हरतालिका तीज



मनुष्य स्वभावतः प्रकृति प्रेमी एवं उत्सव प्रिय है। प्रायः ऋतु-परिवर्तन पर प्रकृति की मनभावन सुषमा एवं सुरम्य परिवेश को मानव मन आनंदित होकर पर्वोत्सव मनाने लगता है। ग्रीष्म अवसान पर काले-कजरारे मेघों को आकाश में घुमड़ता देखकर पावस के प्रारम्भ में पपीहे की पुकार और वर्षा की फुहार से आभ्यन्तर आप्लावित एवं आनंदित होकर भारतीय लोक जीवन श्रावण शुक्ल तृतीया (तीज) को कजली तीज का लोकपर्व मनाता है। समस्त उत्तर भारत में तीजपर्व बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है। इसे श्रावणी तीज, हरियाली तीज तथा कजली तीज के नाम से भी जाना जाता है। बुन्देलखण्ड के जालौन, झाँसी, दतिया, महोबा, ओरछा आदि क्षेत्रों में इसे हरियाली तीज के नाम से व्रतोत्सव रूप में मनाते हैं। प्रातःकाल उद्यानों से आम-अशोक के पत्तों सहित टहनियाँ, पुष्पगुच्छ लाकर घरों में पूजास्थल के पास स्थापित झूले को इनसे सजाते हैं और दिनभर उपवास रखकर भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह को झूलें में रखकर श्रद्धा से झुलाते हैं, साथ में लोक गीतों को मुधर स्वर में गाते हैं।

ओरछा, दतिया और चरखारी का तीजपर्व श्रीकृष्ण के दोला रोहण के रूप में वृन्दावन-जैसा दिव्य दृश्य उत्पन्न कर देता है। बनारस, जौनपुर आदि पूर्वांचल के जनपदों में तीजपर्व (कजली तीज) ललनाओं के कजली गीतों से गुंजायमान होकर अद्भुत आनन्द देता है। प्रायः विवाहिता नवयुवतियाँ श्रावणी तीज को अपने मातृगृहों (पीहर) में अपने भाइयों के साथ पहुँचती हैं, यहाँ अपनी सखी-सहेलियों के साथ नव वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर सांयकाल सरोवर तट के समीप उद्यानों में झूला झूलते हुए कजली तीज के गीत गाती हैं। राजस्थान में तीजपर्व ऋतुत्सव के रूप में सानन्द मनाया जाता है। सावन में सुरम्य हरियाली को पाकर तथा मेघ-घटाओं को देखकर लोकजीवन हर्षोल्लास से यह पर्व हिल-मिलकर मनाता है। आसमान में घुमड़ती काली घटाओं के कारण इस पर्व को कजली तीज (कज्जली तीज) अथवा हरियाली के कारण हरियाली तीज के नाम से पुकारते हैं। श्रावण शुक्ल तृतीया को बालिकाएँ एवं नवविवाहिता वधुएँ इस पर्व को मनाने के लिये एक दिन पूर्व से अपने हाथों तथा पाँवों में कलात्मक ढंग से मेहँदी लगाती हैं। जिसे मेहँदी-माँडणा के नाम से जाना जाता है। दूसरे दिन वे प्रसन्नता से अपने पिता के घर जाती हैं, जहाँ उन्हें नयी पोंशाकें, गहने आदि दिये जाते हैं तथा भोजन-पकवान आदि से तृप किया जाता है। हमारे लोकगीतों के अध्ययन से पता चलता है कि नवविवाहिता पत्नी दूर देश गये अपने पति की तीजपर्व पर घर आने की कामना करती है।
इस तीज त्योहार के अवसर पर राजस्थान में झूले लगते है और नदियों या सरोवरों के तटों पर मेलों का सुन्दर आयोजन होता है। इस त्योहार के आस-पास खेतों में खरीफ फसलों की बोआई भी शुरू हो जाती है। अतः लोकगीतों में इस अवसर को सुखद, सुरम्य और सुहावने रूप में गाया जाता है। मोठ, बाजरा, फली आदि की बोआई के लिये कृषक तीज पर्व पर वर्षा की महिमा मार्मिक रूप में व्यक्त करते हैं। प्रकृति एवं मानव हृदय की भव्य भावना की अभिव्यक्ति तीजपर्व में निहित है। तीजपर्व (कजली तीज, हरियाली तीज, श्रावणी तीज) की महत्ता स्वतः सिद्ध है।
हरतालिका तीज का पर्व भादो माह की शुक्‍ल पक्ष तृतीया को यानि गणेश चतुर्थी से एक दिन पहले मनाया जाता है। महिलाएं इस दिन निर्जला उपवास रखकर रात में शिव-पर्वती की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजा करती हैं और पति के दीर्घायु होने की कामना करती हैं। इस पूजा में प्रसाद के तौर पर अन्य फल तो रहते ही हैं, लेकिन पिडुकिया' (गुझिया) का रहना अनिवार्य माना जाता है। इस दिन औरतें 24 घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं और रात भर जागरण करती हैं। इसके बाद सुबह पूजा पाठ करके इस व्रत को खोलती हैं। उत्तर भारत में इस त्यौहार को प्रमुख्ता से मनाया जाता है। तीज में महिलाओं के श्रृंगार का खास महत्व होता है। पर्व नजदीक आते ही महिलाएं नई साड़ी, मेहंदी और सोलह श्रृंगार की सामग्री जुटाने लगती हैं और प्रसाद के रूप में विशेष पकवान 'पिड़ुकिया' (गुझिया) बनाती हैं।
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को भी तीज मनाई जाती है, जिसे छोटी तीज या 'श्रावणी तीज' कहा जाता है, जबकि भाद्रपद महीने में मनाई जाने वाली तीज को बड़ी तीज या 'हरितालिका तीज' कहते हैं। इस पूजा में भगवान को प्रसाद के रूप में पिडुकिया' अर्पण करने की पुरानी परंपरा है। आमतौर पर घर में मनाए जाने वाले इस पर्व में महिलाएं एक साथ मिलकर प्रसाद बनाती हैं। पिडुकिया बनाने में घर के बच्चे भी सहयोग करते हैं। पिडुकियां मैदा से बनाई जाती हैं, जिसमें खोया, सूजी, नारियल और बेसन अंदर डाल दिया जाता है। पूजा के बाद आस-पड़ोस के घरों में प्रसाद बांटने की भी परंपरा है। यही कारण है किसी भी घर में बड़ी मात्रा में प्रसाद बनाया जाता है।
धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक, इस पर्व की परंपरा त्रेतायुग से है। इस पर्व के दिन जो सुहागिन स्त्री अपने अखंड सौभाग्य और पति और पुत्र के कल्याण के लिए निर्जला व्रत रखती हैं, उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। धार्मिक मान्यता है कि पार्वती की तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने तीज के ही दिन पार्वती को अपनी पत्नी स्वीकार किया था। इस कारण सुहागन स्त्रियों के साथ-साथ कई क्षेत्रों में कुंवारी लड़कियां भी यह पर्व करती हैं।
एक बार व्रत रखने पर जीवनभर रखना पड़ेगा
इस व्रत की पात्र कुमारी कन्याएं या सुहागिन महिलाएं दोनों ही हैं। लेकिन एक बार व्रत रखने बाद जीवनभर इस व्रत को रखना पड़ता है। यदि व्रती महिला गंभीर रोगी हालात में हो तो उसके बदले में दूसरी महिला या उसका पति भी इस व्रत को रख सकता है।

हरतालिका तीज व्रत कैसे करें 
 इस व्रत पर सौभाग्यवती स्त्रियां नए लाल वस्त्र पहनकर, मेंहदी लगाकर, सोलह श्रृंगार करती हैं और शुभ मुहूर्त में भगवान शिव और मां पार्वती की पूजा आरम्भ करती हैं। इस पूजा में शिव-पार्वती की मूर्तियों का विधिवत पूजन किया जाता है और फिर हरतालिका तीज की कथा को सुना जाता है। माता पार्वती पर सुहाग का सारा सामान चढ़ाया जाता है। मान्यता है कि जो सभी पापों और सांसारिक तापों को हरने वाले हरतालिका व्रत को विधि पूर्वक करता है, उसके सौभाग्य की रक्षा स्वयं भगवान शिव करते हैं।

व्रत का समापन
 इस व्रत के व्रती को शयन का निषेध है इसके लिए उसे रात्रि में भजन कीर्तन के साथ रात्रि जागरण करना पड़ता है प्रातः काल स्नान करने के पश्चात् श्रद्धा और भक्ति पूर्वक किसी सुपात्र सुहागिन महिला को श्रृंगार सामग्री, वस्त्र, खाद्य सामग्री, फल, मिठाई और यथा शक्ति आभूषण का दान करना चाहिए।

कैसे पड़ा हरतालिका तीज नाम
 हरतालिका दो शब्दों से बना है, हरित और तालिका। हरित का अर्थ है हरण करना और तालिका अर्थात सखी। यह पर्व भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है, जिस कारण इसे तीज कहते है। इस व्रत को हरितालिका इसलिए कहा जाता है, क्योकि पार्वती की सखी (मित्र) उन्हें पिता के घर से हरण कर जंगल में ले गई थी।

