वाहन दुर्घटना के अन्तर्गत मुआवजा



सड़कों पर दिनों दिन बढ़ती भीड़ व बढ़ते हुए यातायात के कारण मोटर दुर्घटनाओ की संख्या में वृद्वि हो रही है। दुर्घटना की षिकार व्यक्ति को आर्थिक सहायता की आवश्यकता होती है। भारत देश कल्याणकारी देश होने के नाते इस प्रकार की सहायता देने के लिए वचनबद्व है। सबसे प्रमुख कार्य दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को प्रातिकार या हर्जाना दिलाना होता है। मोटर गाडि़यों से सम्बन्धित कानून को अधिक कल्याणकारी और व्यापक बनाने के लिए मोटरयान अधिनियम 1988 (59 ऑफ़ 1988) नया मोटरयान अधिनियम सड़क यातायात तकनीकी ज्ञान, व्यक्ति तथा माल की यातायात सहूलियत के बारे में व्याख्या करता है। इसमें मोटर दुर्घटनाओं के लिए प्रतिकार दिलाने की व्यवस्था है। इस कानून के अन्तर्गत मोटरयान का तात्पर्य सड़क पर चलने योग्य बनाया गया प्रत्येक वाहन जैसे ट्रक, बस, कार, स्कूटर, मोटर साईकिल, मोपेड़ व सड़क कूटने का इंजन इत्यादि से है। इनसे होने वाला प्रत्येक दुर्घटना मोटर दुर्घटना मानी जाती है और उसके लिए प्रतिकार दिलाया जाता है।

motor accident claim
motor accident claim

धारा 166 (ज्ञात मोटरयान से दुर्घटना जब गलती मोटर वाले की हो) : यदि दुर्घटना मोटर के स्वामी या चालाक की गलती से होती है तो उसके लिए प्रतिकर मांगने का आवेदन, उस इलाका के दुर्घटना दावा अधिकरण (मोटर दुर्घटना अध्यर्थना न्यायाधिकरण) जो कि जिला न्यायाधीश होता है को दिया जाता है वहां दुर्घटना होती है या जिस स्थान का आवेदक रहने वाला है या जहां प्रतिवादी रहता है उस अधिकरण के पास आवेदन आवेदक की इच्छानुसार स्थान का चयन करते हुए दायर किया जा सकता है। आवेदन घायल व्यक्ति स्वयं, विधिक प्रतिनिधि या एजेंट द्वारा दे सकता है। मृत्यु की दशा में मृतक का कोई विधिक प्रतिनिधि या उसका एजेंट आवेदन दे सकता है। जो छपे फार्म पर दिया जाता है। अगर छपा फार्म उपलब्ध न हो तो फार्म की नकल सादे कागज पर करके आवेदन दिया जा सकता है। एक आवेदन में मोटर के मालिक व चालक को तो पक्षकार बनाया ही जाता है बल्कि बीमा कम्पनी को भी पक्षकार बनाना चाहिए क्योंकि कोई भी मोटर गाड़ी बीमा करवाए बिना नहीं चलाई जा सकती। मोटरयान कर स्वामी इस बात के लिए आवद्ध है कि वह बीमा कम्पनी का नाम बताएं। दावा अधिकारी मुकद्दमें की सुनवाई करता है जो कि प्रायः संक्षिप्त होती है। दावा में यह साबित करना होता है कि:-

  1. दुर्घटना उस मोटर गाड़ी से हुई।
  2. मोटर वाले की गलती के कारण हुई
  3. दुर्घटना से क्या हानि हुई

यदि दुर्घटना से मृत्यु होती है तो दावेदारों को यह भी साबित करना होता है कि मृतक के दावेदारों को क्या लाभ होता था व क्या लाभ भविष्य में होने की आशा थी। इसके आधार पर प्रतिकर की राशि नियत की जाती है, सम्पति की हानि भी साबित करनी होगी व 6000 रूपये तक मुआवजा अधिकरण दे सकता है। अगर किसी वाहन की बीमा राशि में अतिरिक्त बढ़ौतरी बाबत असीमित नुक्सान की जिम्मेवारी जमा कराया गया हो तो उस सूरत में बीमा कम्पनी 6000 रूपये से अधिक रक़म की सम्पति नुकसान की भी भरपाई करने की जिम्मेवार होगी अन्यथा इससे अधिक की राशि के लिए दिवानी दावा करना आवश्यक है। यदि किसी व्यक्ति को दुर्घटना से चोट लगी है तो उसके इलाज पर होने वाल व्यय, काम न कर पाने के कारण होने वाली हानि, आदि के विषय में प्रतिकर देय है। यदि कोई गम्भीर चोट आती है जिसका स्थाई प्रभाव हो जैसे की कोई लंगड़ा या काना हो जाए तो उसे शेष जीवन, उससे होने वाली असुविधा व हानि का भी प्रतिकर देय होगा। राशि बीमा कम्पनी द्वारा ही चुकाई जाती है। परन्तु तात्पर्य यह नहीं कि वह मोटर वाले से वसूल नहीं की जा सकती है। राशि जितनी दिलाई जाए वह चाहे कम्पनी चाहे मालिक या फिर दोनों से ही दिलाई जा सकती है। यह भी हो सकता है कि मोटर चालक या स्वामी का दोष साबित न हो पाये। उस सूरत में चाहिए कि आवेदन में ही यह मांग भी की गई हो कि गलती न होने पर मिलने वाले प्रतिकर तो दिलाया ही जाए। इस प्रकार यदि मोटर वाले की गलती साबित हो तो पूरा, अगर न साबित हो तो नियम प्रतिकर मिल जायेगा।

