प्रदोष व्रत की महिमा



विदर्भ-देश में सत्यरथ नाम के एक परम शिवभक्त, पराक्रमी और तेजस्वी राजा थे। उन्होंने अनेक वर्षां तक राज्य किया, परंतु कभी एक दिन भी शिव पूजा में किसी प्रकार का अंतर न आने दिया।
प्रदोष व्रत की महिमा

एक बार शाल्व देश के राजा ने दूसरे कई राजाओं को साथ लेकर विदर्भ पर आक्रमण कर दिया। सात दिन तक घोर युद्ध होता रहा, अंत में दुर्दैव वश सत्यरथ को पराजित होना पड़ा, इससे दुखी होकर वे देश छोड़कर कहीं निकल गये। शत्रु नगर में घुस पड़े। रानी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह भी राजमहल से निकलकर सघन वन में प्रविष्ट हो गयी। उस समय उसके नौ मास गर्भ था और वह आसन्नप्रसवा ही थी। अचानक एक दिन अरण्य में ही उसे एक पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। बच्चे को वहाँ ही अकेला छोड़कर वह प्यास के मारे पानी के लिये वन में एक सरोवरके पास गयी और वहाँ एक मगर उसे निगल गया।

उसी समय उमा नाम का एक ब्राह्मणी विधवा अपने शुचिव्रत नामक एक वर्ष के बालक को गोद में लिये उसी रास्ते से होकर निकली। बिना नाल कटे उस बच्चे को देखकर उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगी कि यदि इस बच्चे को अपने घर ले जाऊँ तो लोग मुझपर अनेक प्रकारकी शंका करेंगे और यदि यहीं छोड़ देती हूँ तो कोई हिंस्र पशु भक्षण कर लेगा। वह इस प्रकार सोच ही रही थी कि उसी समय यती वेष में भगवान शंकर वहां प्रकट हुए और उस विधवा से कहने लगे-'इस बच्चे को तुम अपने घर ले जाओ, यह राजपुत्र है। अपने ही पुत्र के समान ही इसकी रक्षा करना और लोगों में इस बात को प्रकट न करना, इससे तुम्हारा भाग्योदय होगा।' इतना कहकर शिवजी अंतर्धान हो गये। ब्राह्मणी ने उस राजपुत्र का नाम धर्म गुप्त रखा।

वह विधवा दोनों को साथ लेकर उस बच्चे के माता-पिता को ढूंढने लगी। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते शांडिल्य ऋषि के आश्रम में पहुँची। ऋषि ने बताया कि 'यह राजा राजा का देहांत हो पूर्व जन्म में क्रोधवश प्रदोष व्रत को अधूरा छोड़ने के कारण ही उसकी ऐसी गति हुई है तथा रानी ने भी पूर्व जन्म में अपनी सपत्नी को मारा था, उसने इस जन्म में मंगर के रूप में इससे बदला लिया।'

ब्राह्मणी ने दोनों बच्चों को ऋषि के पैरों पर डाल दिया। ऋषि ने उन्हें शिव पंचाक्षरी मंत्र देकर प्रदोष व्रत करने का उपदेश दिया। इसके बाद उन्होंने ऋषि का आश्रम छोड़कर एकचक्रा नगरी में निवास किया और वहाँ वे चार महीने तक शिवाराधना करते रहे। दैवात् एक दिन शुचिव्रत को नदी के तट पर खेलते समय एक अशर्फियों से भरा स्वर्ण कलश मिला, उसे लेकर वह घर आया। माताको यह देखकर अत्यन्त ही आनन्द हुआ और इसमें उसने प्रदोष की महिमा देखी। 

इसके बाद एक दिन वे दोनों लड़के वन विहार के लिये एक साथ निकले, वहाँ अंशुमती नाम की एक गन्धर्व कन्या क्रीडा करती हुई उन्हें दीख पड़ी। उसने धर्मगुप्त से कहा कि 'मैं एक गन्धर्वराज की कन्या श्री शिव ने मेरे पिता से कहा है कि अपनी कन्या को सत्यरथ राजा के पुत्र धर्मगुप्तको प्रदान करना।' गन्धर्व कन्या की ‘यही धर्मगुप्त है' ऐसी जानकारी होने पर उसने विवाह का प्रस्ताव रखा।

धर्मगुप्त ने वापस आकर अपनी माता से यह बात कही। ब्राह्मणी ने इसे शिव पूजा का फल और शांडिल्य मुनि का आशीर्वाद समझा। बड़े ही आनंद से अंशुमती के साथ धर्मगुप्त का विवाह हो गया। गन्धर्वराज ने बहुत-सा धन और अनेकों दास-दासी उन्हें प्रदान किये। इसके पश्चात धर्मगुप्त ने अपने पिता के शत्रुओं पर आक्रमण कर विदर्भ-राज्य को प्राप्त किया। वह सदा प्रदोष-व्रत में शिवाराधना करते हुए उस ब्राह्मणी और उसके पुत्र शुचिव्रत के साथ जीवन पर्यन्त सुख से राज्य करता रहा और अंत में शिव लोक को प्राप्त हुआ।

(स्कन्द पुराण से)


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