ब्‍लागर पंचायत



आज से लगभग दो माह पूर्व रामचन्द्र मिश्र जी का इलाहाबाद आना हुआ था। उनसे पहले मिलने का वर्णन मै पहले ही कर चुका था। किन्तु उन्होंने एक ब्‍लागर पंचायत का में सचिव पंच का निमंत्रण मिला था सो उन्‍होने मुऐ फोन मिलाया और कहा कि इलाहाबाद में एक ब्‍लागर पंच सदस्य के रूप में कम पड़ रहा है अगर खाली हो तो आ जाओ। मैने भी अपने पारिवारिक विवरण देते हुए कहा कि मै घर में पूछ कर ही बता पाऊंगा कि खाली हूँ कि नही। क्योकि मै तो फ्री हूँ किन्तु घर में कोई मेरे कारण काम न रूके। उन्होंने भी हॉं मे हॉं मिलाते हुए कहा कि घर पहले जरूरी है।

करीब मैने भी एक घंटे बाद उन्हें फोन करके हॉं कह दिया, और नियत समय पर उनके घर पर पहुँच गया। फिर वहां से हम पहले यूनिवर्सिटी के विज्ञान संकाय पहुँचे, और वहॉं पर हमसे एक और ब्लॉगर श्री संतोष कुमार पाण्डेय जी से मुलाकात हुई जो इस पंचायत के उपाध्‍यक्ष भी थे। और वहां से हम मोटर साइकिल पर सवार होकर पहुँच संतोष जी के घर पर, फिर वहॉं एक और उदयीमान ब्‍लागर पहले से मौजूद से और उनसे हमारा परिचय हुआ, और उन्होंने हमारा चरण स्पर्श भी किया, इस सम्मान को पार कर रामचन्‍द्र भाई साहब का सीना चौड़ा हुआ कि लम्बा किन्तु मेरा जरूर चौड़ा हो गया था। ऐसा नही है कि मेरे लिये यह पैर छूने वाला सम्‍मान पहली बार मिला था किन्‍तु परिवार से बाहर यह पहली बार ही था। चूकिं मै अपने गॉंव के परिवार की दृष्टि में भाइयों में सबसे छोटा हूँ, और मेरे सबसे बड़े चचेरे भाई का तो स्‍वर्गवास चुका है जिनकी उम्र और मेरी उम्र में तीन गुने का अन्‍तर है, और परम्‍पराओं के की दृष्टि से 4 दर्जन से ज्‍यादा बच्‍चों का चाचा, बाबा, नाना आदि हँ, जिसमें से अधिक्‍तर में बच्‍चे मेरी उम्र से बडें है किन्‍तु प‍द की गरिमा के मुझे यह सम्‍मान मिलता रहता है किन्‍तु सबसे ज्‍यादा दिक्‍कत तब आती है जब कभी कोई मेरी उम्र से बड़ा मेरे पैर को छूता था। पर क्‍या कर सकता हूँ सिवाय हंसी और जुग जुग जियों और फलो फूलों के आशीर्वाद के अलावा। यह सम्‍स्‍या तो मुझे ब्‍लागिंग में भी आती है खैर अब मुद्दे पर आता हूँ, और इसकी चर्चा फिर करूँगा।










चित्र संतोष जी के सौजन्‍य से
चूंकि रामचंद्र जी ने मुझे निमंत्रण दिया था और पूरे कार्यक्रम की जानकारी से अनभिज्ञ रखा कि खाने को भी काफी आइटम रखा गया है, चूंकि अपने अदातानुसार मै जब कहीं जाता हूँ तो पेट की टंकी थोड़ा लोड करके ही चलता हूँ अगर खाने पर भी बुलाया गया हो तो भी, पता नहीं क्‍या दिक्‍कत हो और देर से भोजन मिलें और कहा भी गया है कि भूखे भजन न हो गोपाला, सो भोजन की सूचना नहीं थी तो हम सम्पूर्ण रूप से भोजन करके ही गये थे। फिर जब भोजन की बारी आई तो प्रथम काफी न नुकुर किया किंतु इतने अच्छे और भोजन को इनकार करना अन्न देवता का अपमान करना होता। फिर काफी सोच विचार कर भोजन लिया गया। वाकई भोजन काफी स्वादिष्ट था और संतोष जी की श्रीमती जी इसके लिये विशेष बधाई की पात्र थी। उनका पूरा परिवार हमसे और हम उनके परिवार सें मिलकर काफी प्रसन्न थें। खाने पर मेरे महाशक्ति होने प्रश्‍न चिन्ह उठाया गया कि शरीर से तो महाशक्ति नही दिखते हो ? पर मेरा कहना था कि शरीर से होना या न होना मायने नही रखता है बल्कि दृढ़ इच्छा शक्ति मायने रखती है। और खाने के समय यह निर्धारण हो भी गया। मुझसे कम भोजन लेने के बाद भी राम चन्द्र जी ने खाना छोड़ दिया, किन्तु मै खाना खा कर जाने के बाद भी पूरा खाना खाया क्योंकि मेरा मानना है कि खाना उतना ही लेना चाहिए जितना आप खा सके और खिलाने वाले को भी इतना देना चाहिए जितना कि खाने वाला खा सके। अन्न बर्बाद करना ठीक नहीं। फिर काफी देर तक हम लोगों फोटू खिचइया किया, और काफी बातें की। जान कर अच्छा लगा कि मेरे ब्लॉग को उनकी श्रीमती जी भी पढ़ती थी पर उन्होंने एक प्रश्‍न रखा कि घुघुती बासुती कौन है इसका जवाब मै नही दे सका। क्योंकि मैंने घुघुती जी के ब्लॉग को तो पढ़ा है किन्तु कभी विशेष बात व्यवहार नही हुआ।

