राष्ट्रीय आंदोलन का उदय एवं उसके कारण




भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का उदय 19 वीं शताब्दी की एक प्रमुख घटना थी मैकडोनाल्ड के शब्दों में, ‘‘भारतीय राष्ट्रवाद राजनीतिक मॉडलों का नहीं अपितु इससे बहुत कुछ अधिक रहा है। यह एक ऐतिहासिक परंपरा का पुनरुज्जीवन है, एक राष्ट्र की आत्मा की मुक्ति है।‘‘ भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के उदय के पीछे एक नहीं अपितु अनेक कारण रहे जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-
  1. 1857 का स्वतंत्रता संग्राम:- 1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम माना जाता है। उसे अधिकांश ब्रिटिश लेखकों ने सैनिक विद्रोह की संज्ञा दी है जो उचित नहीं है। यह सैनिक विद्रोह नहीं बल्कि स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु भारतीयों का प्रथम जन-विद्रोह था। इस आंदोलन को दबाने के लिये अंग्रेजों ने अत्यधिक अमानवीयता से काम किया जिसका वर्णन करते हुये सर चार्ल्स डिस्के ने अपनी पुस्तक ग्रेटर इंडिया में लिखा है- ‘ अंग्रेजों ने अपने कैदियों की हत्या बिना न्यायिक कार्यवाही के इस ढंग से कर दी जो सभी भारतीयों की दृष्टि में पाश्विकता की चरम सीमा थी..........दमन के दौरान गाँव जला दिये गये। निर्दोष ग्रामीणों का वह कत्लेआम किया गया कि उससे मुहम्मद तुगलक भी शरमा जायेगा ।“ यह सत्य है कि योग्य नेतृत्व का अभाव, संचार एवं सैन्य व्यवस्था की कमी, तालमेल का अभाव जैसी कमियों के कारण यह आंदोलन सफल भले ही न हो पाया हो पर आंदोलन को दबाने में अंग्रेजों ने जिस अमानवीयता का परिचय दिया उससे भारतीय जनता भयभीत होने के स्थान पर स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु और अधिक कटिबद्ध हो गयी।
  2. पश्चात शिक्षा का प्रभाव:- पश्चात शिक्षा से भी भारतीय राष्ट्रवाद को बल मिला क्योंकि शिक्षित होने के पश्चात भारतीयों को अन्य देशों के नागरिकों की तुलना में अपनी दीनता-हीनता का आभास हुआ और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इसका प्रमुख कारण है विदेशियों का उनके ऊपर शासन। यद्यपि लार्ड मैकाले ने भारत में अंग्रेजी शिक्षा को लागू करवाने हेतु इसलिये बल दिया ताकि उसे शासन व्यवस्था में कम वेतन पर क्लर्क प्राप्त हो सकें। अर्थात ऐसे व्यक्ति जो खून और वर्ण से तो भारतीय हो किंतु रूचि, विचार,शब्द और बुद्धि से अंग्रेज हों।
    मैकाले इस बात से भी भली भांति परिचित था कि अंग्रेजी शिक्षा का ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात भारतीय ब्रिटिश लोकतांत्रिक शासन पद्धति की माँग करेंगे। इसलिए उसने 1833 में कहा था-‘‘ अंग्रेजी इतिहास में वह गर्व का दिन होगा जब पश्चात ज्ञान में शिक्षित होकर भारतीय पश्चात संस्थानों की माँग करेंगे।’’ इस अंग्रेजी शिक्षा का भारतीयों पर मिला जुला प्रभाव हुआ। यह प्रभाव बुरा इस अर्थ में था कि अनेक भारतीय अपनी सभ्यता, संस्कृति, भाषा रीति-रिवाज और परम्पराओं को भूलकर अंग्रेजी सभ्यता और संस्कृति का गुणगान करने लगे इसके विपरीत भारतीयों को इस शिक्षा व्यवस्था से अनेक-नेक लाभ हुए। अंग्रेजी के प्रचार प्रसार से भारत के बाहर बसे लोगों के बीच भाषा की एकता स्थापित हो गयी इसके अतिरिक्त उन्हें मिल, मिल्टन तथा बर्क जैसे महान व्यक्तियों के विचारों का ज्ञान हुआ। उनमें स्वतंत्रता, लोकतंत्र और राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत हुई। इसे अपने लिए वे आवश्यक मानने लगे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव की चर्चा करते हुए ए.आर.देसाई ने लिखा है ‘‘ शिक्षित भारतीयों ने अमरीका, इटली और आयरलैंड के स्वतंत्रता संग्रामों के संबंध में पढ़ा। उन्होंने ऐसे लेखकों की रचनाओं का अनुशीलन किया जिन्होंने व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वाधीनता के सिद्धांतों का प्रचार किया है। ये शिक्षित भारतीय भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के राजनीतिक और बौद्धिक नेता हो गये।
    पश्चात शिक्षा का स्पष्ट प्रभाव 1885 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में दृष्टिगोचर हुआ जहाँ अंग्रेजी भाषा के द्वारा ही भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने एक दूसरे के विचारों को समझा। राजा राममोहन राय, गोपाल कृष्ण गोखले, दादा भाई नौरोजी, व्योमेश चन्द्र बनर्जी आदि इस अंग्रेजी शिक्षा की ही देन थे। इन्होंने देश को स्वतंत्र कराने में महती भूमिका अदा की । अंग्रेजी शिक्षा प्राप्ति के पश्चात जब भारतीय ब्रिटेन एवं अन्य देशों के भ्रमण पर गये तो वहाँ की व्यवस्था देखकर अवाक रह गये। तत्पश्चात उन्होंने अपने लिए भी स्वशासन की मांग की। इस दृष्टि से डॉ. जकारिया का यह कथन सत्य है कि ‘‘अंग्रेजों ने 125 वर्ष पूर्व शिक्षा का जो कार्य आरम्भ किया उससे अधिक हितकर और कोई कार्य उन्होंने भारत वर्ष में नहीं किया।’’
