“अब मैं नही”



जब से मैने ये सब कब सुधरेगें मे प्रतीक जी की टिप्पणी पढ़ी है तब से यह लेख पूरा करने का मन बनाया था किन्तु आज मन मे कुछ ऐसा भाव विचार आया कि लगा कि आज यह लेख पूरा होना चाहिए, और मैं इसी प्रयास से यह लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।
मेरे पिछले लेख में प्रतीक जी ने राधा के सम्बन्ध कुछ कहा था, मैने अपना पक्ष रखने के लिए समय मांगा था आज मै अपनी बात कह रहा हूँ। प्रतीक जी आप विद्यापति की बात कर रहे है वे वैसे ही श्रृंगारिक कवि है, उनकी भक्ति रचनाओं को भी काफी विद्वानों ने भक्ति काव्य मानने से इनकार किया है। द्वापर में न तो मै था न आप थे न विद्यापति। जैसा कि विद्यापति राज्याश्रित कवि थे, और जैसा वर्णन उन्होंने राजाओं के सम्‍बन्‍ध मे किया था, वही वर्णन उनका राधा और कृष्‍ण के लिये भी किया गया। अगर विद्यापति जी की कही बात को आप मानते है तो मै सूरदास से सहमत हूँ। सूर के अनुसार राधा के श्री कृष्ण के घूमने फिरने के लिये राधा के माता-पिता की स्वीकृति थी इसी स्वीकृति के सम्बन्ध मे सूरदास जी कह रहे है-
मिटि गई अंतरबाधाखेलौ जाइ स्याम संग राधा।यह सुनि कुंवरि हरष मन कीन्हों मिटि गई अंतरबाधा॥जननी निरखि चकित रहि ठाढ़ी दंपति रूप अगाधा॥देखति भाव दुहुंनि को सोई जो चित करि अवराधा॥संग खेलत दोउ झगरन लागे सोभा बढ़ी अगाधा॥मनहुं तडि़त घन इंदु तरनि ह्वै बाल करत रस साधा॥निरखत बिधि भ्रमि भूलि पर्यौ तब मन मन करत समाधा॥सूरदास प्रभु और रच्यो बिधि सोच भयो तन दाधा॥
अर्थ ..... रास रासेश्वरी राधा और रसिक शिरोमणि श्रीकृष्ण एक ही अंश से अवतरित हुए थे। अपनी रास लीलाओं से ब्रज की भूमि को उन्होंने गौरवान्वित किया। वृषभानु व कीर्ति (राधा के माँ-बाप) ने यह निश्चय किया कि राधा श्याम के संग खेलने जा सकती है। इस बात का राधा को पता लगा तब वह अति प्रसन्न हुई और उसके मन में जो बाधा थी वह समाप्त हो गई। (माता-पिता की स्वीकृति मिलने पर अब कोई रोक-टोक रही ही नहीं, इसी का लाभ उठाते हुए राधा श्याम सुंदर के संग खेलने लगी।) जब राधा-कृष्ण खेल रहे थे तब राधा की माता दूर खड़ी उन दोनों की जोड़ी को, जो अति सुंदर थी, देख रही थीं। दोनों की चेष्टाओं को देखकर कीर्तिदेवी मन ही मन प्रसन्न हो रही थीं। तभी राधा और कृष्ण खेलते-खेलते झगड़ पड़े। उनका झगड़ना भी सौंदर्य की पराकाष्ठा ही थी। ऐसा लगता था मानो दामिनी व मेघ और चंद्र व सूर्य बाल रूप में आनंद रस की अभिवृद्धि कर रहे हों। यह देखकर ब्रह्म भी भ्रमित हो गए और मन ही मन विचार करने लगे। सूरदास कहते हैं कि ब्रह्म को यह भ्रम हो गया कि कहीं जगत्पति ने अन्य सृष्टि तो नहीं रच डाली। ऐसा सोचकर उनमें ईर्ष्या भाव उत्पन्न हो गया।

श्रीकृष्ण और राधा रानी का प्रेम की व्याख्या तो साक्षात ब्रह्मा भी नही कर सकते थे अगर उन्हें राधा को श्रीकृष्ण की प्रेमिका बनाया तो पत्नी भी बना सकते थे। वास्तव में राधा और कृष्ण का प्रेम भक्त और भगवान का प्रेम था। राधा के प्रेम के भक्ति के सम्‍बन्‍ध मे एक कथा है ........
देवऋषि नारद खीज से गये थे कि, तीनों लोकों में राधा की स्तुति जो हो रही थी। वे स्वयं भी तो कृष्ण जी से कितना प्रेम करते थे। इसी मानसिक संताप को छुपाये हुये वे कृष्ण के पास जा पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कृष्ण भयंकर सिर दर्द से कराह रहे हैं। देव ऋषि के हृदय में टीस उठी। पूंछा, "भगवन क्या इस वेदना का कोई उपचार नहीं है। क्या मेरे हृदय के रक्त से यह शान्त नहीं हो सकती।
कृष्ण ने उत्तर दिया, "मुझे रक्त की आवश्यकता नहीं है। यदि मेरा कोई भक्त अपना चरणोदक पिला दे तो यह वेदना शान्त हो सकती है। यदि रुक्मिणी अपना चरणोदक पिला दे तो शायद लाभ हो सकता है।"
नारद ने मन में सोंचा , 'भक्त का चरणॊदक भगवन के श्रीमुख में' आखिर रुक्मिणी के पास जाकर उन्हे सारा हाल कह सुनाया। रुक्मिणी भी बोलीं , "नहीं-नहीं देवऋषि, मैं यह पाप नहीं कर सकती।" नारद ने लौटकर रुक्मिणी की असहमति कृष्ण के सामने व्यक्त कर दी। तब कॄष्ण ने उन्हें राधा के पास भेज दिया। राधा ने जो यह सुना तो तत्क्षण एक पात्र में जल लाकर उसमें अपने पैर डुबा दिये और नारद से बोलीं, "देवऋषि इसे तत्काल कृष्ण के पास ले जाईये। मैं जानती हूं इससे मुझे रौरव नर्क मिलेगा, किन्तु अपने प्रियतम के सुख के लिये मैं अनन्त युगों तक यातना भोगने को प्रस्तुत हूं।" और देवऋषि नारद समझ गये कि तीनों लोकों में राधा के प्रेम की स्तुति क्यों हो रही है।
प्रस्‍तुत प्रंसग मे राधा ने आपने प्रेम का परिचय दिया है प्रेमी(ईष्‍ट) का इच्‍छा की पूर्ति के लिये नर्क नर्क मे ही क्‍यों न जाना पड़े राधा(भक्‍त) को मंजूर था, और रूकमनी (लक्ष्‍मी) को नही है। यही है सच्चे प्रेम की पराकाष्ठा जो लाभ हानि की गणना नही करता है। राधा का प्रेम शारीरिक भोग की लालसा नहीं रखता था जैसा कि विद्यापति के दोहों के माध्यम से आप कहना चाह रहे थे, प्रेम आत्मा से परमात्मा (आत्मा) के मिलन की लालसा रखता है। राधा ने कृष्ण के प्रेमी रूप की भक्ति की तो श्रीकृष्ण ने प्रेम रूपी भक्ति को प्रदान किया और कंश न आने नाश के रूप में आराधना की तो उसका नाश किया। प्रेम के लिये शादी अथवा किसी प्रकार का प्रदर्शन प्रमाण नहीं होता है जो आज के जमाने में समझा जा रहा है।
एक तरफ सूर राधा के श्री कृष्ण वियोग के बारे में मारी मारी फिर रही है तो दूसरी ओर अयोध्‍या सिंह उपाध्याय के प्रिय प्रवास मे लोकहित में सतत संलग् श्री कृष्ण की भांति राधा को भी परोपकार, लोकसेवा, विश्व प्रेम आदि से परिपूर्ण चित्रित किया है। यहां राधा सूर की राधा की तरह कृष्ण के विरह में मारी-मारी नहीं फिरती, अपितु वह दीन-हीन एवं रोगी जनों की सेवा-सुश्रूषा में ही अपना जीवन व्यतीत करती हैं। प्रत्‍येक कबि का अपना अपना मत है किसी के कहने पर यह राधा के दो:दो पति थे तो य‍ह गलत होगा। एक जगह पर यह कहा गया है कि ‘उनका कहना था कि 'कृष्ण और राधा के विवाहेतर सम्बन्ध इस स्थिति के द्योतक थे कि हिन्दू धर्म अपनी स्त्रिायों को कितनी गिरी दशा में रखता था।` उन्होंने यह भी लिखा कि, 'कृष्ण, दूसरे आदमी की पत्नी राधा के साथ पति पत्नी के रूप में रहते हैं। कृष्ण को इसके लिए कोई अनुताप का पश्चाताप नहीं होता।’ लिखने को बहुत कुछ लिखा गया है,। वास्‍तव मे राधा आदर्श प्रेम की मूर्ति थी आज भी उनका प्रेम अमर है और उस पवित्र प्रेम की आड़ मे उन्‍हे ही बदनाम किया जा रहा है।