उनके परिवार में मेरे स्वभाव के प्रति काफी चर्चा हुई, के इतना उग्र क्यों लिखते हो आदि आदि। और भी चर्चायें ओर प्रश्‍न उत्‍तरी हुई और एक दूसरे को बेहतर जानने का मौका मिला। फिर अचानक रामचन्‍द्र भाई ने कहा कि आपकी वो वीडियों वाली छत कहॉं है फिर उस छत पर हम लोग गये और वहॉं भी सूटिग की। किन्तु हमारी सूटिग से प्रकृति नाराज चल रही थी, और एक बहुत बड़ा मधुमक्‍खी का झुन्‍ड हमें नीचे उतरने पर मजबूर कर दिया। नीचे आने पर पता चला कि हमें ब्‍लागर पंचायत के अध्यक्ष अर्थात श्री ज्ञानदत्त जी के यहां भी जाना है। मैने और रामचंद्र जी ने उनके परिवार को धन्यवाद और नमस्कार कर ज्ञान जी के यहां चल दियें।

काफी मशक्‍कत के बाद हम श्री ज्ञान जी के यहां पहुंचे और उन्होंने हमारा गर्मजोशी के साथ स्वागत, दिल से सम्मान और आशीर्वाद दिया। फिर ज्ञान जी के साथ हमारी पंचायत करीब 20 मिनट की रही होगी। और इन बीच मिनट में हम लोगों ने काफी कुछ एक दूसरे के बारे में जाना और पहचाना भी, उम्र और तर्जुबे में काफी वरिष्ठ ज्ञान जी कतई ऐसे नहीं लगे कि वे एक बड़े अधिकारी है उन्होंने हमसे एक ब्लॉगर की तरह ही बर्ताव किया जैसे एक राजा एक राजा एक राजा के साथ करता है उसी स्टाइल में। सच कहूँ तो जब किसी अच्छे इंसान से मिलना होता है तो कोशिश करता हूँ कि कुछ अच्छे गुण सीख लिये जाये चाहे वह मेरा विरोधी ही क्यों न हो।

ज्ञान जी से मिलने पर मैने उनके उस साईट के बारे में पूछा जो मस्तिष्‍क के विषय पर बनने जा रही थी तो उन्‍होने निराशा भरे स्‍वरों में कहा कि लोग आगे नही आ रहे है, सबसे बड़ी समस्‍या है मैटर के हिन्‍दीकरण करनें की। और मेरे जान में यह समस्‍या कठिन भी है क्‍योकि किसी भी कथन का अनुवाद निश्चित रूप से उसी शैली में हो तभी उसका लक्ष्‍य पूरा होगा। जहाँ तक अगर टंकण में सहयोग कि बात पर मैने उन्‍हे पूरा सहयोग करने का वचन भी दिया, साथ ही साथ रामचन्‍द्र भाई ने भी अनुवाद में उनकी सहायता करने भरोसा दिया। निश्चित रूप से हमारी छुद्र सहायता के आश्‍वासन से उनके चेहरे पर मुसकान दिख रही थी। हॉं यह सही भी थी क्‍योकि जिस काम को आप अपना लक्ष्‍य और निष्‍ठ रहती है उसे करने में आप तन मन धन सब लगा देते है। मेरा सभी ब्‍लागर समुदाय से अनुरोध है कि इस मामले को गम्‍भीरता से लें, और उनके भगीरथी सहयोग करें। कुछ चर्चा हमारी पढ़ाई लिखाई पर भी हुई, कि क्‍या हो रहा है ?

