में जनि हे, यारों समय ना बारम्बार।
जैसे पात टूटी तरुवर से, गिरी के बहुरि ना लागै डार।
मानुष देही यहु दुर्लभ है, ताते करों सुयश को काम।
लडिकै सन्मुख जो मरिजैहों, ह्वै है जुगन जुगन लो नाम।
झुके सिपाही कनउज वाले, रण में कठिन करै तलवार।
अपन पराओ ना पहिचानै, जिनके मारऊ मारऊ रट लाग।
झुके शूरमा दिल्ली वाले, दोनों हाथ लिये हथियार।
खट खट खट खट तेग बोलै, बोले छपक छपक तलवार।
चले जुन्नबी औ गुजराती, उना चले विलायत वयार।
कठिन लडाई भई डोला पर, तहं बही चली रक्त की धार।
उंचे खाले कायर भागे, औ रण दुलहा चलै पराय।
शूर पैंतीसक पृथीराज के, कनउज बारे दिये गिराय।
एक लाख झुके जैचंद कें, दिल्ली बारे दिये गिराय।
ए॓सो समरा भयो सोरौं में, अंधाधु्ंध चली तलवार।
आठ कोस पर डोला पहुंचै, जीते जंग पिथोरा राय।


पृथ्वीराज चौहान व राजकुमारी संयोगिता का अमर-प्रेम
पृथ्वीराज चौहान व राजकुमारी संयोगिता का अमर-प्रेम

  
पृथ्वीराज की बहिन पृथा का विवाह:- अजमेर के राजा सोमेश्वर ने अपने पौत्र दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान और भाई कान्त चौहान की सम्पति से राजकुमारी पृथा का विवाह चित्तौड़गढ़ के रावल समर विक्रमसिंह गहलोत के साथ वैशाख मास की पंचमी रविवार को सम्पन्न किया।