  3. राजनीतिक एकता:- भारत प्राचीन एवं मध्यकाल में सांस्कृतिक दृष्टि से एक था पर यह एकता सर्वथा अस्थिर थी अशोक, समुद्र गुप्त, अकबर एवं औरंगज़ेब ने भारत के एक बड़े भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया पर वे उसे स्थिर नहीं रख सके। प्रो. विपिन चन्द्र ने इसे स्वीकार करते हुये अपनी पुस्तक‘‘ भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’’ में लिखा है। ‘‘........दादा भाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और तिलक से लेकर गांधीजी और जवाहरलाल नेहरू तक राष्ट्रीय नेताओं ने स्वीकार किया कि भारत पूरी तरह से सुसंगठित राष्ट्र नहीं है। यह एक ऐसा राष्ट्र है जो बनने की प्रक्रिया में है।“ भारत में राजनीतिक एकता स्थापित करने में अंग्रेज बड़े सहायक सिद्ध हुए। अंग्रेजों ने भारत में शासन की एकता स्थापित करके उसे एक राजनीतिक इकाई का रूप दिया।  यातायात के साधनों के विकास के फलस्वरूप देश के विभिन्न कोनों के लोग सुविधा पूर्वक एक दूसरे के संपर्क में आए जिससे उनकी स्थानीय भक्ति का स्थान राष्ट्रीय भक्ति ने ले लिया। हालांकि अंग्रेजों ने भारत में यातायात का विकास अत्यधिक आर्थिक दोहन एवं सेना के सुदृढ़ीकरण के उद्देश्य से किया था पर जैसा कि जवाहर लाल नेहरू का कथन है ‘‘ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित भारत की राजनीतिक एकता सामान्य एकता की अधीनता थी लेकिन उसने सामान्य राष्ट्रीयता की एकता को जन्म दिया’’ इस प्रकार एकता की भावना ने राष्ट्रीयता के विकास की भावना का मार्ग प्रशस्त किया।
  4. सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलन:- राष्ट्रीय भावना की उत्पत्ति में 19 वीं शताब्दी के सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलनों का मुख्य स्थान है। राजा राममोहन राय एवं ब्रह्म समाज, स्वामी दयानंद सरस्वती एवं आर्य समाज, स्वामी विवेकानंद एवं रामकृष्ण मिशन, श्रीमती एनी बेसेन्ट एवं थियोसोफिकल सोसाइटी ने अपने विचारों एवं आंदोलनों के माध्यम से भारतीय जनता को यह स्वदेश दिया कि उनका धर्म एवं संस्कृति श्रेष्ठ है। इन विचारों ने भारतीयों को उनके धर्म एवं समाज में व्याप्त दोषों और कुरीतियों के प्रति आगाह किया। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज में व्याप्त सती-प्रथा, विधवा-विवाह तथा बाल-विवाह जैसी कुरीतियों के विरूद्ध जनमत तैयार हुआ, जिससे इन पर रोक लग सकी। इन सुधार आंदोलनों के परिणाम स्वरूप सामाजिक कुरीतियों एवं अन्धविश्वासों का विनाश होने से भारतीयों में नवजागरण का सूत्रपात हुआ और नवोत्साह से वे देश की स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु प्रयास करने लगे।
  5. शिक्षित भारतीयों में असंतोष:- पश्चात शिक्षा के फलस्वरूप भारतीयों में एक नवीन शिक्षित वर्ग का उदय हुआ जो शासन व्यवस्था में भागीदार बनने हेतु उद्यत था। परन्तु 1833 के अधिनियम एवं 1850 के ब्रिटिश सम्राज्ञी की इस स्पष्ट घोषणा के बावजूद कि भारतीयों को वर्ण, जाति, भाषा या धर्म आदि के आधार पर कोई पद प्रदान करने से वंचित नहीं किया जायेगा, शिक्षित भारतीयों को उच्च पदों से दूर रखने की हर संभव कोशिश की जाती रही। इससे शिक्षित भारतीय असंतुष्ट हो गये। अंग्रेजों की इस कथनी और करनी का अंतर अनेक भारतीयों को प्रतिष्ठित ‘भारतीय नागरिक सेवा ञ परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात उन्हें सेवा का अवसर न देना या किसी छोटी सी गलती के फलस्वरूप उन्हें नौकरी के लिए अयोग्य घोषित कर देना ऐसी ही घटनाएं थी। अरविन्द घोष को परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात घुड़सवारी में प्रवीण न होने का आरोप लगाकर नौकरी से वंचित कर दिया गया। जब 1877 में इसी प्रतियोगी परीक्षा हेतु परीक्षार्थियों की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 कर दी गई तो शिक्षित भारतीय नवयुवकों में अत्यधिक अंसतोष फैला क्योंकि योग्यता रखते हुये भी उन्हें उच्च पदों से वंचित रखने की यह एक चाल थी। ब्रिटिश शासन के इस अवांछनीय कदम से भारतीय नवयुवक राष्ट्रीय आन्दोलन हेतु कटिबद्ध हो गये। ब्रिटिश शासन के इस कदम का विरोध करने के लिये सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने भारत का दौरा किया और जनता को इन अन्यायों का विरोध करने के लिये प्रेरित किया। भारत की इन शिकायतों को ब्रिटिश सरकार के समक्ष रखने हेतु लाल मोहन घोष को इंग्लैंड भेजा गया। इस प्रकार इस आंदोलन ने राष्ट्रीय जाग्रति फैलाने में अपना योगदान दिया।
  6. भारत का आर्थिक शोषण:- अंग्रेज भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से आये थे और यहाँ के शासकों की कमजोरी का फायदा उठाकर वे राजनीतिक क्षेत्र में भी सर्वेसर्वा बन गये। राजनीतिक क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित होने से उन्हें भारत का आर्थिक शोषण करने में भी सरलता हुई। अंग्रेजों के इस आर्थिक शोषण से भारत के उद्योगों एवं कृषि का नाश तो हुआ ही साथ ही व्यापार पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा। प्रतिबंधों के बावजूद भारतीय अखबारों से देशभक्ति और स्वतंत्रता प्राप्ति की धारा फूटती थी। अखबारों पर अंग्रेजों का कितना दबाब था और इसके लिये ’स्वराज’ द्वारा अपने लिये प्रकाशित संपादक के विज्ञापन का उल्लेख भर करना पर्याप्त होगा । इस विज्ञापन के अनुसार, ‘‘चाहिए स्वराज के लिये एक संपादक, वेतन दो सूखी रोटियाँ, एक ग्लास ठंडा पानी और हर सम्पादकीय के लिये दस साल जेल । “ब्रिटिश बर्बरता का जबाब अपनी कलम के माध्यम से देने वालों में प्रमुख समाचार पत्र थे-हिन्दू पैट्रियाट, अमृत बाजार पत्रिका, इंडियन मिरर, बंगालीसोम, प्रकाश,संजीवनी एडवोकेट, आजाद, हिन्दुस्तानी, रास गोफ्तार, पयामे आजादी, नेटिव ओपेनियन, इंदु प्रकाश, मराठा, केसरी, हिन्दू,स्वदेश मिलन, आंध्रप्रकाशिका, केरल पत्रिका, ट्रिब्यून कोहेनूर आदि। इन अखबारों की भूमिका का उल्लेख करते हुए डा. धर्मवीर भारती कहते हैं-‘‘स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता की परंपरा और भी परवान चढ़ती गयी। वह चाहे क्रांतिकारियों का सशस्त्र आंदोलन हो या गाँधीजी का सत्याग्रह, ये अखबार उनके माध्यम थे। जन जागरण के अग्रदूत थे, रोज जमानत माँगी जाती थी रोज-रोज पुलिस छापे मारती थी। संपादक का एक पाँव जेल में रहता था।