एक अंग्रेज जिलाधिकारी पर श्री राम कृपा



मधुरांतकम चेंगलपेट जिले का एक छोटा-सा शहर है, जो मद्रास (वर्तमान में चेन्नई) से पांडिचेरी के रास्ते पर है। वहां पर श्री रामचन्द्र जी का एक छोटा-सा मंदिर है। उस मंदिर के नजदीक एक बड़ी झील भी है। मद्रास से पांडिचेरी जाने वालों को उसी सड़क से जाना पड़ता है, जो मधुरांतकम की उस झील के बांध पर है। वह झील इतनी सुन्दर और काफी बड़ी है कि जिन लोगों को उस रास्ते पर जाना पड़ता है, उन लोगों का मन उस झील की तरफ आकर्षित हो जाता है और वे लोग उस झील के सुन्दर और मनोहर दृश्य को कभी भूल नहीं सकते।
उपर्युक्त झील और श्री रामचन्द्र जी के मंदिर के बारे में एक विचित्र लेकिन सच्ची कहानी प्रचलित है, जिससे मालूम होता है कि एक ईसाई अंग्रेज साहब भी श्री रामचन्द्र जी के भक्त बन सके और उनको भगवान के दर्शन भी मिले थे।
bhagwan shri ram


बात १८८२ ई० की है। उस समय लियानल प्राइस साहब चेंगलपेट जिले के कलक्टर थे। उनको मधुरांतकम की झील देखने की बड़ी इच्छा हुई। झील इतनी बड़ी थी कि उसके आस-पास के कई गाँवों की खेती बारी के लिये उसका जल पर्याप्त था। लेकिन दुर्भाग्य से हर साल बरसात में जब झील भर जाती थी, तब उसका बाँध टूटकर सारा पानी बाहर चला जाता था और झील हमेशा सूखी-की-सूखी ही रह जाती थी।
इलाके वाले प्रतिवर्ष गर्मी के दिनों में उस झील के बांध की मरम्मत करते थे। हर साल मरम्मत के समय मि० प्राइस खुद वहाँ आकर पड़ाव डालते और अपनी मौजूदगी में ही सारा काम कराते थे। बरसात में बाढ़ से इसका बाँध हर साल टूट जाया करता था। कलक्टर साहब की झील की बड़ी चिंता होती थी। सन् १८८२ में भी सदा की तरह झील की मरम्मत शुरू हुई। स्वयं कलेक्टर साहब उसका निरीक्षण कर रहे थे। एक बार आप मंदिर के पास से निकले। उनकी इच्छा हुई कि चलकर मन्दिर देख आवें।
वे मंदिर में आये। ब्राह्मणों ने उनको मंदिर दिखाया। साहब ने देखा कि एक स्थान पर ढेरों पत्थर जमा हैं। साहब ने ब्राह्मणों से पत्थरों के जमा कर रखने का कारण पूछा। ब्राह्मणों ने जवाब दिया- 'साहब! श्री सीता जी का मंदिर बनाना है। लेकिन उसके लिये हम लोग सिर्फ पत्थर ही जमा कर सके हैं। शेष काम के लिये काफी धन जमा करने में हम असमर्थ हैं। ऐसे सत्कार्य के सफलतापूर्वक सिद्ध होने में धन का अभाव ही एक बाधा हो रही है। ' 'मुझे भी तुम्हारी देवी जी से एक प्रार्थना करने दो।'
वहां के भक्त ब्राह्मण अपनी-अपनी मनोवृत्ति के अनुसार भगवान श्री रामचंद्र जी और माता सीताजी के गुणों और महिमाओं का वर्णन करने लगे। उसे सुनकर साहब ने उन लोगों से पूछा- 'क्या तुम लोग विश्वास करते हो कि तुम्हारी देवी भक्तों की मनोकामना पूरी करेंगी ?"
ब्राह्मणों ने दृढ़तापूर्वक जवाब दिया- 'निस्सन्देह।' कलक्टर साहब ने फिर पूछा-'अच्छा, यदि मैं भी तुम्हारी देवी जी से कुछ प्रार्थना करूं तो मेरी भी इच्छा उनकी कृपा से पूरी होगी?' ब्राह्मणों ने जवाब दिया जरूर।' तब साहब ने उन लोगों से कहा, 'यदि तुम लोगों की बात सच हो तो मैं भी तुम्हारी देवी जी से प्रार्थना करता हूँ कि इस झील की रक्षा, जिसकी मरम्मत हर साल हो रही है और पीछे जिसका नाश भी होता आ रहा है, यदि तुम्हारी देवी जी की कृपा से हो जाये, तो तुम्हारी देवी जी का मंदिर बनाने का भार मैं अपने ऊपर लूँगा।' प्रार्थना करके साहब वहां से लौट गए। मरम्मत का काम पूरा हो जाने के बाद साहब अपने घर चले गये।
फिर वर्षा शुरू हुई। साहब को बड़ी चिंता लगी। अबकी बार साहब घर में चुप न बैठ सके। उन्होंने मधुरांतकम में अपना पड़ाव डाला। एक रात को बहुत जोर से पानी बरस रहा था। इतने जोर से वृष्टि हो रही थी कि उस समय बाहर निकलना भी बहुत कठिन था। साहब बहुत अधीर हो उठे। उनको जरा भी चैन न मिला। वे तुरंत हाथ में छतरी लेकर झील की तरफ लपके। उनके दो नौकर, जो उस समय जाग रहे थे, पीछे-पीछे चले। उनको साहब के काम पर बड़ा अचरज हो रहा था।
साहब झील के बांध पर आकर खड़े हो गये। आकाश से मूसलाधार वृष्टि हो रही थी। रह-रहकर बिजली चमकती थी। बिजली के प्रकाश में साहब ने देखा कि झील पानी से ठसाठस भरी है। अब यदि थोड़ा भी जल उसमें ज्यादा पड़ जाएगा तो बस, सारा परिश्रम व्यर्थ हो जायेगा।
साहब घबड़ाये हुए वहाँ आकर खड़े हो गये, जहाँ हर साल बांध टूटता था। लेकिन वहाँ उन्हें कहीं टूट जाने का कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ा। अकस्मात् वहाँ बिजली की रोशनी दीख पड़ी। उस तेज:पुंज के बीच में श्याम और गौर वर्ण के दो सुन्दर युवक हाथ में धनुष-बाण लिए खड़े नजर आये। उन दोनों के सुन्दर और सुदृढ़ शरीर और उनके अनुपम रूप-लावण्य को देखकर साहब को बड़ा अचंभा हुआ। एक साथ आश्चर्य और भय का अनुभव होने लगा। वे एकाग्र दृष्टि से उसी तरफ देखने लगे, जहाँ दोनों वीर खड़े थे। अब साहब को पक्का विश्वास हो गया कि वे दोनों अलौकिक और अतुलनीय हैं। साहब अपनी छतरी और टोपी दूर फेंक कर उन करुणा मूर्तियों के पैरों पर गिर पड़े और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे।
नौकरों को साहब का यह अद्भुत आचरण देखकर संदेह हुआ कि कहीं हमारे साहब पागल तो नहीं हो गये। वे दोनों दौड़कर साहब के पास आये और घबड़ाये हुए से पूछने लगे– 'साहब! आपको क्या हो गया?" साहब उन लोगों से गद्गद स्वर में कहने लगे- 'नादानो। उधर देखते नहीं हो ?' देखो उधर, उधर ! कैसे सुन्दर दो सुन्दर और बलवान् युवक हाथों में धनुष-बाण लिये खड़े हैं। उनके चारों ओर बिजली की रोशनी सी  फैल रही है। उनमें एक हैं श्याम वर्ण के और दूसरे गौर वर्ण के। उनकी आँखों से करुणा की मानो वर्षा हो रही है। उनको देखते ही हमारी व्यग्रता मिटती जा रही है। अभी उन दोनों को देख लो। उधर देखो, उधर !!!'
नौकरों को कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। साहब को पूरा विश्वास हो गया कि स्वयं श्री रामचन्द्रजी और लक्ष्मण जी ने ही झील की रक्षा की। दूसरे दिन सवेरे ही मधुरांतकम के लोगों ने पहली बार देखा कि झील पानी से परिपूर्ण है। लोगों के आनन्द की कोई सीमा न थी। साहब ने अपने कथनानुसार दूसरे ही दिन से श्रीसीताजी के मंदिर का काम शुरू कर दिया। जब तक मंदिर का काम पूरा न हुआ, तब तक वे वहीं रहे। जिस दिन झील की रक्षा हुई, उस दिन से वहाँ के श्री रामचंद्र जी का नाम पड़ा 'एरि कात्त पेरुमाल' अर्थात 'भगवान जिसने झील की रक्षा की है।'
श्री जानकी जी के मंदिर में एक पत्थर पर तमिल में यह बात खुदी हुई है, जिसके माने यह है कि, 'यह धर्म कार्य जान कंपनी की जागीर - कलेक्टर लियानल प्राइसका है।' इस विचित्र घटना से हम लोगों को मालूम होता है कि एक अंग्रेज ईसाई सज्जन श्री रामचंद्र जी के भक्त बनकर उनके दर्शन पा सके और श्रीसीता जी के मन्दिर के निर्माता बने। जो मनुष्य भगवान का सच्चा भक्त है और भगवान पर विश्वास करके उनको मानता है, वह चाहे जिस कुल का भी क्यों न हो, उसपर दया सिन्धु भगवान की पूर्ण रूप से अनुकम्पा रहती है।

संकलन


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लंगोट पहनने के फायदे और लाभ



 जब भी लंगोट का नाम आता है तो मन में हनुमान जी का नाम सबसे पहले आता है क्योकि वे हमेशा लंगोट पहनते है, दूसरा लंगोट साधकों का भी प्रतीक है क्योंकि जब पहले के साधु साधना करते थे तो वे अपने शरीर पर लंगोट के अलावा कुछ भी धारण नहीं करते थे, ऐसे साधकों को आज भी देखा जा सकता है। इसके अलावा लंगोट ब्रह्मचर्य का भी प्रतीक है क्योकि माना जाता है कि जो व्यक्ति लंगोट पहनता है उसका उसकी कामवासना पर नियंत्रण रहता है। लंगोट त्रिकोण आकार में बना एक अन्तः वस्त्र है और इसे अधिकतर कुश्ती करने वाले पहलवान व जिम जाने वाले व्यक्ति अपने अभ्यास के दौरान पहनते है। अभ्यास के दौरान ये अन्तः अंगों को ढके भी रखता है और उन्हें चोट से भी बचाए रखता है। इसके अलावा भी लंगोट की अन्य खासियत होती है। लंगोट में किसी खास तरह के रंग की प्राथमिकता नहीं दी जाती लेकिन फिर भी लाल रंग का लंगोट बहुत लोकप्रिय होता हैं। इसके पीछे लोगों के अपने अपने मत है कोई इसे आस्था से जोड़ता है तो कोई इसे चिकित्सा शास्त्र से। पहले के समय में अनेक लोग और साधु ब्रह्मचर्य का पालन करते थे जिसके कारण वे हमेशा लंगोट धारण किये हुए रखते थे क्योंकि उनका मानना है कि लंगोट कामेच्छा पर नियंत्रण बनाए रखने में बहुत सहायक होता है।

Langot Nappies Pahanne ke Fayde Laabh


अकसर आपने पहलवान लोगों को लंगोट पहनते देखा होगा जो अखाड़े में जाते हैं। अखाड़े में जाने वाले लोग लंगोट पहनना जरूरी मानते हैं। लंगोट भारतीय पुरुषों द्वारा एक लुंगी या अंडरक्लॉकिंग के रूप में पहना जाने वाला एक अंडरगारमेंट है। मलयालम में, इसका नाम लैंकोटी / लंगोटी कहते है। लंगोट को “कौपीन” भी कहा जाता हैं। लेकिन लंगोट पहना अखाड़े में ही नहीं अब कुछ जि‍म्‍स में जटिल वर्कआउट के दौरान लंगोट पहनना अनिवार्य कर दिया गया है। आइए जानते हैं कि लंगोट पहनना पुरुषों के स्वास्थ्य के लिए कितना जरूरी है।
अखाड़े में वर्जिश या कुश्ती समय पुरुष लंगोट जरूर पहनते हैं। लंगोट आज से नहीं बल्कि वैदिक काल से हमारे देश में पुरुष अंडरवियर के तौर पर लंगोट पहनते आ रहे हैं। धीरे-धीरे पुरुषों का ये पारंपरिक अंतर्वस्‍त्र अखाड़े या योग तक ही सीमित कर रह गया है। इसे कई नाम से जाना जाता था। कौपिनम, कौपीन, लंकौटी, लंगौटी और लंगौट। आपको जानकर हैरानी होगी कि पारम्परिक तौर पर अंडरवियर के तौर पर लंगोट पहनना पुरुष के जननांगों के लिए बेहतरीन होता हैं। बल्कि ये सेक्सुअल लाइफ को भी बेहतर बनाता हैं।

इसका संबंध पुरुषों के स्वास्थ्य से भी है। लंगोट पहनना उनकी सेक्सुअल लाइफ को भी बेहतर बनाता है। इसलिए अब कुछ जिम में जटिल वर्कआउट के दौरान लंगोट पहनना अनिवार्य कर दिया गया है। आपने अकसर उन लोगों को लंगोट पहनते देखा होगा जो अखाड़े में जाते हैं। अखाड़े में जाने वाले लोग लंगोट पहनना जरूरी मानते हैं। पर क्‍या आप जानते हैं कि इसका संबंध पुरुषों के स्वास्थ्य से भी है। लंगोट पहनना उनकी सेक्सुअल लाइफ को भी बेहतर बनाता है। इसलिए अब कुछ जि‍म्‍स में जटिल वर्कआउट के दौरान लंगोट पहनना अनिवार्य कर दिया गया है। आइए जानते हैं कि लंगोट पहनना पुरुषों के स्वास्थ्य के लिए कितना जरूरी है।

अन्तःवस्त्र लंगोट द्वारा ऊर्जा संरक्षण, लंगोट बांधने का सबसे बड़ा फायदा पहुंचता है आपके टेस्टिल्स यानी अंडकोषों को। कई बार ज्‍यादा मेहनत करने की वजह से उनका साइज बढ़ जाता है। आम भाषा में हम ये भी कहते हैं कि उनमें पानी भर गया है। अगर एक बार ऐसा हो गया तो फिर वो आपरेशन से ही ठीक होता है। लंगोट आपके अंडकोषों को टाइट करके रखता है इससे पानी भरने की समस्या नहीं होती। इसके अलावा इससे लोवर एबडॉमिन की मसल्स को सपोर्ट मिलता है। जिनके पेट के निचले हिस्से में ज्यादा हैवी कसरत करने से सूजन आ जाती है उन्हें भी इसका इस्तेमाल करना चाहिए। रनिंग करते वक्त भी लंगोट पहनना चाहिए इससे नीचे की चीजें इधर उधर नहीं भागतीं। वैसे तो लंगोट किसी भी कलर का हो सकता है मगर लाल लंगोट अनुशासन का प्रतीक होता है। लाल रंग बजरंग बली से भी जुड़ता है। अखाड़ों में आमतौर पर हनुमान जी की ही प्रतिमा लगी होती है। लाल रंग की निशानी भी होती है।

जिस तरह से हमारे पूर्वज लंगोट का इस्तेमाल करते थे उसे देखकर ये कहा जा सकता है कि लंगोट हमारी परम्पराओं में से एक है, किन्तु पीढ़ी को हमारे पुराने रिवाजों के बारे में पता नहीं हैं, जिसके फलस्वरूप वे इन सब चीजों से वंचित रह जाते हैं। हमारी पीढ़ी को लंगोट की महानता के बारे में कुछ नहीं पता और यही वजह है कि हम अपनी परम्परा को पीछे छोड़ते जा रहे हैं, जिसका खामियाजा हमें आने वाले समय में भोगना होगा।

मांगलिक कार्यों खासकर रामचरितमानस के अखंड पाठ, किसी भी तरह का यज्ञ, महा यज्ञ आदि में जो ध्वज लगता है वह लंगोट के आकार का ही होता है जो ब्रह्मचर्य की ओर जाने का इशारा करता है, यानी ऊर्जा संरक्षण का संदेश देता है। कुल मिलाकर यह ऊर्जा संरक्षण का प्रतीक चिह्न है। आज भी यह बाल ब्रह्मचारी हनुमान जी सहित अनेक देवताओं को चढ़ाया जाता है। मन्नतें पूरी होने पर अनेक देव स्थानों पर लंगोट चढ़ाने की परंपरा आज भी जीवित है।

क्या है लंगोट
लंगोट असल में पुरुषों का अंडरगारमेंट है। इसे पुरुषों का अंत: वस्त्र भी कहा जाता है। यह अनस्टिच्ड यानी बिना सिला तिकोना कपड़ा होता है। जिसे विशेष तौर पर पुरुष जननांग यानी टेस्टिकल्‍स और पेनिस एरिया को ढकने के लिए बनाया जाता है। पर इसे बांधने का एक खास तरीका होता है। जिसके कारण यह पुरुषों के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माना जाता है।
लंगोट का अर्थ
लंगोट दो शब्दों का मेल है। लंगोट को समझने के लिए इसको तोड़ कर इसका वास्तविक रूप देखा जा सकता हैं। लंगोट = लं + गोट मतलब जो लं.. और गोट दोनों को ही सम्हाल कर रखें, उनकी रक्षा करें वो लंगोट कहलाता है।
लंगोट कैसे पहनी जाती है
लंगोट देखने में भले ही साधारण लगे पर इसे बांधने का एक खास तरीका होता है। जिसे आप किसी भी जिम में जाकर सीख सकते हैं। लंगोट को टेस्टिकल्‍स और पेनिस एरिया पर इस तरह लपेटा जाता है कि उसे सपोर्ट मिले और अनावश्यक दबाव भी न बनें। यह अंडकोषों के आकार को संतुलित रखता है।
  • लंगोट बांधने के लिए लंगोट के तीन हिस्से होते है,
  • ऊपर की और दो पतली रस्सी होती है।
  • उनको कमर पर बांधा जाता है, की तरफ से उसके पश्चात तीसरे हिस्से को पीछे की तरफ रखते है।
  • उसको नीचे की तरफ से प्राइवेट पार्ट के साथ ऊपर की बंदी दो रसिया के बीच में से निकलकर वापस पीछे की तरफ लेकर जाना होता है।
  • इस प्रकार पीछे की तरफ दोनों रस्सियों के मध्य लगा देते है।
Langot Nappies Pahanne ke Fayde Laabh


कार्डियो के समय है जरूरी
जब भी आप कोई जटिल एक्सरसाइज या वर्कआउट करें तो उस समय लंगोट जरूर पहने। यह पुरुषों के प्राइवेट पार्ट की हेल्‍थ के लिए जरूरी है। इससे उस पर अनावश्यक दबाव नहीं पड़ता। कार्डियो करते समय भी आप इस तरह अपना ख्याल रख सकते हैं।

सेहत से है लंगोट का संबंध
इससे पुरुषों के टेस्टिकल्स यानी अंडकोषों की सेहत अच्छी रहती है। कई बार ज्यादा वर्कआउट या मेहनत करने की वजह से उनका आकार बढ़ जाता है। जिससे उनमें दर्द होने लगता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि प्रजनन क्षमता बनाए रखने के लिए टेस्टिकल्‍स की सेहत का ध्यान रखना सबसे ज्यादा जरूरी है। कई बार इनमें पानी भर जाने की समस्या भी हो जाती है। जो सेक्‍स लाइफ पर बुरा असर डालती है। इन सब समस्याओं से बचाने में लंगोट काफी मददगार है।

स्किन फ्रेंडली
लंगोट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह सादा सूती कपड़े यानी काटन का बना होता है। जिससे किसी भी तरह के रैशेज या अन्‍य समस्याएं नहीं होती। इसे स्किन फ्रेंडली माना जाता है। जिससे अनावश्यक हीट जनरेट नहीं होती। इसलिए भी लंगोट पहनना पुरुषों की सेहत के लिए अच्छा माना जाता है।

क्या लंगोट बांधना जरूरी है
लंगोट बांधने के क्या फायदे होते हैं ये हमने आपको बता दिए हैं। बहुत से ऐसे लोग हैं जो सालों से जिम कर रहे हैं और लंगोट भी नहीं बाँधते और उन्हें कोई प्रॉब्लम भी नहीं हुई है। आप सपोर्टर या टाइट अंडरवियर पहनकर भी काम चला सकते हैं, लेकिन ये जरूरी तो नहीं कि अगर बाकी लोगों को कोई परेशानी नहीं हुई है तो आपको भी नहीं होगी। दूसरी बात ये भी है कि अकसर लोग ये बताते ही नहीं हैं कि उनके अंडकोषों में पानी भर गया है। अगर आपको लंगोट बांधने से एलर्जी नहीं है तो फिर इसे बांधने में हिचकिचाहट कैसी। ये आपकी तैयारी का एक हिस्सा होता है। अगर आप स्पोर्ट्स शूज नहीं पहनेंगे तब भी उतनी ही बेंच प्रैस लगाएंगे जितनी शूज पहनकर मगर शूज, ट्रैक पैंट, टी शर्ट हमारी तैयारी का हिस्सा होता है। इसी तरह से लंगोट हमारी तैयारी का हिस्सा होता है। आप भारतीय हैं तो इसका सम्मान करें और कसरत से पहले लंगोट पहने। इससे आपका माइंड और बॉडी कड़ी मेहनत के लिए तैयार हो जाएंगे।

लंगोट पहनने के फायदे
  1. लंगोटी शारीरिक व्यायाम या योग अभ्यास के दौरान हड्डी और अंग के विस्थापन और तंत्रिकाओं पर खिंचाव को रोकता हैं।
  2. लंगोट पहनने से पुरुषों के टेस्टिल्स यानी अंडकोषों की सेहत अच्छी रहती है। कई बार ज्यादा वर्कआउट या मेहनत करने की वजह से उनका आकार बढ़ जाता है। जिससे उनमें दर्द होने लगता है।
  3. वैज्ञानिक मानते हैं कि प्रजनन क्षमता बनाए रखने के लिए टेस्टिकल्‍स की सेहत का ध्यान रखना सबसे ज्यादा जरूरी है। कई बार इनमें पानी भर जाने की समस्या भी हो जाती है। जो सेक्स लाइफ पर बुरा असर डालती है।
  4. यह ऊर्जा को पूरे शरीर में सही और सही अनुपात में प्रवाहित करने में सक्षम बनाता है।
  5. लंगोटी के उपयोग से व्यायाम या योग अभ्यास के दौरान ऊर्जा, शक्ति और सहनशक्ति मिलती है।
  6. लंगोट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह सादा सूती कपड़े यानी कॉटन का बना होता है। जिससे किसी भी तरह के रैशेज या अन्य समस्या नहीं होती। इसे स्किन फ्रेंडली माना जाता है। जिससे अनावश्यक हीट जनरेट नहीं होती। इसलिए भी लंगोट पहनना पुरुषों की सेहत के लिए अच्‍छा माना जाता है।
  7. जब भी आप कोई हैवी एक्सरसाइज या वर्कआउट करते है तो लंगोट पहनना एक तरह मदद करता है। इसे पहनने से एक्सरसाइज के दौरान पुरुषों के प्राइवेट पार्ट पर ज्यादा दबाव नहीं बनता है और पुरुष इसमें ज्यादा आराम महसूस करते हैं।
  8. पारम्परिक तौर पर अंडरवियर के तौर पर लंगोट पहनना पुरुष के जननांगों के लिए बेहतरीन होता हैं। बल्कि ये सेक्‍सुअल लाइफ को भी बेहतर बनाता हैं।
  9. अंत:वस्‍त्र लंगोट काम वासना पर नियंत्रण तो करता ही है, इसे पहनने वाले को कभी हाइड्रोशील की बीमारी नहीं होती और अंडकोश को यह चोट से बचाता है, ख़ासकर साइकिल, मोटर साइकिल आदि से गिरने पर लगने वाली चोट से। दौड़ने, चलने, योगासन व व्यायाम में सुविधाजनक है।
लंगोट पहनने के कोई नुकसान नहीं है
लंगोट बांधने का सबसे बड़ा फायदा पहुंचता है आपके टेस्टिल्स यानी अंडकोशों को कई बार ज्‍यादा मेहनत करने की वजह से उनका साइज बढ़ जाता है। आम भाषा में हम ये भी कहते हैं कि उनमें पानी भर गया है। अगर एक बार ऐसा हो गया तो फिर वो ऑपरेशन से ही ठीक होता है। लंगोट आपके अंडकोशों को टाइट करके रखता है इससे पानी भरने की समस्या नहीं होती। इसके अलावा इससे लोवर एबडॉमिन की मसल्स को सपोर्ट मिलता है। जिनके पेट के निचले हिस्से में ज्यादा हैवी कसरत करने से सूजन आ जाती है उन्हें भी इसका इस्तेमाल करना चाहिए। रनिंग करते वक्त भी लंगोट पहनना चाहिए इससे नीचे की चीजें इधर उधर नहीं भागतीं। वैसे तो लंगोट किसी भी कलर का हो सकता है मगर लाल लंगोट (lal langot) अनुशासन का प्रतीक होता है। लाल रंग बजरंग बली से भी जुड़ता है। अखाड़ों में आमतौर पर हनुमान जी की ही प्रतिमा लगी होती है। लाल रंग की निशानी भी होती है।

वर्तमान समय में लंगोट के स्थान पर ज़्यादातर लोग लंगोट की जगह इलास्टिक स्प्पोर्टर को उपयोग करते है। जो लंगोट की तरह ही होता है। उसे बांधने की जरूरत नहीं होती है। इसका उपयोग लंगोट की तरह ही होता है। ये लंगोट से भिन्न है। लंगोट और सपोटर दोनों उसे प्रकार है। जिस प्रकार अंडरवियर और निक्कर अब कपडे दोनों ही पहनने के परन्तु अलग अलग यूज़ है दोनों का। सपोर्टर के ऊपर की तरफ एक इलास्टिक रबर होता है। उसके अलावा उसके अंदर की तरफ ग्रोइन एरिया में डबल लेयर होती है कपड़े की जिसका यूज़ ग्रोइन गार्ड डालने में किया जाता है। बाकी इसकी संरचना अंडरवियर की तरह ही होती है।


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बडगुजर या बढ़गुजर राजपूत Badgujar Rajputs



बडगूजर (राघव) भारत की सबसे प्राचीन सूर्यवंशी राजपूत जातियों में से एक है। वे प्राचीन भारत के सबसे सम्मानित राजवंशो में से हैं। उन्होंने हरावल टुकड़ी या किसी भी लड़ाई में आगे की पहली पंक्ति में मुख्य बल गठित किया। बडगुजर ने मुस्लिम राजाओं की सर्वोच्चता को प्रस्तुत करने के बजाय मरना चुना। मुस्लिम शासकों को अपनी बेटियों को न देने के लिए कई बडगूजरों की मौत हो गई थी। कुछ बडगुजर उनके कबीले नाम बदलकर सिकरवार को उनके खिलाफ किए गए बड़े पैमाने पर नरसंहार से बचने के लिए बदल दिया।
Badgujar Rajputs

वर्तमान समय में एक उपनिवेश को शरण मिली, जिसे राजा प्रताप सिंह बडगूजर के सबसे बड़े पुत्र राजा अनूप सिंह बडगूजर ने स्थापित किया था। उन्होंने सरिस्का टाइगर रिजर्व में प्रसिद्ध नीलकांत मंदिर समेत कई स्मारकों का निर्माण किया, कालीजर में किला और नीलकंठ महादेव मंदिर शिव उपासक हैं; अंबर किला, अलवर, मच्छारी, सवाई माधोपुर में कई अन्य महलों और किलों; और दौसा का किला। नीलकंठ बडगूजर जनजाति की पुरानी राजधानी है। उनके प्रसिद्ध राजाओं में से एक राजा प्रताप सिंह ने कहा बडगूजर था, जो पृथ्वीराज चौहान के भतीजे थे और मुस्लिम आक्रमणकारियों के खिलाफ अपनी लड़ाई में सहायता करते थे, जिनका नेतृत्व 1191 में मुहम्मद ऑफ घोर ने किया था। वे मेवार और महाराणा के राणा प्रताप के पक्ष में भी लड़े थे) हम्मर अपने जनरलों के रूप में। उनमें से एक, समर राज्य के राजा नून शाह बडगुजर ने अंग्रेजों के साथ लड़ा और कई बार अपनी सेना वापस धकेल दिया लेकिन बाद में 1817 में अंग्रेजों के साथ शांति संधि पर हस्ताक्षर किए। बडगूजर हेपथलाइट्स, या हंस के साथ उलझन में नहीं हैं, क्योंकि वे केवल 6 वीं शताब्दी की ओर आए थे। इस बडगूजर की एक शाखा, राजा बाग सिंह बरगुजर विक्रमी संवत 202 मे, जो एडी.145 से मेल खाते थे, अंतर 57 वर्ष है। इस जगह को 'बागोला' भी कहा जाता था। उन्होंने उसी वर्ष सिलेसर झील के पास एक झील भी बनाई और जब इसे लाल पानी खोला गया, जिसे कंगनून कहा जाता था।
महाराजा अचलदेव बड़गूजर के लिए कहा जाता है कि जब खलीफा -अल- मामून ने 880 विक्रम संवत भारत पर चढ़ाई करि थी तो मेवाड़ के महाराणा खुम्मान के नेतृत्व में भारत के सभी राजपूत राजाओं ने मिलकर उससे युद्ध किया था, उस सेना की एक टुकड़ी का नेतृत्व महाराज अचलदेव बड़गूजर ने किया था। राजस्थान में जालौर जिले में स्थित भीनमाल प्राचीन गुर्जर देश (गुर्जरात्रा) की राजधानी थी, जिसका वास्तविक नाम "श्रीमाल" था, जो बाद में भिलमाल और फिर भीनमाल हुआ।
गल्लका लेख के अनुसार अवन्ति के राजा नागभट्ट प्रतिहार ने 7 वी सदी में गुर्जरो को मार भगाया और गुर्जर देश पर कब्जा किया, गुर्जर देश पर आधिपत्य करने के कारण ही नागभट्ट प्रतिहार गुरजेश्वर कहलाए जैसे रावण लंकेश कहलाता था। यही से इनकी एक शाखा दौसा,अलवर के पास राजौरगढ़ पहुंची, राजौरगढ़ में स्थित एक शिलालेख में वहां के शासक मथनदेव पुत्र सावट को गुर्जर प्रतिहार लिखा हुआ है जिसका अर्थ है गुर्जरदेश से आए हुए प्रतिहार शासक। इन्ही मथंनदेव के वंशज 12 वी सदी से बडगूजर कहलाए जाने लगे क्योंकि राजौरगढ़ क्षेत्र में पशुपालक गुर्जर/गुज्जर समुदाय भी मौजूद था जिससे श्रेष्ठता दिखाने और अंतर स्पष्ट करने को ही गुर्जर प्रतिहार राजपूत बाद में बडगूजर कहलाने लगे।
पशुपालक शूद्र गुर्जर/गुज्जर समुदाय का राजवंशी बडगूजर क्षत्रियों से कोई सम्बन्ध नहीं था। पशु पालक गुज्जर/गुर्जर दरअसल बडगूजर (गुर्जर प्रतिहार) राजपूतों के राज्य में निवास करते थे। राजा रघु के वंशज (क्योंकि श्रीराम और लक्ष्मण जी दोनों रघु के वंशज थे) होने के कारण ही इन्होंने राघव/रघुवंशी पदवी धारण की, इनकी वंशावली में एक अन्य शासक रघु देव के होने के कारण भी इनके द्वारा राघव टाइटल लिखा जाना बताया जाता है। इस प्रकार बडगूजर राजपूत वंशावली में श्रीमाल (गुर्जरदेश की राजधानी भीनमाल का प्राचीन नाम) का होना तथा राजौरगढ़ शिलालेख में बड़गुजरो के पूर्वज मथनदेव को गुर्जर प्रतिहार सम्बोधित किया जाना आधुनिक बडगूजर राजपूत वंश को प्रतिहार राजपूत वंश की ही शाखा होना सिद्ध करता है।

बड़गूजर वंश की कुलदेवी :- मां आशावारी
राजौरगढ के महाराजा अचलदेव बड़गूजर जी ने कुलदेवी मां आशावारी का भव्य गढ़ ( मन्दिर ) बनवाया था। महाराज अचलदेव बड़गूजर मेवाड़ के महाराणा खुम्मान के समकालीन थे। महाराज अचलदेव बड़गूजर ने 9 वी शताब्दी के अंदर राजौरगढ का दुर्ग , कुलदेवता नीलकंठ महादेव जी का मंदिर , कुलदेवी आशावारी माँ का मंदिर बनवाया। महाराजा अचलदेव बड़गूजर ने कई जैन मंदिर का निर्माण करवाया। कहा जाता है कि अचलदेव बड़गूजर के समय में राजौरगढ को काशी की संज्ञा दी जाती थी। जबकि राजौरगढ ( राजगढ़ ) तो महाराज बाघराज बड़गूजर के वंशज राजदेव बड़गूजर ने अपने नाम पर तीसरी सदी में बसाया ओर सम्पूर्ण ढूंढाड़ क्षेत्र में बड़गूजर राजपुतो की स्थिति को मजबूत किया।
कछवाहा राजपूतों के आगमन से पूर्व सम्पूर्ण ढूँढाड़ बड़गूजर राजपुतो के अधिकार में था। बड़गूजर राजपुतो के शासन काल के कई किले एवं महल बनवाये गए जिसे कछवाह के आगमन के बाद वो सभी उनके अधिकार में चले गये। पहले माताजी का छोटा सा मन्दिर था और मूर्ति खंडित अवस्था मे थी परंतु वर्तमान में देवती , राजौरगढ , माचेड़ी से निकले बड़गूजर जागीरदारों ने पुनः मन्दिर का निर्माण करवाया और पुनः शक्ति केंद्र के रूप में उभारा है। मुगल - बड़गूजर युद्ध और कछवाहा - बड़गूजर युद्ध मे मन्दिर को बहुत हानि उठानी पड़ी है इसके बावजूद भी बड़गूजर राजपूतों ने अपनी प्राचीन राजधानी को वर्तमान समय तक कायम रखा। समाज के कुछ लोगो ने मिलकर सभी को एक करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष माताजी के गढ़ ( मन्दिर ) में मिलन समारोह का आयोजन किया जाता है। वर्तमान समय मे बड़गूजर राजपूतों की राजौरा शाखा का बहुत योगदान रहा है।


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