“राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम” के उलट चलते अपने लोग



“राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम” मंत्र के प्रणेता श्री गुरूजी गोलवलकर को 19 फरवरी को उनकी जयंती पर शत् शत् नमन।

“राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम” पूज्य श्री गुरूजी का राष्‍ट्र को समर्पित यह मंत्र आज के समय में संघ और अनुषांगिक संगठनों के नीति-निर्देशकों द्वारा हृदय से अंगीकार किया जा रहा है या सिर्फ स्‍वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं के लिये ही उपदेश मात्र ही है।

संघ और अनुषांगिक संगठनों की परिपाटी हमेशा से यह सीख देती रही है कि “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा” अर्थात त्याग पूर्वक भोग करो। क्या आज के परिवेश में संघ और अनुषांगिक संगठनों के लोग जो कि जिम्मेदार संगठन और सरकारी पदों परिस्थिति है उनके द्वारा इन मंत्रों को आत्मसात किया जा रहा है?

कहा जाता है कि अच्छे समय में अर्जित लाभ का संकलन विपरीत काल की निधि होती है। आज के समय में जो निधियां राष्ट्र के लिये संकलित होनी चाहिये ताकि विपरीत काल में संगठन उसका सही समायोजन राष्ट्रहित में कर सके किंतु यह प्रक्रिया न स्थापित होकर सिर्फ स्‍वान्‍त: सुखाय की परियोजना का क्रियान्वयन होगा जिसमे व्यक्ति विशेष द्वारा अपने लिए कार्य किया जा रहा है।

कही न कही अपने संगठन में कुछ ऐसे दोष आ रहे है हम हम और परायों में उस समय अंतर करना भूल है। जब हम सत्ता में होते है तो सत्ता में लाने वाले शिवाजी और महाराणा प्रताप कार्यकर्ताओं को भूल जाते है और जयचंद और मीर जाफर जैसों को ज्यादा प्रासंगिक स्वीकार कर लेते है। उनकी व्यक्ति विशेष की चाटुकारिता के पुरस्कार स्वरूप सरकारी पदों से भी नवाज दिया जाता है किंतु ऐसे में समय में संगठन सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने वाला शिवाजी और महाराणा प्रताप जैसे कार्यकर्ताओं के बारे में भूल जाता है कि उनके घर में रोटी बन रही है या नहीं और शिवाजी और महाराणा प्रताप जैसे कार्यकर्ता तब याद आते है जब सत्ता काल बीत जाता है और चाटुकारिता करने वाले लोग फिर से लाभ पाने के लिए नये रैन बसेरा चुन लेते है।

ऐसे लोग विपरीत समय में अपनी विचारधारा के विपरीत ही नजर आएंगे और संगठन की स्थिति उस टिड्डा और चींटी की कहानी के टिड्डे की भांति होगी जो सुख के दिनों में ऐश किया और विपरीत काल में भूखे मर गया।


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हेमचन्द्र विक्रमादित्य - एक विस्मृत हिंदु सम्राट A Forgotten Hindu Emperor Maharaja Hemchandra Vikramaditya



हेमू का पूरा नाम सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य है। हेमू इतिहास के भुला दिए गए उन चुनिन्दा महानायकों में शामिल है जिन्होंने इतिहास का रुख पलट कर रख दिया और हेमू ने बिलकुल अनजान से घर में जन्म लेकर, हिंदुस्तान के तख़्त पर राज किया। हेमू अपार पराक्रम एवं लगातार अपराजित रहने की वजह से उसे विक्रमादित्य की उपाधि दी गयी। नि:संदेह हेमू अथवा सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य दिल्ली के सिंहासन पर बैठे अंतिम हिन्दू सम्राट थे। उन्होंने अति साधारण परिवार में जन्म लेकर भारत की स्वतंत्रता के लिए शानदार कार्य किया था। उन्होंने भारत को एक शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए अत्यंत साहसी तथा पराक्रमपूर्ण विजय प्राप्त की थीं। सम्राट हेमचन्द्र वह महान न्यायवादी थे जिन्होंने भारत का भविष्य बदलने के लिए मृत्युपर्यंत भरसक प्रयत्न किए।वे एक प्रतिभाशाली शासक, एक सफल सेनानायक, एक चतुर राजनीतिज्ञ तथा दूर-द्रष्टा कूटनीतिज्ञ थे। समस्त पठानों तथा तत्कालीन मुगल शासकों -बाबर तथा हुंमायूं के काल तक एक भी हिन्दू इतने ऊंचे पद पर नहीं पहुंचा था। हेमचन्द्र भारतीय इतिहास में सर्वश्रेष्ठ स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने विदेशी शासन के विरुद्ध देश के लिए अपना बलिदान दिया।
A Forgotten Hindu Emperor Maharaja Hemchandra Vikramaditya
हेमू का जन्म सन् 1501 में राजस्थान के अलवर जिले के मछेरी नामक एक गांव में रायपूर्णदास के यहां हुआ था। इनके पिता पुरोहिताई का कार्य करते थे किन्तु बाद में मुगलों के द्वारा पुरोहितो को परेशान करने की वजह से रेवारी (हरियाणा) में आ कर नमक का व्यवसाय करने लगे। 'हेमू' (हेमचन्द्र) की शिक्षा रिवाडी में आरम्भ हुई। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, फारसी, अरबी तथा गणित के अतिरिक्त घुड़सवारी में भी महारत हासिल की। समय के साथ साथ हेमू ने पिता के नये व्यवसाय में अपना योगदान देना शुरू किया। काफी कम उम्र से ही हेमू, शेर शाह सूरी के लश्कर को अनाज एवं पोटेशियम नाइट्रेट (गन पाउडर हेतु) उपलब्ध करने के व्यवसाय में पिताजी के साथ हो लिए थे। सन 1540 में शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हरा कर काबुल लौट जाने को विवश कर दिया था। हेमू ने उसी वक़्त रेवाड़ी में धातु से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नींव रखी, जो आज भी रेवाड़ी में ब्रास, कॉपर, स्टील के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में जारी है।| जब 22 मई, 1545 में शेरशाह सूरी की मृत्यु हुई, तब तक हेमू ने अपने प्रभाव का अच्छा खासा विस्तार कर लिया था। यही कारण है कि शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद जब उसका पुत्र इस्लामशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा तो उसने हेमू की योग्यता को पहचान कर उन्हें शंगाही बाजार अर्थात दिल्ली में 'बाजार अधीक्षक' नियुक्त किया। कुछ समय बाद बाजार अधीक्षक के साथ-साथ हेमू को आंतरिक सुरक्षा का मुख्य अधिकारी भी नियुक्त कर दिया और उनके पद को वजीर के पद के समान मान्यता दी।
हेमचन्द्र विक्रमादित्य - एक विस्मृत हिंदु सम्राट
1545 में इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद उसके 12 साल के पुत्र फ़िरोज़ शाह को उसी के चाचा के पुत्र आदिल शाह सूरी ने मार कर गद्दी हथिया ली। आदिल ने हेमू को अपना वजीर नियुक्त किया। आदिल अय्याश और शराबी था।।। कुल मिला कर पूरी तरह अफगानी सेना का नेतृत्व हेमू के हाथ में आ गया था। हेमू का सेना के भीतर जम के विरोध भी हुआ, पर हेमू अपने सारे प्रतिद्वंदियों को एक एक कर हराता चला गया। उस समय तक हेमू की अफगान सैनिक जिनमें से अधिकतर का जन्म भारत में ही हुआ था। अपने आप को भारत का रहवासी मानने लग गए थे और वे मुगल शासकों को विदेशी मानते थे, इसी वजह से हेमू हिन्दू एवं अफगान दोनों में काफी लोकप्रिय हो गया था। हुमायु ने जब वापस हमला कर शेर शाह सूरी के भाई को परास्त किया तब हेमू बंगाल में था। हेमू ने तब दिल्ली की तरफ रुख किया और रास्ते में बंगाल, बिहार उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की कई रियासतों को फ़तेह किया। आगरा में मुगलों के सेना नायक इस्कंदर खान उज्बेग को जब पता चला की हेमू उनकी तरफ आ रहा है तो वह बिना युद्ध किये ही मैदान छोड़ कर भाग गया ,इसके बाद हेमू ने 22 युद्ध जीते और दिल्ली सल्तनत का सम्राट बना। हेमू ने अपने जीवन काल में एक भी युद्ध नहीं हारा, पानीपत की लडाई में उसकी मृत्यु हुई जो उसका आखरी युद्ध था। अक्टूबर 6, 1556 में हेमू ने तरदी बेग खान (मुग़ल) को हारा कर दिल्ली पर विजय हासिल की।
Purana killa were hemu crowned as emperor of India
हेमू का किला
सन 1553 में हेमू के जीवन में एक बड़ा उत्कर्ष कारी मोड़ आया। इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद आदिलशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा। आदिलशाह एक घोर विलासी शराबी और लम्पट शासक था। उसे अपने विरुद्ध बढ़ते विद्रोही को दबाने और राजस्व वसूली के लिए हेमू जैसे विश्वस्त परामर्शदाता और कुशल प्रशासक की आवश्यकता थी। उसने हेमू को ग्वालियर के किले में न केवल अपना प्रधानमंत्री बनाया वरन अफगान फौज का मुखिया भी नियुक्त कर दिया। अब तो राज्य प्रशासन का समस्त कार्य हेमू के हाथ में आ गया और व्यवहारिक रूप में वह ही राज्य का सर्वेसर्वा बन गए। शासन की बागडोर हाथों में आते ही हेमू ने टैक्स न चुकाने वाले विद्रोही अफगान सामंतों को बुरी तरह से कुचल डाला। इब्राहिम खान, सुल्तान मुहम्मद खान, ताज कर्रानी, रख खान नूरानी जैसे अनेक प्रबल विद्रोहियों को युद्ध में परास्त किया और एक-एक कर उन सभी को मौत के घाट उतार दिया। हेमू ने छप्परघटा के युद्ध में बंगाल के सूबेदार मुहम्मद शाह को मौत के घाट उतारा व बंगाल के विशाल राज्य पर कब्जा कर अपने गवर्नर शाहबाज खां को नियुक्त किया। इस बीच आदिल शाह का मानसिक संतुलन बिगड़ गया और हेमू व्यवहारिक रूप से बादशाह माने जाने लगे। उन्हे हिंदू तथा अफगान सभी सेनापतियों का भारी समर्थन प्राप्त था। हेमू जिन दिनों बंगाल में विद्रोह को कुचलने में लगे थे। उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर जुलाई 1555 में हुमायुं ने पंजाब, दिल्ली और आगरा पर पुन: अपना अधिकार कर लिया।
 