“ इन समाचार पत्रों के अतिरिक्त अनेक लेखकों ने अपनी लेखनी के माध्यम से भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना भरी। इनमें बंकिमचंन्द्र की ‘आनंदमठ‘ और उनका गीत ‘वन्दे मातरम्‘ विशेष उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त मधुसूदन दा ने बंगाली में, भारतेन्दु हरीशचंद्र, माखनलाल चतुर्वेदी एव मैथिलीषरण गुप्त ने हिन्दी में, चिपलूणकर ने मराठी में, भारती ने तमिल में तथा अन्य लेखकों ने राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत श्रेष्ठ साहित्य का सृजन करके राष्ट्रीय आंदोलन में जोश भरा। भारतेन्दु हरिष्चन्द्र ने अपने प्रसिद्ध नाटक ‘भारत-दुर्दशा‘ (1876) में भारत की दुर्दशा का मार्मिक चित्रण किया है। ’कवि वचन सुधा’ में उन्होंने अनुरोध किया है कि भारतीयों! अब किसी हाल में भारत का धन विदेशों में मत जाने दो। इन सबके आधार पर प्रो0 विपिन चन्द्र के इस कथन को स्वीकार करने में तनिक भी संशय नहीं रह जाता कि ‘‘ प्रेस ही वह मुख्य माध्यम थी जिसके जरिए राष्ट्रवादी विचारधारा वाले भारतीयों ने देशभक्ति के सन्देश और आधुनिक आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों को प्रसारित किया और अखिल भारतीय चेतना का सृजन किया।“
  7. विदेशों से सम्पर्क:- अंग्रेजों द्वारा शिक्षा को प्रोत्साहन दिये जाने का एक सुखद परिणाम यह हुआ कि भारतीयों का विदेशों से संपर्क स्थापित हुआ। यह बात अलग है कि यह विदेश भ्रमण शिक्षा, नौकरी एवं भ्रमण जैसे कई उद्देश्यों के तहत होता था। परन्तु सभी भारतीयों ने वहाँ जाकर स्थानीय लोकतांत्रिक विचारों, सिद्धांतों एवं संस्थाओं का अध्ययन किया और उनके व्यावहारिक पक्षों से भी अवगत हुए। फलस्वरूप उन्हें स्वतंत्रता, समानता और प्रजातंत्र के विषय में जानकारी हुई। श्री गुरूमुख निहाल सिंह लिखते हैं कि-‘‘ इंग्लैंड में उन्हें स्वतंत्र राजनीतिक संस्थाओं की कार्य विधि का गहरा ज्ञान प्राप्त हो जाता था। वे स्वतंत्रता और स्वाधीनता का मूल्य समझ जाते थे तथा उनके मन में जगी हुई दासता की मनोवृत्ति घट जाती थी।“ इस प्रकार भारतीयों का विदेश भ्रमण उनकी स्वतंत्रता प्राप्ति में सहायक बना।
  8. विदेशी घटनाओं का सकारात्मक प्रभाव:- इसी समय विदेशों में कई घटनाएं घटी जिसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। इन घटनाओं में इंग्लैंड में सुधार कानूनों का पारित होना, अमेरिका में दास प्रथा समाप्त होना, फ्रांस में तृतीय गणतंत्र की स्थापना, इटली, जर्मनी, रोमानिया तथा सर्विया के राजनीतिक आंदोलन शामिल थे। इन आंदोलनों से भारतीयों को प्रेरणा मिली और उनके अंदर एक विश्वास जागा कि वे भी अंग्रेजों के खिलाफ एक सफल आंदोलन चलाकर उन्हें भारत से खदेड़ सकते हैं। आर. सी. मजूमदार के शब्दों में ‘‘ भारतीय सीमा से बाहर घटित इन घटनाओं ने स्वभावतः भारतीय राष्ट्रवाद की धारा को प्रभावित किया ।“
  9. सामाजिक परिवर्तन:- पश्चात संस्कृति एवं आधुनिक शिक्षा नीति से परिचित होने के पश्चात भारतीय समाज में भी काफी परिवर्तन हुए। पश्चात प्रभाव एवं ब्रिटिश शासन द्वारा लागू सुधारों के फलस्वरूप भारतीयों के दिमाग में पुरानी कुरीतियों एवं अन्ध विश्वासों का स्थान एक नये प्रकाश ने ले लिया और अब वे हर बात को विज्ञान की कसौटी पर परखने लगे। सती प्रथा की समाप्ति, स्त्रियों एवं समाज के अन्य वर्गों के प्रति नया दृष्टिकोण, बाल विवाह का विरोध जैसे सुधारात्मक कार्यों से भारतीय समाज के कदम भी आधुनिकीकरण की दिशा में बढ़ चले। इससे समाज में एक नयी चेतना उत्पन्न हुई जिसने राष्ट्रीय चेतना को मजबूत किया। इन सुधारों में सामाजिक एवं धार्मिक संगठनों का भी प्रमुख हाथ रहा है। जिसे स्वीकार करते हुए डा0 अनिल सील कहते है,‘‘ धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक विचारधारा के पनपने के पहले ही इन सभाओं द्वारा शिक्षित भारतीयों को राष्ट्रीय आधार पर सोचने और संगठित होने की आदत पड़ी।“
  10. जापान द्वारा रूस की पराजय:- 1940 के युद्ध में जब एशिया के एक छोटे से देश जापान ने यूरोप के एक बड़े देश रूस को पराजित किया तो भारतीयों के नैतिक साहस में भरपूर वृद्धि हुई। क्योंकि उस समय यूरोपीय राष्ट्र अजेय समझे जाते थे और इस सोच के चलते एशियाई देशों के नागरिक स्वयं को हीन समझते थे। इस युद्ध ने एक तरफ यूरोपीय जातियों के दम्भ को तोड़ा तो दूसरी ओर एशिया के लोगों को उनकी क्षमता का भान कराया। भारतीयों के लिए भी अपनी क्षमता और साहस में वृद्धि करने का यह अच्छा साधन सिद्ध हुआ। शासकों का जातीय अहंकार:-अंग्रेज सदैव स्वयं को श्रेष्ठ एवं भारतीयों को निम्न जाति का समझकर व्यवहार करते थे जिससे भारत के लोगों में राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ। 1957 के विद्रोह के बाद तो अंग्रेज भारतीयों को ‘आधे वनमानुष आधे जंगली कहने लगे इससे दोनों के मध्य कटुता बढ़ी। भारतीयों के प्रति अंग्रेजों द्वारा अपनायी गयी इन नीतियों का कारण बताते हुए मि. गैरेट लिखते हैं-‘‘ उन्होंने अपने लिये एक विचित्र व्यवहार नीति अपनाई, जिसके तीन महत्वपूर्ण सिद्धांत थे, प्रथम यह है कि एक यूरोपियन का जीवन अनेक भारतीयों के जीवन के बराबर है। द्वितीय प्राच्य देशवासियों पर केवल भय के आधार पर ही शासन किया जा सकता है। तृतीय वे यहाँ लोक हित के लिये नहीं ‘वरन अपने निजी लाभ एवं ऐश्वर्य के लिये आये हैं। “ अंग्रेजों की इस निम्न कोटि की सोच का परिणाम यह हुआ कि भारतीयों के स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान पर आये दिन आक्रमण होने लगे। भारतीयों को जान से मार देने पर भी किसी कठोर दण्ड की व्यवस्था नहीं थी, बल्कि वे सस्ते में ही छूट जाया करते थे। जातीय अहंकार का एक उदाहरण जी0ओ0 टेवेलियन के इस कथन में भी है, ‘‘कचहरी में उनके एक भी साक्ष्य का वजन असंख्य हिन्दुओं के साक्ष्य से अधिक होता है। यह ऐसी परिस्थिति है, जो एक बेईमान और लोभी अंग्रेज के हाथों में सत्ता का एक भयंकर उपकरण रख देती है। “अंग्रेजों के इस जातीय अहंकार के कारण भारतीयो के साथ उनके सम्बंघ बद से बदतर होते गये।
  11. लार्ड लिटन की दमनकारी नीति:- लिटन सन् 1876-80 के दौरान भारत का वायसराय था। उसके शासनकाल में कई ऐसी घटनाएँ हुई जिनसे भारतीय राष्ट्रवाद को बल प्राप्त हुआ। प्रो0 विपिन चन्द्र के शब्दों में, ’‘उन्नीसवीं शताब्दी के आठवें दशक तक यह स्पष्ट हो गया था कि भारतीय राजनीतिक रंगमंच पर एक प्रमुख शक्ति के रूप में आने के लिये भारतीय राष्ट्रवाद ने पर्याप्त ताकत का संवेग प्राप्त कर लिया है पर लार्ड लिटन के प्रतिक्रियावादी शासन ने उसे स्पष्ट स्वरूप प्रदान किया। “लिटन के शासनकाल में ब्रिटेन से आने वाले कपड़ों पर से आयात कर को हटा दिया गया इससे भारतीय कपड़ा उद्योग पर बुरा असर पड़ा। अफ़ग़ानिस्तान के साथ एवं एवं लम्बे युद्ध ने भी ब्रिटिश शासन के प्रति भारतीयों की नाराजगी बढ़ायी क्योंकि इस युद्ध में भारतीय धन के अपव्यय से रुष्ट थे। इन सबसे बढ़कर सन् 1877 में दिल्ली के दरबार का आयोजन भारतीयों को अपने जले पर नमक छिड़कने के समान लगा। जिस समय यह आयोजन हुआ उसी समय दक्षिण भारत में भीषण अकाल पड़ा था। उस समय ब्रिटिश सरकार द्वारा राहत उपाय करने के स्थान पर ऐसे आयोजन करना जिनका उद्देश्य महारानी विक्टोरिया को ‘ भारत की सम्राज्ञी ‘ घोषित करना था, भारतीयों के गले नहीं उतरा। अंग्रेजों के इस कृत्य की आलोचना में भारतीयों का साथ समाचार पत्रों ने भी दिया। एक समाचार पत्र की टिप्पणी थी-‘‘ जब रोम जल रहा था तब नीरो बाँसुरी बजा रहा था ।‘‘ भारत के जन आंदोलन को समाप्त करने के उद्देश्य से ’वर्नाकुलर प्रेस एक्ट’ एवं शस्त्र कानून’ पारित किये गये पर इतिहास गवाह है कि इन कानूनों ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के बिखराव में नहीं बल्कि उसे संगठित करने में सहायता पहुँचायी। जातीय अहंकार की सोच से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने शस्त्र कानून’ पारित किया जिसके अनुसार बिना लाइसेंस के भारतीय शस्त्र नहीं रख सकते थे पर अंग्रेजों पर इस तरह का कोई बन्धन नहीं था। सुरेंद्र नाथ बनर्जी के शब्दों में, ’’इस अधिनियम ने हमारे माथे पर जातीय हीनता की छाप लगा दी थी। “ इण्डियन सिविल सर्विस की परीक्षा के उम्मीदवारों की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष करने के कृत्य से अंग्रेजों ने शिक्षित भारतीयों के एक बड़े वर्ग को अपने विरोधियों की जमात में खड़ा कर दिया था। इस प्रकार लिटन के कार्यों ने ब्रिटिश शासन के पतन को अवश्यम्भावी बना दिया। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का यह कथन ठीक है कि, ‘‘लार्ड लिटन के प्रतिक्रियावादी प्रशासन ने जनता को उसकी उदासीनता के दृष्टिकोण से जगाया है और जनजीवन को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। राजनीतिक प्रगति के उद्भव में बहुधा खराब शासक आशीर्वाद होते हैं। वे समुदाय को जगाने में मदद करते हैं। जिसमें वर्षों का आंदोलन भी असफल हो जाता हैं। “
  12. इलबर्ट बिल पर विवाद:- इलवर्ट बिल के विवाद से कम से कम भारतीयों को एक बात तो स्पष्ट हो गयी कि अब बिना संगठित आंदोलन के कुछ होने वाला नहीं है इलबर्ट बिल लार्ड रिवन के शासनकाल में तत्कालीन विधि सदस्य मि.इल्बर्ट ने रखा था जिसमें भारतीय मजिस्ट्रेटों एवं जजों को अंग्रेजों के मुकदमे की सुनवाई और दण्ड देने के अधिकार का प्रस्ताव था पर अंग्रेजों का जातीय अहंकार यहाँ भी आड़े आया अंग्रेज इस बात की कल्पना करके सहर उठे कि काली चमड़ी वाले भारतीय अदालत में उन्हें खड़ा करके दंडित करेंगे। इस स्थिति से बचने के लिए अंग्रेजों ने आंदोलन किया। फलस्वरूप बिल संशोधित हो गया अब यह प्रावधान किया गया कि भारतीय जज अंग्रेजों के मुकदमे की सुनवाई उसी जूरी की सहायता से कर सकते है जिसके कम से कम आधे सदस्य अंग्रेज हों। इस संबंध में हेनरी काटन ने कहा,‘‘ इस विधेयक और इसके विरोध में किये गये आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता पर जो प्रभाव डाला वह प्रभाव विधेयक के मूल रूप में पारित होने पर कभी नहीं हो सकता था।“ उपर्युक्त सभी कारण भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को पुष्पित और पल्लवित करने में सहायक रहे, इस बात से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता है। यह बात अवश्य है कि इनमें से कुछ ने सीधे सीधे राष्ट्रवादी भावना को उभारा तो कुछ ने ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित की जिनमें इन भावनाओं को विकसित होने का सुअवसर मिल सका। अंग्रेजों ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को जितना दबाने की कोशिश की वह उतना ही उग्र से उग्रतर होता गया। इस आंदोलन को अखिल भारतीय बनाने में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का बहुत बड़ा योगदान था ।