रमाकान्त रथ कृत 'श्री राधा' के बारे मे डॉ. मधुकर पाडवी व्‍याखा कर रहे है----
विद्यापति हिन्दी साहित्य के आदिकाल के महत्वपूर्ण कवि हैं जिनकी अनेकविध कलात्मक रचनाएं आविष्कार के लिए विवश हैं। विद्यापति की महत्वपूर्ण रचनाओं में मैथिली में लिखी हुई पदावली, अवहट्ठ में लिखे गये दो ग्रंथ कीर्तिलता और कीर्तिपताका, संस्कृत में लिखे गये ग्रंथो में शैव सर्वस्वसार, भूपरिक्रमा, पुरूष परीक्षा लिखनावली, गंगा वाक्यावली, दान वाक्यावली, विभागसार, वर्ण कृत्य आदि हैं। विद्यापति आदिकाल के कवि है। समय विभाजन के जरिए देखा जाए तो यह समय 10वीं से 16वीं सदी तक का माना गया है। इस समय दरम्यान अनेक महत्वपूर्ण कवियों ने अपनी रचनाएं की हैं जिनमें जैन अपभ्रंश साहित्य, बौद्ध एवं नाथ साहित्य, डिंगल और पिंगल भाषा के ग्रंथ, चारण साहित्य तथा रासो काव्य का प्राधान्य रहा है। इस युग में हेमचन्द्र का सिद्धहेम शब्दानुशासन, अब्दुल रहमान का संदेश रासक, चन्द बरदाई का पृथ्वीराज रासो आदि महत्वपूर्ण रचनायें हैं। पृथ्वीराज रासो हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है। आदिकाल में भाषा का वैविध्य रहा है तो काव्य विषयों में भी वैविध्य दिखाई देता है। जिसमें चरित्र काव्य, सिद्ध और नाथों का काव्य, भाट और चारणों के युद्ध से सबंधित वीर काव्य, रासो काव्य, भक्ति काव्य तथा श्राृंगारिक काव्य की परंपरा रही है। इन सब कवियों में एक महत्वपूर्ण नाम विद्यापति का है जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से तत्कालीन समय में अपनी खुद की एक अलग पहचान बनाई।वैसे तो आदिकाल में प्रभु भक्ति ही केन्द्र में रही है। प्रेम की महत्तम बातें प्रभु और धर्म से जुडी हुई मिलती हैं। मानुषी प्रेम की अभिव्यक्ति होती नहीं थी। प्रेम की बात होती तो वह राधा और कृष्ण के आसपास जाकर सिमट जाती। आदिकाल में प्रभु भक्ति के साथ जो और एक बात देखने को मिलती है वह है राजाओं की एैयाशी, उनकी दरबारी नजाकत और हार और जीत के बीच झूलती हुई लडाईयां।आदिकाल का यह संदर्भ इसलिए जरूरी है क्योंकि विद्यापति की लेखनी इस माहौल में विकसित हुई है। विद्यापति नि:शंक एक कवि थे मगर उनको राजा र्तिसिंह, शिवसिंह से राज्याश्रय मिला था। इसलिए वे राजा के आश्रित कवि यानि दरबारी कवि गिन जाते थे।आदिकालीन कवियों में विद्यापति का व्यक्तित्व सबसे निराला था। उनके बारे में कहा जाता है कि वे बाल्यकाल से ही बड़े मेधावी थे। वे संस्कृत के प्रकांड पंडित थे क्योंकि उनके पिता संस्कृत के प्रतिष्ठित पंडित थे। उन्होंने संस्कृत ग्रंथों की भी रचना की है जिसमें से कई रचनाएं तो आज भी अप्रकाशित हैं।
विद्यापति के जीवन काल को देखा जाए तो उन्होंने एक ही वंश के चार राज दरबारों को देखा था। इन सब में राजा शिवसिंह से उन्हें अधिक सन्मान मिला था। राजा शिवसिंह विद्यापति के आश्रयदाता के अतिरिक्त घनिष्ठ मित्र भी थे। वैसे तो उस समय में आश्रित कवियों का काम आश्रयदाता राजाओं की रुचि के अनुसार रचनाओं का निर्माण करना था। कभी राजाओं की कीर्ति का यशोगान करना तो कभी दरबारी माहौल को रोमांचित करने के लिए श्रृंगारिक काव्यों का निर्माण करना। इस तरह देखा जाए तो उस समय के कवियों की रचनाएं राजा की रस रुचि और मांग पर निर्भर रहती थीं। कभी राजा और राज दरबार की वाह-वाह की सुनवाई के लिए कवि अपनी कृतियों में छिछोरापन भी शामिल करते थे। मगर विद्यापति इन सबसे अलग थे। उनकी रचनाओं में निरूपित अद्भूत कल्पनाएं तथा असाधारण कवित्व से वे सबको सम्मोहित कर देते थे। विद्यापति असामान्य प्रतिभा के धनी थे। उनका कवित्व अपने विद्वान पूर्वजों की संस्कारिकता की देन था और इसके लिए उन्हें जीवन पर्यंत मान सन्मान मिलता रहा। कवियों के लिए कहा जाता है कि वे परंपराओं में रहकर भी अपनी निजी प्रतिभाओं को निखारते हैं। विद्यापति ने भागवत की माधुर्य भावना की परंपरा जयदेव के गीत गोविन्द से ग्रहण की थी। इसी कारण विद्यापति की पदावली में राधा-कृष्ण की प्रेम लीला का श्राृंगारिक वर्णन हुआ है। जयदेव के प्रभाव से विद्यापति की पदावली में प्रेम की उदात्तता, भव्यता और भक्ति का समन्वय दिखाई देता है। संस्कृत साहित्य में महाकवि कालिदास को प्रेम और श्रृंगार का कवि माना जाता है। विद्यापति के सामने कालिदास के प्रेम से सभर अनेक ग्रंन्थ थे जिसमें विरह की उत्कटता और प्रेम की चरम सीमा का निरूपण हुआ है।
विद्यापति की पदावली में प्रेम और विरह की उत्कटता का जो वर्णन मिलता है उस पर नि:शंक कालिदास का प्रभाव देखा जाता है। जयदेव और कालिदास से प्रभावित विद्यापति ने अपनी पदावली में प्रेम और विरह की उत्कटता को अपनी निजी शैली में निरूपित किया ।
गाथा सप्तशती और आर्यासप्तशती द्वारा श्रृंगार की जो परंपरा चली थी उसी परंपरा से भावित विद्यापति ने भी मुक्तक काव्य शैली में राधा-कृष्ण की प्रेम लीला को माध्यम बनाकर श्राृंगारिक भावनाओं को अभिव्यक्त किया है। विद्यापति का समग्र जीवन राज दरबार में ही बीता था। राजा शिवसिंह परम मित्र होने के कारण राजा के अन्त:पुर तक जाने का अवसर उन्हें बार-बार मिलता था जिसके कारण रानियों, राजकुमारियों, नर्तकियों, दासियों और गांव की नारियों के संपर्क में वे आये।
विद्यापति ने राज दरबार के भीतर छिपी आंतरिकता को - कामुकता को देखा और उनका अपनी रचनाओं में खुल कर निरूपण किया। जहां तक राज दरबार का सवाल था वहां बाह्य रूप सौंदर्य को ही प्राधान्य मिलता था। आंतरिक सौंदर्य का कोई निजी स्थान न था। बाह्य सौंदर्य की तुलना में आंतरिक सौंदर्य हमेशा उपेक्षित रहता था। विद्यापति ने उस छिपे हुए सौंदर्य को खोलकर रख दिया। राधा-कृष्ण के दिव्य प्रेम को अत्यंत सहज और मानुषी
बना दिया। इस संदर्भ में सही अर्थ में देखा जाए तो विद्यापति दरबारी कवि होते हुए भी एक आम जनता के कवि यानि जन मानस के कवि बने हैं। राज दरबार में छिपे हुए सौंदर्य को आम जनता तक ले जाने का श्रेय विद्यापति को मिलता है। मानो सही अर्थो में वे लोक कवि थे।
विद्यापति की ख्याति का मूलाधार उनकी पदावली है। उनकी रस रचना को देखते हुए यह स्पष्ट होता है किवे सौंदर्योपासक कवि थे क्योंकि उन्होंने सौंदर्य के सभी रूपों को विभिन्न दशाओं में निरूपित किया है। विद्यापति चिर नूतन यौवन के उपासक थे। पदावली का एक-एक पद मर्मस्पर्शी है और हमारे समक्ष सौंदर्य तथा प्रेम क्रीडा की सुंदरता को प्रस्तुत करता है। उनके रूप वर्णन, वय: सन्धि के चित्रण तथा मादक युवावस्था की मुधर झलकें मन को मुग्ध कर लेती हैं। ये चित्रण काल्पनिक न होकर जीवन के यथार्थ रूप हैं। वे अपने भावों और विचारों को यथार्थ रूप में कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करते हैं। श्रृंगार रस सबंधी कोई ऐसी बात नहीं है जिसका वर्णन इनकी पदावली में मिलता न हो। लौकिक जीवन के एक बड़े पक्ष सौंदर्य, क्रीडा और आनन्द का जैसा सजीव वर्णन विद्यापति में पाया जाता है वैसा अन्य किसी कवि के काव्य में नहीं मिलता।
विद्यापति निश्चित रूप से नागरिक जीवन और नागरिक रूचि के पक्ष में थे।जब-जब विद्यापति की'पदावली की बात निकलती है तब-तब निश्चित रूप से यह सवाल उठता है कि विद्यापति श्रृंगार कवि है या भक्त कवि! वैसे तो विद्यापति श्रृंगार, प्रेम, रूप, वन और सौंदर्य रससिद्ध पारखी कवि माने जाते हैं। वे मानवीय एवं मानवेत्तर श्रृंगार के यथार्थ प्रेमी कवि है। वैसे भी दरबारी राज्याश्रित कवि नीरस हो ही नहीं सकता। अपने आश्रयदाता राजा शिव सिंह और रानी लखिमा देवी को प्रसन्न करने के लिए विद्यापति ने अतिविलक्षण एवं मनोरम काव्य का सर्जन किया है। उन्होंने यौवनावस्था के सभी प्रेमानुभावों को जनभाषा में उतारकर संगीत की चासनी में डुबाया है। विद्यापति ने अपने पदों में राजा-रानी के स्थान पर राधा-कृष्ण शब्द का प्रयोग किया। परिणामत: विद्यापति की पदावली राजा-रानी की प्रणय-क्रीडा तक सीमित न रहकर जन समाज के साधारण व्यक्ति के प्रेम के आविर्भाव की द्योतक बनी। लोकभाषा में लिखे गये इन पदों में राधा-कृष्ण की श्रृांगारिकता को विद्वानों ने प्रभु-भक्ति के साथ जोड़ दिया और उसे भजनों में स्थान दे दिया। विद्यापति ने अपने पदों में राधा-कृष्ण का जो चित्र निर्मित किया है उसमें वासना का रंग प्रखर रूप से दिखाई देता है। आराध्य देव के प्रति भक्ति का जो पवित्र विचार होना चाहिए वह लेशमात्र भी नहीं था। विद्यापति की राधा का प्रेम भौतिक एवं वासनामय प्रेम है। आनंद ही उनका उद्देश्य है और सौंदर्य ही उनकी काव्योपासना थी। इसलिए विद्यापति को भक्त कवि कहना ठीक नहीं होगा।

भक्त अपने इष्टदेव की लीलाओं के गान को अपना परम कर्तव्य समझता है। विद्यापति ने श्राृंगारिक वर्णन को भक्ति की अभिव्यक्ति का साधन माना। अत: विद्यापति को रसिक भक्त कवि कहा गया किन्तु भक्त का हृदय उन्हें प्राप्त न था। भक्तों के हृदय की सी पावनता, आर्द्रता, कोमलता, कातरता, दीनता और भावमग्ता का उनमें सामान्यत: अभाव था। विद्यापति पूर्ण रूप से श्रृंगारी कवि थे और उनका काव्य संसार श्रृंगार ही था। यौवन और सौंदर्य विद्यापति के पदों की अनूठी पहचान रही है। जिस तरह कवि बायरन ने यौवन के दिनों को दी डो ऑफ यूथ आर दी डो ऑफ ग्लोरी कहा है उसी तरह विद्यापति ने यौवन के दिनों के लिये कहा है -
जनम अवधि नहि तुअ पद सेवल जुबती रति रंग मेलि अमिअ तेजि हालाएल पीउल सम्पद आपदहि मेलि।
महाकवि विद्यापति संस्कृत, अपभ्रंश और मैथिली भाषा के प्रकांड पंडित थे। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के पूर्ववती ग्रन्थों का उन्होंने गहन अध्ययन किया था। उनकी पदावली में भक्ति और श्रृंगार का जो मिश्रण मिलता है उसका मूल इन्हीं ग्रन्थों में ढूंढा जा सकता है।
पदावली में निरूपित भक्ति श्रृंगार भावना के मिश्रण से या कुछ पद भक्ति के होने मात्र से न तो पदावली के पद भक्ति के पद साबित हो सकते हैं और न ही विद्यापति भक्त कवि। विद्यापति रसिक भक्त कवि थे। इसलिए उनकी पदावली में कभी भक्ति भावना प्रबल हो जाती थी और कभी रसिकता। विद्यापति की इस विशेषता के कारण ही चैतन्य महाप्रभु उनके पदों को सुनकर आनंद विभोर हो जाते थे।
राधा-कृष्ण के नाम मात्र से यह समझना अनुचित होगा कि कवि केवल भक्ति रस की चरम सीमा या पराकाष्ठा पर पहुंचकर जीव ब्रह्म के ऐक्य ही को श्रृंगारिक शब्दों में कह रहा है। वस्तुत: विद्यापति श्रृंगार की उस अखंड परंपरा के कवि थे जिसमें आगे चल कर बिहारीलाल, पद्माकर जैसे श्रृंगारी कवि दिखाई देते हैं। कहा जा सकता है कि विद्यापति की पदावली में राधा-कृष्ण का वही स्थान हैं जो बिहारी सतसई में राधा-कृष्ण का है।

नरेन्द्र गुप्त ने विद्यापति के 936 पदों का विद्यापति ठाकुर की पदावली नामक पुस्तक में संग्रह किया है जिसमें राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, गंगा और परकीया पर आधारित पद मिलते हैं। इनमें सबसे अधिक 849 पद राधा-कृष्ण के सबंध में मिलते हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि विद्यापति की पदावली के अधिकांश पद प्रेम और श्राृंगारिकता को केन्द्र में रखकर लिखे गये हैं। राधा-कृष्ण की अतृप्त वासानाजनीत क्रियाओं का अनेक पदों में वर्णन किया है। पदावली के कृष्ण दुष्टों का दलन करने वाले न होकर या पूतना वध - कंस वध करने वाले न बन कर अपनी प्रेमिका राधा से मिलने के लिए अनेक उपाय खोजने वाले घोर विलासी तथा कामुक मनुष्य को भी लाित करने वाले हैं। क्या र्कोई भक्त अपने आराध्य देवी-देवता के प्रति इस प्रकार का घृणित वर्णन कर सकता है!

मेरा यह निश्चित रूप से मानना है कि विद्यापति स्पष्ट रूप में श्रृंगारी कवि हैं। उन्होंने अपने पदों की रचना न भक्ति कीर्तनों के लिए की थी और न स्वयं वे भक्त थे। 'विद्यापति ने अपनी पदावली में अपने आश्रयदाता राजा-रानी को श्रृंगाार रस के प्याले पिला-पिला कर मदहोश एवं प्रसन्न करने के लिए श्रृंगार रस से  सने (भरे)अनेक पद रचे हैं।'

प्रेम विद्यापति की पदावली का महत्वपूर्ण अंश है। उन्होंने विवाह पूर्व प्रेम, वैवाहिक प्रेम और परकीया प्रेम का वर्णन किया है। प्रेम की प्रत्येक अनुभूति को रागात्मक शैली में अभिव्यक्त किया है। कवि ने नारी सौंदर्य का वर्णन काम प्रेरक किया है। विद्यापति के श्रृंगार के आलम्बन राधा और कृष्ण हैं किन्तु कवि की दृष्टि कृष्ण से अधिक राधा पर रही है। इसलिए राधा के रूप, आकर्षण, अभिसार और मिलन का वर्णन पूरी सहृदयता से उन्होंने किया है। कवि ने राधा के अंगों का नख शिख तक वर्णन किया है। नख शिख वर्णन का प्रारंभ शायद विद्यापति से हुआ हो ऐसा माना जाता है। कवि के शब्दों में राधा का रूप सौंदर्य यहां दर्शनीय है-
णचांद सार लए मुख घटना करु
लोचन चकित चकोर।
अमिय धोए आचुरे धनि
पौछल
वह दशि मेल उजोरे।
कवि ने दर्शाया है कि नायिका का मुख चंद्र का सार लेकर गढा गया है। उसके लोचनों को देखकर चकोर भी चकित रह गये हैं। जब उसने अपने मुख को अमृत से धोकर आंचल से पोंछा तब दसों दिशाओं में प्रकाश हो गया।
कहीं कहीं मिलन के प्रसंग में उन्होंने कुछ ऐसी सस्ती बातों का उल्लेख किया है जो समाज को शायद रुचिकर न प्रतीत हों। कृष्ण-लीला के नाम पर कवि विद्यापति ने दरबारी विलासिता का उन्मुक्त चित्रण किया है - राधा नायिका अब काम कला में प्रवीण बन गयी है। वह कहती है -
पसुक संग हुन जनम गमाओल
से कि बुझथि रतिरंग
मधु जामिनि मोर आज
विफल गेलि
गोप गमारक संग।
राधा की प्यास कृष्ण बुझा नहीं सके। क्रोधवश वह अपनी सखियों से कहने लगी - वह गंवार गोप पशु के साथ जिसने अपना जन्म गंवाया वह रतिजन्य आनंद को क्या जाने। हे सखी! आज की मेरी वसन्त की रात अथवा प्रथम मिलन की रात यों ही चली गयी। निर्लाता से प्रथम रात्रि का अपना अनुभव सब के बीच कहने वाली राधा न होकर निश्चित रूप से दरबार की कोई रानी ही होगी।
यदि प्रेम का पात्र लौकिक पुरुष होता है तो लौकिक प्रेम श्रृंगार की अभिव्यक्ति होती है किन्तु जब प्रेमी पात्र दिव्य पुरुष हो तो पारलौकिक प्रेम से भक्ति रस की अभिव्यक्ति होती है। विद्यापति के कृष्ण और राधा लौकिक पात्रों की तरह हावभावों एवं विशिष्ट मुद्राओं का अंकन, कामुकता और विलासिता आदि प्रकट करते हैं। अत: विद्यापति के राधा और कृष्ण अलौकिक होते हुए भी पदावली में अलौकिक न रह कर पूर्ण लौकिक बन गये हैं।
विद्यापति संयोग श्रृंगार में जहां अत्यंत उत्कृष्ट कवि के रूप में सफल हुए है वहां वियोग श्रृंगार में उससे भी अधिक सफल रहे हैं। पदावली में वियोग श्रृंगार के पद संयोग की तुलना में अधिक नहीं है फिर भी जितने भी हैं वे सब मौलिक हैं। कृष्ण के विदेश जाने की खबर सुन कर राधा चिंतित और व्याकुल हो जाती है। वह स्वयं कृष्ण को रुक जाने के लिए कुछ कह नहीं सकती। अत: सखी से कहती है -
सखि हे
बालुम जितब बिदेस
हम कुल कामिनी कहइत अनुचित
तोहहुं दे दुति उपदेस।'

कवि राधा की मनोदशा का सुंदर चित्रण करते हुए कहते हैं कि - राधा को थोड़ा आनंद मिलता अगर सपने में भी वह अपने प्रिय को देख लेती। बेचारी की नींद भी विरह दु:ख में नष्ट हो गई है कि उसे सपना कैसे आएगा! प्रिय की प्रतीक्षा में अवधि के दिन लिखते-लिखते राधा के नाखून घिस गये, रास्ते को देखते आंखों की ज्योति मंद पड ग़ई। राधा कहती है-
सखि हे हमर दुखक नहिं ओरई भर बादर माह मादर सून मंदिर मोर।

भावों में कितनी व्याकुलता दिखाई देती है। अनुभूति की ऐसी सहज अभिव्यक्ति विद्यापति जैसे सिद्धहस्त कवि ही कर सकते हैं। विरह वर्णन में विद्यापति ने राधा की अनेक मनोदशाओं के साथ-साथ कृष्ण की वियोगावस्था का भी वर्णन किया है। भाषा की सरलता, भावुकता, तन्मयता के कारण विद्यापति के विरह के गीत हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि बन गए हैं। विरह की ऐसी कोई दशा नहीं जिसका वर्णन विद्यापति ने न किया हो।

इस प्रकार विद्यापति ने अपनी सामयिक परिस्थितियों के अनुसार संयोग श्रृंगार के तथा वियोग श्रृंगार के पदों की रचना की। श्रृंगार रस मन की सर्वाधिक वृत्तियों को अपने में समाविष्ट कर लेता है। इसलिए दरबारी कवि श्रृंगार रस में ही काव्य सर्जन करते थे। श्रृंगार रस की निष्पत्ति के लिए आवश्यक सभी बातें विद्यापति की पदावली में विपुल मात्रा में है। विषयवस्तु, विषय प्रतिपादन एवं रचना-शैली तीनाें दृष्टियों से विद्यापति की पदावली सफल हुई है।

प्रिय प्रवास में राधा की विरह-व्यथा के बारे मे डॉ. देवायत एम. सोलंकी कह रहे है --- श्री रामाकान्त रथ उडिसा के वरिष्ठतम आई.ए.एस.अधिकारी होने के साथ-साथ उडिया के एक शीर्षस्थ कवि भी है। उनके अब तक आठ कवितासंग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनका काव्य संग्रह सप्तम ऋतु 1978 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुआ है। उसके बाद भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित खंडकाव्य 'श्री राधा' उनकी बहुचर्चित कृति है। प्रस्तुत कृति परिपक्व संवेदनशीलता, प्रगाढ मानवीय चेतना, प्रतीकात्मक भाषा-लालित्य और काव्य-शिल्प के कारण न केवल उडियाकी बल्कि भारतीय भाषा की भी एक अमूल्य कृति है।

प्रस्तुत काव्य का शीर्षक 'श्री राधा' है और राधा का नाम आते ही अनायास ही हमारे सामने राधा-कृष्ण का अलौकिक स्वरूप आ जाता है। निस्संदेह प्रस्तुत काव्य में वही श्री राधा है, परंतु कवि ने उसके चरित्र को यहां जिस तरह से प्रस्तुत किया है वही हमारे लिए वैचारिक संकट का कारण बना है। डॉ. अर्जुन शतपति के शब्दों में कहें तो - 'ओडिया कवि श्री रमाकान्त रथ की काव्य अंर्तयात्रा की महान उपलब्धि उनकी श्री राधा काव्य-कृति है। काव्य का शीर्षक इसलिए सार्थक लगता है कि इसमें श्री राधा ही है। यह शब्द ही हमारे वैचारिक संकट का कारण बन जाता है क्योंकि यह वह राधा है, जो हमारी जनचेतना में रची-बसी राधा से भिन्न होते हुए भी अभिन्न है। इसमें दो मत नहीं है कि भारतीय सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक और सामाजिक चेतना में राधा एक उदात्त कृति है जिसके साथ नारी के औदार्य, सौंदर्य, सुख, हर्षोल्लास आदि जुड़े हैं। इसलिए तात्त्वि अवबोधन हेतु स्वयं कवि ने काव्य के पृष्ठबंध में लम्बी बहस छेड़ी है जिसमें उनके द्वारा सृजित राधा के स्वरूप पर आलोकपात किया है।'

श्री राधा काव्य का केन्द्रीय चरित्र राधा है, परन्तु यहां जिस राधा का कवि ने उल्लेख किया है उसका चरित्र परम्परागत राधा के चरित्र से भिन्न है और कवि ने स्वयं उस पर सवाल उठाये हैं। कवि ने काव्य के पृष्ठबंध में इसको लेकर लम्बी बहस छेड़ी है। उनका पहला सवाल राधा के स्वरूप को लेकर है और इसको स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि 'मैं ऐसी चिड़चिड़ी राधा की कल्पना नहीं कर सकता जो कृष्ण को वृंदावन छोड़ने के लिए, उस पर निष्ठा न रखने के लिए तथा उसके प्रति उदासीन रहने के लिए उससे कहती हो, ऐसा कोई भी आचरण उसके लिए अप्रासंगिक है। प्रारंभ से ही वह ऐसी आशा नहीं पाले रखती। कुंठित होकर निराश होने की भी उसके लिए कोई संभवना नहीं है। अगर वह निराश हो सकती है तो केवल इसलिए कि कृष्ण को जिस सहानुभूति की आवश्यकता थी, वह उसे न दे सकी। न दे पाने की पीड़ा कुछ लोगों के लिए न ले पाने की पीड़ा से बड़ीहोती है।'

राधा को प्रेम की इस उदात्त स्थिति को प्राप्त करने से पहले जिन-जिन स्थितियों से गुजरना पडा होगा तथा उसकी क्या मन: स्थिति रही होगी उसका कवि ने बहुत गहराई से विवेचन किया है। साधारणतया संसार के प्रेमीजनों का लक्ष्य मिलन होता है किन्तु यहाँ पर राधा कृष्ण के मिलन की ऐसी कोई संभावना ही नहीं हैं। कवि ने पूर्वबंध में इसका उल्लेख करते हुए लिखा है - 'राधा-कृष्ण की प्रेम कथा विश्व की किसी भी प्रेमकथा से भिन्न है, अन्य कथाओं में यदि परिस्थितियां कुछ भिन्न होती और दूसरे लोग उनके प्रेम को समझने का प्रयास करते या कम से कम उनके रास्ते में बाधाएं पैदा न करते तो प्रेमी प्रेमिका का मिलन संभव था। पर राधा और कृष्ण के संबंधों में ऐसी कोई संभावना कभी रही ही नहीं। जब वे एक दूसरे से मिले, राधा का विवाह हो चुका था। कृष्ण के साथ उसका संबंध ऐसा था कि उसके साथ रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। यदि उन्हें लोगों का सहयोग मिलता, तब भी उनका विवाह नहीं हो सकता था। राधा निश्चित रूप से यह बात जानती होगी, तब भी अगर वह अपने जीवन की अंतिम सांस तक कृष्ण को चाहती रही तो स्पष्ट है कि यह सब वह बिना किसी भ्रम के करती रही। कृष्ण के साथ अपने संबंधों का आधार उसने सांसारिक रूप से एक-दसरे के साथ रहने की बजाए कुछ और बनाया जो इससे कहीं श्रेष्ठ था। सफलता निम् श्रेणी के मनस छोटी-छोटी तुष्टियों की प्राप्ति से बाधित नहीं होते, वे इन्हें केवल छोटे-छोटे परिणाम मानकर एक ओर कर देते हैं। वे जानते हैं कि ये तुष्टियां मिलने के साथ समाप्त भी हो जायेगी और उस कामना के मार्ग से भटकायेंगी और उससे दूर करेंगी। जब कि शुद्ध कामना ऐसी अविच्छिन्न यात्रा है जिसमें यदि इसके कभी न समाप्त होने की निराशा है तो साथ ही इस गौरव का बोध भी है कि इस यात्रा में उसने छोटे-छोटे विकल्पों को स्वीकार नहीं किया।' और राधा के द्वारा इस स्थिति का स्वीकार करने से पूर्व उसे जो तपस्या करनी पडी होगी उसका अनुभव राधा के अलावा कौन कर सकता है! कवि के शब्दों में- 

'पहले तो कभी छाती
आज की तरह धुक्धुक् नहीं करती थी, भला
मैं क्या जानूं, मेरे जीवनकाल
अथवा यमुना जाने की राह की मोड़ पर होगा
कैसा अपदस्थ होने का योग, अथवाअन्य सभी
संबंधों को उजाड ड़ालने वाले संबंध
मेरी जरा, मृत्यु, व्याधि आदि की
राह हॅसते हुए रोक लेंगे।'

पर राधा का यह स्वरूप उसके पौराणिक रूप से मेल नहीं खाता है। कवि ने राधा का एक नया ही रूप यहां प्रस्तुत किया है। राधा सांसारिकता के तमाम सुख-दुखों से ऊपर उठ चुकी है और यह स्थिति एकदम उसके जीवन में आ
गई हो ऐसा नहीं हैं। कवि ने पूर्वबंध में इसकी चर्चा करते हुए लिखा है - 'एक ऐसा क्षण अवश्य आया होगा जब राधा सांसारिकता से ऊपर उठ गई होगी और अपनी कामनाओं तथा उनके फलीभूत न हो पाने के विश्वास से उत्पन्न पीड़ा के अनुभव से उसने स्वयं को परे कर लिया होगा। इसके बाद वह क्षण आया होगा, जब पहली बार उसके लिए कामना तथा उसका फलीभूत होना युगपत क्रियाएं बन गयी होंगी और वही क्षण उसके लिए अखंड आनंद का क्षण बन गया होगा।'

इस प्रकार प्रस्तुत काव्य में राधा-कृष्ण के शाश्वत प्रेम का रहस्य कवि ने उद्धाटित किया है। अर्जुन शतपति के शब्दों में 'कवि ने पहला सवाल उठाया है राधा के स्वरूप को लेकर। उनका दावा है कि उनके काव्य का उपजीव्य राधा तो है, पर राधा की समग्रता नहीं है। राधा एक अवस्था है जिसकी प्रसिद्ध पुराणों और किंवदंतियों में नहीं है। 'जिस समय राधा ने असामान्य बनना शुरु किया, खूब सूरत बनने लगी एवं अनन्य बनकर अपने को अर्थपूर्ण करने लगी। ठीक उसी वक्त और ठौर मेरी संवेदना वापस आ गई।' भारतीय वाङ्मय आज तक जिस राधा को समेटता अया है, कवि का उससे कोई लेना-देना नहीं हैं।'

जहां तक श्री राधा काव्य के स्वरूप का प्रश्न है - कुछ विद्वान इसे खंड काव्य मानते हैं तो कुछ विद्वान मुक्तक प्रबंध अथवा प्रबंध मुक्तक। प्रस्तुत काव्य स्वरूप को लेकर डॉ. अर्जुन शतपति का विचार अधिक समीचीन लगता है - प्रस्तुत काव्य में प्रबंध-मुक्तक या मुक्तक-प्रबंध की विशेषताएं प्राप्त होती है। आधुनिक भारतीय काव्य दृष्टि से प्राचीन स्वरूप ओझल हो चुका है। न तो सांप्रतिक काव्य में सर्ग विन्यास है और न अध्यायीकरण। 'श्री राधा' आधुनिक काव्य है और इसमें समय-समय पर लिखी गई इकसठ कविताएं संकलित हैं। ये कविताएं दोनों प्रबंधात्मकता और मुक्तक कविता का अहसास दिलाती हैं। फिर भी प्रबंधात्मकता की शैली छायी रहती है। यह एक नायिका प्रधान काव्य है। राधा की मानसिकता का वर्णन शुरू से अंत तक मिलता है। वह असामान्य प्रेयसी प्रत्येक छंद में वर्तमान हैं। नायिका अपने मुंह से अपनी दशा का वर्णन करती है और अपने को असामान्य स्थिति में पहुंचा देती हैं। अत: इसे स्वगतोक्ति प्रधान काव्य कहा जाय तो शायद ही अत्युक्ति होगी।'

'श्री राधा' काव्य कविताआें का संकलन है, पर इसे कोई मुक्तक प्रबंध कहना चाहे तो कह सकता है और इसआधुनिक काव्य के लिए प्राचीन काव्य परिपाटी के कुछ सिद्धांताें के साथ थोड़ा समझौता करते हैं तो इसे खंड काव्य की कोटि में रखा जा सकता है। कथानक की दृष्टि से देखें तो कवि ने राधा-कृष्ण के शाश्वत प्रेम को अपने काव्य का उपजीव्य बनाया है। कृष्ण के जीवन में राधा का स्थान और राधा के जीवन में कृष्ण का स्थान अनन्य है। कृष्ण राधा के बिना अधूरे हैं, चूंकि राधा ही कृष्ण की शक्ति व प्रकृति भी है। अत: वह कृष्ण से भिन्न कैसे हो सकती है। पर इस वैष्णवी भावना को स्वीकार कर लेते हैं तो राधा की उस चाहत का क्या होगा? प्रेम में यही चाहत मिलन के आनंद का कारण बनती है और मिलन के बाद विरह का अवसर भी आ सकता है, उसका क्या करें! और जिस प्रेम में मिलन के बाद विरह निश्चित है तो इस तरह के मिलन को क्या करें? यहां राधा की इस भाव भूमि को समझ लेना उचित होगा। राधा कृष्ण के जीवन में आयी उससे पहले उसका विवाह हो हो गया था पर कृष्ण के इस तरह उसके जीवन में आने के कारण उसके जीवन का अंधकार मिट गया और जैसे एक नयी सुबह का आगमन हुआ। पर एक विवाहिता इस तरह किसी पराए पुरुष के लिए तड़पती-छटपटाती रहे, इसमें औचित्य कितना? और संभवत: कवि ने इसी कारण दैहिक मिलन के बजाय मनोमिलन का औचित्य देखा! तभी तो राधा कृष्ण को मन ही मन चाहती है, कृष्ण के साथ उसका मिलन शरीर नहीं, बल्कि स्मृतिजन्य मिलन है, इसकी बराबर अनुभूति की जा सकती है जैसे निगुण संतों के यहां होता है।

काव्य की शुरुआत सुबह के साथ हुई है। राधा के जीवन में अब तक जैसे अंधेरा था, पर उसके जीवन में कृष्ण के आगमन से नया सवेरा हुआ है। राधा के लिए यह सवेरा अलग तरह का है। कवि के शब्दों में -
'अन्य सभी सुबहों से आज की सुबह न जाने लगती है क्यों अलग-अलग।
धूप में यह कैसा दुस्साहस! आज हवा में अन्यमनस्कता जो नहीं है पहले-सी।
मानो लौटा हो प्रवासी प्रेमी, रह रहा हो आसपास कहीं छद्म वेश लिए।
कितनी बारिश, कितनी भयंकर बिजलियों की कौंध थी कल
रात भर! कैसे पर्वताकार थे बादल फूल-पत्ते झड ग़ए, मैंने स्वयं को स्वयं ही
जी-जान से दुबका लिया, कहीं बिजलियों की झिलमिलाती पुकार न बज उठे मेरे कानों में!
अपने नि:शब्द अथवा अर्थहीन शब्दों के साम्राज्य की अंतिम घड़ी में
कल का अंधेरा यदि रक्त से सना जूझ रहा होगा,
उसकी जो नाम मात्र स्मृति है
वह कब तक रहेगी बिन बुझे?'

यहां जैसे राधा का अतीत और वर्तमान एक साथ साकार हो उठा है। कृष्ण के आगमन से पहले का जीवन और बाद का जीवन कल की रात और आज की सुबह में देखा जा सकता है। राधा का जीवन कल तक कृष्ण के बिना निस्सार था, पर अब 'मानो लौटा हो प्रवासी प्रेमी, रह रहा हो आसपास कहीं छद्म वेश लिए।' आज की सुबह ने राधा की जीवन दृष्टि ही बदल डाली। 'अब दिखने लगी है अलग-अलग-सी नदी, नदी के उस पार के वन, कब तक भला न बदलता मेरा पांडुर गगन-पवन?' काव्य में कृष्ण चिंतन का लंबा सिलसिला चलता है। कृष्ण का चिंतन करते हुए राधा को लगता है कि 'ये पैर तो मेरे नहीं, मेरी सारी आशा हताशा का इतिहास मेरा नहीं, पति, घरबार गोष्ठ भर गाय गोरू, कुछ भी नहीं है मेरे यह जीना नहीं हैं मेरा, जो मृत्यु एक दिन अवश्य आएगी, वह भी नहीं है मेरी।' 'यह है राधा का कृष्ण प्रेम। ऐसा भाग्य किसी-किसी का ही होता है जहां अपने प्रियतम के लिए जीवन के साथ मृत्यु तक समर्पित किया जाता है! और अपने लिए सिर्फ रीतापन रह जाता है, बावजूद इसके जीवन का वह शाश्वत आनंद बना रहता है! यानी पीड़ा में भी आनंद। और यही अद्भुत स्थिति राधा की है। तभी तो वह एक जगह पर कहती है - तुम्हें समर्पित कर दी मैंने शरीर की कठिनता, भार-भार पुरानी आदत, भय भ्राति, सुख-दुख, जरा और मृत्यु, उसके पश्चात्, पिघलकर ब्रह्माण्ड पर बह गयी मानो मैं हूं पर्वत के भीतर तुरंत-मुक्त चंद्र की किरण।' इस स्थिति को कवि ने अन्यत्र व्यक्त करते हुए कहा है - 'तुम यदि वायदा करके न आते किसी रात, मैं यदि रह जाती अपना वैधव्य विलापती रो रहे क्षणों के बीच, वे सब निश्चिह्न हो गए होते लंबी सांसो में, भोर के उजाले में तब भी मैं अगले दिन न खीजती न रूठती अपने ललाट, वक्षस्थल यौवन की दिशा-दिशान्तरों के सजा देती समूचे सृष्टि के फूलों पर, मन को समझाती कि तुम जिस वक्त तुम नहीं होते तब होते खूब निकट हो, इसलिए क्या फर्क पड़ता है केवल एक रात्रि की लक्ष्यभ्रष्टता में?'

राधा के कृष्ण वर्ण प्रियतम धीरे-धीरे निराकार हो जायेंगे, भले ही उन्हें पा नहीं सकेगी, पर तब भी वह उन्हें भूल नहीं पायेगी- 'तुम्हें न भूल सकूंगी न ही पा सकूंगी और आंखों से आंसू सूख गया होगा तुम्हारे और मेरे एक साथ रहने के दिन न होंगे तुम्हारे और मेरे अलग-अलग रहने के दिन ही तो होंगे चंद्र, तारा, वृक्ष, लता, नदी पहले की भांति जड़ बने होंगे, अगर अचानक उष्मा आये कभी भी खून में अपने आप शीतल होगी तरल राख बन बहती जाएगी नस-नस में मेरी।' राधा अपने इस सांवरे प्रियतम के लिए अपने पति व समाज समेत सबकी ओर से दिये जाने वाले हर दुख को झेलती है। क्योंकि कृष्ण उसकी नस-नस में समा गये हैं। ठीक उसी तरह जैसे सूर के यहां 'तिरसे व्है के अडै है।' यहां तक कि अंत में एक दिन उसके पास कृष्ण के अवसान के समाचार आते हैं तब भी उस सांवरे की शाश्वतता में विश्वास व्यक्त करते हुए वह कहती है - 'अब नहीं हो तुम किसी के पिता पुत्र स्वामी हमारे विदा के दिन की पूर्व रात्रि-सा आज तुम पूर्ण चंचल हो, ध्वनि-सा छेड देते हो, छू देते हो मेरी कुवांरी निर्जनता, मेरे रो पडने पर, गुदगुदी करते हो निस्पंद मेरे देखते रहने पर।' 'राधा ने अपने प्रियतम को पीडा में पाया है। दुनिया की नंजर में भले ही कृष्ण का अवसान हआ हो पर राधा का कृष्ण कभी मर ही नहीं सकता और तभी तो वह अंत में कहती है - कोई नहीं जानता तुम जीवित हो, इसलिए मेरी नदी आने की राह में पीछे-पीछे र्कोई नहीं आयेगा, वे सभी मुझे भूल जाएंगे या सोये रहेंगे गहरी नींद जब तुम्हें भींचकर पकडी होऊंगी अपनी छाती में, जब मेरे सर्वांग पर तुम्हारा हाथ फिर रहा होगा, जब बाधा देने या कुछ कहने की मुझ में सामर्थ्य नहीं होगी, जब मर नहीं पा रही होऊंगी और जीना भी होगा पूर्ण असंभव।' राधा-कृष्ण का इस तरह का मिलन जैसे जीवन और मृत्यु का अद्भूत संगम है। यही तो है काव्य की कथा।

श्री राधा काव्य में रहस्यानुभूति का आभास मिलता है। रहस्यभाव के साथ स्वप्, जिज्ञासा, प्रतीक्षा व रति इत्यादि भाव देखने को मिलते हैं। कहते हैं, प्रत्येक जैविक सत्ता में काम की प्रवृति होती हैं। अत: राधा में भी इस तरह की प्रवृति होना नैसर्गिक बात हो सकती है, परंतु प्रस्तुत काव्य में कहीं भी राधा की कामुकता, कामुक उत्सुकता एवं उन्मत्तता नहीं हैं। डॉ. अर्जुन शतपति इसकी स्पष्टता करते हुए कहते हैं - 'कामना और कामुकता के बीच फासला इतना छोटा है कि महज कामना में कामुकता की भ्रांति पैदा हो सकती है। विरह की कुछ दशाएं राधा में भी देखी जाती है, परंतु प्राचीन और मध्यकालीन शास्त्रीयता का आरोप करना उचित नहीं लगता। यह नि:सन्देह कहा जा सकता है कि राधा मध्यकालीन नायिका नहीं है। राधा कृष्ण आलंबन विभाव है। यमुना का किनारा और चांदनी रात उद्दीपन विभाव हैं। समूचे काव्य में अनेकों बार नदी और रात का वर्णन हुआ है।'

'श्री राधा' काव्य में प्रकृति का अद्भूत चित्रण किया गया है। जैसे राधा-कृष्ण स्वरूप अभिन्न है वैसे ही यहां प्रकृतिको इस काव्य से अलग नहीं किया जा सकता। आकाश, बादल, बिजली, नदी, वृक्ष, रात, सुबह, शाम, अंधकार, बारिश आदि का अत्यंत प्रभावशाली ढंग से कवि ने वर्णन किया है।


भाषा शिल्प की दृष्टि से भी 'श्री राधा' काव्य उत्तम कोटि का काव्य ठहरता है। डॉ. अर्जुन शतपति के शब्दों में कहें तो 'कवि रमाकान्त रथ की भाषा में सम्मोहन है; लालित्य है, छन्दहीन छन्द पाठक को आगे बढ़ने के लिए विवश करते हैं। भाषा ऊपर से दुर्बोध-सी लगती है, पर उसकी परतें अपने आप खुलती जाती हैं। कवि ने उडिया भाषा में शब्दिक अभिव्यंजना का नया प्रयोग किया है। ठेठ उडिया शब्दों को जनजीवन से बटोकर उनमें सहज अर्थवत्ता भर देने में कवि की सफलता निर्विवाद है। श्री राधा की भाषा विशिष्ट है।

लंबे अरसे तक कवि सच्चिदानंद राउत राय की भाषा-शैली का अनुसरण किया गया था। किन्तु आज श्री राधा की अभिव्यक्ति कला का अनुसरण करने वाला हर गली में मिल जाएगा। काव्य के बिंब और प्रतीक एकदम से नए प्रतीक नहीं होते। परिचित बिंबों में नवीन भाव व्यंजना इसकी खूबी है। काव्य-शिल्प बेजोड़ है।'

निष्काम प्रेम की अवतरणा प्रस्तुत काव्य का महान उद्देश्य है। कृष्ण राधा के इष्ट हैं, तो राधा भी कृष्ण की आराध्य देवी है। राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं। कवि ने संभवत: राधा के दैवी रूप का अस्वीकार करते हुए उसके मानवीय रूप को अधिक ग्रहणीय समझकर मानवीय और दैवी गुणाें का संगम उसमें दिखाया है। संक्षेप में कहें तो कवि रमाकान्त रथ ने 'श्री राधा' काव्य की राधा में मानवीय अतृप्ति और दैवी संपन्नता को एक साथ अवतरित किया है।

प्रस्तुत लेखों मे लेखकों न अपना मत प्रस्तुत किया है मै जो इनके सम्मुख नगण्य हूँ और मै क्‍या सकता हँ। आशा है कि मै बात रख सका हूँ। हाँ एक बात कहना चाहूंगा पर इस मुद्दे से हटकर, आज का शीर्षक ‘अब मैं नही’ कहीं भी विषय से सम्बन्धित नहीं था। पर शीर्षक इन अंतिम पंक्तियों के लिये ही है, आज बैठे-2 कुछ ऐसा महसूस हुआ कि अब मै नही। आशा है कि प्रतीक जी राधा के सम्बन्ध आपकी की जिज्ञासा समाप्त हो गई है, अगर नहीं हुई है तो आपको चिट्ठा मंच काफी बंधु मिलेंगे जो इस पर आपकी तृष्‍णा को मिटाने का प्रयास करेंगे,वैसे यह शोध का विषय हो सकता है। एक प्रश्न सागर भाई ने एक बार पूछा था कि अदिति कौन है तो भाई जी अदिति मेरे भतीजी है। अब मै यहाँ न लिख सकूँगा, ऐसा पूर्व की भातिं को ऐसा बहाना या कारण भी नही है कि मै बता सकूं आप सभी से प्यार स्नेह मिल इसके लिए धन्‍यवाद। नव वर्ष से पूर्व बिछड़ने पर दुख तो हो रहा है किन्तु आप सभी सदा मेरे हृदय मे रहेंगे। आप सभी को नव वर्ष मंगलमय हो।



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ये सब कब सुधरेगें ?



 


आज बहुत दिनों के बाद ऑनलाइन होने और लिखने का अवसर प्राप्त हुआ, इन दिनों लिखने का अवसर नहीं मिल रहा है और शायद जल्दी लिख भी न पाऊँ। किन्तु पंकज जी के मंतव्य को और अफलातून जी के समाजवादी जन परिषद- उत्तर प्रदेश के विचारों को पढ़ा, चर्चा गंभीर और मजेदार थी और मै अपने आपको को लिखने से रोक न सका, एक तरफ कंप्यूटर पर एरियनस बैंड का गाना बज रहा था ‘’देखा है तेरी आंखों को, चाहा है तेरी अदाओं को, इसमें मेरा कसूर क्या है सनम’ ’लग रहा था कि लिखते समय मेरे मुँह पर तमाचा मार रहा था या मै इस गीत के मुँह पर।

वैसे मेरा तरकश और मंतव्‍य और तरकश पर जाना कम ही होता था एक बार पंकज जी ने कहा कि आप तरकश पर नही जाते है क्या? तो मेरा कहना था कि शायद हां वो भी जोगलिखी पर, क्योंकि मेरा उनके चिठ्ठे पर ज्यादा जाना होता है जो मेरे चिट्ठे पर आते है, और उनके पर भी जाना होता है तो उनके चिट्ठे पर आते है (उनके कमेंट के लिंक के द्वारा)। कौन नहीं जानता है कि सर्वाधिक कमेंट कौन करता है, इस लिये तरकश पर जाना तो होता तो है, सर्वाधिक जोगलिखी पर, अब तो मंतव्‍य पर भी होने लगा है। शायद मेरी यह बात कई बंधुओं को खराब भी लगे।

अब मुख्य मुद्दे पर आना चाहिए, पंकज जी का प्रश्‍न था कि क्या श्री कृष्ण मवाली थे? मुझे कोई शक नही है नही है कि वे मवाली नही थे, श्रीकृष्ण बनना तो कितना आसान है पर नही भूलना चाहिये कि वे कभी राम भी थे, अगर को आज के दौर मे कोई श्रीकृष्ण बनना चाहता है तो उसे राम के आचरण को भी नही भूलना चाहिये, एक तरफ श्री कृष्ण श्री की 16 हजार रानियां थी, तो राम एक पत्‍नीव्रता थे। श्रीकृष्ण से बड़ा मवाली इस दुनिया कोई नही मिलेगा, ऐसा कौन राजा होगा जो अपने से गरीब साथियों के साथ खेलता, कौन ऐसा मित्र होगा जो अपने दीन मित्र के पैरों को धोया होगा और बिन मांगे चार चावल के दानों के बदले राजपाट दे देगा। कौन ऐसा पति होगा 16 हजार रानियों को एक साथ प्रेम दे सकता होगा जहां आज के जमाने मे जिससे प्रेम विवाह होता है उसी से विवाह विच्‍छेद होते देर नहीं लगती है। श्री कृष्ण रासलीला करते थे, तो एक मर्यादित ढंग से राधा से उन्होंने प्रेम किया पर, पर राधा पवित्र रही और विवाह किसी और से हुआ, आज के जमाने में सारे कर्म हो जाते है, शादी बाद मे होती है और परिणाम पहले आ जाता है। शादी न होने पर नैनी के नये यमुना का नये पुल पर चले जाते है, आत्महत्या करने के लिये, ये कहना न कहना कि उस जमाने में यमुना पुल न था न तो राधा भी कूदने के लिए चली जाती। प्रेम एक हद तक ठीक है पर प्रेम का प्रदर्शन कहाँ तक उचित है। वो भी श्री कृष्‍ण का नाम लेकर की वे भी प्रेम करते थे। श्रीकृष्‍ण का प्रेम सच्‍चे प्रेम का प्रतीक था न कि भोग का, अगर कोई श्रीकृष्‍ण को मवाली कहता है, तो मै भी सुर मे सुर मिला के कहूँगा कि कृष्‍ण मवाली थे, और मुझे अफसोस होगा कि हमारे देश मे ऐसे और मवाली क्‍यों पैदा हुऐ।

देश को क्या हो गया है? अपना दोष दूसरे को गले मढता है। आज से ठीक एक साल पहले जब मेरठ मे पुलिस वालों ने जमकर लैला-मजनू की पिटाई की गई थी तब कोई समाजवादी और अन्‍यों ने विरोध किया जबकि जिसका नाम लेकर आज हल्ला मचाया जा रहा है उसी ने पुलिस की कार्यवाही का समर्थन किया था, जबकि उत्तर प्रदेश मे समाजवादी सरकार थी और वही बृज प्रदेश है जहाँ श्रीकृष्ण रहते थे। क्यों भूलते है कि मोदी से पहले इतिहास बनाने वाले मुलायम है। ये दोहरे मापदंड कब तक चलते रहेंगे?

मोदी के दुश्मनों भाइयों की कमी उनके घर मे ही कम नही है, क्योकि जब तक मोदी है तब तक किसी भी भाई के मुख्‍यमंत्री की सम्भावना नही है, अगर बाहर हल्ला होती है तो यहाँ मोदी के सुशासन के कारण है क्योंकि जो विकास मोदी ने 5 साल मे गुजरात मे किया है वह आज तक किसी प्रदेश की सरकार और यहाँ तक कोई केन्द्रीय सरकारों ने नहीं किया है। आज की सरकारें तो विकास के नाम पर कहीं कन्या विद्याधन बांट रही है तो कही बेरोजगारी भत्ता तो कहीं विशेष वर्ग को आरक्षण देकर वोट की राजनीति खेलती है। पर मोदी के शासन में यह नहीं सुनाई दिया। अगर अगला प्रधानमंत्री अगर मोदी न हो तो मोदी जैसा जरूर हो।

एक बात सोचने पर दिमाग को खटकती है कि गांधी-गुजरात और मोदी इन्हीं तीनों पर कीचड़ ज्यादा क्या उछाला जाता है? क्योंकि गुजरात मे कीचडों की कमी नही है, 1/5 भाग गुजरात में कीचड़ ही भरा हुआ है, कारण है ‘’कच्छ की रण’’ कीचड़ मय है। इस कारण तीनों पर ही ज्यादा कीचड़ उछाला जाता है, और इसके पीछे और साथ चलने वाले भी कीचड़ खाते है। कुछ लोगों की आदत ही होती है कीचड़ उछालने कि क्योंकि वे भूल जाते है कि सबसे पहले कीचड़ उनके ही हाथ मे लगता है जो कीचड़ उछालते है। मोदी को जितना लोकप्रियता विरोधियों से मिली उतना उनके समर्थकों(पार्टी) से नहीं मिली है। पहले आज से 5 साल पहले जब मै हाई स्कूल का छात्र था और नरेंद्र मोदी भाजपा के महासचिव हुआ करते थे तो मुझे यहीं मोदी मुझे फूटी आँखों नहीं सुहाते थे क्योंकि मोदी की आवाज मे पता नही क्या लगता था कि उसे बयान करने के लिये मेरे पास शब्द नहीं है। गोधरा के बाद जिस प्रकार के दृश्य हमारे सामने रखे गए और और जिस प्रकार मोदी ने सबका सामना करते हुए, सरकार का त्यागपत्र देकर पुन: जनता का विश्वास प्राप्त किया। जनता के द्वारा दिये गये विश्‍वास मत को विपक्षियों से ठोग कहा ¾ के बहुमत से निर्वाचित सरकार को बरखस्‍त करने की मॉंग की गई। क्‍या यह जनता के साथ विस्‍वास घात न होता। जब महत 14.5 प्रतशित मुस्लिमों के बल पर पूरे देश मे कही भी सरकार बनाने का दावा किया जाता है तो क्‍या 84 प्रतशित हिन्‍दू के बल अगर कोई सरकार बनती है तो केवल उसका विरोध क्‍यों? जब उत्तर प्रदेश में MY समीकरण चल सकता तो H समीकरण से परहेज क्यों? ये तो वही बात हुई गुड़ खाएं और गुलगुले से परहेज, क्योंकि यह उनके हित मे नही है इसलिये यह ठीक नहीं है।

अक्सर लोग कहते मिल जाते है कि आज समाज कितना असुरक्षित हो गया है। आखिर यही कहने वालों ने ही समाज को असुरक्षित कर दिया है। कपड़ो के नाम पर छात्राओं 8-9 गज की साडी के नाम पर आज मात्र 2 गज का कपडा की बचा है। भगवान को भी इनकी इज्जत बचाने के लिये सोचना पड़ता है कि जाये तो कैसे जाये? आखिर कब तक आधुनिकता के नाम पर हम अपने आप को नंगा करते रहेंगे? सीमाओं का अतिक्रमण कभी भी ठीक नहीं होता है, और प्रकृति इसे अपने अनुरूप बनाने के लिए अपना रास्ता स्वयं खोज लेती है। कुछ लोगों का कहना है कि युगलों का साथ-साथ घूमना खराब नहीं है और आंकड़े कहते है कि मित्र तथा नजदीकी संबंधी इन हादसों के लिए ज्यादा जिम्मेदार होते है। जब आप किसी पर छींटाकशी करते हो तो क्यों भूल जाते हो जिस चौराहे पर आप खडे हो कर जो कुकृत्‍य कर रहे है, उसी सड़क के दूसरे चौराहे पर कोई आपकी बहन के साथ आपकी हरकत की पुर्नावृत्ति कर रहा होगा? जो कुछ आप करे वह सही है और कोई वही काम आपके साथ किया जाये तो आपको गलत क्या लगता है। दोहरे मापदंड मिटाने होगे, गलत- तो गलत है चाहे आप हो या कोई, समाज को बदलने से अपने आप को बदलो जिस दिन आप बदलोगे समाज अपने आप बदल जायेगा।

आजकल का छात्र जीवन को छात्र जीवन को छात्र जीवन कहने में भी संकोच होता है, लगता है कि हम अपने आप को ही गाली दे रहे है, विश्‍वविद्यालय शिक्षा केन्द्र न होकर प्रेम स्थान और नेतागीरी का संयुक्‍त रणक्षेत्र बनता जा रहा है। मेरे 3 साल के विश्वविद्यालय काल में विश्वविद्यालय परिसर तथा उसके परिधि के 2 किमी क्षेत्र में छात्रों के बीच नेतागिरी और प्रेम प्रसंग के संबंध में आधा दर्जन हत्या सहित सैकड़ों झडप देखने को मिली है। एक दो बार तो गोलीबारी और बमबारी परिसर में मेरे आखों के समने हुई है। छात्र नेता के नाम एसे छात्र आज भी केन्द्रीय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आज भी है जिन्होंने मेरे जन्म के 2 साल पहले यानी 1984 में स्नातक किया था, आज ये छात्र नेता इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय में छात्रसंघ अध्यक्ष पद के लिये रिट दाखिल किया है।

गलत काम का प्रतिकार जरूरी है, चाहे कोई कहे। मुझे नहीं लगता कि मेरठ और अहमदाबाद मे जो हुआ गलत हुआ, तब मेरठ पुलिस को समर्थन था तो आज दुर्गा वाहिनी को है। कम से कम समाज का एक वर्ग तो इस नगे नाच के प्रतिकार के लिए उठा। आगे उम्मीद है कि ऐसे लोग सामने आएंगे। जिस दिन से महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिये समान ‘वस्त्र नियम’ लागू हो जाएगा, तब भारत मे हर तरफ महिलाओं के प्रति आपराधिक प्रवृत्तियों मे कमी आयेगी। यह समय गम्भीर चिन्तन का है कि क्या हमारी पीढ़ी सही रास्ते पर जा रही है। आज के युवा वर्ग आधुनिकता के दौर में अपने अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है। आज उसकी चाहत उसी की जान की दुश्मन बनी हुई है। इस आत्मघाती प्रवृत्ति से हम सब को बचना होगा। शायद मै इस समय इस हिन्‍दी चिट्ठा जगत का उम्र, योग्यता तथा अन्‍य सभी क्षेत्रों में सबसे छोटा सदस्य हूँ, यह लेख लिखते समय काफी असहज महसूस कर रहा था, क्योंकि मैंने इस विषय पर पहले कभी नही लिखा था। मेरी कही गई किसी बात को आप अन्यथा न लेगे चाहे वह श्रीकृष्ण के प्रति हो या अन्‍य के प्रति, मेरी कमियों तथा गलतियों को नजरअंदाज करेंगे।



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मैथिल कोकिल कवि - विद्यापति



हिन्दी साहित्य के अभिनव जयदेव के नाम से विद्यापति प्रख्यात है। बिहार में मिथिला क्षेत्र के होने के कारण इनकी भाषा मैथिल थी। इनकी भाषा मैथिल होने के बावजूद सर्वाधिक रचनाएँ संस्कृत भाषा मे थी, इसके अतिरिक्त अवहट्ट भाषा मे रचना करते थे। विद्यापति के जन्म के सम्बन्ध मे विद्वानों मे मतभेद है, कुछ तो इन्‍हे दरभंगा जनपद के विसकी नामक स्‍थान को मानते है। विद्यापति का वंश ब्राह्मण तथा उपाधि ठाकुर थी। विसकी ग्राम को इनके आश्रयदाता राजा शिव सिंह ने इन्‍हे दान मे दिया था। इनका पेरा परिवार पैत्रिक रूप से राज परिवार से सम्बद्ध था। इनके पिता गणपति ठाकुर राम गणेश्वर के सभासद थे। इनका विवाह चम्पा देवी से हुआ था। विद्यापति कि मृत्यु सनम 1448 ई0 मे कार्तिक त्रयोदशी को हुई थी।
मैथिल महाकवि विद्यापति का शिव प्रेममैथिल महाकवि विद्यापति का शिव प्रेम
एक किंवदन्ती के अनुसार बालक विद्यापति बचपन से तीव्र और कवि स्वभाव के थे। एक दिन जब ये आठ वर्ष के थे तब अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ शिवसेंह के राजदरबार में पहुँचे। राजा शिवसिंह के कहने पर इन्होने निम्नलिखित दे पंक्तियों का निर्माण किया:
पोखरि रजोखरि अरु सब पोखरा। राजा शिवसिंह अरु सब छोकरा।।

यद्यपि महाकवि की बाल्यावस्था के बारे में विशेष जानकारी नहीं है। जनश्रुतियों से ऐसा ज्ञात होता है कि महाकवि अपने पिता गणपति ठाकुर के साथ बचपन से ही राज दरबार में जाया करते थे। किन्तु चौदहवीं सदी का शेषार्ध मिथिला के लिए अशांति और कलह का काल था। राजा गणेश्वर की हत्या असलान नामक यवन-सरदार ने कर दी थी। कवि के समवयस्क एवं राजा गणेश्वर के पुत्र कीर्तिसिंह अपने खोये राज्य की प्राप्ति तथा पिता की हत्या का बदला लेने के लिए प्रयत्नशील थे। संभवत: इसी समय महाकवि ने नसरत शाह और ग़ियासुद्दीन आश्रम शाह जैसे महापुरुषों के लिए कुछ पदों की रचना की। राजा शिवसिंह विद्यापति के बालसखा और मित्र थे, अत: उनके शासन-काल के लगभग चार वर्ष का काल महाकवि के जीवन का सबसे सुखद समय था। राजा शिवसिंह ने उन्हें यथेष्ठ सम्मान दिया। बिसपी गाँव उन्हें दान में पारितोषिक के रूप में दिया तथा 'अभिनवजयदेव' की उपाधि से नवाजा। कृतज्ञ महाकवि ने भी अपने गीतों द्वारा अपने अभिन्न मित्र एवं आश्रयदाता राजा शिवसिंह एवं उनकी सुल पत्नी रानी लखिमा देवी (ललिमादेई) को अमर कर दिया।
विद्यापति के काव्य में स्वरों की संगीतमयता
विद्यापति ने मैथिल, अवहट्ट, प्राकृत ओर देशी भाषओं मे चरित काव्‍य और गीति पदों की रचना की है। विद्यापति के काव्‍य में वीर, श्रृंगार, भक्ति के साथ-साथ गीति प्रधानता मिलती है। विद्यापति की यही गीतात्‍मकता उन्‍हे अन्‍य कवियों से भिन्‍न करती है। जनश्रुति के अनुसार जब चैतन्‍य महाप्रभू इनके पदों को गाते थे, तो महाप्रभु गाते गाते बेहोश हो जाते थे। भा‍रतीय काव्‍य एवं सांस्‍कृतिक परिवेश मे गीतिकाव्‍य का बड़ा महत्‍व था। विद्यापति की काव्‍यात्‍मक विविधता ही उनकी विशेषता है।
विद्यापति भारतीय साहित्यक भक्ति परंपरा क प्रमुख स्तंभ म सँ एकटा आओर मैथिली के सर्वोपरि कवि क रूप म जानल जैत अछि
विद्यापति संस्‍कृत वाणी के सम्‍बन्‍ध मे टिप्‍पणी करते हुये कहते है‍ कि संस्‍कृत भाषा प्रबुद्ध जनो की भाषा है तथा इस भाषा से आम जनता से कोई सरोकार नही है प्राकृत भाषा मे वह रस नही है जो आम आदमी के समझ मे आये। इ‍सलिये विद्यापति अपभ्रंश(अवहट्टा) मे रचनाये करते थें। अवहट्ट के प्रमाणिक कीर्ति लता और कीर्ति पताका है।
विद्यापति की तीनो भाषाओं की प्रमुख संग्रह निम्‍नलिखित है-
  • पुरुष परीक्षा / विद्यापति
  • भूपरिक्रमा / विद्यापति
  • कीर्तिलता / विद्यापति
  • कीर्ति पताका / विद्यापति
  • गोरक्ष विजय / विद्यापति
  • मणिमंजरा नाटिका / विद्यापति
  • गंगावाक्यावली / विद्यापति
  • दानवाक्यावली / विद्यापति
  • वर्षकृत्य / विद्यापति
  • दुर्गाभक्तितरंगिणी / विद्यापति
  • शैवसर्वस्वसार / विद्यापति
  • गयापत्तालक / विद्यापति
  • विभागसार / विद्यापति
  • महेशवाणी आ नचारी
  • एत जप-तप हम की लागि कयलहु / विद्यापति
  • हम नहि आजु रहब अहि आँगन / विद्यापति
  • हिमाचल किछुओ ने केलैन्ह बिचारी / विद्यापति
  • आजु नाथ एक व्रत महा सुख लागल हे / विद्यापति
  • रुसि चलली भवानी तेजि महेस / विद्यापति
  • कखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथ / विद्यापति
  • गौरा तोर अंगना / विद्यापति
  • हे हर मन द करहुँ प्रतिपाल / विद्यापति
  • भजन
  • तीलक लगौने धनुष कान्ह पर टूटा बालक ठाढ़ छै / विद्यापति
  • सबरी के बैर सुदामा के तण्डुल / विद्यापति
  • सीताराम सँ मिलान कोना हैत / विद्यापति
  • सबरी के अंगना में साधु-संत अयलखिन्ह / विद्यापति
  • कोने नगरिया एलइ बरियतिया सुनु मोर साजन हे / विद्यापति
  • भगबती गीत
  • गे अम्मा बुढ़ी मईया / विद्यापति
  • दया करु एक बेर हे माता / विद्यापति
  • कोने फुल फुलनि माँ के आधी-आधी रतिया / विद्यापति
  • जगदम्ब अहीं अबिलम्ब हमर / विद्यापति
  • भगबती चरनार बन्दिति की महा महिमा निहारु / विद्यापति
  • हे जननी आहाँ जन्म सुफल करु / विद्यापति
  • जयति जय माँ अम्बिके जगदम्बिके जय चण्डिके / विद्यापति
  • भजै छी तारिणी सब दिन कियै छी दृष्टि के झपने / विद्यापति
  • बारह बरष पर काली जेती नैहर / विद्यापति
  • जनम भूमि अछि मिथिला सम्हारु हे माँ / विद्यापति
  • लाले-लाले आहुल के माला बनेलऊँ / विद्यापति
  • क्यों देर करती श्रीभवानी मैं तो बुद्धिक हीन हे माँ / विद्यापति
  • दिय भक्ति के दान जगदम्बे हम जेबै कतइ हे अम्बे / विद्यापति
  • सासु रुसल मैया हम्मर काली एली काली / विद्यापति
  • भगवती स्तोत्
  • कनक-भूधर-शिखर-बासिनी / विद्यापति
  • भगबान गीत
  • हरी के मोहनी मुरतीया में मोन लागल हे सखी / विद्यापति
  • भजु राधे कृष्णा गोकुल में अबध-बिहारी / विद्यापति
  • भगता गीत
  • इनती करै छी हे ब्राह्मण मिनती करै छी / विद्यापति (ब्राह्मण)
  • इनती करै छी भैरवनाथ / विद्यापति (भैरव)
  • बटगमनी
  • नव जौबन नव नागरि सजनी गे / विद्यापति
  • फरल लवंग दूपत भेल सजनी गे / विद्यापति
  • लट छल खुजल बयस सजनी गे / विद्यापति
  • तरुणि बयस मोही बीतल सजनी गे / विद्यापति
  • ई दिन बड़ दुर्लभ छल सजनी गे / विद्यापति
  • बारहमासा
  • साओनर साज ने भादवक दही / विद्यापति
  • चानन रगड़ि सुहागिनी हे गेले फूलक हार / विद्यापति
  • चैत मास गृह अयोध्या त्यागल हानि से भीपति परी / विद्यापति
  • अगहन दिन उत्तम सुख-सुन्दर घर-घर सारी / विद्यापति
  • चोआ चानन अंग लगाओल कामीनि कायल किंशगार / विद्यापति
  • प्रीतम हमरो तेजने जाइ छी परदेशिया यौ / विद्यापति
  • बिरह गीत
  • सखी हम जीबन कोना कटबई / विद्यापति
  • बिसरही गीत
  • कोन मास नागपञ्चमी भेल / विद्यापति
  • पीयर अंचला बिसहरि के लाम्बी-लाम्बी केस / विद्यापति
  • भूइयां के गीत
  • कोने लोक आहे भूईयां लकड़ी चुनै छी आहे राम / विद्यापति
  • हई कुसुम बेली चढ़ई ताके मईया गे सुरेसरी / विद्यापति
  • विबाहक गीत
  • मचिये बैसल तोहें राजा हेमन्त ॠषि / विद्यापति
  • अयलऊँ हे बड़का बाबा / विद्यापति
  • प्रतिनिधि रचनाएँ
  • विद्यापति के दोहे / विद्यापति
  • षटपदी / विद्यापति
  • आदरें अधिक काज नहि बंध / विद्यापति
  • सैसव जौवन दुहु मिल गेल / विद्यापति
  • ससन-परस रबसु अस्बर रे देखल धनि देह / विद्यापति
  • जाइत पेखलि नहायलि गोरी / विद्यापति
  • जाइत देखलि पथ नागरि सजनि गे / विद्यापति
  • जखन लेल हरि कंचुअ अचोडि / विद्यापति
  • मानिनि आब उचित नहि मान / विद्यापति
  • पहिल बदरि कुच पुन नवरंग / विद्यापति
  • रति-सुबिसारद तुहु राख मान / विद्यापति
  • दुहुक संजुत चिकुर फूजल / विद्यापति
  • प्रथमहि सुंदरि कुटिल कटाख / विद्यापति
  • कुच-जुग अंकुर उतपत् भेल / विद्यापति
  • कान्ह हेरल छल मन बड़ साध / विद्यापति
  • कंटक माझ कुसुम परगास / विद्यापति
  • कुंज भवन सएँ निकसलि / विद्यापति
  • आहे सधि आहे सखि / विद्यापति
  • सामरि हे झामरि तोर दहे / विद्यापति
  • कि कहब हे सखि रातुक / विद्यापति
  • आजु दोखिअ सखि बड़ / विद्यापति
  • कामिनि करम सनाने / विद्यापति
  • नन्दनक नन्दन कदम्बक / विद्यापति
  • अम्बर बदन झपाबह गोरि / विद्यापति
  • चन्दा जनि उग आजुक / विद्यापति
  • ए धनि माननि करह संजात / विद्यापति
  • माधव ई नहि उचित विचार / विद्यापति
  • सजनी कान्ह कें कहब बुझाइ / विद्यापति
  • अभिनव पल्लव बइसंक देल / विद्यापति
  • अभिनव कोमल सुन्दर पात / विद्यापति
  • सरसिज बिनु सर सर / विद्यापति
  • लोचन धाय फोघायल / विद्यापति
  • आसक लता लगाओल सजनी / विद्यापति
  • जौवन रतन अछल दिन चारि / विद्यापति
  • के पतिआ लय जायत रे / विद्यापति
  • चानन भेल विषम सर रे / विद्यापति
  • भूइयां के गीत / विद्यापति
  • विबाहक गीत / विद्यापति
  • बिरह गीत / विद्यापति
  • बिसरही गीत / विद्यापति
  • भजन / विद्यापति
  • भगता गीत / विद्यापति
  • भगबती गीत / विद्यापति
  • भगबान गीत / विद्यापति
  • बटगमनी / विद्यापति
  • बारहमासा / विद्यापति
  • जनम होअए जनु / विद्यापति
  • गीत / विद्यापति
  • जय- जय भैरवि असुर भयाउनि / विद्यापति
  • गंगा-स्तुति / विद्यापति
  • बसंत-शोभा / विद्यापति
  • सखि,कि पुछसि अनुभव मोय / विद्यापति
  • सखि हे हमर दुखक नहिं ओर / विद्यापति
  • सुनु रसिया अब न बजाऊ / विद्यापति
  • माधव कत तोर / विद्यापति
  • माधव हम परिणाम निराशा / विद्यापति
  • उचित बसए मोर / विद्यापति
  • गौरी के वर देखि बड़ दुःख / विद्यापति
  • जगत विदित बैद्यनाथ / विद्यापति
  • जोगिया मोर जगत सुखदायक / विद्यापति
  • बड़ अजगुत देखल तोर / विद्यापति
  • हम जुवती पति गेलाह / विद्यापति
  • नव यौवन अभिरामा / विद्यापति
  • सासु जरातुरि भेली / विद्यापति
  • आजु नाथ एक व्रत / विद्यापति
  • हम एकसरि, पिअतम नहि गाम / विद्यापति
  • बड़ि जुड़ि एहि तरुक छाहरि / विद्यापति
  • परतह परदेस, परहिक आस / विद्यापति
  • आदरे अधिक काज नहि बन्ध / विद्यापति
  • वसन्त-चुमाओन / विद्यापति
  • रूप-गौरव / विद्यापति
  • अभिसार / विद्यापति
  • शान्ति पद / विद्यापति
  • बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे / विद्यापति
  • दुल्लहि तोर कतय छथि माय / विद्यापति
  • सैसव जौवन दुहु मिलि गेल / विद्यापति
  • सैसव जौवन दरसन भेल / विद्यापति
  • जय जय भैरवि असुरभयाउनि / विद्यापति
  • उचित बसए मोर मनमथ चोर / विद्यापति
  • जखन लेल हरि कंचुअ अछोडि / विद्यापति
  • कि कहब हे सखि आजुक रंग / विद्यापति
  • सैसव जीवन दुहु सिलि गेल / विद्यापति
  • कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी / विद्यापति
  • आहे सधि आहे सखि लय जनि जाह / विद्यापति
  • कि कहब हे सखि रातुक बात / विद्यापति
  • आजु दोखिअ सखि बड़ अनमन सन / विद्यापति
  • नन्दनक नन्दन कदम्बक तरु तर / विद्यापति
  • चन्दा जनि उग आजुक राति / विद्यापति
  • सरसिज बिनु सर सर बिनु सरसिज / विद्यापति
  • लोचन धाय फोघायल हरि नहिं आयल रे / विद्यापति
  • हम जुवती, पति गेलाह बिदेस / विद्यापति
  • कखन हरब दुख मोर / विद्यापति
  • जनम होअए जनु, जआं पुनि होइ / विद्यापति
  • नव बृन्दावन नव नव तरूगन / विद्यापति
  • भल हर भल हरि भल तुअ कला खन / विद्यापति
  • मोरा रे अँगनमा चानन केरि गछिया / विद्यापति
  • सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए / विद्यापति
  • सुनु रसिया / विद्यापति
  • चाँद-सार लए मुख घटना करू / विद्यापति

''देसिल बयना सब जन मिट्ठा '' उक्त पंक्ति के अनुसार विद्यापति के अनुसार उन्हें अपनी भाषा मे भावों को व्यक्त करना अनिवार्य था, उसकी पूर्ति के उन्‍होने पदावली मे की। पदावली की भाषा मैथिल है जिस पर ब्रज का प्रभाव दिखता है। मिथिला की प्राचीन भाषा ही उसकी 'देसिल बयना' है। विद्यापति ने उसे स्वयं भी मैथिल भाषा नही कहा है। विद्यापति की यह पदावली कालान्तर मे पूर्वोत्‍तर भारत बंगाल में प्रचलित हो चुकी थी। विद्यापति का प्रभाव उनके उत्तराधिकारी सूर पर भी पड़ता है।
विद्यापति द्वारा रचित ''राधा-कृष्ण'' से संबंधित मैथिलि भाषा मे निबद्ध पदों का संकलित रूप विद्यापति पदावली के नाम से विख्यात है विद्यापति के पदों का संकलन जार्ज गिर्यसन, नरेंद्र नाथ गुप्ता, रामवृक्ष बेनीपुरी, शिव नंदन ठाकुर आदि विद्वानों ने किया हैं। विद्यापति के पदों में कभी तो धोर भक्तिवादिता तो कभी घोर श्रृंगारिकता दिखती है, इन्ही विभिन्नताओं के कारण विद्यापति के विषय मे यह भी विवाद है कि उन्हें किस श्रेणी के कवि मे रखा जाये। कुछ कवि तो उन्हें भक्त कवि के रूप में रखने को तैयार नहीं थे। विद्यापति द्वारा कृष्ण-राधा सम्बन्धी श्रृंगारी पद उन्हें भक्ति श्रेणी में रखने पर विवाद था। विद्वानों का कहना था कि विद्यापति भी रीतिकालीन कवियों की भांति राजाश्रय में पले बढ़े हुए है इसलिए उनकी रचनाओं में श्रृंगार प्रधान बातें दिखती है। इसलिये इन्हें श्रृंगार का कवि कहने पर बल दिया गया है।

विद्यापति के सम्बन्ध में एक बात प्रमुख है कि उनके पद्यों में राधा को प्रमुख स्‍थान दिया गया है। उसमे भी नख-शिख वर्णन प्रमुख है। विद्यापति के काव्य की तुलना सूर के काव्य करे तो यह प्रतीत होता है कि सूर ने राधा-कृष्ण का वर्णन शैशव काल में है तो विद्यापति ने श्रीकृष्ण एवं राधा के वर्णन तरुणावस्था का है जिससे लगता है कि विद्यापति का उद्देश्य भक्त का न होकर के श्रृंगार का ही हैं।

भक्त की दृष्टि से अगर विद्यापति के काव्य को देखा जाये तो यह देखने को मिलता था कि तत्कालीन परिवेश एवं परिस्थितियों के कारण उनका भाव श्रृंगारिक हो गया हैं। विद्यापति के पदों को अक्सर भजन गीतों के रूप मे गाया जाता रहा है। विद्यापति ने राधा-कृष्ण का ही नहीं शिव, विष्णु राम आदि देवताओं को विषय मानकर रचनाऐ की है। विद्यापति द्वारा रचित महेश भक्ति आज भी उड़ीसा के शिव मंदिरों में गाई जाती है। दैव प्राचीन ग्रन्थावली के अनुसार भक्त अपने आराध्य को किसी भी रूप में पूजा कर सकता है, इस आधार पर विद्यापति भक्त कवि भी सिद्ध होते है।

विद्या‍वति के पद्य :--- 

1
देख-देख राधा रूप अपार,
अपरूष के बिहि आनि मिराओल,
खिति तल लावण्‍य सार,
अगहि अंग अनंग मुरझायत
हेरय पड़य अधीर।

2
भल हरि भल हर भल तुअ कला,
खन पित बासन खनहि बद्यछला।
खन पंचानन खन भुज चारि
खन संकर खन देव मुरारि
खन गोकुल भय चराइअ गाय
खन भिखि मागिये डमरू बजाये।

3
कामिनि करम सनाने
हेरितहि हृदय हनम पंचनाने।
चिकुर गरम जलधारा
मुख ससि डरे जनि रोअम अन्हारा।
कुच-जुग चारु चकेबा
निअ कुल मिलत आनि कोने देवा।
ते संकाएँ भुज-पासे
बांधि धयल उडि जायत अकासे।
तितल वसन तनु लागू
मुनिहुक विद्यापति गाबे
गुनमति धनि पुनमत जन पाबे।
मैथिल कोकिल कवि - विद्यापति

विद्यापति गीत - गौर तोर अंगना - कुंज बिहारी मिश्र
  1. आजु नाथ एक बरत महासुख - कुंज बिहारी मिश्र
  2. हम नहि आजु रहब एही आँगन - कुंज बिहारी मिश्र
  3. अब्धि मास छल भादव सजनी गे - कुंज बिहारी मिश्र
  4. अरे बाप रे बाप शिव के सगरो - कुंज बिहारी मिश्र
  5. चानन भेल बिषम सर रे - कुंज बिहारी मिश्र
  6. बड़ अजगुत देखल गौर तोर अंगना - कुंज बिहारी मिश्र
  7. सबहक सुधि आहाँ लए छी - कुंज बिहारी मिश्र
  8. शंकर गहल चरण हम तोर - कुंज बिहारी मिश्र
  9. सुरभि निकुंज बेदी भलि भेली - कुंज बिहारी मिश्र
  10. उगना रे मोरा कतए गेल - कुंज बिहारी मिश्र


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