हरतालिका तीज व्रत कथा
 लिंग पुराण की एक कथा के अनुसार मां पार्वती ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए हिमालय पर गंगा के तट पर अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया। इस दौरान उन्होंने अन्न का सेवन नहीं किया। कई वर्षों तक उन्होंने केवल हवा पीकर ही व्यतीत किया। माता पार्वती की यह स्थिति देखकर उनके पिता अत्यंत दुखी थे। इसी दौरान एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वती जी के विवाह का प्रस्ताव लेकर मां पार्वती के पिता के पास पहुंचे, जिसे उन्होंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। पिता ने जब मां पार्वती को उनके विवाह की बात बताई तो वह बहुत दुखी हो गईं और जोर-जोर से विलाप करने लगीं। फिर एक सखी के पूछने पर माता ने उसे बताया कि वह यह कठोर व्रत भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कर रही हैं, जबकि उनके पिता उनका विवाह विष्णु से कराना चाहते हैं। तब सहेली की सलाह पर माता पार्वती घने वन में चली गई और वहां एक गुफा में जाकर भगवान शिव की आराधना में लीन हो गईं। भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन हस्त नक्षत्र को माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की स्तुति में लीन होकर रात्रि जागरण किया। तब माता के इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और इच्छानुसार उनको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। मान्यता है कि इस दिन जो महिलाएं विधि-विधानपूर्वक और पूर्ण निष्ठा से इस व्रत को करती हैं, वह अपने मन के अनुरूप पति को प्राप्त करती हैं। साथ ही यह पर्व दांपत्य जीवन में खुशी बरकरार रखने के उद्देश्य से भी मनाया जाता है। उत्तर भारत के कई राज्यों में इस दिन मेहंदी लगाने और झूला-झूलने की प्रथा है।

हरितालिका तीज के दिन महिलाएं न करें यह काम
  1. इस दिन घर के बुजुर्गों को किसी तरह से नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए और उन्हें दुखी नहीं करना चाहिए। ऐसा करने वाले लोगों को अशुभ फल मिलता है।
  2. तीज का व्रत रखने वाली महिलाओं को अपने गुस्से पर काबू रखना चाहिए। अपने गुस्से को शांत रखने के लिए महिलाएं अपने हाथों पर मेंहदी लगाती हैं। जिससे मन शांत रहता है।
  3. निर्जला व्रत के दौरान अगर कोई महिला रात में दूध पी लेती है तो पुराणों के अनुसार अगला जन्म उसका सर्प का होता है।
  4. पूजा के पश्चात सुहाग की समाग्री को किसी जरूरतमंद व्यक्ति या मंदिर के पुरोहित को दान करने का चलन है।
  5. मान्यता है कि यह व्रत विधवा महिलाओं को नहीं करना होता।
  6. मान्यता है कि व्रत रखने वाली महिलाओं को रात को सोना नहीं चाहिए। पूरी रात जगकर महिलाओं के साथ मिलकर भजन कीर्तन करना चाहिए। अगर कोई महिला रात की नींद लेती है तो ऐसी मान्यता है कि वह अगले जन्म अजगर का जन्म लेती है।
  7. यदि आप एक बार हरतालिका तीज का व्रत रखती हैं, तो फिर आपको यह व्रत हर साल रखना होता है। किसी कारण यदि आप व्रत छोड़ना चाहते हैं तो उद्यापन करने के बाद अपना व्रत किसी को दे सकते हैं।
  8. हरतालिका तीज व्रत के दौरान महिलाएं बिना अन्न और जल ग्रहण किए 24 घंटे तक रहती हैं। हलांकि कुछ इलाकों में इसके दूसरे नियम भी हो सकते हैं।


