आज स्वामी विवेकानंद की जयंती है, स्वामी विवेकानंद एक ऐसे व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे जिन्होंने मात्र 39 वर्ष के जीवन काल में देश के युवाओं तथा जन मानस में एक ऐसी मंत्र दीक्षा दी, कि पूरा देश आज उनका अनुसरण कर रहा है। स्वामी विवेकानन्द कोई दिव्यात्मा नहीं थे, किन्तु उन्होंने अपने गुणों के बल पर अपने आपको दिव्यात्मा की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। स्वामी विवेकानंद एक ऐसे संन्यासी का नाम जिनके अनुयायी देश ही नहीं, बल्कि दुनिया के हर कोने में नजर आते हैं और एक ऐसा संन्यासी जिनका एक वक्तव्य पूरी दुनिया को अपना कायल बनाने के लिए काफी होता था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि अपने ज्ञान के बल पर दुनिया का दिल जीतने वाले वही स्वामी विवेकानंद को एक बार एक वेश्या के आगे हार गए थे। एक वाक्या यह भी है कि स्वामी विवेकानंद का घर एक वेश्या मोहल्ले में था जिसके कारण विवेकानंद दो मील का चक्कर लगाकर घर पहुंचते थे।
बात उस समय की है जब स्वामी विवेकानंद जयपुर के पास एक छोटी-सी रियासत के मेहमान बने। कुछ दिन वहां रहने के बाद जब स्वामी जी के विदा लेने का समय आया तो रियासत के राजा ने उनके लिए एक स्वागत समारोह रखा। उस समारोह के लिए उसने बनारस से एक प्रसिद्ध वेश्या को बुलाया। वेश्या के भजन गाते समय उसके आंखों से आंसू बह रहे थे। उस वेश्या के भजन सुनकर स्वामी विवेकानंद बाहर से अंदर आ गए। जैसे ही स्वामी विवेकाकंद को इस बात की जानकारी मिली कि राजा ने स्वागत समारोह में एक वेश्या को बुलाया है तो वे संशय में पड़ गए। आखिर एक संन्यासी का वेश्या के समारोह में क्या काम, यह सोचकर उन्होंने समारोह में जाने से इनकार कर दिया और अपने कक्ष में बैठे रहे। जब यह खबर वेश्या तक पहुंची कि राजा ने जिस महान विभूति के स्वागत समारोह के लिए उसे बुलाया है, उसकी वजह से वह इस कार्यक्रम में भाग लेना ही नहीं चाहते तो वह काफी आहत हुई और उसने सूरदास का एक भजन, 'प्रभु जी मेरे अवगुण चित न धरो...' गाना शुरू किया।
वेश्या ने जो भजन गाया, उसके भाव थे कि एक पारस पत्थर तो लोहे के हर टुकड़े को अपने स्पर्श से सोना बनाता है फिर चाहे वह लोहे का टुकड़ा पूजा घर में रखा हो या फिर कसाई के दरवाजे पर पड़ा हो। और अगर वह पारस ऐसा नहीं करता अर्थात पूजा घर वाले लोहे के टुकड़े और कसाई के दरवाजे पर पड़े लोहे के टुकड़े में फर्क कर सिर्फ पूजा घर वाले लोहे के टुकड़े को छूकर सोना बना दे और कसाई के दरवाजे पर पड़े लोहे के टुकड़े को नहीं तो वह पारस पत्थर असली नहीं है।स्वामी विवेकानंद ने वह भजन सुना और उस जगह पहुंच गए जहां वेश्या भजन गा रही थी। उन्होंने देखा कि वेश्या कि आंखों से झर झर आंसू बह रहे हैं। स्वामी विवेकानंद ने अपने एक संस्मरण में इस बात का उल्लेख किया है कि उस दिन उन्होंने पहली बार वेश्या को देखा था, लेकिन उनके मन में उसके लिए न कोई आकर्षण था और न ही विकर्षण। वास्तव में उन्हें तब पहली बार यह अनुभव हुआ था कि वे पूर्ण रूप से संन्यासी बन चुके हैं।
अपने संस्मरण में उन्होंने यह भी लिखा है कि इसके पहले जब वे अपने घर से निकलते थे या कहीं से वापस अपने घर जाना होता था तो उन्हें दो मील का चक्कर लगाना पड़ता था, क्योंकि उनके घर के रास्ते में वेश्याओं का एक मोहल्ला पड़ता था और संन्यासी होने के कारण वहां से गुजरना वे अपने संन्यास धर्म के विरुद्ध समझते थे। लेकिन उस दिन राजा के स्वागत समारोह में उन्हें एहसास हुआ कि एक असली संन्यासी वही है जो वेश्याओं के मोहल्ले से भी गुजर जाए तो उसे कोई फर्क न पड़े।
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