पृथ्वीराज द्वारा निम्नलिखित युद्ध किये गए:-

प्रथम युद्ध:- पृथ्वीराज ने प्रथम युद्ध 1235 में अपने प्रधानमंत्री और माता के निर्देशन में चालुक्य भीम द्वारा नागौर पर हमला करने के कारण लड़ा और उसमें विजयी हुए।
दितीय युद्ध:- राज्य सिंहासन पर बैठते ही मात्र 14 वर्ष की आयु में पृथ्वीराज से गुड़गांव पर नागार्जुन ने अधिकार के लिये विद्रोह किया था, उसमें वि.स. 1237 में विजय प्राप्त की।
तृतीय युद्ध:- वि.स. 1239 में अलवर रेवाड़ी, भिवानी आदि क्षेत्रों में मदानकों ने विद्रोह किया, इस विद्रोह को दबाकर विजय प्राप्त की।
चर्तुथ युद्ध:- वि. स. 1239 में ही महोबा के चंदेलवंशी राजा परमार्दिदेव (परिमालद्ध पर आक्रमण कर उस युद्ध में विजय प्राप्त कर उसके राज्य को अपने अधीन किया।
पंचम युद्ध:- कर्नाटक के राजा वीरसेन यादव को जीतने के लिये पृथ्वीराज ने उस पर हमला करके उसे अपने अधीन कर लिया और दक्षिण के सभी राजा इस युद्ध के बाद उसके अधीन हो गए। सब राजाओं ने मिलकर इस विजय पर पृथ्वीराज को कई चीजें भेंट की।
षष्ठम् युद्ध:- पृथ्वीराज ने कांगड़ा नरेश भोटी भान को कहलवाया कि वह उसकी अधीनता स्वीकार कर लें, परन्तु भोटी ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस कारण पृथ्वीराज ने कांगड़ा पर हमला किया, जिसमें भोटी भान मारा गया। भान के पश्चात उसका साथी वीर पल्हन जो शिशुपाल का वंशज था, एक लाख सवार और एक लाख पैदल सेना लेकर पृथ्वीराज से युद्ध करने आया। इस पर पृथ्वीराज ने मुकाबला करने के लिए जालंधर नरेश रघुवंश प्रतिहार हमीर को कांगड़ा राज्य का प्रशासन सौंपा। दोनों की संयुक्त सेनाओं ने वीर पल्हन को बन्दी बनाकर कांगड़ा में चौहान राज्य स्थापित किया। बाद में पृथ्वीराज ने हमीर को ही कांगड़ा का राजा बना दिया, जिसने पहले ही पृथ्वीराज की अधीनता स्वीकार कर रखी थी। हमीर ने अपनी कन्या का विवाह पृथ्वीराज से कर पारीवारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिये।
पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच शत्रुता एवं युद्ध:-
मोहम्मद गौरी की चित्ररेखा नामक एक दरबारी गायिका रूपवान एवं सुन्दर स्त्री थी। वह संगीत एवं गान विद्या में निपुण, वीणा वादक, मधुर भाषिणी और बत्तीस गुण लक्षण बहुत सुन्दर नारी थी। शाहबुदीन गौरी का एक कुटुम्बी भाई था ‘‘मीर हुसैन’’ वह शब्दभेदी बाण चलाने वाला, वचनों का पक्का और संगीत का प्रेमी तथा तलवार का धनी था। चित्ररेखा गौरी को बहुत प्रिय थी, किन्तु वह मीर हुसैन को अपना दिल दे चुकी थी और हुसैन भी उस पर मंत्र-मुग्ध था। इस कारण गौरी और हुसैन में अनबन हो गई। गौरी ने हुसैन को कहलवाया कि ‘‘चित्ररेखा तेरे लिये काल स्वरूप है, यदि तुम इससे अलग नहीं रहे तो इसके परिणाम भुगतने होंगें।’’ इसका हुसैन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ और वह अनवरत चित्ररेखा से मिलता रहा। इस पर गौरी क्रोधित हुआ और हुसैन को कहलवाया कि वह अपनी जीवन चाहता है तो यह देश छोड़ कर चला जाए, अन्यथा उसे मार दिया जाएगा। इस बात पर हुसैन ने अपी स्त्री, पुत्र आदि एवं चित्ररेखा के साथ अफगानिस्तान को त्यागकर पृथ्वीराज की शरण ली, उस समय पृथ्वीराज नागौर में थे। शरणागत का हाथ पकड़कर सहारा और सुरक्षा देकर पृथ्वी पर धर्म-ध्वजा फहराना हर क्षत्रिय का धर्म होता है। इधर मोहम्मद गौरी ने अपने शिपह-सालार आरिफ खां को मीर हुसैन को मनाकर वापस स्वदेश लाने के लिए भेजा, किन्तु हुसैन ने आरिफ को स्वदेश लौटने से मना कर दिया। इस प्रकार पृथ्वीराज द्वारा मीर हुसैन को शरण दिये जाने के कारण मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज के बीच दुश्मनी हो गई।
पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच 18 बार युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को 17 बार परास्त किया। जब-जब भी मोहम्मद गौरी परास्त होता, उससे पृथ्वीराज द्वारा दण्ड-स्वरूप हाथी, घोड़े लेकर छोड़ दिया जाता । मोहम्मद गौरी द्वारा 15वीं बार किये गए हमले में पृथ्वीराज की ओर से पजवनराय कछवाहा लड़े थे तथा उनकी विजय हुई। गौरी ने दण्ड स्वरूप 1000 घोड़ और 15 हाथी देकर अपनी जान बचाई। कैदखाने में पृथ्वीराज ने गौरी को कहा कि ‘‘आप बादशाह कहलाते हैं और बार-बार प्रोढ़ा की भांति मान-मर्दन करवाकर घर लौटते हो। आपने कुरान शरीफ और करीम के कर्म को भी छोड़ दिया है, किन्तु हम अपने क्षात्र धर्म के अनुसार प्रतिज्ञा का पालन करने को प्रतिबद्ध हैं। आपने कछवाहों के सामने रणक्षेत्र में मुंह मोड़कर नीचा देखा है।’’ इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान ने उदारवादी विचारधारा का परिचय देते हुए गौरी को 17 बार क्षमादान दिया। चंद्रवरदाई कवि पृथ्वीराज के यश का बखान करते हुए कहते हैं कि ‘‘हिन्दु धर्म और उसकी परम्परा कितनी उदार है।’’
