पुराणों में उपलब्ध है अनेक नाग देवताओं का वर्णन



वेद एवं पुराणों के अनुसार नागों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू से हुई है। इसलिए इन्हें ‘काद्रवेया महाबलाः’ भी कहा गया है। ये अदिति देवी के सौतेले पुत्र और आदित्यों के भाई हैं। अतएव सुस्पष्टतः नाग देवताओं में परिगणित हैं। इनका निवास स्थान पाताल कहा गया है। इसे ही नागलोक भी कहा जाता है। नागलोक की राजधानी के रूप में भोगवतीपुरी का उल्लेख मिलता है। कथासरित्सागर का प्रायः एक चतुर्थांश इस नागलोक और वहां के निवासियों की कथाओं से संबद्ध है। नाग कन्याओं का सौन्दर्य देवियों एवं अप्सराओं के समान ही कहा गया है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने बल देकर रावण की स्त्रियों के निर्देशक दोहे का अंत नाग कुमारि पर ही किया है।

Nag Devta

भगवान विष्णु की शैय्या नागराज अनंत की बनी हुई है। भगवान शंकर एवं श्री गणेश जी भी सितसर्पविभूषित हैं। भगवान सूर्य के रथ में बारहों मास बारह नाग बदल-बदलकर उनके रथ का वहन करते हैं। ऐसा प्रायः सभी पुराणों में निर्दिष्ट है। इस प्रकार से देवताओं ने भी सर्प नाग को धारण किया है, जिससे वे देवरूप हैं। सर्प-नाग वायु-पान ‘नीलमतपुराण’ और कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार कश्मीर की संपूर्ण भूमि नीलनाग की ही देन है। अब भी वहां के अनंतनाग आदि शहर इस तथ्य को पुष्ट करते हैं। यहां नाग देवता का सर्वाधिक सम्मान होता है। प्रारंभिक प्रातः स्मरणीय पवित्र नागों की गणना इस प्रकार है-

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शंखपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।।
सायंकाले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः।
तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।

अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक और कालिय- ये नाग देवता हैं। ये प्रातः सायं नित्य स्मरणीय हैं। इनका स्मरण करने से मनुष्य को नाग विष का भय नहीं रहता और सर्वत्र विजय प्राप्त होती है। भारतीय ऋषि-मुनियों ने नागोपासना पर अनके व्रत-पूजा आदि निबंध ग्रंथों की रचना की है। प्रत्येक ग्राम-नगर में नाग का स्थान होता है। श्रावण मास में नागपंचमी व्रत किया जाता है। संध्या पूजा के उपरांत नागों के नमस्कार करने की परम्परा इस प्रकार है-

जरत्कारुर्जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी।
वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा।।
जरात्कारुप्रियास्तीकमाता विषहरेति च।
महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता।।
द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु यः पठेत्।
तस्य नागभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।

उपर्युक्त पौराणिक मंत्र परम उपयोगी एवं उपादेय है। समस्त प्राणियों के कुलकुण्डहर में निवास करने वाली कुण्डलिनी शक्ति को भी सर्पिणी का ही रूप बताया गया है। भारत में शयनकाल के समय नाग देवताओं के स्मरण करने की प्रथा है। इन नाग देवता के उच्चारण मात्र से सर्प और उपसर्प भी घर में नहीं रहते। वे जनमेजय के यज्ञ में आस्तीक मुनि से वचनबद्ध हैं। आज भी इस मंत्र जप से सर्प-नाग देवता चारपाई पर नहीं चढ़ते। उनके मंत्र से सर्प का विष उतर जाता है और मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। मंत्र इस प्रकार है-

सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष।
जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर।।
आस्तीकस्य वचः श्रुत्वा यः सर्पो न निवर्तते।
शतधा भिधते मूर्ध्नी शिंशपावृक्षको यथा ।।