इन्ही चर्चाओं के बीच कैसे 15-20 मिनट कैसे बीत गये पता ही नही चला। अंत में सभी से नमस्कार, चरण स्पर्श भी हुआ और हमने एक दूसरे से विदा लिया। आज इसे करीब 3 माह बाद लिख रहा हूँ मेरी स्‍मृति कितनी अच्छी है यह तो पंचायत के अन्‍य सदस्‍य ही बता सकते है। एक बात का जरूर दुख है कि एक दो ब्लॉगरों को छोड़कर जिससे भी मै मिला किसी ने कोई मिलन पोस्ट नहीं खैर मै तो लिखूँगा ही, चाहे साल भर ही लग जाये। :) अगर कुछ लिखने में गलती हुई होगी तो माफ कीजिएगा।


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प्रत्‍यक्षा जी का जन्‍मदिन बार बार क्‍यो चला आता है ?





जन्‍मदिन भी बड़ा अजीब दिन है, हर साल मुँह उठाकर चला आता है। :) अभी अभी कुछ देर पहले अनूप जी की पोस्ट पढ़ी तो पता चला कि आज फिर से प्रत्‍यक्षा जी का जन्म दिन आ गया है। जबकि अभी पिछले ही साल अक्टूबर में हम सबने मिलकर प्रत्‍यक्षा जी का जन्मदिन मनाया था।

जन्मदिन भी बिन बुलाये मेहमान की तरह चला आता है और पूरे दिन अपनी मनमानी करता है, और फिर अगले दिन एक साल और गुजर जाने का एहसास करा कर चला जाता है कहता कि देख बन्‍दे तुझे पिछले साल कहा था कि अच्‍छे अच्‍छे काम करूँगा पर किया नही इस बार तो कर। यह संदेश देकर पुन: आ धमकाने की धमकी देकर कि रिपोर्ट कार्ड दे‍खूँगा, कहकर चला जाता है। :)

निश्चित रूप से प्रत्‍यक्षा जी सफल है और उनका रिपोर्ट कार्ड भी अच्‍छा, उन्‍हे चिन्तित होने की कोई आवश्यकता नही है। और इस बार की जन्मदिन की शुभकामना स्वीकार करें और अगले जन्मदिन की तैयारी शुरू कर दें। क्‍योकि पता नही ये प्रत्‍यक्षा जी का जन्मदिन बार बार क्यों चला आता है ? :)


कुछ स्माइली एक्‍सट्रा दे रहा हूँ लगा कर पढ़ लीजिएगा। :) :) :) :) :) :) :D :D :D ;) ;)



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गांधी का अहं



भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में एक ऐसा समय भी आया जब गांधी जी को अपने अस्तित्व पर संकट नज़र आने लगा था। गांधी जी को एहसास होने लगा था कि अगर अब प्रतिरोध नहीं किया गया तो, “गांधी” से भी बड़ा कोई नाम सामने आ सकता है। जो स्वतंत्रता की लड़ाई “गांधी” नाम की धुरी पर लड़ा जा रहा था, वह युद्ध कहीं किसी और के नाम से प्रारम्भ न हो जाये। वह धुरी गांधी जी को नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के रूप में स्पष्ट दिखाई दे रहा था। यह एक ऐसा नाम था जो गांधी जी को ज्यादा उभरता हुआ दिखाई दे रहा था। देश की सामान्य जनता सुभाष बाबू में अपना भावी नेता देख रही थी। सुभाष बाबू की लोकप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही थी। जो परिस्थितियां गांधी जी ने अपने अरमानों को पूरा करने के‍ लिये तैयार की वह सुभाष चन्द्र बोस के सक्रिय रूप से सामने आने पर मिट्टी में मिलती दिख रही थी। गांधीजी को डर था कि जिस प्रकार यह व्यक्ति अपने प्रभावों में वृद्धि कर रहा है वह गांधी और नेहरू के प्रभाव को भारतीय परिदृश्य से खत्म कर सकता है। इन दोनों की भूमिका सामान्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भांति होने जा रही थी। गांधी और नेहरू की कुटिल बुद्धि तथा अंग्रेजों की चतुराई को यह कदापि सुखद न था। इस भावी परिणाम से भयभीत हो नेता जी को न केवल कांग्रेस से दूर किया गया बल्कि समाज में फैल रहे उनके नाम को समाप्त करने का प्रयास किया गया। यह व्यवहार केवल नेता जी के साथ ही नहीं हर उस स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ किया गया जो गांधी जी के अनर्गल प्रलापों का विरोधी था और उनकी चाटुकारिता करना पसंद नहीं करता था तथा देश की आज़ादी के लिये जिसके मन में स्पष्ट विचार थे।

Mahatma Gandhi and Subhas Chandra Bose: A Clash of Ideology

गांधी और सुभाष का स्वतंत्रता संग्राम में आने में एक समानता थी कि दोनों को ही इसकी प्रेरणा विदेश में प्राप्त हुई। किन्तु दोनों की प्रेरणा स्रोत में काफी अंतर था। गांधी जी को इसकी प्रेरणा तब मिली जब दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों द्वारा लात मार कर ट्रेन से उतार दिया गया, और गांधी जी को लगा कि मैं एक कोट पैंट पहने व्यक्ति के साथ यह कैसा व्यवहार किया जा रहा है? अंग्रेजों द्वारा लात मारने घटना गांधी जी को महान बनाने में सर्व प्रमुख थी। अगर गांधी जी के जीवन में यह घटना न घटित हुई होती तो वह न तो स्वतंत्रता के प्रति को ललक होती, और न ही आज राष्‍ट्रपिता का तमका लिये न बैठे होते, न ही उनकी गांधीगिरी अस्तित्व में हो।

Funny Mahatma Gandhi by endarte on DeviantArt

वही सुभाष चन्द्र बोस इंग्लैंड में भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Civil Service) की परीक्षा के दौरान देश में घट रहे जलियावाला बाग काण्ड, रोलेट एक्ट, तथा कांग्रेस के द्वारा इन घटनाओं के परिपेक्ष में असहयोग आंदोलन जैसी घटनाओं प्रभावित हो उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में आना उचित समझा। उनके जहान में देश के प्रति प्रेम और इसकी स्वतंत्रता के भाव का संचार हो गया। उन्होंने भारतीय प्रशासनिक परीक्षा चौथे स्थान पर रह कर पास की थी। ऊँचा रैंक था, ऊँचा वेतन और किसी राजा से भी बढ़कर मान सम्मान एवं सुख सुविधाएं उन्हें सहज प्राप्त थी। सुभाष बाबू किसी अंग्रेज ने छुआ तक नहीं था। किन्तु भारत माँ की करुण पुकार ने उन्हें देश भक्ति के लिए प्रेरित किया। उन्होंने समस्त सुख सुविधाओं से त्यागपत्र दे दिया। त्यागपत्र में कहा- “मै नही समझता कि कोई व्यक्ति अंग्रेजी राज के प्रति निष्ठावान भी रहे तथा अपने देश की मन, आत्मा तथा ईमानदारी से सेवा करें, ऐसा संभव नही।”

 नेता जी विदेश से लौटते ही देश की सेवा में लग गये और जब 1925 ई. को कलकत्ता नगर निगम में स्वराज दल को बहुमत मिला तो उन्होंने निगम के प्रमुख के पद पर रहते हुए अनेक महत्वपूर्ण काम किये।

Why is Netaji Subhas Chandra Bose called Netaji?

1928 मे जब कलकत्ता में भारत के लिये स्वशासी राज्य पद की मांग के मुख्य प्रस्ताव को महात्मा गांधी ने प्रस्तावित किया। तो सुभाष बाबू ने उसमें एक संशोधन प्रस्तुत किया, जिसमें पूर्ण स्वराज की मांग की गई। गांधीजी पूर्ण स्वराज रूपी संशोधन से काफी खिन्न हुए, उन्होंने धमकी दिया कि यदि संशोधित प्रस्ताव पारित हुआ तो वे सभा से बाहर चले जायेगे। गांधी जी के समर्थकों ने इसे गांधी जी की प्रतिष्ठा से जोड़ दिया, क्योंकि अगर गांधी की हार होती है तो निश्चित रूप से समर्थकों की महत्वाकांक्षाओं को झटका लगता, क्योंकि गांधी के बिना वे अपंग थे। समर्थकों की न कोई सोच थी और न ही सामान्य जनों के विचारों से उनका कोई सरोकार था। सिर्फ और सिर्फ महत्वाकांक्षा ही उनके स्वतंत्रता संग्राम का आधार थी। यही उनके संग्राम सेनानी होने के कारण थे। गांधी जी की इस प्रतिष्ठा की लड़ाई में अंग्रेज सरकार की पौबारा हो रही थी। सुभाष बाबू का संशोधित प्रस्ताव 973 के मुकाबले 1350 मतों से गिर गया। गांधी की आंधी के आगे सुभाष बाबू को 973 वोट प्राप्त होना एक महत्वपूर्ण घटना थी। यहीं पर गांधी जी का स्वराष्ट्र से बड़ा हो गया। गांधी जी के अहं के आगे उन्ही का सत्‍य, अहिंसा, और आर्शीवचन पाखंड साबित हुआ और जिस लाठी सहारे वह चलते थे वही लाठी कांग्रेसियों के गुंडई प्रमुख अस्त्र बन गई। कांग्रेसियों द्वारा गांधी जी के नाम को अस्त्र बना अपना मनमाना काम करवाया, और इस कुकृत्य में गांधी जी पूर्ण सहयोगी रहे। इसका फायदा मिला सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी साम्राज्य को।

नेता जी सुभाष चंद्र बोस सम्बंधित अतिरिक्त लेख -



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