कितना जरूरी है न्‍यायपालिका पर प्रहार ?



 

आज कल न्यायालय पर कई प्रकारों के आरोप लगाये जा रहे है कि न्यायपालिका गऊ नहीं है, न्यायपालिका दूध की धुली नहीं है। निश्चित रूप से यह प्रश्न उठाये जाने जायज है किन्तु आज हमारा संविधान हमें इस बात की अनुमति नहीं देता है कि हम इस प्रकार के प्रश्न न्यायपालिका से कर सके।


हाल के दिनों में देखा जाता है कि कितने सार्थक तथ्यों को वकीलों द्वारा रखने के पश्चात भी माननीय लोग अपने आतार्किक फैसलों से कई जिंदगी को तार-तार कर देते है। यहीं तक कि कुछ माननीय अधिवक्ताओं की बात सुनने को ही तैयार नहीं होते है। निश्चित रूप से यह व्यवस्था को बदलना होगा कि सही तथ्यों को सुना जाना चाहिए और भारतीय संविधान में जिस प्रकार की पारदर्शी न्याय की इच्छा की गई थी उसके स्वरूप को भी बरकरार किया जाना चाहिए।


हाल के मिड डे प्रकरण ने पूरे मीडिया जगत को हिलाकर रख दिया, मीडिया ने क्या सही किया मैं यह नहीं जानता किंतु इतना जानता हूँ कि अभी संविधान ने न्यायालय पर टिप्पणी का हक नहीं देता है। शायद इसलिए कि देश का सबसे निचला वर्ग का विश्वास इस पर न टूट जाये। जजों के फैसले को भी एक दायरे में लाना चाहिए, मैं यह नहीं कहता हूँ कि हर न्याय गलत होता है किन्तु कभी-कभी न्यायमूर्तियों द्वारा अहम के कारण यह फैसले विरोध में हो जाते है। माननीयों द्वारा अहं के प्रश्न पर न्याय की समीक्षा जरूरी होती है। न्याय के पैमाने पर आज यह जरूरी है कि न्याय की समीक्षा हो, किन्तु यह भी आवश्यक है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम किसी नागरिकों द्वारा खुले आम माननीयों को भी बदनाम न किया जाए। क्योंकि कभी-कभी नादानी में इतने कठोर शब्दों का प्रयोग न्यायाधीशों पर पत्रकारों द्वारा कर दिये जाते है जो निश्चित रूप से गलत होता है। निश्चित रूप से पत्रकार मिड डे मामले में नैतिक रूप से सही हो किन्तु संवैधानिक रूप से वे गलत है। भारत की प्रणाली नैतिक मूल्यों से नहीं संवैधानिक रूप से चलती है।


मेरे ख्याल से सभी राज्यों में एक अवकाश प्राप्त न्यायमूर्तियों की ऐसी कमेटी होनी चाहिए जो वर्तमान माननीयों की फैसले को थोपे जाने से रोका जा सके। क्योंकि कभी-कभी न्याय प्राप्तकर्ता इतना गरीब होता है कि धन के अभाव में वह सर्वोच्च न्यायालय नहीं जा सकता है। पर इतना तो जरूर सत्य है कि भारत का संविधान और न ही न न्यायपालिका अपने ऊपर आक्षेप करने की अनुमति देता है।



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