क्‍या आप अभी भी अपनी राय पर कायम है ?




लगभग आज से कुछ माह पहले मै कुछ पढ़ने की कोशिस कर रहा था, और अचानक मैने XYZ जी के XYZ का एक लेख देख गया। और जो न कह सके पर आपका वर्णन हो और आपको 4 महीने बाद पता चले तो अचम्‍भा होना भी स्‍वाभाविक है। 30 अप्रेल 2007 को एक लेख में श्री सुनील दीपक जी ने मेरी एक पोस्‍ट "क्‍या ईसा और मुहम्‍द से गणेश " का जिक्र किया, और उनकी वह पोस्‍ट मुझे पढ़ने को नसीब हुई करीब चार माह बाद अगस्‍त में सोचा था‍ कि कुछ लिखूँगा किन्‍तु समयाभाव के कारण लिख न सका, और उनके इस पोस्‍ट को भविष्‍य के लिए सुरक्षित कर लिया कि कभी कुछ लिखूँगा। वैसे आज कोई खास दिन नही है कि मेरे पास समय का खजाना मिल गया है, काफी दिनों से कीबोर्ड पर अगुँलिया नही ठोकी सोचा कि लगे हाथ ये तम्‍मना भी पूरी कर लिया जाय।

इन दिनों अपने अधिन्‍यास के कार्य में इतना व्‍यस्‍त हूँ कि कलम छोड़ कर कीबोर्ड थामने का मौका नही मिल रहा है। यह नवम्‍बर अब तक बीते सभी नवम्‍बरों में सबसे बकवास रहा है। अब किन मायनों में है यह मुझ पर ही छोड़ दीजिए, मै झेल लूँगा। कीबोर्ड पर ऊंगली ठोकना भी एक नशे के समान है जिसकी तलब रहे न रहे लग ही जाती है। खैर किन विषयो को लेकर बैठ गया, ये तो कहावत हो गई आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास, करनी थी वार्ता जो न कह सके के सम्‍बन्‍ध में और ले कर बैठ गया मै अपनी राम कथा।

श्री XYZ ने अपनी एक पोस्‍ट में कहा था-
प्रेमेंद्र ने "ईसा, मुहम्मद और गणेश" के नाम से एक और बात उठायी कि जब ईसाई और मुसलमान अपने धर्मों का कुछ भी अनादर नहीं मानते तो हिंदुओं को भी गणेश की तस्वीरों का कपड़ों आदि पर प्रयोग का विरोध करना चाहिये. मैं इस बात से भी सहमत नहीं हूँ.

ईसा के नाम पर कम से कम पश्चिमी देशों में टीशर्ट आदि आम मिलती हैं, उनके जीवन के बारे में जीसस क्राइस्ट सुपरस्टार जैसे म्यूजिकल बने हें जिन्हें कई दशकों से दिखाया जाता है, फिल्में और उपन्यास निकलते ही रहते हैं जिनमें उनके जीवन और संदेश को ले कर नयी नयी बातें बनाई जाती है. इन सबका विरोध करने वाले भी कुछ लोग हैं पर मैंने नहीं सुना कि आजकल पश्चिमी समाज में कोई भी फिल्म या उपन्यास सेंसरशिप का शिकार हुए हों या किसी को बैन कर दिया हो या फिर उसके विरोध में हिंसक प्रदर्शन हुए हों. असहिष्णुता, मारपीट दंगे, भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मिडिल ईस्ट के देशों में ही क्यों होते हैं? हम लोग अपने धर्म के बारे में इतनी जल्दी नाराज क्यों हो जाते हैं?

