भगवान परशुराम जयंती Bhagwan Parshuram Jayanti



महर्षि भृगु के पुत्र ऋचिक का विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती से हुआ था। विवाह के बाद सत्यवती ने अपने ससुर महर्षि भृगु से अपने व अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की। तब महर्षि भृगु ने सत्यवती को दो फल दिए और कहा कि ऋतु स्नान के बाद तुम गूलर के वृक्ष का तथा तुम्हारी माता पीपल के वृक्ष का आलिंगन करने के बाद ये फल खा लेना। किंतु सत्यवती व उनकी मां ने भूलवश इस काम में गलती कर दी। यह बात महर्षि भृगु को पता चल गई। तब उन्होंने सत्यवती से कहा कि तूने गलत वृक्ष का आलिंगन किया है। इसलिए तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय गुणों वाला रहेगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों की तरह आचरण करेगा। तब सत्यवती ने महर्षि भृगु से प्रार्थना की कि मेरा पुत्र क्षत्रिय गुणों वाला न हो भले ही मेरा पौत्र (पुत्र का पुत्र) ऐसा हो। महर्षि भृगु ने कहा कि ऐसा ही होगा। कुछ समय बाद जमदग्नि मुनि ने सत्यवती के गर्भ से जन्म लिया। इनका आचरण ऋषियों के समान ही था। इनका विवाह रेणुका से हुआ। मुनि जमदग्रि के चार पुत्र हुए। उनमें से परशुराम चौथे थे। इस प्रकार एक भूल के कारण भगवान परशुराम का स्वभाव क्षत्रियों के समान था।
राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र विष्णु के अवतार परशुराम शिव के परम भक्त थे। इन्हें शिव से विशेष परशु (कुल्हाड़ी) प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था किन्तु शंकर द्वारा प्रदत अमोघ परशु को सदैव धारण किए रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में हैं गिने जाते हैं। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीय (वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीय तिथि) को हुआ था। अतः इस दिन व्रत करने व उत्सव मनाने की प्रथा है। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था।
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उनकी माता जल का कलश भरने के लिए नदी पर गई। वहां गंधर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। उसे देखने में रेणुका इतनी तन्मय हो गई कि जल लाने में विलंब हो गया तथा यज्ञ का समय व्यतीत हो गया। उसकी मानसिक स्थिति समझकर जमदग्नि ने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चारों बेटों को मां की हत्या करने का आदेश दिया। किन्तु परशुराम के अतिरिक्त कोई भी ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। पिता के कहने से परशुराम ने माता का शीश काट डाला। पिता के प्रसन्न होने पर उन्होने परशुराम को वर मांगने को कहा तो उन्होंने चार वरदान मांगे। 1. माता पुनर्जीवित हो जाएं, 2. उन्हें मरने की स्मृति न रहे, 3. भाई चेतना युक्त हो जाएं और 4. मां परमायु हो। जमदग्नि ने उन्हें चारों वरदान दे दिए।
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दुर्वासा की भांति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात हैं । एक बार कार्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से परशुराम के पिता जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।
रामावतार में श्री रामचन्द्र द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर ये क्रुद्ध होकर आए थे। इन्हेांने परीक्षा के लिए उनका धनुष श्री रामचन्द्र जी को दिया था। जब श्री रामचन्द्र जी ने धनुष चढ़ा दिया तो परशुराम समझ गए कि रामचंद्र विष्णु के अवतार हैं। इसलिए उनकी वन्दना करके वे तपस्या करने चले गए। परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवाई थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र से पीछे हटकर गिरिश्रेष्ठ महेन्द्र पर निवास किया।
रामजी का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गए और राजा दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रिय संहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। रामजी ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किए। परशुराम एक वर्ष तक लज्ज्ति, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तद्न्तर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज पुनः प्राप्त किया।
परशुराम कुंड नामक तीर्थस्नान में पांच कुंड बने हुए हैं। परशुराम ने समस्त क्षत्रियों का संहार करके उन कुंडों की स्थापना की थी तथा अपने पितरों से वर प्राप्त किया था कि क्षत्रिय संहार के पाप से मुक्त हो जाएंगे।
जानापाव पहाड़ी का संक्षिप्त परिचय एवं धार्मिक एवं पौराणिक महत्व
इस स्थल को जानापाव कहने के बारे में जनश्रुति है। परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि ने परशुराम को अपनी माँ का सिर काटने का आदेश दिया था। उन्होंने यह कार्य करके पिता को कहा कि अब मुझे माँ जीवित चाहिए। तब ऋषि ने अपने कमण्डल से जल छींटा तो माँ में वापस जान आ गई थी। इसलिए इसका नाम जानापाव यानी जान वापस आना पड़ा। इन्दौर जिले की महू तहसील से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर विन्ध्याचल पर्वत की श्रृंखला में धार्मिक एवं पौराणिक महत्व का स्थान जानापाव स्थित है। जानापाव में भगवान परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि ने जनकेश्वर शिवलिंग की स्थापना कर अत्यन्त कठोर तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिवजी ने महर्षि जमदग्नि को वरदान स्वरूप समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली कामधेनू गाय प्रदान की थी।
वर्षों पूर्व जानापाव पहाड़ी ज्वालामुखी का उद्गम स्थल था। ज्वालामुखी के लावे से ही मालवा क्षेत्रा में काली मिट्टी का फैलाव हुआ था। वर्तमान में यह बिन्दुजल कुण्ड के रूप में विद्यमान है। नदियों का उद्गम स्थलः जानापाव पहाड़ी की मुख्य विशेषता यह है कि यहाँ से सात नदियों का उद्गम हुआ है। इनमें से तीन नदियाँ चोरल, गम्भीर एवं चम्बल मुख्य हैं। शेष चार सहायक नदियाँ नखेरी, अजनार, कारम और जामली हैं।
प्रति वर्ष अक्षय तृतीया को जानापाव में भगवान परशुराम जी का जन्मोत्सव बडे़ पैमाने पर मनाया जाता है। साथ ही एक मेले का भी आयोजन किया जाता है। प्रति वर्ष नवरात्रि एवं भूतड़ी अमावस्या को भी मेले का आयोजन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भूतड़ी अमावस्या को जानापाव के कुण्ड में स्नान करने से भूतप्रेत बाधा एवं समस्त शारीरिक रोगों का नाश होता है। अतः इस मेले में देश, प्रदेश के समस्त श्रद्धालु बड़ी संख्या में भाग लेते हैं।

परशुराम और सहस्रबाहु की कथा
राम चरितमानस में आया है कि ‘सहसबाहु सम सो रिपु मोरा’ का कई बार उल्लेख आया है। महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे। सहस्त्रार्जुन का वास्तविक नाम अर्जुन था। उन्होने दत्तत्राई को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। दत्तत्राई उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे वरदान मांगने को कहा तो उसने दत्तत्राई से एक हजार हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद उसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा। इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाता है।
कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चुका था। उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी। वेद-पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था।
एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाड-जंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा। महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी। कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी। महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया। कामधेनु के ऐसे विलक्षण गुणों को देखकर सहस्त्रार्जुन को ऋषि के आगे अपना राजसी सुख कम लगने लगा। उसके मन में ऐसी अद्भुत गाय को पाने की लालसा जागी। उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को मांगा। किंतु ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु को आश्रम के प्रबंधन और जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र जरिया बताकर कामधेनु को देने से इंकार कर दिया। इस पर सहस्त्रार्जुन ने क्रोधित होकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु को ले जाने लगा। तभी कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई।
जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें विस्तारपूर्वक बताई। परशुराम माता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर आवेशित हो गए। पराक्रमी परशुराम ने उसी वक्त दुराचारी सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया। परशुराम अपने परशु अस्त्र को साथ लेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मतिपुरी पहुंचे। जहां सहस्त्रार्जुन और परशुराम का युद्ध हुआ। किंतु परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ। भगवान परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया। सहस्त्रार्जुन के वध के बाद पिता के आदेश से इस वध का प्रायश्चित करने के लिए परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गए। तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया। सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला। माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा। जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो माता को विलाप करते देखा और माता के समीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे। यह देखकर परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही सर्वनाश नहीं कर देंगे बल्कि उसके सहयोगी समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहीन कर देंगे। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया। कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका। तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया।

अपने शिष्य भीष्म को नहीं कर सके पराजित
महाभारत के अनुसार महाराज शांतनु के पुत्र भीष्म ने भगवान परशुराम से ही अस्त्र-शस्त्र की विद्या प्राप्त की थी। एक बार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की पुत्रियों अंबा, अंबिका और बालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे। तब अंबा ने भीष्म को बताया कि वह मन ही मन किसी और का अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे ससम्मान छोड़ दिया, लेकिन हरण कर लिए जाने पर उसने अंबा को अस्वीकार कर दिया.. तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा, लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ और अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत

वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री राम से परशुराम भगवान से कोई विवाद नहीं हुआ था
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरित मानस में वर्णन है कि भगवान श्रीराम ने सीता स्वयंवर में शिव धनुष उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। धनुष टूटने की आवाज सुनकर भगवान परशुराम भी वहां आ गए। अपने आराध्य शिव का धनुष टूटा हुआ देखकर वे बहुत क्रोधित हुए और वहां उनका श्री राम व लक्ष्मण से विवाद भी हुआ। जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार सीता से विवाह के बाद जब श्री राम पुन: अयोध्या लौट रहे थे। तब परशुराम वहां आए और उन्होंने श्रीराम से अपने धनुष पर बाण चढ़ाने के लिए कहा। श्रीराम ने बाण धनुष पर चढ़ा कर छोड़ दिया। यह देखकर परशुराम को भगवान श्रीराम के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया और वे वहां से चले गए।

भगवान परशुराम की फोटो
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प्रेरक प्रसंग - क्यों जाएँ तीर्थ स्थलों पर



Prerak Prasang in Hindi
Prerak Prasang in Hindi

एक शाम गंगा किनारे एक आश्रम में गुरु जी के पास कुछ शिष्यगण बैठे हुए कुछ धार्मिक स्थलों की चर्चा कर रहे थे। एक शिष्य बोला ‘गुरु जी अब की बार गर्मियों में गंगोत्री, यमुनोत्री की यात्रा करवा दीजिए - आपके साथ यात्रा का कुछ अलग ही आनंद है - दर्शन के साथ-साथ हर चीज का महत्व भी सजीव हो जायेगा।’ दूसरा शिष्य कहने लगा ‘गुरु जी आप हमेशा कहते हैं कि ईश्वर व उसकी शक्ति कण-कण में व्याप्त है, वो घट-घट में है, आपमें व मुझमें भी ईश्वर है। गंगा तो यहां भी बह रही है, फिर क्यों गंगोत्री, यमुनोत्री जाएँ और 15 दिन खराब करें। और कहावत भी है ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’।’ गुरु जी एक दम शांत हो गये फिर कुछ देर के बाद बोले ‘वत्स! जमीन में पानी तो सब जगह है ना, फिर हमें जब प्यास लगे, जमीन से पानी मिल ही जायेगा तो हमें कुए, तालाब, बावड़ी बनाने की क्या जरूरत है।’ कुछ लोग एक साथ बोले ‘यह कैसे सम्भव है गुरुदेव! जब हमें प्यास लगेगी तो कब तो कुआं खुदेगा और कब पानी निकलेगा और कब उसे पीकर प्यास बुझाएंगे।’

गुरु जी बोले बस यही तुम्हारे प्रश्न, तुम्हारी जिज्ञासा का उत्तर है। पृथ्वी में सर्वव्याप्त पानी होने के बावजूद जहां वह प्रकट है या कर लिया गया है, आप वहीं तो प्यास बुझा पाते हैं। इसी प्रकार ईश्वर जो सूक्ष्म शक्ति है, घट-घट में व्याप्त है, ये तीर्थ स्थल, कुँए और जलाशयों की भाँति, उस सूक्ष्म शक्ति के प्रकट स्थल हैं जहाँ किसी महान आत्मा के तप से, श्रम से, उसकी त्रिकालदर्शी सोच से वो सूक्ष्म-शक्ति इन स्थानों पर प्रकट हुई और प्रकृति के विराट आंचल में समा गई। जहां कालांतर के बाद आज भी जब हमें अपनी आत्मशक्ति की जरूरत होती है तो इन स्थलों पर जाकर अपनी विलीन आत्म-शक्ति को प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में हमारी इच्छा शक्ति को यहां आत्मशक्ति प्राप्त होती है और हमें प्यास लगने पर कुआँ खोदने की जरूरत नहीं होती। इन पुण्य स्थलों से हमें वह अभिष्ट मिल जाता है जो हमें जीवन में शांति और सुगमता प्रदान करता है। 



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ज्ञानवर्धक लघु कथा- प्रभु को समर्पण ही भक्ति




एक पुरानी लोक कथा के अनुसार एक देहाती किसान ने एक सन्त के पास जाकर कहा कि ‘भगवन मुझ दीन, हीन व बिना पढ़े लिखे पर दया कीजिये और मुझे ईश्वर प्राप्ति का उपाय बताइये।’ सन्त प्रसन्न मुद्रा में थे और उस भोले-भाले देहाती को देखकर सुधा-सनी वाणी में बोले अरे जगत के अन्नदाता, कृषक देव! मन, वाणी और काया से जो कुछ करें प्रभु के लिये ही करें। आप किसान हैं और खेती करना आपका कर्तव्य है। आपके स्वभावानुसार आपके लिए नियत इस कर्म को प्रभु की आज्ञा का पालन की नीयत से करते रहने पर पाप, अपराध एवं रोगादिक होने की संभावना ही नहीं रहती। यद्यपि इस कार्य को वर्षा, शीत व आताप आदि में खुले आकाश के नीचे, खड़े पैर घोर परिश्रम के साथ करना होता है। इतने पर भी सफलता की कोई गारंटी नहीं, मेघ देवता का मुख ताकना पड़ता है। इस प्रकार यह कर्म अनेक दोषों से युक्त है। तदापि आपके लिये यह सहज कर्म है, अतः इसे न करने की कभी मत सोचना। अपने सहज कर्म को छोड़ने से प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन होता है और करने का अभ्यास छूट जाता है, आलस्य आदि भंयकर रोग शरीर में घर कर लेते हैं। इसलिए न करने से करना ही अच्छा है। पिफर सोचो, कौन सा कर्म ऐसा है जिसमें परेशानियाँ नहीं हैं और निर्दोष हैं। मतलब यह है कि प्रभु का आदेश पालन करने की भावना से अपने हिस्से के कर्म को पूर्ण प्रमाणिकता, पक्के विश्वास एवं परम प्रेम के साथ तन, मन, धन, जन से करके परम दयालु प्रभु को सादर समर्पित करते रहना ही प्रभु की प्राप्ति का अमोघ उपाय है।
जिस गाँव में किसान रहता था, उसमें किसी ज्योतिषी ने भविष्यवाणी कर दी थी कि वहाँ बारह वर्ष तक बारिश होने का योग नहीं है। इस भविष्यवाणी से सारे ग्रामवासी बहुत परेशान थे और अपना कृषि का धन्धा छोड़कर जा रहे थे। उस कृषक ने सोचा कि रोने-चिल्लाने से तो कुछ हाथ लगेगा नहीं, वह संत महाराज के उपदेश के अनुसार कार्य करके प्रभु प्राप्ति के लिये प्रयास करने के लिए लालायित था। मन में पक्का निश्चय करके अपने हल बैल आदि लेकर खेत पर पहुँच गया और सूखे खेत को ही बीजारोपण के लिए जोत कर तैयार करने लगा। गाँव के लोग उसकी नादानी पर हँसी उडाते लेकिन वो तो अपनी धुन का पक्का था। एक दिन उस गाँव पर से आकाश में कुछ बादल जा रहे थे, उन्हें भी उसे व्यर्थ परिश्रम करते देखकर अति आश्चर्य हुआ। कौतूहल वश एक मेघ देवता ने नीचे उतर कर किसान से पूछा इस व्यर्थ के परिश्रम को तुम क्यों कर रहे हो। किसान बोला प्रभु की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ, यह मेरा स्वाभाविक काम है, इससे काम की आदत बनी रहेगी व आलस्य नहीं आयेगा। मैं अपना काम कर रहा हूँ फल देने वाला ईश्वर है। किसान की बात मेघ देवता को लग गई और सोचा कहीं ऐसा न हो हम भी अपनी बरसने की आदत को भूल न जायँ, पिफर क्या था? सारे के सारे बादल गर्जन के साथ बरस पड़े और मूसलाधार वृष्टि होने लगी और देखते ही देखते सारे गाँव की धरती को सुजला, सुफला व शस्य श्यामला बना दिया। संत के उपदेश से किसान का विश्वास और दृढ़ हो गया और सभी कार्य प्रभु की आज्ञा मानकर करने लगा।
किसान की भाँति हर मनुष्य को अपने अंतःकरण में पक्का निश्चय करके कि मुझे प्रभु ने अपने ही लिए बनाया है और उनकी आज्ञा समझ अपना कर्तव्य कर उसे प्रभु को समर्पित करना चाहिये। सोचें कि मैं अपने निश्चय में दृढ़ हूँ, अपनी धुन का पक्का हूँ। मुझे कोई भी अपने निश्चय से नहीं डिगा सकता, ऐसा निश्चय होने पर जीव की यह बात भी प्रभु को लगे बिना नहीं रह सकती। प्रभु भी सोचने लगेंगे कि कहीं मैं भी अपनी कृपामृतवर्षण की आदत को भूल तो नहीं जाऊँगा। शीघ्र ही बरस पडेंगे और बात ही बात में उसकी शुष्क हृदय-भूमि को अनुग्रहामृत से सुजला, प्राप्ति रूप फल से सुफला एवं दिव्य प्रेम रूप शष्य के प्रदान से श्यामला बना देंगे।
तात्पर्य है कि हम जो कुछ करें, सच्ची नीयत से ईमानदारी के साथ, श्रध्दापूर्वक प्रभु को समर्पणकी भावना से करें तो हमारी सारी क्रियाएँ भगवत भक्ति बन जायेंगी। दयालु प्रभु हमें शक्ति दें कि हम इन विचारों का आचरणों के साथ समन्वय साध सकें।


