दीक्षित साधकों के लिए : श्रीयंत्र दैनिक पूजन विधि



Shri Yantra

साधारण गृहस्थ साधकों के लिए मान्य संक्षिप्त दैनिक पूजन पद्धति। इस पद्धति द्वारा गृहस्थ व्यक्ति नियमित पूजन कर सकते हैं। श्रीयंत्र दैनिक पूजन में श्रीयंत्र में स्थित नौ-आवरणों का पूजन किया जाता है। इस विधि में श्रीयंत्र के नौ आवरणों की जानकारी क्रमवार सरलता से चित्र सहित समझा दी गई है। घर, दुकान आदि में स्थापित श्रीयंत्र की दैनिक संक्षिप्त पूजा निम्न प्रकार से करें :-नोट :- ‘मूल मंत्र’ अर्थात अपनी-अपनी आम्नाय में गुरु द्वारा निर्दिष्ट त्री अक्षरी, चतुरक्षरी, पंच अक्षरी, षोडष अक्षरी मंत्र पहले बोलकर पश्चात पीछे का व्याक्यांश बोलें अथवा ‘मूल मंत्र’ अपनी राशि के अनुसार जान लें।त्रैलोक्यमोहन चक्र (प्रथम आवरण) चतुरस्य त्रिरेखायां अर्थात चतुरस्र की तीन रेखाओं पर ( दर्शाए गए चित्र के अनुसार) निम्न मंत्र बोलकर पूजन करें :-
‘मूलमंत्र’- त्रैलोक्यमोहन चक्राय नमः। उक्त मंत्र बोलकर गंध, पुष्प, अक्षत से पूजन करें। पश्चात्‌ सर्वसंक्षोभिणी मुद्रा दिखाएँ अथवा प्रणाम करें।
सर्वाशापरिपूरक चक्र (द्वितीय आवरण)
‘षोडषदल कमले’ अर्थात सोलह कमल दल पर (दर्शाए गए चित्र के अनुसार) निम्न मंत्र बोलकर पूजन करें :-

‘मूलमंत्र’ सर्वाशापरिपूरक चक्राय नमः।
उक्त मंत्र बोलकर गंध, पुष्प, अक्षत से पूजन करें। पश्चात्‌ सर्वविद्रावण मुद्रा दिखाएँ अथवा प्रणाम करें।

सर्वसंक्षोभण चक्र (तृतीय आवरण)षोडष कमल दल के अन्दर अष्ट कमल दल पर (दर्शाए गए चित्र के अनुसार)निम्न मंत्र बोलकर पूजन करें :-

‘मूलमंत्र’ सर्व संक्षोभण चक्राय नमः।उक्त मंत्र बोलकर गंध, पुष्प, अक्षत से पूजन करें। पश्चात्‌ सर्वाकर्षिणी मुद्रा प्रदर्शित करें अथवा प्रणाम करें।
सर्व सौभाग्यदायक चक्र (चतुर्थ आवरण)अष्ट कमल दल के अंदर स्थित चौदह त्रिभुजों पर ( दर्शाए गए चित्र के अनुसार) निम्न मंत्र बोलकर पूजन करें :-

‘मूलमंत्र’ सर्व सौभ्यदायक चक्राय नमः।उक्त मंत्र बोलकर गंध, पुष्प, अक्षत से पूजन करें। पश्चात्‌ सर्ववशंकरी मुद्रा दिखाएँ अथवा प्रणाम करें।
सर्वार्थसाधक चक्र (पंचम आवरण)उक्त चौदह त्रिभुज के भीतर दस त्रिभुजों ( दर्शाए गए चित्र के अनुसार) में निम्नांकित मंत्र बोलकर पूजन करें (बहिर्दसार पूजन अर्थात बाह्य पूजन)

‘मूलमंत्र’ सर्वार्धसाधक चक्राय नमः।उक्त मंत्र बोलकर गंध, पुष्प-अक्षत से पूजन करें।पश्चात्‌ सवोन्मादिनी मुद्रा दिखाएँ अथवा प्रणाम करें।
सर्वरक्षाकर चक्र (षष्ट आवरण)उन्ही के भीतर दस त्रिभुजों में (दर्शाए गए चित्र के अनुसार) निम्नांकित मंत्र बोलकर पूजन करें (अंतर्दसार पूजन अर्थात त्रिभुजों का आंतरिक पूजन) :-

‘मूलमंत्र’ सर्वरक्षाकर चक्राय नमः।उक्त मंत्र बोलकर गंध, पुष्प, अक्षत से पूजन करें। पश्चात्‌ सर्वमहाअंकुश मुद्रा दिखाएँ अथवा प्रणाम करें।

सर्वरोगहर चक्र (सप्तम आवरण)उक्त दस त्रिभुजों के अंदर आठ त्रिभुजों (दर्शाए गए चित्र के अनुसार) में निम्नांकित मंत्र बोलकर पूजन करें :-