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इस्लाम की आस्था और वन्देमातरम्, कितना उचितऔर कितना अनुचित?



वन्देमातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में अंगीकार किये जाने के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में चल रहे समापन समारोह के अवसर पर देशभर में शैक्षणिक संस्थानों में सात सितम्बर को सामूहिक वन्देमातरम् गाए जाने के सम्बंध में केन्द्र सरकार ने जो आदेश जारी किया है, उस के विरूद्ध कुछ अलगाववादी मुसलमानों ने बवाल मचा दिया है। इन तत्वों का यह कहना है कि यह गीत इस्लाम विरोधी है। अलगाववादी ताकतों का लक्ष्य 1905 में कुछ दूसरा था और लगता है आज भी दूसरा है। केवल राष्ट्रीय प्रवाह के विरूद्ध अपनी सोच को मान्यता दिलाना उनकी नियत है। नाम इस्लाम का है लेकिन काम राजनीति और कुटिल कूटनीति का है। इस्लाम के नाम पर आजादी से पहल और आजादी के बाद अनेक फतवे जारी हुए हैं। उन में वन्दे मातरम् का विरोधी भी उनका मुख्य लक्ष्य रहा है। सवाल यह उठता है कि वन्देमातरम् विरोधी जो ताकतें इस प्रकार की बातें कर रही है उनमें कितनी सच्चाई है उसका इस्लामी दृष्टिकोण से जायजा लेना अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं है तो फिर इन तत्वों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही होनी चाहिये। आतंकवाद को ताकत पहुचाने वाली ऐसी हरकतें सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए घातक है अतएव उस पर गहराई से विचार होना चाहिये।

वन्देमातरम् की हर पंक्ति मां भारती का गुणगान करती है। न केवल वसुंधरा की प्रशंसा है बल्कि कवि एक जीती जागती देवी के रूप में भारत को प्रस्तुत कर रहा है। उसकी शक्ति क्या है और वह अपने शत्रु को किस प्रकार पराजित करने की क्षमता रखती है इसका रोमांचकारी वर्णन है। वन्देमातरम् केवल गीत नहीं बल्कि भारत के यथार्थ को प्रस्तुत करने वाला एक दस्तावेज है। भारत को पहचानने के लिये बंकिम अपनी मां को पहचाने का आह्वान कर रहे हैं। इसका सम्पूर्ण उद्देश्य अपने देश की धरती को स्वतंत्र करवाना है। इसलिये यहां जो भी सांस लेता है उसका यह धर्म है कि वह अपना सर्वस्व अर्पित कर दे।

कोई यह सवाल उठा सकता है कि भारत में कोई एक धर्म, एक जाति, एक आस्था के व्यक्ति नहीं है जो इस देश को माता के समान पूज्यनीय माने। एकेश्वरवादी इसके लिये कह सकते हैं कि यह हमारी आस्था और विचारधारा के विरूद्ध है। लेकिन जिस निर्गुण निराकार में उन्हें विश्वास है वह भी तो अपार शक्ति का मालिक है। किसी के गुण अथवा ताकत को स्वीकार करना या उस का आभास होना कोई एकेश्वरवाद के सिद्धांत को ठुकराना नहीं है।

वन्देमातरम् पर सबसे अधिक विरोध मुठ्ठीभर मुस्लिम बंधुओं को है। वे यह सवाल कर सकते हैं कि यहां तो इसका वर्णन कुछ इस प्रकार से किया जा रहा है कि मानो वह साक्षात देवी है और जिन अलंकारों का हम उपयोग कर रहे हैं वह केवल उसकी पूजा करने के समान है। जब इस बहस को शुरू करते हैं तो इस्लाम के सिद्धांतों पर वन्देमातरम् खरा उतरता है। क्या इस्लाम में मां को पूज्यनीय नहीं कहा गया है? पैगम्बर मोहम्मद साहब की हदीस है-- मां के पैर के नीचे स्वर्ग है’ यदि इस्लाम सगुण साकार के विरूद्ध है तो फिर मां और उसके पांव की कल्पना क्या किसी चित्र को हमारी आंखों के सामने नहीं उभारती। अपनी मां का तो शरीर है लेकिन वन्देमातरम् में जिस मां की वंदना की बात की जाती है उसका न तो शरीर है, न रंग है और न रूप है फिर उसे देवी के रूप में पूजने का सवाल कहां आता है? यहां तो केवल अलंकार है और विशेषण हैं इसलिये उसका आदर है। इस आदर को पूज्यनीय शब्द में व्यक्त किया जाए तो क्या उसकी पूजा किसी मूर्ति की पूजा के समान हो सकता है। भारत में जब बादशाहत का दौर था उस समय हर शहंशाह को ‘जिल्ले इलाही’ (उदाहरण के लिये मुगले आजम फिल्म) कहा जाता था। इस का अर्थ होता है ईश्वर का दिव्य प्रकाश। क्या यह शब्द किसी मूर्ति की प्रशंसा को प्रकट नहीं करता। यहां तो साक्षात् हाड़ मांस के आदमी के लिये इस शब्द का उपयोग किया जा रहा है। दूसरे शब्दों में इस शब्द के माध्यम से तो आप पत्थर या देश की ही नहीं अपितु एक इंसान को ईश्वर रूप में मान रहे हैं। इस तर्क के आधार पर तो तो यह कहना होगा कि वन्देमातरम् से अधिक इस्लाम के अनुयाइयों के लिये जिल्ले इलाही शब्द आपत्तिजनक होना चाहिये। यदि वे इसे विशेषण मानते हैं तो भारत के विशेषणों को स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये। व्यक्ति के चेहरे पर ईश्वरीय प्रकाश हो सकता है तो फिर किसी मां की प्रशंसा करने के लिये उसे सहस्त्र हाथों वाली भी कहा जा सकता है जो अपने बाहुबल से शत्रु का नाश करने वाली है। इस्लाम अपने झंडे में चांद और तारे को महत्व देता है। उस झंडे को सलामी दी जाती है। उस का राष्ट्रीय सम्मान होता है। ध्वज का अपमान करने वाले को दंडित किया जाता  है। क्या हरा रंग और यह चांद सितारे इस ब्रह्मांड के अंग नहीं है। यदि ध्वज को सलामी दी जा सकती है तो फिर धरती माता को प्रणाम क्यों नहीं किया जाता। यह प्रणाम ही तो इसकी वंदना है। इसलिये सलामी के रूप में आकाश के चांद तारे पूज्यनीय है तो फिर धरती की अन्य वस्तुओं को पूज्यनीय माने जाने से कैसे इंकार किया जा सकता है? भारतीय परिवेश में भक्ति प्रदर्शन का अर्थ पूजा होता है। पूजा इबादत का समानार्थी शब्द है इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा। बंगला भाषा के अनेक मुसलमान कवि और लेखकों ने इंसान के बारे में वंदना शब्द का प्रयोग किया है। कोई भी बंगाली मुसलमान वंदना शब्द से परहेज नहीं करता। लेकिन उसे अरबी के माध्यम से प्रयोग किया जाएगा तो मुसलमान उस पर अवश्य आपत्ति उठाएगा। क्योंकि समय, काल और देश के अनुसार हर स्थान पर अपने-अपने शब्द हैं और उनका उपयोग भी अपने-अपने परिवेश में होता है।

प्रसिद्ध बंगाली विद्वान मौलाना अकरम खान साहब की मुख्य कृति ‘मोस्तापाचरित’ में पृष्ठ 1575 पर जहां अरब देश का भौगोलिक वर्णन किया है वहां वे लिखते हैं.... अर्थात कवि ने अरब को ‘मां’ कह कर सम्बोधित किया है।

देश को जब हम मां कहते हैं तब रूपक अर्थ में ही कहते हैं। देश को मां के रूप में सम्बोधन करने का मूल उद्देश्य है। यहां हम देश को ‘खुदा’ नहीं कहते। यदि हमारी मां को मां कह कर पुकारने में कोई दोष नहीं होता तो रूपक भाव से देश को मां कहने में भी कोई दोष नहीं हो सकता। देश भक्ति, देश-पूजा, देश वंदना, देश-मातृका एक ही प्रकार के विभिन्न शब्द हैं जो इस्लाम की दृष्टि में पूर्णतया मर्यादित हैं। इसलिये वंदेमातरम् गीत को गाना न तो ‘बुतपरस्ती’ है और न ही इस्लाम विरोधी।

देश को मां कहकर सम्बोधित करने की प्रथा अरबी और फारसी में बहुत पुरानी है। ‘उम्मुल कोरा’ (ग्राम्य जननी) उम्मुल मूमिनीन (मूमिनों की जननी) उम्मुल किताब (किताबों की जननी) यानी यह सभी मां के रूप में है तो फिर वन्देमातरम् शब्द का विरोध कितना हास्यास्पद है।

वन्देमातरम् यदि इसलिये आपत्तिजनक है क्योंकि इस में देश का गुणगान है तो फिर अरब भूखंड के अनेक देशों का भी उन के राष्ट्रगीत में वर्णन है। उजबिकिस्तान हो या फिर किरगिस्तान सभी स्थान पर उनके राष्ट्रगीत में उनके खेत, उनके पशु पक्षी और उन के नदी पहाड़ का सुन्दर वर्णन मिलता है। यमन अपने खच्चर को इसी प्रकार प्यार करता है जिस तरह से कोई हिन्दू गाय को। यमन के राष्ट्रगीत में कहा गया है कि खच्चर उसके जीवन की रेखा है। नंगे पर्वत दूर-दूर तक फैले हुए हैं जिनमें कोई स्थान पर झरने फूटते हुए दिखलाई पड़ते हैं। जिस तरह किसी माता के स्तन से ममता फूट रही हो। इजिप्ट के राष्ट्र गीत में तो लाल सागर, भूमध्य सागर और स्वेज का वर्णन पढ़ने को मिलता हैं नील नदी उनके लिये गंगा के समान पवित्र है। इजिप्टवासी की यह इच्छा है कि मरने के पश्चात स्वर्ग में भी उसे नील का पानी पीने को मिले। पिरामिड को अपनी शान और पुरखों की विरासत के रूप में अपने राष्ट्रगीत में याद करता है।

