हमारी यात्रा की तिथि 23 आखिर आ ही गई, मै अपनी पूरी तैयारी में था चूंकि यह मेरी पहली लम्बी यात्रा थी, और इसको लेकर मै काफी उत्सुक भी था। मैने ताराचन्द्र को कह दिया था कि मेरे यहां रात्रि 8:30 बजे तक आ जाना, और वह समय से आ भी गया था। घर में सभी के पैर छूकर निकलते निकलते 8:55 हो गये थे। प्रयागराज एक्सप्रेस का समय रात्रि 9:30 का और हम समय से चल रहे थे। सुबह राजकुमार और शिव भी मुझे यात्रा के लिये शुभकामनाएं देने आये थे, मैंने राजकुमार से विशेष आग्रह किया था कि रात्रि में भी तुम आना और राजकुमार भी हमें छोड़ने वालों में था। हमें छोड़ने के लिये भइया, अदिति और राजकुमार थें। सभी के चेहरे पर प्रसन्नता दिख रही थी। अदिति भी रेल को और काफी भीड़ को देखकर प्रसन्न थी। रात्रि के साढ़े नौ बज चुके थे और रेल चलने के संकेत दे रही थी। समय होते रेल चल भी दी। रेल के चलने पर अदिति काफी प्रसन्न दिख रही थी किन्तु धीरे-धीरे जैसे जैसे मै उससे दूर जा रहा था जैसे उसके चेहरे पर प्रसन्नता गायब हो कर एक अजीब सी उदासी देखने को मिल रही थी अर्थात वह भावुक हो रही थी। शायद रोने भी लगी हो किन्तु यह रेल ने मुझे अपनी रफ्तार के आगे देखने नही दिया।
धीरे धीरे सब कुछ सामान्य हो गया। सभी यात्री कुछ तो सोने की तैयारी करने लगे तो कुछ बातों में तल्लीन हो गये। मै और तारा चन्द्र भी अपनी बातों में मस्त थें। मुझे नीचे की सीट मिली थी तो तारा चन्द्र को बीच की। इससे हमें और भी आराम था, हमने रात्रि 1 बजे तक बीच के सीट को फोल्ड ही रहने दिया और जग चर्चा में लग गये। 1 बजे के बाद रामचंद्र को कुछ नींद की शिकायत हुई तो मैंने उन्हें कहा कि तुम भी अब अपनी सीट पर चले चलो और यह कह कर सीट को खोल दिया गया। इसी बीच एक और मजेदार वाक्या हुआ रात्रि में करीब 10:30 बजे एक सज्जन आये और मुझसे कहने लगे कि मुझे पहचाने मुझे पहचाने मैने भी सोचा कि यह बंदा इनती दावे से यह कर रहा है तो निश्चित रूप से मुझे जानते होंगे मैने भी अपनी दिमाग की चक्करघिन्नी दौड़ाई और फटाक से बोल पड़ा कि आप चुन्तन है। यह सुनते ही उन जनाब् के चेहरे की हवाई उड़ने लगी। और आस पास के लोगों पर हल्की से मुस्कान भी देखने को मिल रही थी। फिर उन्होने अपना परिचय दिया कि वे उच्च न्यायालय में अधिवक्ता है और उन्होने मुझे मेरे घर पर देखा था। चुंतन का ख्याल में मन इसलिये भी आया कयोकि मुझे नही लग रहा था कि रेल में भी मुझे कोई पहचानेगा और कुछ दिनों पूर्व चुंतन से मुलाकात हुई थी हो सकता हो वही हो। फिर हम लोगों ने उनसे विदा लिया और उन्होने आपनी सीट और बताई। उसके बाद मै रात्रि में काफी देर तक यह वाक्या सोच सोच कर हसता रहा। रात्रि 2 बजे के बाद मै सो गया और सुबह/रात्रि 3 बजे के जब मै उठा तो अलीगढ़ रेलवे स्टेशन था और फिर चद्दर निकाल का फिर से लेट गया। फिर जब उठा तो सुबह के 5 बज रहे थे। मै फिर नित्यकर्म से निवृत्त होकर जग गया और 5.45 तक तारा चन्द्र को भी जगा दिया। और फिर सीट को उठा दिया। हमारी देखा देखी और और लोगों ने भी अपनी नीद हराम कर ली।
गाजियाबाद के आते आते सभी अपने सामान को समेटने लगे थे, हम भी तैयार होने लगे थे। दिल्ली के दर्शन हमें गाजियाबाद से ही होने लगा था। एक ऊँची ऊँची इमारत, विशालकाय फैक्ट्री भी दिख रही थी। हमने यमुना नदी भी देखा जिसे तारा चन्द्र यमुना मानने से ही इंकार कर रहे थे। क्योंकि तारा चन्द्र के मन में जो परिकल्पना थी उससे दिल्ली की यमुना आधी दिख रही थी। आगे चलने पर हमें बड़ी-बड़ी इमारतों के साथ ही मलिन बस्ती भी देखने को मिल जिससे लगा कि दिल्ली का एक रूप यह भी है। रेल यात्रा करते समय नीचे की चिकनी सड़के मन को मोह रही थी। इस बीच मै लगातार शैलेश जी और अपने एक और मित्र सुरेन्द्र सुमन सिंह (पहली बार मिल रहा था) से मोबाइल पर संपर्क में था। शैलेश जी से उत्तर मिला कि आपके लेने के लिये अनिल त्रिवेदी जी जा रहे है। तो सुरेन्द्र जी से बात हुई तो वे कह रहे थे कि आप कहीं मत जाइए मै आपसे मिलने के लिये उत्सुक हूँ और 7.30 तक मै आ रहा हूँ। बात होते ही होते हम दिल्ली स्टेशन पर पहुँचते ही मेरी यह रेल यात्रा वृतान्त समाप्त होती है।
अब आपको अगली कड़ी में अनिल त्रिवेदी और सुरेंद्र सुमन जी के साथ बस पर बिताये पलों का वर्णन करूँगा। व्यस्तताओं के कारण देरी के लिये क्षमा प्रार्थी हूँ।
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