‘मूलमंत्र’ सर्वरोगहर चक्राय नमःउक्त मंत्र बोलकर गंध, पुष्प अक्षत से पूजन करें। पश्चात्‌ सर्वखेचरी मुद्रा प्रदर्शित करें अथवा प्रणाम करें।
सर्वसिद्धिप्रद चक्र (अष्टम आवरण)उक्त आठ त्रिभुजों के भीतर स्थित त्रिभुज (दर्शाए गए चित्र के अनुसार) में निम्न मंत्र बोलकर पूजन करें :-

‘मूलमंत्र’ सर्व सिद्धिप्रद चक्राय नमः।उक्त मंत्र बोलकर गंध, पुष्प अक्षत से पूजन करें।
पश्चात्‌ सर्व बीजा मुद्रा प्रदर्शित करें अथवा प्रणाम करें।
सर्वानन्दमय चक्र (नवम आवरण)उक्त त्रिभुज के मध्य स्थित बिंदु पर (दर्शाए गए चित्र के अनुसार) निम्न मंत्र बोलकर पूजन करें :-

‘मूलमंत्र’ सर्वानन्दमय चक्राय नमः।उक्त मंत्र बोलकर गंध, पुष्प, अक्षत से पूजन करें। पश्चात्‌ सर्वयोनि मुद्रा दिखाएँ अथवा प्रणाम करें।
उक्त नवावरण पूजा के पश्चात निम्न प्रकार से समग्र श्रीयंत्र का चंदन, पुष्प, धूप, दीप व नैवेद्य से पूजन करें :-
  • निम्न मंत्र से चंदन अर्पित करें:- ‘लं’ पृथ्व्यात्मकं गंधम्‌ समर्पयामि।(इसके पश्चात कनिष्ठि का अग्रभाग व अंगुष्ठ मिलाकर पृथ्वी मुद्रा दिखाएँ।)
  • निम्न मंत्र से पुष्प अर्पित करें :- ‘हं’ आकाशात्मकं पुष्पम्‌ समर्पयामि।(इसके पश्चात तर्जनी अग्रभाग व अंगुष्ठ मिलाकर आकाश मुद्रा दिखाएँ।)
  • निम्न मंत्र से धूपबत्ती जलाकर उसका सुवासित धुआँ आघ्रापित करें- ‘यं’ वायव्यात्मकं धूपम्‌ आघ्रापयामि।(इसके पश्चात तर्जनी मूल भाग व अंगुष्ठ मिलाकर वायु मुद्रा दिखाएँ।)
  • निम्न मंत्र से दीपक प्रदर्शित करें। (इस हेतु किसी पात्र अथवा दीपक मेंशुद्ध घी में रूई की बत्ती डालकर उसे प्रज्वलित करें, हाथ धो लें) :-‘रं’ अग्न्यात्मकं दीपं दर्शयामि।(इसके पश्चात मध्यमा अग्रभाग व अंगुष्ठ मिलाकर अग्निमुद्रा दिखाएँ।)
  • निम्न मंत्र से नैवेद्य के रुप में सूखे मेवे अथवा फल अर्पित करें :- ‘वं’ अमृतात्मकं नैवेद्यम्‌ निवेदयामि।(इसके पश्चात अनामिका अग्रभाग व अंगुष्ठ मिलाकर अमृतमुद्रा दिखाएँ।)
  • निम्न मंत्र से लौंग, इलायची अथवा तांबूल अर्पित करें :- सं’ सर्वात्मकं ताम्बूलादि सर्वोपचारं समर्पयामि।(इसके पश्चात चारों अंगुलियों के अग्रभाग को अंगुष्ठ से मिलाकर सर्वोपचार मुद्रा दिखाएँ।)


Share:

श्री सूक्तं. Shri Shuktam



श्री सूक्तं... (श्लोक संख्या 1-10 [30] )

श्री सूक्त ऋगवेद की एक भक्तिमयी ऋचा है... देवी श्री (लक्ष्मी) के लिए... जो संपत्ति, धन- धान्य की देवी हैं... श्री सूक्तं का बहुत महत्त्व है क्यूंकि देवी महालक्ष्मी जी की उपस्थिति है भागवान विष्णु के साथ... उनके ह्रदय में... और ह्रदय से ही भक्ति की जाती है... सो इस प्रेम / भक्ति /लक्ष्मी से ही भगवान नारायण की प्राप्ति हो सकती है...

|| हरिः ॐ ||

हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्त्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥१॥

[हे अग्नि (जातवेदो)... आप कृपया देवी लक्ष्मी का आवाहन कीजिये , जो स्वर्ण के समान चमकती हैं , जो सोने और चाँदी के आभूषण धारण करती हैं , सम्पदा की मूरत हैं ]

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥

[ हे अग्नि... आप कृपया मेरे लिए देवी लक्ष्मी का आवाहन कीजिये जिनके आशीर्वाद से मैं सम्पदा , पशुधन अदि को प्राप्त कर सकूँ ]

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनाद प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीर्जुषताम् ॥३॥

[ मैं देवी श्री (लक्ष्मी) का आवाहन करता हूँ , जिनके सम्मुख घोड़ों की कतार है और रथों की कतारें हैं ,जिनका अभिनन्दन हाथियों द्वारा किया जा रहा है , जो दिव्य तेज्मयी हैं , देवी लक्ष्मी मुझपर कृपा करें ]

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् ।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥४॥

[ देवी लक्ष्मी मुझपर कृपा करें , जो स्वयं परमनान्द्स्वरूपा हैं , जिनके चेहरे पर एक मुस्कान सदा बनी रहती है ,प्रकाशमयी हैं , जो इच्छा पूरा करने वाली हैं , देवी लक्ष्मी अपने भक्तों की अभिलाषाओं को पूरा करती हैं ,जो कमल के पुष्प पर बैठी हैं और स्वयं भी कमल के पुष्प के सामान सुन्दर हैं ]

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणो ॥५॥

[मैं देवी लक्ष्मी पर आश्रित हूँ , इस संसार में निर्वहन करने के लिए... देवी लक्ष्मी , जो चन्द्र के समान सुन्दर हैं , तेजोमय हैं , जो देवताओं द्वारा भी पूजित हैं , जो कृपा करने वाली हैं , जो कमला हैं मेरा दुर्भाग्य समाप्त हो ]

आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥६॥

[हे सूर्य के समान चमकने वाली देवी... मैं आपकी शरण में हूँ आपकी ही शक्ति से बिल्व वृक्ष जैसे पेड़ पौधों का प्राकट्य हुआ , इसके फलों से सब अशुभता समाप्त हो , जो बाहरी इन्द्रियों और अंदरी इन्द्रियों के कारण हुए है ]

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् किर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥७॥

[हे देवी मैं इस समृद्ध देश में जन्मा हूँ... भगवन शिव के मित्र (कुबेर... धन के देवता) मेरे पास आयें और मुझे यश और संपत्ति प्रदान करें ]

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात् ॥८॥

[हे देवी मैं आपकी बड़ी बहन अलक्ष्मी , जो भूख ,प्यास जैसी अशुभता को देने वाली हैं , उनको दूर करूँ... हे देवी मेरे घर से सारे अशुभता और दरिद्रता को दूर कीजिये ]

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीगं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥९॥

[मैं श्री (लक्ष्मी) का आवाहन करता हूँ , जो अजेय हैं , सदैव स्वस्थ हैं ,सभी जीवों से श्रेष्ठ हैं ]

मनसः काममाकूतिं वाचस्सत्यमशीमहि ।
पशूनां रुपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥१०॥

[ देवी लक्ष्मी आपकी कृपा से हमारी इच्छाएं पूर्ण हों , हम वाणी की सत्यता को प्राप्त करें ,और हम आनंद को प्राप्त करें , हम पशुधन को प्राप्त करें , तरह तरह के भोजन को प्राप्त करें , हममें यश और धन धन्य सदैव बना रहे... ]


कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्
॥१


आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे।
निच-देवी मातरं श्रियं वासय मे कुले
॥१


आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह
॥१


आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह
॥१


तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम्
॥१


यः शुचिः प्रयतो भूत्वा, जुहुयादाज्यमन्वहम्।
श्रियः पंच-दशर्चं च, श्री-कामः सततं जपेत्
॥१


पद्मानने पद्म ऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे ।
त्वं मां भजस्व पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम् ॥ 

अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने । 
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे ॥ 

पुत्रपौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम् । 
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु माम् ॥ 

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः । 
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमश्नु ते ॥ 

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा । 
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः ॥ 

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः 
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्सदा ॥ 

वर्षन्तु ते विभावरि दिवो अभ्रस्य विद्युतः । 
रोहन्तु सर्वबीजान्यव ब्रह्म द्विषो जहि ॥ 

पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि । 
विश्वप्रिये विष्णु मनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व ॥ 

या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी । 
गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनभर नमिता शुभ्र वस्त्रोत्तरीया । 

लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रैर्मणिगण खचितैस्स्नापिता हेमकुम्भैः । 
नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमाङ्गल्ययुक्ता ॥ 

लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीम् । 
दासीभूतसमस्त देव वनितां लोकैक दीपाङ्कुराम् । 

श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध विभव ब्रह्मेन्द्रगङ्गाधरां । 
त्वां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम् ॥ 

सिद्धलक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीर्जयलक्ष्मीस्सरस्वती । 
श्रीलक्ष्मीर्वरलक्ष्मीश्च प्रसन्ना मम सर्वदा ॥ 

वराङ्कुशौ पाशमभीतिमुद्रां करैर्वहन्तीं कमलासनस्थाम् । 
बालार्क कोटि प्रतिभां त्रिणेत्रां भजेहमाद्यां जगदीश्वरीं ताम् ॥ 

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । 
शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ 

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्धमाल्यशोभे । 
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरिप्रसीद मह्यम् ॥ 

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम् । 
विष्णोः प्रियसखींम् देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम् ॥ 
महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमही । तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥ 
(आनन्दः कर्दमः श्रीदश्चिक्लीत इति विश्रुताः । ऋषयः श्रियः पुत्राश्च श्रीर्देवीर्देवता मताः (स्वयम् श्रीरेव देवता ॥ ) variation) (चन्द्रभां लक्ष्मीमीशानाम् सुर्यभां श्रियमीश्वरीम् । चन्द्र सूर्यग्नि सर्वाभाम् श्रीमहालक्ष्मीमुपास्महे ॥ variation) 

श्रीवर्चस्यमायुष्यमारोग्यमाविधात् पवमानं महीयते । 
धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ॥ 

ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः । 
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥ 

श्रिये जात श्रिय आनिर्याय श्रियं वयो जनितृभ्यो दधातु । 
श्रियं वसाना अमृतत्वमायन् भजन्ति सद्यः सविता विदध्यून् ॥ 

श्रिय एवैनं तच्छ्रियामादधाति । 
सन्ततमृचा वषट्‍कृत्यं सन्धत्तं सन्धीयते प्रजया पशुभिः । 

य एवं वेद । 
महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि

ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्नी च धीमहि । तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥

॥१०॥
ॐ महादेव्यै विद्मही विष्णुपत्नी च धीमहि | तन्नो लक्ष्मी: प्रचोदयात ||



कबीर दास जी कहते है कि

चिन्ता से चतुराई घटे दुख से घटे शरीर,
पाप से लक्ष्मी घटे कहि गये दास कबीर


दूसरे के लिये भला सोचने वाले की लक्ष्मी कभी घटती नही है और पाप करने वाले की एक बार लक्ष्मी बढती दिखाई देती है वह केवल उसकी आगे की पीढियों के लिये जो स्थिर लक्ष्मी होती है वह अक्समात सामने आकर धीरे-धीरे विलुप्त होने लगती है, श्री सूक्त का पाठ और लोगों के प्रति दया तथा भला करने की भावना लक्ष्मी की व्रुद्धि करता है.


Share:

स्वामी विवेकानंद की परीक्षा



स्वामी विवेकानंद, बात उस समय की है जब विवेकानंद शिकागो धर्मसभा में भारतीय संस्कृति पर बोलने के लिए आमंत्रित किये गये थे। शिकागो जाने से पहले विवेकानन्द स्वामी रामकृष्ण जी पत्नी मां शारदा के पास आशीर्वाद लेने पहुंचे। मां ने उन्हें वापस भेजते हुआ कहा, कल आना। पहले मैं तुम्हारी पात्रता देखूंगी। उसके बाद ही मैं तुम्हें आशीर्वाद दूंगी। दूसरे दिन विवेकानंद आए तो उन्होंने कहा, अच्छा आशीर्वाद लेने आया है। पर पहले मुझे वह चाकू तो पकड़ा। मुझे सब्जी काटनी है, फिर देती हूं तुझे आशीर्वाद। गुरूमाता की आज्ञा मानते हुए जैसे विवेकानन्द जी ने पास पड़ा चाकू गुरु मां को दिया मां का चेहरा प्रसन्नता से खिल गया। उन्होंने कहा जाओ नरेंद्र मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहेगा। स्वामी विवेकानन्द जी आश्चर्य में पड़ गए। वे यह सोच कर आए थे कि मां उनकी योग्यता जांचने के लिए कोई परीक्षा लेगी लेकिन वहां तो वैसा कुछ भी नहीं हुआ। विवेकानन्द जी के आश्चर्य को देखकर माता शारदा ने कहा कि प्रायः जब किसी व्यक्ति से चाकू मांगा जाता है तो वह चाकू का मुठ अपनी हथेली में थाम देता है और चाकू की तेज धार वाला हिस्सा दूसरे को दे देता है। इससे पता चलता है कि उस व्यक्ति को दूसरे की तकलीफ और सुविधा की परवाह नहीं। लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया। यही तो साधु का मन होता है जो सारी विपदा खुद झेलकर भी दूसरों कसे सुख देता है। इसी से पता चलता है कि तुम शिकागो जाने योग्य हो।

स्वामी विवेकानंद पर अन्य लेख और जानकारियां


Share: