वेद- Veda



वेद- Veda

वेद(४)
1. ऋग्वेद,
2. यजुर्वेदवेद,
3. सामवेद,
4.अथर्ववेद
वेद शब्द संस्कृत भाषा के "विद्" धातु से बना है जिसका अर्थ है: जानना, ज्ञान इत्यादि। वेद हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है । वेदों को श्रुति भी कहा जाता है, क्योंकि पहले मुद्रण की व्यवस्था न होने से इनको एक दूसरे से सुन- सुनकर याद रखा गया इस प्रकार वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक/श्रुति = श्रवण परम्परा की अनुपम कृति है जो पीढी दर पीढी पिछले चार-पाँच हजार वर्षों से चली आ रही है । वेद ही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्म ग्रन्थ हैं ।
वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक ज्ञान देना ही है। अतः वेद में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड - इन दोनों विषयों का सर्वांगीण निरुपण किया गया है। वेदों का प्रारम्भिक भाग कर्मकाण्ड है और वह ज्ञानकाण्ड वाले भाग से अधिक है। जिन अधिकारी वैदिक विद्वानों को यज्ञ कराने का यजमान द्वारा अधिकार प्राप्त होता है, उनको ‘ऋत्विक’ कहते हैं। श्रौतयज्ञ में इन ऋत्विकों के चार गण हैं। (१) होतृगण, (२) अध्वर्युगण, (३) उद्गातृगण तथा (४) ब्रह्मगण। उपर्युक्त चारों गणों के लिये उपयोगी मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेद चार हुए हैं।
(१) ऋग्वेद- इसमें होतृवर्ग के लिये उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें ‘ऋक्’ संज्ञक (पद्यबद्ध) मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ऋग्वेद हुआ। इसमें होतृवर्ग के उपयोगी गद्यात्मक (यजुः) स्वरुप के भी कुछ मन्त्र हैं।
(२) यजुर्वेद- इसमें यज्ञानुष्ठान सम्बन्धी अध्वर्युवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें ‘गद्यात्मक’ मन्त्रों की अधिकता के कारण इसका नाम ‘यजुर्वेद’ है। इसमें कुछ पद्यबद्ध, मन्त्र भी हैं, जो अध्वर्युवर्ग के उपयोगी हैं। यजुर्वेद के दो विभाग हैं- (क) शुक्लयजुर्वेद और (ख) कृष्णयजुर्वेद।
(३) सामवेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसमें गायन पद्धति के निश्चित मन्त्र होने के कारण इसका नाम सामवेद है।
(४) अथर्ववेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। अथर्व का अर्थ है कमियों को हटाकर ठीक करना या कमी-रहित बनाना। अतः इसमें यज्ञ-सम्बन्धी एवं व्यक्ति सम्बन्धी सुधार या कमी-पूर्ति करने वाले मन्त्र भी है। इसमें पद्यात्मक मन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध है। इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द-शैली के आधार पर नहीं है, अपितु इसके प्रति पाद्य विषय के अनुसार है। इस वैदिक शब्द राशि का प्रचार एवं प्रयोग मुख्यतः अथर्व नाम के महर्षि द्वारा किया गया। इसलिये भी इसका नाम अथर्ववेद है।


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शिव शून्य हैं



प्रायः हम प्रकाश को सत्य, ज्ञान , शुभ, पुण्य तथा सात्विक शक्तियों का द्योतक समझते हैं तथा अंधकार की तुलना अज्ञान, असत्य जैसे अवगुणों से करते हैं। फिर शिव "रात्रि" क्यों? क्यों शिव को अंधकार पसंद है? क्यों महाशिवरात्रि शिव भक्तों के लिए सर्वाधिक महत्व रखता है?
वस्तुतः अंधकार की तुलना अज्ञान तथा अन्य असात्विक गुणों से करना ही सबसे बड़ी भ्रांति है। वास्तव में अंधकार एवं प्रकाश एक दूसरे के पूरक हैं जैसे शिव और उनकी सृष्टी । अंधकार शिव हैं, प्रकाश सृष्टी । जो भी हम देखते हैं … धरती, आकाश, सूर्य, चंद्र, ग्रह नक्षत्र, जीव, जंतु, वृक्ष, पर्वत, जलाशय, सभी शिव की सृष्टी हैं, जो नहीं दिखता है वह शिव हैं। जिस किसी का भी स्रोत होता है, आदि होता है, उसकी एक निर्धारित आयु होती है तथा उसका अंत भी होता है। प्रकाश का एक स्रोत होता है । प्रकाशित होने के लिए स्रोत स्वयं को जलता है तथा कुछ समय के उपरांत उसकी अंत भी होता है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि प्रकाश का स्रोत क्या है, वह सूर्य समान विशाल है या दीपक सामान छोटा, अथवा उसकी आयु कितनी है। महत्वपूर्ण यह है कि उसकी एक आयु है। क्योंकि प्रकाश का स्रोत होता है, श्रोत के अभाव में प्रकाश का भी अभाव हो जाता है। आँख के बंद कर लेने से अथवा अन्य उपायों से व्यवधान उत्पन्‍‌न कर पाने कि स्थिति में प्रकाश आलोपित हो सकता है। क्योंकि प्रकाश कृत्रिम है।
अंधकार अनादि है, अनंत है, सर्वव्यापी है। अंधकार का कोई स्रोत नहीं होता अतः उसका अंत भी नहीं होता। कृत्रिम उपचारों से प्रकाश की उपस्थिति में हमें अंधकार के होने का आभास नहीं होता, पर जैसे ही प्रकाश की आयु समाप्त होती है हम अंधकार को स्थितिवत पाते हैं। अंधकार का क्षय नहीं होता। वह अक्षय होता है। अंधकार स्थायी है। अंधकार शिव तुल्य है।
अंधकार को प्रायः अज्ञान का पर्याय भी गिना जाता है। वास्तव में प्रकाश को हम ज्ञान का स्रोत मानते हैं क्योंकि प्रकाश हमें देखने की शक्ति देता है। पर अगर ध्यान दिया जाये तो प्रकाश में हम उतना ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं जितना की प्रकाश की परिधि। विज्ञान प्रकाश है। यही कारण है कि जो विज्ञान नहीं देख सकता उसे वह मानता भी नहीं है। वह तब तक किसी तथ्य को स्वीकार नहीं करता जब तक वह उसके प्रकाश की परिधि में नहीं आ जाती। पर यह तो सिद्ध तथ्य है कि विज्ञान अपने इस विचारधारा के कारण हर बार अपनी ही जीत पर लज्जित हुआ है। क्योंकि हर बार जब विज्ञान ने कुछ ऐसा नया खोजा है जिसे खोज के पहले उसने ही नकारा था तो वस्तुतः उसने स्वयं की विचारधारा की खामियों को ही उजागर किया है। हर खोज विज्ञान की पुरानी धारणा को गलत सिद्ध करती हुई नई धारणा को प्रकाशित करती है जिसे शायद कुछ समयोपरांत कोई नई धारणा गलत सिद्ध कर दे। क्या यह भ्रांति मृगतृष्णा (Mirage) नहीं है? स्मरण रहे मृगतृष्णा (Mirage) प्रकाश अथवा दृष्टि का ही दोष है। अंधकार में देखना कठिन अवश्य है पर उसमें दृष्टि दोष नहीं होता। प्रकाश में देखने में अभ्यस्त हमारी आँखें अंधकार में सही प्रकार देख नहीं सकतीं पर अंधकार में देखने में अभ्यस्त आँखें प्रकाश में स्वतः ही देख सकती हैं। निर्णय?

जब हमारी मंजिल भौगोलिक होती है नजदीक होती है तो प्रकाश सहायक होता है। पर हिन्दू धर्म, तथा प्रायः हर धर्म एवं आस्था के अनुसार मानव जाति की सर्वोच्च इच्छा मोक्ष (Salvation) होती है। मोक्ष क्या है? इच्छाओं का अंत । जब कोई इच्छा नहीं, कोई मंजिल नहीं कोई जरूरत नहीं तो वहां क्या होगा। अंधकार। सर्वव्यापी एवं अनन्त अंधकार। तब हम शिव को प्राप्त कर लेते हैं। यह तो विज्ञान भी मानेगा की अनेक महत्वपूर्ण खोज स्वप्न में हुए हैं । तथा वहाँ अंधकार का साम्राज्य है।

सृष्टि विस्तृत है। हमारी विशाल धरती सौरमंडल का एक छोटा सा कण मात्र है। सूर्य में सैकड़ों पृथ्वी समाहित हो सकती हैं। पर सूर्य अपने नवग्रहों तथा उपग्रहों के साथ आकाशगंगा (Milky way galaxy) का एक छोटा तथा गैर महत्वपूर्ण सदस्य मात्र है। आकाश गंगा में एसे सहस्रों तारामंडल विद्यमान हैं। वे सारे विराट ग्रह, नक्षत्र जिनका समस्त ज्ञान तक उपलब्ध नहीं हो पाया है शिव की सृष्टि है। पर प्रश्न यह है कि यह विशाल साम्राज्य स्थित कहाँ है? वह विशाल शून्य क्या है जिसने इस समूचे सृष्टि को धारण कर रखा है? वह विशाल शून्य वह अंधकार पिण्ड शिव है। शिव ने ही सृष्टी धारण कर रखी है। वे ही सर्वसमुद्ध कारण हैं। वे ही संपूर्ण सृष्टी के मूल हैं, कारण हैं।
सहायक होता है। पर हिन्दू धर्म, तथा प्रायः हर धर्म एवं आस्था के अनुसार मानव जाति की सर्वोच्च इच्छा मोक्ष (Salvation) होती है। मोक्ष क्या है? इच्छाओं का अंत । जब कोई इच्छा नहीं, कोई मंजिल नहीं कोई जरूरत नहीं तो वहां क्या होगा। अंधकार। सर्वव्यापी एवं अनन्त अंधकार। तब हम शिव को प्राप्त कर लेते हैं। यह तो विज्ञान भी मानेगा की अनेक महत्वपूर्ण खोज स्वप्न में हुए हैं । तथा वहाँ अंधकार का साम्राज्य है। सृष्टि विस्तृत है।
हमारी विशाल धरती सौरमंडल का एक छोटा सा कण मात्र है। सूर्य में सैकड़ों पृथ्वी समाहित हो सकती हैं। पर सूर्य अपने नवग्रहों तथा उपग्रहों के साथ आकाशगंगा (Milky way galaxy) का एक छोटा तथा गैर महत्वपूर्ण सदस्य मात्र है। आकाश गंगा में एसे सहस्रों तारामंडल विद्यमान हैं। वे सारे विराट ग्रह, नक्षत्र जिनका समस्त ज्ञान तक उपलब्ध नहीं हो पाया है शिव की सृष्टि है। पर प्रश्न यह है कि यह विशाल साम्राज्य स्थित कहाँ है? वह विशाल शून्य क्या है जिसने इस समूचे सृष्टि को धारण कर रखा है? वह विशाल शून्य वह अंधकार पिण्ड शिव है। शिव ने ही सृष्टी धारण कर रखी है। वे ही सर्वसमुद्ध कारण हैं। वे ही संपूर्ण सृष्टि के मूल हैं, कारण हैं। ईश्वर एक हैं। वे तीन त्रिदेवों अथवा ३३ करोड देवताओं में ही नहीं, अपितु संपूर्ण सृष्टि के कण कण में व्याप्त हैं। वे हमारे नश्वर शरीर के अंदर की आत्मा है। वे हमारे सदविचार हैं।
ब्रह्मा कर्ता हैं, विष्णू कार्य तथा कार्यफल हैं, शिव कारण हैं। त्रिदेव एक वृक्ष के सामन हैं। ब्रह्म उस वृक्ष के तना हैं, विष्णु उस वृक्ष के विस्तार है, डालिया, पत्ते, पुष्प तथा फल सामान है। सदाशिव उस वृक्ष के जड हैं। शिव जी की आरती इसी तत्व को संबोधित है। वास्तव में ये त्रिगुण शिवजी की आरती है जिसमे स्पष्ट शब्दों में उल्लेखित है …
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका।



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