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ओणम पर्व का महत्व और कथा



 
भार‍त विविध धर्मों, जातियों तथा संस्कृतियों का देश है। भारत भर के उत्सवों एवं पर्वों का विश्व में एक अलग स्थान है। सर्वधर्म समभाव के प्रतीक केरल प्रांत का मलयाली पर्व 'ओणम' समाज में सामाजिक समरसता की भावना, प्रेम तथा भाईचारे का संदेश पूरे देश में पहुंचा कर देश की एकता एवं अखंडता को मजबूत करने की प्रेरणा देता है। ओणम केरल का सबसे बड़ा त्योहार है। केरल में इस त्योहार का वही महत्त्व है जो उत्तर भारत में विजयादशमी या दीपावली का या पंजाब में वैशाखी का। ओणम का त्योहार प्रतिवर्ष अगस्त-सितम्बर में मनाया जाता है। मलयाली सम्वत् के अनुसर यह महीना सावन का होता है।
पुराणों के अनुसार जब विष्णु भगवान ने वामन का अवतार धारण किया उस समय मलयालम प्रदेश राजा बलि के राज्य में था। बलि के राज में चोरी नहीं होती थी। बलि को अपने अच्छे शासन पर तथा अपनी शक्ति पर गर्व था। विष्णु भगवान ने उसका घमंड तोडने के लिए वामन का रूप धारण किया और भिक्षा मांगने के लिए वे बलि के पास पहुँचे। बलि ने कहा, ‘‘जो चाहो, मांग लो।’’ वामन ने तीन पग पृथ्वी मांगी। बलि ने तुरन्त प्रार्थना स्वीकार कर ली। अब विष्णु भगवान ने अपना विराट रूप प्रकट किया। उन्होंने दो पगों में सारा ब्रह्माड नाप लिया। अभी एक पग पृथ्वी उन्हें चाहिए थी। बलि को अपनी भूल का अहसास हुआ तो उसका घमंड जाता रहा। लेकिन अपने वचन से वह नहीं डिगा। एक पग पृथ्वी के बदले उसने अपना सिर नपवा दिया तथा विष्णु भगवान के चरणों से दब कर पाताल लोक चला गया। किन्तु पाताल जाने से पूर्व उसने भगवान से एक वरदान मांगा कि उसे हर वर्ष एक बार अपने प्रिय मलयालम क्षेत्र मेंआने की स्वीकृति दी जाये। माना जाता है कि तभी से बलि ओणम पर्व के अवसर पर मलयालम की यात्रा पर आता है। उसके स्वागत में केरल निवासी हंसी-खुशी से यह त्योहार मनाते हैं।
ओणम त्योहार के विषय में एक दूसरी कथा भी प्रचलित है। उसके अनुसार परशुराम ने सारी पृथ्वी जीतकर ब्राह्मणों को दान दे दी। अपने रहने के लिये भी स्थान नहीं रखा। तब सहयाद्रि पर्वत की एक कंदरा में बैठकर उन्होंने जल के स्वामी वरूण की आराधना की। उनके कठिन तप से वरूण देवता प्रसन्न हो गये। उन्होंने प्रकट होकर परशुराम से कहा, ‘‘तुम यहीं से अपना परशु समुद्र में फेंको, जहाँ वह गिरेगा वहाँ तक की भूमि तुम्हारी हो जायेगी।’’ परशुराम ने ऐसा ही किया। इस प्रकार जो भूमि उन्होंने समुद्र से प्राप्त की उसका नाम परशुक्षेत्र हुआ। उसी को आज केरल या मलयालम कहते हैं। परशुराम ने वहाँ भगवान का एक मंदिर बनवाया। वह आजकल तिरूक्कर अप्पण ने नाम से प्रसिद्ध है। जिस दिन परशुराम ने मंदिर में विष्णु भगवान की मूर्ति स्थापित की थी, उसकी पुण्य स्मृति में ओणम का पर्व मनाया जाता है।
पौराणिक कथाओं के अतिरिक्त ओणम का त्योहार ऋतु परिवर्तन से भी संबंधित है। यह त्योहार ऐसे समय आता है जब वर्षा के बाद केरल की भूमि हरी-भरी हो जाती है। नारियल और ताड़ के वृक्षों के झुरमुटों के बीच बड़े-बड़े सरोवर जल से भर कर लहराते रहते हैं। चाय, इलायची, काली मिर्च के अतिरिक्त धान के खेत भी कटने को तैयार हो जाते हैं। चारों तरफ रंग बिरंगे सुगंधित पुष्पों की निराली छटा मन को प्रसन्न करती है। वर्षा के बाद नई फसल को घर में लाने की तैयारियों में किसान प्रसन्न मन से लगे होते हैं। केरल में सबके लिये वर्ष का यह समय सर्वोत्तम होता है। हरेक के मन में नई आशा और उत्साह का राज्य होता है।
ओणम का मुख्य त्योहार तिरू ओणम के दिन मनाया जाता है। उसकी तैयारियाँ दस दिन पहले से होने लगती है। सांयकाल बच्चे ढेर सारे फूल इकट्ठे करके लाते हैं। अगले दिन प्रातः काल गोरब से लिपे हुये स्थान पर इन फूलों को गोलाई में सजा दिया जाता है। घर को फूल मालाओं से सजाते हैं। ओणम त्योहार प्रारम्भ होने के पहले ही दिन घर में विष्णु भगवान की प्रतिमा स्थापित की जाती है। इस अवसर पर लोग विशेष प्रकार का भोजन करते हैं। इस भोज को पूवक कहते हैं। स्त्रियां थपत्ति कलि नाम के नृत्य से मनोरंजन करती हैं। वृत का आकार बनाकर स्त्रियां ताली बजाती हुई नाचती जाती हैं तथा विष्णु भगवान की प्रार्थना के गीत गाती जाती हैं। बच्चे वामन भगवान की आराधना के गीत गाते हैं। इन गीतों को ओनलप्पण कहते हैं। ज्यों-ज्यों तिरूओणम का दिन पास आता है त्यों-त्यों घर के सामने सजाये जाने वाले फूलों की संख्या में वृद्धि होती जाती है। उनसे जो वृत बनाया जाता है वह भी बड़ा होता जाता है। आखिर के चार दिन बड़ी चहल-पहल रहती है। तिरूओणम के एक दिन पहले परिवार का सबसे वृद्ध व्यक्ति परिवार के सदस्यों को बड़े सवेरे स्नान के बाद पहनने के लिये नये वस्त्र देता है। रात मे सावन देव की मिट्टी की मूर्ति तैयार की जाती हैं उसके सामने मंगल दीप जलाये जाते हैं।
दूसरे दिन तिरूओणम का मुख्य त्योहार होता है। तब सावन देव और फूलों की देवी का विधि के साथ पूजन होता है। लड़कियाँ उन्हें वाल्लसन नाम के पकवान की भेंट चढाती हैं और लड़के तीर चलाकर इस भेंट को प्रसाद रूप में वापस प्राप्त करते हैं। इस दिन हर घर में विशेष भोजन बनाया जाता है। प्रातःकाल जलपान में भुने हुए या भाप में पकाये हुए केले खाये जाते हैं। जिसे नेन्द्रम कहते हैं। यह जलपान नेन्द्रकाय नाम के विशेष केले से तैयार किया जाता है जो केवल केरल में ही पैदा होता है। भोजन में चावल, दाल, पापड़ और केले के व्यजंन मुख्य रूप से बनाये जाते हैं।
ओणम के अवसर पर केरल के लोग गणेश जी की आराधना भी करते है। संध्या समय विष्णु भगवान की सभी मूर्तियाँ तख्ते पर रखी जाती है और पूजन के बाद उन्हें आदर के साथ किसी निकट के जलाशय में विसर्जित कर दिया जाता है। इस अवसर पर घरों में धार्मिक कार्य, पूजा पाठ होते हैं तथा स्वादिष्ट पकवान बनाये जाते हैं। इसके साथ ही सार्वजनिक मनोरंजन के क्रियाकलाप भी होते हैं। जिसमें नौका दौड़ का प्रमुख स्थान है। मलयालम भाषा में इसे वल्लुमकली कहते है। विविध आकृतियों की नावें जैसे मछली के आकार की, सर्प के आकार की नावें दौड़ में भाग लेती हैं। नावों के ऊपर लाल रेशमी छत्र तने रहते हैं। नाव खेने वाले नाव खेते समय एक विशेष प्रकार का गीत गाते हैं जिसे बाॅची पटक्कल कहते हैं अर्थात् नाव का गीत। केरल के सागर तट पर हजारों दर्शक नौका दौड़ देखने के लिये खडे़ रहते हैं। दीपावली, दशहरा, सरस्वती पूजा, और नागपूजा के त्योहार भी केरल में मनाये जाते हैं पर ओणम का त्योहार वहाँ का सर्व-प्रमुख त्योहार है।

ओणम पर्व पर क्या-क्या होता है खास
  1. इस अवसर पर मलयाली समाज के लोगों ने एक-दूसरे को गले मिलकर शुभकामनाएं देते हैं। साथ ही परिवार के लोग और रिश्तेदार इस परंपरा को साथ मिलकर मनाते हैं।
  2. इसके साथ ही ओणम नई फसल के आने की खुशी में भी मनाया जाता है।
  3. इसके साथ ही कई तरह की सब्जियां, सांभर आदि भी बनाया जाता है।
  4. ओणम पर्व पर राजा बलि के स्वागत के लिए घरों की आकर्षक साज-सज्जा के साथ तरह-तरह के पकवान बनाकर उनको भोग अर्पित करती है।
  5. हर घर के सामने रंगोली सजाने और दीप जलाने की भी परंपरा हैं।
  6. हर घर में विशेष पकवान बनाए जाते हैं। खास तौर पर चावल, गुड़ और नारियल के दूध को मिलाकर खीर बनाई जाती है।


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