ब्रह्मचर्य का नियम एवं शक्ति तथा ब्रह्मचर्य का पालन




ब्रह्मचर्य तो महान तप है , जो इसका पूर्ण पालन कर लेते है वे तो वह देव स्वरूप ही होता है ।
” न तपस्तप इत्याहुः ब्रह्मचर्य तपोत्तमम् ।
उर्ध्वरेता भवेद्यस्तु स देवौ न तु मानुषः ॥”
लेकिन यह बहुत कठिन है क्योंकि पितामह ने सृष्टि के लिए प्रकृति की रचना करके सारे प्राणियों को मन व इन्द्रियों से युक्त कर रखा है तथा बुद्धि को त्रिगुण से युक्त कर के तब सृष्टि का रचना किया है। अतः हम रज तम से प्रवृत्त हो कर संकल्प से या लोभ वश काम आदि के वशीभूत हो जाते है । काम को वश में करने का एक ही उपाय है , संकल्प का नाश । तथा सभी प्रकृति के प्रतिनिधियों (स्त्री जाति) को सृष्टि के लिए सहायक समझना होगा, भोग्य दृष्टि से नहीं देखना चाहिए तथा अविवाहित पुरुषों को तो किसी को गलत दृष्टि से देखना भी नहीं चाहिए। ब्रह्मचर्य में अनंत गुण है। 
आयुस्तेजो बलं वीर्यं प्रज्ञा श्रीश्च महदयशः ।
पुण्यं च हरि प्रियत्वं च लभते ब्रह्मचर्यया ॥

ब्रह्मचर्य क्या है?
ब्रह्मचर्य (Brahmacharya ) अर्थात् मन-वचन-काया के द्वारा किसी भी प्रकार के विषय-विकार में हिस्सा नहीं लेना या उसे प्रोत्साहन नहीं देना। आप विवाहित हैं या नहीं उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। जो यह समझना और सीखना चाहते हैं कि ब्रह्मचर्य का पालन कैसे किया जाये, उनके लिए ज्ञानी पुरुष की यह अद्वितीय नई दृष्टि एकमात्र पुख्ता उपाय है। ब्रह्मचर्य शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है:- ब्रह्म + चर्य , अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए जीवन बिताना। ब्रह्मचर्य योग के आधारभूत स्तंभों में से एक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है सात्विक जीवन बिताना, शुभ विचारों से अपने वीर्य का रक्षण करना, भगवान का ध्यान करना और विद्या ग्रहण करना। यह वैदिक धर्म वर्णाश्रम का पहला आश्रम भी है, जिसके अनुसार यह 25 वर्ष तक की आयु का होता है और जिस आश्रम का पालन करते हुए विद्यार्थियों को भावी जीवन के लिये शिक्षा ग्रहण करनी होती है। ब्रह्मचर्य से असाधारण ज्ञान पाया जा सकता है वैदिक काल और वर्तमान समय के सभी ऋषियों ने इसका अनुसरण करने को कहा है क्यों महत्वपूर्ण है ब्रह्मचर्य- हमारी जिंदगी मे जितना जरूरी वायु ग्रहण करना है उतना ही जरूरी ब्रह्मचर्य है। आज से पहले हजारों वर्ष से हमारे ऋषि मुनि ब्रह्मचर्य का तप करते आए हैं क्योंकि इसका पालन करने से हम इस संसार के सर्वसुखो की प्राप्ति कर सकते हैं। ब्रह्मचर्य वो अवस्था है जिसमे व्यक्ति का दिल और दिमाग ईश्वर भक्ति में लीन रहता है। जिस व्यक्ति का अपनी सभी इन्द्रियों पर सम्पूर्ण रूप से कण्ट्रोल है वही ब्रह्मचर्य का सही तरीके से पालन कर रहा है। इसका पालन करने वालो के लिए भौतिक सुख सुविधा और सम्भोग मायने नहीं रखता। मायने रखता है ईश्वर में उनका ध्यान और आत्म संतुष्टि। ऐसे व्यक्ति दूसरी स्त्रियों को गलत नजर से नहीं देखते हैं। जो सत्य को जान ले और वेदों का अध्ययन करे वो ब्रह्मचारी है।

प्राचीन भारतीय संस्कृति में ब्रह्मचर्य का विस्तृत वर्णन मिलता है। जिसमें सनातन धर्म के ऋषियों ने आध्यात्मिक यात्रा के लिये ब्रह्मचर्य को महत्वपूर्ण बताया है। लेकिन जिस ब्रह्मचर्य की बात ऋषियों ने की थी, उसको आज ज्यादातर गलत तरीके से लोगों के सामने पेश किया जा रहा है। जिसमें यह कहा जा रहा है कि अगर आप मात्र 30 दिनों तक ब्रह्मचर्य (वीर्य को रोकना) का पालन करते हो तो आपको असाधारण शक्ति शक्ति की प्राप्ति हो जायेगी। आप कभी बीमार नहीं होंगे और आप अपने जीवन में जो भी भौतिक सुख सुविधायें पाना चाहते है, उसको बहुत ही आसानी से प्राप्त कर लेंगे। ऐसे ही लुभाने वाली बातें आज कल वीडियो में बताई जाती है। जिससे लोगों का समय बर्बाद होता है और वो ब्रह्मचर्य को सही तरीके से कभी जान ही नहीं पाते है। वैसे इंटरनेट की दुनिया में ज्यादातर लोगों का मकसद होता है पैसा कमाना वो फिर चाहे लोगों को गलत जानकारी देकर ही क्यों न कमाया जाये। इसलिये ब्रह्मचर्य को लेकर इतना झूठा प्रचार किया जा रहा है।
ब्रह्मचर्य का सीधा सा अर्थ यह होता है कि आपकी जीवनचर्या ब्रह्म की तरह हो जाना अर्थात जब मनुष्य का आचरण ब्रह्म के केंद्र से संचालित होने लगता है, तो उस मनुष्य को ब्रह्मचारी कहा जाता है। जब व्यक्ति ब्रह्मचर्य को प्राप्त होता है तो उसको इस जगत की बहुत सी भौतिक सुख सुविधाये, ब्रह्मचर्य के सुख से छोटी प्रतीत होने लगती है। इस जगत की बहुत सी भौतिक सुख सुविधाये में एक सुख जो पुरुष को स्त्री से और स्त्री को पुरुष मिलता है यानी संभोग का सुख वो भी मनुष्य को बहुत छोटा दिखाई देने लगता है और फिर ब्रह्मचर्य को प्राप्त होने वाला व्यक्ति इन सब छोटी-छोटी बातों में अपना समय व्यर्थ नही गंवाता है। लेकिन यहां इसका मतलब यह नहीं है कि ब्रह्मचारी व्यक्ति शादी नहीं कर सकता। ब्रह्मचर्य का विवाह से कोई संबंध नही होता है और ना ही वीर्य से कोई मतलब होता है। कुछ लोग अपने अहंकार को बढ़ावा देने के लिये वीर्य को बहुत अशुद्ध बता देते है, जबकि वो यह भूल जाते है कि जिस शरीर को वह धारण किये हुये है वह भी एक वीर्य का विस्तृत रूप है और वीर्य तो मनुष्य का प्राकृतिक गुण है, यह गुण मनुष्य का ही नही अपितु समस्त प्राणी जगत के जीवों का है। इसलिये वीर्य को ब्रह्मचर्य के लिये अशुद्ध मानना गलत है। एक बात यहां ध्यान देने वाली यह कि जिस ब्रह्मचर्य की परिभाषा, आज के लोगो द्वारा गढी जा रही है, उसका केंद्र काम ही है। इस बात को आप इस तरह समझे कि जो व्यक्ति संभोग करता है वो कामी और जो व्यक्ति काम को त्याग दे वो ब्रह्मचारी। इसलिये मनुष्य काम के साथ चले या फिर काम के विपरीत कुल मिलाकर बात एक ही होती है। जबकि ब्रह्मचर्य का इन सब छोटी-छोटी बातो से कोई लेना देना नही होता है। हां ब्रह्मचर्य में एक बात जरूरी होती है कि जब व्यक्ति ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है तो वो हर किसी से एक स्वस्थ्य सम्बंध बनाता है। जैसे कि ब्रह्मचारी व्यक्ति हर किसी महिला को काम भरी निगाहों से नही देखता है। कुल मिलाकर ब्रह्मचर्य का अर्थ है सत्य को जान लेना। इस प्रकार अब आप समझ गये होगे कि ब्रह्मचर्य क्या है। ब्रह्मचर्य में इतनी शक्ति है कि व्यक्ति इससे अपने आप को पा लेता है और उसे असाधारण ज्ञान भी प्राप्त होता है। सालों पहले हमारे ऋषि मुनि ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तप करते थे जिसके फलस्वरूप वो एक लम्बी आयु जीते थे और सेहतमंद जीवन जीते हुए सर्व सुख प्राप्त करते थे। उनके सुखी जीवन को देखकर ये बात साबित होती है कि ब्रह्मचर्य के फायदे बहुत सारे और मूल्यवान हैं।

ब्रह्मचर्य की प्रचण्ड शक्ति
ब्रह्मचर्य में उतरने से मनुष्य के अंदर प्रचण्ड शक्ति का उद्गम होता है। ब्रह्मचर्य की शक्ति इतनी प्रचण्ड होती है कि मनुष्य अपने इन्द्रियों का राजा हो जाता है। ब्रह्मचर्य की शक्ति से मनुष्य के मन में इतनी संकल्प शक्ति पैदा होती है कि मनुष्य उस संकल्प शक्ति से ब्रह्मांड में विचरण कर सकता है। और वो पंचभूत का महारथी बन जाता है। जिससे वो किसी भी प्रकार की शरीर को धारण कर सकता है। ब्रह्मचर्य की शक्ति असीम है, इसको शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता है।

ब्रह्मचारी के लक्षण
ब्रह्मचारी एक वृक्ष की तरह होता है, जिसमें सहनशीलता कोई सीमा नहीं होती है। ब्रह्मचारी, मनुष्य जाति को बिना किसी स्वार्थ के एक खुशहाल जीवन जीने का रास्ता दिखाता है। ब्रह्मचारी हमेशा निष्काम भाव से जीता है। इसलिये जिसके जीवन में कोई इच्छा ना बची हो उसे ही ब्रह्मचारी कहते है।
ब्रह्मचर्य का पालन कैसे करें
वैसे तो ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिये कोई विशेष नियम नहीं होता है, क्योंकि ब्रह्मचर्य कोई शारीरिक क्रिया नहीं है, जिसे आप कर सके। लेकिन यदि आप ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होना चाहते है तो आप ध्यान में बैठना शुरू करें। जैसे-जैसे आपका ध्यान गहरा होता जायेगा वैसे-वैसे आपका अपनी इंद्रियों में कंट्रोल होता जायेगा और आप धीरे-धीर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होते जायेंगे। ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए आंतरिक भावना होनी चाहिए और उसके लिए भगवान से मन-वचन-काया से ब्रह्मचर्य का पालन करने की शक्ति मांगनी चाहिए। मन को कंट्रोल करने के बजाय उन कारणों को ढूँढ निकाले जिससे मन विषय-विकार में फंस जाता है और तुरंत ही वह लिंक तोड़ डालें। ब्रह्मचर्य के पालन से होने वाले फायदे और विषय-विकार से होने वाले नुकसान का आकलन करें। विवाहित लोगों के लिए, आपसी सहमति से ब्रह्मचर्य व्रत लेना या फिर एक दूसरे के प्रति वफादार रहना, वही इस काल में ब्रह्मचर्य पालन करने के समान है।

ब्रह्मचर्य के नियम
  • आप अपने आहार-विहार को सही रखें।
  • ईश्वर पर पूरा भरोसा करें।
  • कुछ समय प्रकृति में बिताए और अपने आस पास के खूबसूरत प्राकृतिक को अपने अन्दर आत्मसात कर ले।
  • गलत लोगों की संगति से दूर रहे।
  • जो भी काम करे उसको होशपूर्ण करें।
  • जो भी काम करें उसे पूरे होशोहवास और एकाग्र होकर करें।
  • दिन में कुछ समय मौन अर्थात चुप रहने की कोशिश करें।
  • दिन में कुछ समय मौन रहें।
  • दुष्ट और दुराचारी लोगों से दूर रहे।
  • दूसरों की निंदा करने से बचें।
  • दूसरों की बुराइयां करना और गलतियाँ गिनाना बंद करें।
  • दैनिक जीवन का कुछ समय प्रकृति के साथ बिताये।
  • बिना वजह फालतू की बातें न करें।
  • बेवजह किसी से बात ना करें।
  • भगवान पर पूर्ण भरोसा रखें।
  • मन में हमेशा अच्छे विचारों को जगह दें।
  • हमेशा हल्का फुल्का सात्विक भोजन करें।

ब्रह्मचर्य का पालन कैसे करें
  • अच्छी धार्मिक पुस्तकें पढ़ा करें जैसे रामायण, महाभारत, गीता, पुराण आदि।
  • अपने मन को मजबूत करें और ये मान ले की काम वासना से आपको सुख नहीं मिलेगा। जब आप इस धारणा को मन में जगह दे देंगे तो तब आप अच्छी तरह और तन्मयता से ब्रह्मचर्य का पालन कर पाएंगे।
  • जब भी किसी चीज को देखकर आपका मन भटकने लगे तो मन को तुरंत समझा दें कि आपके सामने जो है वो बस एक हाड़ मांस का पुतला है।
  • जिनसे आपको आकर्षण हो सकता है उनसे दूर रहे। ध्यान करे और अपने मन को अच्छी और भक्तिमय चीजों पर लगाने का प्रयत्न करें। रोज़ अगर ये प्रयास करेंगे तो आप पूरी तरह से अपने मन पर काबू कर पाएंगे।
  • दिन भर का कुछ समय सत्संग और भक्ति के लिए निकाले। सत्संग आपको ईश्वर के करीब ले जाएगा और आपका मन कामुकता की और नहीं जाएगा। गुरु के उपदेश आपको जीवन में अच्छी बातें सिखाएंगे जो आपको ब्रह्मचर्य का पालन करने में मदद करेंगे।
  • नित्य क्रिया से निपटने के बाद अपने हाथों और पैरो को ज़रुर साफ़ करे।
  • ब्रह्मचर्य का पालन करना सीखने में गुरु बहुत मदद कर सकते है और आप उनके बताए नियमों और संस्कारों पर चलकर सख़्ती से अपने ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते है।
  • ब्रह्मचारी का पालन करने वालो को सिनेमा का त्याग करना चाहिए क्योंकि आजकल के सिनेमा में अश्लीलता और भड़काऊ चीजे दिखाई जाती हैं।
  • रात को जल्दी सोने और सुबह जल्दी ब्रह्म मुहूर्त में उठने की आदत डाले और रात को हाथ पैर धोकर साफ़ कपड़े पहनकर सोए। सोने से पहले और उठने के बाद ईश्वर का स्मरण करें।
  • रोज़ योग और प्राणायाम करने की आदत डाले। सुबह साफ़ और शुद्ध वातावरण में और शांत वातावरण में एक्सरसाइज करें।
  • सुबह शाम ईश्वर की पूजा में मन और उनका मंत्र जाप करे, इससे मन एकाग्र होगा। उनसे प्रार्थना करें कि वो आपका मन भटकने न दे और ब्रह्मचर्य का पालन करने में आपकी मदद करें।
  • हफ्ते में एक बार सख़्ती से उपवास जरूर करें क्योंकि उपवास हमें अपने आप पर कंट्रोल करना सिखाता है,साथ ही संकल्प शक्ति को स्ट्रांग करना सिखाता है।
  • हमेशा अच्छे और ब्रह्मचर्य का पालन करने वालो की संगत में रहे। दुष्ट लोगो से दूर रहे क्योंकि उनके गलत विचार आप पर बुरा असर डाल सकते है।
  • हमेशा सात्विक भोजन करे और सडा हुआ, तेज मसालेदार, नॉन वेज आदि गरिष्ट भोजन न करे। हमेशा ईमानदारी से कमाए पैसे से ख़रीदा हुआ भोजन खाए।
  • हमेशा साफ़ सुथरे और हल्के कपड़े पहने।
गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन कैसे करें
यह सवाल हर शादी शुदा स्त्री पुरुष के मन में रहता है कि गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य का पालन कैसे करें। ब्रह्मचर्य का विवाह से कोई संबंध नहीं होता है। आप जिस भी अवस्था में है, सिर्फ ध्यान करना शुरू कर दीजिए। ब्रह्मचर्य के लिये किसी अवस्था का होना मायने नहीं रखता है। इसलिये आप जीवन की किसी भी स्थिति में रहकर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकते है।
ब्रह्मचर्य के फायदे
  • अगर आप मन, वाणी व बुद्धि को शुद्ध रखना चाहते है तो आप को ब्रह्मचर्य पालन करना बहुत जरूरी है आयुर्वेद का भी यही कहना है कि अगर आप ब्रह्मचर्य का पालन पूर्णतया 3 महीने तक करते है तो आप को मनोबल, देहबल और वचनबल में परिवर्तन महसूस होगा , जीवन के ऊँचे से ऊँचे लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का जीवन मे होना बहुत जरूरी है।
  • अपने दिल और अपने मन को कंट्रोल करना सीख जाते हैं।
  • उनमें लोगों से अच्छे से बात करने की समझ और कुशलता आ जाती है।
  • उसे छोटी छोटी सी चीज भी ख़ुशी देती है।
  • ऐसा व्यक्ति तनाव भरे माहौल में भी संयम के साथ काम कर पाते है।
  • ब्रह्मचर्य करने वालों की सोच अच्छी और पवित्र होती है क्योंकि उनका उनकी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण होता है।
  • ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले जो भी काम करना शुरू करते हैं वो खत्म करने के बाद ही छोड़ते हैं।
  • ब्रह्मचर्य का पालन करने वालों के अन्दर ऊर्जा बनी रहती है।
  • ब्रह्मचर्य का पालन करने से चित्त एकदम शुद्ध हो जाता है।
  • ब्रह्मचर्य का पालन करने से देह निरोगी रहती है।
  • ब्रह्मचर्य का पालन करने से मनोबल बढ़ता है।
  • ब्रह्मचर्य का पालन करने से रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है।
  • ब्रह्मचर्य के पालन से शारीरिक क्षमता, मानसिक बल , बौद्धिक क्षमता और दृढ़ता बढ़ती है।
  • ब्रह्मचर्य पालन करने वाला व्यक्ति किसी भी कार्य को पूरा कर सकता है।
  • ब्रह्मचर्य मनुष्य का मन उनके नियंत्रण में रहता है।
  • ब्रह्मचर्य मनुष्य की एकाग्रता और ग्रहण करने की क्षमता बढ़ाता है।
  • ब्रह्मचर्य से व्यक्ति का आत्मविश्वास पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ जाता है।
  • ब्रह्मचर्य से व्यक्ति की एकाग्रता और याददाश्त बढ़ती है।
  • ब्रह्मचर्य से व्यक्ति के सांस लेने की प्रक्रिया सुधरती है।
  • ब्रह्मचारी मनुष्य हर परिस्थिति में भी स्थिर रह कर उसका सामना कर सकता है।
  • ब्रह्मचारी  तनाव मुक्त रहते हैं।
  • ब्रह्मचारी स्वयं की नज़रों में ऊपर उठता है।
  • व्यक्ति अपने आपको पहले के मुकाबले अच्छे से प्रस्तुत करना और व्यक्त करना सीख जाता है।
  • व्यक्ति अपने काम पर ज्यादा ध्यान लगा पाता है।
  • व्यक्ति का अपने मन और अपने भावों पर पूर्ण नियंत्रण होगा।
  • व्यक्ति को अपने जीवन में मज़ा आने लगता है।
  • व्यक्ति टाइम मैनेजमेंट सीख जाता है इसलिए उसे ज्यादा फ्री टाइम मिलने लगता है।
  • व्यक्ति मानसिक रूप से सुदृढ़ होगा।
  • समाज में लोगों से जुड़ने और बात करने का डर खत्म हो जाता है।
ब्रह्मचर्य के नुकसान
वैसे तो ब्रह्मचर्य से कोई नुकसान नहीं होता है। लेकिन इतना जरूर है कि जो व्यक्ति रिश्तों के डोर में बंधा है, वो धीरे-धीरे रिश्तों के डोर से मुक्त होने लगता है और उसके मन से संग्रह करने की लालसा विसर्जित होने लगती है। जिससे शायद ही वो अपने सगे संबंधी के अनुरूप अपना जीवन बिता पाये। ब्रह्मचर्य में भौतिक सुख सुविधाओं की जरूरतें सीमित हो जाती है। इसलिए ऐसे व्यक्तियों को ब्रह्मचर्य में नहीं उतरना चाहिये, जिनके मन में ब्रह्मचर्य का पालन करने से भौतिक सुख सुविधाओं की पूर्ति करनी हो। क्योंकि ब्रह्मचर्य से सदा उनको हानि ही होगी।


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उदय प्रकाश का जीवन परिचय एवं रचना



जीवन परिचय - उदय प्रकाश का जन्म एक क्षत्रिय वंश में 1 जनवरी 1952 ई. को मध्य प्रदेश के शहडोल जिले (वर्तमान में अनूपपुर) के एक छोटे से गाँव, ‘सीतापुर’ में हुआ था। सीतापुर गांव मध्य प्रदेश में अब ‘अनूपपुर’ के नाम से जाना जाता है। ‘अनूपपुर’ गाँव सोन नदी और नर्मदा नदी की गोद में बसा हुआ है। उदय प्रकाश ने स्वयं कहा है, ‘‘नर्मदा और सोन दोनों हमारे गाँव के पास से ही निकलती हैं। दोनों नदियों के बहुत निकटतम् उसी तरह की प्रकृति, उसी तरह के पेड़, वहीं मिट्टी उन्हीं के बीच वह गांव बसा हुआ है।’’ इस संबंध में उदय प्रकाश एक साक्षात्कार में कहते हैं, ‘‘मैं मध्य प्रदेश के शहडोल जिले के सीतापुर क्षेत्र का हूँ। यहाँ की 82 प्रतिशत आबादी गोंड, कोल और अन्य आदिवासियों की हैं। यह इलाका छोटा नागपुर इलाके तक है। मेरी पढ़ाई-लिखाई उसी परिवेश में हुई थी। वहीं का जीवन मेरा परिवेश था। कुमार सुरेश सिंह मेरे फुफेरे भाई हैं, उन्होंने झारखंड पर काफी काम किया है। मैंने शुरुआत पेंटिंग और कविताओं से की। कविताओं में मेरी माँ का हाथ था। पिता साहित्यिक अभिरुचि के थे। घर में साहित्यिक पत्रिकाएँ आती थी। बुआ आल्हा गाती थी और भजन लिखती थी। इससे एक तरफ साहित्य तो दूसरी तरफ अध्यात्म का असर हुआ।


उदय प्रकाश का जन्म मध्य वर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री प्रेमकुमार सिंह था। वह गाँव के प्रतिष्ठित जमींदार थे तथा माता श्रीमती गंगादेवी गृहिणी थी। उनके परिवार में बड़े भाई अरुण प्रकाश तथा बहन स्वयं प्रभा सिंह है। उनके परिवार को स्थानीय राजघराना माना जाता रहा है। उनका बचपन वैभवपूर्ण एवं संस्कारशील परिवार में बेहद आत्मीयपूर्ण वातावरण में बीता। उनके जीवन में उनकी माँ प्रथम गुरु के रूप में रही हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्त्व पर माँ के संस्कारों की अमिट छाप पड़ी है। माँ उनकी संवेदना का स्त्रोत हैं, स्वयं उदय प्रकाश ने कहा है-‘‘पेंटिंग और कविता की प्रेरणा माँ की उस नोटबुक से मिली जो वह अपने साथ अपने गाँव से लेकर आई थीं, उसमें जो भोजपुरी लोकगीत, कजरी, सोहर, चैती, फगुआ, विरहा, विदेसिया और चिड़ियों एवं फूलों के चित्र बने हुए थे। इन लोकगीतों में वह संगीत और कविता थी जो मुझे अपने भीतर डुबा लेती थी, आज भी मुझे हर अच्छी कहानी में कविता या संगीत एक साथ पाने की इच्छा रहती है।
10 वर्ष की आयु में उनकी मां का देहांत कैंसर के कारण हो गया। ‘नेलकटर’ कहानी में रचनाकार ने इस प्रसंग की भावुक अभिव्यक्ति की है। माँ के निधन के पश्चात् उनके परिवार में बिखराव शुरू हो गया। मानो मौत का ताण्डव मच गया हो। उनकी मृत्यु के बाद उनके पिताजी का भी स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। उदय प्रकाश मात्र 17 वर्ष की आयु में ही अनाथ हो गये। इस त्रासद घटना का वर्णन वे अपनी कहानियों में करते हुए लिखते हैं-‘‘बचपन से ही मैंने मृत्यु को अपनी आँखों से देखा है। बारह या तेरह वर्ष का था जब माँ की मृत्यु हुई थी। उस वर्ष उनकी उम्र सैंतीस वर्ष की थी। उन्हें श्वासनली का कैंसर था (नेलकटर)। सत्रह वर्ष का था जब पिता की मृत्यु हुई। उन्हें दाढ़ और गाल का कैंसर था। (दरियाई घोड़ा) यह एक विचित्र संयोग है, जो कई बार मुझे नियति के हाथों लिखी गयी हमारी वंशावली की तरह लगता है कि पिछली कई पीढ़ियों से हमारे परिवार ने छियालीस वर्ष की आयु रेखा पार नहीं किया। मेरे पितामह की मृत्यु भी पैंतालीस की उम्र में हो गयी थी और यह एक तथ्य है (या शायद संयोग) कि सभी की मृत्यु कैंसर से हुई।’’
माता-पिता को खो देने की पीड़ा उदय प्रकाश सहन न कर सके और ‘स्क्रीजोफ्रेनिया’ नामक रोग से पीड़ित हो गये। इसे मनोविदलता कहते हैं यह एक मानसिक विकार है। जिसमें मनुष्य असामान्य व्यवहार तथा वास्तविकता को पहचान पाने में असमर्थ होता हैं ‘स्क्रिीजोफ्रेनिया’ का शाब्दिक अर्थ है ‘मन का टूटना’। इस मानसिक अवस्था का चित्रण उनके एक आत्मकथ्य में मिलता है, ‘‘जब माँ की मृत्यु हुई मैं इस शून्य को सह पाने की स्थिति में नहीं था। दुबला-पतला था, चिड़चिड़ा था और सम्भवतः बहुत अधिक संवेदनशील था। लेकिन मैंने अपने से छः वर्ष छोटी बहन को देखा। वह इतनी छोटी थी कि माँ की अर्थी ले जाते समय फैंके जाने वाले तांबे के सिक्कों को बीन रही थी और बताशे खा रही थी। मुझे लगता है कि कई वर्षों तक अपनी छोटी बहन को अकेला न होने देने के लिए जीवित रहा। बाद में पिता के न रह जाने पर लगभग एक वर्ष तक ‘स्क्रीझोफ्रेनिया’ का इलाज चला। उदय प्रकाश ने जीवन में काफी संघर्षों का सामना किया है। इतनी बाधाओं के बाद भी प्रखर प्रतिभा के धनी वे जीवन-पथ पर अग्रसर रहे, उन्होंने हार को भी पराजित कर दिया।

शिक्षा-दीक्षा - उदय प्रकाश की प्रारम्भिक शिक्षा माता-पिता की देखरेख में सीतापुर में ही हुई। उनकी प्राथमिक स्तर की शिक्षा सीतापुर प्राथमिक पाठशाला में हुई व छठी, सातवीं तथा आठवीं तक की पढ़ाई उन्होंने ‘अनूपपुर दामोदर बहुउद्देशीय माध्यमिक पाठशाला’ में की, जो अब ‘अनूपपुर कन्या महाविद्यालय’ के नाम से जाना जाता है। कक्षा नवीं से बारहवीं तक की पढ़ाई उदय प्रकाश ने ‘शहडोल शासकीय महाविद्यालय’ से तथा ‘रघुराज हायर सेकेंडरी स्कूल’ से की है। पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने सागर विश्वविद्यालय से बी0एस0सी0 की पढ़ाई की। स्नातकोत्तर की पढ़ाई उन्होंने 1974 ई0 में हिंदी विषय से की जिसमें उन्हें ‘नंददुलारे वाजपेयी स्वर्ण पदक’ प्राप्त हुआ। पढ़ाई में अध्ययन के साथ वह ‘साम्यवादी मूवमेण्ट’ से जुड़े रहे। आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे दिल्ली चले गए और 1975 ई0 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पी.एच0डी0 में प्रवेश ले लिया और अध्यापन कार्य में रत रहें।

परिवार एवं दाम्पत्य जीवन - उदय प्रकाश का प्रेम विवाह हुआ है। उनका विवाह 9 जुलाई 1977 ई0 को गोरखपुर निवासी कुमकुम सिंह के साथ हुआ। श्रीमती कुमकुम सिंह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से फ्रेंच भाषा व स्पेनिश भाषा में एम.ए. के साथ इंडोनेशिया भाषा में डिप्लोमा किया था। उनका सम्पूर्ण परिवार शिक्षित है। कुमकुम जी अब दिल्ली के ही एक विद्यालय में कार्यरत हैं। कुमकुम जी उदय प्रकाश के रचनात्मक कार्यकलापों में सक्रिय सहयोग एवं प्रेरणा देती रही हैं। देशभर में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे उनकी चर्चाएं एवं लेख संबंधी सामग्री को जुटाना उनकी दिनचर्या का नितांत हिस्सा है। उन्होंने उदय प्रकाश के साथ जीवन के धूप छाँव में सदैव साथ निभाया है।
उदय प्रकाश के दो पुत्र हैं सिद्धार्थ और शांततु जिनकी आयु क्रमशः 32 एवं 30 वर्ष है। उदय प्रकाश के दोनों पुत्र उच्च पदों पर कार्यरत हैं। बड़ा बेटा सिद्धार्थ अपनी प्रखर बुद्धि के बल पर छात्रवृत्ति प्राप्त कर जर्मन में कार्यरत है। सिद्धार्थ ने फ्रांसीसी लड़की से शादी की है। उनका छोटा बेटा बैंक में कार्यरत है। वर्तमान में उदय प्रकाश गाज़ियाबाद के वैशाली, सेक्टर 9 में स्थित अपने आवास में रहते हुए अपनी पत्नी श्रीमती कुमकुम सिंह के साथ साहित्यिक गतिविधियों में संलग्न हैं।


आर्थिक पृष्ठभूमि - उदय प्रकाश शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटकते रहे। उन्होंने सन् 1978 ई. से 1980 ई. तक जीविकोपार्जन हेतु ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’ में सहायक प्रोफेसर के पद का अध्यापन का कार्य किया। इसके उपरांत सन् 1980 ई0 से 1982 ई. तक संस्कृति विभाग, मध्य प्रदेश में विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी के रूप में रहे और इसी के साथ ‘पूर्वग्रह पत्रिका’ के सहायक संपादक का कार्य संभाला।
स्नातकोत्तर डिग्री में स्वर्णपदक प्राप्त करने के बाद एवं फ्रेंच, जर्मन भाषा में डिप्लोमाधारी एवं विशेषज्ञ उदय प्रकाश को कोई स्थायी नौकरी नहीं मिली। अपनी व्यथा का अंकन वे इस प्रकार करते हैं- ‘‘ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर करते हुए जो आचार्य नंददुलारे वाजपेयी स्वर्ण पदक मैंने हासिल किया था, उसे कमोड में डालकर बहा दूँ-या किसी मंत्री या अफ़सर के कुत्ते के गले में बाँधकर लटका दूँ। झूलते रहें आचार्य जी वहाँ।’’
उदय प्रकाश बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने जीवन में बहुत संघर्ष किया है। उन्होंने सन् 1982-1990 तक टाइम्स ऑफ इण्डिया के समाचार पाक्षिक ‘दिनमान’ के संपादक का कार्य संभाला था, जिसके जनरल एडिटर अशोक वाजपेयी जी थे। इसी दौरान बीच में एक वर्ष 1987 में ‘टाइम्स रिसर्च फाउंडेशन’ के स्कूल आॅफ सोशल जर्नलिज्म में सहायक प्रोफेसर के रूप में अध्यापन का कार्य किया। उदय प्रकाश अस्थायीपन और आर्थिक तंगी से जूझते हुए वे एक वर्ष 1989 ई0 में वह इंडिया पेन्डेन्ट टेलीविजन के विचार और पटकथा लिखते रहे। उन्होंने कभी दूरदर्शन के लिए लिखा, तो कभी डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई। उन्होंने जयपुर पर आधारित दस छोटी-छोटी फिल्में बनाई जो ‘विजयदान देथा’ की शॉर्ट-स्टोरी पर आधारित है। विजयदान देथा राजस्थान के प्रख्यात लेखक हैं।
इसके पश्चात दो वर्ष तक (1991-1992 ई0) में पी0टी0 आई और आई0टी0 वाई टेलीविजन में कार्यरत रहे। इससे उन्होंने एक सांस्कृतिक मैगजीन निकाली, जो बहुत चली और सफल रही। सन् 1990 में उदय प्रकाश कुछ समय तक दिल्ली से निकलने वाले ‘संडे मेल’ साप्ताहिक के वरिष्ठ सहायक संपादक रहे।
इसके पश्चात् अप्रैल 2000 ई0 तक उन्होंने ‘इमीनेन्स- नामक अँग्रेज़ी मासिक पत्रिका के सम्पादन का कार्यभार संभाला जो बैंगलोर से निकलती थी। स्वयं उदय प्रकाश अपनी भागदौड़ भरी जीवनशैली के संदर्भ में कहते हैं, ‘‘आप मेरी पत्नी और बच्चों से पूछें-इतना संघर्ष मैंने किया है, पिछले 17-18 साल से मेरे पास कोई नौकरी नहीं है और जितनी कठिन मेहनत की है हम सबने, बच्चों को पढ़ाया, उनकी फीस का इंतजाम, मकान का किराया देना, आप जानते हैं कि बिना नौकरी के ये चीजें आसान नहीं होती, उनके लिए भागना-दौड़ना पड़ता है। मेरे पास कोई कांटेक्ट भी नहीं थे कि मैं किसी बडे़ अखबार या पत्रिका का सम्पादक बन जाऊँ।’’
वे साहित्य रचनाएँ लिख रहे थे किंतु उसमें पर्याप्त पैसा कमाना मुश्किल था। उदय प्रकाश जी को साहित्यिक प्रसिद्धि ‘पीली छतरी वाली लड़की’ कहानी से मिली। उन्हें इस कहानी से बहुत बड़ी रकम राॅयल्टी के रूप में प्राप्त हुई। यही कहानी उनकी जिंदगी का टर्निंग पॉइंट बना। इसके बाद जब पेंगुइन बुक्स वालों ने उन्हें तीन पुस्तकों के लिए कहा, तब उदय प्रकाश जी को लगने लगा कि साहित्य में उनकी पहचान है। वर्तमान समय में वे पत्र-पत्रिकाओं और फिल्मों के लिए स्वतंत्र लेख और पटकथा लेखन का कार्य कर रहे हैं।
विचारधारा - एक साहित्यकार की विचारधारा उनके कृतित्व द्वारा प्रतिफलित होती है। साहित्यकार अत्यंत संवेदनशील होता है। उसकी संवेदनशीलता उनके कृतित्व को भी प्रभावित करती है और अभिव्यक्ति पाकर वह रचना के माध्यम से पाठकों के हृदय में समाहित रहती है। उदय प्रकाश का जीवन इन्हीं संवेदनाओं की पूँजी है। संवेदनाओं की सघनता उनकी रचनाओं का प्राणतत्त्व हैं।
उदय प्रकाश की साहित्यिक समझ और दृष्टि विशिष्ट है। उन्होंने बचपन से ही बहुत संघर्षों के साथ जीवन यापन किया है। यही इनके लेखन को प्रेरणा प्रदान करता है। उदय प्रकाश प्रसिद्ध कहानीकार के साथ एक कवि भी हैं। कविता के सन्दर्भ में उदय प्रकाश से एक साक्षात्कार में संजय अरोड़ा ने उनसे पूछा ‘‘बगैर एक कवि आप पर किसका प्रभाव अधिक रहा है? उदय प्रकाश-देखिए, किसी भी समय की कविता अपने से पहले की कविता से प्रभावित होती है। अब अगर उसमें कोई दावा करे कि इस काव्य की स्मृति में केदारनाथ सिंह कहीं नहीं हैं, सिर्फ रघुवीर सहाय हैं या रघुवीर सहाय नहीं विष्णु खरे हैं, तो ऐसी बहस का कोई मतलब नहीं होता। हम सभी लोग जो कुछ भी लिखते हैं, कविता हो या कहानी हो, उसमें हमसे पहले के सभी कहानीकारों एवं कवियों की जो सृजन स्मृतियाँ हैं वो हमारे चाहे या अनचाहे शामिल हो जाती है मैं तो इस पूरी मानसिकता के ही खिलाफ हूँ। मुझ पर तो संजय चतुर्वेदी की भी कविता का प्रभाव है और विष्णु खरे की भी कविता का प्रभाव है।’’
निस्संदेह उदय प्रकाश पर किसी एक साहित्यकार का प्रभाव नहीं पड़ा है। इन पर भारतीय साहित्यकारों के साथ पाश्चात्य साहित्यकारों का भी बहुत प्रभाव रहा है। पाश्चात्य साहित्यकारों में चेखव, माक्र्वेज़, बुल्गाकोव, नेरूदा, रोजेविच, जेम्स ज्वायस आदि साहित्यकारों से प्रेरणा ली है।
कबीर, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन जैसे लेखकों की संघर्षशीलता उदय प्रकाश के साहित्य की प्रेरक शक्ति रही है। निर्मल वर्मा और मुक्तिबोध के संबंध में उदय प्रकाश साक्षात्कार में कहते हैं, ‘‘निर्मल वर्मा और मुक्तिबोध-ये दो लेवेल हैं। निर्मल वर्मा के अगर आप निबंध और उससे भी ज्यादा उनकी डायरीज और जर्नल्स पढ़ें और दूसरी ओर मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’ तथा ‘नई कविता का आत्मसंघर्ष’ पढ़ें तो ये दो धु्रव हैं, जिनके बीच आपको लगातार ट्रैवल करना पड़ेगा। यदि आपको साहित्य को साधना है, तो इनके बीच ही आना-जाना पड़ेगा।’’ कथाकार उदय प्रकाश कहते हैं कि हर साहित्यकार अपने से पूर्व या अपने समकालीन साहित्यकार से प्रभावित जरूर होता है।
किसी साहित्यकार की विचारधारा के निर्माण में उसके समय की सामाजिक व्यवस्था, राजनीतिक स्थिति एवं सांस्कृतिक दृष्टि का बहुत प्रभाव रहता है। कोई भी रचनाकार अपने समय में चल रहे आंदोलनों के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता, कथाकार उदय प्रकाश पर भी अपने समय की परिस्थितियों का व्यापक प्रभाव पड़ा। उनका स्वयं का जीवन बहुत उतार-चढ़ाव से भरा है। उनका संघर्ष आदिवासी गाँवों से लेकर कस्बाई वीथियों से गुजरते हुए महानगर की चैड़ी सड़कों तक फैला हुआ है। उदय प्रकाश समय के अंतर्विरोध पर अपनी सूक्ष्म दृष्टि रखते हैं और साहित्य में समेट देते हैं।
कथाकार उदय प्रकाश की राजनीतिक दृष्टि बेजोड़ है। वह अपनी कविताओं, कहानी, निबंधों में राजनीतिक पार्टियों की कलई इस प्रकार खोलते हैं कि राजनीति के गुटबाजी खेमें, सत्ता के दलालों का असली रंग दिखाई देता है। उनका मानना हैं कि गैर राजनीतिक किसी राजकीय दल से मेरा कोई संबंध नहीं है। एक लेखक गैर राजनीतिक हो सकता है पर वह राजनीति से पूर्णतः अछूता नहीं रह सकता। उन्होंने भेदभाव को नकारकर अपनी कहानियों और कविताओं में हर उस व्यक्ति का ज़िक्र किया है जो शोषित है। उदय प्रकाश मानते हैं कि साहित्य वह आधार है जिसमें हम अपने समाज को सम्पूर्ण रूप में व्यक्त करते हैं। साहित्य ही मुक्ति का साधन है। जब हम अपनी बात संप्रेषित कर देते हैं तो हम दबाव से, बोझ से मुक्त हो जाते हैं।
साहित्य समाज का दर्पण होता है। यह पंक्ति उदय प्रकाश के साहित्य के संबंध में पूर्णतः चरितार्थ होती है। उदय प्रकाश पर माक्र्सवाद का व्यापक प्रभाव रहा है। समय की विसंगति को देखते हुए समाज बदला, नई टेक्नाॅलाॅजी के आने से बहुत बड़ा परिवर्तन पूरी सामाजिक संरचना और बनावट में हुआ है। मार्क्स के जो विचार जिसमें उत्पादन के साधनों की बात, पूंजीपतियों का शोषण करना, एवं श्रम की बात थी वर्तमान समय में ये तीनों चीजें नए रूप में अवतरित हुई है। उत्तर-आधुनिक युग में इलेक्ट्रॉनिक दुनिया में मजदूरों का बहुत शोषण हो रहा है।
पूंजीवादी समाज ने ब्रांड को विकसित करके मनुष्य की संवेदना को खरीद लिया है। उदय प्रकाश बदली हुई स्थिति का अवलोकन करते हुए कहते हैं-‘‘आपने देखा होगा कि 90 के बाद या भूमण्डलीकरण के बाद नवसाम्राज्य आ गया। हमारा पूरा संसाधन, पूरी अर्थ नीति, हमारी पूरी सत्ता वह लगभग गुलाम हो चुकी थी, वह नवऔपनिवेशक अधीनता को स्वीकार कर चुकी हैं, लगातार उसकी ओर बढ़ती जा रही है राष्ट्रवाद लगभग समाप्त या अंत हो चुका है।
आज चारों तरफ प्रगति और विकास का बोल बाला है लेकिन विकास और प्रगति सिर्फ ऊँचे पदाधिकारियों और पूंजीपतियों के हाथों में है। गरीब जनता तो और त्रस्त होती जा रही है। सामाजिक व्यवस्था में भी तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। इस पर उदय प्रकाश कहते हैं, ‘‘अगर आप समाज विज्ञान से जुड़े हैं, तो उन नियमों और परिवर्तनों को देखें, जहाँ देखते ही देखते कोई भी सामाजिक प्रगति या सामाजिक विकास किसी ‘डिजास्टर’ समस्या या विस्फोट में बदल जाता है।

उदय प्रकाश की रचना
कहानी : दरियाई घोड़ा, तिरिछ, और अंत में प्रार्थना, पॉल गोमरा का स्कूटर, पीली छतरी वाली लड़की, दत्तात्रेय के दुख, अरेबा-परेबा, मोहनदास, मेंगोसिल
कविता : सुनो कारीगर, अबूतर-कबूतर, रात में हारमोनियम
निबंध : ईश्वर की आँख निबंध
अनुवाद : अनुभव, इंदिरा गाँधी की आखिरी लड़ाई, लाल घास पर नीले घोड़े, रोम्याँ रोलाँ का भारत


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विद्यापति का जीवन परिचय एवं उनकी साहित्यिक विशेषताएं



मैथिल महाकवि विद्यापति का शिव प्रेममैथिल महाकवि विद्यापति का शिव प्रेम
विद्यापति का जीवन परिचय
कवि कोकिल विद्यापति का पूरा नाम विद्यापति ठाकुर था। वे बिसइवार वंश के विष्णु ठाकुर की आठवीं पीढ़ी की संतान थे। उनकी माता गंगा देवी और पिता गणपति ठाकुर थे। वैसेरामवृक्ष बेनीपुरी उनकी माँ का नाम हांसिनी देवी बताते हैं, पर विद्यापति के पद की भनिता (हासिन देवी पति गरुड़ नारायण देवसिंह नरपति) से स्पष्ट होता है कि हांसिनी देवी महाराज देव सिंह की पत्नी का नाम था। कहते हैं कि गणपत्ति ठाकुर ने कपिलेश्वर महादेव (वर्तमान मधुबनी जिला में एक स्थित) की घनघोर आराधना की थी, तब जाकर ऐसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
उनके जन्म-स्थान को लेकर देर तक विवाद चलता रहा। लोग उन्हें बंगला के कवि प्रमाणित करने का कठोर श्रम करते रहे। दरअसल श्रृंगार-रस से ओतप्रोत उनकी राधा-कृष्ण विषयक 'पदावली' मिथिला के कंठ-कंठ में व्याप गई थी। उन दिनों विद्याध्यायन करने बंगाल के 39 शिक्षार्थी मिथिला आया करते थे। काव्य संचरण की प्रक्रिया जो भी रही हो, पर उन्हीं दिनों प्रबल कृष्ण भक्त चैतन्य महा प्रभु के कानों में विद्यापति के पदों की मोहक ध्वनि पड़ी। वे मंत्रमुग्ध हो उठे और ढूँढ-ढूँढकर विद्यापति के पद कीर्तन की तरह गाने लगे। यह परंपरा चैतन्य देव की शिष्य-परंपरा में भली भाँति फलित हुई। कई भक्तों ने तो उस प्रभाव में कीर्तनों की रचना भी कीं। फलस्वरूप बंगीय पदों में विद्यापति के काव्य-कौशल का वर्चस्व स्थापित हो गया। जब स्थान-निर्धारण की बात चली तो आनन-फानन बंगदेशीय बिस्फी राजा शिवसिंह और रानी लखिमा तलाश ली गई और विद्यापति को बंगला का कवि प्रमाणित किया जाने लगा। अनुमान किया जा सकता है कि बंगला और मैथिली की लिपियों में कुछ हद तक साम्य होना भी इसमें सहायक हुआ होगा। पर महा महोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री, जस्टिस शारदा चरन मित्र, नगेंद्र नाथ गुप्त जैसे बंगीय विद्वानों ने अपनी भागीदारी से यह विवाद समाप्त कर दिया तथा इन्होंने स्पष्ट कहा कि विद्यापति मिधिला-निवासी थे। इस विषय पर सर्वप्रथम डॉ. ग्रियर्सन ने चर्चा शुरू की, और व्यवस्थित तर्क के साथ विद्यापति का बिहारवासी होना प्रमाणित किया।
विद्यापति का जन्म-स्थान बिस्फी (जिला- मधुबनी, मंडल- दरभंगा, बिहार) है। राज्याभिषेक के लगभग तीन माह बाद राजा शिवसिंह ने श्रावण सुदि सप्तमी, वृहस्पतिवार, लं.सं. 293 (403 ई.) को ताम्रपत्र लिखकर गजरथपुर का यह गाँव बिस्फी विद्यापति को दिया था। महापुरुषों के जीवन-मृत्यु का काल निर्धारित करते समय अकसर हमारे यहाँ दुविधा रहती है, विद्यापति उसके अपवाद नहीं हैं। विद्वानों ने इस पर पर्याप्त तर्क-वितर्क किया है। किंतु अवहट्ठ में लिखी उन्हीं की एक कविता की कुछ प्रारंभिक पंक्तियों के आधार पर उनका जन्म 4350 ई. (लक्ष्मण संवत 24", शक संवत 4272) तय होता है। इससे अधिक प्रामाणिक कोई गणना नहीं हो सकती।
विद्यापति बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और रचना धर्मी स्वभाव के थे। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा महामहोपाध्याय हरि मिश्र से हासिल की। उनके भतीजे महामहोपाध्याय पक्षधर मिश्र विद्यापति के सहपाठी थे। दस-बारह वर्ष की बाल्यावस्था से ही वे अपने पिता गणपति ठाकुर सिद्ध कृति कीर्तिलता' रु में के साथ महाराज गणेश्वर के दरबार में जाने लगे थे। उनकी प्रकृति चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के मिथिला के क्षेत्रीय जनजीवन की अराजक स्थिति का दारुण विवरण दर्ज है। 'बालचंद विज्जावड़ भासा, दुद्द नहि लग्गड़ दुज्जन हासा' जैसी गर्वोक्ति से विद्यापति के आत्मविश्वास के साथ-साथ यह अर्थ भी लगाया जा सकता है कि इससे पूर्व उनकी कोई महत्वपूर्ण रचना प्रकाश में नहीं आई थी। इन पंक्तियों का एक निहितार्थ यह भी लगाया जा सकता है कि विद्वत्समाज में ईर्ष्या वश विद्यापति के लिए कुछ अवांछित टिप्पणियाँ भी हुई होंगी, जिस कारण उन्हें सज्जन-दुर्जन की घोषणा करनी पड़ी होगी। कीर्ति पताका का रचना काल भी यही माना जाता है, जबकि इस कृति की अंतिम पुष्पिका में शिवसिंह का यशोगान हुआ है।
उनके पद “भनइ विद्यापति सुनु मंदाकिनि' तथा 'दुल्लहि तोहर कतए छथि माए' से ज्ञात होता है कि उनकी पत्नी का नाम मंदाकिनि और पुत्री का नाम दुल्लहि था। उनके पुत्र का नाम हरपति और पुत्रवधू का नाम चंद्रकला था। १439 ई. (लक्ष्मण संवत्त्‌ 329) के कार्तिक धवल त्रयोदशी के दिन महाकवि विद्यापति का अवसान हुआ। किंवदंतियों में सुना जाता है कि उनकी चिता पर अकस्मात शिवलिंग प्रकट हो गया। वहाँ आज भी शिव मंदिर है। फागुन महीने में वहाँ मेला लगता है। पहले वहाँ छोटा-सा मंदिर हुआ करता था, बहुत बाद के दिनों में बालेश्वर चौधरी नामक किसी. जमींदार ने. वहाँ बड़ा-सा. मंदिर बनवाकर, महाकवि विद्यापति का नामोनिशान मिटाकर उस मंदिर का नाम बालेश्वरनाथ रख दिया। सुना यह भी जाता है कि बी.एन.डब्ल्यू रेल पटरी का प्रारंभिक नक्शा विद्यापति की चिता से गुजर रहा था। रेलपथ निर्माण हेतु जब वहाँ के पेड़ों की डालें काटी जानी लगीं, तो टहनियों खून निकलने लगे, और रेल-निर्माण के इंजीनियर घनघोर रूप से बीमार पड़ गए। फिर वहाँ रेल पथ को टेढ़ा किया गया।

विद्यापति भारतीय साहित्यक भक्ति परंपरा क प्रमुख स्तंभ म सँ एकटा आओर मैथिली के सर्वोपरि कवि क रूप म जानल जैत अछि
विद्यापति का समय और रचना संसार
विद्यापति का युग न केवल मिथिला के लिए, बल्कि पूरे भारतवर्ष के लिए सामाजिक, आर्थिक सिलसिलेवार और सांस्कृतिक- हर दृष्टि से उथल-पुथल से भरा था। सिलसिलेवार आक्रमण के कारण पूरा जन जीवन हर समय दहशत में पड़ा रहता था। दिल्ली से लेकर बंगाल तक की यात्रा में आक्रमणकारियों और आक्रांताओं के जय-पराजय की तो अपनी स्थिति थी, पर उस दहशत में सामान्य नागरिक भी मन से व्यवस्थित नहीं रह पाते थे। आक्रमण को जाते हुए उत्साह में और लौटते समय पराजय की हताशा में सैनिक कहाँ - कितना - किसको आहत करते थे, उन्हें पता नहीं होता। पीढ़ी-दर-पीढ़ी अहंकार-तुष्टि और वर्चस्व-स्थापना के लिए तरह- तरह के गठबंधन बन रहे थे। सामंतों को भी तो अपनी अस्मिता कायम रखनी होती थी। पर इन सबके बीच साहित्य एवं कला के लिए जगह भी बनती रहती थी। जाति-व्यवस्था और कठोर हो रही थी, पर राजनीतिक दृष्टिकोण से उसमें परिवर्तन की अपेक्षा देखी जा रही थी। हिंदू-मुसलमान के बीच एक-दूसरे को समझने की नई दृष्टि विकसित हो रही थी। आर्थिक-सामाजिक जरूरतों के चलते दोनों एक-दूसरे के करीब आ रहे थे। कला, साहित्य, संस्कृति, धर्म तथा दर्शन संबंधी मान्यताओं को लेकर दोनों के बीच संवाद की बड़ी जरूरत आन पड़ी थी; जिसमें साहित्य की महती भूमिका अनिवार्य थी। ऐसे समय में विद्यापति की अन्य रचनाओं का जो योगदान है, वह तो है ही, उनकी “पदावली' ने प्रेम, भक्ति और नीति के सहारे बड़ा काम किया। पदलालित्य, माधुर्य, भाषा की सहजता, मोहक गेयधर्मिता से मुग्ध होकर समकालीन और अनुवर्ती साहित्य-कला प्रेमी एवं भक्तजन भाषा, भूगोल, संप्रदाय, मान्यता, जाति-धर्म के बंधन तोड़कर विद्यापति के पद गाने लगे थे। उनका एक घोर शृंगारिक पद है- 'कि कहब हे सखि आनंद ओर, चिर दिने माधव मंदिर मोर...' (हे सखि, बहुत दिनों बाद माधव मुझे अपने कक्ष में मिले, मैं अपने उस आनंद की कथा तुम्हें क्या सुनाऊँ!)। किंतु चैतन्य महाप्रभु इस पद को गाते-गाते इस तरह विभोर हो जाते थे कि उन्हें मूर्छा आ जाती थी।
विद्यापति एक तरफ ओयनबार वंश के कई राजाओं की शासकीय नीति देखकर अनुभव- संपन्न हुए थे, तो दूसरी तरफ समकालीन आर्थिक, राजनीतिक, शासकीय परिस्थितियों के बीच लोक-वृत्त के सूक्ष्म मनोभावों को अनुरागमय दृष्टि से देख रहे थे। दरबार संपोषित सिलसिलेवार रचनाकार होने के बावजूद चारण वृत्ति उनका स्वभाव न था। सिलसिलेवार आक्रमण के बर्बर समय में दहशत पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे जनमानस की जैसी दशा वे देख रहे थे, उसमें बड़े कौशल पूर्ण ढंग से सामाजिक दायित्व निभाने की जरूरत थी। इतिहास साक्षी है कि हर काल के बुद्धिजीवी समकालीन समाज और शासन के दिग्दर्शक होते आए हैं। प्रत्यक्ष परिस्थितियों में स्पष्टतः उपस्थिति शासकीय उन्माद और लोक जीवन की हताशा को अनदेखा कर नए संबंधों की संस्थापना हेतु सौंदर्य और प्रेम से बेहतर कुछ भी नहीं होता; फलस्वरूप विद्यापति ने प्रेम को ही अपने रचना-संधान का मुख्य विषय बनाया। संस्कृत, अवहट्ठ और मैथिली- तीन भाषाओं में रचित उनकी रचनाएँ गवाह हैं कि वे कर्मकांड, धर्मशास्त्र, दर्शन, न्याय, सौंदर्य शास्त्र, संगीत शास्त्र आदि के प्रकांड पंडित थे। भक्ति रचना, शृंगारिक रचनाओं में मिलन-विरह के सूक्ष्म मनोभाव, रति-अभिसार के विशद चित्रण, कृतित्व-वर्णन से राज पुरुषों का उत्साह वर्धन और नीति शास्त्रों द्वारा उन्हें कर्तव्य बोध देना, सामान्य जन जीवन के आहार-व्यवहार की पद्धतियाँ बताना आदि हर क्षेत्र की समीचीन जानकारियाँ उनकी कालजयी रचनाओं में दर्ज हैं। शास्त्र और लोक के संपूर्ण विस्तार पर उनका असाधारण अधिकार था। उनकी प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ हैं- “कीर्तिलता', “कीर्तिपताका', 'भूपरिक्रमा', 'पुरुष परीक्षा', 'लिखनावली', 'गोरक्ष विजय', 'मणिमंजरी नाटिका', 'पदावली'।धर्मशास्त्रीय प्रमुख कृतियाँ हैं- 'शैवसर्वस्वसार', 'शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत... संग्रह', ... “गंगावाक्यावली', .. 'विभागसार','दानवाक्यावली', “दुगभिक्तितरंगिणी', “वर्षकृत्य', “गयापत्तालक'।इन सब में सर्वाधिक लोकप्रिय रचना उनकी 'पदावली' मानी गई।

मैथिल कोकिल कवि - विद्यापति
विद्यापति के काव्य में श्रृंगार
विद्यापति की 'पदावली' के पद दो तरह के हैं- श्रृंगारिक पद और भक्ति पद। इसके अलावा कुछ ऐसे पद भी हैं, जिनमें प्रकृति, समाज, नीति, संगीत आदि जीवन-मूल्यों को रेखांकित किया गया है। शृंगारिक पदों में वय'संधि, नायिका-भेद, नख-शिख वर्णन, मिलन-अभिसार, मान-मनुहार, संयोग-वियोग, विरह-प्रवास आदि का विलक्षण चित्र उकेरा गया है। ऐसे पदों की संख्या साढ़े सात सौ से अधिक है। उल्लेखनीय है कि अपने प्रिय सखा राजा शिवसिंह के तिरोधान (406 ई.) के बाद से विद्यापति ने कोई शृंगारिक पद नहीं रचा; बाद के समय की उनकी सारी ही रचनाएँ भक्ति-प्रधान पद हैं, या फिर नीति, शास्त्र, धर्म, आचार से संबंधित विचार। भक्ति-प्रधान पदों की संख्या लगभग अस्सी हैं; जिसमें शिव-पार्वती लीला, नचारी, राम-वंदना, कृष्ण-वंदना, दुर्गा, काली, भैरवि, भवानी, जानकी, गंगा वंदना आदि शामिल हैं। शेष पदों में ऋतु-वर्णन, बेमेल विवाह, सामाजिक जीवन-प्रसंग, रीति-नीति-संभाषण-शिक्षा आदि रेखांकित है।
उनके श्रृंगारिक पदों के प्रेम और सौंदर्य-विवेचन के आधार राधा-कृष्ण विषयक पद हैं। गौरतलब है कि पूरे भारतीय वाङ्मय में राधा-कृष्ण की उपस्थिति पौराणिक गरिमा और विष्णु के अवतार- कृष्ण की अलौकिक शक्ति एवं लीला के साथ है। पर, विद्यापति के राधा-कृष्ण अलौकिक नहीं हैं, पूरी तरह लौकिक हैं, उनके प्रेम-व्यापार के सारे प्रसंग सामान्य नागरिक की तरह हैं। पूरी 'पदावली' में प्रेम और सौंदर्य वर्णन के किसी बिंदु पर वे आत्मलीन नहीं दिखाई देते। हर पद में रसज्ञ और रस भोक्‍ता के रूप में किसी न किसी राजा, सुलतान की दुहाई देते हैं; या नायक-नायिका को प्रबोधन-उपदेश देते हैं। पूरी 'पदावली' में प्रेम-व्यापारके हर उपक्रम- विभाव, अनुभाव, दर्शन, श्रवण, अनुरक्ति, संभाषण, स्मरण, अभिसार, विरह, सुरति वेदना, मिलन, उल्लास, सुरति-चर्चा, -बाधा, आशा-निराशा या फिर सौंदर्य-वर्णन के हर स्वरूप- नायिका भेद, वयःसंघि, सद्यःस्नाता, कामदग्धा, नवयौवना, प्रगल्मा, आरूढ़ा, स्वकीया, परकीया आदि को रेखांकित करते हुए विद्यापति सतत तटस्थ ही दिखते हैं। पूरी 'पदावली' में विद्यापति भगवद्‌गीतोपदेश के कृष्ण की तरह लिप्त होकर भी निर्लिप्त प्रतीत होते हैं। हर समय वे अपने नायक-नायिका के मनोभावों को रेखांकित कर एक संदेश देते हुए दीखते हैं। जीवन में सौंदर्य और प्रेम के शिखरस्थ स्वरूप को रेखांकित करते हुए वे सभी पदों में जीवन- मूल्य का संदेश देते प्रतीत होते हैं। नागरिक मन से हताशा मिटाने और राजाओं, सुलतानों के हृदय में मानवीय कोमलता भरने का इससे बेहतर उपाय संभवतः उस दौर में और कुछ नहीं हो सकता था। इसलिए विद्यापति रचित 'पदावली' के अनुशीलन की पद्धति उसमें चित्रित प्रेम-प्रसंग और सौंदर्य-निरूपण में कामुकता से परांग्मुख होकर जीवन-मूल्य की तलाश होनी चाहिए। आम नागरिक की तरह उनकी नायिका विरह में व्यथित-व्याकुल होती है और नायक का स्मरण करती है, उन्हें पाने का उद्यम करती है, किसी तरह की अलौकिकता उनके प्रेम को छूती तक नहीं। उन्हें चंदन-लेप भी विष-बाण की तरह दाहक लगता है, गहने बोझ लगते हैं, सपने में भी कृष्ण दर्शन नहीं देते, उन्हें अपने जीने की स्थिति शेष नहीं दीखती।अंत में कवि नायिका को गुणवत्ती बताकर मिलन की सांत्वना के साथ प्रबोधन देते हैं। मिलन की स्थिति में प्रेमातुर नायिका सभी प्रकार से सुखानुभव लेती है। भावोल्लास से भरी नायिका अपने प्रियतम की उपस्थिति का सुख अलग-अलग इंद्रियों से प्राप्त कर रही है- रूप निहारती है, बोल सुनती है, वसंत की मादक गंध पाती है, यत्न पूर्वक क्रीड़ा-सुख में लीन होती है,रसिकजन के रसभोग का अनुमान करती है। जाहिर है कि योजनाबद्ध ढंग से अपनी रचनाशीलता में आगे बढ़ रहे कवि को अपने उद्देश्य की प्राप्ति हेतु विलक्षण रूप से संपन्न भाषा के साथ-साथ अभिव्यक्ति के सभी अवयवों पर पूर्ण अधिकार था।

विद्यापत्ति के काव्य में भक्ति
भक्ति और श्रृंगार- भले ही दो भाव हों, पर दोनों का मर्म एक ही है। दोनों का मूल अनुराग और समर्पण है। दोनों ही भाव व्यक्ति के मन में प्रेम से शुरू होते हैं। वैसे तो अभी भी कुछ लोग मिल जाएंगे जो भक्ति और प्रेम को दो दिशाओं का व्यापार मानते हैं। वे सोचते हैं कि जब तक मनुष्य को ज्ञान नहीं होता, युवावस्था के उन्माद में वह स्त्री के रूप जाल में मोह वश फँसा रहता है, भोग में लिप्त रहता है; जब आँखें खुलती हैं, ज्ञान चक्षु खुलते हैं, तब वह भक्ति-भाव से ईश्वर की ओर मुड़ता है। पर ऐसा सोचना सर्वथा उचित नहीं है। वास्तविक अर्थों में दोनों ही उपक्रमों का प्रस्थान बिंदु एक ही है, व्यापार क्रम एक ही है। दोनों का क्रिया-व्यापार प्रेम के कारण ही होता है और दोनों ही में समर्पण भाव रहता है, स्वीकार भाव रहता है। प्रेम में प्रेमिका, प्रेमी के प्रति समर्पित होती है या प्रेमी प्रेमिका के प्रति, ठीक इसी तरह भक्ति में भक्त, भगवान के प्रति समर्पित होते हैं। मीराबाई की काव्य साधना का उदाहरण हमारे सामने है, उन्हें कृष्ण की प्रिया मानें अथवा कृष्ण की भक्त, संशय हर स्थिति में मौजूद रहेगा।
विद्यापति की 'पदावली' में भक्ति और श्रृंगार के बीच की विभाजक रेखा को समझना थोड़ा कठिन है। माधव की प्रार्थना 'तोहि जनमि पुनु तोहि समाओत, सागर लहरि समाना' में भक्ति और श्रृंगार के इस सघन भाव को समझा जा सकता है। उत्स में विलीन हो जाने का यह एकात्म, आत्मा और परमात्मा की यह एकात्मता उनके यहाँ शृंगारिक पदों में बड़ी आसानीसे मिलती है। अपने प्रेम-इष्ट के प्रति उपासिका का समर्पण इसी तरह का भक्तिपूर्ण समर्पण है।
उन भक्ति कालीन कवियों की तरह विद्यापति के यहाँ न तो स्पष्ट एकेश्वरवाद दिखेगा, न ही अन्य शृंगारिक कवियों की तरह लोलुप भोगवाद। एक डूबे हुए काव्य रसिक के इस समर्पण में ऐसी जीवनानुभूति है कि कहीं भक्ति, श्रृंगार पर और ज्यादातर जगहों पर श्रृंगार, भक्ति पर चढ़ता नजर आता है। उनके यहाँ भक्ति और श्रृंगार की धाराएँ कई-कई दिशाओं में फूटकर उनके जीवनानुभव को फैलाती हैं और कवि के विराट अनुभव संसार को दर्शाती हैं।
भक्ति और श्रृंगार के जो मानदंड आज के प्रवक्ताओं की राय में व्याप्त हैं, उस आधार पर महाकवि विद्यापति के काव्य संसार को बाटें, तो राधा-कृष्ण विषयक ज्यादातर गीत शृंगारिक हैं, पर जो भक्ति गीत हैं, उनमें प्रमुख हैं- शिव स्तुति, गंगा स्तुति, काली वंदना, कृष्ण प्रार्थना आदि। भक्ति और श्रृंगार के विषय में वस्तुतः हमने कुछ धारणाएँ बद्ध मूल कर ली हैं। विद्यापति के नख-शिख वर्णनों के कारण कुछ लोगों को उनकी भक्ति-भावना पर ही शक होने लगता है। पर विद्यापति के काव्य को समझने के लिए तत्कालीन काव्य की मर्यादाओं को समझना जरूरी है। विद्यापति के यहाँ जब-तब भक्तिपरक पदों में श्रृंगार और भक्ति का संघर्ष भी परिलक्षित होता है। शृंगारिक गीतों में सौंदर्य, समर्पण, रमण, विलास, विरह, मिलन के इतने पक्षों में तल्लीन विद्यापति; 'की यौवन पिय दूरे' के कवि विद्यापति, भक्तिपरक गीतों में एकदम रे विनीत हो जाते हैं; पूर्व में किए गए रमण-विलास को सर्वथा निरर्थक बताते हुए 'तोहे भजब कोन बेला' कहकर पछताते हैं; 'तातल सैकत वारि बिंदु सम सुत्त मित रमणि समाजे' कह देते हैं। शृंगारिक गीतों की नायिका के मनोवेग को जीवन देनेवाले विद्यापति उस “रमणि' को तप्त बालू पर पानी की बूँद के समान कहकर भगवान के शरणागत होते हैं। 'अमृत्त तेजि किए हलाहल पीउल' कहकर महाकवि स्वयं श्रृंगार और भक्ति के सारे द्रैध को खत्म कर देते हैं। यहाँ कवि की शालीनता स्पष्ट दिखती है। दो काल खंडों और दो मन स्थितियों में एक ही रचनाकार द्वारा रचना धर्म का यह फर्क कवि का पश्चाताप नहीं, उनकी तल्लीनता प्रदर्शित करता है कि वह जहाँ कहीं है, मुकम्मल है।

विद्यापति के काव्य में लोक जीवन
विद्यापति का रचना-फलक बहुआयामी था। जीवन व्यवहार के हर पहलू पर उनकी दृष्टि सावधान रहती थी। दरबार-संपोषित होने के बावजूद उनका एक भी रचनात्मक उद्यम कहीं चारण-धर्म में लिप्त नहीं हुआ। हर रचना से उन्होंने समकालीन चिंतक, सामाजिक अभिकर्ता, और राजकीय सलाहकार की प्रखर नैतिकता का निर्वाह किया। लोक जीवन की व्यावहारिकता, लालित्यपूर्ण अर्थोत्कर्ष तथा चमत्कारिक सांगीतिकता से भरे उनके पद आम जन जीवन में अत्यंत लोकप्रिय हुए। उनकी पदावली में व्यक्ति के सामाजिक जीवन-यापन के अनेक प्रकरण- जन्म, नामकरण, मुंडन, उपनयन, विवाह, पूजा-पाठ, लोकोत्सव आदि उपलब्ध हैं। आज भी मैथिल जन जीवन का कोई उत्सव विद्यापति के गीत के बिना संपन्न नहीं होता। रचनाकाल की सुनिश्चित जानकारी उपलब्ध न होने के बावजूद कहा जा सकता है कि ये पद एक लंबे समय-फलक में रचित है। मिधिला समेत पूरे पूर्वांचलीय प्रदेशों-बंगाल, असम एवं उड़ीसा में वैष्णव साहित्य के विकास में भाव एवं भाषा माधुर्य के कारण विद्यापति की 'पदावली' का अपूर्व योगदान रहा है। वैष्णव भक्तों के प्रयास से इन गीतों का प्रचार-प्रसार मथुरा-वृंदावन तक हुआ। प्राप्त जानकारी के अनुसार उनके पदों की संख्या लगभग नौ सौ हैं। शिव सिंह के तिरोधान के बाद अनेक वर्षों तक उन्होंने सांस्कृतिक रूप से समृद्ध क्षेत्र नेपाल की तराई, राजबनौली में रहकर रचना कर्म किया।

विद्यापति की भाषा और काव्य सौंदर्य
पदावली' की भाषा मैथिली है, जबकि अन्य रचनाओं की भाषा संस्कृत एवं अवहट्ठ। पदों का संकलन तीन भिन्न-भिन्न भाषिक समाज- मिथिला, बंगाल और नेपाल के लिखित एवं मौखिक स्रोतों से हुआ है। भाषिक संरचना के गुणसूत्रों से परिचित सभी लोग इस बात से सहमत होंगे कि रचनाकार से मुक्त हुई गेयधर्मी रचना लोक-कंठ में वास करती हुई अनचाहे में भी कुछ-न-कुछ अपने मूल स्वरूप से भिन्न हो जाती है और फिर संकलन तक आते-आते उसमें स्थानीयता के कई अपरिहार्य रंग चढ़ जाते हैं। लोक-कंठ से संकलित सामग्री का तो यह अनिवार्य विधान है! विद्यापति 'पदावली' इसका अपवाद नहीं है। चौदहवीं से बीसवीं शताब्दी तक के छह सौ वर्षों की यात्रा में इन पदों में कब, कहाँ और किसके कौशल से क्या जुड़ा, क्या छूटा, यह जान पाना मुश्किल है। इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि इन पदों के प्रारंभिक संकलनकर्ताओं की मातृ भाषा मैथिली नहीं थी। इसलिए ध्वनियों, शब्दों, पदों और संदर्भ-संकेतों को लिखित रूप में व्यक्त करते हुए निश्चय ही परिवर्तन आ गया होगा। पर यह तथ्य है कि विद्यापति के जीते जी 'पदावली' की पंक्तियाँ मुहावरों और कहावतों की श्रेणी पा गई थीं। जीवनोपयोगी विषय एवं सांगीतिकता के अलावा “'पदावली' की इस लोकप्रियता में लोक-रंजक भाषा की उल्लेखनीय भूमिका है। इनके एक-एक पद कई-कई रागों में गाए जाते हैं।
विद्यापति के सभी पद मात्रिक सम छंद में रचित हैं। अधिकांश पदों की रचना एक ही छंद में हुई है; पर कई पदों में मिश्रित छंद का भी उपयोग हुआ है; अर्थात दो-तीन या अधिक छंदों के चरणों का मेल किया गया है। लगभग स्नेह छंद- अहीर, लीला, महानुभाव, चंडिका, हाकलि, चौपई, चौपाई, चौबोला, पद्धरि, सुखदा, उल्लास, रूप माला, नाग, सरसी, सार, मरहठा माधवी, झूलना आदि का स्वतंत्र प्रयोग; और अखंड, निधि, शशिवदना, मनोरम, कज्जल, रजनी, गीता, गीतिका, विष्णुपद, हरिगीतिका, ताटंक, वीर छंद, समान सवैया जैसे छंदों के चरणों को अन्य छंदों में जोड़कर किया गया है। उल्लेख मिलता है कि उल्लास, नाग, रंजनी, गीता छंद के निर्माता विद्यापति ही हैं; क्योंकि उनसे पूर्व के किसी रचनाकार के यहाँ ये चारों छंद नहीं दिखते।


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