आदरणीय श्री सुनील दीपक जी, वस्त्रों पर भगवान छवि की बात को मै गलत नही मानता हूँ, मुझे लगता है कि आपने मेरी पोस्ट का सही अवलोकन नही किया है। मैंने अपने लेख में अन्‍त: वस्‍त्र पर इन चित्रों का विरोध किया था। हमारी परंपरा है कि हम वस्त्रों पर ऊँ और हरे राम हरे कृष्ण आदि के छाप मिलते है। हमारी परम्परा में कमर के नीचे के भाग को अपवित्र माना जाता है। कमर के नीचे इन वस्‍त्रों को पहना मेरी ही नही किसी भी व्यक्ति के समझ ठीक नहीं है। मुहम्मद साहब के कार्टून पर जो विवाद बरपा था वह उसके बारे में ज्यादा वर्णन की जरूरत नही है। हाल मे ही एक शराब कम्पनी ने ईसा का चित्र को बोतल पर छापा तो बहुत ज्यादा खुले दिमाग वाले ईसाइयों ने खूब हंगामा बरपाया था। तो हिन्दू धर्म के साथ यह मजाक क्यों? अन्‍त: वस्त्र की बात छोडिये जूतों और चप्पलों पर देवी देवताओं की बात सामने आयी है।





चप्‍पल पर गणेश भगवान का चित्र जूते पर श्री राम का चित्र
क्या श्री सुनील दीपक जी चप्‍पलों पर भी इन चित्रों का होना सही मानते है? क्या अभी भी सुनील दीपक जी वही विचार रखते है, जो उन्होंने अपने लेख में लिखा है ? मेरा मानना है कि आस्था के साथ खिलवाड़ ठीक नहीं है, क्योंकि आस्था से करोड़ों भावनाएं जुड़ी होती है, और करोड़ों भावनाओं को ठेस पहुँचा कर हम किसी मकसद को पूरा नहीं कर सकते है। यह सब व्यापारिक छलावा है और आस्था के साथ व्यापार संभव नहीं है।


काफी देर से कीबोर्ड के बटन ठोकर कर काफी अच्छा महसूस हो रहा है। :) इधर मित्र राजकुमार की बहन की शादी 26 नवम्बर को है, सो उधर का काम धाम देखना भी जरूरी है। साथ ही साथ अपना लगभग 80-90 पन्नों अधिन्यास भी पूरा करना है जिसकी अंतिम तिथि 30 है। और मै किसी काम को अन्तिम दिन तक के लिये नही रखता हूँ। इधर शादी के भी पर्याप्त मौसम चल रहा है। 21 नवंबर से हर दिन दो युगल एक दंपत्ति के रूप में अपने जीवन की शुरुआत करेंगे। एक एक दिन में दो से चार तक निमंत्रण है तो कहीं न कहीं न चाहते हुऐ भी मेरा नम्‍बर लगना तय ही है। :) इन व्यस्ताओं के बीच मेरा न तो महाशक्ति पर कुछ लिख पाना होगा न ही महाशक्ति समूह पर, हॉं यह जरूर है कि महाशक्ति समूह पर आपको अन्य मित्रों की रचनाएँ जरूर पढ़ने को मिलती रहेगी। अगर इस दौर में फिर समय मिला और कीबोर्ड को बजाने का मन किया जो जल्द मिलना होगा। दिसम्बर माह के पहले ही सप्ताह मे मिलना होगा।


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अनुगूँज को लेकर बातें खत्‍म नही हुई हैं



अनुगूँज को लेकर मेरी पिछली पोस्ट ने एक बार फिर से चिट्ठाकारों के मध्य उत्पन्न खाई को दर्शाती है। इसमें मै किसी व्यक्ति विशेष को दोष नहीं दूँगा। अनुगूँज के सम्बन्ध में उठाये गये प्रश्‍न वास्तव में कई प्रश्‍न ले कर आते है। अनुगूँज में मतभेद को लेकर कई वरिष्ठ चिट्ठाकारों ने भी अपनी चिन्ता जाहिर किया है। मुझे रोष इसलिए भी था कि मेरी प्रथम भागीदारी में मुझे नकारा गया। मै किसी के प्रथम को बहुत महत्व देता हूँ। किसी के असफल प्रथम प्रयास को भी अगर प्रोत्साहित किया जाये तो निश्चित रूप आगे आने वाले परिणाम सदैव सार्थक होंगे।
अनुगूँज सम्बन्धी पोस्ट पर मैने एक साथ कई बाते रख दी जो वास्तव में कई बातों को सामने लेकर आई है। आज जो प्रश्न है कि क्या एक ब्‍लागर दूसरे की सफलता से खुश है तो मेरा मानना है कतई नहीं, आज एक ब्‍लागर दूसरे के विचारों को इतना द्वन्द ले रहा है कि वह आपसी सौहार्द को भूल जाता है। तो कभी कभी ऐसी अभद्र टिप्‍पणी देखने को मिलती है अनैतिक होती है। अनैतिक काम भी करना ठीक है किन्तु नैतिकता का जामा पहन कर मन में राम बगल में छुरी की धारणा गलत है। अक्सर देखने में आता है कि ब्‍लागों पर बहुत ही अभद्र अभद्र टिप्‍पणी आ जाती है जो यह दर्शाता है कि हॉं आज के दौर मे ऐसे लुच्‍्चों की कमी नही है।
कुछ वरिष्ठ चिट्ठाकारों ने टिप्पणी के माध्यम से प्रश्न किए थे उनका उत्तर भी देना चाहूँगा। 


 
आपने कहा मैने कहा
arvind mishra said...
anugoonj bhalaa kya hai ?kya yah koi saahityik abhiyaan hai ?
मित्र आप इसे साहित्यिक अभियान का नाम भी दे सकते है, इसका आयोजन समय समय पर, किसी एक ब्‍लागर द्वारा किया जाता है जो अपनी विषय निर्धारित करता है सभी अन्‍य ब्‍लागर बंधु उस पर लेख लिखते है, आप भी चाहे तो इस बार के अनुगूँज में भाग ले सकते है।
मै अनुगूँज का महत्व भारतीय क्रिकेट की टीम की कैप तरह मानता हूँ, जिसे हर खिलाड़ी पहनने की इच्छा रखता है, ठीक उसी प्रकार अनुगूँज में भाग लेने के सम्बन्ध में मेरे विचार है।
Shiv Kumar Mishra said...
प्रमेन्द्र जी,
आपका कहना एक दम ठीक है. वैचारिक मतभेद कभी भी एक दूसरे को इज्जत देने में आड़े नहीं आना चाहिए. आपका नया ब्लॉग बहुत ही बढ़िया लगा मुझे. उसमें जिस तरह से विभिन्न विषयों पर लिखा जाता है, वो वाकई में तारीफ के काबिल है.
रही बात लिंक देने या नहीं देने की, तो ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं है. आप अच्छा लिखते हैं और इतने सारे विषयों पर लिखते हैं कि आपके पाठक बहुत हैं. अनुगूंज में शामिल न होइए लेकिन अपनी लेखनी चलाते रहिये क्योंकि आपके लेखों का इंतजार बहुत लोगों को रहता है.

श्री शिव कुमार मिश्र जी
मैने अपनी चिट्ठाकारी के जीवन में बहुत विवादों को झेला है और कईयों से अपने विभिन्न व्यवहारों के कारण विवादों का सामना भी किया किन्तु कभी किसी को अपशब्द नही कहा, किसी को सम्‍मान देने में कमी नही किया। मुझे जानकर अच्छा लगा कि आपको मेरा लिखा अच्‍छा लगता है,इससे बड़ी सम्‍मान की बात मेंरे लिये क्‍या होगी। लिंक दिया जाना उतना महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न नही है जितना लिंकों को हटाया जाना है।
Sunil Deepak said...
परमेंद्र जी, इतना गुस्सा वह भी टिप्पणी न मिलने का? टिप्पणी न होने का यह अर्थ नहीं कि किसी ने पढ़ा नहीं. कभी कभी आलस के मारे में टिप्पणी न लिख पाते पर इसमें गुस्से से अपना खून जलाना ठीक नहीं. :-)
श्री सुनील दीपक जी,
क्षमा चाहूंगा , आपने पोस्ट पढ़ने में भूल की है। मेरा क्षोभ टिप्पणी को लेकर नहीं है। पाठक का आना टिप्पणी पाने से ज्यादा सार्थक होता है। एक सार्थक टिप्‍पणी पूरे लेख को धन्य कर देती है।
काकेश said...
आपकी बात से सहमत हूँ. मैंने पहले भी इस तरह की गुटबाजी के प्रति लिखा था. आप तो बस लिखते रहिये.धीरे धीरे टिप्पणीयां भी बढ़ जायेंगी.
श्री काकेश जी,
मै जून 2006 से इस चिट्ठाकारिता का कीड़ा मुझमें रेंग रहा है। और शायद मै आपसे पहले से इस कार्य को कर रहा हूँ किन्तु इस डेढ़ साल में मैंने यही पाया कि कुछ लोगों में में तो परस्पर प्रेम भावना है और एक दूसरे के मदत को अग्रसर रहते है किन्तु कुछ ऐसे भी है जो अपना काम तो साधते है किन्तु दूसरे का न सधे यह प्रयासरत रहते है। गुटबाजी का दौर तो जून 2006 में भी था जब मै नया नया आया था, और आज भी है। आज स्थिति सोवियत रूस और अमेरिका वाली रह गई है, और इसमें पीसने का प्रयास उसे किया जा रहा है जो तटस्थ है।
Pratik said...
भाई, हर बार भिन्न व्यक्ति अनुगूंज आयोजित करता है। पहले आपकी पोस्ट शामिल नहीं हुई, इसका मतलब यह नहीं है कि आगे भी शामिल नहीं की जाएगी। लोग अलग, सोच अलग।
भाई प्रतीक जी, अगर कोई कार्य सामूहिकता में किया जाय तो उसमें सभी को प्रतिभाग का अवसर दिया जाना चाहिए, अगल अगर व्यक्ति पर निर्भर करता है कि किसी को जगह मिले किसी नहीं तो इसे सामूहिक आयोजन नहीं मानना चाहिए।
शास्त्री जे सी फिलिप् said...
प्रिय परमेंद्र,
कुछ व्यावहारिक तरीके से सोचो !
1. एक बार में किसी के बारे में कोई राय न बनाओ. कम से कम तीन बार कोशिश करने के बाद ही किसी के विरुद्ध राय बनानी चाहिये. (अनुगूंज से मेरा कोई संबंध नहीं है अत: यह एक निर्गुट राय है).
2. अपने चिट्ठे पर आपने कई ऐसे चिट्ठों को कड़ी दी है जो कभी किसी को भी कडी नहीं देते. तो फिर शिकायत क्यो ?
3. सारथी जैसे "निर्गुट" चिट्ठे को आपने एक भी कड़ी नहीं दी है (कम से कम मुझे तो नहीं दिखा) वर्ना मुख्यपृष्ठ पर ही हम आपके चिट्ठे को सजा देते. ऐसा हम हर उस चिट्ठे के लिये करते हैं जो हमे कड़ी देता है -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
इस काम के लिये मेरा और आपका योगदान कितना है?

श्री शास्‍त्री जी,
1. यह किसी से व्यक्तिगत आक्षेप नही है बल्कि समूहिकता को बढ़ावा देने का प्रयास है, मै तीन बार सोचने की बात पर ध्यान देंगे।
2. अक्सर मै जिन चिट्ठों पर जाना होता है या बिलकुल नये है उन्‍हीं को मैंने अभी तक जगह दी है, चूंकि मेरा लेखन ज्यादा लिंक करने वाला नहीं है, और जहाँ कि मै किसी व्यक्ति को लिंक करने वाला लेखन करता भी हूँ तो शीघ्र उपलब्ध होने वाले लिंक को जगह दे देता हूँ। साथ ही साथ अगर भूल भी जाता हूँ तो किसी के याद दिलाने अथवा लिंक दिये जाने पर तुरंत डाल देता हूँ।
3. चूंकि मैंने पहले भी कहा है कि मेरा लेखक लेख में लिं‍किंत करने वाला नहीं है। न ही कभी आपके बारे में लिखने का मौका मिला न ही आप लिंक हुए। और बात रही साइड में लिंक देने की मै सदैव तत्पर हूँ, सभी के लिंक देने के लिये, बशर्ते वह मेरा भी लिंक जरूर दे। जो मेरा लिंक नही भी देगें मै उन्‍हे एक माह तक जरूर अपने ब्लॉग पर जगह दूंगा। जिन दिन भी मैने लिंक डालूँगा आप अपने जो भी लिंक हो भेज दीजिये मै दे दूँगा।


Gyandutt Pandey said...
ऐसा है तो आपके साथ निश्चित गलत हुआ। मुझे आपसे सहानुभूति है।
श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय जी, आपका हार्दिक धन्यवाद, जरूरत है गलत व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की।
और जहॉं तक मुझे याद है कि आपने एक लेख में अभद्र टिप्‍पणी के सम्बन्ध में लिखा था। और मेरी समस्या को लिंक किया था। आपने अभद्र टिप्‍पणी से पीड़ित होकर ही ब्लॉग को मडरेट मोड में डाला था।
Sagar Chand Nahar said...
ऐसा नहीं चलेगा.. जिस दिन हम अनूंगूंज आयोजित करेंगे उस दिन आपको लिखना ही पड़ेग यह हमारा आदेश है। समझे... :)
(स्माईली लगा दी है )
अब मुस्करा भी दो भाई।

श्री सागर भाई, मेरा बहिष्कार सिर्फ वर्तमान अनुगूँज के लिये है, वह भी केवल विरोध स्वरूप जब आप आयोजन करेंगे तो मै जरूर शामिल होऊंगा। :) अगर आपका विषय गांधी जी होगा तो मजा आयेगा :D
Sanjeet Tripathi said...
बंधु, यदि पक्षपात हो रहा है, और आपकी टिप्पणियां वहां से हटाई जा रही है तो यह तो गलत बात है!!
श्री संजीत भाई, मैने वहां टिप्पणी की थी अब चाहे वह किस प्रकार हटी मै नही जानता किंतु इतना जरूर था कि मेरी टिप्पणी वहॉं थी।

कल मेरे इस शिकायती लेख के बाद श्री आलोक जी जो कि उस अनुगूँज के आयोजक थे, उन्‍होने खेद प्रकट किया और अपने खेद पत्र का सार्वजनिक करने को भी कहा, उनके इस पत्र में मेरा हृदय भी काफी दुख हुआ, किन्तु मै सामूहिकता में किसी एक को दोष नही दूँगा। श्री आलोक जी आयोजक मात्र थे और अयोजक की कोई गलती नही है, क्योंकि आयोजक की अपनी सीमाएं है। श्री आलोक जी के प्रति मेरे हृदय में सम्मान है और सदा रहेगा। मेरे इस विरोध को किसी के द्वारा व्यक्तिगत नही लिखा जाना चाहिए। बस उद्देश्य इतना ही है कि सामूहिकता में षयन्‍त्र की कोई जगह न हो। मेरे इस लेख से कई नई बातें सामने आई है और कई मित्र इससे सीख लेकर किसी प्रतिद्वंद्विता में शामिल न होकर, सामूहिकता और सहयोग को बढ़ावा देंगे। अभी बातें खत्म नहीं हुई और निश्चित रूप से गलत काम के खिलाफ बात खत्म नहीं होनी चाहिए।


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