इसके 6 माह बाद ही हुमायूं का देहांत हो गया और उसका नाबालिग पुत्र अकबर उसका उत्तराधिकारी बना। हेमू ने इसे अनुकूल अवसर जानकार मुगलों को परास्त करके और दिल्ली पर अपना एकछत्र शासन करने के स्वर्णिम अवसर के रूप में देखा। वह एक विशाल सेना को लेकर बंगाल से वर्तमान बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश को रौंदते हुए दिल्ली की ओर चल पड़े। उनके रण कौशल के आगे मुगल फौजदारी में भगदड़ मच गई। आगरा सूबे का मुगल कमांडर इस्कंदर खान उजबेक तो बिना लड़े ही आगरा छोड़कर भाग गया। हेमू ने इटावा, कालपी, बयाना आदि सूबों पर बड़ी सरलता से कब्जा कर वर्तमान उत्तर प्रदेश के मध्य एवं पश्चिमी भागो पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। अब दिल्ली की बारी थी। 6 अक्टूबर 1956 को तुगलकाबाद के पास मात्र एक दिन की लड़ाई में हेमू ने अकबर की फौजों को हराकर दिल्ली को फतह कर लिया। पुराने किले में जो प्रगति मैदान के सामने है अफगान तथा राजपूत सेना नायकों के सानिध्य में पूर्ण धार्मिक विधि विधान में राज्याभिषेक कराया। 7 अक्तूबर, 1556 को भारतीय इतिहास का वह विजय दिवस आया जब दिल्ली के सिंहासन पर सैकड़ों वर्षों की गुलामी तथा अधीनता के बाद हिन्दू साम्राज्य की स्थापना हुई। विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार डा. आर.सी. मजूमदार ने इसे भारत के इतिहास के मुस्लिम शासन की अद्वितीय घटना बताया। वस्तुत: यह महान घटना, समूचे एशिया में दिल दहलाने वाली थी। आश्चर्य तो यह है कि मुस्लिम चाटुकार दरबारी इतिहासकारों तथा लेखकों से न्यायोचित प्रशंसा की अपेक्षा तो नहीं थी, बल्कि विश्व में निष्पक्षता तथा नैतिकता का ढोल पीटने वाले, किसी भी ब्रिटिश इतिहासकार ने हेमचन्द्र की वीरता एवं शौर्य के बारे में एक भी शब्द नहीं लिखा। संभवत: इससे उनका भारत पर राज करने का भावी स्वप्न पूरा न होता। वस्तुत: यह किसी भी भारतीय के लिए, जो भारत भूमि को पुण्य भूमि मातृभूमि मानता हो, अत्यंत गौरव का दिवस था।
 
हेमचन्द्र का राज्याभिषेक भी भारतीय इतिहास की अद्वितीय घटना थी। भारत के प्राचीन गौरवमयी इतिहास से परिपूर्ण पुराने किले (पांडवों के किले) में हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार राज्याभिषेक था। अफगान तथा राजपूत सेना को सुसज्जित किया गया। सिंहासन पर एक सुन्दर छतरी लगाई गई। हेमचन्द्र ने भारत के शत्रुओं पर विजय के रूप में 'शकारि' विजेता की भांति 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। नए सिक्के गढ़े गए। राज्याभिषेक की सर्वोच्च विशेषता सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य की घोषणाएं थीं जो आज भी किसी भी प्रबुद्ध शासक के लिए मार्गदर्शक हो सकती हैं। सम्राट ने पहली घोषणा की, कि भविष्य में गोहत्या पर प्रतिबंध होगा तथा आज्ञा न मानने वाले का सिर काट लिया जाएगा। उन्होंने शताब्दियों से विदेशी शासन की गुलामी में जकड़े भारत को मुक्त कराकर हेमचंद्र विक्रमादित्य की उपाधि धारण की व उत्तर भारत में दक्षिण भारत में स्थापित विजयनगर साम्राज्य की तर्ज पर हिंदू राज की स्थापना की। इस अवसर पर हेमू ने अपने चित्रों वाले सिक्के ढलवाए सेना का प्रभावी पुनर्गठन किया और बिना किसी अफगान सेना नायक को हटाए हिंदू अधिकारियों को नियुक्त किया। अपने कौशल, साहस और पराक्रम के बल पर अब हेमू हेमचंद विक्रमादित्य के नाम से देश की शासन सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर आसीन थे। अब्बुल फजल के अनुसार दिल्ली विजय के बाद हेमू काबुल पर आक्रमण करने की योजना बना रहे थे।
 
उधर अकबर अपने सेनापतियों की सलाह पर हेमू की बढ़ती शक्ति से डर कर काबुल लौट जाने की तैयारी में था कि उसके संरक्षक बैरम खां ने एक और मौका लेने की जिद की। दोनों ओर युद्ध की तैयारियां जोरों पर थी। हेमू एक विशाल सेना लेकर दिल्ली से पानीपत के लिए निकले। 5 नवम्बर 1556 को पानीपत के मैदान में दोनों सेनाएं आमने-सामने आ डटी। भय और सुरक्षा के विचार से अकबर और बैरम खां ने स्वयं इस युद्ध में भाग नहीं लिया और वे दोनों युद्ध क्षेत्र से 8-10 मील की दूरी पर, सौंधापुर गांव के कैंप में रहे किंतु हेमू ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व किया। भयंकर युद्ध मे प्रारंभिक सफलताओं से ऐसा लगा कि मुगल सेना शीघ्र ही मैदान से भाग जाएगी लेकिन दुर्भाग्यवश एक तीर अचानक हाथी पर बैठे हेमू की आंख में लग गया। तीर निकाल कर हेमू ने लड़ाई जारी रखा। तीर लगने के कारण हेमू बेहोश हो गए। हेमचन्द्र का सर अकबर ने खुद काटा और अकबर को गाजी की उपाधि मिली । हेमू का कटा सिर अफगानिस्तान स्थित काबुल भेजा गया जहां उसे एक किले के बाहर लटका दिया गया। जबकि उनका धड़ दिल्ली के पुराने किले के सामने जहां उनका राज्यभिषेक हुआ था, लटका दिया गया। इस प्रकार एक असाधारण व्यक्तित्व के धनी, भारत सम्राट की गौरवपूर्ण जीवन यात्रा पूरी हुई।
 
बैरम खान ने सैनिकों के सशस्त्र दल को हेमचन्द्र के अस्सी वर्षीय पिता के पास भेजा। उन को मुसलमान होने अथवा कत्ल होने का विकल्प दिया गया। वृद्ध पिता ने गर्व से उत्तर दिया कि 'जिन देवों की अस्सी वर्ष तक पूजा अर्चना की है उन्हें कुछ वर्ष और जीने के लोभ में नहीं त्यागूंगा'। उत्तर के साथ ही उन्हे कत्ल कर दिया गया था। दिल्ली पहुँच कर अकबर ने 'कत्लेआम' करवाया ताकि लोगों में भय का संचार हो और वह दोबारा विद्रोह का साहस ना कर सकें। कटे हुये सिरों के मीनार खडे किये गये। पानीपत के युद्ध संग्रहालय में इस संदर्भ का एक चित्र आज भी हिंदुओं की दुर्दशा के स्मारक के रूप में सुरक्षित है किन्तु हिन्दू समाज के लिये शर्म का विषय तो यह है कि हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य द्वितीय का स्मृति चिन्ह भारत की राजधानी दिल्ली या हरियाणा में कहीं नहीं है।

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