इलाहाबाद उच्च न्यायालय का इतिहास



इलाहाबाद उच्च न्यायालय का इतिहास

सन् 1834 से 1861 के बीच की अवधि में अर्थात भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम के लागू होने से पहले भारत में दो प्रकार के न्यायालय कार्यरत थे। वह थे सम्राट के न्यायालय और कंपनी के न्यायालय, जिनके अधिकार क्षेत्र भिन्न थे और जिन्होंने दोहरी न्याय प्रणाली को जन्म दिया था। इन दो प्रकार के न्यायालयों को एकीकृत करने के प्रयास सन् 1861 के बहुत पहले ही प्रारंभ हो गये थे। सन् 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी को भंग कर दिया गया और ब्रिटिश साम्राज्ञी द्वारा भारत के शासन को प्रत्यक्ष रूप से संभालने की नीति ने दो प्रकार के न्यायालयों के एकीकरण की समस्या का निराकरण बहुत आसान कर दिया। सभी लोगों पर लागू होने वाली भारतीय दंड संहिता तथा दीवानी और आपराधिक प्रक्रिया संहिताऍं पारित की गई तथा तत्कालीन उच्चतम न्यायालयों और सदर अदालतों का समामेलन न्यायिक प्रशासन में एकरूपता लागू करने का अगला कदम था। इस लक्ष्य की प्राप्ति ब्रिटिश संसद द्वारा सन् 1861 में पारित भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम (24 और 25 विक्टो0 C 104) द्वारा हुई, जिससे ब्रिटेन की महारानी को उच्चतम न्यायालयों तथा सदर अदालतों को समाप्त करने और उनकी जगह बम्बई,कलकत्ता एवं मद्रास की तीनों प्रेसीडेंसियों में एक-एक उच्च न्यायालय जिसे प्रेसीडेंसी नगरों तथा मोफस्सिल के भी सभी न्यायालयों में सर्वोच्च होना था, के गठन का अधिकार दिया गया । उक्त विधेयक पेश करने के समय सर चार्ल्स वुड ने ब्रिटिश संसद में कहा था कि संपूर्ण देश में केवल एक सर्वोच्च न्यायालय होगा तथा दो के बजाय केवल एक अपील न्यायालय होगा और चूंकि कनिष्ठ न्यायालयों में न्यायिक प्रशासन उन निर्देशों पर आधारित होता है जो उनके द्वारा ऊपर की अदालतों में भेजी गई अपीलों का निस्ताररण करते समय जारी किये जाते है, अत: मुझे आशा है कि इस प्रकार गठित उच्चतर न्यायालय सामान्य रूप से पूरे भारत में न्यायिक प्रशासन में सुधार लाऍंगे।
इसी अधिनियम की धारा 16 के द्वारा क्राउन को ब्रिटिश भारत में किसी अन्य उच्च न्यायालय का गठन करने का अधिकार भी दिया गया था। उक्त धारा के द्वारा प्रदत्त शक्तियों के आधार पर क्राउन ने लेटर्स पेटेंट के द्वारा फोर्ट विलियम की प्रेसीडेंसी के उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के लिये एक उच्च न्यायालय का गठन सन् 1966 में आगरा में किया। इसे उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के लिए उच्च न्यायालय की संज्ञा दी गयी जिसके मुख्य न्यायाधीश सर वाल्टर मॉर्गन तथा अन्य पांच न्यायाधीशों के नामों का उल्लेख स्वयं चार्टर में था। उच्च न्यायालय का गठन अभिलेख न्यायालय के रूप में किया गया था (खंड-1) । इसकी स्थापना के साथ ही आगरा प्रदेश में पिछले 35 वर्षो से कार्य कर रही सदर दीवानी अदालत और सदर निजाम अदालत को समाप्त कर दिया गया और उच्च न्यायालय अपने लेटर्स पेटेंट और उक्त अधिनियम की धारा 16 और 9 के आधार पर सभी अपीलीय और प्रशासनिक शक्तियों से सम्पन्न हो गया तथा अन्य न्यायालयों के प्राधिकार और अधिकारिताऍं समाप्त हो गयीं। अपने लेटर्स पेटेंट द्वारा उच्च न्यायालय कुछ विशेष मामलों में उन शक्तियों और प्राधिकारों से भी सम्पन्न किया गया जो कलकत्ता उच्च न्यायालय के पास थीं। इन विशेष मामलों में शामिल थे वकीलों के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाहियॉं (खंड-18), अवयस्कों एवं भ्रान्तचित्त व्यक्तियों के अधिकारों का संरक्षण (खंड-12), वसीयतयुक्त और वसीयत विहीन मामलों में उत्तराधिकार (खंड-25) तथा वैवाहिक मामले (खंड-26)। हालांकि विवाह विषयक अधिकारिता का प्रयोग इस उच्च न्यायालय द्वारा ब्रिटिश महारानी की ईसाई प्रजा के लिए ही किया जा सकता था।
इस उच्च न्यायालय को दीवानी मामलों में मौलिक क्षेत्राधिकार नहीं दिया गया था तथा लेटर्स पेटेंट खंड 15 के द्वारा इसे प्रदत्त सामान्य आरंभिक आपराधिक अधिकारिता भी उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के निवासी यूरोपीय ब्रिटिश प्रजाजन तक ही सीमित थी जो इस उच्च न्यायालय की स्थापना के पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय की सामान्य आरंभिक आपराधिक अधिकारिता के अधीन रहे थे। अपनी सामान्य आरंभिक आपराधिक अधिकारिता का प्रयोग करते हुए उच्च न्यायालय विधि के सम्यक अनुक्रम में अपने समक्ष लाए गए उपर्युक्त किसी भी व्यक्ति के संबंध में परीक्षण कर सकता था (खंड-16) और इस शक्ति के अंतर्गत उच्च न्यायालय उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों से बाहर के निवासी यूरोपीय-ब्रिटिश प्रजाजन के विषय में भी विचारण कर सकता था किन्तु उच्च न्यायालय को दिवालिया प्रकृति के वादों तथा नौसेना विधि से संबंधित वादों के श्रवण का अधिकार नहीं था।
अपनी असाधारण आरंभिक सिविल अधिकारिता (खंड-9) के रूप में उच्च न्यायालय को यह अधिकार दिया गया था कि वह किसी भी दीवानी मामले को अपने किसी अधीनस्थ न्यायालय से हटाकर उस पर स्वयं विचारण करके निर्णीत कर सकता था। उसे अपनी अपीलीय अधिकारिता के प्रयोग के अंतर्गत सदर अदालतों की तरह अपने अपीली अधिकारिता क्षेत्र में आने वाले न्यायालयों के निर्णयों के विरूद्ध अपीलें सुनने के लिए प्राधिकृत किया गया था। (खण्ड 11 एवं 50) इसके दो न्यायाधीशों की खंडपीठ के सम्मुख अपने ही न्यायालय के एकल न्यायाधीश द्वारा निर्णीत सिविल मामलों की अपीलों पर सुनवाई हो सकती थी (खंड-10)। उच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ आपराधिक न्यायालयों के निर्णयों के संबंध में निर्देश न्यायालय तथा पुनरीक्षण न्यायालय भी बनाया गया (खंड-21)। इसे किसी भी आपराधिक मामले या अपील को एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय में स्थानांतरित करने की शक्ति भी दी गई (खंड-21)। किन्तु सन् 1950 तक इस उच्च न्यायालय के पास रिट याचिका जारी करने की शक्ति नहीं थी क्योंकि न तो यह सर्वोच्च न्यायालय का उत्तराधिकारी था और न ही यह शक्ति इसे लेटर्स पेटेंट या सन् 1877 के अधिनियम विनिर्दिष्ट अनुतोष की धारा 45 द्वारा प्रदान की गई थी।
इस न्यायालय द्वारा असाधारण आरंभिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में लागू की जाने वाली साम्या विधि (equity) वही थी जो इसके अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा लागू की जाती थी (खंड-13) और इसकी सिविल अपीलीय अधिकारिता के प्रयोग में लागू की जाने वाली साम्याविधि और शुद्ध अंतःकरण (good conscience) की विधि को ठीक वैसा ही होना था जैसी कि वह अधीनस्थ न्यायालयों के कार्य में प्रयुक्त होती थी (खंड-14)। अंग्रेजी विधि भारत में स्वयमेव लागू नहीं होती थी। अपितु वह यहां साम्या और शुद्ध अंतःकरण के नियमों को उपलब्ध कराकर प्रयुक्त होती थी और वह भी तब जब भारतीय समाज और परिस्थितियों के संदर्भ में उसे उपयोगी पाया जाता था।
उच्च न्यायालय को आरंभिक फौजदारी न्यायालय एवं अपीलीय पुनरीक्षण तथा निर्देश न्यायालय के रूप में अपनी अधिकारिता के प्रयोग क्रम में किसी अपराध के लिए व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के अंतर्गत दंडित करने के लिए आदेशित किया गया था (खंड-23) इसके अतिरिक्त यह भी आदेशित किया गया था कि अपनी असाधारण आरंभिक फौजदारी अधिकारिता (खंड-15) के प्रयोग क्रम में उच्च न्यायालय द्वारा विचारित सभी फौजदारी मामलों में कार्यवाहियों का नियमन लेटर्स पेटेंट वर्ष 1866 के प्रकाशन के ठीक पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय में उपयोग की जाने वाली ‘आपराधिक प्रक्रिया और प्रचलन’ के अनुसार किया जाएगा और अन्य सभी आपराधिक मामलों में कार्यवाहियों का नियमन दंड प्रक्रिया संहिता 1861 या ऐसी अन्य विधियों द्वारा होगा जो सपरिषद गवर्नर जनरल द्वारा इस उद्देश्य से निर्मित की गई हैं अथवा भविष्य में निर्मित होंगी (खंड-29)।
भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम 1861 की धारा 15 द्वारा (24 और 25 विक्टो0C 104) और भारत शासन अधिनियम 1915 के द्वारा उच्च न्यायालयों को अपनी अपीलीय अधिकारिता से संबंधित सभी न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति से संपन्न बनाया गया और उस सीमा तक विवरणियां मँगाने, किसी वाद या अपील को एक अधीनस्थ न्यायालय से दूसरे में स्थानांतरित करने तथा ऐसे न्यायालयों की कार्यवाहियों और परिपाटी को नियमित करने के लिए सामान्य नियम बनाने और जारी करने तथा प्रारूप विहित करने की शक्ति उन्हें दी गई। दीवानी मामलों के स्थानांतरण की उस शक्ति को छोड़कर, जो सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 24 में समाविष्ट हैं, उच्च न्यायालयों की यह शक्तियां भारत शासन अधिनियम 1935 (धारा 224) तथा भारत के संविधान (अनुच्छेद 227) द्वारा आगे भी जारी रहीं।
उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के लिए उच्च न्यायालय का स्थान सन् 1869 में आगरा से इलाहाबाद स्थानांतरित कर दिया गया और सन् 1919 में 11 मार्च को जारी एक पूरक लेटर्स पेटेंट द्वारा इसका पदनाम बदलकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय (द हाई कोर्ट आफ जुडीकेचर ऐट इलाहाबाद) कर दिया गया। यही पदनाम आज तक प्रयुक्त हो रहा है।
अवध में सन् 1856 में एक न्यायिक आयुक्त और एक वित्तीय आयुक्त की नियुक्ति की गई थी। सन् 1856 से 1863 की अवधि में सर्व श्री ओमानी, कैम्पबेल और कूपर ने क्रमश: न्यायिक आयुक्त के रूप में कार्य किया। न्यायिक आयुक्त का न्यायालय सन् 1865 के सी.पी. कोर्ट~स ऐक्ट द्वारा पुनर्गठित किया गया और इसकी धारा 25 के द्वारा इसे अवध तक विस्तृत किया गया। तत्पश्चात यह पुन: सन् 1871 के अधिनियम सं0 XXXII द्वारा गठित किया गया। इस अधिनियम की धारा 23 और 24 के अनुसार किसी अपील पर निर्णय करते समय संशय की स्थिति उत्पन्न होने पर अवध के न्यायिक आयुक्त को ऐसे मामलों का विचारण हेतु इलाहाबाद उच्च न्यायालय को निर्देशित करना पड़ता था तथा मामले के अभिलेख तथा उससे संबंधित सभी कार्यवाहियों का ब्यौरा भी उच्च न्यायालय को प्रेषित करना पड़ता था।तब उच्च न्यायालय इस पर इस प्रकार सुनवाई करके, मानो यह वहीं प्रस्तुत किया गया हो, अपने निर्णय की एक प्रति अवध के न्यायिक आयुक्त को भेजता था जो इसके बाद मामले का निपटारा उसी निर्णय के अनुरूप कर देता था। सन् 1885 के अधिनियम सं0 IV, सन् 1891 के अधिनियम सं0 XIV तथा सन् 1897 के अधिनियम XVI के प्रावधानों के अनुसार अपर न्यायिक आयुक्तों की नियुक्तियां भी की गई।
अवध में न्यायिक आयुक्त का न्यायालय लगभग 70 वर्षो तक सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय के रूप में कार्यरत रहा। हालॉंकि इस प्रांत में भू-राजस्व निर्धारण के मामलों में सन् 1865 के अवध राजस्व न्यायालय अधिनियम की धारा 2-3 के अधीन वित्तीय आयुक्त ने सर्वोच्च न्यायालय के रूप में कार्य किया तथा ऐसे मामलों में उस समय न्यायिक आयुक्त की कोई अधिकारिता नहीं थी, किन्तु सन् 1871 के अधिनियम सं0 XXXII की धारा 84 के वित्तीय आयुक्त का पद समाप्त कर दिया गया तथा ऐसे सारे मामले फिर से न्यायिक आयुक्त को सौंप दिये गए।
अवध मुख्य न्यायालय (चीफ कोर्ट)
अवध न्यायिक आयुक्त के न्यायालय के स्थान पर लखनऊ में अवध मुख्य न्यायालय (चीफ कोर्ट) की स्थापना 2 नवम्बर सन् 1929 को की गई। इस बार ऐसा लेटर्स पेटेंट द्वारा नहीं बल्कि भारत शासन अधिनियम 1919 की धारा 80-ए (3) के अनुसार गवर्नर जनरल की पूर्व अनुमति से उत्तर प्रदेश विधान सभा द्वारा अधिनियमित अवध दीवानी न्यायालय अधिनियम सं0 IV, सन् 1925 के द्वारा किया गया। इस न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और चार अवर न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान था। सन् 1945 में अवर न्यायाधीशों की संख्या पांच कर दी गयी। वर्ष 1929 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्रीमान न्यायमूर्ति स्टुअर्ट को अवध मुख्य न्यायालय का पहला मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। इस न्यायालय को पांच लाख रूपया एवं उससे अधिक राशि के वादों की सुनवाई करने के लिए साधारण आरंभिक अधिकारिता से सम्पन्न किया गया था और इसे अवध में उद~भूत होने वाले दीवानी और फौजदारी मामलों के लिए उच्चतम अपीलीय और पुनरीक्षण न्यायालय घोषित किया गया था। इसकी साधारण आरंभिक दीवानी अधिकारिता को सन् 1939 के उ0प्र0 अधिनियम सं0 IX द्वारा समाप्त कर दिया गया तथा यहॉं विचाराधीन आरंभिक वाद और तत्सम्बन्धी कार्यवाहियों को संबंधित जिला न्यायाधीश को स्थानान्तरित कर दिया गया।
सन् 1911 के उच्च न्यायालय अधिनियम के अंतर्गत प्रत्येक उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की अधिकतम संख्या को 16 से बढ़ाकर 20 कर दिया गया जिसमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल था तथा न्यायाधीशों को भारत के राजस्व से वेतन देने का प्रावधान किया गया।
वर्ष 1915 में भारत शासन अधिनियम को ब्रिटिश संसद द्वारा भारत के शासन और उच्च न्यायालयों संबंधी तत्कालीन संविधियों को पुन: अधिनियमित एवं समेकित करने के लिए पारित किया गया। सन् 1861 तथा सन् 1911 के उच्च न्यायालय अधिनियमों के प्रावधानों को इसमें पुन: अधिनियमित किया गया।जिसके अनुसार प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा सम्राट द्वारा निर्धारित संख्या में नियुक्त अन्य न्यायाधीश होते थे। उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए योग्यताऍं भी निर्धारित की गईं। उच्च न्यायालयों को आरंभिक और अपीलीय अधिकारिता दी गई जिसमें खुले समुद्र में किये गये अपराधों से संबंधित अधिकारिता भी शामिल थी। उन्हें अभिलेख न्यायालय घोषित किया गया तथा न्यायालय के कार्यो को नियमित करने के लिए नियम बनाने की शक्ति भी दी गई। किन्तु राजस्व मामलों में किसी आरंभिक अधिकारिता का प्रयोग करने या स्थानीय प्रचलन और परंपरा के अनुसार राजस्व एकत्र करने के लिए की गई किसी कार्यवाही को अमान्य करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं दिया गया। उसके पास सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर पर्यवेक्षण की निहित शक्तियां थीं।
ब्रिटिश संसद ने भारत शासन अधिनियम 1935 को अधिनियमित करते हुए भारत की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यकलाप को नियमित करने के लिए एक नया विधान दिया। अधिनियम में उच्च न्यायालयों की स्थापना, अधिकारिता और शक्तियों को नियमित करने वाले कई प्रावधान थे। इस अधिनियम के उच्च न्यायालयों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान संक्षेप में इस प्रकार बताए जा सकते हैं--
  1. सन् 1935 के अधिनियम में प्रावधान किया गया कि प्रत्येक उच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश और कुछ अन्य न्यायाधीश होंगे जिनकी नियुक्ति समय-समय पर सम्राट द्वारा की जाएगी। सन् 1911 के अधिनियम के उस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया जिसमें न्यायाधीशों की अधिकतम संख्या 20 निश्चित की गई थी तथा सन् 1935 के अधिनियम ने सपरिषद सम्राट को समय-समय पर प्रत्येक उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या निश्चित करने की शक्ति प्रदान की।
  2. तत्कालीन उच्च न्यायालयों की अधिकारिता, इनमें विधिक प्रशासन तथा न्यायाधीशों की शक्तियां सन् 1935 के अधिनियम में भी वैसी ही बनी रहीं जैसी वे इसके पहले थीं। सन् 1915 में किसी राजस्व संबंधी मामले को संज्ञान में लेने की तीन प्रेसिडेंसी उच्च न्यायालयों की आरंभिक अधिकारिता पर जो प्रतिषेध आरोपित किया गया था, उसे जारी रखा गया।
  3. सन् 1935 के अधिनियम में उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतन, भत्तों तथा पेंशन के संबंध में यह प्रावधान किया गया कि इन्हें न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय सम्राट द्वारा निश्चित किया जाएगा। यह भी प्रावधान किया गया कि न्यायाधीश की नियुक्ति के बाद इनमें से किसी में भी उसके लिए हानिकारक परिवर्तन नहीं किया जाएगा। इस महत्वपूर्ण प्रावधान ने कार्यपालिका के किसी हस्तक्षेप की संभावना से न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित की।
  4. उच्च न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री अथवा अंतिम आदेश के विरूद्ध संघीय न्यायालय में अपील का प्रावधान भी किया गया।
  5. उच्च न्यायालय के लेटर्स पेटेंट में एक प्रावधान यह था कि न्यायाधीशों में मतभेद होने की स्थिति में, जबकि किसी मत के पक्ष में बहुमत न हो, वरिष्ठ न्यायाधीश के दृष्टिकोण को मान्य होना था, जबकि दूसरी ओर सिविल प्रक्रिया संहिता के धारा 98 में एक प्रावधान यह था कि जब किसी अपील पर सुनवाई करते हुए दो न्यायाधीशों की खंडपीठ में किसी विधिक बिंदु पर मतभेद पैदा होगा तो उन्हें उस बिंदु का उल्लेख करते हुए उस मामले और अपील को निर्दिष्ट करना होगा तथा तब अपील पर केवल उसी बिंदु के संदर्भ में एक या अधिक न्यायाधीश सुनवाई करेंगे और उनकी राय के अनुसार उस अपील का निपटारा होगा।
अवध मुख्य न्यायालय का उच्च न्यायालय इलाहाबाद में समामेलन
भारत द्वारा स्वतंत्रता- प्राप्ति के पश्चात, एक स्थानीय शासन के अंतर्गत आ चुके आगरा और अवध क्षेत्रों के एक ही प्रदेश (यूनाइटेड प्रोविन्स) में दो उच्च अपीलीय न्यायालयों के सन् 1902 से ही विद्यमान होने की ऐतिहासिक विसंगति को बड़ी गम्भीरता से महसूस किया गया। उ0प्र0 उच्च न्यायालय समामेलन आदेश, 1948 के द्वारा अवध के मुख्य न्यायालय का इलाहाबाद उच्च न्यायालय से समामेलन कर दिया गया तथा नये उच्च न्यायालय को दोनों समामेलित न्यायालयों की अधिकारिता प्रदान की गयी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सर बी0 मलिक को नये उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया तथा अवध मुख्य न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों को नये न्यायालय में अवर न्यायाधीश नियुक्त किया गया। समामेलन आदेश के द्वारा लेटर्स पेटेंट में वर्णित उच्च न्यायालय इलाहाबाद की अधिकारिता तथा अवध न्यायालय अधिनियम में वर्णित मुख्य न्यायालय लखनऊ की अधिकारिता को संरक्षित रखा गया। नये न्यायालय की मुहर को मुख्य न्यायाधीश द्वारा उपलब्ध कराया जाना था तथा इस समामेलन के ठीक पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समादेशों और तत्सम्बन्धी अन्य प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में जो विधियां प्रभावी थीं, उन्हें आवश्यक परिवर्तनों के साथ नये न्यायालय द्वारा अपना लिया गया। न्यायाधीशों को इलाहाबाद में या राज्यपाल की सहमति से मुख्य न्यायाधीश द्वारा निदेशित किन्हीं अन्य स्थलों पर कार्य करना था जबकि कम से कम दो न्यायाधीशों को लखनऊ में बैठना था और ऐसा तब तक रहना था जब तक राज्यपाल मुख्य न्यायाधीश की सहमति से अन्यथा निर्देशित न करें। अवध क्षेत्र में उद~भूत होने वाले किसी मामले या किसी वर्ग के मामलों को इलाहाबाद में सुनवाई हेतु निदेशित करने की शक्ति मुख्य न्यायाधीश को प्रदान की गयी थी। जबकि इलाहाबाद क्षेत्र के मामलों को लखनऊ पीठ को स्थानांतरित करने के लिए कोई तत्संवादी उपबंध समामेलन आदेश में नहीं था।
जुलाई 1949 में ”राज्य- विलयन (गवर्नर के प्रांत) आदेश” पारित किया गया जिसे नवंबर में “राज्य विलयन (संयुक्त प्रांत) आदेश 1949” द्वारा संशोधित किया गया। इसके द्वारा अनुसूची में विनिर्दिष्ट कुछ भारतीय राज्यों की शक्तियों को जो डोमिनियन सरकार में निहित थीं, उनके पार्श्व में स्थित गवर्नर शासित प्रांतों को स्थानांतरित कर दिया गया। अनुसूची VII में विनिर्दिष्ट यह राज्य रामपुर, बनारस और टिहरी गढ़वाल थे और धारा 3 के अनुसार उक्त राज्यों को इस प्रकार से प्रशासित होना था मानो वे विलयनकारी प्रांत के ही भाग थे। उक्त राज्यों में कानूनों को लागू करने के संबंध में सपरिषद गवर्नर जनरल के द्वारा “विलीन राज्य विधियाँ अधिनियम” पारित किया गया। इस अधिनियम के द्वारा इसकी अनुसूची में वर्णित अनेक अधिनियमों को विलीन राज्यों में लागू करने का प्रावधान किया गया।
स्थानीय विधियों के विषय में “उ0प्र0 विलीन राज्य (विधियों का उपयोजन) अधिनियम 1950”, 16 मार्च 1950 को पारित किया गया । इस अधिनियम ने “उ0प्र0 विलीन राज्य (विधियों का उपयोजन) अध्यादेश” का स्थान लिया जिसके द्वारा उत्तर प्रदेश के भाग के रूप में प्रशासित होने वाले विलीन राज्यों बनारस, रामपुर और टिहरी गढ़वाल में इसकी अनुसूची में वर्णित विधियों का विस्तारण किया गया था। राज्य विलयन आदेश की धारा 12 के द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय की अधिकारिता को रामपुर के विलीन राज्य तक विस्तृत किया गया। नवाब की अध्यक्षता वाली प्रिवी काउंसिल ‘इजलास-ए-हुमायूँ’,रामपुर के उच्च न्यायालय तथा दीवानी न्यायालय समाप्त कर दिये गये तथा इजलास-ए-हुमायूँ एवं उच्च न्यायालय रामपुर में विचाराधीन सभी कार्यवाहियां उच्च न्यायालय इलाहाबाद में तथा दीवानी न्यायालयों में लंबित सभी मामले जिला न्यायाधीश रामपुर को स्थानांतरित हो गयीं।
बनारस के मामले में गवर्नर ने केन्द्र सरकार द्वारा उन्हें प्रत्यायोजित प्राधिकार का प्रयोग करते हुए 30 नवंबर 1949 को “बनारस राज्य (प्रिवी काउंसिल और मुख्य न्यायालय की समाप्ति) आदेश, 1949” जारी किया जिसके द्वारा ये न्यायालय समाप्त कर दिये गये तथा इनके समक्ष विचाराधीन सभी अपीलें और अन्य कार्यवाहियां इलाहाबाद उच्च न्यायालय को स्थानांतरित हो गयीं। अन्य अधीनस्थ न्यायालयों के स्थान पर एक अलग आदेश के माध्यम से जिला न्यायालयों को प्रतिस्थापित किया गया।
इसी प्रकार “टिहरी गढ़वाल (हुजूर के न्यायालय तथा उच्च न्यायालय की समाप्ति) आदेश, 1949” द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय की अधिकारिता टिहरी गढ़वाल के लिए विस्तृत की गयी तथा विचाराधीन अपीलों को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया।
भारत के संविधान के लागू होने की तिथि 26 जनवरी 1950 अर्थात~ प्रथम गणतंत्र दिवस समारोह की पूर्व संध्या को वर्तमान इलाहाबाद उच्च न्यायालय को उत्तर प्रदेश के संपूर्ण क्षेत्र में अधिकारिता प्राप्त हो गयी।
“उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000” के द्वारा उत्तरांचल राज्य तथा उत्तरांचल उच्च न्यायालय 8 और 9 नवंबर 2000 के बीच की मध्यरात्रि से अस्तित्व में आये तथा इस अधिनियम की धारा 35 के अनुसार उत्तरांचल राज्य के क्षेत्र में आने वाले 13 जिलों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की अधिकारिता समाप्त हो गयी।

भारत के संविधान में उच्च न्यायालय
संविधान के अंतर्गत प्रत्येक राज्य की अपनी न्यायपालिका है जो केन्द्र और राज्य दोनों की विधियों को प्रशासित करती है। इसे सोपानिक संरचना में व्यवस्थित किया गया है। राज्य की न्यायपालिका के शीर्ष पर उच्च न्यायालय है जो राज्य में दीवानी और फौजदारी मामलों के लिए अपील और पुनरीक्षण का सर्वोच्च न्यायालय है। इसे अधीनस्थ न्यायपालिका के ऊपर प्रशासनिक और न्यायिक दोनों ही प्रकार की विस्तृत शक्तियाँ प्राप्त हैं। भारत के वर्तमान संविधान में उच्च न्यायालयों के विषय में बहुत से प्रावधान हैं, उनकी संपूर्ण व्याख्या यहां नहीं की जा रही है क्योंकि यह विषय मुख्य रूप से संवैधानिक विधि के क्षेत्र में आता है। फिर भी उच्च न्यायालय का एक सामान्य परिचय यहां दिया जा रहा है।
संविधान ने सभी विद्यमान उच्च न्यायालयों को पुनर्गठित किया। इसने प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय का प्रावधान किया। संसद को दो या अधिक राज्यों अथवा केंद्र शासित प्रदेशों के लिए एक उच्च न्यायालय की स्थापना की शक्ति दी गयी है। उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय है तथा यह अपनी अवमानना के लिए दंड दे सकता है। यह किसी भी न्यायालय या प्राधिकरण के प्रशासनिक अधीक्षण में नहीं है, हालांकि इसके निर्णयों की अपीलें उच्चतम न्यायालय में की जा सकती हैं। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत संख्या में अन्य न्यायाधीश होते हैं। इस समय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 95 है।
मुख्य न्यायाधीश न्यायालय के प्रशासनिक कार्य का प्रभारी होता है तथा वह अपने साथी न्यायाधीशों में न्यायिक कार्य का वितरण करता है। उसके अपने न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में उसकी सलाह भी ली जाती है। किन्तु न्यायालय में न्यायिक कार्य के सम्पादन में उसका स्तर किसी अन्य न्यायाधीश से ऊँचा नहीं होता है तथा विशेष अपील में किन्हीं अन्य दो न्यायाधीशों द्वारा उसके निर्णय को उलटा जा सकता है। साथ ही यदि वह तीन न्यायाधीशों की न्यायपीठ में विद्यमान हो तो उसके शेष दोनों साथियों द्वारा बहुमत से उसके निर्णय के विरूद्ध व्यवस्था दी जा सकती है। उसका किसी अन्य न्यायाधीश पर कोई प्रशासनिक नियंत्रण नहीं होता है तथा उसकी स्थिति को ‘समानों में प्रथम’ ( Primus inter pares) कहा जा सकता है।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति हेतु व्यक्ति को अनिवार्यत: भारत का नागरिक होना चाहिए तथा उसे किसी न्यायिक पद पर कम से कम दस वर्ष का अनुभव होना चाहिए या कम से कम दस वर्ष तक लगातार उच्च न्यायालय में वकालत का अनुभव होना चाहिए। इस प्रावधान की तुलना पूर्व में भारत शासन अधिनियम, 1935 में प्रतिपादित योग्यताओं से करने पर कई परिवर्तन दृष्टिगत होते हैं। अब एक बैरिस्टर उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए स्वत: अर्ह नहीं है। वह उच्च न्यायालय में तभी नियुक्त हो सकता है जबकि वह कम से कम दस वर्ष से किसी उच्च न्यायालय में वकालत कर रहा हो या कम से कम दस वर्ष किसी न्यायिक पद पर कार्यरत रह चुका हो। न्यायिक सेवा के किसी व्यक्ति के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति की पात्रता के लिए आवश्यक सेवा अवधि पॉंच वर्ष से बढ़ाकर दस वर्ष कर दी गयी है। एक सिविल सेवक अब उच्च न्यायालय में तभी नियुक्त किया जा सकता है जब उसने दस वर्ष तक कोई न्यायिक पद धारण किया हो जबकि इससे पहले तीन वर्ष तक जिला न्यायाधीश के रूप में कार्य करने वाला कोई सिविल सेवक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने का पात्र हो जाता था। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश, संबंधित राज्य के राज्यपाल तथा उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह-मशविरे के बाद की जाती है।
उच्च न्यायालयों की सत्यनिष्ठा को सुरक्षित रखने के लिए तथा उन्हें कार्यपालिका के नियंत्रण से स्वतंत्र रखने के लिए संविधान में बहुत से प्रावधान किये गये हैं ताकि वे अपने न्यायिक कार्यो का संपादन भय और पक्षपात से रहित होकर कर सकें। न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है तथा वे बासठ वर्ष की आयु पूरी होने पर सेवानिवृत्त होते हैं। इससे पहले उन्हें केवल उस स्थिति में हटाया जा सकता है जब संसद का प्रत्येक सदन अपनी कुल सदस्य संख्या के बहुमत से तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों की कुल संख्या के कम से कम दो तिहाई बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव उनके साबित कदाचरण या अक्षमता के आधार पर पारित करें। यह प्रावधान उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को कार्यकाल संबंधी वही सुरक्षा देता है जो इंग्लैंड के न्यायाधीशों को प्राप्त है । यह मौलिक प्रावधान है क्योंकि 1935 के भारत- शासन अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था। राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद ही किसी न्यायाधीश को एक उच्च न्यायालय से दूसरे में स्थानान्तरित कर सकता है। न्यायाधीशों के वेतन संविधान की दूसरी अनुसूची में वर्णित हैं और इस कारण वश संविधान-संशोधन के बिना नहीं बदले जा सकते हैं। किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के भत्तों, अवकाश तथा पेंशन में उसकी नियुक्ति के बाद उसके लिए अलाभकर कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। किसी न्यायाधीश को पदच्युत करने के लिए लाए गये पूर्ववर्णित प्रस्ताव की सुनवायी के अलावा और किसी स्थिति में किसी केंद्रीय या राज्य की विधायिका में उसके कार्य निष्पादन संबंधी आचरण के बारे में चर्चा नहीं की जा सकती है। यह प्रतिबंध उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को स्थानीय राजनीतिक दबावों से सुरक्षित करता है।उच्च न्यायालय के व्यय, उस राज्य की समेकित निधि पर भारित होते हैं।
भारत के संविधान द्वारा उच्च न्यायालयों की अधिकारिता, उनमें प्रशासित विधि और न्यायालय के नियम बनाने की उनकी शक्तियों को उसी रूप में जारी रखा गया है जैसी वे संविधान के लागू होने के ठीक पहले थीं। उच्च न्यायालय की यह अधिकारिता और शक्ति भारतीय संविधान के तथा उपयुक्त विधायिका द्वारा निर्मित विधि के प्रावधानों के अधीन है। संविधान के द्वारा ऐतिहासिक सततता को कायम रखने के लिए यह यथास्थिति बनाए रखी गयी है (अनुच्छेद 225) । संविधान के लागू होने के अवसर पर प्रशासित विधि में निर्णयज-विधि भी शामिल है। इसलिए विशेष रूप से यह प्रावधान भी किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत के सभी न्यायालयों के लिए बाध्यकारी होगी। अत: विधिक स्थिति यह है कि प्रिवी काउंसिल एवं संघीय न्यायालय के निर्णय उच्च न्यायालयों के लिए तब तक बाध्यकारी है जब तक कि उच्चतम न्यायालय उनके विपरीत निर्णय न दे।
भारत शासन अधिनियम 1935 की धारा 226 (1) में राजस्व संबंधी किसी भी मामले में उच्च न्यायालय की आरंभिक अधिकारिता को वर्जित किया गया था। यह वर्जना मूल संविधान के अनुच्छेद 225 के परन्तुक द्वारा समाप्त कर दी गयी थी। संविधान (42वॉं संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा उक्त परन्तुक का विलोपन कर दिया गया था परन्तु संविधान (44वॉं) संशोधन अधिनियम 1978 की धारा 29 के जरिये उक्त परन्तुक को पुन: स्थापित कर दिया गया है जो दिनांक 20-6-79 से लागू हो गया है। इस प्रकार अब उच्च न्यायालय को राजस्व संबंधी मामले में भी आरंभिक अधिकारिता प्राप्त है।
संविधान के अति महत्वपूर्ण अनुच्छेद 226 के जरिए उच्च न्यायालयों की अधिकारिता में एक नवीन तत्व का समावेश किया गया जो उच्च न्यायालय के निर्देश, आदेश या समादेश - बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण के रूप में हो सकते हैं जिन्हें मूल अधिकारों के प्रवर्तन या किसी अन्य उद्देश्य से जारी किया जाता है। यह उच्च न्यायालय की शक्तियों में उल्लेखनीय वृद्धि है। संविधान-पूर्व युग में समादेश अधिकारिता के संबंध में उच्च न्यायालयों की समान शक्तियां नहीं थीं। मुख्यत: ऐतिहासिक कारणों के चलते विभिन्न उच्च न्यायालयों में कृत्रिम और पक्षपातपूर्ण विभेद थे। इस प्रकार नये संविधान की पूर्व संध्या पर समादेश अधिकारिता के संबंध में उच्च न्यायालयों की स्थितियां भिन्न-भिन्न थीं। प्रत्येक उच्च न्यायालय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 491 के अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण का समादेश जारी कर सकता था जो इसकी अधिकारिता के संपूर्ण क्षेत्र में लागू होता था। कलकत्ता,मद्रास और बंबई के उच्च न्यायालयों में से प्रत्येक के पास उसकी सामान्य आरंभिक सिविल अधिकारिता की सीमाओं के अंतर्गत अन्य समादेश जारी करने का प्राधिकार था लेकिन कोई अन्य उच्च न्यायालय बंदी प्रत्यक्षीकरण के अलावा कोई और समादेश जारी नहीं कर सकता था। नये संविधान द्वारा सभी उच्च न्यायालयों के साथ समान व्यवहार किया गया तथा अब प्रत्येक उच्च न्यायालय के पास समादेश अधिकारिता है जो उसकी समग्र क्षेत्रीय अधिकारिता के सहवर्ती है।
मूल रूप में अनुच्छेद 226 का शब्द विन्यास काफी विस्तृत था किन्तु संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा समादेश अधिकारिता के मामले में उच्च न्यायालय की शक्तियों पर शक्तिशाली प्रतिबंध आरोपित कर दिये गये थे। किंतु उक्त संशोधनों में से अधिकांश को संविधान के 43वें एवं 44वें संशोधन द्वारा समाप्त कर दिया गया है। उच्च न्यायालय की एक पक्षीय व्यादेश एवं स्थगनादेश जारी करने की शक्ति में जो कटौती 42वें संशोधन द्वारा की गयी थी उसे भी संविधान के 44वें संशोधन द्वारा इस प्रावधान के साथ निरस्त कर दिया गया है कि एक पक्षीय व्यादेश एवं स्थगनादेश जारी होने की दशा में विपक्षी को न्यायालय में उपस्थित होकर उक्त व्यादेश/स्थगनादेश को अपास्त करने का प्रार्थना पत्र देने का अधिकार होगा तथा ऐसा प्रार्थना पत्र आने पर न्यायालय को उसका निस्तारण 15 दिन में करना होगा वरना स्थगनादेश/व्यादेश स्वतः समाप्त हो जायेगा।
प्रत्येक उच्च न्यायालय को उसकी अपीली अधिकारिता से संबद्ध सभी न्‍यायालयों के अधीक्षण की शक्ति दी गयी है। (अनुच्छेद 227) । अपनी अधीक्षण शक्ति के अंतर्गत उच्च न्यायालय ऐसे न्यायालयों से विवरणियाँ मंगा सकता है, सामान्य नियम बना कर जारी कर सकता है, ऐसे न्यायालयों के चलन और कार्यवाहियों को नियमित करने की विधाएं निर्धारित कर सकता है तथा ऐसे तरीके निर्धारित कर सकता है जिनसे पुस्तकों प्रविष्टियों और खातों को दुरुस्त रखा जाय। मूल संविधान में अनुच्छेद 227 इस प्रकार निर्मित किया गया था जिससे उच्च न्यायालय अपनी अधीक्षण अधिकारिता का प्रयोग न केवल अपने क्षेत्र में आने वाले अधीनस्थ न्यायालयों पर, बल्कि कानूनी या अर्ध न्यायिक अधिकरणों पर करने में समर्थ हो सके जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि ये सभी अधीनस्थ संस्थाएं उन्हें प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग ‘अपने प्राधिकार की सीमा के भीतर’ तथा ‘विधिक तरीके से’ करें।
अनुच्छेद 228 उच्च न्यायालय को यह शक्ति देता है कि वह अधीनस्थ न्यायालयों में विचाराधीन किसी मामले को अपने पास मंगा सकता है जब वह संतुष्ट हो जाये कि उक्त मामला संविधान की व्याख्या से संबंधित किसी सारभूत विधिक प्रश्न को समाहित किये हुए है। तत्पश्चात उच्च न्यायालय ऐसे मामले का स्वयं निबटारा कर सकता है या विधिक प्रश्न को निर्णीत करने के उपरांत इसे पुन: पूर्व न्यायालय को लौटा सकता है जिससे वहॉं उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुरूप मामले का निपटारा हो सके।
अनुच्छेद 229 में उच्च न्यायालयों के अधिकारियों और सेवकों की नियुक्ति संबंधी प्रावधान है। ऐसी नियुक्तियों के बारे में मुख्य न्यायाधीश को विस्तृत शक्तियां दी गयी हैं। इस अनुच्छेद का उद~देश्य उच्च न्यायालय को अपने कर्मचारी वर्ग पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान करना है जिसका सीमा-निर्धारण केवल स्वयं उक्त अनुच्छेद द्वारा ही किया गया है ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा सरकारी हस्तक्षेप से इसका मुक्त रहना सुनिश्चित हो सके। उक्त अनुच्छेद का परंतुक मुख्य न्यायाधीश की उच्च न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की नियुक्ति संबंधी शक्ति को सीमित करता है। साधारणत: उसे इन नियुक्तियों के संबंध में लोक सेवा आयोग से परामर्श करने की आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन यदि राज्यपाल किन्हीं मामलों को विनिर्दिष्ट करते हुए कोई नियम बना दे तो मुख्य न्यायाधीश को इन विनिर्दिष्ट पदों पर नियुक्तियां करने से पहले लोक सेवा आयोग से परामर्श करना पड़ेगा। तथापि किसी पद विशेष के सृजन के विषय में वित्तीय सहमति देते समय राज्यपाल पदधारकों को चयनित और नियुक्त करने की मुख्य न्यायाधीश की शक्ति पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकता है।
अनुच्छेद 132 के अनुसार उच्च न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश के संबंध में, जो दीवानी, फौजदारी या अन्य कार्यवाहियों से संबंधित हो, अपील उच्चतम न्यायालय में की जाएगी। उच्च न्यायालय यह सत्यापित कर सकता है कि विवादित मामला संविधान की व्याख्या से संबंधित किसी सारभूत विधिक प्रश्न को समाविष्ट करता है। जब कोई उच्च न्यायालय इस आशय का प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दे तो उच्चतम न्यायालय अपीलार्थी को अपील की विशेष अनुमति दे सकता है यदि वह संतुष्ट हो जाय कि विचारित मामले में कोई सारभूत विधिक प्रश्न समाविष्ट है। जहां ऐसा प्रमाण पत्र उच्च न्यायालय द्वारा दिया जाता है या उच्चतम न्यायालय अनुमति प्रदान करता है, कोई भी पक्ष उक्त निर्णय के विरोध में उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है।
दीवानी मामलों में सुप्रीम कोर्ट में की गयी अपील अनुच्छेद 133 के अंतर्गत होगी जो उच्च न्यायालय के निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश के विरूद्ध होगी। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 136 के अंतर्गत विशेष अनुमति से तथा अनुच्छेद 132 के अंतर्गत संवैधानिक आधार पर भी ऐसी अपीलें दायर होंगी। अपील हेतु उच्च न्यायालय को यह प्रमाणित करना होगा कि विचारित मामले में सामान्य महत्व का कोई सारभूत विधिक प्रश्न निहित है तथा उच्च न्यायालय की राय में उस प्रश्न का निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा होना चाहिए। वादों के मूल्यांकन के आधार पर उच्चतम न्यायालय में अपील के अधिकार को संविधान (30वॉं संशोधन) अधिनियम 1972 द्वारा विलुप्त कर दिया गया है। फौजदारी मामलों में सुप्रीम कोर्ट में तभी अपील हो सकती है जब – (अ) उच्च न्यायालय ने अपील के बाद किसी अभियुक्त की दोष मुक्ति के आदेश को उलट दिया है तथा उसे मृत्यु दंड दे दिया है। (ब) उच्च न्यायालय ने किसी मामले को अधीनस्थ न्यायालय से अपने पास विचारण हेतु मँगा लिया है और अभियुक्त को दोषी पाकर उसे मृत्यु दंड दे दिया है। (स) उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर देता है कि निर्णीत मामला उच्चतम न्यायालय में अपील के लिए उपयुक्त है।
भारत के संविधान ने उच्च न्यायालयों को न्यायिक प्रशासन, कनिष्ठ न्यायालयों द्वारा न्याय के संवर्द्धन, अन्याय होने की दशा में त्वरित कदम उठाने, लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की सुरक्षा करने तथा यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रशासन विधि की सीमाओं के अंतर्गत ही कार्य करें, महत्वपूर्ण और प्रभावशाली शक्तियां प्रदान की हैं। इस प्रकार आधुनिक न्याय-व्यवस्था में उच्च न्यायालय को सम्मानपूर्ण गरिमामय एवं अधिकारिता आयुक्त उच्च स्थिति प्राप्त है।

भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख


Share:

कोई टिप्पणी नहीं: