धोखा - इन्टरनेट का बंदा हिन्दू से मुसलमान हो गया
अगर हम हिन्दी ब्लागर से अतिरिक्त आर्कुट और याहू चैट मैसेंजर की बात करे तो यहाँ पर बात बिल्कुल भिन्न हो जाती है। आर्कुट के जरिये सर्व श्री दिल्ली में , आलोक सिंह, सुरेन्द्र सुमन और इलाहाबाद में आशुतोष मिश्र तथा चन्द्र वैभव सिंह आदि से भी मिला जो बाद में ब्लॉगर बने मित्रों से मिलना हुआ है, आज इलाहाबाद में अनेको आर्कुट दोस्तों से व्यक्तिगत मिलना हो चुका है लगभग उन्हीं से मिलना हुआ जो अपने विचार के होने के कारण अपने आप आत्मीय सम्बन्ध की संरचना कर देते है।
याहू चैट का उपयोग मै कम ही करता हूँ किन्तु आज से दो वर्ष पूर्व त्रिपुरा के त्रिपुरा निवासी एक सज्जन से मेरी मित्रता हुई और हम तब से लगातार संपर्क मे थे, हाल मे 6 माह पूर्व कालका ट्रेन से कोलकाता से शिमला की ओर सपरिवार जा रहे थे उन्होंने कहा भाई अगर हो सकेगा तो मिलने की कोशिश होगी, और इसी के साथ उनसे तथा उनके परिवार से मिलना हुआ। यह तक इंटरनेट की दुनिया के किसी इंसान के साथ मिलना आज तक सुखद ही रहा किन्तु होली के 2 दिन पूर्व याहू के एक मित्र ने मुझे सुचित किया कि मै इलाहाबाद आ रहा हूँ, इलाहाबाद घूमना चाहता हूँ, मैने भी कहा कि आओ अगर मेरे पास समय होगा तो जरूर घुमा दूंगा। मै उसे पिछले 2 माह से संपर्क में था, अपना नाम मणि भूषण पांडेय बताया था, मैने पूछा कि यह तुम्हारा वास्तविक नाम है तो उसने हाँ मे उत्तर दिया। इन दो माहो मे काफी घनिष्ठता भी आ गई थी, दोस्ती भी ऐसी चीज होती है जो एक दूसरे को नजदीक ले ही आती है। मै कभी भी सच्चाई छुपाने की कोशिश नहीं करता हूँ, कम से कम जिनसे मिला जा सकता है उनसे तो कभी नही।
वो लड़का इलाहाबाद जंक्शन पर मुझे मिलता है, एक दिन पूर्व ही मैंने इलाहाबाद से कोलकाता तक की शाम की रिजर्वेशन टिकट मैंने ले रखा था, मेरे पास इलाहाबाद घूमने के लिये 6-8 घंटे थे, मै अपने घर मे बता दिया था कि मै अमुक दोस्त को इलाहाबाद घूमने के लिए ले जा रहा हूँ। उसके बैग में लॉक नहीं था सो उसे हम लॉकर रूम मे नही रख सकते थे, मैंने उसके बैग को अपने एक दोस्त के घर रखवा दिया और संगम की ओर निकल दिये। उसने मुझे पहले ही बता दिया था कि वह स्नान नहीं करेगा इसलिये मै घर से ही स्नान करने निकला था ताकि मंदिर आदि में दर्शन कर सकूं, वह इलाहाबाद के सभी प्रमुख देव स्थानों पर गया किंतु कहीं दर्शन नहीं किया।
करीब 12 बज चुके थे, अब हमारे बीच विभिन्न मुद्दो पर चर्चा भी हो चुकी थी, तभी किसी बात पर धर्म की बात भी शुरू हुई। तो उसके मुंह से यह शब्द सुनकर कि मै मुसलमान हूँ और मेरा नाम जहांगीर खान है, मै हतप्रभ हुआ। यह सुनना बहुत ही कठिन था क्योंकि जिसे मै दो माह से अच्छी तरह से जान रहा हूँ वो मुझे ऐसी बात बताये तो हतप्रभ होना स्वाभाविक भी था। मैंने उसे बहुत डांटा, मन था कि दो चार ठो रसीद भी दूँ किन्तु अतिथि समझ कर मै उसके साथ कोई भी दुराभाव नही करना चाहता था। मुझे दुख इस बात का था कि उसने मिलने तक झूठ का सहारा लेता रहा, जब आप किसी से मिल रहे हो तो निश्चित रूप से आपको अपनी वास्तविक स्थिति के साथ मिलना चाहिये।
मै बहुत ही ज्यादा परेशान था क्योंकि उस यह एक बात मुझे झकझोर के रख दी। वो 5 मिनट से हिन्दू से मुसलमान बन सकता था तो उसके आतंकी होने सम्भावना भी हो सकती थी। मैने जिस घर में विश्वास के साथ उसका समान रखवाया था, अगर उसके समान में कुछ भी हो सकता था। मैंने कभी किसी के विश्वास से खेलने की कोशिश नहीं किया। इस वाकये के बाद तो किसी भी इंटरनेट के बंदे से मिलने से डर लगता है, आज नाम कुछ हो और कुछ देर बाद बोले मै ओसामा हूँ। किसी के बारे में कुछ भी अनुमान लगा लेना उचित नहीं है। अब जिससे भी मिला बहुत अच्छा व्यवहार मिला किन्तु इस प्रकार की घटना मन में संशय उत्पन्न कर जाती है।
ऐसा ही दिल्ली में एक मित्र है जिन्होंने 2007 आर्कुट पर एक लड़की के साथ शादी की किन्तु वह शादी बहुत दिनों तक नहीं चल सका और वह विवाह तलाक में पणित हो गया। इस प्रकार की घटनाएं एक तरफ तो अविश्वास पैदा करती है और एक बार भी अविश्वास सभी के प्रति अविश्वास की धारणा बना देती है और 1-2 वर्ष पूर्व मुम्बई में कौशांबी हत्या कांड भी इंटरनेट और याहू आर्कुट की ही देन रही है।
मै तो अब स्वयं सावधानी रखेंगे आप भी रखे क्योंकि दुनिया में अच्छे लोग है तो बुरे भी बहुत ज्यादा है, दोस्ती यारी में समझदारी भी आवश्यक है।
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महाशक्ति को अब बंद कर दिया जाये ?
पिछले 13 दिनों में मेरे ब्लाग पर निम्न स्थिति रही थी, पिछले 2 दिनों में काफी कमी आयी। मुझे प्रतीत हुआ कि यह मेरी नहीं बल्कि यह सभी जगह की समस्या थी।
यदि यह सिर्फ मेरे पास दिक्कत है तो मै इसे ठीक करने का प्रयास करूँगा यदि स्थायी समस्या है तो फिर पाठक न आये तो लिखने से क्या फायदा और सही समय है कि महाशक्ति को अब बंद कर दिया जाये ?
आज बज पर भरपूर बज-बजाने का मौका मिला और इसकी त्वरित उपयोगिता समझ में आई
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सम्भूति एवं असम्भूति : सम्बन्ध या द्वंद्व
(ईशावास्योपनिषद मे विद्या और अविद्या के साथ-साथ सम्भूति एवं असम्भूति पर काफी विस्तृत चर्चा की जा सकती है। मैं अपना सम्भूति एवं असम्भूति की विषय समस्या पर अपना (विद्यार्थी) दृष्टिकोण रख रहा हूँ।)
सम्भूति कार्य प्रकृति और असम्भूति कारण स्वरूप प्रकृति को कहते हैं। असम्भूति अर्थात अव्यक्त प्रकृति के उपासक घोर अंधकार मे प्रवेश करते है तथा जो सम्भूति अर्थात हिरण्यगर्भ नामक कार्य ब्रम्ह की उपासना करते है वह उनसे भी अधिक घोर अंधकार मे प्रवेश करते है। कार्यो की बीज रूप अव्यक्त प्रकृति का सूचक है असम्भूति पद और कार्य ब्रह्म हिरण्यगर्भ के लिये प्रस्तुत है सम्भूति पद। विद्या तथा विद्यापद के समान ही सम्भूति तथा असम्भूति शब्द भी एक दूसरे के विपरीत रूप मे मंत्र मे प्रयुक्त है। ईशावास्योपनिषद का यह मंत्र यह कहता है कि जो उस सम्भूति अर्थात अव्यक्त प्रकृति की वन्दना मे रत है, जो दृश्य मान विकृति अर्थात जगत के मूल कारण प्रकृति मे लीन है, वे अंधकार मे प्रवेश करते है अव्यक्त प्रकृति का सरलतम उदाहरण है इन्द्रियां। जिन पुरुषों की इन्द्रियां बर्हिमुखी है प्रकृति के उपासक अंधकार मे मूर्च्छालीन रहते है। इन्द्रियो की साधना के लिये चित्त की विवेक शून्यता अनिवार्य है, विवेकशून्यता की यह स्थिति ही अंधकार की उपलक्षिका है। जो पुरूष आत्मा के रहस्य को नही जानते है फलेच्छा के अवशिष्ट रहने से संसार मे अनासक्त भी नही है, अवाश्यकतानुसार स्पृहाभाव से कर्तव्य का निर्वाह कर रहे है, उनके चित्त की ब्रह्म मे सुस्थिरताके लिये सूक्ष्म एवं स्थूल प्रकृति की उपासना को हेय कहा गया है।
सम्भूति अर्थात हिरण्यगर्भ कार्य ब्रह्म की उपासना अणिमादि अष्ट सिद्धियों की अलौकिक सामर्थ्य प्रदान कर अहंकार की उत्पत्ति करती है अहंकार की भूख अनन्त होती है जो कभी समाप्त नहीं होती है। इस अहंकार की इच्छा पूर्ति के लिये व्यक्ति महान्धकार मे उतर जाता चला जाता है। इन्द्रियों पर संयम कर लेने वाला व्यक्ति भी अहंकार की सूक्ष्म उपासना में लिप्त रहता है। अहंकार स्वनिर्मित होता है उनसे मुक्त होना अत्यंत कठिन है, इन्द्रियां प्रकृति प्रदत्त होती है अपेक्षाकृत सरलता से मुक्ति दे देती है इन्द्रियों की उपासना को कम करने का अर्थ है कि इन्द्रियां न्यूनतम आवश्यकता पर ठहर जाये और अहंकार की उपासना को कम करने का तात्पर्य है कि अहंकार शून्य आ जाए। जो न अहंकार की उपासना करता है और न ही इन्द्रियों कि वह प्रकाश में प्रवेश करता है अर्थात वह आत्मा के सन्निकट हो जाता है।
निष्काम कर्म तथा आसक्ति सक पराङ्मुख जो जन केवल सम्भूति सम्भव होना अर्थात उत्पत्ति को ही प्राथमिकता देते है, जीवन की अनिवार्यताओं से अधिक अनिवार्यताओं से अधिक के अर्जन में ही सुख मानते है, जिनकी मानसिक भूख सदा अतृप्त रहती है, गर्व के कारण जो दुर्लभ मानव जीवन का मूल्य न समझ कर अभिमान वश उसे व्यर्थ कर देतें है, हृदय में श्रद्धा और संयम का अभाव होने के कारण वे लोक सेवा और शास्त्र ज्ञान दोनों से संपृक्त रहते हैं, वे मिथ्याभिमानी जन विनाश शील देवताओं की उपासना करने वाले की अपेक्षा अधिक घोर अंधकार में प्रवेश करते है।
असंभूति (असंभव) अर्थात विनाश शील शरीर को प्रधान देने वाले जन मृत्यु से भी भयभीत रहते है। इस लोक और परलोक की भोग सामाग्रियों में आसक्त रहकर योगक्षेम में व्यस्त रहते है इच्छा की प्रबलता से भोगो की प्राप्ति के लिए देवतादि अधिकारियों की प्रशन्नता मनाते हैा पूर्ति के अभाव मे शोक करते है, और कार्य पद्धति में परिवर्तन न करके भाग्य को दोष देते है। वे मूढ ब्यथ्क्ति अशंम्भूति अर्थात विनाश शीलत्व को प्राप्त् होते रहते है। वे अविनाशत्व के महत्व को न समझते हुये मरण मे आसन्न रहते है वे शरीर की मृत्यु पर आत्मा की मृत्यु को समझने लगते है।
कुछ भाष्यकारों के मत में असम्भूति पद वैयक्तिक का पोषक है तथा सम्भूति पद समष्टि वाद का। इसमें एक तो वैयक्तिक स्वतंत्रता की घोषणा करता है तो दूसरा संघ शक्ति की, सबके कल्याण की। व्यष्टि कल्याण मे ही समष्टि सुख की सिद्धि है व्यष्टि से ही समष्टि का प्रवेश द्वार खुलता है। समाज की सुख शान्ति वैयक्तिक अभ्युदय का कारण बनती है और व्यक्तिगत संतुष्टि सामूहिकता को बन्धुत्व भाव को सबल करती है आत्मसंतोष और प्राणि मात्र के हित की भावना से सम्पूरित समाज मोक्ष का वास्तविक प्रतिरूप बन जाता है। सत्य तो यह है कि उपनिषद को न तो मात्र ज्ञान इष्ट है और न केवल कर्म। ज्ञान और कर्म का संतुलित प्रयोक्ता पुरुष अमृतत्व का भागी होता है। न केवल जन्म का प्राधान्य है न मृत्यु का ये जीवन के दो महत्वपूर्ण छोर है दोनो के प्रति समन्वय दृष्टि सदा अपेक्षित है। न केवल व्यष्टि वाद समाज का हित साध सकता है न समष्टि वाद, आपसी सहायता से एक सुखी स्वस्थ मानव समाज की कल्पना आकार लेती है। जीवन के रहस्य को ग्रहण करने वाला अमृत का अधिकारी होता है।
सम्भूति अर्थात कार्यब्रह्म की उपासना से प्राप्त होने वाला अणिमादि ऐश्वर्य रूप पृथक ही फल का व्याख्यान किया गया है तथा असम्भूति अर्थात अव्यक्त प्रकृति की उपासना से अन्य ही फल बताया गया है। जिसे अन्धतम: प्रविशन्ति आदि वाक्य से कहा गया है तथा पौराणिक जन जिसे प्रकृतिलय कहते है ऐसा हमने धीरो अर्थात बुद्धिमानो का वचन सुना है जिन्होंने हमने धीरो अर्थात बुद्धिमानो का वचन सुना है जिन्होंने हमसे उन व्यक्त और अव्यक्त अपासनाओ का फल व्याख्यान किया था।
जो पुरूष असम्भूति और विनाश इन दोनो की उपासना के समुच्च को जानता है वह जिनके कार्य का धर्म विनाश है दस धर्मी के साथ धर्म के अभेद सम्बन्ध से उसे विनाश कहा गया उस विनाश की उपासना से अधर्म तथा कामना आदि दोषो से उत्पन्न हुये अनैश्वर्यरूप मृत्यु को प्राप्त करके हिरण्यगर्भ की उपासना से अणिमादि ऐश्वर्य की प्राप्ति का फल ही मिलता है, अत: उससे अनैश्वर्य आदि मृत्यु को पार करके असंभूति अव्यक्त की उपासना से अमृत को प्राप्त कर लेता है।
‘सम्भूतिं च विनाशं च’ इस पद स्वरूप प्रकृतिलयरूप फल को बताने बाली श्रुति के अनुरोध से अवर्ण के लोभ पूर्वक निदेष को समझना चाहिये अर्थात असम्भूति को ही सम्भूति कहा गया है।
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