नाग देवता की पूजा का प्रत्यक्ष प्रमाण तथा उसके महत्व के संदर्भ में एक सत्कथा उद्धृत की जाती है- राजस्थान के बाड़मेर जिला के अन्तर्गत बायतु ग्राम है। वहां एक खीमसींग नाम के राजपूत सपत्नीक रहते थे। वहां रहते हुए उन्हें चालीस वर्ष बीत गये। संतान प्राप्ति न होने के कारण वे ग्राम का परित्याग कर अपने खेत में झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। एक दिन खीमसींग को अपने घर के पीछे एक श्वेत नाग दिखाई दिया। पहले तो उन्हें कुछ घबराहट हुई, फिर बाद में उनके मन में आया कि यह सफेद नाग कोई देवता है, अतएव इसका स्वागत करना चाहिए। उन्होंने एक दूध भरा कटोरा नाग के समीप रखा। नाग देवता सब दूध पी गये। बाद में अपने बिल में प्रवेश कर गये। दूसरे दिन भी ऐसा हुआ। इस प्रकार पूरा वर्ष बीत गया। एक दिन नाग देवता ने स्वप्न में प्रकट होकर कहा- तुम लोग चिंतित न हो। मेरी उपासना से तुम्हारा उभय लोकों में कल्याण होगा। तत्पश्चात सभी प्रकार से संपन्न खीमसींग विधिवत् नाग देवता की उपासना में लग गये।

इधर तेजोशाह नाम का एक संतानहीन धनवान व्यापारी मैत्री के कारण वहां खीमसींग से मिलने के लिये आया करता था। प्रसंगवशात् संततिहीनता की चर्चा चलने पर खीमसींग ने उसे भी नाग देवता की उपासना करने का परामर्श दिया। तेजोशाह ने नाग के निवास स्थान पर जाकर निवेदन किया कि यदि उसे पुत्र होगा तो वह खीमसींग और उसके अतिथियों के भोजन वस्त्र आदि का आजीवन व्यय करेगा और नाग देवता का एक सुंदर मंदिर भी बनवाएगा। यह बात उसने अपनी पत्नी से कही और उसे नित्य नागदेव को दूध भोग लगाने का निर्देश दिया। वह वैसा ही करने लगी।

एक दिन संयोग से 200 वैरागी वैष्णव खीमसींग की कुटिया पर आये। पूर्वप्रतिज्ञा के अनुसार जब उनके भोजन आदि की व्यवस्था के लिये वे तेजोशाह के पास गये और अन्न आदि की व्यवस्था करने के लिये उचित द्रव्य मांगा, किंतु तेजोशाह ने कुछ कृपणता दिखलायी। निराश होकर खीमसींग अपनी पत्नी सहित आत्महत्या के विचार से नाग से डंसवाने के लिए उसके बिल के पास गये। संयोगवश उन्हें वहां से एक सुवर्णवलय प्राप्त हो गया। उसे लेकर वे पुनः सेठ के पास गये तथा समुचित भोजनोपयोगी अन्न एवं दक्षिणा द्रव्य को लाकर वैष्णवों को पास उपस्थित किया। वैष्णव समुदाय भी भोजन आदि से संतुष्ट हो यथास्थान चला गया। कुछ दिनों के पश्चात ही नाग देवता की कृपा से तेजोशाह को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात प्रसन्न होकर उसने नाग देवता के स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया। इस मंदिर में जाने पर अब भी सर्वविष शांत हो जाता है और भक्तों की अभिलाषा पूर्ण होती है।

इस प्रकार की अनेक घटनाएं अन्य देश-प्रदेशों में भी होती रहती हैं। नागों की पूजा प्रायः सभी पर्वतीय क्षेत्रों में विशेष रूप से होती है। इनमें कश्मीर प्रधान है। भारत वर्ष में नागों से संबंधित विस्तृत साहित्य प्राप्त होता है। गरुडपुराण, भविष्यपुराण, आयुर्वेद के चरक, सुश्रुत, भावप्रकाश आदि ग्रंथों में एतत्संबंधी सभी प्रकार के विषयों का संग्रह हुआ है। समग्र भारत में इनकी पूजा एक विशिष्ट देवता के रूप में किये जाने की सुदीर्घ परम्परा है।



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अनुलोम विलोम प्राणायामः एक संपूर्ण व्यायाम