मुआवजा लेने सम्बन्धित कार्यवाई : मोटर दुर्घटना की रिपोर्ट थाने में करनी चाहिए। रिर्पोट घायल व्यक्ति स्वयं या उसका कोई साथी लिखवा सकता है। रिपोर्ट में दुर्घटना का समय, स्थान, वाहन का नम्बर, दुर्घटना का कारण इत्यादि लिखवाने चाहिए। चोट के बारे में शीघ्रातिषीघ्र डाक्टरी जांच करवानी चाहिए। सम्पति हानि का विवरण भी देना चाहिए। गवाहों के नाम भी लिखवाने चाहिए। यदि बहुत घायल हुए हों तो प्रत्येक को अलग रिर्पोट लिखवाने की आवश्यकता नहीं, परन्तु यह देख लेना चाहिए कि रिर्पोट में पूरी बात आ गई है या नहीं ज्यादा घायल होने पर रिर्पोट अस्पताल में पुहंचने के बाद भी लिखवाई जा सकती है। डाक्टरी परीक्षा की नकल प्राप्त कर लेनी चाहिए और इलाज के कागज सावधानी से रख लेने चाहिए ताकि प्रतिकर लेते वक्त हानि साबित करने में सुविधा रहे।
मृत्यु होने की दशा में शव परीक्षा पुलिस करवाती है लेकिन दुर्घटना में लम्बी चोटों के कारण मृत्यु कुछ दिन बाद होती है तो भी शव परीक्षा की आवश्यकता होती है क्योंकि यह मृत्यु भी दुर्घटना में घायल होने के कारण ही मानी जाती है। पुलिस को की गई रिर्पोट को भी मोटर दुर्घटना अध्यर्थना न्यायाधिकरण हर्जाने के लिए स्वीकार कर सकती है।

धारा 173 के अधीन अपील : दावा अधिकरण के निर्णय से असन्तुष्ट कोई भी व्यक्ति निर्णय की तारीख के 90 दिन के भीतर उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है। उचित कारण बताए जाने पर, उच्च न्यायालय 90 दिन के अविध के बाद भी अपील की सुनवाई कर सकता है अगर प्रतिकर की रक़म 10000 रूपये से कम हो तो अपील नहीं की जा सकती है और अगर प्रतिकर की रक़म ज्यादा हो तो अपील करने से पहले 25000 रूपये या प्रतिकर का 50 प्रतिशत जो भी कम हो, उच्च न्यायालय में जमा करवाना पड़ता है।

अधिकरण द्वारा दिलाई गई रक़म प्राप्त करने की विधि :- यह रकम निर्णय के 30 दिन के अन्दर देय होती है अधिकरण द्वारा दिलाई गई रक़म की वसूली के लिए एक प्रमाण-पत्र जिला कलैक्टर के नाम भी प्राप्त किया जा सकता है। जिला कलैक्टर इस रक़म को मालगुजारी की बकाया रक़म की तरह-कुर्की गिरफतारी आदि से वसूल करवा सकता है। अन्यथा मोटर दुर्घटना अध्यर्थना न्यायाधिकरण खुद भी इजराए के जरिए मुआवजे की रक़म उत्तरवादियों से वसूल कर सकता है।

कानूनी सहातया कार्यक्रमों के अंतर्गत लोक अदालत द्वारा दुर्घटनाओं में प्रतिकर सम्बन्धी वादों के निर्णय की विधि : मोटर दुर्घटना के प्रतिकर सम्बन्धी वादों के लोक अदालतों में संधिकर्ताओं की मद्द से तय कराने का प्रयास किया जाता हैं जो आवेदक अपना निर्णय, लोक अदालत के माध्यम से करवाने के इच्छुक हैं वह छपे फार्म में दी गई सूचनाओं के साथ प्रार्थना-पत्र सम्बन्धित अधिकरण को दे सकता है जिसमें वह यह अनुरोध कर सकता है कि उसका निर्णय लोक अदालत के माध्यम से शीघ्र करवाया जाए। इस आवेदन पर मोटर मालिक व बीमा कम्पनी को सूचना भेज कर निष्चित समय पर बुलाया जाएगा व प्रतिकर के बारे समझौते द्वारा निर्णय करवाने की कोषिष की जाएगी। ऐसी दशा में बीमा कम्पनी या मालिक से आवेदक की धन राशि बिना किसी विलम्ब के दिलाने का प्रयास किया जायेगा। 

भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख



Share:

धारा 50 सी.आर.पी.सी. के अधीन हिरासत व जमानत सम्बन्धित अधिकार



समाज में न्याय व्यवस्था रखना राज्य सरकार का संवैधानिक तथा कानूनी कर्तव्य है। भारत का संविधान भारत के लोगों को समान अधिकार और जीवित रहने का अधिकार प्रदान करता है तथा संविधान के तहत लोगों का यह मूलभूत अधिकार है कि बिना किसी अभियोग के किसी भी व्यक्ति को सजा न दी जाए औरदोषी व्यक्ति को केवल उतनी ही सजा दी जाए जितनी का कानून में प्रावधान है। किसी ऐसे दोषी व्यक्ति को दो बार किसी एक विशेष अभियोग में सजा नहीं दी जा सकती है।
धारा 50 सी.आर.पी.सी. के अधीन हिरासत व जमानत सम्बन्धित अधिकार
धारा 50  सीआरपीसी के अधीन हिरासत व जमानत सम्बन्धित अधिकार
सामाजिक अव्यवस्था तथा अपराधिक व असामाजिक तत्वों से जनता की सुरक्षा के लिए पुलिस विभाग की रचना की गई है। पुलिस विभाग का मुख्य कर्तव्य जनता की सुरक्षा व सहयोग देना है परन्तु कई बार कानून प्रदत्त इन शक्तियों का पुलिस विभाग के कुछ कर्मियों द्वारा दुरूपयोग किया जाता है और कई बार जनता से पुलिस विभाग का अपना कर्तव्य पालन करने के लिए समुचित सहयोग प्राप्त नहीं होता। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि हर व्यक्ति यह जान सके कि उसके अधिकार और कर्तव्य मुख्यतः बन्दी बनाए जाने पर व जमानत करवाने सम्बन्धी क्या है।
पुलिस विभाग को बन्दी बनाने का अधिकार कानून प्रदत्त है परन्तु यह अधिकार असीमित नहीं है। कानून में यह व्यवस्था है कि समुचित कारण होने पर या अपराध जघन्न होने पर ही, पुलिस किसी व्यक्ति को बन्दी बना सकती है। मुख्यतः अपराध दो श्रेणियों में बांटे जा सकते है:-
  • संज्ञेय अपराध - इस प्रकार के अपराधों के लिए पुलिस बिना किसी वारंट के संदिगध अपराधी को गिरफ्तार कर सकती है। सामान्यतः गम्भीर अपराधों के लिए ही बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार है। गम्भीर या जघन्य अपराधों की श्रेणी में मुख्यतः निम्नलिखित अपराध आते हैंः-
    1. अगर वह हत्या, बलात्कार, अपहारण जैसे अपराधों का दोषी हो
    2. अगर उस पर चोरी-डकैती इत्यादि का अभियोग हो, या उसके पास चोरी का सामान इत्यादि बरामद हो।
    3. अगर वह इश्तहारशुदा भगोड़ा हो।
    4. अगर वह जेल से फरार हुआ हो।
    5. अगर व किसी भी सेना से भागा हुआ हो।
    6. गंभीर चोट पहुंचाना, बिना अधिकार प्रवेष करना, नाजायज शराब खरीद करना व रखना, इन्यादि भी संज्ञेय अपराध की परिभाषा में आते हैं।
  • असंज्ञेय अपराध इस प्रकार के अपराधों में छोटे-मोटे और व्यक्तिगत अपराध जैसे कि किसी पर बिना चोट पहुंचाए हमला करना, किसी की मान हानि करना या किसी को गाली गलौच देना गैर-कानूनी तौर पर दूसरी शादी करना आदि आते हैं। असंज्ञेय अपराध बारे जब पुलिस में सूचना दी जाती है, तो वैसी सूचना रोजनामचा में दर्ज की जाती है और सूचना देने वाला व्यक्ति पुलिस को बाध्य नहीं कर सकता कि वह प्रथम सूचना रिर्पोट (एफ0आई0आर0) दर्ज करें। इस प्रकार के असंज्ञेय अपराधों को पुलिस अनुवेषण या तहकीकात बिना इलाका मैजिस्ट्रेट से आदेश प्राप्त किए बिना नहीं कर सकता है।

गिरफ्तार होने पर अपराधी के अधिकार है कि उसे यह जानकारी मिलें :- 
  1. कि वह किस अपराध में हिरासत में लिया जा रहा है।
  2. अगर वह वारंट के आधार पर गिरफ्तार किया गया है तो वह उस वारंट को देखे और पढ़े।
  3. किसी वकील को बुलाकर सलाह ले सके।
  4. अदालत के समय 24 घंटे के भीतर पेश किया जाए।
  5. उसे यह जानकारी दी जाए कि वह जमानत ले सकता है कि नहीं।
  6. अगर अदालत द्वारा उसे पुलिस हिरासत में रखने का आदेश हो तो वह अपना डाक्टरी मुआयना किसी सरकारी अस्पलात से करवाए।
  7. उसे किसी ऐसे बयान को देने के लिए बाध्य न किया जाए जो अदालत में उसके अपने खिलाफ साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता हो।
  8. अगर 24 घंटों के दौरान उसके साथ कोई अत्याचार या जोर जबरदस्ती की गई तो वह इलाका मैजिस्ट्रेट को इस बारे में बताए व उचित आदेश प्राप्त कर सके।
  9. उच्चतम न्यायालय के दिषा निर्देषानुसार हथकड़ी लगाए जाने सम्बन्धी अधिकार उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्देष जारी किए गये हैं कि अपराधी को हथकड़ी सामान्यतः नहीं लगाई जाएगी बल्कि उचित कारणों पर ही लगाई जा सकती है जैसे (अपराधी द्वारा भागने की कोषिष या अपराधी के हिंसक होने की स्थिति या अन्य किसी ऐसे उचित कारण होने पर, व लिखित रूप से आदेश प्राप्त करने पर ही अपराधी को हथकड़ी लगाई जा सकती है।

जमानत के अधिकार को आधार मानकर, अपराधों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है:-
  1. धारा 436 सी0आर0पी0सी0 :- जमानत योग्य अपराध जिनमें जमानत प्राप्त करना अधिकार है। इस श्रेणी में आने वाले केसों में अपराधी जमानत करवाने का अधिकार रखता है और अगर वह मैजिस्ट्रेट या पुलिस द्वारा मांगी गई जमानत देता है तो उसे जमानत पर रिहा करना आवश्यक है।
  2. धारा 437 सी0आर0पी0सी0 :- बिना जमानत योग्य अपराध जिनमें जमानत देना या ना देना अदालत की इच्छा पर निर्भर करता है। इन अपराधों में जमानत सिर्फ अदालतों द्वारा दी जाती है और अदालत द्वारा अपराध की गम्भीरता, साक्ष्य को सुरिक्षत रखना इत्यादि बातों को ध्यान में रखते हुए, जमानत दरखास्त मंजूर या नामंजूर की जा सकती है।
महिला अपराधी के अधिकार कुछ अतिरिक्त विशेषाधिकार प्राप्त है :-
  1. महिला अपराधी को किसी महिला पुलिस की ही हिरासत में रखा जा सकता है।
  2. किसी महिला को किसी अपराध की पूछताछ के लिए सूर्यास्त के बाद या सूर्योदय से पहले किसी भी पुलिस स्टेशन व चौकी में नहीं बुलाया जा सकता औा पूछताछ के वक्त महिला आरक्षी का उपस्थित रहना आवश्यक है।
  3. किसी भी महिला अपराधी की डाक्टरी जांच महिला डाक्टर द्वारा ही करवाई जा सकती है।
  4. किसी गिरफतार महिला की तलाशी केवल महिला ही ले सकती है।
  5. घर की तलाशी लेते वक्त महिला को अधिकार है कि वह तलाशी लेने वाली महिला अधिकारी/अधिकारी उस महिला को घर से बाहर आने का समय दें।
धारा 53-54 सी0आर0पी0सी0 के अधीन अपराधी की डाक्टरी जांच
पुलिस अधिकारी अदालत में दरखास्त देकर अपराधी का डाक्टरी मुआयना करवा सकता है ताकि उस डाक्टरी सर्टीफिकेट को वह साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल कर सके। जैसे बलात्कार के अपराध में वह शराब पीने का साक्ष्य प्राप्त करने के लिए भी डाक्टरी जांच का आदेश अदालत से हासिल कर सकता है।
अपराधी स्वयं भी अपनी डाक्टरी जांच की लिए अदालत को प्रार्थना पत्र दे सकता है। ताकि यह साबित कर सके कि उस पर पुलिस द्वारा जयादती या मार-पीट की गई है। बलात्कार इत्यादि अपराधों की षिकार महिलाएं अपनी डाक्टरी जांच करवाने मे पुलिस से आमतौर पर सहयोग नहीं करती। उन्हें ऐसी जांच के लिए बाध्य तो नहीं किया जा सकता लेकिन परिणामस्वरूप आवश्यक साक्ष्य की कमी रह जाने के कारण अपराधी कानून के षिकंजे से छूटने में सफल हो जाता है और समाज में असामाजिक तत्वों को बढ़ावा मिलता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पुलिस को जनता का सम्पूर्ण सहयोग प्राप्त हो।

धारा 438 सी0आर0पी0सी0 के अधीन अग्रिम जमानत
गैर जमानती अपराधों मे अग्रिम जमानत का भी प्रावधान है। इस कानून की धारा के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति जिसके विरूद्ध गैर जमानती अपराध का मुकदमा दर्ज किया गया हो सेशन अदालत या उच्च न्यायालय में अग्रिम जमानत करवाने हेतू प्रार्थना-पत्र दे सकता है। अदालत मुकद्दमें के विभिन्न पहलुओं को देखते हुए, शर्तो पर या बिना शर्त के अग्रिम जमानत मन्जूर या नामन्जूर कर सकती है।
अगर कोई अपराधी स्वयं वकील का खर्च वहन करने में असमर्थ है तो उसे सरकारी खर्चे पर वकील अदालत द्वारा दिलाया जा सकता है। बल्कि अदालत स्वयं भी इस बात के लिए बाध्य है कि अगर किसी अपराधी के पास वकील न हो तो स्वयं उसे सरकारी खर्चे पर वकील देने की आज्ञा दें।

जमानत
इस शब्द का अभिप्राय यह है कि जहाँ कोई व्यक्ति किसी फौजदारी मुकद्दमें में अभियुक्त हो और अदालत उसके केस की सुनवाई के दौरान उसे जेल में बन्द रखने के बजाय उसे ‘‘जमानत’’ पर छोडे़ जाने के आदेश देती है तो उस सूरत में जो व्यक्ति उस अभियुक्त की उस अदालत में समय-समय पर हाजिर रहने की जिम्मेदारी लेता है, वह व्यक्ति उस अभियुक्त का जमानती कहलाता है और अगर वह व्यक्ति इस जिम्मेदार को निभाने में असफल रहता है तो वह अपने द्धारा ज़मानतनामें में लिखी रक्म (या उससे कम रक्म) अदालत के आदेश अनुसार देने का बाध्य रहता है। जब तक अभियुक्त या उसके ज़मानती पर अदालत द्वारा कोई जुर्माना अभियुक्त की किसी गैर हाजरी बारे नहीं लगाया जाता तब तक कोई भी रक्म दोषी या उसके जमानती द्वारा किसी भी व्यक्ति या अधिकारी को देने की कोई जरूरत न है। जब कभी ऐसी कोई रक्म कोई अदा करता है तो वह उस अदायगी की सरकारी रसीद पाने का हकदार है।

विधि और कानून पर आधारित अन्य लेख


Share:

जानिए क्या होती है सीआरपीसी की धारा-144



 दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 
धारा 144 क्या है और ये कब लागू की जाती है?
दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 शांति व्यवस्था कायम करने के लिए लगाई जाती है। इस धारा को लागू करने के लिए जिला मजिस्ट्रेट द्वारा एक नोटिफिकेशन जारी की जाती है और जिस भी स्थान के लिए यह धारा-144 लगाई जाती है, उस स्थान पर पांच या उससे ज्यादा लोग इकट्ठे नहीं हो सकते हैं। इस धारा से उस स्थान पर हथियारों के लाने ले जाने पर भी रोक लगा दी जाती है, जो भी व्यक्ति इस धारा का पालन नहीं करता है तो फिर पुलिस उस व्यक्ति को धारा-107 या फिर धारा-151 के तहत गिरफ्तार भी कर सकती है। इस प्रकार के मामलों में एक साल की कैद भी हो सकती है। वैसे यह एक जमानती अपराध है, इसमें जमात हो जाती है।


धारा 144 :- न्यूसेंस या आशंकित खतरे के अर्जेंट मामलों में आदेश जारी करने की शक्ति :-
  1. उन मामलों में जिनमें जिला मजिस्ट्रेट या उप खंड मजिस्ट्रेट राज्य सरकार द्वारा इस निमित विशेषतया सशक्त किये गये किसी अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट की राय में इस धारा के अधीन कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है और तुरंत निवारण या शीघ्र उपचार करना वांछनीय है, वह मजिस्ट्रेट ऐसे लिखित आदेश द्वारा जिसमें इस मामले के तात्विक तथ्यों का कथन होगा और जिसकी तामील धारा 134 द्वारा उपबंधित रीति से कराई जाएगी, किसी व्यक्ति को कार्य विशेष न करने या अपने कब्जे की या अपने प्रबंधाधीन किसी विशिष्ट सम्पति की कोई विशिष्ट व्यवस्था करने का निर्देश उस दशा में दे सकता है, जिसमें मजिस्ट्रेट ऐसा समझता है कि ऐसे निर्देश से यह सम्भाव्य है या ऐसे निर्देश की यह प्रवृति है कि विधिपूर्वक नियोजित ऐसे व्यक्ति को बाधा, क्षोभ या क्षति का मानव जीवन, स्वास्थ्य या क्षोभ के खतरे का या लोक प्रशान्ति विक्षुब्ध होने का, या बलवे या दंगे का निवारण हो जाएगा।
  2. इस धारा के अधीन, आदेश, आपात की दशाओं में या उन दशाओं में जब परिस्थितियाँ ऐसी है कि उस व्यक्ति पर, जिसके विरुद्ध वह आदेश निर्दिष्ट है, सूचना की तामील सम्यक समय में करने की गुंजाइश न हो, एक पक्षीय रुप में पारित किया जा सकता है।
  3. इस धारा के अधीन आदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति को, या किसी विशेष स्थान या क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों को अथवा आम जनता को, जब वे, किसी विशेष स्थान या क्षेत्र में जाते रहते हैं या जाऐं, निर्दिष्ट किया जा सकता है।
  4. इस धारा के अधीन कोई आदेश उस आदेश के दिए जाने की तारीख से ही दो मास से आगे प्रवृत्त न रहेगा-परन्तु यदि राज्य सरकार मानव जीवन, या स्वास्थ्य या क्षेत्र को खतरे का निवारण करने के लिए अथवा बलवे या किसी दंगे का निवारण करने के लिए ऐसा करना आवश्यक समझती है तो वह अधिसूचना द्वारा यह निदेश दे सकती है कि मजिस्ट्रेट द्वारा इस धारा के अधीन किया गया कोई आदेश उतनी अतिरिक्त अवधि के लिए, जितनी वह उक्त अधिसूचना में विनिर्दिष्ट करें प्रवृत्त रहेगा, किन्तु वह अतिक्ति अवधि उस तारीख से छः मास से अधिक की न होगी, जिसको मजिस्ट्रेट द्वारा दिया गया आदेश ऐसे निदेश के अभाव में समाप्त हो गया होता।
  5. कोई मजिस्ट्रेट या तो स्वप्रेरणा से या किसी व्यथित व्यक्ति के आवेदन पर किसी ऐसे आदेश को विखंडित या परिवर्तित कर सकता है, जो स्वयं उसने या उसके अधीनस्थ किसी मजिस्ट्रेट ने या उसके पद पूर्ववर्ती ने इस धारा के अधीन दिया है।
  6. राज्य सरकार उपधारा (4) के परन्तुक के अधीन अपने द्वारा दिए गये किसी आदेश को या तो स्वप्रेरणा से या किसी व्यथित व्यक्ति के आवेदन पर विखंडित या परिवर्तित कर सकती है।
  7. जहाँ उपधारा (5) या उपधारा (6) के अधीन आवेदन प्राप्त होता है वहाँ यथास्थिति मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार आवेदक को या तो स्वयं या प्लीडर द्वारा उसके समक्ष हाजिर होने और आदेश के विरुद्ध कारण दर्शित करने का शीध्र अवसर देगी और यदि यथास्थिति मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार आवेदन को पूर्णतः या अंशतः नामंजूर कर दे तो वह ऐसा करने के अपने कारणों को लेखबद्ध करेगी।
      1. धारा 144 ‘क’ - आयुध सहित जुलूस या सामूहिक कवायद या सामूहिक प्रशिक्षण के प्रतिषेध की शक्ति -
        (1) जिला मजिस्ट्रेट, जब भी वह लोक शांति या लोक सुरक्षा या लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक समझता है, लोक सूचना या आदेश द्वारा अपनी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर किसी जुलूस में आयुध ले जाने या किसी लोक स्थान में आयुध सहित कोई सामूहिक कवायद या सामूहिक प्रशिक्षण व्यवस्थित या आयोजित करने या उसमें भाग लेने का प्रतिषेध कर सकता है।
        (2) इस धारा के अधीन जारी की गई लोक सूचना या किया गया आदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति या किसी समुदाय, दल या संगठन के व्यक्तियों के प्रति, सम्बोधित हो सकती या हो सकता हैं।
        (3) इस धारा के अधीन जारी की गई लोक सूचना या किया गया आदेश जारी किए जाने या बनाए जाने की तारीख से तीन मास से अधिक के लिए, प्रवृत्त नहीं रहेगी या रहेगा।
        (4) राज्य सरकार, यदि वह लोक शांति या लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक समझती है, तो अधिसूचना द्वारा, निदेश दे सकती है कि इस धारा के अधीन जिला मजिस्ट्रेट द्वारा निकाली गई लोक सूचना या किया गया आदेश, उस तारीख से जिसका जिला मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसी लोक सूचना निकाली गई थी या आदेश किया गया था, ऐसे निर्देश के न होने की दशा में समाप्त हो जाती या हो जाता, ऐसी अतिरिक्त अवधि के लिए लागू रहेगी या रहेगा जो उक्त अधिसूचना में विनिर्दिष्ट की जाए।
        (5) राज्य सरकार, साधारण या विशेष आदेश द्वारा, उपधारा (4) के अधीन अपनी शक्तियां जिला मजिस्ट्रेट को, ऐसे नियंत्रणों और निदेशों के अधीन रहते हुए जिन्हें अधिरोपित करना वह ठीक समझे, प्रत्यायोजित कर सकती है। स्पष्टीकरण - ‘आयुध’ शब्द का वही अर्थ है जो उसका भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 153कक में है।’’
      2. धारा 144 का क्षेत्र (SCOPE) - यह धारा केवल आशंकित खतरे या इमरजेंसी को ही आकर्षित करताहै। शक्ति का उपयोग, Obstruction, Annoyance, Injury को रोकने के लिए उस व्यक्ति के लिए किया जाएगा जो कानूनन रुप से कार्यरत है या मानव जीवन को खतरा हो या स्वास्थ्य, सुरक्षा आम जनता की शांति, स्थिरता, दंगा या बलवा (Affray) का खतरा हो। बाबूलाल बनाम महाराष्ट्र सरकार, ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884, गुलाम बनाम इब्राहिम ए.आई.आर. 1978 एस.सी.422, 
      3. निषेध का तरीका:- इस धारा के अंतर्गत व्यवधान निषेध निम्न प्रकार से किया जा सकता हैः-
        1. किसी व्यक्ति विशेष के कोई कार्य नहीं करने हेतु निर्देश देकर
        2. किसी व्यक्ति को किसी सम्पत्ति विशेष के लिए कोई आदेश देकर जो सम्पत्ति उसके स्वामित्व या नियंत्रण में है।
      4. धारा 144 के कार्यवाही की प्रकृति :- कार्यवाही की प्रकृति:- धारा 144 के अधीन किया गया आदेश प्रशासनिक व कार्यपालक होता है न कि न्यायिक या न्यायिककल्प। अतः अनु. 32 के अंतर्गत ऐसा आदेश रिट-अधिकारिता में परीक्षणीय है। गुलाम अब्बास व अन्य बनाम उ.प्र. राज्य, व अन्य (1980) 3 उम.नि.प. 467, 1981 क्रि.ला.ज. 1835 धारा 144 के अधीन आदेश पारित किया गया था। इसके प्रकृति के बारे में प्रश्न था कि क्या वह अस्थाई प्रकृति का था धारित किया गया कि अधिसूचना की पुनरावृत्ति करके उसे स्थायी या अर्धस्थायी के रुप में आरोपित नहीं किया जा सकता। एम.एस. एसोसिएट्स बनाम पुलिस कमिश्नर, 1997 क्रि.ला.ज.377 
      5. आदेश की प्रकृति:- धारा 144 का आदेश न्यायिक कल्प प्रकृति का नहीं है। यह कार्यपालक या प्रशासनिक प्रकृति का है, जिसे लोक व्यवस्था एवं शान्ति की रक्षा के लिए आवश्यक जानकर दिया जाता है। इसी कारण दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के लागू हो जाने के बाद धारा 144 के अधीन आदेश जारी करने की अधिकारिता केवल कार्यपालक मजिस्ट्रेटों को दी गई है, न्यायिक मजिस्ट्रेट को नहीं। गुलाम अब्बास बनाम उ.प्र. राज्य 1981 एस.सी. 2198, 1981 क्रि.ला.ज. 1835
        अतः संहिता 1973 के लागू हो जाने के बाद धारा 144 के आदेश को न्यायिक वाली उदाहरणें अब विधि की दृष्टि में विधिमान्य नहीं रही है। यह आदेश आपात प्रकृति का है। मधुलिमए बनाम एस.डी.एम. मुंगेर, ए.आई.आर. 1971 एस.सी. 2486, आचार्य जगदीश्वर का मामला 1983 क्रि.ला.ज. 1872(एस.सी.)
        कार्यपालक कर्तव्यों के सम्पादन में पारित धारा 144 दं.प्र.सं. के आदेश को एक कार्यपालक आदेश मानना होगा, जिसमें कोई वाद अवधारित नहीं होता। यह तो केवल ऐसा आदेश है, जो लोक शान्ति के बनाए रखने के लिए किया जाता है। अब यह सुस्थापित है कि भारत के संविधान अनुच्छेद 19 में गारंटीशुदा 6 स्वतंत्रताऐं आत्यांतिक (Absolute) नहीं है, किन्तु उन पर भी युक्तियुक्त परिसीमाऐं अधिरोपित की जा सकती है। व्यापार संबंधी स्वतंत्रता पर भी सार्वजनिक लोकहित में कुछ परिसीमाऐं (Restriction) लगाई जा सकती है। बाल भारती स्कूल बनाम जिला मजिस्ट्रेट 1990 क्रि.ला.ज. 422, 1989 ए.एल.जे. 139 
      6. धारा लागू करने की शर्त (Condition for Application of Section) :-वह सूचना जो दंडाधिकारी को संतुष्ट करता है कि सूचना का विषय अति आवश्यक है, तुरंत का रोक अथवा तीव्र उपाय आवश्यक है, संभावित खतरा टालने के लिए यही एक आधार है जिस पर दंडाधिकारी आगे कार्य कर सकते हैं। इम्परर बनाम तुरब ए.आई.आर. 1942 अवध 39, बाबूलाल बनाम महाराष्ट्र सरकार ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884 
      7. सूचना प्राप्ति का प्रकार :-सूचना मौखिक या पुलिस प्रतिवेदन पर आधारित हो सकती है।
      8. प्रारुप एवं आदेश का सार(Forms & Contents of Order):- आदेश निश्चित रुप से लिखित होना चाहिए। पीताम्बर 17 डब्लू. आर. 57 इस धारा के अधीन का आदेश संक्षिप्त सरल, पूर्ण रुप से स्पष्ट तथा निश्चित होना चाहिए ताकि उसे लागू करने में आसानी हो। भगवती ए.आई.आर. 1940 इला. 465 ए.आई.आर. 1935 बाम्बे 33
        आदेश में वस्तुमूलक तथ्य अवश्य होना चाहिए जिसे दंडाधिकारी विवाद का तथ्य समझते हैं तथा जिस आधार पर उनका आदेश टिका है। कारुँ लाल - 32 सी. कल. 935 
      9. आदेश की विषय-वस्तु :- धारा 144 के अधीन पारित आदेश लिखित अंतिम व निश्चित शर्तो का होना चाहिए। उपधाराऐं (1) व (2) में ऐसे सशर्त आदेश के पारित करने का अनुध्यात अथवा परिकल्पना नहीं है, जो वाद में अन्तिम किया जाए। भोला गिरी का मामला 36 क्रि.लॉ.ज.1955 पृ.547आदेश में ऐसे सारवान व ”तात्विक (मेटेरियल) तथ्यों के कथन“ का समावेश होना आवश्यक है जो मजिस्ट्रेट की राय में मामले के तथ्य हैं तथा कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है। बाबूलाल पराठे बनाम महाराष्ट्र राज्य ए.आई.आर. 1961 एस.सी.884, ए.आई.आर. 1971 एस.सी. 2486, 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747
        यदि आदेश में वास्तविक तथ्य नहीं दिए गये हैं तो आदेश अपास्त हो जाएगा। गोपाल प्रसाद बनाम सिक्किम राज्य, 1981, क्रि.लॉ.ज. 60 
      10. कौन मजिस्ट्रेट कार्यवाही कर सकता है:- धारा 144 की उपधारा (1) के अधीन आदेश करने की अधिकारिता केवल जिला मजिस्ट्रेट, उपखंड मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त सशक्त किए गये किसी अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट को है। अ.च.चैधरी बनाम अनिरुद्ध रविदास 1983 क्रि.लॉ.ज. (एन.ओ.सी.) 80 गोहाटी 
      11. दंडाधिकारी की अधीनस्थता:- धारा 144 के अधीन कार्यरत दंडाधिकारी उच्च न्यायालय तथा सत्र न्यायाधीश के अधीनस्थ होते हैं रिविजन के उद्देश्य के लिए। यशवंत सिंह बनाम प्रीतम वगैरह ए.आई.आर. 1967 पंजा.482, 1967 क्रि.लॉ.ज. 1630 
      12. दंडाधिकारी आदेश पारित कर सकते हैं:-1. हथियार ले जाने से रोकने का। गर्ग बनाम सुपरिटेंडेंट 1970 (3) एस.सी.सी. 747
        2. सामूहिक रुप से जमा होने से रोक सकता है। राम मनोहर बनाम स्टेट ए.आई.आर. 1968 इला. 100
        3. जूलूस निकालने पर रोक लगा सकते हैं। बाबूलाल बनाम महा. ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884
        4. किसी सभा को रोक सकते हैं। गर्ग बनाम सुपरिटेंडेंट 1970(3) 3 सी.सी. 747
        5. किसी खास व्र्यिक्त को किसी खास इलाके अथवा राज्य में प्रवेश पर रोक लगा सकते हैं। डांगे बनाम राज्य, 1970(3) एस.सी.सी. 218
        6. किसी व्यक्ति को यह निदेश दे सकते हैं कि वह किसी खास और अपनी संबंधित वस्तु से अलग रहे।
      13. आदेश आत्यंतिक (Absolute) होना चाहिए :- इस धारा के अधीन का आदेश आत्यंतिक होना चाहिए न कि सशर्त। इम्परर बनाम भोला गिरी ए.आई.आर. 1939 कल. 259, 63 क्रि.लॉ.ज. 1374
      14. आदेश सकारण (Speaking) अवश्य होना चाहिए :- धारा 144 की उपधारा (2) कार्यपालक दंडाधिकारी के तरफ से न्यायिक मस्तिष्क की ओर अनुबंधित करता है। कार्यपालक दंडाधिकारी से यह आशा की जाती है कि वे एक सकारण आदेश जारी करें जिसमें स्पष्ट रुप से यह वर्णित करें कि इमरजेंसी की स्थिति वर्तमान है जिसके कारण वे असाधारण अधिकार क्षेत्र प्राप्त कर एक पक्षीय आदेश विरोधी पक्ष के पीछे कार्यवाही के तरफ पारित करने में सक्षम हुए हैं। विष्णु पदखरा बनाम पं. बंगाल. सरकार 1995 कल. क्रि.एल.आर. 25 (कल.)
        एकपक्षीय आदेश पारित करने के पूर्व दंडाधिकारी को अपना कारण लिखना चाहिए , विचारित किया गया तथा यह इमरजेंसी का समय पाया गया। इसकी असफलता में एकपक्षीय आदेश अनुमान्य नहीं होगा। बी. लिंगारेडी बनाम बी.हुसैन 1979 क्रि.लॉ.ज. 1147 आं.प्र. 
      15. साक्ष्य ग्रहण करने का प्रावधान :- इस प्रक्रिया में साक्ष्य ग्रहण करना आवश्यक नहीं है। 1971 एस.सी.(2) 486, 1977 ए.सी.सी. 315 
      16. आदेश किसको संबोधित किया जाय:- धारा 144 की उपधारा (3) में विनिर्दिष्ट रुप से यह स्पष्ट किया गया कि इस धारा के अधीन आदेश किसी विशिष्ट व्यक्ति को अथवा आम जनता को जब वे किसी विशेष क्षेत्र में जाते रहते हैं या जाऐं, निर्दिष्ट किया जा सकता है। 1978 क्रि.लॉ.ज. 496, ए.आई.आर. 1978 एस.सी.सी. 422 
      17. धारा 144 व पक्षकारों के कब्जे व हक का फैसला :- मजिस्ट्रेट को धारा 144 के अधीन कार्यवाही करने के लिए तात्पर्यिक होते हुए पक्षकारों के कब्जे अथवा हक-विषयक प्रश्नों को तय करने की अधिकारिता नहीं है। 53 क्रि.लॉ.ज. 1952, 1981 क्रि.लॉ.ज. 1835 
      18. आदेश का साक्ष्यिक मूल्य :- धारा 144 का आदेश प्रशान्ति भंग के निवारण हेतु एक अस्थायी कदम है। इसका कब्जा के प्रश्न के बारे में कोई साक्ष्यिक मूल्य नहीं है। किन्तु निम्न उदाहरण में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यह सही है कि धारा 144 का आदेश कब्जे का साक्ष्य नहीं है, किन्तु इस सीमित प्रयोजन के लिए कि कार्यवाही में पक्षकारों के दावे क्या थे, देखने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है। राम प्र. बनाम शंकर प्रसाद, 52 क्रि.ला.ज. 778 (पटना), भूपत कुम्हार बनाम बिहार राज्य 1975 क्रि.लॉ.ज. 1405 (पटना) 
      19. आदेश की अवधि :- दो मास की अधिकतम अवधि- धारा 144 की उपधारा (4) के अधीन मजिस्ट्रेट का आदेश केवल दो माह तक लागू रह सकता है, इससे अधिक नहीं। जब तक कि इस अवधि में राज्य सरकार द्वारा मानव जीवन, स्वास्थ्य या क्षेम को खतरे का निवारण करने के लिए अथवा बलवे को या दंगेका निवारण करने के लिए इस अवधि में वृद्धि नहीं की जाती। रामदास बनाम नगर मजिस्ट्रेट 1960 क्रि.लॉ.ज.865 (2) 1984 एस.सी.सी. (क्रि.), माधव सिंह बनाम इम्परर ए.आई.आर. 1982 पटना 331, 
      20. अवधि की गणना :- साठ दिनों की गिनती कैसे की जाएगी इसका प्रारंभ उसी दिन से होता है जिस दिन धारा 144 के अधीन की कार्यवाही के अधीन रोक आदेश पारित किया जाता है। 1983 बी.एल.जे. 289 
      21. राज्य सरकार द्वारा अवधि में वृद्धि :- राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा मानव-जीवन एवं स्वास्थ्य या क्षेम को खतरे अथवा बलवे या दंगे का निवारण करने के लिए आवश्यक होने पर अधिसूचना द्वारा 6 मास की अवधि में, उस तारीख से जिसको मजिस्ट्रेट द्वारा किया गया है आदेश ऐसे निदेश के अभाव में समाप्त हो गया हो, वृद्धि कर सकता है। किन्तु राज्य सरकार को ऐसे आदेश को जो प्रवर्तन में नहीं है, धारा 144 के अधीन अवधि बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। यह उपधारा आज्ञापक है। चानन सिंह बनाम इम्परर 42 क्रि.ला.ज. 1941 
      22. पुनरीक्षण :- उचित मामले में आवश्यकता पड़ने पर उच्च न्यायालय धारा 401 के अधीन तथा सेशन न्यायालय धारा 399 के अधीन धारा 144 के मामले में हस्तक्षेप कर सकता है। उच्च न्यायालय इस धारा के अधीन वैधता पर विचार तो करती है, साथ ही ऐसा आदेश उचित है अथवा नहीं, उसके आधार न्यायोचित है अथवा नहीं उस पर भी विचार किया जा सकता है। जिला परिषद इटावा बनाम के.सी. सक्सेना 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747 (इलाहाबाद) 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747
        रिविजन (Rivision):- इस धारा के अधीन आदेश से व्यथित व्यक्ति उच्च न्यायालय में जा सकते हैं या सेशन जज के यहाँ रिविजन (पुर्नविचार) के लिए जा सकते हैं। मधुलिमा बनाम एस.डी.एम. ए.आई.आर. 1971 एस.सी. 2486, 1971 क्रि.लॉ.ज 1720 बाबूलाल बनाम महा. सरकार ए.आई.आर. 1961 एस.सी. 884, जिला परिषद बनाम के.सी. सक्सेना 1977 क्रि.लॉ.ज. 1747 (इला.) 
      23. आदेश की अवज्ञाकारिता का परिणाम:- यदि कोई व्यक्ति धारा 144 के आदेश की अवज्ञा करता है तो वह धारा 188 आई.पी.सी. के अधीन दंड पाने के योग्य है। राजनारायण बनाम डी.एम; ए.आई.आर. 1956 इला. 481 
      24. परिवाद दायर करना आवश्यक:- धारा 144 के आदेश की अवज्ञा के लिए आदेश जारी करने वाला मजिस्ट्रेट भा.दं.सं. की धारा 188 में अभियुक्त को दंडित करने के लिए स्वयं सशक्त नहीं है। उसे या किसी ऐसे अन्य लोकसेवक को, जिसके वह प्रशासनिक तौर पर अधीनस्थ है, उसे दं.प्र.सं. की धारा 195 तथा धारा 340 के उपबंधानुसार लिखित परिवाद दाखिल करना होगा। सतीश बनाम राज्य 39 सी.डब्लू.एन1053, महेन्द्र बनाम राज्य ए.आई.आर. 1970 पृ. 162 
      25. धारा 144 को 145 दं.प्र.सं.में बदलना:- धारा 144 दं.प्र.सं. की कारवाई को धारा 145 दं.प्र.सं. में उसी अंतिम दिन की या पहले बदला जा सकता है जिस दिन धारा 144 के अधीन का निषेधात्मक आदेश की समय सीमा खत्म हो रही हो। हदु खान बनाम महादेव दास ए.आई.आर. 1968 उड़ी. 221, 1968 क्रि.लॉ.ज. 1623, 1976 क्रि.लॉ.ज. 649, 1975 बी.बी.सी.जे. 632, यदि धारा 145 दं.प्र.सं. की जरुरतें पूरी हो जाती है उस कारवाई में जो धारा 144 दं.प्र.सं. की लंबित कारवाई है तो कारवाई को धारा 145 दं.प्र.सं. की कारवाई में परिवत्र्तित किया जा सकता है। सुरेन्द्र मिश्रा बनाम वी. त्रिनाथ राव 1975 क्रि.लॉ.ज. 1850 उड़ीसा
        जब कारवाई में ऐसा परिवर्तन होता है तो दंडाधिकारी एक नई कारवाई प्रारंभ करते हैं। वीजेन्द्र राय बनाम मोहन राय 1978 क्रि.लॉ.ज. 306 पटना, राधा सहनी बनाम रामकांत झा 1978 पी.एल.जे.आर. 606, 1978 बी.एल.जे.आर. 187
      भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख


      Share: