ॐ श्री गणेशाय नमः । Shri Ganeshaya Namaha



Shri Ganeshaya Namaha

ॐ श्री गणेशाय नमः । Shri Ganeshaya Namaha
सुमुखश्चैकदंतश्च कपिलो गजकर्णकः ।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो गणाधिपः ।
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः ।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ।
विद्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥


श्री सङ्कष्टनाशन गणेश स्तोत्रम्
नारद उवाच।
प्रणम्य शिरसा देवं गौरी पुत्रं विनायाकम्।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यम् आयुष्कामार्थसिद्धये॥१॥
प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम्।
तृतीयं कृष्णपिङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतर्थकम्॥२॥
लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम्॥३॥
नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम्।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम्॥४॥
द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः।
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम्॥५॥
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्।
पुत्रार्थी लभते पुत्रान् मोक्षार्थी लभते गतिम्॥६॥
जपेद्गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासैः फलं लभेत्।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः॥७॥
अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत्।
तस्य विद्या भवेत् सर्वा गणेशस्य प्रसादतः॥ ८॥
॥इति श्रीनारदपुराणे सङ्कष्टनाशनं नाम गणेशस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥



॥श्री गणेशाय नमः॥
श्री प्रज्ञाविवर्धनाख्यं कार्तिकेय स्तोत्रंम्
स्कन्द उवाच।
योगिश्वरो महासेनः कार्तिकेयोऽग्निनन्दनः।
स्कन्दः कुमारः सेनानीः स्वामी शङ्करसम्भवः॥१॥
गाङ्गेयस्ताम्रचूडश्च ब्रह्मचारी शिखिध्वजः।
तारकारिरुमापुत्रः क्रौञ्चारिश्च षडाननः॥२॥
शब्दब्रह्म समुद्रश्च सिद्धः सारस्वतो गुहः।
सनत्कुमारो भगवान् भोगमोक्षफलप्रदः॥३॥
शरजन्मा गणाधीशपूर्वजो मुक्तिमार्गकृत्।
सर्वागमप्रणेता च वञ्छितार्थप्रदर्शनः॥४॥
अष्टाविंशतिनामानि मदियानीतियः पठेत्।
प्रत्यूषं श्रद्धया युक्तो मूको वाचस्पतिर्भवेत॥५॥
महामन्त्रमयानीति मम नामानुकीर्तनम्।
महाप्रज्ञामवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा॥६॥
॥ इति श्रीरुद्रयामले प्रज्ञाविवर्धनाख्यं श्रीमत्कार्तिकेयस्तोत्रं सम्पूर्णं॥














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ऐसे थे अपने पंडित दीनदयाल उपाध्याय



ऐसे थे अपने पंडित दीनदयाल उपाध्याय
ऐसे थे अपने पंडित दीन दयाल उपाध्याय

आज के समय में जब राजनीति में भ्रष्टाचार चरम पर है और इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनसमुदाय एकत्र हुआ है। आज की घोटालों की राजनीति में कोई नेता लूट में पीछे नहीं है हर किसी की मनसा यह है की जितना लूट करो लूट लो ऐसे में अतीत की राजनीति के कुछ नेता गण मिसाल हुआ करते थे उनमे से एक थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय, वाकई यह व्यक्तित्व आज के लोगों के लिए सीख का विषय होना चाहिए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय 1953 से 1968 तक भारतीय जनसंघ के नेता रहे। वे एक प्रखर विचारक, उत्कृष्ट संगठनकर्ता तथा एक ऐसे नेता थे जिन्होंने जीवन पर्यन्त अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी व सत्यनिष्ठा के उच्चतम मानकों को अक्षुण्ण रखा। वे भारतीय जनता पार्टी के जन्म से ही पार्टी के लिए वैचारिक मार्गदर्शन और नैतिक प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। उनकी पुस्तक ''एकात्म मानववाद'' (इंटीगरल ह्यूमेनिज्म) जिसमें साम्यवाद और पूंजीवाद, दोनों की समालोचना की गई है, में मानव जाति की मूलभूत आवश्यकताओं और सृजन कानूनों के अनुरूप राजनीतिक कार्रवाई हेतु एक वैकल्पिक सन्दर्भ दिया गया है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म सोमवार, दिनांक 25 सितम्बर 1916 को बृज के पवित्र क्षेत्र मथुरा जिले के नंगला चंद्रभान गांव में हुआ था। उनके पिताजी एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। वे एक ऐसे ज्योतिषी थे जिन्होंने उनकी जन्म कुंडली देखकर यह भविष्यवाणी कर दी थी कि यह लड़का एक महान शिक्षा-शास्त्री एवं विचारक, निस्वार्थ कार्यकर्ता और एक अग्रणी राजनेता बनेगा लेकिन वह अविवाहित रहेगा। जब भरतपुर में एक त्रासदी से उनका परिवार प्रभावित हुआ, तो सन् 1934 में बीमारी के कारण उनके भाई का देहांत हो गया। बाद में वे हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए सीकर चले गए। सीकर के महाराजा ने पं उपाध्याय को एक स्वर्ण पदक, पुस्तकों के लिए 250 रुपये तथा प्रतिमास 10 रुपये की छात्रवृति दी।
पंडित उपाध्याय ने पिलानी में विशिष्टता (Distinction) के साथ इंटरमीडिएट परीक्षा पास की और बी.ए. करने के लिए कानपुर चले गए। वहां पर उन्होंने सनातन धर्म कालेज में दाखिला लिया। अपने मित्र श्री बलवंत महाशब्दे के कहने पर वे सन् 1937 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आए। उन्होंने सन् 1937 में प्रथम श्रेणी में बी.ए. परीक्षा पास की। पंडित जी एम.ए. करने के लिए आगरा चले गये।
वे यहां पर श्री नानाजी देशमुख और श्री भाऊ जुगाडे के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। इसी बीच दीनदयाल जी की चचेरी बहन रमा देवी बीमार पड़ गई और वे इलाज कराने के लिए आगरा चली गई, जहां उनकी मृत्यु हो गयी। दीनदयाल जी इस घटना से बहुत उदास रहने लगे और एम.ए. की परीक्षा नहीं दे सके। सीकर के महाराजा और श्री बिड़ला से मिलने वाली छात्रवृति बंद कर दी गई।
उन्होंने अपनी चाची के कहने पर धोती तथा कुर्ते में और अपने सिर पर टोपी लगाकर सरकार द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा दी जबकि दूसरे उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहने हुए थे। उम्मीदवारों ने मजाक में उन्हें 'पंडित जी' कहकर पुकारा-यह एक उपनाम था जिसे लाखों लोग बाद के वर्षों में उनके लिए सम्मान और प्यार से इस्तेमाल किया करते थे। इस परीक्षा में वे चयनित उम्मीदवारों में सबसे ऊपर रहे। वे अपने चाचा की अनुमति लेकर बेसिक ट्रेनिंग (बी.टी.) करने के लिए प्रयाग चले गए और प्रयाग में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेना जारी रखा। बेसिक ट्रेनिंग (बी.टी.) पूरी करने के बाद वे पूरी तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों में जुट गए और प्रचारक के रूप में जिला लखीमपुर (उत्तर प्रदेश) चले गए। सन् 1955 में वे उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांतीय प्रचारक बन गए।
उन्होंने लखनऊ में ''राष्ट्र धर्म प्रकाशन'' नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका ''राष्ट्र धर्म'' शुरू की। बाद में उन्होंने 'पांचजन्य' (साप्ताहिक) तथा 'स्वदेश' (दैनिक) की शुरूआत की। सन् 1950 में केन्द्र में पूर्व मंत्री डा0 श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिमंडल के अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तथा लोकतांत्रिक ताकतों का एक साझा मंच बनाने के लिए वे विरोधी पक्ष में शामिल हो गए। डा0 मुकर्जी ने राजनीतिक स्तर पर कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठावान युवाओ को संगठित करने में श्री गुरूजी से मदद मांगी। एक बार श्री गुरुजी एवं पं. दीनदयाल जी एक ही रेलगाड़ी के अलग-अलग डिब्बों में यात्रा कर रहे थे। श्रीगुरुजी प्रथम श्रेणी में एवं दीनदयाल उपाध्याय जी द्वितीय श्रेणी में थे। यात्रा के मध्य में ही दीनदयाल जी को जब श्रीगुरुजी से मंत्रणा करने की आवश्यकता हुई तो वे उनके प्रथम श्रेणी डिब्बे में चले गये। मंत्रणा पूर्ण होने के पूर्व ही गाड़ी चल दी, दीनदयाल जी अपने डिब्बे में नहीं जा पाये। अगले स्टेशन पर उतरकर टिकट निरीक्षक को खोजकर उनसे कहा कि मैंने अमुक स्टेशन से इस स्टेशन तक प्रथम श्रेणी में यात्रा की है, अत: मेरे से यात्रा का यथोचित मूल्य ले लें। दीनदयाल जी के बहुत आग्रह करने के बाद ही उसने मूल्य लिया, तब जाकर दीनदयाल जी को संतोष हुआ और वे अपने द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में वापस बैठ गये।
इसी प्रकार गलती से सब्जी बेचने वाली महिला को खोटी अठन्नी दे देने पर वे व्यग्र होकर कार्यालय से वापस आए। और फिर जब तक उपरोक्त महिला की पोटली में से खोटी अठन्नी खोजकर सही अठन्नी नहीं दी तब तक संतुष्टि नहीं मिली। क्या आज के समय में ऐसा नैतिक आचरण देखने को मिलेगा? पंक्ति में खड़े होकर टिकट लेना हो या सरकारी कार्यालय में अपना कार्य निकलवाना हो, ऐसे स्थानों पर नैतिकता की परीक्षा होती है। यद्यपि यह बहुत कठिन नहीं है तो भी व्यक्ति द्वारा होने वाले छोटे-छोटे कार्य ही और उनके प्रति उसका आग्रही स्वभाव ही व्यक्ति को बड़ा बनाता है।
1967 में जौनपुर के उपचुनाव के समय दीनदयाल जी जनसंघ के प्रत्याशी थे। निर्वाचन के लिए योजना बैठक में जीतने के लिए चर्चा चल रही थी। सामाजिक समीकरण की दृष्टि से जौनपुर विधानसभा क्षेत्र ब्राह्मण बहुल है। चर्चा के मध्य एक कार्यकर्ता ने एक अचूक सूत्र की बात कही, कि दीनदयाल जी अगर आप अपने नाम के आगे "पण्डित" शब्द लगा लें तो उपचुनाव जीतना आसान हो जायेगा। दीनदयाल जी ने प्रति उत्तर दिया कि इस सूत्र से दीनदयाल तो जीत जाएगा लेकिन जन संघ हार जाएगा। यहां पर उनकी दृष्टि का अनुभव होता है कि व्यक्ति बड़ा नहीं बल्कि संगठन बड़ा है।
स्वतंत्रता के पश्चात जब पंचवर्षीय योजनाएं एवं बड़े-बड़े कारखानों की स्थापना विकास का आधार बन रही थीं, ऐसे में दीनदयाल जी का मौलिक चिंतन काम आया कि ग्राम आधारित व कृषि प्रधान देश में जब तक सामान्य व्यक्ति का विकास नहीं होगा, वह परंपरागत कार्यों में कुशलता प्राप्त नहीं करेगा और कार्यों में अधिक व्यक्तियों की सहभागिता नहीं होगी, तब तक विकास का कोई अर्थ नहीं है। इसी को व्यावहारिक आकार देते हुए "एकात्म मानव दर्शन" जैसे मूलगामी विचार का प्रतिपादन किया। आज आवश्यकता है एकात्म मानव दर्शन के सिद्धांत का अनुसरण कर परंपरागत कार्यों में नयी तकनीकी का विकास करते हुए अधिकाधिक लोगों को लाभ पहुंचाया जाए।
विज्ञान के विकास के साथ-साथ जैसे कुछ व्यक्ति दौड़ में आगे निकलते दिखायी दे रहे हैं, वहीं बहुत बड़ी संख्या में आज गरीबी रेखा के नीचे हैं, चाहे वह आर्थिक क्षेत्र हो या साक्षरता का है। यहां दीनदयाल जी का "मैं" व "हम" विचार प्रासंगिक है। कोई भी विकास जब तक सामाजिक दृष्टि से परिपूर्ण नहीं होता तब तक वह "मैं" के परिक्षेत्र में है और जब वह सामाजिक रूप धारण कर लेता है तब वह "हम" के परिक्षेत्र में पहुंच जाता है। आज की आवश्यकता है कि हम अपनी व्यापकता का विकास कर उसको सामाजिक आयाम दें। केवल कुछ व्यक्तियों के विकास ही नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज की उन्नति में सहायक हों। सामाजिक कार्यों में पद्धति का विकास व पद्धति के पालन का आग्रह ही हम सभी को छोटे-छोटे पहलुओं से आगे बढ़ाकर विकसित समाज के समकक्ष खड़ा कर सकता है और इसलिए दीनदयाल जी का स्मरण आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके जीवन काल में था।
पंडित दीनदयालजी ने 21 सितंबर, 1951 को उत्तर प्रदेश का एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया और नई पार्टी की राज्य इकाई, भारतीय जनसंघ की नींव डाली। पंडित दीनदयाल जी इसके पीछे की सक्रिय शक्ति थे और डा0 मुखर्जी ने 21 अक्तूबर, 1951 को आयोजित पहले अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। पंडित दीनदयाल जी की संगठनात्मक कुशलता बेजोड़ थी। आखिर में जनसंघ के इतिहास में चिरस्मरणीय दिन आ गया जब पार्टी के इस अत्यधिक सरल तथा विनीत नेता को सन् 1968 में पार्टी के सर्वोच्च अध्यक्ष पद पर बिठाया गया। दीनदयाल जी इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को संभालने के पश्चात जनसंघ का संदेश लेकर दक्षिण भारत गए। 11 फरवरी, 1968 की काली रात ने दीनदयाल जी को अकस्मात् मौत के मुंह में दबा लिया।


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नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत २०६९ मंगलमय हो



नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत २०६९ मंगलमय हो

सृष्टि उत्पत्ति एवं सम्राट विक्रमादित्य द्वारा शको को परास्त कर विक्रम संवत के प्रथम दिन से प्रारंभ होने वाले, नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा विक्रम संवत २०६९ (२३ मार्च २०१२), आप, आपके परिवार एवं मित्रों के लिए मंगलमय हो, ऐसी ईश्वर से प्रार्थना है।
नववर्ष हम सबके जीवन में सुख समृधि बिखेरे एवं सुसंस्कृत बनाये, पुरातन राष्ट्र को उसका वैभव वापस दिलाने, शांति एवं सद्भाव बढ़ाने में सहायक हो ऐसी ईश्वर से प्रार्थना है।
नववर्ष मंगलमय हो।


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