मर्यादा का उल्लंघन करती समलैंगिकों की दुनिया

दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को अवैध क्या ठहराया कि पूरे समाज में हड़कंप मच गया। भारतीय समाज में आज भी किसी अंतरंग मुद्दे पर संवाद स्थापित करना एक बड़ी बात होती है, भारत की 80 प्रतिशत जनता भारतीय परिवेश में स्थित है, वह अपने मित्र-मंडली में जितना खुल कर रह सकती है विभिन्न मुद्दों पर चर्चा कर सकती है वह अपने परिवार नही क्योकि भारत जैसे देश मे आज भी पारिवारिक मूल्यों की मान्‍यता विद्यमान है, यही पारिवारिक मूल्य ही भारत की मजबूत सांस्कृतिक स्‍तभो की मजबूती का कारण भी है। अक्सर हम देखते है कि आज की युवा पीढ़ी नशे की ओर उन्मुख है किन्तु आज भी आचरण की सभ्यता विद्यमान है कि बहुत से युवक नशा अ‍ादि करते है किन्तु उनके मन में यह भाव व लिहाज होता है कि घर का बड़ा कोई देख न ले। क्योंकि लिहाज़ करना भारतीय परम्परा का घोतक है।


समलैंगिकता मामले में जिस प्रकार समर्थकों ने इसे जायज ठहराये जाने पर परेड निकाली, यहाँ तक कि हरियाणा-पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ जगहों पर पुरुषों-पुरुषों में तथा महिला-महिला में विवाह दिखाया गया और भारतीय मीडिया ने जम कर कवरेज किया। मीडिया चैनलों ने कवरेज को कवर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु यह बताने में भूल गया कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने समलैंगिक संबंधों को वैध करार दिया है न कि समलैंगिक विवाह को आज भी किसी विधान में समलैंगिक विवाह को न मान्यता दी गई और न ही परिभाषा। और तो और मीडिया यह भी भूल गया कि भारतीय दर्शकों के बीच है जहाँ आज भी ज्यादा परिवार में 5 वर्ष से 80 वर्ष तक के पारिवारिक सदस्य साथ बैठकर टीवी देखते है। कितना सहज होगा एक छत के नीचे बैठकर इस प्रकार के कार्यक्रमों को देखना?
दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के बाद तो हद तो तब हो गई कि जब भारत की महान हस्तियां “गे राइट्स” के नाम पर इसके समर्थन में आगे आ गये मुझे नहीं लगता ऐसे लोग अपने पारिवारिक सदस्यों के समलैंगिक संबंधों को स्वीकार करेंगे। यह विषय लोकप्रियता की रोटी सेकने का नहीं अपितु संबंधित व्यक्तियों की भावनाओं से संबंधित है। गे राइट्स के आधार पर उच्‍च न्‍यायालय के गत वर्ष के फैसले से समलैंगिक सम्बन्धों अब आईपीसी) की धारा 377 के अर्न्‍तगत दंडनीय नही है फैसले के अनुसार धारा 377 में संशोधन किया जाना चाहिए और वयस्कों में सहमति से बनने वाले “यौन संबंधों” को वैध माना जाना चाहिए। सीधे शब्दों में कहा जाए तो इस फैसले के बाद पुलिस अब सहमति से बने समलैंगिक संबंधों के आरोप में किसी भी वयस्क को गिरफ्तार नहीं कर सकेगी। इसे यह कहा जाना कि यह दिल्‍ली उच्‍च न्‍यायालय का फैसला समलैंगिक संबंधों को मान्यता देता है तो कतई न्यायोचित नहीं है बल्कि साफ़ शब्दों में स्पष्ट है कि दिल्‍ली हाईकोर्ट ने कहा कि समलिंगी वयस्कों में सहमति से बनने वाले “यौन संबंधों” को वैध माना जाना चाहिए न कि सामाजिक संबंधों को वैध ठहराया है। न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराध के मुक्त कर दिया है, यह मुक्ति जो वयस्‍क होने के बाद ही दोषी ठहराती थी अब वह नहीं है।

कुछ पाश्चात्य देशों में समलैंगिकता की अपनी अलग दुनिया है, कनाडा, अर्जेंटीना, ब्रिटेन, आयरलैंड, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में यह मान्यता की श्रेणी में है वही दक्षिण अफ्रीका को छोड़ सम्पूर्ण अफ्रीकी महाद्वीप व पश्चिम एशिया के ज्यादातर देशों में समलैंगिकता एक बड़ा अपराध है और इसके लिए मृत्यु दंड व आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है निर्धारित है। हमारा भारत एक मिली जुली परम्परा और सं‍स्‍कृतियों वाला देश है इसलिये हमारा नैतिक कर्तव्य है कि हम इस परंपरा को सहेजे, ठीक है समलैंगिक होना बुरा नहीं है और न ही समलिंगी सेक्स किन्तु “गे प्राइड परेड” जैसे दिखावटी चोचले समझ के परे है, किसी को लगता है कि समलिंगी हो और तो इसका प्रदर्शन की जगह एकांत से बेहतर कोई और नही होगी। अन्यथा प्राइस प्रदर्शन से देश के मानव मूल्यों का हास होता कि दो मित्रों की नजदीकियों को भी समलैंगिकता का नाम दिया जायेगा जो मित्रता जैसे संबंधों को दागदार करेगा।

कुछ लोगों ने समलैंगिकता मानसिक बीमारी कहते है किन्तु जहाँ तक मेरा मानना है कि यह एक वर्ग के लोगों की आवश्यकता है। अब किसी पुरुष का स्त्री के प्रति तथा किसी स्त्री के प्रति आकर्षण न हो, या कहा जाए कि किसी में शारीरिक रूप से पुरुष होकर भी स्त्री भाव है, तो भी तो यह प्रकृति की ही तो देन है। एक साइड के आंकड़े कहते है कि उस पर भारत में उस पर करीब 75 हजार समलिंगी पंजीकृत दर्ज है और यूरोपीय देश जर्मनी में यह करीब 5 लाख को पार कर जाती है। समलिंगियों के बीच की नजदीकियों को पूरी तरह से नजरंदाज नही किया जा सकता है। साथ ही साथ समलैंगिक सेक्स को लेकर लोगों में प्राइड अभियान छिड़ा हुआ है या छेड़ा गया है वह भारतीय समाज में पचाने योग्य नहीं है। एक समय था जब एकांत में और आपसी सहमति से भी समलैंगिक संबंध अपराध था किन्तु उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर इतनी तो छूट मिल रही है कि वह अपनी जिंदगी जी सकते है यदि हम पश्चिम की बात करते है कि जर्मनी और अमेरिका में विवाह हो रहा है तो पश्चिम में ही स्थिति पश्चिम एशिया और अफ्रीकी देशों में समलैंगिकता के लिये सजा-ए-मौत भी है।

यदि हम एक पक्ष को स्वीकार करते है तो दूसरे को इनकार भी नहीं कर सकते है, हमारी संस्कृति ने समलैंगिको जितनी छूट दी है उसका उपयोग करें, यही हमारी संस्कृति पचा भी सकती है। सामान्य सी सलाह डाक्टर भी देते है कि हमें वही खाना चाहिये जो हमारा पाचन तंत्र पचा सके तभी हम स्वस्थ रह सकते है। यही बात समलैंगिकों को भी समझना चाहिये, कि समाज के पाचन तंत्र खराब न हो।

यह लेख दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में मर्यादा का उल्लंघन शीर्षक से दिनांक 30 जनवरी 2011 को छपा था।

3 टिप्‍पणियां:

  1. क्या लिख रहे हो भैय्ये... अभी सेलि जी आ जायेंगी ..और आपको खूब हड़कायेंगी...

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  2. बहुत अच्छा विषय उठाया है आपने भारतीय संस्कृति पर चौतरफ हमला है जहा तक मिडिया का प्रश्न है मिडिया तो बिकी हुई विदेशी लगनी की है पैसा के आगे कुछ नहीं इन्हें न तो देश न तो अपने संस्कृति की ही चिंता है इसके लिए अपने समाज को ही खड़ा होना होगा बहुत-बहुत धन्यवाद.

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  3. प्रमेन्द्र जी ये विषय तो बहुत ही सोचने समझने का है परन्तु जब तक भारतीय अपनी संस्कृति को त्याग कर पाश्चात्य संस्कृति की और अग्रसर होते रहेंगे इस प्रकार के घिनोने कृत्यों से अपनी भारतीयता पर थूकते रहेंगे और अपने आप को भारतीय महसूस करने में शर्मिंदा होंगे ! ये चंद 75 हजार समलिंगी करीब करीब १ अरब १५ करोड़ भारतीयों के मुंह पर तमाचा मरते रहेंगे क्यूंकि भारतीय सहिष्णु होता है और अपनी आवाज़ को हमेशा बंद रखता है !!

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