एक सुबह दिल्‍ली के नाम



वर्ष 2007 के बाद 18 जुलाई को पुन: अपने मित्र के साथ दिल्‍ली पहुँचना हुआ। नई दिल्‍ली रेलवे स्‍टेशन से अपने मित्र के फ्लैट पहाड़गंज से पैदल ही निकल दिये, दूरी 1 किसी से भी कम थी तो किसी प्रकार की सवारी करना मूर्खता ही होगी साथ ही साथ जब पैदल चलना हो तो आस-पास की दर्शनीयता बढ़ जाती है।
मित्र के यहां फ्रेश हुए नहाये धोये और आराम किये। फिर अपने बहुत पुराने सहपाठी से यहाँ निकल दिये, मुझे उस जगह का नाम तो नहीं मालूम पर पहाड़गंज से उस स्थान का किराया 15 रुपये लगा था, मतलब दूरी पर्याप्त थी, इंडिया गेट भी देखा उसी रास्ते पर तो सीबीएसई का दफ्तर भी तो और तो और दिल्‍ली नगर निगम का आफिस भी, आखिर जब उस मित्र के पास भी पहुंच गया जिससे मै अन्तिम बार कक्षा-8 में मिला था, हमारी बहुत पटती थी, उसी माता जी भी मुझे देखते पहचान गई, वकाई उस परिवार में बैठ कर बहुत सुखद महसूस कर रहा था।
हम लोग शाम को ही एक बहुत ही अच्‍छे मंदिर मे भी गये और काफी देर वहाँ से सुखद वातावरण का आनंद लिया। चूकि कैमरा दोस्‍त तो फोटो नही ले सके। शाम को जम्‍मू के लिये ट्रेन थी तो मेट्रो मे घूमते घामते नई दिल्ली रेलवे स्‍टेशन की ओर चल दिये।


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राजनीति मे खून का खेल



आखिरकार इलाहाबाद की राजनीतिक गलियों पर फिर खून खराबा हो गया है। मुट्ठीगंज मोहल्ला में मंत्री नंद गोपाल गुप्ता के आवास के सामने ही बम से प्राणघातक हमला किया गया। जिसमें मंत्री गंभीर रूप से घायल हुए और उनका एक अंगरक्षक की मृत्यु कारित हुआ। ठीक इसी प्रकार कुछ साल पहले बसपा विधायक राजू पाल की हत्या करवा दी गई थी जिसका आरोप सत्ताधारी पार्टी पर लगाया गया था और आज खुद बसपा सत्ताधारी पार्टी है।
समाज सेवा का चोला पहन कर उतरे राजनीतिक लोग क्यों अपने ही सफेदपोश धारियों की जान के पीछे पड़ जाते है ? आखिर समाजसेवा के नाम पर उनका असली मकसद क्या होता है यह आज तक समझ से परे है। राजनीति में आने के बाद लोगों के पास पता नहीं कौन सा कुबेर का खजाना लग जाता है कि वो कुछ ही दिन में सड़क के व्यापारी से अरबपतियों में शुमार हो जाते है। राजनीति की चादर को मैला करने मे ऐसे लोगो की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो जाती है।
समाजसेवा के नाम पर खून का खेल समझ से परे है, आखिर कब तक इस प्रकार किसी का बेटा, भाई, पति, पिता को छीना जाता रहेगा ? जो अंगरक्षक मरा है क्‍या सरकारी मदद उसकी कमी को पूरा कर पायेगी? कुछ बाते हमेशा दिल का झकझोर देती है। आखिर हम कहाँ खड़े है ?


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कानपुर की दास्‍तान



कानपुर जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है, हमेशा दिल करता है कि काश कानपुर छूटा होता है! विधि स्नातक हो गया हूँ। इस समय विधि लॉ ग्रेजुएट होने के बाद मुझे निरंतर कानपुर के संपर्क में रहना पड़ रहा है। ऐसा कोई महीना नहीं होता है कि मुझे कानपुर न जाना पड़ रहा है और रिजल्ट के बाद तो अब कुछ दिनों लगातार आना जाना लगा ही रहेगा। जब भी मै कानपुर गया हूँ चाहे अनूप शुक्ल "फ़ुरसतिया"जी से व्यक्तिगत मुलाकात हुई हो या न हुई हो मै कानपुर पहुँच कर मोबाइल टॉक जरूर कर लेता हूँ।
कल कानपुर अकेले गया था, कल्‍याणपुर में कानपुर विश्वविद्यालय मे अपना काम करवाते हुये मुझे 3 बज गये थे, मेरा मानना है कि परिवार और दोस्‍त किसी भी व्‍यक्ति का अहम हिस्‍सा होते है। ऐसे ही कानपुर के हमारे एक अधिवक्ता मित्र भाई दुर्गेश सिंह लगातार हमारी खैरियत पूछ रहे थे, भोजन किया कि नही, जल्‍दी कर जो, जल्‍दी काम करके घर आ जाओ, इस प्रकार का अपनापन बहुत अच्‍छा लग रहा था। कानपुर विश्वविद्यालय से काम करवाने के बाद मै दुर्गेश जी के पास गया तो वे पहुँचते ही, खाने पानी के बंदोबस्‍त मे लग गये। समय के बाद भूख खत्‍म हो जाती है किन्तु सामने आये खाने का अनादर भी नही करता चाहिये, भोजन हुआ और बहुत सी ढ़ेर सारी बाते तो शाम हो गयी तो नौबस्‍ता का एरिया भी घुमने निकल दिये, टहल कर लौटा तो सीधे बिस्‍तर ही नज़र आया।
सुबह जल्‍दी उठने की आदत के कारण 5 बजे उठ गया था, और सुबह उठ कर एरिया मे घूम भी लिया था, कल शाम मुझें याद था कि नौबस्‍ता जाते समय बारादेवी (बाराह देवी मंदिर) का मुहल्‍ला पड़ा था, जहाँ मम्‍मी जी के साथ सब्‍जी आदि लेने आते थे। तो सुबह मन कर गया क्‍यो न अपने पुराने घर पर भी हो लिया जाये, जहाँ मैने अपने बचपन के 6-7 साल गुजारें थे। इसी लिये मै मित्र दुर्गेश के घर से भी 6 बजे निकल लिया था ताकि अपने घर की ओर भी जा सकूँ, बारादेवी से ट्रंसपोर्ट नगर पहुँचा वहाँ से अपने घर के मोहल्‍ले ढकना पुरवा भी पूछते पूछते पहुँच गया।
मोहल्‍ला ढकना पुरवा मे इतना बदलाव हो चुका है कि कुछ भी पहिचान पाने की स्थिति मे मै न ही था। एक बुर्जग मिले तो मैने अपने घर के पास के स्थिति भैरव बाबा के पार्क के बारे मे पूछा तो मुझे विपरीत दिशा मे दिखाने लगे जिधर मै आशा करता था कि मेरा घर उधर है। फिर मैने अपने पिताजी का नाम बता कर पूछा कि मुझे उनके घर जाना है तो मुझे क्‍लाइंट जान कर यह बताने लगे कि अब सब इलाहाबाद मे रहते है और वहाँ का रटाराटाया पता देने लगे, फिर मैने जोर देकर कहा कि मै श्री भूपेन्‍द्र नाथ सिंह का लड़का हूँ और मै अपने घर जाना चाहता था। जैसे उनको पता चला कि मै उनका लड़का हूँ वो वह व्यक्ति बोला कि बबुआ तुम उनके लड़के हो, जब तुम इयां से गयेन रहेव तो बहुत छोटे छोटे रहेव यह कहते हुए वह व्यक्ति अपना काम छोड़कर मुझे घर तक छोड़ने आया।
जैसे उस व्यक्ति ने वहाँ एक दो लोगो को बताया कि देखो भाई जी के लड़के आये है तो आस पास की लोगो की भीड़ ही लग गई। मानो मै कोई लॉटरी का नंबर लेकर बैठा हूँ और सब अपना नम्बर देखने को उतावले हो, जब मैंने 1993 में कानपुर छोड़ा था तो लॉटरी का व्यवसाय चरम पर होता था और लॉटरी का नंबर देखने को बहुत भीड़ लगती थी। हर मुँह से एक ही बात बेटवा हमका पहिचानेव, सभी चेहरे पर 17 साल बाद की सिकन आ चुकी थी किन्तु कोई भी पुराना चेहरा अंजाना नहीं था। सब को फला की आम्‍मा और फला के पापा कह कर मै पहचान रहा था। क्योंकि मेरी यादें भी धुधली हो चुकी थी।
मेरे पड़ोस मे एक नाऊन रहती है नाम तो मै नही जानता हूँ किन्तु उन्हें बचपन मे मोलमल कहता था, करीब 75 साल की, वह बहुत अच्‍छी महिला है एक हाथ मे फालिस मार गया मै उसकी स्थिति देख कर अपने को अपने का रोक नही पाया और 17 साल पुरानी यादों को लेकर गले लिपट कर रो पड़ा, उनकी एक ही बाद दिल का लग गई कि कहां रहेन इतने दिन कर आज दादी के याद आई है। 17 साल बाद भी वही अपनत्‍व पा कर दिल खुश हो रहा था। उन गलियों मे भी गया जहाँ चोर सिपाही खेला करता था, रेलवे का टुनटुनिया पाटक भी देखने गया तो बंद होने समय टुनटुन की आवाज करता था।
चाय-पानी हुआ, फिर सभी ने खाने पर जोर दिया किन्‍तु भूख न होने के कारण मैने खाने से मना कर दिया। सबने बहुत रोकने की कोशिश की बेटवा आज रात यहीन रूक जाओ मैने यह कह कर कि जल्‍द फिर आऊँगा, तो फिर सब माने, मोहल्‍ले की बुर्जुग महिलाये एक ही बात कह रही थी बेटवा एक बार अम्‍मा (मेरी मम्‍मी) से मिलवाय देव, देखे बहुत दिन होई गये है पता नही कब जिंदगी रहे कि न रहे, वाकई 17 साल बहुत होते है। फिर मोहल्‍ले के एक भइया के मित्र मुझे कानपुर सेट्रल पर छोडने भी आयेए बहुत कुछ बदल गया था किन्‍तु न बदला तो लोगो का प्‍यार और अपनत्‍व।


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