18वीं बार मोहम्मद गौरी ने और अधिक सैन्य बल के साथ पृथ्वीराज चौहान के राज्य पर हमला किया, तब पृथ्वीराज ने संयोगिता से विवाह किया ही था, इसलिए अधिकतर समय वे संयोगिता के साथ महलों में ही गुजारते थे। उस समय पृथ्वीराज को गौरी की अधिक सशक्त सैन्य शक्ति का अंदाज नहीं था, उन्होंने सोचा पहले कितने ही युद्धों में गौरी को मुंह की खानी पड़ी है, इसलिए इस बार भी उनकी सेना गौरी से मुकाबला कर विजयश्री हासिल कर लेगी। परन्तु गौरी की अपार सैन्य शक्ति एवं पृथ्वीराज की अदूरदर्शिता के कारण गौरी की सेना ने पृथ्वीराज के अधिकतर सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और कई सैनिकों को जख्मी कर दिल्ली महल पर अपना कब्जा जमा कर पृथ्वीराज को बंदी बना दिया। गौरी द्वारा पृथ्वीराज को बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले जाया गया और उनके साथ घोर अभद्रतापूर्ण व्यवहार किया गया। गौरी ने यातनास्वरूप पृथ्वीराज की आँखे निकलवा ली और ढ़ाई मन वजनी लोहे की बेड़ियों में जकड़कर एक घायल शेर की भांति कैद में डलवा दिया। इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली में मुस्लिम शासन की स्थापना हुई और हजारों क्षत्राणियों ने पृथ्वीराज की रानियों के साथ अपनी मान-मर्यादा की रक्षा हेतु चितारोहण कर अपने प्राण त्याग दिये।
इधर पृथ्वीराज का राजकवि चन्दबरदाई पृथ्वीराज से मिलने के लिए काबुल पहुंचा। वहां पर कैद खाने में पृथ्वीराज की दयनीय हालत देखकर चंद्रवरदाई के हृदय को गहरा आघात लगा और उसने गौरी से बदला लेने की योजना बनाई। चंद्रवरदाई ने गौरी को बताया कि हमारे राजा एक प्रतापी सम्राट हैं और इन्हें शब्दभेदी बाण (आवाज की दिशा में लक्ष्य को भेदनाद्ध चलाने में पारंगत हैं, यदि आप चाहें तो इनके शब्दभेदी बाण से लोहे के सात तवे बेधने का प्रदर्शन आप स्वयं भी देख सकते हैं। इस पर गौरी तैयार हो गया और उसके राज्य में सभी प्रमुख ओहदेदारों को इस कार्यक्रम को देखने हेतु आमंत्रित किया। पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पहले ही इस पूरे कार्यक्रम की गुप्त मंत्रणा कर ली थी कि उन्हें क्या करना है। निश्चित तिथि को दरबार लगा और गौरी एक ऊंचे स्थान पर अपने मंत्रियों के साथ बैठ गया। चंद्रवरदाई के निर्देशानुसार लोहे के सात बड़े-बड़े तवे निश्चित दिशा और दूरी पर लगवाए गए। चूँकि पृथ्वीराज की आँखे निकाल दी गई थी और वे अंधे थे, अतः उनको कैद एवं बेड़ियों से आजाद कर बैठने के निश्चित स्थान पर लाया गया और उनके हाथों में धनुष बाण थमाया गया। इसके बाद चंद्रवरदाई ने पृथ्वीराज के वीर गाथाओं का गुणगान करते हुए बिरूदावली गाई तथा गौरी के बैठने के स्थान को इस प्रकार चिन्हित कर पृथ्वीराज को अवगत करवाया:-
‘‘चार बांस, चैबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है, चूके मत चौहान।।’’
अर्थात् चार बांस, चैबीस गज और आठ अंगुल जितनी दूरी के ऊपर सुल्तान बैठा है, इसलिए चौहान चूकना नहीं, अपने लक्ष्य को हासिल करो।
इस संदेश से पृथ्वीराज को गौरी की वास्तविक स्थिति का आंकलन हो गया। तब चंद्रवरदाई ने गौरी से कहा कि पृथ्वीराज आपके बंदी हैं, इसलिए आप इन्हें आदेश दें, तब ही यह आपकी आज्ञा प्राप्त कर अपने शब्द भेदी बाण का प्रदर्शन करेंगे। इस पर ज्यों ही गौरी ने पृथ्वीराज को प्रदर्शन की आज्ञा का आदेश दिया, पृथ्वीराज को गौरी की दिशा मालूम हो गई और उन्होंने तुरन्त बिना एक पल की भी देरी किये अपने एक ही बाण से गौरी को मार गिराया। गौरी उपर्युक्त कथित ऊंचाई से नीचे गिरा और उसके प्राण पंखेरू उड़ गए। चारों और भगदड़ और हा-हाकार मच गया, इस बीच पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार एक-दूसरे को कटार मार कर अपने प्राण त्याग दिये। आज भी पृथ्वीराज चौहान और चंद्रवरदाई की अस्थियां एक समाधी के रूप में काबुल में विद्यमान हैं। इस प्रकार भारत के अन्तिम हिन्दू प्रतापी सम्राट का 1192 में अन्त हो गया और हिन्दुस्तान में मुस्लिम साम्राज्य की नींव पड़ी। चंद्रवरदाई और पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला हुआ था कि अलग नहीं किया जा सकता। इस प्रकार चंद बरदाई की सहायता से से पृथ्वीराज के द्वारा गोरी का वध कर दिया गया। अपने महान राजा पृथ्वीराज चौहान के सम्मान में रचित पृथ्वीराज रासो हिंदी भाषा का पहला प्रामाणिक काव्य माना जाता है। अंततोगत्वा पृथ्वीराज चौहान एक पराजित विजेता कहा जाना अतिशयोक्ति न होगा।

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सफलता की सीढ़ी है- दृढ़ संकल्प



एक कक्षा में ऐसा विद्यार्थी था, जो मासिक परीक्षा में मुश्किल से उत्तीर्ण होता था। वार्षिक परीक्षा में जब उसे सर्वप्रथम स्थान मिला, तब लोग आश्चर्य चकित रह गए कि इतना अयोग्य विद्यार्थी प्रथम कैसे आया? जरूर इसने नकल की होगी।
इस प्रकरण की छान-बीन करने के लिए कालेज ने एक जांच समिति नियुक्त की। समिति द्वारा उस विद्यार्थी की मौखिक परीक्षा में भी उसने बहुत अच्छे अंक प्राप्त किए थे। अब पूरे कालेज में उसकी ही चर्चा थी। एक मित्र के पूछने पर अपनी गौरवपूर्ण सफलता का रहस्य बताते हुए उस विद्यार्थी ने कहा- ‘‘मैंने संकल्प कर लिया था कि मैं वार्षिक परीक्षा में अवश्य सर्वप्रथम स्थान प्राप्त करूंगा। मैंने जी लगाकर मेहनत की, कठिनाइयों से निराश नहीं हुआ और मनोयोग पूर्वक अपने अध्ययन में जुटा रहा। मेरी सफलता मेरे दृढ़ संकल्प का ही परिणाम है।’’
वास्तव में सच्चाई यही है निरन्तर प्रयत्न और परिश्रम जिनका मूल मंत्र होता है, उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं होता, यदि हम जीवन में अपना लक्ष्य प्राप्त करना चाहते है, अपनी मंजिल पाना चाहते हैं तो संकल्पशील होना आवश्यक है।


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हनुमान जयंती पर विशेष : राम काज करिबे को आतुर



हनुमान जयंती पर विशेष : राम काज करिबे को आतुर

एक बार भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न तीनों भाइयों ने माता सीता जी से मिलकर विचार किया कि हनुमान जी हमें राम जी की सेवा करने का मौका ही नहीं देते, पूरी सेवा अकेले ही किया करते हैं। अतः अब रामजी की सेवा का पूरा काम हम ही करेंगे, हनुमान जी के लिये कोई भी काम नहीं छोड़ेंगे। ऐसा विचार करके उन्होंने सेवा का पूरा काम आपस में बाँट लिया। जब हनुमान जी सेवा के लिये सामने आये, तब उनको रोक दिया और कहा कि आज से प्रभु की सेवा बाँट दी गयी है, आपके लिये कोई सेवा नहीं है। हनुमान जी ने देखा कि भगवान को जम्हाई आने पर चुटकी बजाने की सेवा किसी ने भी नहीं ली है। अतः उन्होनें यही सेवा अपने हाथ में ले ली। यह सेवा किसी के ख्याल में नहीं आयी थी। हनुमान जी में प्रभु की सेवा करने की लगन थी। जिसमें लगन होती है, उसको कोई न कोई सेवा मिल ही जाती है। अब हनुमान जी दिन भर राम जी के सामने ही बैठे रहे और उनके मुख की तरफ देखते रहे क्योंकि रामजीको कब जम्हाई आ जाये जब रात हुई तब भी हनुमान जी उसी तरह बैठे रहे। भरत आदि सभी भाइयों ने हनुमान जी से कहा कि रात में आप यहाँ नहीं बैठ सकते, अब आप चले जायॅं। हनुमान जी बोले कैसे चला जाउॅं, रात को न जाने कब राम जी को जम्हाई आ जाय! जब बहुत आग्रह किया, तब हनुमान जी वहाँ से चले गये और छत पर जाकर बैठ गये। वहाँ बैठकर उन्होंने लगातार चुटकी बजाना शुरू का दिया, क्योंकि रामजी को न जाने कब जम्हाई आ जाय! यहाँ रामजी को ऐसी जम्हाई आयी कि उनका मुख खुला ही रह गया, बन्द हुआ ही नहीं! यह देखकर सीता जी बड़ी व्याकुल हो गयीं कि न जाने रामजी को क्या हो गया है! भरत आदि सभी भाई आ गये। वैद्यों को बुलाया गया तो वे भी कुछ कर ही नहीं सके। वशिष्ठ जी आये तो उनको आश्चर्य हुआ कि ऐसी चिन्ता जनक स्थिति में हनुमान जी दिखायी नहीं दे रहे है। और सब तो यहाँ है और हनुमान जी कहाँ है। खोज करने पर हनुमान जी छत पर बैठे चुटकी बजाते हुए मिले। उनको बुलाया गया और वे राम जी के पास आये तो चुटकी बजाना बन्द करते ही राम जी का मुख स्वाभाविक स्थिति में आ गया! अब सबकी समझ में आया कि यह सब लीला हनुमान जी के चुटकी बजाने के कारण ही थी। भगवान ने यह लीला इसलिये की थी कि जैसे भूखे को अन्न देना ही चाहिये, ऐसे ही सेवा के लिये आतुर हनुमान जी को सेवा का अवसर देना चाहिये, बन्द नहीं करना चाहिये। फिर भरत आदि भाइयों ने ऐसा आग्रह नहीं रखा।


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