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पीलिया (Jaundice) - एक जानलेवा रोग, लक्षण व इलाज



पीलिया एक ऐसी बीमारी है जो किसी भी व्यक्ति को हो सकती है। यह बीमारी मनुष्य के लिए कभी-कभी जानलेवा भी हो जाती है। इस बीमारी में मनुष्य का खून पीला पड़ने लगता है और शरीर कमजोर हो जाता है। पीलिया का मुख्य कारण पाचन शक्ति का सही ढंग से काम न करना। मनुष्य की पाचन शक्ति ख़राब होने के कारण खून बनना बंद हो जाता है और उनके शरीर का रंग धीरे-धीरे पीला पड़ने लगता है। इसी को हम पीलिया कहते है। पीलिया की बीमारी होने पर रोगी को समय रहते ही इसका उपचार करना चाहिए नहीं तो ये जानलेवा बन जाती है। पीलिया जैसी बीमारी को ठीक करने के लिए घरेलू वस्तुओं से इस बीमारी को जड़ से ख़त्म किया जा सकता है।
 

Jaundice Treatment in Hindi ~ पीलिया का इलाज ~ Piliya Ka Ilaj
रोग
पीलिया रोग लीवर व पित्त की थैली से सम्बन्धित रोग है, खून में विलिरुबिन पिगमेंट अधिक होने से पीलिया हो जाता है।
पीलिया होने के कारण
  1. इन्पफैक्शन - हिपेटाइटिस वायरस संक्रामण ए बी सी
  2. पित्त की थैली की नली में रुकावट, स्टोन, कैंसर या पफोड़ा,
  3. खून की बीमारियों में - जिससे खून हीमोलाइश हो,
  4. दवाईयों से लिवर डैमेज होने पर,
  5. शराब व बीमारियों से लिवर सैल सिकुड़ जाती हैं इसे लीवर सिरोहोसिस कहते हैं।
लक्षण
अधिकतर पीलिया वायरल इन्पफैक्शन होता है। इसका संक्रमण होने के बाद बुखार, कमजोरी, जी मिचलाना व भूख न लगना, पेट में दर्द (दाँई तरफ) तथा पेशाब गहरा पीला होने लगता है, आँखें पीली हो जाती हैं, मरीज बहुत कमशोरी महसूस करता है। यदि समय से इलाज न किया गया तो कोमा में आजाता है और मृत्यु तक हो सकती है।
जाँच
  1. खून की जाँच से वायरस के प्रकार की जाँच होती है। यह तीन प्रकार का होता है, हिपेटाइटिस ए, बी, सी। इसमें हिपेटाइटिस बी बहुत खतरनाक होता है तथा इसके ठीक होने में 6 हफ्रते लग सकते हैं। पीलिया ठीक होने के बाद सिरोहोसिस, जलन्धर या कैंसर भी हो सकता है।
  2. खून में Serum Bilirubin SGPT जाँच करने से पीलिया के कारण का पता लगता है।
  3. खून में Alkaline Phosphatase जाँच करने से कैंसर का पता लगता है।
  4. पेशाब की जाँच करने से पीलिया का पता लगता है।
  5. अल्ट्रासाउण्ड से पित्त की थैली की बीमारी (स्टोन, कैंसर) का पता लगता है।
  6. ERCP से Endoscopy - इससे आँतों के ऊपरी भाग में कैंसर या नली में स्टोन को हटाकर पीलिया ठीक किया जा सकता हैं।
  7. MRI Abdomenसे कैंसर का गहराई से पता लग सकता है यदि कैंसर पेट के अन्य भागों में पफैल गया है तो इलाज उसी तरह सुनियोजित किया जा सकता हैं।
इलाज
साधारण तौर पर संक्रामण पीलिया वायरस है इसकी म्याद होती है तथा यह 2-3 हफ्रते में ठीक हो जाता है। इसमें कार्बोहाईड्रेट जैसे ग्लूकोश, शक्कर, गन्ने का रस अधिक लें, प्रोटीन कम लें (दालें न लें), चिकनाई न लें (घी, तेल, मक्खन, दही व दूध चिकनाई निकला हुआ लें), नीबू ले सकते हैं, फलों के रस न लें, लिवर की आयुर्वेदिक दवाएँ ले सकते हैं। जी मिचलाना या उल्टी के लिए डोमेस्टाल टेबलेट ले सकते हैं। अधिक तकलीपफ या दवा हजम न होने पर डाक्टर को दिखायें वह आवश्यकतानुसार इलाज व ग्लूकोज़ चढ़ायें। यदि पीलिया किसी स्टोन या कैंसर के कारण है तो किसी सर्जन या एन्डोस्कोपिस्ट की सलाह लें।

पीलिया का उपचार प्याज़ से :-Pilia Ka Upchaar Pyaj Se
पीलिया की बीमारी में प्याज़ का बहुत ही महत्व है। सबसे पहले एक प्याज़ को छीलकर इसके पतले - पतले हिस्से करके इसमें नींबू का रस निचोड़े तथा इसके बाद इसमें पीसी हुई थोड़ी सी काली मिर्च और काला नमक डालकर प्रतिदिन सुबह - शाम इसका सेवन करने से पीलिया की बीमारी 15 से 20 दिन में ख़त्म हो जाती है।
 
चने से पीलिया का उपचार :- Chane Se Pilia Ka Upchaar
रात्रि को सोने से पहले चने की दाल को भिगोकर रख दे। प्रातकाल उठकर भीगी हुई दाल का पानी निकालकर उसमे थोड़ा सा गुड डालकर मिलाये। और इसको कम से कम एक से दो सप्ताह तक खाने से पीलिया की बीमारी ठीक हो जाती है। पीलिया की बीमारी को ठीक करने के लिए और भी अनेक उपाए है। 
 
पीपल से पीलिया का उपचार :- Peepal ke Ped se Peelia Ka Upchaar 
पीपल एक प्रकार की जड़ है जो दिखने में काले रंग की होती है। यह जड़ पंसारी की दुकानों पर आसानी से पाई जाती है। इस जड़ के तीन नग लेकर बारीक़ पीसकर पानी में पुरे एक दिन तक भिगोकर रखे या फुलाए। फुलाने के बाद बचे हुए पानी को बाहर निकालकर फेक दे। तथा फुले हुए नग में नींबू का रस , काली मिर्च और थोड़ा सा नमक डालकर रोजाना खाने से पीलिया एक सप्ताह में ही ठीक हो जायेगा। इसी तरह हर दिन नगो की संख्या एक - एक करके बढ़ाते जाये और ऊपर बताई गई विधि के अनुसार इसका सेवन करते रहे। जब नगो की संख्या दस हो जाये तब इसका प्रयोग बंद कर दे। बताया गया उपचार का उपयोग करने से पीलिया की बीमारी तो ठीक हो जाती है बल्कि पेट से जुडी सभी बीमारियाँ जैसे :- पुराना कब्ज , यरक़ान, पुराना बुखार इत्यादि रोगों से छुटकारा मिल जाता है। 
 
पीलिया का लहसुन से इलाज :- Lehsun or Garlic Se Peelia Ka Upchaar 
पीलिया की बीमारी में लहसुन भी फायदेमंद होता है। इसलिए कम से कम ४ लहसुन ले और इन्हे छीलकर किसी वस्तु से पीसकर इसमें २०० ग्राम दूध मिलाये। और रोगी को इसका रोजाना सेवन करने से पीलिया की बीमारी जड़ से ख़त्म हो जाती है। तथा पीलिया की बीमारी का उपकार इमली से भी किया जा सकता है। 
 
इमली से पीलिया का इलाज :- Imli or Tamarind Treats Jaundice
इमली खाने के अनुसार रात्रि को सोने से पूर्व भिगोकर रख दे। प्रातकाल उठकर भीगी हुई इमली को मसलकर इसके छिलके उतार कर अलग रख दे। तथा इमली का बचे हुए पानी में काली मिर्च और काला नमक मिलाकर दो सप्ताह तक पीने से पीलिया रोग ठीक हो जाता है। 
 
पीलिया का आँवला से उपचार :- Amla Peeliya Rog Ka Ilaj
एक चम्मच शहद में ५० ग्राम ताजे हरे आँवले का रस मिलाकर प्रतिदिन सुबह कम से कम तीन सप्ताह तक खाने से पीलिया की बीमारी से छुटकारा मिल जायेगा। 
 
सोंठ से पीलिया का उपचार Dry Ginger to Cure Jaundice
सौंठ से भी पीलिया के रोग को ठीक किया जा सकता है।
उपचार (सामग्री ) :- पिसी हुई सौंठ - 10 ग्राम, गुड - 10 ग्राम
प्रयोग विधि :-
ऊपर बताई गई दोनों साम्रगी को अच्छी तरह से मिलाकर प्रातकाल ठन्डे पानी के साथ खाने से 10 से 15 दिन में पीलिया की बीमारी से छुटकारा मिल जाता है। 
 
बादाम से पीलिया का उपचार :- Almond or Badaam Se Piliya Ka Illaj
सामग्री : बादाम की गिरी - 10,छोटी इलायची के बीज - 5 व छुहारे - 2 नग
इन सभी सामग्री को मिलाकर किसी भी मिट्टी के बर्तन में डालकर रात्रि को सोने से पहले भिगो दे। और प्रातकाल उठकर इन सभी भीगी हुई सामग्री में ७५ ग्राम मिश्री मिलाकर इनको बारीक़ पीसकर इसमें ५० ग्राम ताजा मक्खन मिलाये और इसे एक मिश्रण की तरह तैयर करके रोगी को लगातार कम से कम दो सप्ताह तक सेवन करने से पीलिया की बीमारी ठीक हो जाती है। साथ ही पेट में बनी गर्मी भी दूर हो जाती है। इस इलाज में ध्यान रखना चाहिए कि  किसी गर्म पदार्थों को नही खाना चाहिए।

रोकथाम
  1. सीवर लाइन व जल पाइप एक दूसरे से पानी का संक्रामण करते हैं इसलिए पानी उबाल कर पीएँ।
  2. बाजार की खुली चीजें जैसे पफल या चाट व खाना न खाएँ।
  3. बाजार के ठण्डे पेय पदार्थ न पिएँ सपफाई का ध्यान रखें।
  4. पीलिया के टीके लगवायें।
  5. यदि पित्त की थैली में स्टोन या गाँठ मालूम हो तो तुरन्त इलाज करायें।
  6. लिवर कमजोर हो तो डाॅक्टर द्वारा बताई गई दवा लें।
  7. शराब का सेवन न करें।
  8. अपने चिकित्सक की सलाह लें तथा इलाज पर विशेष ध्यान दें।


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देवताओं का शहर प्रयागराज इलाहाबाद City of God Prayagraj Allahabad



इलाहाबद उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा शहर है। भारत के ऐतिहासिक मानचित्र पर इलाहाबाद एक ऐसा प्रकाश स्तम्भ है, जिसकी रोशनी कभी भी धूमिल नहीं हो सकती। इस नगर ने युगों की करवट देखी है, बदलते हुए इतिहास के उत्थान-पतन को देखा है, राष्ट्र की सामाजिक व सांस्कृतिक गरिमा का यह गवाह रहा है तो राजनैतिक एवं साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र भी। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इलाहाबाद का पुराना का नाम प्रयागराज है। ऐसी मान्यता है कि चार वेदों की प्राप्ति पश्चात ब्रह्म ने यहीं पर यज्ञ किया था, सो सृष्टि की प्रथम यज्ञ स्थली होने के कारण इसे प्रयाग कहा गया। प्रयाग माने प्रथम यज्ञ। कालान्तर में मुगल सम्राट अकबर इस नगर की धार्मिक और सांस्कृतिक ऐतिहासिकता से काफ़ी प्रभावित हुआ। उसने भी इस नगरी को ईश्वर या अल्लाह का स्थान कहा और इसका नामकरण इलहवास किया अर्थात जहाँ पर अल्लाह का वास है। परन्तु इस सम्बन्ध में एक मान्यता और भी है कि इला नामक एक धार्मिक सम्राट, जिसकी राजधानी प्रतिष्ठानपुर (अब झूंसी) थी के वास के कारण इस जगह का नाम इलावास पड़ा। कालान्तर में अँगरेज़ों ने इसका उच्चारण इलाहाबाद कर दिया।
यह तीन नदियों गंगा, यमुना, तथा अदृश्य सरस्वती का संगम हैं। इन तीनों के मिलान का स्थान त्रिवेणी कहलाता है। विशेष रूप से हिन्दुओं के लिये यह एक पवित्र स्थान है। आर्यो का पहले निवास इस शहर में होने के कारण इसको प्रयाग के नाम से जाना गया इसकी पवित्रता का प्रमाण पुराण, रामायण तथा महाभारत में संदर्भित है। हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान ब्रह्मा परमेश्वर के निर्माता है। जिन्होंने सृष्टि के प्रारम्भ में प्रकृष्ट यज्ञ पूरा करने हेतु पृथ्वी पर भूमि प्रयाग चूनी और इसे तीर्थ राज अथवा सभी तीर्थ स्थानों का राजा कहा गया । पद्म पुराण के अनुसार सूर्य के बीच चन्द्र तथा चन्द्र के बीच में तारे है इस प्रकार सभी तीर्थ स्थलों में प्रयाग सबसे अच्छा है।
 इलाहाबाद एक अत्यन्त पवित्र नगर है, जिसकी पवित्रता गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम के कारण है। वेद से लेकर पुराण तक और संस्कृति कवियों से लेकर लोकसाहित्य के रचनाकारों तक ने इस संगम की महिमा का गान किया है। इलाहाबाद को संगमनगरी, कुम्भनगरी और तीर्थराज भी कहा गया है। प्रयागशताध्यायी के अनुसार काशी, मथुरा, अयोध्या इत्यादि सप्तपुरियाँ तीर्थराज प्रयाग की पटरानियाँ हैं, जिनमें काशी को प्रधान पटरानी का दर्ज़ा प्राप्त है। तीर्थराज प्रयाग की विशालता व पवित्रता के सम्बन्ध में सनातन धर्म में मान्यता है कि एक बार देवताओं ने सप्तद्वीप, सप्तसमुद्र, सप्तकुलपर्वत, सप्तपुरियाँ, सभी तीर्थ और समस्त नदियाँ तराजू के एक पलड़े पर रखीं, दूसरी ओर मात्र तीर्थराज प्रयाग को रखा, फिर भी प्रयागराज ही भारी रहे। वस्तुतः गोमुख से इलाहाबाद तक जहाँ कहीं भी कोई नदी गंगा से मिली है उस स्थान को प्रयाग कहा गया है, जैसे-देवप्रयाग, कर्ण प्रयाग, रूद्रप्रयाग आदि। केवल उस स्थान पर जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है प्रयागराज कहा गया। इस प्रयागराज इलाहाबाद के बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-
"को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ, कलुष पुंज कुंजर मगराऊ।
सकल काम प्रद तीरथराऊ, बेद विदित जग प्रगट प्रभाऊ।।"
अगर हम प्रागैतिहासिक काल में झांककर देखें तो इलाहाबाद और मिर्जापुर के मध्य अवस्थित बेलन घाटी में पुरापाषाण काल के पशु-अवशेष प्राप्त हुए हैं। बेलन घाटी में विंध्य पर्वत के उत्तरी पृष्ठों पर लगातार तीन अवस्थायें-पुरापाषाण, मध्यपाषाण व नवपाषाण काल एक के बाद एक पाई जाती हैं। भारत में नवपाषाण युग की शुरुआत ईसा पूर्व छठी सहस्राब्दी के आसपास हुई और इसी समय से उप महाद्वीप में चावल, गेहूं व जौ जैसी फसलें उगाई जाने लगीं। इलाहाबाद जिले के नवपाषाण स्थलों की यह विशेषता है कि यहां ईसा पूर्व छठी सहस्राब्दी में भी चावल का उत्पादन होता था। इसी प्रकार वैदिक संस्कृति का उद्भव भले ही सप्तसिन्धु देश (पंजाब) में हुआ हो, पर विकास पश्चिमी गंगा घाटी में ही हुआ। गंगा-यमुना दोआब पर प्रभुत्व पाने हेतु तमाम शक्तियां संघर्षरत रहीं और नदी तट पर होने के कारण प्रयाग का विशेष महत्व रहा । आर्यों द्वारा उल्लिखित द्वितीय प्रमुख नदी सरस्वती प्रारम्भ से ही प्रयाग में प्रवाहमान थीं। सिन्धु सभ्यता के बाद भारत में द्वितीय नगरीकरण गंगा के मैदानों में ही हुआ। यहाँ तक कि सभी उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ लगभग 1000.600 ई.पू. में उत्तरी गंगा मैदान में ही रचे गये। उत्तर वैदिक काल के प्रमुख नगरों में से एक कौशाम्बी था, जो कि वर्तमान में इलाहाबाद से एक पृथक जनपद बन गया है। प्राचीन कथाओें के अनुसार महाभारत युद्ध के काफ़ी समय बाद हस्तिनापुर बाढ़ में बह गया और कुरूवंश में जो जीवित रहे वे इलाहाबाद के पास कौशाम्बी में आकर बस गये। बुद्ध के समय अवस्थित 16 बड़े-बड़े महाजनपदों में से एक वत्स की राजधानी कौशाम्बी थी।
मौर्य काल में पाटलिपुत्र, उज्जयिनी और तक्षशिला के साथ कौशाम्बी व प्रयाग भी चोटी के नगरों में थे। प्रयाग में मौर्य शासक अशोक के 6 स्तम्भ लेख प्राप्त हुए हैं। संगम-तट पर किले में अवस्थित 10.6 मी. ऊँचा अशोक स्तम्भ 232 ई.पू. का है, जिस पर तीन शासकों के लेख खुदे हुए हैं। 200 ई. में समुद्रगुप्त इसे कौशाम्बी से प्रयाग लाया और उसके दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग-प्रशस्ति इस पर ख़ुदवाया गया। कालान्तर में 1605 ई. में इस स्तम्भ पर मुगल सम्राट जहाँगीर के तख़्त पर बैठने का वाकया भी ख़ुदवाया गया। 1800 ई. में किले की प्राचीर सीधी बनाने हेतु इस स्तम्भ को गिरा दिया गया और 1838 में अँगरेज़ों ने इसे पुनः खड़ा किया।
गुप्तकालीन शासकों की प्रयाग राजधानी रही है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग-प्रशस्ति उसी स्तम्भ पर खुदा है, जिस पर अशोक का है। इलाहाबाद में प्राप्त 448 ई. के एक गुप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि पाँचवीं सदी में भारत में दाशमिक पद्धति ज्ञात थी। इसी प्रकार इलाहाबाद के करछना नगर के समीप अवस्थित गढ़वा से एक-एक चन्द्रगुप्त व स्कन्दगुप्त का और दो अभिलेख कुमारगुप्त के प्राप्त हुए हैं, जो उस काल में प्रयाग की महत्ता दर्शाते हैं। कामसूत्र के रचयिता मलंग वात्सायन का जन्म भी कौशाम्बी में हुआ था।
भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट माने जाने वाले हर्षवर्धन के समय में भी प्रयाग की महत्ता अपने चरम पर थी। चीनी यात्री हृवेनसांग लिखता है कि- इस काल में पाटलिपुत्र और वैशाली पतनावस्था में थे, इसके विपरीत दोआब में प्रयाग और कन्नौज महत्वपूर्ण हो चले थे। हृवेनसांग ने हर्ष द्वारा महायान बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ कन्नौज और तत्पश्चात प्रयाग में आयोजित महामोक्ष परिषद का भी उल्लेख किया है। इस सम्मेलन में हर्ष अपने शरीर के वस्त्रों को छोड़कर सर्वस्व दान कर देता था। स्पष्ट है कि प्रयाग बौद्धों हेतु भी उतना ही महत्वपूर्ण रहा है, जितना कि हिन्दुओं हेतु। कुम्भ में संगम में स्नान का प्रथम ऐतिहासिक अभिलेख भी हर्ष के ही काल का है।
प्रयाग में घाटों की एक ऐतिहासिक परम्परा रही है। यहाँ स्थित दशाश्वमेध घाट पर प्रयाग महात्म्य के विषय में मार्कंडेय ऋषि द्वारा अनुप्राणित होकर धर्मराज युधिष्ठिर ने दस यज्ञ किए और अपने पूर्वजों की आत्मा हेतु शांति प्रार्थना की। धर्मराज द्वारा दस यज्ञों को सम्पादित करने के कारण ही इसे दशाश्वमेध घाट कहा गया। एक अन्य प्रसिद्ध घाट रामघाट( झूंसी) है। महाराज इला जो कि भगवान राम के पूर्वज थे, ने यहीं पर राज किया था। उनकी संतान व चन्द्रवंशीय राजा पुरूरवा और गंधर्व मिलकर इसी घाट के किनारे अग्निहोत्र किया करते थे। धार्मिक अनुष्ठानों और स्नानादि हेतु प्रसिद्ध त्रिवेणी घाट वह जगह है जहाँ पर यमुना पूरी दृढ़ता के साथ स्थिर हो जाती हैं व साक्षात् तापस बाला की भाँति गंगा जी यमुना की ओर प्रवाहमान होकर संगम की कल्पना को साकार करती हैं। त्रिवेणी घाट से ही थोड़ा आगे संगम घाट है। संगम क्षेत्र का एक ऐतिहासिक घाट किला घाट है। अकबर द्वारा निर्मित ऐतिहासिक किले की प्राचीरों को जहाँ यमुना स्पर्श करती हैं, उसी के पास यह किला घाट है और यहीं पर संगम तट तक जाने हेतु नावों का जमावड़ा लगा रहता है। इसी घाट से पश्चिम की ओर थोड़ा बढ़ने पर अदृश्य सलिला सरस्वती के समीकृत सरस्वती घाट है। रसूलाबाद घाट प्रयाग का सबसे महत्वपूर्ण घाट है। महिलाओं हेतु सर्वथा निषिद्व शमशानघाट की विचारधारा के विरूद्ध यहाँ अभी हाल तक महाराजिन बुआ नामक महिला शमशानघाट में वैदिक रीति से अंतिम संस्कार सम्पन्न कराती थीं।
सल्तनत काल में भी इलाहाबाद सामारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा। अलाउद्दीन खिलजी ने इलाहाबाद में कड़ा के निकट अपने चाचा व श्वसुर जलालुद्दीन खिलजी की धोख़े से हत्या कर अपने साम्राज्य की स्थापना की। मुगल-काल में भी इलाहाबाद अपनी ऐतिहासिकता को बनाये रहा। अकबर ने संगम तट पर 1538 ई0 में किले का निर्माण कराया। ऐसी भी मान्यता है कि यह किला अशोक द्वारा निर्मित था और अकबर ने इसका जीर्णोद्धार मात्र करवाया। पुनः 1838 में अँगरेज़ों ने इस किले का पुनर्निर्माण करवाया और वर्तमान रूप दिया। इस किले में भारतीय और ईरानी वास्तुकला का मेल आज भी कहीं-कहीं दिखायी देता है। इस किले में 232 ई.पू. का अशोक का स्तम्भ, जोधाबाई महल, पातालपुरी मंदिर, सरस्वती कूप और अक्षय वट अवस्थित हैं। ऐसी मान्यता है कि वनवास के दौरान भगवान राम इस वट-वृक्ष के नीचे ठहरे थे और उन्होंने उसे अक्षय रहने का वरदान दिया था सो इसका नाम अक्षयवट पड़ा। किले-प्राँगण में अवस्थित सरस्वती कूप में सरस्वती नदी के जल का दर्शन किया जा सकता है। इसी प्रकार मुगलकालीन शोभा बिखेरता खुसरो बाग जहांगीर के बड़े पुत्र खुसरो द्वारा बनवाया गया था। यहाँ बाग में खुसरो, उसकी माँ और बहन सुल्तानुन्निसा की कब्रें हैं। ये मकबरे काव्य और कला के सुन्दर नमूने हैं। फारसी भाषा में जीवन की नश्वरता पर जो कविता यहाँ अंकित है वह मन को भीतर तक स्पर्श करती है।
बक्सर के युद्ध (1764 बाद अँगरेज़ों ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर आधिपत्य कर लिया, पर मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय अभी भी नाममात्र का प्रमुख था। अंततः बंगाल के ऊपर कानूनी मान्यता के बदले ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने शाह आलम को 26 लाख रूपये दिए एवं कड़ा व इलाहाबाद के जिले भी जीतकर दिये। सम्राट को 6 वर्षो तक कम्पनी ने इलाहाबाद के किले में लगभग बंदी बनाये रखा। पुनः 1801 में अवध नवाब को अँगरेज़ों ने सहायक संधि हेतु मजबूर कर गंगा-यमुना दोआब पर क़ब्जा कर लिया। उस समय इलाहाबाद प्रान्त अवध के ही अन्तर्गत था। इस प्रकार 1801 में इलाहाबाद अँगरेज़ों की अधीनता में आया और उन्होंने इसे वर्तमान नाम दिया।
स्वतत्रता संघर्ष आन्दोलन में भी इलाहाबाद की एक अहम् भूमिका रही। राष्ट्रीय नवजागरण का उदय इलाहाबाद की भूमि पर हुआ तो गाँधी युग में यह नगर प्रेरणा केन्द्र बना। राष्ट्रीय कांग्रेस के संगठन और उन्नयन में भी इस नगर का योगदान रहा है। 1857 के विद्रोह का नेतृत्व यहाँ पर लियाकत अली ने किया । कांग्रेस पार्टी के तीन अधिवेशन यहाँ पर 1888, 1892 और 1910 में क्रमशः जार्ज यूल, व्योमेश चंद बनर्जी और सर विलियम बेडरबर्न की अध्यक्षता में हुए। महारानी विक्टोरिया का 1 नंवबर 1858 का प्रसिद्ध घोषणा पत्र यहीं अवस्थित मिण्टो पार्क (अब मदन मोहन मालवीय पार्क) में तत्कालीन वायसराय लार्ड केनिंग द्वारा पढ़ा गया था। नेहरू परिवार का पैतृक आवास स्वराज भवन और आनन्द भवन यहीं पर है। नेहरू-गाँधी परिवार से जुडे़ होने के कारण इलाहाबाद ने देश को प्रथम प्रधानमंत्री भी दिया। उदारवादी व समाजवादी नेताओं के साथ-साथ इलाहाबाद क्रांतिकारियों की भी शरणस्थली रहा है। चंद्रशेखर आजाद ने यहीं पर अल्फ्रेड पार्क में 27 फरवरी 1931 को अँगरेज़ों से लोहा लेते हुए ब्रिटिश पुलिस अध्यक्ष नॉट बाबर और पुलिस अधिकारी विशेश्वर सिंह को घायल कर कई पुलिसजनों को मार गिराया औरं अंततः ख़ुद को गोली मारकर आजीवन आजाद रहने की कसम पूरी की। 1919 के रौलेट एक्ट को सरकार द्वारा वापस न लेने पर जून 1920 में इलाहाबाद में एक सर्वदलीय सम्मेलन हुआ जिसमें स्कूल, कॉलेजों और अदालतों के बहिष्कार के कार्यक्रम की घोषणा हुई, इस प्रकार प्रथम असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलन की नींव भी इलाहाबाद में ही रखी गयी।
वाकई इलाहाबाद इतिहास के इतने आयामों को अपने अन्दर छुपाये हुए है कि सभी का वर्णन संभव नहीं। 1887 में स्थापित पूरब का ऑक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अपनी अलग ही ऐतिहासिकता है। इस संस्थान से शिक्षा प्राप्त कर जगतगुरु भारत को नई ऊंचाइयां प्रदान करने वालों की एक लंबी सूची है। इसमें उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त, उत्तराखंड के प्रथम मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के प्रथम अध्यक्ष जस्टिस रंगनाथ मिश्र, स्वतंत्र भारत के प्रथम कैबिनेट सचिव धर्मवीर, राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर चुके डॉ. शंकर दयाल शर्मा, पूर्व प्रधानमंत्री द्वय वी.पी.सिंह व चंद्रशेखर, राज्यसभा की उपसभापति रहीं नजमा हेपतुल्ला, मुरली मनोहर जोशी, मदन लाल खुराना, अर्जुन सिंह, सत्य प्रकाश मालवीय, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस के.एन. सिंह, जस्टिस वी.एन. खरे, जस्टिस जे.एस. वर्मा.....इत्यादि न जाने कितने महान व्यक्तित्व शामिल हैं। शहीद पद्मधर की कुर्बानी को समेटे इलाहाबाद विश्वविद्यालय सदैव से राष्ट्रवाद का केन्द्रबिन्दु बनकर समूचे भारत वर्ष को स्पंदित करता रहा है। देश का चौथा सबसे पुराना उच्च न्यायालय (1866 जो कि प्रारम्भ में आगरा में अवस्थित हुआ, के 1869 में इलाहाबाद स्थानान्तरित होने पर आगरा के तीन विख्यात एडवोकेट पं. नन्दलाल नेहरू, पं. अयोध्यानाथ और मुंशी हनुमान प्रसाद भी इलाहाबाद आये और विधिक व्यवसाय की नींव डाली। मोतीलाल नेहरू इन्हीं पं. नंदलाल नेहरू जी के बड़े भाई थे। कानपुर में वकालत आरम्भ करने के बाद 1886 में मोती लाल नेहरू वक़ालत करने इलाहाबाद चले आए और तभी से इलाहाबाद और नेहरू परिवार का एक अटूट रिश्ता आरम्भ हुआ। इलाहाबाद उच्च न्यायालय से सर सुन्दरलाल, मदन मोहन मालवीय, तेज बहादुर सप्रू, डॉ. सतीशचन्द्र बनर्जी, पी.डी.टंडन, डॉ. कैलाश नाथ काटजू, पं. कन्हैया लाल मिश्र आदि ने इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी। उत्तर प्रदेश विधानमण्डल का प्रथम सत्र समारोह इलाहाबाद के थार्नहिल मेमोरियल हॉल में (तब अवध व उ. प्र. प्रांत विधानपरिषद) 8 जनवरी 1887 को आयोजित किया गया था।
इलाहाबाद में ही अवस्थित अल्फ़्रेड पार्क भी कई युगांतरकारी घटनाओं का गवाह रहा है। राजकुमार अल्फ़्रेड ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा के इलाहाबाद आगमन को यादगार बनाने हेतु इसका निर्माण किया गया था। पुनः इसका नामकरण आजा़द की शहीदस्थली रूप में उनके नाम पर किया गया। इसी पार्क में अष्टकोणीय बैण्ड स्टैण्ड है, जहाँ अँगरेज़ी सेना का बैण्ड बजाया जाता था। इस बैण्ड स्टैण्ड के इतालियन संगमरमर की बनी स्मारिका के नीचे पहले महारानी विक्टोरिया की भव्य मूर्ति थी, जिसे 1957 में हटा दिया गया। इसी पार्क में उत्तर प्रदेश की सबसे पुरानी और बड़ी जीवन्त गाथिक शैली में बनी पब्लिक लाइब्रेरी (1864 भी है, जहाँ पर ब्रिटिश युग के महत्वपूर्ण संसदीय कागज़ात रखे हुए हैं। पार्क के अंदर ही 1931 में इलाहाबाद महापालिका द्वारा स्थापित संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय को पं. नेहरू ने 1948 में अपनी काफ़ी वस्तुयें भेंट की थी।
इलाहाबाद की अपनी एक धार्मिक ऐतिहासिकता भी रही है। छठवें जैन तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभु की जन्मस्थली कौशाम्बी रही है तो भक्ति आंदोलन के प्रमुख स्तम्भ रामानन्द का जन्म प्रयाग में हुआ। रामायण काल का चर्चित श्रृंगवेरपुर, जहाँ पर केवट ने राम के चरण धोये थे, यहीं पर है। यहाँ गंगातट पर श्रृंगी ऋषि का आश्रम व समाधि है। भारद्वाज मुनि का प्रसिद्ध आश्रम भी यहीं आनन्द भवन के पास है, जहाँ भगवान राम श्रृंगवेरपुर से चित्रकूट जाते समय मुनि से आशीर्वाद लेने आए थे। अलोपी देवी के मंदिर के रूप में प्रसिद्ध सिद्धिपीठ यहीं पर है तो सीता-समाहित स्थल के रूप में प्रसिद्ध सीतामढ़ी भी यहीं पर है। गंगा तट पर अवस्थित दशाश्वमेध मंदिर जहाँ ब्रह्य ने सृष्टि का प्रथम अश्वमेध यज्ञ किया था, भी प्रयाग में ही अवस्थित है। धौम्य ऋषि ने अपने तीर्थयात्रा प्रसंग में वर्णन किया है कि प्रयाग में सभी तीर्थों, देवों और ऋषि-मुनियों का सदैव से निवास रहा है तथा सोम, वरूण व प्रजापति का जन्मस्थान भी प्रयाग ही है। संगम तट पर लगने वाले कुम्भ मेले के बिना प्रयाग का इतिहास अधूरा है। प्रत्येक बारह वर्ष में यहाँ पर महाकुम्भ मेले का आयोजन होता है, जो कि अपने में एक लघु भारत का दर्शन करने के समान है। इसके अलावा प्रत्येक वर्ष लगने वाले माघ-स्नान और कल्पवास का भी आध्यात्मिक महत्व है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार माघ मास में तीन करोड़ दस हज़ार तीर्थ प्रयाग में एकत्र होते हैं और विधि-विधान से यहाँ ध्यान और कल्पवास करने से मनुष्य स्वर्गलोक का अधिकारी बनता है। पद्मपुराण के अनुसार प्रयाग में माघ मास के समय तीन दिन पर्यन्त संगम स्नान करने से प्राप्त फल पृथ्वी पर एक हज़ार अश्वमेध यज्ञ करने से भी नहीं प्राप्त होता-"प्रयागे माघमासे तु त्र्यहं स्नानस्य यत्फलम्। नाश्वमेधसस्त्रेण तत्फलं लभते भुवि।।"
कभी प्रयाग का एक विशिष्ट अंग रहे, पर वर्तमान में एक पृथक जनपद के रूप में अवस्थित कौशाम्बी का भी अपना एक अलग इतिहास है। विभिन्न कालों में धर्म, साहित्य, व्यापार और राजनीति का केंद्र बिन्दु रहे कौशाम्बी की स्थापना उद्यिन ने की थी। यहाँ पाँचवी सदी के बौद्ध स्तूप और भिक्षुगृह हैं। वासवदत्ता के प्रेमी उद्यान की यह राजधानी थी। यहां की खुदाई से महाभारत काल की ऐतिहासिकता का भी पता लगता है।
इलाहाबाद एक महत्वपूर्ण शहर है जहाँ इतिहास संस्कृति और धर्म एक जादुई प्रभाव उत्पन्न करते है उसी शहर जहाँ इतिहास संस्कृति और धर्म एक जादुई प्रभाव उत्पन्न करते है उसी तरह पवित्र नदियों के स्पर्श से यह पृथ्वी धन्य है। इसी धर्मिक महत्व के कारण बहुत से तीर्थ यात्री स्नान पर्व पर इलाहाबाद आते है। मार्च माह जनवरी से फरवरी के मध्य मे हिन्दु स्वय को शुद्ध करते है। इस माह के दौरान एक विशाल भीड़ होती है और बालू की भूसी पर लगने वाला यह मेला माघ मेले के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक 12 वर्ष में जब विशेष रूप से पानी पवित्र हो जाता है तब इलाहाबाद में एक वृहत मेला लगता है जिसे कुभ मेला कहते है। भारत वर्ष के प्रत्येक कोने से लाखों तीर्थ यात्री इस मेले मे आते है। ऐसा विश्वास है कि इस कुंभ मेले में स्नान करने से सभी पाप और बुराईयाँ नष्ट हो जाती है। और स्नान से मोक्ष प्राप्त होता है। जनवरी और फ़रवरी में इलाहाबाद माघ मेले का आयोजन होता है। 1885 में मार्क दवेन ने इलाहाबाद कुंभ के संबंध में लिखा है 1 माह तक जोश में लेाग यहाँ थके हुए, अकिंचन तथा भूखे रहते है फिर उनका विश्वास अटल बना हुआ है। इस माह के दौरान आयोजित इस धार्मिक प्रवचन सांस्कृतिक गतिविधियों एवं अन्य क्रिया कलाप बड़ी संख्या में लोगों को बाधे रखते है। इस वृहत मेले में दर्शको का विश्वास प्रतिबिंबित होता है। यह जगत कुटुम्बकम् अथवा सार्वमोम गाँव का प्रतीक है इसमें विभिन्न सांस्कृतियां विभिन्न धर्म विभिन्न विचार धाराओं के लोग आपस में विचार विमर्श कर सूचनाओं का व ज्ञान का आदान - प्रदान करते है।
भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान और सम्पूर्ण शताब्दी में इलाहाबाद का राष्ट्रीय महत्व सर्वविदित रहा है। इलाहाबाद के इतिहास ने अपने धार्मिक सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के फलस्वरूप अनेक प्रतिष्ठित विद्वान, कवि लेखक विचारक, राजनीति दिये है।

इलाहाबाद के रोचक स्थान

संगम 
हिन्दू पुराण के अनुसार पवित्र संगम तीन पावन नदियों गंगा, यमुना, एवं अदृश्य सरस्वती का सम्मिलन है। ऐसी धारणा है कि संगम में अमृत की कुछ बूँदें मिलायी गयी। जिससे इसका जन जादुई प्रभाव वाला हो गया। सिविल लाइन से करीब 7 किलोमीटर दूर इलाहाबाद के पूर्व मिट्टी से घिरे किनारों वाले पवित्र संगम के पास किला स्थित है। पंडा (पुजारी) एक छोटे चबूतरे पर बैठ कर पूजा - अर्चना करते है और श्रद्धालुओं को विधि अनुसार पवित्र जल में स्नान करते है। तीर्थ यात्री अपने मृत माता - पिता का पिंडदान करते है साथ ही अपने पूर्वजों को भेट दान देते हैं। संगम पर लगी नावें तीर्थ यात्री एवं पर्यटक द्वारा प्रयोग में लाई जाती है। जो किले के पूर्व में 12/- रुपये प्रति व्यक्ति की दर से तत्काल उपलब्ध हो सकती हैं वार्षिक माघ मेला/अर्ध कुम्भ कुम्भ मेला का स्थान पवित्र संगम है।
इलाहाबाद किला
बादशाह अकबर द्वारा ईसवी सन् 1583 में बनाया गया यह किला संगम के करीब यमुना नदी के किनारे स्थित है। सिविल लाइन से यह करीब 8 किलोमीटर दूर है। कला, निर्माण तथा शिल्पकारी में यह किला अद्वितीय है। वर्तमान समय में किले का उपयोग सेना द्वारा किया जाता है तथा एक सीमित क्षेत्र ही आगन्तुक के लिए खुला है। आगन्तुकों का अशोक स्तम्भ एवं सरस्वती कूप देखने की ही अनुमति है ऐसा कहा जाता है कि यह कूप सरस्वती नदी तथा जोधाबाई महल का प्रमाण है यहां पातालपुरी मंदिर भी यहां का अक्षयवट अथवा बरगद के वृक्ष का नाम भी श्रद्धा के साथ लिया जाता है।
हनुमान मंदिर
संगम के समीप स्थित इस मंदिर का उत्तरी भारत में एक विशेष महत्व है जहां भगवान हनुमान एक आदर्श है। यह करीब 20 फीट लम्बे एवं 8 फीट चौड़ा है इन्हें लेटी हुई मुद्रा में देखा जा सकता है। जब गंगा में बाढ़ आती है तो यह मंदिर जलमग्न हो जाता है।
शंकर विमान मण्डपम
यह मण्डपम् हनुमान मंदिर के नजदीक 130 फीट उंचा 4 मंजिला है। इसमें कुमारिल भट्ट जगतगुरु शंकराचार्य, कामाक्षी देवी करीब 5 शक्तियों सहित योग शास्त्र योग लिंग कबीब 108 शिव की प्रतिमाएँ है। इलाहाबाद का यह सबसे महत्वपूर्ण शिव मनकामेश्वर मन्दिर यमुना नदी के किनारे सरस्वती घाट पर स्थित है यह जगत गुरु शंकराचार्य के अधिकार क्षेत्र में हैं।

मिन्टो पार्क
सरस्वती घाट के नज़दीक स्थित इस पार्क के ऊपरी भाग में चार शेरों का प्रतीक एक यादगार पत्थर लगा हुआ हैं। जिसे 1910 में लार्ड मिन्टो द्वारा लगाया गया था।
आनन्द भवन
यह नेहरू परिवार का पैतृक भवन है। स्वतंत्रता संघर्ष के लिए घटित विभिन्न युगों की घटनाओं का यह भवन प्रत्यक्षदर्शी रहा है। आज यह महत्वपूर्ण संग्रहालय में परिणत है जो नेहरू परिवार से संबंधित यादें ताजा करती है। आगमन समय 9.30 प्रातः काल से 5.00 बजे शाम टिकट - 5रू0 प्रति व्यक्ति दूरभाष 600476 सोमवार एवं अन्य सरकारी अवकाश में बंद रहेगा। 
स्वराज भवन
पुराना आनन्द भवन को सन् 1930 में मोतीलाल नेहरू ने राष्ट्र को समर्पित कर दिया था जिसे कांग्रेस कमेटी के मुख्यालय के रूप उपयोग किया जाता था स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जन्म यही हुआ था। अब यह भवन बच्चों का चित्रकारी एवं दस्तकारी सीखने के लिए उपयोग में लाया जाता है यहां प्रकाश एवं ध्वनि से संबंधित कार्यक्रम भी देखे जा सकते हैं। प्रकाश एवं ध्वनि से संबंधित 4 कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते है। प्रातः काल 10.00 1.30 सायंकाल तथा 2.30 सायं काल एवं 4 बजे सायंकाल, टिकट 5 रू0 प्रति व्यक्ति सोमवार एवं सरकारी अवकाश में बंद रहेगा।
जवाहर प्लेनेटोरियम
यह आनन्द भवन के बगल में स्थित है। यहां वैज्ञानिक दृष्टिकोण से खगोलीय दर्शन हेतु लोग आते है। यह हमेशा चलता रहता है यहां पांच शो होते है - 11.00 प्रातःकाल 12.00 दोपहर , 2.00 सायंकाल एवं 4 बजे सायंकाल। टिकट दर 10 रू0 प्रति व्यक्ति, यहाँ का फोन नंबर 2600493 हैं और सोमवार एवं सरकारी अवकाशों में बंद रहेगा।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय
इलाहाबाद उच्च न्यायालय (Allahabad High Court) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य का उच्च न्यायालय है। भारत में स्थापित सबसे पुराने उच्च न्यायालयों में से एक है। यह 1869 से कार्य कर रहा है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय मूल रूप से ब्रिटिश राज में भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम 1861 के अन्तर्गत आगरा में 17 मार्च 1866 को स्थापित किया गया था। उत्तरी-पश्चिमी प्रान्तों के लिए स्थापित इस न्यायाधिकरण के पहले मुख्य न्यायाधीश थे सर वाल्टर मॉर्गन। सन् 1869 में इसे आगरा से इलाहाबाद स्थानान्तरित किया गया। 11 मार्च 1919 को इसका नाम बदल कर 'इलाहाबाद उच्च न्यायालय' रख दिया गया। 2 नवम्बर 1925 को अवध न्यायिक आयुक्त ने अवध सिविल न्यायालय अधिनियम 1925 की गवर्नर जनरल से पूर्व स्वीकृति लेकर संयुक्त प्रान्त विधानमण्डल द्वारा अधिनियमित करवा कर इस न्यायालय को अवध चीफ कोर्ट के नाम से लखनऊ में प्रतिस्थापित कर दिया। काकोरी काण्ड का ऐतिहासिक मुकद्दमें का निर्णय अवध चीफ कोर्ट लखनऊ में ही दिया गया था। 25 फरवरी 1948 को, उत्तर प्रदेश विधान सभा ने एक प्रस्ताव पारित कर राज्यपाल द्वारा गवर्नर जनरल को यह अनुरोध किया गया कि अवध चीफ कोर्ट लखनऊ और इलाहाबाद हाई कोर्ट को मिलाकर एक कर दिया जाये। इसका परिणाम यह हुआ कि लखनऊ और इलाहाबाद के दोनों न्यायालयों को 'इलाहाबाद उच्च न्यायालय' नाम से जाना जाने लगा तथा इसका सारा कामकाज इलाहाबाद से चलने लगा और इसकी एक पीठ लखनऊ मे स्‍थापित कर दी गई। 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
इलाहाबाद विश्वविद्यालय 1887 में स्थापित भारत के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में एक यह आनन्द भवन के करीब स्थित है। विस्तृत भू भाग में फैले इस के कैम्पस में विकटोरियन तथा इस्लामिक वास्तुकला कौशल से प्रतीक भवन है म्योर कालेज इलाहाबाद विश्वविद्यालय का विज्ञान संकाय है। म्योर कालेज का विजयनगर हाल उत्कृष्ट गोथिक वास्तुशिल्प का नमूना है।
इलाहाबाद संग्रहालय
चन्द्रशेखर आजाद पार्क के पास स्थित गुप्त काल की मूर्तिकला का यह संग्रहालय विशेष रूप से दर्शनीय है।

चन्द्रशेखर आजाद पार्क
अल्फ्रेड पार्क संग्रहालय के पीछे स्थित यह इलाहाबाद का सबसे बड़ा पार्क है। पहले इसे अल्फ्रेड पार्क कहा जाता था। जार्ज-5 तथा विक्टोरिया की विशाल मूर्ति इसके केंद्र में लगी थी। जहां कभी कभी पुलिस बैंड का प्रयोग होता था स्वतंत्रता के पश्चात इस पार्क को चन्द्रशेखर आजाद पार्क के नाम से जाना गया और ब्रिटिश अवधि में पुलिस मुठभेड़ में मारे गये स्थान पर आजाद की अर्ध प्रतिमा लगाई गई इस पार्क के केंद्र में मदन मोहन मालवीय के नाम पर एक स्टेडियम बनाया गया है जहां सभी महत्वपूर्ण मैच एवं खेल कूद कराये जाते है इस पार्क में सार्वजनिक वाचनालय भी है जहां करीब 75,000 हजार किताबें हैं। इसी के समीप पाण्डुलिपियों का खजाना एवं जनरल मौजूद है।

खुसरो बाग
यह मुगल गार्डन में एक है जिसे जहांगीर द्वारा अपने बेटे राजकुमार खुसरो की याद में बनवाया गया था। इसके मध्य में राजकुमार का मकबरा बनवाया गया था। यह इलाहाबाद जंक्शन के पास जी.टी.रोड पर स्थित है। अमरूद तथा आम इस बगीचे के प्रसिद्ध फल है।
भरद्वाज आश्रम
आनन्द भवन के सामने स्थित है। एकसी धारणा है कि भगवान राम अपनी पत्नी सीता तथा भाई लक्ष्मण के साथ वनवास के समय इसी आश्रम में रुके थे। उस दिन मुनि भरद्वाज गंगा से भरद्वाज आश्रम आते थे। अब यहां अनेक मंदिर विद्यमान हैं सभी संत कैथेड्रल (पत्थर गिरजाघर) उन सभी आयु और स्थान के व्यक्तियों की याद में समर्पित है जिनका सर्वशक्तिमान पर विश्वास है। इस खूबसूरत कैथेड्रल की रचना सर विलियम इमरसन ने 1870 में की तथा 1887 में इसे समर्पित किया। यह एशिया का एक खूबसूरत कैथेड्रल है इसमें सफेद तथा लाल पत्थर लगे हैं इसको देखने के लिये आया हुआ कोई भी व्यक्ति जटिलता से लगाए गए मार्बल तथा मोजेक कार्य की सुन्दरता से प्रभावित हुए बिना नही रह सकता। इसमें विशिष्ट शीशे तथा चित्रकारी भी प्रदर्शित है। यह सिविल लाइन में स्थित है।
*संकलन*


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