डाक्टर इकबाल ने अपनी कविता ‘नया शिवालय’ में लिखा है...... पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है.... खाके वतन का मुझको हर जर्रा देवता है। डाक्टर इकबाल केवल पत्थर से बनी मूर्तियों में ईश्वर का प्रतिबिम्ब नहीं देखते हैं उनके लिये तो सारे देश हिन्दुस्तान का हर कण देवता है। क्या वन्दे मातरम् का विरोध करने वाले यह कह सकते हैं कि इकबाल ने भारत को देवता कहकर इस्लाम विरोधी भावना व्यक्त की है? वन्दे मातरम् में भारत की हर वस्तु की प्रशंसा ही इस गीत की आत्मा है। पाकिस्तान में प्रथम राष्ट्र गीत मोहम्मद अली जिन्ना ने लाहौर के तत्कालीन प्रसिद्ध कवि जगन्नाथ प्रसाद आजाद से लिखवाया था। डेढ़ साल के बाद लियाकत ने उसे बदल दिया। राष्ट्रगीत पाकिस्तान में तीन बार बदला गया है। दुनिया के हर देश की जनता जब अपने देश के बखान करती है और उसे अपना ईमान मानती है तब ऐसी स्थिति में भारत की कोटि-कोटि जनता कलकल निनाद करते हुए वन्देमातरम् को अपने दिल की धडकने बनाए रखे तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिये। क्योंकि राष्ट्र की वंदना हमारा धर्म भी है, कर्म भी और जीवन का मर्म भी।

श्री मुजफ्फर हुसैन, प्रख्यात देशभक्त मुस्लिम पत्रकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन)


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सरफरोशी की तमन्ना का मंत्र बना वन्देमातरम्



सन् 1905 में बंग भंग आंदोलन प्रारंभ होने के साथ ही बंगाल सचिव लाइल का यह आदेश लागू हो गया कि जो भी वंदेमातरम का उद्घोष करेगा उसे कोड़े लगाए जाएंगे, जुर्माना होगा और स्कूल से निकाल दिया जाएगा। इसके बाद स्थिति यह हो गई कि ढाका के एक स्कूल में छात्रों से पांच सौ बार लिखवाया गया- वंदेमातरम् कहना सबसे बड़ा पाप हैं पर अधिकतर छात्र लिखते थे- वंदेमातरम् कहना सबसे बड़ा धर्म है। कोलकाता में नेशनल कालेज के एक छात्र सुशील सेन को वंदेमातरम् कहने पर पंद्रह बेंत मारने की सजा मिली और उसके अगले दिन स्टेटसमैन अखबार ने लिखा कि प्रत्येक बेंत की मार पर सुशील सेन के मुख से एक ही नारा निकलता था- वंदेमातरम्। तब काली प्रसन्न जैसे कवि गा उठे-
बेंत मेरे कि मां भुलाबि। आमरा कि माएर सेई छेले
मोदेर जीवन जाय जेन चले वंदेमातरम् बोले।
अर्थात बेंत मारकर क्या मां को भुलाएगा, क्या हम मां की ऐसी संतान हैं? वंदेमातरम् बोलते हुए हमारा जीवन भले ही चला जाए पर वंदेमातरम् बोलेंगे।

इसकी गूंज सात समुद्र पार करके लंदन की धरती पर पहुंची, जहां मदन लाल ढींगरा ने अपना अंतिम वक्तव्य वंदेमातरम् के साथ ही पूरा किया। उसने कहा- भारत वर्ष की धरती को एक ही बात सीखनी है कि कैसे मरना है और यह स्वयं मरकर ही सीखा जा सकता है। इसलिए मैं मर रहा हूँ-वंदेमातरम्।

आखिर क्या है वंदेमातरम् जिसकी चोट अंग्रेज की छाती पर गोली से भी गहरी होती थी। बंगाल के बंकिम चंद्र ने अपने उपन्यास‘आनंद मठ’ में भारत माता को मानो साकार रूप ही दे दिया। बंकिम ने एक वक्तव्य में कहा था- मेरा आनंद मठ कभी सारे देश में एक सच्चाई के रूप में प्रकट होगा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक मात्र जयघोष वंदेमातरम् था।

हम नहीं जानते कि भारत सरकार के गणित का आधार क्या है पर हमारी सरकार की इच्छा है कि वर्ष 2007 को वंदेमातरम् की शताब्दी के रूप में मनाया जाए। वैसे सारा देश एक बार 1996 में वंदेमातरम् की शताब्दी मना चुका है। वर्ष 1882 में श्री बंकिम चंद्र के आनंद मठ उपन्यास का प्रकाशन हुआ। यह गीत उसी का भारतग है। फिर 1896 में पहली बार यह गीत कोलकाता में श्री बाल गंगाधर तिलक की उपस्थिति में कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया और स्वयं श्री टैगोर ने इस गीत का गायन किया। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही सरकार को यह भी याद नहीं कि इसके अनुसार सन 1996 वंदेमातरम का सौवां वर्ष था। 7 अगस्त 1905 का दिन तो भुलाया ही नहीं जा सकता, जब बंग-भंग आंदोलन के विरोध में  पूरा बंगाल ही गरज उठा था और कोलकाता के कालेज चैक में पचास हजार से भी ज्यादा भारत के बेटे-बेटियां वंदेमारतम् कहकर स्वतंत्रता के लिए बलिपथ पर चल पड़े । इन्हीं दिनों मैडम भीका जी कामा ने एमस्र्डम में वंदेमातरम् वाला भारत का ध्वज फहराया। फिर भी भारत सरकार 2007 को ही शताब्दी मना रही है।

भारत के मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने यह घोषण की कि सभी स्कूलों में वंदेमातरम गाया जाए और साथ ही सांप्रदायिक शक्तियों के आगे घुटने टेकते हुए यह भी कह दिया कि जो इसे नहीं गाना चाहता, न गाए। अफसोस तो यह है कि देश के गृह राज्य मंत्री श्री जायसवाल भी राष्ट्रीय गान के गौरव का सम्मान रक्षण नहीं कर पाए। कौन नहीं जानता कि बंग-भंग में धर्म, संप्रदाय, जाति का भेद भुलाकर वंदेमातरम के साथ ही अंग्रेजों से लोहा लिया गया था और अब एक शाही इमाम के विरोध को पूरे मुस्लिम समाज का विरोध मानकर सरकार ने यह निंदनीय-लज्जाजनक आदेश दिया है।