प्राणायाम का अर्थ है प्राणों का विस्तार, प्राण शक्ति का विस्तार। प्राणायाम कई प्रकार के हैं और प्रत्येक प्रकार के प्राणायाम का अपना विशेष कार्य क्षेत्र है। परन्तु सभी प्रकार के प्राणायाम का आधार है - गहरे लम्बे श्वास प्रश्वास (Deep Breathing)। दो मिनट के लिए आंखों को बन्द करते हुए अपनी सांसों को देखें। आपका सारा मानसिक तनाव दूर हो जाता है। आनन्द की अनूभूति होती है। साधारण  श्वास लेते समय हमारी श्वास केवल हृदय से कण्ठ तक ही आती जाती है। परन्तु जब आप गहरी लम्बी श्वास लेते है, तो पूरे फेफड़े वायु से भर जाते हैं, छाती फूल जाती है और जब श्वास छोड़ते हैं तो फेफड़ों व छाती का संकोचन होता है। ऐसा क्यों होता है इसे जानने के लिए फेफड़ो की संरचना को समझ लेना आवश्यक है।

अनुलोम विलोम प्राणायामः एक संपूर्ण व्यायाम

फेफड़ों की संरचना
हमारे शरीर में दो फेफड़ें हैं छाती की दायीं और बायीं ओर और इन दोनों के बीच है हृदय - थोड़ा सा बायीं ओर। फेफड़ो में 75 करोड़ कोशिकाएं हैं और इनके बीच में है खाली स्थान। नालिकाओं से श्वास श्वास-नली के द्वारा फेफड़े में जाते हैं। ये कोशिकाएं अंगूर के गुच्छों की भांति श्वास नली के साथ उल्टी लटकी रहती हैं, जिन्हें Alveoli कहते हैं। जब हम साधारण श्वास लेते व छोड़ते है तो केवल एक तिहाई कोशिकाएं ही प्रभावित होती है, शेष दो तिहाई निष्क्रिय ही पड़ी रहती हैं। श्वासों की दो क्रियाएं हैं - श्वास भरते हुए वायु के साथ आक्सीजन फेफड़ो में पहुंचती है और श्वास छोड़ते हुए कार्बन डायक्सायड बाहर निकालते हैं। साधारण श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया में न तो आक्सीजन पूरे फेफड़ो में पहुंचती है और न ही पूरी कार्बन डायक्सायड बाहर निकलती है। इस प्रकार धीरे-धीरे आयु के बढ़ने के साथ फेफड़ो के निचले भाग में कार्बन डायक्सायड एकत्रित होती रहती है और वहां आक्सीजन न पहुंचने के कारण फेफड़ो की वायु व आक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता कम होती जाती है। फेफड़ो की वायु व आक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता को VITAL LUNG-CAPACITY (VLC)कहते हैं। साधारण श्वास लेते समय हम एक मिनट में 18 सांस भरते-छोड़ते हैं और प्रत्येक सांस में आधा लीटर वायु अन्दर भरते हैं, अर्थात् एक मिनट में नौ लीटर वायु। जब हम चलते हैं, तो हमारी वायु भरने की क्षमता 16 लीटर हो जाती है। तेज चलते समय 27 लीटर प्रति मिनट और दौड़ते समय 45 लीटर। गहरे लम्बे श्वास भरते हुए भी हम 45 से 50 लीटर वायु ग्रहण करते हैं। इसी लिए प्राणायाम करते समय हमारी फेफड़ो की वायु ग्रहण क्षमता बहुत अधिक होती है और हम अधिक से अधिक आक्सीजन भी ग्रहण करते हैं।

