मुस्लिम संत हरिदास ठाकुर यवन की कृष्ण भक्ति



श्री हरिदास जी का जन्म वर्तमान जैसोर जिले के बूढ़न नामक ग्राम में एक संभ्रान्त मुसलमान के घर हुआ था। किसी पूर्व संस्कार के कारण बाल्यकाल से ही हरिदास को हरि नाम बड़ा प्यारा लगता था, श्रीकृष्ण की लीलाओं को वे बड़े चाव से सुना करते, धीरे-धीरे हरिदास का मन मुसलमानी मजहब से (कुछ लोगों का कहना है कि हरिदास जी का जन्म हिन्दू कुल में हुआ था और वे पीछे से मुसलमान हो गये थे) हट गया और उन्होंने अपना जीवन श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में समर्पण कर दिया, दिन रात उच्च स्वर से हरिनाम कीर्तन करने लगे। उनका विश्वास था कि जो भूल से भी हरिनाम ले लेता या सुन लेता है वह नरक से बच जाता है। मनुष्य की तो बात ही क्या है यदि नीच से नीच पशुओं के कानों में भी हरिनाम सुना दिया जाय तो उनका भी उद्धार हो सकता है। इसी कारण वे जोर जोर से हरि कीर्तन किया करते थे। यही तो सच्ची शुद्धि है। जो विश्वास पूर्वक सच्चे मन से भगवद् भक्त होकर हिन्दू धर्म को मानना चाहता है उसे जगत्‌ में कौन रोक सकता है ? अस्तु !


बेफायोल के वन में हरिदास जी ने कुटिया बना रखी थी, हरिनाम अधिक लेने के कारण इनका नाम हरिदास पड़ गया था, चारों ओर इस बात की ख्याति हो गयी थी। भक्त की बड़ी कठिन परीक्षा हुआ करती है। इंद्रिय भोगों के बड़े बड़े लुभावने पदार्थ उसके सामने आकर उसके मन को डिगाना चाहते हैं, इसी के अनुसार उस देश के दुरात्मा जमीदार रामचंद्र खां के मन में हरिदास का तप नाश करने की प्रवृत्ति हुई और उसने इस काम के लिये एक परम सुन्दरी वेश्या को हरिदास की कुटिया पर भेजा। वेश्या ने तीन रात तक लगातार बड़ी चेष्टा की परन्तु वह हरिदास के हरि चरण लीन चित्त में जरा सी भी चंचलता उत्पन्न नहीं कर सकी। जिसका मन एक बार उस अलौकिक रूप सुधा का रस आस्वादन कर चुका है वह विलास रसिका के रसालाप की ओर कैसे खींच सकता है ? हरिदास जी प्रतिदिन तीन लाख नाम जप किया करते थे, वेश्या ने तीन रात तक कीर्तन किया। उसके पापों का बहुत सा संचित नष्ट हो गया। मन में शुभ स्फुरणा हुई। वेश्या ने सोचा कि मेरे बिना बुलाये ही सैकड़ों मनुष्य मेरे रूप दर्शन की लालसा से मेरे घर पर आ और मेरे रूप पर मोहित होकर अपना सर्वस्व दे जाते हैं, पता नहीं हरिदास किस रस में डूब रहा है, न मालूम किस अनूप रूप पर मोहित हो रहा है जो इतनी चेष्टा करने पर भी मेरी ओर नहीं ताकता। धन्य है इस हरिदास को जो भोगों की वासना को इस प्रकार पददलित कर भगवन्नाम अमृत पान में उन्मत्त हो रहा है, मैंने तो अपना जीवन केवल पापों के बटोरने में लगाया, मेरी क्या गति होगी ? यों सोचते सोचते वेश्या का अंतर पिघल गया। उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे और वह तुरंत दौड़कर संत के चरणों में गिर पड़ी और बोली कि प्रभो ! बिना समझे प्रमाद से मैंने बड़ा अपराध किया हैं, मेरा उद्धार कीजिये 1 वेश्या पर इतनी भगवत् कृपा देखकर भक्त हरिदास का हृदय भर आया, उन्होंने उसे हरिनाम मन्त्र देकर कहा कि जाओ, अपनी धन-सम्पति गरीबों को लुटा दो और इसी कुटिया में बैठकर साधन करो। मैं जाता हूँ। वेश्या साधन में लग गयी उसका नरक हृदय साक्षात् वैकुण्ठ धाम बन गया। भगवान उसमें निवास करने लगे, साधु सङ्ग से सूखा वृक्ष हरा भरा हो गया। वेश्या परम भक्तिमती होकर परमात्मा को पा गयी।

वहाँ से हरिदास जी चांदपुर के जमीदार के कुल पुरोहित बलरामाचार्य के घर पर आये; बलराम और उनके दोनों जमींदार शिष्य हरिदास जी की भक्ति देखकर मुग्ध हो गए और उनको गुरु सदृश मानने लगे। भक्त को कौन नहीं मानता ? जिसको भगवान ने अपनाया उसको जगत् ने अपना लिया।
गरल सुधा रिपु करै मिताई।
गोपद सिन्धु अनल सितलाई ॥
जमीदार पुत्र रघुनाथ ने इसी समय भक्ति प्राप्त की और आगे चलकर वे परम भक्त हुए। हरिदास जी एक दिन कह रहे थे कि हरि नाम से मुक्ति होती हैं, हरिनाम के आभास से ही मुक्ति होती है। इस बात को सुनकर गोपाल चक्रवर्ती नामक एक मनुष्य ने ब्यङ्ग करके कहा कि इसकी बात किसी को नहीं माननी चाहिये, जो फल योग और तप से नहीं मिलता वह केवल हरिनाम से कभी नहीं मिल सकता, यदि ऐसा हो तो मेरी नाक कट जाये। हरिदास जी ने कहा कि 'यदि ऐसा न होता होगा तो मेरी नाक कट जायेगी' बड़े आश्चर्य की बात है कि थोड़े ही दिनों बाद कुष्ठ रोग से गोपाल की नाक गलकर गिर पड़ी। हरिदास जी चांदपुर से आकर फुलिया नामक ग्राम में रहने लगे। यहाँ के मुसलमान काजी को मालूम हुआ कि हरिदास मुसलमान होकर भी काफिरों के आचरण करता है। अतएव उसने हरिदास को अपने मत के अनुसार सीधे रास्ते पर लाना चाहा, हरिदास की दूसरी कठोर परीक्षा का प्रारम्भ हुआ। हरिदास जी पकड़े जाकर विचार के लिये काजी साहब के सामने लाये गये। काजी ने कहा "तैंने मुसलमान होकर काफिरों का मजहब कैसे मंजूर किया ? जाओ, इस बेवकूफी को छोड़कर फिर कलमा पढ़ लो नहीं तो कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी।" इन शब्दों को सुनकर हरिदास जी को जरा सा भी भय नहीं हुआ। भयहारी भगवान के भक्त-सुलभ चरण कमलों की आश्रित यमराज से भी नहीं डरता, प्राणों की आहुति तो वह पहले दे चुकता है। भगवान ने गीता में कहा है" यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणानि विचाल्यते। "जिसमें स्थित होकर वह बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं होता।
हरिदास जी ने निर्भयता परन्तु स्वभाव सुलभ नम्रता के साथ काजी से कहा “भाई ! ईश्वर एक है, अखण्ड और अव्यय है, वह हिंदू मुसलमान के लिये अलग अलग नहीं होता, उसकी जैसी प्रेरणा होती है मनुष्य वैसे ही करता है, मुझे कृष्ण नाम प्यारा लगता है इसी से मैं इसे लेता हूँ इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ता है? ”
हरिदास जी की इन बातों से काजी कुछ नरम हुआ परन्तु उसके मंत्रियों ने कहा कि यदि इसको दंड नहीं दिया जाएगा तो इसकी देखा देखी और भी मुसलमान हिंदू हो जायेंगे। अतएव काजी ने हरिदास के बाइस बाजारों में बेंत लगाने का दंड दिया। दुष्ट मन्त्रियों ने सोचा कि बेतों की मार से भी यदि हरिदास बच जायगा और नाम नहीं छोड़ेगा तब समझेंगे कि इसका हरिनाम सत्य है। काजी ने हरिदास जी को फिर समझाकर हरिनाम छोड़ने के लिये कहा। परन्तु हरिदास ने स्वीकार नहीं किया वे बोले टुकड़े टुकड़े देह हो प्राण जाय सुर धाम। तब भी मैं छाँड़ों नहीं पावन हरि का नाम। काजी को यह सुनकर बड़ा क्रोध हुआ और उसने प्राण दण्ड की आज्ञा दे दी। फाँसी पर चढ़ाकर या गोली मारकर प्राण लेने की जगह निर्दयतापूर्वक बाजारों में घुमा घुमा कर बेंते मार मारकर प्राण लेने की व्यवस्था की गयी। हरिदास जी किंचित भी नहीं घबराये ! एक बाजार में लाकर उनको बांध दिया गया और बड़ी निर्दयता से उन पर कोड़े लगने लगे। परंतु हरिदास जी का हरिनाम संकीर्तन ज्यों का त्यों जारी रहा उधर हरिदास जी बड़े जोर से बोलते "हरि"। उधर दुष्ट बड़े जोर से बेंत मारता। यों एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे करके बाइस बाजारों में हरिदास जी की पीठ पर बेतें मारी गयी। चमड़ा उड़ गया, रक्त की धारा से सारा शरीर भीज गया और लाल हो गया। इधर प्रेमाश्रुओं की धारा भी बह चली, पीठ से काजी के पाप की नदी और आगे से भक्त के प्रेम की निर्मल नदी बहने लगी। हरिदास जी नामोच्चारण और भी बड़े जोर जोर से करने लगे, गाँव भर में हाहाकार मच गया। बड़ी भीड़ हो गयी, सब लोग शाप देने लगे। कोई कहता था ईश्वर इस अन्याय को नहीं सहेंगे। कोई कहता था इस अन्याय से पृथ्वी काँप उठेगी, कोई कहता था काजी का समूल वंश नाश हो जाएगा। इधर हरिदास जी का मन दूसरी ही चिंता में मग्न था। उन्हें अपने ऊपर मार पड़ने और कष्ट पाने के लिये क्षोभ नहीं था उन्हें यह विश्वास था कि अभी ये लोग मुझ पर जितना अत्याचार कर रहे हैं समय आने पर न्यायकर्ता परमेश्वर की ओर से इन लोगों को इससे भी अधिक कष्टदायक दण्ड भोगना पड़ेगा। उनके भावी कष्ट की भावना से संत हरिदास का चित्त द्रवित हो गया। पापों से हटाने के लिये हरिदास जी ने उन लोगों से कहा कि भाई ! शांत हो ओ, मुझे मारने से तुम्हें क्या लाभ होगा ? तुम मुझे क्यों मार रहे हो ? मैंने तुम्हारा कोई नुकसान नहीं किया, हिंदू हो या मुसलमान परन्तु यह तो सभी को मानना पड़ेगा कि निर्दोष जीव को सताना पाप है, भगवान साक्षी हैं मैं ये बातें इसलिए नहीं होता कि: बेतों की चोट से मुझे दर्द हो रहा है परन्तु इसीलिए कहता हूं कि तुम लोग भ्रम से अपना भविष्य बड़ा दुःख मय बना रहे हो !
हरिदास जी के इन शब्दों से उन लोगों पर कुछ असर तो हुआ परन्तु उन्होंने अपना काम छोड़ा नहीं। हरिदास जी को बड़ी दया आयी। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी, उन्होंने अपना हृदय खोलकर दयामय भगवान के सामने रखा और बड़े जोर से बोले, कि हे मेरे कृष्ण ! हे मेरे स्वामी ! हे दयासिन्धु ! इन गरीबों पर दया करो, इनके इस अपराध को क्षमा कर दो, बेचारे भूले हुए जीव हैं अपना भला बुरा सोचने में असमर्थ हैं इन पर कृपा करो यों कहकर हरिदास जी रोने लगे, भीड़ के लोगों ने कहा कि हरिदास क्या कह रहे हैं ? पागल तो नहीं हो गये ? मारने वाले के लिये ईश्वर से क्षमा याचना करना कहाँ का धर्म है ? यूं कहते कहते लोग भक्त की महिमा से प्रेम में भर गये और हरि नाम ले लेकर नाचने लगे। इधर हरिदास जी को प्रेम-मूर्च्छा हो गयी। भगवान ! धन्य है क्या आपने इसलिए कहा है तजता नहीं मुझे जो हरिजन पाकर भी अतिशय संतान। पदवी अपनी देव दुर्लभ देता हूं उसको मैं आप प्रेममत्त हरिदास जी के भावावेश से काजी के सेवकों ने समझा कि इसकी मृत्यु हो गयी। इसलिये उसी अवस्था में उन्हें उठाकर गङ्गा जी में बहा दिया। गंगा में बहते बहते हरिदास को चेत हो गया और वे किनारे पर आकर बाहर निकल आये। लोगों की अपार भीड़ लगी हुई थी। काजी ने जब इनके जीने की बात सुनी तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। वह दौड़कर आया और सन्त हरिदास जी के चरणों में गिर पड़ा। उसने क्षमा प्रार्थना की और अन्त में वह परम भक्त बन गया। हरिदास जी हरि ध्वनि करते हुए चल दिये।
इसके बाद श्री हरिदास जी नवद्वीप में आये और वहाँ अद्वैताचार्य से मिले, इसी समय नवद्वीप में भगवान चैतन्य प्रकट हुए और बंगाल के हरि भक्ति की सुधा-धारा में प्लावित कर दिया। हरिदास का शेष जीवन श्री चैतन्य महाप्रभु के संग में बीता ! बोलो भक्त और उनके भगवान की जय !


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श्रीराम की पुनः लंका - यात्रा और सेतु भंग



पद्म पुराण के अनुसार एक समय भगवान श्रीराम को राक्षस राज विभीषण का स्मरण हो आया। उन्होंने सोचा कि ‘विभीषण धर्म पूर्वक शासन कर रहा है कि नहीं ? देव - विरोधी व्यवहार ही राजा के विनाश का सूत्र है। मैं विभीषण को लंका का राज्य दे आया हूँ, अब जाकर उसे सम्हालना भी चाहिए। कहीं राज मद में उससे अधर्माचरण तो नहीं हो रहा है। अतएव मैं स्वयं लंका जाकर उसे देखूँगा और हितकर उपदेश दूँगा, जिससे उसका राज्य अनन्त काल तक स्थायी रहेगा। ' श्रीराम यों विचार कर ही रहे थे कि भरतजी आ पहुँचे। भरत जी  के नम्रता से पूछने पर श्रीराम ने कहा -‘भाई ! तुमसे मेरा कुछ भी गोपनीय नहीं है, तुम और यशस्वी लक्ष्मण मेरे प्राण हो। मैंने निश्चय किया है कि मैं लंका जाकर विभीषण से मिलूँ, उसकी राज्य - पद्धति को देखूँ और उसे कर्तव्य का उपदेश दूँ। 'भरत ने कभी लंका नहीं देखी थी, इससे उसने भी साथ चलने की इच्छा प्रकट की, श्रीराम ने स्वीकार कर लिया और लक्ष्मण को सारा राज्य का कार्यभार सौंप कर दोनों भाई पुष्पक विमान पर चढ़ लंका के लिये विदा हुए।

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पहले भरत के दोनों पुत्रों की राजधानी में जाकर उनसे मिले और उनके कार्य का निरीक्षण किया, तदनंतर लक्ष्मण के पुत्रों की राजधानी में गये और वहाँ छः दिन ठहर कर सब कुछ देखा - भाला। इसके बाद भारद्वाज और अत्रि के आश्रमों को गये। फिर आगे चलकर श्रीराम ने चलते हुए विमान पर से वह सब स्थान दिखलाये जहाँ श्री सीताजी का हरण हुआ था, जटायु की मृत्यु हुई थी, कबन्ध को मारा था और बालि का वध किया था। तत्पश्चात किष्किंधापुरी में जाकर राजा सुग्रीव से मिले। सुग्रीव ने राजघराने के सब स्त्री पुरुषों, नगरी के समस्त नर नारियों समेत श्री राम और भरत का बड़ा भारी स्वागत किया। फिर सुग्रीव को साथ लेकर विमान पर से भरत को विभिन्न स्थान दिखाया और उनकी कथा सुनाते हुए लंका में जा पहुंचे, राजा विभीषण को उनके दूतों ने यह शुभ समाचार सुनाया।

श्री राम के लंका पधारने का संवाद सुनकर विभीषण को बड़ी प्रसन्नता हुई | सारा नगर बात की - बात में सजाया गया और अपने मंत्रियों को साथ लेकर विभीषण अगवानी के लिये चला। सुमेरु स्थित सूर्य की भांति विमानस्थ श्रीराम को देखकर साष्टांग प्रणाम पूर्वक विभीषण ने कहा —'प्रभो ! आज मेरा जन्म सफल हो गया, आज मेरे सारे मनोरथ सिद्ध हो गये। क्योंकि आज मैं जगद्बन्ध अनिन्द्य आप दोनों स्वामियों के चरण - दर्शन कर रहा हूँ। आज स्वर्गवासी देवगण भी मेरे भाग्य की श्लाघा कर रहे हैं। मैं आज अपने को त्रिदश पति इन्द्र की अपेक्षा भी श्रेष्ठ समझ रहा हूँ। ' सर्वरत्न सुशोभित उज्ज्वल भवन में महोत्तम सिंहासन पर श्रीराम विराजे, विभीषण अर्घ्य देकर हाथ जोड़ भरत और सुग्रीव की स्तुति करने लगा। लंका निवासी प्रजा की राम दर्शनार्थ भीड़ लग गयी। प्रजा ने विभीषण को कहलाया, ' प्रभो ! हमको इस अनोखी रूप माधुरी को देखे बहुत दिन हो गये। युद्ध के समय हम सब देख भी नहीं पाए थे। आज हम दीनों पर दया का हमारा हित करने के लिये करुणामय हमारे घर पधारे हैं, अतएव शीघ्र ही हम लोगों को उनके दर्शन कराइये। ' विभीषण ने श्रीराम से पूछा और दयामय की आज्ञा पाकर प्रजा के लिये द्वार खोल दिये। लंका के नर-नारी श्री राम-भरत की झांकी देखकर पवित्र और मुग्ध हो गये। यों तीन दिन बीते। चौथे दिन रावण माता कैकसी ने विभीषण को बुलाकर कहा, ' बेटा ! मैं भी श्रीराम के दर्शन करूँगी। उनके दर्शन से महामुनि गण भी महा पुण्य के भागी होते हैं। श्रीराम साक्षात् सनातन विष्णु हैं, वही यहाँ चार रूपों में अवतीर्ण हैं। सीता जी स्वयं लक्ष्मी हैं। तेरे भाई रावण ने यह रहस्य नहीं जाना। तेरे पिता ने कहा था कि रावण को मारने के लिये भगवान विष्णु रघुवंश में दशरथ के यहाँ प्रादुर्भूत होंगे। ' विभीषण ने कहा – ' माता ! आप नये वस्त्र पहन कर कंचन - थाल में चंदन, मधु, अक्षत, दधि, दूर्वा का अर्घ्य सजाकर भगवान श्रीराम का दर्शन करें। सरमा ( विभीषण - पत्नी ) को आगे कर और अन्यान्य देव कन्याओं को साथ लेकर आप श्रीराम के समीप जाये। मैं पहले ही वहां चला जाता हूँ।'
विभीषण ने श्रीराम के पास जाकर वहाँ से सब लोगों को बिल्कुल हटा दिया और श्रीराम से कहा, ‘देव ! रावण, कुम्भ कर्ण और मेरी माता कैकसी आपके चरण कमलों के दर्शनार्थ आ रही हैं, आप कृपापूर्वक उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ करें। ' श्रीराम ने कहा, 'भाई ! तुम्हारी मां तो मेरी ' मां ' ही है। मैं ही उनके पास चलता हूँ, तुम जाकर उनसे कह दो, इतना कहकर विभु श्रीराम उठकर चले और कैकसी को देखकर मस्तक से उसे प्रणाम किया तथा बोले- आप मेरी धर्म माता हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। अनेक पुण्य और महान तप के प्रभाव से ही मनुष्य को आपके ( विभीषण - सदृश भक्तों की जननी के ) चरण - दर्शन का सौभाग्य मिलता है। आज मुझे आपके दर्शन से बड़ी प्रसन्नता हुई। जैसे श्री कौशल्या जी हैं, वैसे ही मेरे लिये आप हैं। ' बदले में कैकसी ने मातृ भाव से आशीर्वाद दिया और भगवान श्रीराम को विश्व पति जानकर उनकी स्तुति की। इसके बाद 'सरमा' ने भगवान की स्तुति की। भरत को सरमा का परिचय जानने की इच्छा हुई, उनके इशारे को समझ कर 'इङ्गित विद’ श्री राम ने भरत से कहा, ' यह विभीषण की साध्वी भार्या हैं, इनका नाम सरमा है। यह महाभागा सीता की प्रिय सखी हैं, और इनकी सखिता बहुत दृढ़ है। ' इसके बाद सरमा को समायोचित उपदेश दिया। फिर विभीषण को विविध उपदेश देकर कहा कि ' हे निष्पाप ! देवताओं का प्रिय कार्य करना, उनका अपराध कभी न करना। लंका में कभी मनुष्य आवे तो उनका कोई राक्षस वध न करने पावें। ' विभीषण ने आज्ञानुसार चलना स्वीकार किया।

तदनंतर वापस लौटने के लिये सुग्रीव और भरत सहित श्रीराम विमान पर चढ़े। तब विभीषण ने कहा ' प्रभु ! यदि लंका का पुल ज्यों - का - त्यों बना रहेगा तो पृथ्वी के सभी लोग यहाँ आकर हम लोगों को तंग करेंगे, इसलिए क्या करना चाहिये ? ' भगवान ने विभीषण की बात सुनकर पुलको बीच में से तोड़ डाला और दश योजन के बीच के टुकड़े के फिर तीन टुकड़े कर दिये। तदनंतर उस एक - एक टुकड़े के फिर छोटे - छोटे टुकड़े कर डाले, जिससे पुल टूट गया और यों लंका के साथ भारत का मार्ग पुनः विछिन्न हो गया।


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