प्रसिद्ध लेखक एवं क्रांतिकारी हेम चंद ने कहा था- पहले हम इस बात को समझ नहीं पाए थे कि वंदेमातरम गीत में इतनी शक्ति और भारतव छिपा है। अरविंद ने सत्य ही कहा था कि वंदेमातरम् के साथ सारा देश देशभक्ति को ही धर्म मानने लगा है। यह मंत्र भारत में ही नहीं सारे विश्व में फैल गया। 7 अगस्त 1905 को जब बंग भंग के विरोध में पचास हजार देशभक्त कोलकाता में इकट्ठे हुए तो अचानक ही एक स्वर गूंजा- वंदेमातरम और इसके साथ ही वंदेमातरम् क्रांति का प्रतीक बन गया। इस आंदोलन के मुख्य नेता सुरेंन्द्र नाथ बनर्जी ने कहा हमारे अंतर्मन की भारतवनाएं वंदेमातरम् के भारतव के साथ जुड़ जानी चाहिए।

आज स्वतंत्रता के साठवें वर्ष में वंदेमातरम् गीत गाना सांप्रदायिक माना जाने लगा है। जिस वंदेमातरम् के साथ क्रांतिकारी देशभक्त हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ जाते थे उसे ही स्वतंत्र भारत की सरकार एक संप्रदाय विशेष को न गाने की छूट दे रही है। दुर्भारतग्य से भारत के विभारतजन के साथ ही वंदेमातरम् का भी विभारतजन कर दिया गया। स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं को इस गीत के प्रथम भारतग में तो देशभक्ति दिखाई देती है, पर पिछले हिस्से में सांप्रदायिकता लगती है। आखिर क्या बुरा लिखा है इसमें? भारत की संतान भारत मां से यही तो कहती है न कि भारत मां तू ही मेरी भुजाओं की शक्ति है, तू ही मेरे हृदय की भक्ति है, तू धरनी है, भरनी है, सुंदर जल और सुंदर फल फूलों वाली है, तेरे करोड़ों बच्चे हैं, फिर तू कमजोर कैसी? हमें याद रखना होगा कि 15 अगस्त 1947 की सुबह आकाशवाणी से प्रसारित होने वाला पहला गीत वंदेमातरम था, जो पंडित ओंकार नाथ ने पूरा गाया था।

आज तो भारत स्वतंत्र है, पर जिस समय वंदेमातरम कहना अपराध माना जाता था उस समय राष्ट्र के महान नेता सुरेंद्र नाथ बनर्जी, विपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष वंदेमातरम के बैज सीने में लगाकर निकलते थे। अमृत बाजार पत्रिका के संपादक मोतीलाल घोष ने सिंह गर्जना करते हुए कहा था- चाहे सिर चला जाए मैं वंदेमातरम गाऊंगा। वीर सावरकर ने 1908 में इंग्लैंड में वंदेमातरम गुंजाया। मार्च 1907 को युगांतर दैनिक ने यह लिखा कि वंदेमातरम की गूंज ने शत्रु की हिम्मत छीन ली है, वे अब परास्त हो रहे हैं और भारत मां मुस्कुरा रही है। डा. हेगेवार बचपन से ही राष्ट्रभक्ति में रंगे हुए थे। नागपुर के नील सिटी स्कूल में पढ़ते समय उन्होंने सारे स्कूल में ही वंदेमातरम का जयघोष करवा दिया और दंडित हुए। वाराणसी की जेल में जब चंद्रशेखर आजाद को कोड़े मारे गए, तब भी वह वंदेमातरम ही बोलते रहे। 29 दिसंबर 1927 को जब अशफाख उल्ला खां को फांसी पर रबाया गया तब भी वह वंदेमातरम का नार ही लगाते रहे। कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में श्री विष्णु दिगंबर पालुसकर ने वंदेमातरम का गीत गाकर ही सम्मेलन का प्रारंभ करवाया।

कौन नहीं जानता कि स्वतंत्रता की बेदी पर प्राण देने वाले हरेक देशभक्त ने वंदेमातरम् से ही प्रेरणा ली थी। यह तो अंग्रेजों की कुटिल नीति थी, जिसने देश के हिंदू-मुसलमानों को अलग कर दिया। सच यह है कि बंग-भंग आंदोलन के समय मुस्लिम छात्र नेता लियाकत हुसैन कोलकाता के कालेज चैक में हर शाम को अपने साथियों सहित वंदेमातरम् के नारे लगाता और बेंत भी खाता था।

अब प्रश्न यह है कि जो वंदेमातरम् राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम का मंत्र बन गया था उसे स्वतंत्र भारत में सम्मान क्यों नहीं? बड़ी कठिनाई से वह दिन आया जब भारत सरकार ने स्कूलों में वंदेमातरम् गाने का संदेश दिया। आश्चर्य है कि राष्ट्रीय गीत गाने के लिए भी आदेश देना पड़ता है, पर साथ ही एक बार फिर विभारतजन कर दिया कि जो गाना चाहे वही गाए। जो लोग यह कहते हैं कि इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मां को प्रणाम नहीं किया जा सकता वह हजरत मुहम्मद साहब का यह वाक्य कैसे भूल गए कि दुनिया में अगर कही जन्नत है तो मां के चरणों में ही है और ए.आर.रहमान ने मां तुझे सलाम गाकर भारत संतान की रगों में एक नया जोश भर दिया। आश्चर्य यह है कि जहां जन-गण-मन के किसी अधिनायक की बात की गई है वह तो सबको स्वीकार है, पर जहां भारत भक्ति का स्वर है उस गीत को सांप्रदायिक कहा जाता है। अच्छा हो देश के यह तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता अपनी आंखों से संकीर्ण राजनीति का चश्मा उतारकर अपनी आत्मा को जरा उनके नजदीक ले जाएं जो एक बार वंदेमातरम् कहने के लिए फांसी चढ़ते थे, कोड़े खाते थे, रक्त की नदी पर करके भी राष्ट्रीय ध्वज फहराना चाहते थे, तब उन्हें अहसास होगा कि वंदेमातरम् के साथ भारत की आत्मा जुड़ी है, सांप्रदायिकता नहीं। यह भारत भक्ति का मंत्र है, किसी संप्रदाय विशेष का नहीं। जो आज इस गीत को न गाने की छूट देते हैं हो सकता है कल को वे तुष्टीकरण करते हुए राष्ट्र के अन्य प्रतीकों का भी अपमान करने की छूट दे दें। अभी से सावधान होना होगा।
लक्ष्मी कांता चावला, प्रसिद्ध स्तंभकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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