अनुलोम विलोम प्राणायाम
जब दोनों नासिकाओं से बारी बारी गहरी लम्बी श्वास भरते व छोड़ते हैं, तो उसे अनुलोम विलोम कहते हैं। इसमें बायीं नासिका से श्वास भरते हैं और दायीं से बाहर करते है। पिफर दायीं से भरते हैं और बायीं से निकालते हैं। इसकी विधि को पहले ठीक से समझ लें। दाएं हाथ के अंगूठे से दायीं नासिका बन्द करते हुए बायीं नासिका से सर्वप्रथम श्वास बाहर निकालते हैं। अब बायीं नासिका से ही श्वास भरते हैं, अनामिका अंगुली से बायीं नासिका बन्द करते हुए दायीं नासिका से अंगूठे को हटाकर श्वास बाहर करते हैं। अब दायीं नासिका से श्वास भरकर अंगूठे से दायीं नासिका बन्द करते हुए बायीं नासिका से अनामिका को हटाकर श्वास बाहर करते हैं यह अनुलोम विलोम की एक आवृत्ति है। इस क्रिया को आंखें बन्द रखते हुए शांत मन से दोहराते जाते हैं। इसमें विशेष बात यह है कि जितनी गिनती व गति से श्वास भरते हैं, उसी गिनती व गति से दूसरी नासिका से श्वास बाहर करते हैं। इसे धीरे-धीरे करते हैं ताकि आपको स्वयं भी श्वास भरने व छोड़ने की आवाज न आए। यह इतनी सरल विधि है कि इसे छोटे बच्चे से लेकर 90-100 वर्ष की आयु के लोग भी आराम से कर सकते हैं। वैसे तो अनुलोम विलोम खुली हवा में बैठकर आसन बिछाकर पद्मासन व सुखासन में बैठकर करना ही सर्वोत्तम है, परन्तु जो लोग विस्तर के साथ लगे हुए हैं, वे लेटे लेटे भी कर सकते हैं, कुर्सी पर बैठकर भी कर सकते हैं, परन्तु रीढ़ गर्दन सीधी रखते हुए। अनुलोम विलोम की कई और भी विधियां हैं जिनमें श्वास को रोका भी जाता है, श्वास भरने व छोड़ने की गति में अन्तर भी होता है, परन्तु सभी लोग उन्हें नहीं कर सकते। इसीलिए इस सरल विधि से अनुलोम विलोम करना सभी के लिए आसान है। अनुलोग विलोम को हम असानी से ऐसे समक्ष सकते है - सबसे पहले किसी अनुकूल और हवादार जगह पर पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएँ और इसके बाद अपने दाहिने नासिकाछिद्र को बंद कर लें और बाएँ छिद्र से साँस अन्दर की ओर भरें। फिर वाम नासिका छिद्र को अपनी अनामिका और कनिष्ठा अंगुली से बंद करके दाहिने छिद्र से साँस बाहर छोड़ दें। अब साँस दाहिनी नासिका से पुनः लें,और इसे छोड़े वाम छिद्र से,यह प्रक्रिया दोहराते जाएँ। साँसों को धीरे-धीरे आराम से 8 की गिनती में छोड़ें। शुरुआत में इसे 3 मिनट से ज्यादा न करें पर अभ्यास के साथ इसे 10 मिनट तक किया जा सकता है। इसे सुबह-सुबह खुली हवा में और योग प्रशिक्षक के निर्देश में किया जाए तो बेहतर है। ध्‍यान देने वाली बात यह है कि एनीमिया से पीड़ित रोगी इसे बिना उचित सलाह के न करें और साँस को सहजता से छोड़े व ग्रहण करें,ध्यान रखें जल्दबाजी में या तेजी से साँस लेने छोड़ने से कोई फायदा नहीं होगा।

अनुलोम विलोम का महत्व
हमारे शरीर में 72864 सूक्ष्म नस नाडि़यों का जाल पफैला हुआ है, जिनके द्वारा प्राण शक्ति का संचार पूरे शरीर में होता है। इनमें तीन प्रमुख नाडि़यां है - सूर्य (पिंगला) नाड़ी, चन्द्र (ईड़ा) नाड़ी और सुष्मना नाड़ी। ये तीनों नाडि़यां रीढ़ के सबसे निचले भाग से आरम्भ होती हैं। सूर्य नाड़ी दायीं ओर से आरम्भ होकर सुष्मना के इर्द-गिर्द घूमती हुई दायीं नासिका पर आती है। चन्द्र नाड़ी बायीं ओर से आरम्भ होकर सुष्मना के इर्द-गिर्द घूमती हुई बायीं नासिका पर आती है। अर्थात् सुष्मना नाड़ी तो सीधी है, परन्तु शेष दोनों नाडि़या टेढ़ी मेढ़ी हैं। सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी एक दूसरे की विपरीत दिशा में घूमती हैं और पांच स्‍थानों पर एक दूसरे को क्रास करती हैं। जहां-जहां ये मिलती हैं, वहीं पर चक्र है - मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,  मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र  और आज्ञा चक्र। सातवां चक्र है सहस्रार चक्र जहां केवल सुष्मना नाड़ी जाती है। शरीर की सभी 72864 सूक्ष्म नाडि़यां इन्हीं चक्रों के साथ जुड़ी हुई हैं। ये तीनों नाडि़यां हमारी स्नायु प्रणाली का आधार हैं।

स्नायु प्रणाली के दो भाग हैं - मस्तिष्क व रीढ़। इन दोनों को जोड़ने के लिए गर्दन में है  Medulla Oblongata रीढ़ में 33 गोटियां होती हैं। इनमें 31 जोड़ हैं - 16 जोड़ मस्तिष्क को संदेश देते हैं, जिन्हें अनुकम्पी स्नायु प्रणाली (Sympathetic Nervous System) कहते हैं और 15 जोड़ों द्वारा मस्तिष्क शरीर  को आदेश देता है। इसे सह अनुकायी प्रणाली (Para Sympathetic Nervous System) कहते है

जब हम अनुलोम विलोम करते हैं तो रीढ़ की सभी 33 गोटियां, 31 जोड़, Medulla Oblongata व मस्तिष्क प्रभावित होते हैं। इससे समूचे शरीर की प्रत्येक कोशिका तक आक्सीजन पहुंचती है तो पूरा शरीर स्वस्थ रहता है और कहीं भी कोई रोग नहीं होता है। अनुकम्पी व सह अनुकम्पी स्नायु प्रणालियां ठीक से काम करती है।

सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी का संतुलन ही हमें स्वास्थ्य प्रदान करता है, इससे शरीर का तापमान सदैव ठीक रहता है। अधिकांश लोगों को यह मालूम नहीं है कि ये दोनों नाडि़यां साथ-साथ नहीं चलतीं। एक घण्टा सूर्य नाड़ी चलती है और एक घण्टा चन्द्र नाड़ी। पूरे दिन में 12 घण्टे सूर्य नाड़ी चलती है और 12 घण्टे चन्द्र नाड़ी। जब हमें सर्दी जुकाम लग जाता है अथवा ज्वर हो जाता है व अन्य कोई भी रोग हो जाता है, तो यह सन्तुलन बिगड़ जाता है। सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी का सम चलने व रहने से ही हम स्वस्थ रहते है। जब हम रोगी हो जाते हैं, तो थोड़ी सी उत्तेजना से ही यह सन्तुलन बिगड़ जाता है। दोनों नासिकाओं की गति में अवरोध  उत्पन्न हो जाता है। अनुलोम विलोम से हम इस सन्तुलन को बनाए रखते हैं। केवल 15 मिनट सुबह और 15 मिनट सायं अनुलोम विलोम कर लेने से दिन भर के लिए हमारी सूर्य व चन्द्र नाड़ी सम भाव से चलती रहती है। और हम अनेकों रोगों से बच जाते हैं।

सूर्य नाड़ी मस्तिष्क के दाएं भाग को और चन्द्र नाड़ी मस्तिष्क के बाएं भाग को संचालित करती है। दायां मस्तिष्क हमें शांति प्रदान करता है, हमारी भावनाओं पर नियंत्राण रखता है, तनाव को दूर करता है। बायां मस्तिष्क हमें दैनिक कार्यों को सम्पन्न करने में सक्षम बनाता है। अनुलोम विलोम से मस्तिष्क के दाएं व बाएं भाग में संतुलन बना रहता है। तन, मन व बुद्धि का समन्वय होता है। इसीलिए यह मानसिक रोगों, क्रोध, ईष्‍या, द्वेष अवसाद, उच्च व निम्न रक्तचाप, माईग्रेन, सिर दर्द आदि से बचने का सर्वश्रेष्ठ व सुलभ साधन है। यहां तक कि अनुलोम विलोम से मस्तिष्क के अर्बुद (Tumour) से भी बचा जा सकता है। अनुलोम विलोम केवल रक्षात्मक नहीं है अपितु उपर्युक्त सभी रोगों को दूर भी करता है। वास्तव में अनुलोम विलोम से पूरी स्नायु प्रणाली व रीढ़ प्रभावित होती है।
शरीर में सभी रोगों को दूर करने में भी यह सक्षम है।

अनुलोम विलोम शरीर के सातों चक्रों को भी ठीक रखता है। जब हम बारी-बारी से दोनों नासिकाओं से गहरी लम्बी श्वास भरते हैं, तो पहले मूलाधार चक्र, पिफर स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र व सहस्रार चक्रों पर प्रभाव पड़ता है। इन सभी चक्रों में आक्सीजन व शुद्ध रक्त का संचार भरपूर होता है। जब हम गहरी लम्बी श्वास छोड़ते हैं, तो इन सभी चक्रों में से कार्बन डायक्सायड के रूप में सारी गन्दगी भी बाहर निकल जाती है। सातों चक्रों के शुद्ध होने से इनमें जुड़ी सभी प्राणिक नस नाडि़यां भी शुद्ध हो जाती हैं। उनमें कहीं भी कोई अवरोध नहीं रहता। नस-नाडि़यों व रक्त वाहिनियां लचीली बनी रहती है। हृदय भी स्वस्थ रहता है और समूचे शरीर में शक्ति का संचार होता है। इसीलिए इसे नाड़ी शोधन प्राणायाम भी कहते हैं। अनुलोम विलोम के निरन्तर अभ्यास से कुण्डलिनी जागरण भी होता है। सुष्मना नाड़ी जो मूलाधार में सुप्त रहती है, जागृत होती है और प्राण शक्ति को मूलाधार से सहस्रार तक ले जाती है। इसीलिए आध्यात्मिक उत्त्थान के लिए भी अनुलोम विलोम अनिवार्य है। हमारा शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल। जब तक इनका संतुलन बना रहता है, हम स्वस्थ रहते हैं। इनमें जरा सा भी असंतुलन होने से हम रोग ग्रस्त हो जाते हैं। हाथों की मुद्राओं द्वारा हम पांचो  तत्वों का संतुलन कर सकते हैं। यही कार्य अनुलोम विलोम भी करता है। जब अनुलोम विलोम द्वारा श्वास इन पांचो  चक्रों में पहुंचाते हैं, तो पाँचों तत्वों का संतुलन भी बनता है। मुद्रा चिकित्सा के साथ यदि अनुलोम विलोम भी जोड़ लें, तो आश्चर्यजनक लाभ होता है। इसलिए अनुलोम विलोम एक संजीवनी बूटी है -रामवाण है। इससे मस्तिष्क के दायें बायें भाग का समन्वय, पांचों तत्वों का संतुलन, सातों चक्रों का जागरण होता है, रक्त की शुद्ध होती है, शरीर की प्रत्येक कोशिका प्रभावित होती है तथा इससे शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है।

अनुलोम-विलोम से होने वाले लाभ– 
  • अनुलोम-विलोम प्राणायाम के अभ्यास से हम अतिरिक्त शुद्ध वायु भीतर लेते हैं और कार्बन डाईऑक्साइड यानी दूषित वायु बाहर निकाल देते हैं. इससे रक्त की शुद्धि होती है।  
  • शुद्ध रक्त हृदय के माध्यम से शरीर के सभी अंगों तक पहुँच जाता है और उन्हें पोषण प्रदान करता है।
  • फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ती है और प्राणशक्ति का स्तर बढ़ता है।
  • मस्तिष्क की विचार क्षमता गहरी होती है और एकाग्रता बढ़ती है और मानसिक तनाव का स्तर घटता है। इसलिए हृदय रोगी और जिनका रक्तचाप बढ़ा हुआ है और उन्हें अनुलोम-विलोम का अभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए।
  • अनुलोम-विलोम को 'नाड़ी शोधक प्राणायाम' भी कहा जाता है और इससे गठिया, जोड़ों का दर्द व सूजन आदि शिकायतें दूर होती हैं।
  • रोजाना अनुलोम-विलोम करने से फेफड़े शक्तिशाली बनते हैं और शरीर में वात, कफ, पित्त आदि के विकार दूर होते हैं।
  • अनुलोम-विलोम प्राणायाम त्रिदोष नाशक है,अर्थात वात-पित्त-कफ सभी दोषों का शमन करता है।
  • इसे ‘नाड़ी शोधक’ प्राणायाम है, क्योंकि इससे नाड़ियाँ सिद्ध होती है जिससे शरीर स्वस्थ और कान्तियुक्त हो जाता है।
  • अनुलोम विलोम करते समय जब हम शुद्ध हवा भीतर की ओर खींचते हैं तब हमारे रक्त से की दूषित और विषाक्त तत्वों को बाहर निकाल देती है।
  • नियमित रूप से यह प्राणायाम करने से,फेफड़े शक्तिशाली होते हैं और जुकाम और दमे की बीमारी से पूर्ण मुक्ति मिलती है।
  • यह मोटापे और उच्च-रक्तचाप से पीड़ित रोगियों के लिए लाभप्रद है। यह कोलेस्ट्राल को कम करने का सबसे कारगर तरीका है।
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