कबीर दास जी का परिचय एवं उनके काव्य की विशेषताएँ



कबीर दास जी का परिचय एवं उनके काव्य की विशेषताएँ 
Introduction of Kabir Das ji and the Characteristics of his Poetry

कबीर दास का जीवन परिचय
कबीर संतमत के प्रवर्तक और संत काव्य के सर्वश्रेष्ठ कवि है। विलक्षण के धनी और समाज - सुधारक संत कबीर हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। इनके समान सशक्त और क्रांतिकारी कोई अन्य कवि हिन्दी साहित्य में दिखाई नहीं पड़ता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर दास के काव्य और व्यक्तित्व का आकलन करते हुए लिखा है - कबीर की उक्तियों में कहीं - कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है। प्रतिभा उनमें बडी प्रखर थी, इसमें संदेह नहीं। कबीर की विलक्षण प्रतिभा पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - हिन्दी साहित्य के हजार वर्षो के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। उनके संत रूप के साथ ही उनका कविरूप बराबर चलता रहता है।
PIYF Rishikesh India salute to nobel sage Kabīr (c. 1440 – c. 1518) was a mystic poet and saint of India,
कबीर की जन्मतिथि के सम्बन्ध में कई मत प्रचलित है, पर अधिक मान्य मत - डॉ. श्यामसुन्दर दास और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का है। इन विद्वानों ने कबीर का जन्म (कबीर दास जयंती) सम्वत् 1456 वि. (सन् 1389 ई.) माना है। इनके जन्म के सम्बध में कहा जाता है कि कबीर काशी की एक ब्राह्मणी विधवा की संतान थे। समाज के डर से ब्राह्मणों ने अपने नवजात पुत्र को एक तालाब के किनारे छोड़ दिया था, जो नीरु जुलाहे और उसकी पत्नी नीमा को जलाशय के पास प्राप्त हुआ। विद्वानों के मतानुसार कबीर का अवसान मगहर में सम्वत् 1575 वि.(सन् 1518 ई.) में है।
Dhan Dhan Jai Satguru Kabir Ji Maharaj
कबीर की जितनी भी रचनाएं मिलती हैं उनके शिष्यों ने इन्हे बीजक नामक ग्रंथ में संकलित किया है। इसी बीजक के तीन भाग हैं - साख, शबर और रमैनी । साखी में संग्रहित साखियों की संख्या 809 है। सबद के अंतर्गत 350 पद संकलित है। साखी शब्द का प्रयोग कबीर ने संसार की समस्याओं को सुलझाने के लिए किया है। सबद कबीर के गेय पद है। रमैनी के ईश्वर सम्बन्धी, शरीर एवं आत्मा उद्धार सम्बन्धी विचारों का संकलन है। कबीर के निर्गुण भक्ति मार्ग के अनुयायी थे और वैष्णव भक्त थे। रामानंद से शिष्यत्व ग्रहण करने के कारण कबीर के हृदय में वैष्णवों के लिए अत्यधिक आदर था। कबीर ने धार्मिक पाखण्डों, सामाजिक कुरीतियों, अनाचारों, पारस्परिक विरोधों आदि को दूर करने का सराहनीय कार्य किया है। कबीर की भाषा में सरलता एवं सादगी है, उसमें नूतन प्रकाश देने की अद्भुत शक्ति है। उनका साहित्य जन-जीवन को उन्नत बनाने वाला, मानवतावाद का पोषाक, विश्व -बन्धुत्व की भावना जाग्रत करने वाला है। इसी कारण हिन्दी सन्त काव्यधारा में उनका स्थान सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
Kabir Dohas
 


कबीर काव्य की विशेषताएँ
कबीर की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए 3000 शब्दों में -भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में भक्ति आन्दोलन को देखा-परखा जाता है। यह इतिहास की महत्वपूर्ण घटना निम्नलिखित विशेषताओं के कारण है:- 
जनता की एकता की स्वीकृति -भक्ति आन्दोलन ने अपने धार्मिक विचारों के बावजूद जनता की एकता को स्वीकार किया। यह स्वीकृति वैचारिक और व्यावहारिक दोनों आधारों पर है। रामानन्द की शिष्य परम्परा में कबीर, रैदास, दादू, तुकाराम तथा तुलसी समान रूप से स्वीकृत हैं, तथा मीरा ने अपने गुरु के रूप में रैदास को स्वीकार किया यह भी एक मिसाल है। दूसरे कबीर कहते हैं- "ना मैं हिन्दू ना मुसलमान" और तुलसी जब भील-भीलनी, किरात जैसी जंगली जातियों को राम के द्वारा स्वीकार और सम्मानित करवाते हैं तो इसी एकता की बात करते हैं। 

ईश्वर के समक्ष सबकी समानता -भक्ति आन्दोलन का यह एक ऐसा वैचारिक आधार है जिसके माध्यम से वह ऊँच-नीच एवं जाति और वर्ण-भेद के आधार पर विभाजित मानवता की समानता को एक नैतिक और मजबूत आधार प्रदान करते हैं। समाज में व्याप्त असमानताओं का आधार भी ईश्वर की भक्ति को बनाया गया था- भक्ति संतों ने उन्हीं के हथियारों से उन पर वार किया और कहा कि- 'ब्रह्म' के अंश सभी जीव हैं तो फिर यह विषमता क्यों? कि किसी को ईश्वर उपासना का सम्पूर्ण अधिकार और किसी को बिल्कुल नहीं, इतना ही नहीं इसी आधार पर समाज को रहन-सहन, खान-पान, छुआछूत एवं आर्थिक विषमताओं से विभाजित किया गया था। भक्तों ने चाहे वे निर्गुण हों चाहे सगुण सभी ने ईश्वर के समक्ष मानव मात्र की समानता को एक स्वर से स्वीकार किया।

जाति-प्रथा का विरोध -'जाति प्रथा' समाज की एक ऐसी बुराई थी जिसके चलते समाज के एक बड़े वर्ग को मनुष्यत्व के बाहर का दर्जा मिला हुआ था। 'अछूत', 'शूद्र', 'अन्त्यज', 'निम्नतम' श्रेणी के मनुष्यों का ऐसा समूह था जिसे मनुष्यत्व की मूलभूत पहचान भी प्राप्त नहीं थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग में भी जातिगत श्रेष्ठता और सामाजिक व्यवस्था में उच्च श्रेणी के लिए संघर्ष होते रहते थे। भक्ति संतों ने मनुष्यता के इस अभिशाप से मुक्ति की लड़ाई पूरी ताकत से लड़ी। कबीर जब "ना हिन्दू ना मुसलमान" की बात करते हों या किसी जाति विशेष के विशिष्ट अधिकारों पर चोट करते हों जो उन्हें जातिगत आधार पर मिले हों तो वे वास्तव में जाति प्रथा की इसी वैचारिक धरातल को तोड़ना चाहते हैं। 'जाति' विशेष का विरोध या जाति को खत्म करने की बात नहीं की गई, बल्कि 'जाति' और 'धर्म' के तालमेल से उत्पन्न मानवीय विषमताओं और ह्रासमान जीवन मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए जाति के आधार मिले विशेषाधिकारों को खत्म करने की बात भक्ति आन्दोलन ने उठाई।
जाति प्रथा के आधार पर ईश्वर की उपासना का जो विशेष अधिकार ऊंची जाति वालों ने अपने पास रख रखा था और पुरोहित तथा क्षत्रियों की साँठ-गाँठ के आधार पर जिसे बलपूर्वक मनवाया जाता था। उसे तोड़ने का अथक प्रयास भी भक्ति आन्दोलन ने किया और कहा कि ईश्वर से तादात्म्य के लिए मनुष्य के सद्गुण - प्रेम, सहिष्णुता, पवित्र हृदय, सादा-सरल जीवन और ईश्वर के प्रति अगाध विश्वास आवश्यक है न कि उसकी ऊंची जाति या ऊँचा सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक आधार। 

धर्मनिरपेक्षता/पंथनिपेक्षता - धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति किसी धर्म-विशेष से कोई सम्बन्ध न रखे। बल्कि इसका अर्थ यह है कि अपने धर्म पर निष्ठा रखते हुए भी व्यक्ति दूसरे धर्मों का सम्मान करें तथा अपनी धार्मिक निष्ठा को दूसरे धर्मों में निष्ठा रखने वालों से जुड़ने में बाधा न बने। धर्मनिरपेक्षता एक जीवन मूल्य है जिसमें सहिष्णुता का गुण समाहित है। वर्ग, वर्ण, सम्प्रदाय तथा धर्मगत बन्धनों की अवहेलना करते हुए मनुष्य मात्र को ईश्वरोपासना का समान अधिकारी घोषित भक्ति आन्दोलन ने एक ऐसी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को जन्म दिया जो उस समय तो क्रांतिकारी थी ही आज भी इस विचारधारा को भारतीय समाज व्यावहारिक स्तर पर नहीं अपना पाया है। भक्ति आन्दोलन के सभी सूत्र धारों में यह जीवन-मूल्य कमोवेश पाया जाता है। कबीर ने तो मानो इस विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाने का बीड़ा उठा रखा था। वे जानते थे कि इसे पाना आसान नहीं है, नहीं होगा तभी उन्होंने शर्त रखी जो अपना 'सर' काटकर रखने की क्षमता रखता हो या अपना उन्होंने फूंकने की क्षमता रखता हो वही कबीर की इस धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के साथ चल सकता है। 
कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।।
 
जायसी इस विचारधारा को साहित्यिक स्तर पर अभिव्यक्त करते हैं। अपने मजहब के प्रति ईमानदारी रखते हुए भी उन्होंने दूसरे धर्म मतो को आदर दिया और जिसे मनुष्यता का सामान्य हृदय कहते हैं, या जिसे मनुष्यत्व की सामान्य भूमि कहते हैं, उस जमीन पर, जिससे भी मिलें, मनुष्य के नाते मिले, बिना किसी भेदभाव के।
भारत के सांस्कृतिक इतिहास में पहली बार अंत्यजों और पीड़ित-शोषित वर्गों ने अपने संत दिए और इन संतों ने प्रथम बार साहसपूर्वक सम्पूर्ण आस्था और विश्वास से धर्म-जाति और वर्ण-सम्प्रदायगत बंधनों को तोड़ते हुए मानव धर्म तथा मानव संस्कृति का गान गाया। 

सामाजिक उत्पीड़न और अंधविश्वासों का विरोध -भक्ति आन्दोलन ने एक लम्बी लड़ाई-अपने प्रारंभ से अंत तक-लड़ी वह थी, सामाजिक उत्पीड़न और जन सामान्य में व्याप्त अंधविश्वास के विरुद्ध। कबीर इस युद्ध के उद्घोषक थे। उन्होंने इसे स्वयं की स्वयं को दी हुई चुनौती के रूप में स्वीकार किया और अपने तरकश के सभी तीर चलाए, तुक्का नहीं लगाया। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि कबीर अकेले खड़े हैं सामने चुनौती झेलने वाला कोई नहीं पर लड़ाई किसी व्यक्ति या शासक के विरुद्ध नहीं थी। लड़ाई थी उस गलीच 'विचारधारा' और 'सोच' के विरुद्ध जिसके आधार पर सदियों से मानवता का शोषण किया जा रहा था उसे उत्पीड़ित किया जा रहा था और मनुष्य जिसे अपनी नियति मानकर जी रहा था। कबीर ने कहा कि "यह हमारी नियति नहीं, हमारा शोषण है, मानवता के प्रति अभिशाप है, किसी धर्म में इसका कोई आधार नहीं है।" नियति और धर्म के नाम पर थोपे गए अंधविश्वासों को उन्होंने धर्म और ईश्वर के आधार पर ही खण्डित किया और ज्ञान का प्रकाश प्रकाशित किया। इसी कारण उन्होंने सच्चे गुरू का महत्व प्रतिपादित किया - "आगे थे सतगुर मिल्या, दीया दीपक हाथ।"

सूर और तुलसी ने भी सामाजिक उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाई है। तुलसी ने कई जगह तत्कालीन अर्थव्यवस्था का चित्र अंकित किया है तथा सामाजिक जीवन की विषमताओं को रेखांकित किया है। लगता है तुलसी स्वयं सामाजिक रूप से उत्पीड़ित रहे हैं। यह पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं।
धूत कहौ अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जुलहा कहौ कोऊ,
काहू की बेटी सो बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारिन सोऊ।
तुलसी सरनाम गलुाम है राम को, जाको रुचै सो कहो कछु कोऊ,
माँग के खइबौ, मसीत को सोइबो, लेबे को एक न देबे को दोऊ।

या फिर सामाजिक जीवन का यह हृदय विदारक दृश्य: 
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,
बलि, बनिक को वाणिज न, चाकर को चाकरी।
जीविका-विहीन लोग, सीद्यमान-सोच बस,
कहैं एक-एकन सौ, कहाँ जाइ, का करी।। 

भक्ति आन्दोलन की उपर्युक्त प्रमुख विशेषताओं के अलावा और भी कई विशेषताएं हैं- जैसे कि भक्ति आन्दोलन ने इस विचार पर जोर दिया कि भक्ति ही आराधना का उच्चतम स्वरूप है तथा बाह्याचारों, कर्मकाण्डों आदि की निंदा तथा भर्त्सना करना। भक्त कवि आन्तरिक पवित्रता और सहज भक्ति पर जोर देते थे। मानवीय यथार्थ को सर्वोपरि मानते हुए वर्गगत, जातिगत भेदभावों तथा धर्म के नाम पर किए जाने वाले उत्पीड़न का दृढ़ विरोध। सामन्तीय मूल्यों और पुरोहितवाद की सांठगांठ को और इनके द्वारा किए जाने वाले संयुक्त शोषण अत्याचारों का विरोध भी इसकी एक विशेषता थी। 'लोक संपृक्ति' इस आन्दोलन की एक उल्लेखनीय विशिष्टता है।

कबीर की रचनाओं का संकलन/कबीर की रचनाएँ
कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-
  1. रमैनी
  2. सबद
  3. साखी
कबीरदास का साहित्यिक परिचय
कबीर दास की भाषा और शैली
कबीर दास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लिया– बन गया है तो सीधे–सीधे, नहीं दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार–सी नज़र आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को नहीं कर सके और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत ही कम लेखकों में पाई जाती है।
असीम–अनंत ब्रह्मानन्द में आत्मा का साक्षी भूत होकर मिलना कुछ वाणी के अगोचर, पकड़ में न आ सकने वाली ही बात है। पर 'बेहद्दी मैदान में रहा कबीरा' में न केवल उस गंभीर निगूढ़ तत्त्व को मूर्तिमान कर दिया गया है, बल्कि अपनी फक्कड़ाना प्रकृति की मुहर भी मार दी गई है। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य–रसिक काव्यानंद का आस्वादन कराने वाला समझें तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। फिर व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं जानते। पंडित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला जाते थे। अत्यन्त सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि खाने वाले केवल धूल झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता।
कबीर की रचनाओं में अनेक भाषाओं के शब्द मिलते हैं यथा - अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, बुन्देलखंडी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के शब्द मिलते हैं इसलिए इनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' या 'सधुक्कड़ी' भाषा कहा जाता है। प्रसंग क्रम से इसमें कबीरदास की भाषा और शैली समझाने के कार्य से कभी–कभी आगे बढ़ने का साहस किया गया है। जो वाणी के अगोचर हैं, उसे वाणी के द्वारा अभिव्यक्त करने की चेष्टा की गई है; जो मन और बुद्धि की पहुँच से परे हैं; उसे बुद्धि के बल पर समझने की कोशिश की गई है; जो देश और काल की सीमा के परे हैं, उसे दो–चार–दस पृष्ठों में बाँध डालने की साहसिकता दिखाई गई है।
कहते हैं, समस्त पुराण और महाभारतीय संहिता लिखने के बाद व्यासदेव में अत्यंत अनुताप के साथ कहा था कि 'हे अधिल विश्व के गुरुदेव, आपका कोई रूप नहीं है, फिर भी मैंने ध्यान के द्वारा इन ग्रंथों में रूप की कल्पना की है; आप अनिर्वचनीय हैं, व्याख्या करके आपके स्वरूप को समझा सकना सम्भव नहीं है, फिर भी मैंने स्तुति के द्वारा व्याख्या करने की कोशिश की है। वाणी के द्वारा प्रकाश करने का प्रयास किया है। तुम समस्त–भुवन–व्याप्त हो, इस ब्रह्मांण्ड के प्रत्येक अणु–परमाणु में तुम भिने हुए हो, तथापि तीर्थ–यात्रादि विधान से उस व्यापत्व को खंडित किया है।

कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित


Kabir Das Ji Ke Dohe - कबीर दास जी के दोहे

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ : बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
अर्थ : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
अर्थ : सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।

दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ
अर्थ : जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
अर्थ : यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थ : न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
अर्थ : जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है।

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

अर्थ : इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
अर्थ : इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन
अर्थ : कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है। 

कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।

जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।

कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।
अर्थ : कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
अर्थ : यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है।

जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
अर्थ : इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।

ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।
अर्थ : कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।

संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत,
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
अर्थ : सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।

कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।
अर्थ :कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।

तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।
अर्थ : शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।

कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।

माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।
अर्थ : कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।

मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।
अर्थ : मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो, उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।

तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।
अर्थ: शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना विरले ही व्यक्तियों का काम है यदि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियां सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।


कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।

माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।

मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।
अर्थ: मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
अर्थ: जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अंधकार मिट गया – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ: इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
अर्थ: इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !
 
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना
अर्थ: कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

 कबीर दास की फोटो
“LAAGA CHUNRI MEIN DAAG ..OR MY VEIL GOT STAINED " IS A PHILOSOPHICAL CONCEPT KABIR  
 
 

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आयुर्वेद में सर्वोच्च स्थान पर विराजमान हरड़



हरड़ का महत्व


  • एक हरड़ का नित्य सेवन लम्बी आयु देता है और कहा भी गया है कि' माँ कभी नाराज हो सकती है परन्तु हरड नहीं।
  • दो बड़ी हरड (या 3 से 4 ग्राम हरड चूर्ण) को घी में भूनकर नियमित सेवन करने से व घी पीने से शरीर में बल चिरस्थायी होता है ।
  • हरड का प्रमुख कार्य है तत्वों को हटा कर हर एक अंग के दोषों को निकाल कर उन्हें शोधित कर उनकी गतिशीलता को बढ़ाना है।
  • यह दस्त से पेट के शोधन के बाद दस्त रोकती है।
  • हरड़ दांतों से चबाकर खाने से भूख बढ़ती है।
  • हरद भूनकर खाने से तीनों दोषों को ठीक करती है।
  • हरड़ पीसकर खाने से रेचक होती है।
  • भोजन के साथ खाने से बुद्धि और बल बढ़ाती है।
  • अधिक पसीना आना , पुरानी सर्दी खांसी , पुराने घाव भरने में लाभकारी।
  • मुहांसों पर इसे पीसकर कर लगाने से लाभ होता है।
  • हरड का मुरब्बा दस्त बंद कर भूख बढ़ता है।

ऋतु अनुसार हरड सेवन-विधि :
निम्न द्रव्य दिये गये अनुपात में मिलाकर प्रात: हरीतकी (हरड) का निरंतर सेवन करने से श्रेष्ठ रसायन के रूप में सभी प्रकार के रोगों से रक्षा करती है और धातुओं को पुष्ट करती है । पेट, आँख, अच्छी नींद, तनाव मुक्ति, जोड़ों के दर्द, मोटापे आदि के लिये इसे उपयोगी पाया गया है, पर पारम्परिक चिकित्सक इसे पूरे शरीर को मजबूत करने वाला उपाय मानते है।
एक फल ले और उसे रात भर एक कटोरी पानी में भिगो दे। सुबह खाली पेट पानी पीये और फल को फेंक दें। यह सरल सा दिखने वाला प्रयोग बहुत प्रभावी है। यह ताउम्र रोगों से बचाता है। वैसे विदेशों में किये गये अनुसंधान हर्रा के बुढापा रोकने की क्षमता को पहले ही साबित कर चुके हैं। यह प्रयोग लगातार 3 महीने ही करें . 3 महीने के बाद 15 दिनों का अवकाश ले फिर इस प्रयोग को शुरू कर दें.
शिशिर - हरड़ + पीपर (8 भाग : 1 भाग)
वसंत - हरड + शहद (समभाग)
ग्रीष्म - हरड़ + गुड ( समभाग)
वर्षा - हरड़ + सैंधव (8 भाग : 1 भाग)
शरद - हरड़ + मिश्री (2 भाग : 1 भाग)
हेमंत - हरड + सौंठ (4 भाग : 1 भाग)


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अन्याय के प्रतिकार के योद्धा शहीद भगत सिंह



क्रांतिकारी युग पुरुष भगत सिंह का स्वतंत्रता आंदोलन में दिया गया बलिदान क्रांति का अमर प्रतीक है, जो युगों-युगों तक देश की माटी से जुड़े सपूतों को नई दिशा एवं उत्साह देता रहेगा, उन्होंने अपने खून से स्वतंत्रता के वृक्ष को सींचकर देश को जो मजबूती एवं ताजगी दी है भला उसे कौन भुला सकता है? उनका अनुपम बलिदान इतिहास की अमूल्य धरोहर है, भगत सिंह का जन्म ऐसे सिख परिवार में हुआ था जिस परिवार की दो-दो पीढि़याँ स्वतंत्रता के लिए खून बहा चुकी थीं, जो टूट गए परन्तु झुके नहीं, गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेकने का संकल्प जिनकी हर सांस में भरा था।
Shaheed Bhagat Singh
28 सितम्बर 1907 में जन्मे भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह, लोकमान्य गंगाधर तिलक के स्वतंत्रता आंदोलन के सक्रिय सहयोगी थे। क्रांतिकारी परिवार में जन्म लेने के कारण भगत सिंह को बचपन से ही संघर्ष एवं अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने का संस्कार मिला था। तीसरी कक्षा में पहुँचते-पहुँचते भगत सिंह उस क्रांति की परिभाषा समझने लगे थे जिसके कारण उनके चाचा सरदार अजीत सिंह विदेशों में भटक रहे थे और अपने देश नहीं लौट सकते थे, वे अपनी चाची श्रीमती हुक्म कौर को कहते-चाची आँसू पोछ ले, मैं अंग्रेजों से बदला लूँगा एवं अपने देश से अंग्रेजों को बाहर निकाल कर चैन से बैठूँगा, एक बालक की ऐसी क्रांतिकारी बातों को सुनकर वह अपने गोद में उसे समेट लेती, मात्रा चौथी कक्षा में उन्होंने सरदार अजीत सिंह, सूफी अम्बिका प्रसाद, लाला हरदयाल की लिखी सैकड़ों पुस्तकों को पढ़ लिया था। इस अध्ययन से भगत सिंह की बुद्धि का बहुत विकास हुआ। उम्र के हिसाब से वे अभी बालक ही थे, परन्तु बातचीत, विचार एवं चाल-ढाल से वे काफी बड़ी-बड़ी बातें बहुत आत्मविश्वास से किया करते थे। जन्म से सिख होते हुए भी भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह आर्य समाजी सिद्धांतों में विश्वास रखते थे, इसलिए उन्होंने अपने दोनों पोतों का यज्ञोपवीत संस्कार करवाया और उसी दिन यह संकल्प लिया कि " मैं इस यज्ञ वेदी पर खड़े होकर अपने दोनों वंशधरों को देश के लिए अर्पित करता हूँ।" उन्होंने नई पीढ़ी में जन्में दो नन्हें सेनानियों को देश की बलिवेदी के लिए तैयार कर दिया। इसके बाद उनके मन में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की भावना वक्त के साथ और पुख्ता होती गई।
Shaheed Bhagat Singh
1919 में जब महात्मा गाँधी ने भारत की राजनीति में प्रवेश कर असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ किया उस समय भगत सिंह सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग के भीषण हत्याकाण्ड ने भगत सिंह को अंदर तक झंकझोर दिया। उन्होंने जलियाँवाला बाग पहुँचकर निर्दोष, निहत्थी जनता के खून से सनी मिट्टी को अपने माथे से लगाया एवं एक शीशी में उस मिट्टी को भरकर काफी रात गए घर लौटे - उनकी छोटी बहन अमर कौर बोली - वीर जी, आज इतनी देर क्यों कर दी? भगत सिंह उदास थे, धीरे से वे, खून में सनी वह मिट्टी अपनी बहन की हथेली पर रखकर बोले - अंग्रेजों ने निर्दोषों के खून बहाये हैं, इस खून सनी मिट्टी की कसम मैं उनका खून भी इसी मिट्टी में मिलाकर ही दम लूँगा। उन्होंने यह बात अच्छी तरह समझ ली थी कि अहिंसा का मार्ग देश को आजादी नहीं दिला सकता, इसके लिए बहुत से बलिदान देने होंगे। धीरे-धीरे उनका सम्पर्क प्रो. जयचन्द्र विद्यालंकार से हुआ, जिनका सम्बंध बंगाल के क्रांतिकारियों से था। प्रो. विद्यालंकार के सम्पर्क के बाद उनका चरित्र और विकसित हुआ। वहीं उनकी मुलाकात विख्यात क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुई और भगत सिंह क्रांतिकारी दल में सम्मिलित हो गए।
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1923 में जब भगत सिंह नेशनल कालेज में पढ़ रहे थे तब उनके घर में उनकी शादी की चर्चा होने लगी, तो उन्होंने अपने पिताजी को पत्र लिखा- मेरी जिन्दगी आजाद-ए- हिन्द के लिए है, मुझे आपने यज्ञोपवीत के समय देश के लिए समर्पित कर दिया था। मैं आपकी इस प्रतिज्ञा को पूरा कर रहा हूँ। उम्मीद है मुझे माफ़ कर देंगे और वे घर छोड़कर कानपुर चले गए। वहाँ का काम उन दिनों योगेश चन्द्र चटर्जी देख रहे थे। बटुकेश्वर दत्त, अजय घोष और विजय कुमार सिन्हा जैसे क्रांतिकारियों से उनका परिचय वहीं हुआ। बाद में श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के "प्रताप" नामक अखबार के सम्पादक विभाग में "बलवंत सिंह" के नाम से लिखने लगे। बाद में भगत सिंह कानपुर से लाहौर लौट आये और पूरी शक्ति से "नौजवान भारत सभा" की स्थापना की। इस काम में उनके साथी थे भगवतीचरण। भगत सिंह का विचार था कि जनता को अपने साथ लिए बिना सशस्त्र क्रांति के लिए किए गए प्रयत्न सफल नहीं हो सकते।
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29 जुलाई 1927 को उन्हें काकोरी केस के सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 15 दिन तक लाहौर के किले में रखा गया, फिर उन्हें पोस्टल जेल भेज दिया गया। कुछ सप्ताह बाद वे जेल से मुक्त कर दिए गए। नवम्बर 1928 में चाँद पत्रिका का "फांसी" अंक प्रकाशित हुआ जिसमें "विप्लव यज्ञ की आहुतियाँ" के शीर्षक से क्रांतिकारियों पर बहुत से लेख भगत सिंह ने लिखे। भारत में शासन सुधरों के विषय में सुझाव देने के लिए लार्ड साइमन की अध्यक्षता में एक कमीशन नियुक्त किया गया। 3 फरवरी 1928 को जब कमीशन मुम्बई पहुँचा तब तक भगत सिंह के नेतृत्व में एक सशक्त क्रांतिकारी दल का गठन हो चुका था। स्टेशन पर उतरते ही कमीशन को काले झण्डे दिखाने एवं "साइमन वापस जाओ" के नारे लगाने की योजना थी। भगत सिंह के साथ लाला लाजपत राय भी इसका विरोध कर रहे थे। अंग्रेज पुलिस ने लाजपत राय को बुरी तरह पीटा। चोट लगने के बाद भी उन्होंने जोरदार भाषण देते हुए कहा- "मैं घोषणा करता हूँ कि मुझे जो चोट लगी है वह भारत में अंग्रेजी राज के लिए कफन की कील साबित होगी।"
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इस घटना के बाद 17 नवम्बर 1928 को लालाजी की मृत्यु हो गई। इस घटना के प्रमुख दोषी असिस्टेण्ट पुलिस सुप्रीटेण्डेंट मिस्टर साण्डर्स को बाद में गोली मारने के आरोप में पुलिस चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु और जयगोपाल आदि क्रांतिकारियों को पकड़ने हेतु कुत्ते की तरह पीछे पड़ गई थी, भगत सिंह के मन में आग भड़क रही थी। उन्होंने दिल्ली के केन्द्रीय असेम्बली में बम फेकने का निर्णय कर लिया। देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले इन वीरों का हर क्षण किसी योजना में लगा हुआ था। असेम्बली में बम फेकने की बात भगत सिंह ने की थी, वे इसके लिए तैयार थे। 7 अप्रैल 1929 को वाइसराय के निर्णय की घोषणा असेम्बली में सुनाई जाने वाली थी। भगत सिंह के साथ बटुकेश्वर दत्त भी थे। भगत सिंह ने असेम्बली में बम फेंक दिया, पुलिस ने दोनों को गिरफ्रतार कर लिया। दिल्ली में 4 जून 1929 को मुकदमे की सुनवाई सेशन जज मिस्टर मिडलटन की अदालत में आरम्भ हुई। न्यायालय में भगत सिंह से पूछा गया कि क्रांति से वे क्या समझते हैं? उन्होंने कहा- क्रांति में घातक संघर्षों का अनिवार्य स्थान नहीं है न उसमें व्यक्तिगत बदला लेने की गुंजाइश है। क्रांति बम और पिस्तौल की संस्कृति नहीं है। क्रांति से हमारा प्रयोजन है कि अन्याय पर आधारित वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन होना चाहिए।
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असेम्बली बम काण्ड का मुकदमा दिल्ली में चला था जहाँ भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को यूरोपीय वार्ड में रखा गया था। 12 जून 1929 को उनको आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। भगत सिंह को लाहौर सेन्ट्रल जेल में रखा गया जहाँ उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी थी। दुनिया भर के मुकदमों के इतिहास में लाहौर षड्यंत्र केस ही ऐसा केस था जिसमें न अभियुक्त उपस्थित हुए न उनके गवाह और न वकील ही, परन्तु अदालत ने फैसला दे दिया जिसके तहत भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को सजा सुनाई गई।
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फांसी की सजा सुनाने के बाद भी भगत सिंह जेल में अध्ययन करते रहते। चाल्र्स डिकिन्स उनका प्रिय लेखक था। गोर्की, उमर खैयाम, एंजिल्स आस्कर वाइल्ड, जार्ज बनार्ड शा के साहित्य का उन्होंने गहराई से अध्ययन किया। इध्र क्रांतिकारी दल भी एक के बाद एक धमाके करने में जुटा रहा। बंगाल के महान क्रांतिकारी श्री सूर्यसेन के नेतृत्व में चटगाँव शस्त्रागार लूटा गया। बम के द्वारा रेलगाड़ी उड़ाने का प्रयास क्रांतिकारी यशपाल ने किया। नवयुवक हरिकृष्ण ने पंजाब के गवर्नर पर गोली चलाई। भगत सिंह को फांसी की सजा से बचाने के लिए हस्ताक्षर आन्दोलन पूरे देश भर में चला। महाराजा बीकानेर ने वाइसराय से प्रार्थना की एवं इंग्लैण्ड की पार्लयामेण्ट में उनके सदस्यों ने भी तर्क दिए कि वे भगत सिंह की जीवन रक्षा करें, परन्तु सब व्यर्थ रहा।
Shaheed Bhagat Singh 
3 मार्च 1931 को भगत सिंह अपने परिवार वालों से अंतिम बार मिले। उस दिन उनके दो छोटे भाई कुलवीर सिंह एवं कुलतार सिंह भी थे। भगत सिंह को अपने जीवन के प्रति कोई मोह नहीं था। उनके रक्त की एक-एक बूंद मातृभूमि के लिए थी। 23 मार्च 1931 की सुबह लाहौर जेल के चीफ वार्डन चतुर सिंह द्वारा फांसी की पूर्ण व्यवस्था हेतु निर्देश दिया गया। उसे जब मालूम हुआ कि भगत सिंह की जिन्दगी के कुछ ही घण्टे बाकी हैं तो वह बोला - आप अंतिम समय गुरुवाणी का पाठ कर लो "वाहे गुरु" का नाम ले लो। भगत सिंह जोर से हंस पड़े। बोले - इसलिए कि सामने मौत है, मैं बुज़दिल नहीं, जो डरकर परमात्मा को पुकारुँ। तभी एक जेल अधिकारी कहा - सरदार जी, फांसी लगाने का हुक्म आ गया है आप तैयार हो जायें। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव तीनों अपनी-अपनी कोठरियों से बाहर आ गए, भगत सिंह बीच में थे। सुखदेव व राजगुरू दायें-बायें। क्षण भर के लिए तीनों रुके फिर चल पड़े फांसी के तख्ते पर भगत सिंह गा रहे थे - "दिल से निकलेगी न मर कर भी उलफत मेरी मिट्टी से भी खुश्बू-ए-वतन आएगी"
Shaheed Bhagat Singh
वार्डन ने आगे बढ़कर फांसी घर का काला दरवाजा खोला। तीनों ने अपना-अपना फंदा पकड़ा और उसे चूमकर अपने ही हाथ से गले में डाल दिया। जल्लाद डबडबाती आंखों एवं कंपकपाते हाथों से चरखी घुमाया तखता गिरा और तीनों वीर भारत माता की सेवा में अर्पित हो गए।

शहीद भगत सिंह के क्रांतिकारी विचार  Shaheed Bhagat Singh Quotes In Hindi
  1. अगर बहरों को अपनी बात सुनानी है तो आवाज़ को जोरदार होना होगा. जब हमने बम फेंका तो हमारा उद्देश्य किसी को मारना नहीं था। हमने अंग्रेजी हुकूमत पर बम गिराया था। अंग्रेजों को भारत छोड़ना और उसे आजाद करना चाहिए।'
  2. 'आम तौर पर लोग चीजें जैसी हैं उसी के अभ्यस्त हो जाते हैं। बदलाव के विचार से ही उनकी कंपकंपी छूटने लगती है। इसी निष्क्रियता की भावना को क्रांतिकारी भावना से बदलने की दरकार है।'
  3. इंसानों को तो मारा जा सकता है, पर उनके विचारों को नहीं।
  4. इस कदर वाकिफ है मेरी कलम मेरे जज़्बातों से, अगर मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ तो इंक़लाब लिख जाता हूँ।
  5. किसी को ‘क्रांति’ शब्द की व्याख्या शाब्दिक अर्थ में नहीं की जा सकती , जो लोग इस शब्द का उपयोग या दुरुपयोग करते हैं उनके फायदे के हिसाब से इसे अलग अलग अर्थ और अभिप्राय दिए जाते हैं।
  6. क्रांति की तलवारें तो सिर्फ विचारों की शान से तेज की जाती हैं।
  7. क्रांति में अनिवार्य रूप से संघर्ष शामिल नहीं था। यह बम और पिस्तौल का मत नहीं था।
  8. जिंदगी तो सिर्फ अपने कंधों पर जी जाती है, दूसरों के कंधे पर तो सिर्फ जनाजे उठाए जाते हैं।
  9. जो भी व्यक्ति विकास के लिए खड़ा है, उसे हर एक रुढ़िवादी चीज की आलोचना करनी होगी, उसमें अविश्वास करना होगा, तथा उसे चुनौती देनी होगी।।
  10. देशभक्त को अक्सर सभी लोग पागल समझते हैं।
  11. निष्ठुर आलोचना और स्वतंत्र विचार यह क्रांतिकारी सोच के दो अहम् लक्षण हैं।
  12. निष्‍ठुर आलोचना और स्‍वतंत्र विचार, ये दोनों क्रांतिकारी सोच के दो अहम लक्षण हैं।
  13. प्रेमी पागल और कवि एक ही चीज से बने होते हैं और देशभक्‍तों को अक्‍सर लोग पागल कहते हैं।
  14. बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं आती, क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।
  15. बुराई इसलिए नहीं बढ़ रही है कि बुरे लोग बढ़ गए है बल्कि बुराई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि बुराई सहन करने वाले लोग बढ़ गये है।
  16. मुझे कभी भी अपनी रक्षा करने की कोई इच्छा नहीं थी, और कभी भी मैंने इसके बारे में गंभीरता से नहीं सोचा।
  17. मेरा एक ही धर्म है, और वो है देश की सेवा करना।
  18. मेरे सीने में जो जख्म है वो जख्म नहीं फूलो के गुच्छे है, हमें तो पागल ही रहने दो हम पागल ही अच्छे है।
  19. मैं अभी भी किसी भी बचाव की पेशकश के पक्ष में नहीं हूं। यहां तक कि अगर अदालत ने मेरे सह-अभियुक्तों द्वारा बचाव, आदि के बारे में प्रस्तुत की गई याचिका को स्वीकार कर लिया है, तो मैंने अपना बचाव नहीं किया।
  20. मैं एक इंसान हूँ। वो हर बात मुझे प्रभावित करती है जो इंसानियत को प्रभावित करे।
  21. मैं एक ऐसा पागल हूं, जो जेल में भी आजाद है।।
  22. यदि बहरों को सुनना है तो आवाज को बहुत जोरदार होना होगा. जब हमने बम गिराया तो हमारा उद्देश्य किसी को हानि पहुंचना नही था। हमने अंग्रेजी हुकूमत पर बम गिराया था उन्हें यह आवाज़ सुननी थी कि अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना चाहिए और उसे आजाद करना चाहिये।
  23. राख का हर एक कण मेरी गर्मी से गतिमान है, मैं एक ऐसा पागल हूँ जो जेल में भी आजाद हैं।
  24. राख का हर एक कण, मेरी गर्मी से गतिमान है।
  25. विद्रोह कोई क्रांति नहीं है। यह अंततः उस अंत तक ले जा सकता है।
  26. 'वे मुझे कत्ल कर सकते हैं, मेरे विचारों को नहीं, वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं लेकिन मेरे जज्बे को नहीं।'
  27. वो हर व्यक्ति जो विकास के लिए खड़ा है, उसे हर एक रुढ़िवादी चीज की आलोचना करनी होगी, उसके प्रति अविश्वास करना होगा और उसे चुनोती देनी होगी।
  28. व्‍यक्तियों को कुचलकर भी आप उनके विचार नहीं मार सकते हैं।
  29. सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाजु-ए-कातिल में है।
  30. स्वतंत्रता हर इंसान का कभी न ख़त्म होने वाला जन्म सिद्ध अधिकार है।
  31. हमारे देश के सभी राजनैतिक आंदोलनों ने, जो हमारे आधुनिक इतिहास में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उस उपलब्धि की आदर्श में कमी थी जिसका उन्होंने उद्देश्य रखा था। क्रांतिकारी आंदोलन कोई अपवाद नहीं है।
  32. हमें यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्रांति का मतलब केवल उथल-पुथल या एक प्रकार का संघर्ष नहीं है। क्रांति आवश्यक रूप से मौजूदा मामलों (यानी, शासन) के पूर्ण विनाश के बाद नए और बेहतर रूप से अनुकूलित आधार पर समाज के व्यवस्थित पुनर्निर्माण के कार्यक्रम का अर्थ है।



Shaheed Bhagat Singh 


 

शहीद भगत सिंह के वास्तविक और दुर्लभ चित्र Original and Rare Photo of Bhagat Singh





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