वीर विनायक दामोदर सावरकर जीवनी



प्रथम अध्याय : प्रारंभिक जीवन
वंश परम्परा
महाराष्ट्र के चित्तपावन ब्राह्मण वंश परंपरा में अनेक देश भक्त महापुरुषों का जन्म हुआ है। मराठा साम्राज्य के प्रथम पेशवा बालाजी विश्वनाथ, नाना फड़नवीस, प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी सेनापति नाना साहब, प्रसिद्ध क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत फड़के, चाफेकर बंधुओं, गोविंद महादेव रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक आदि महापुरुष इसी चित्तपावन वंश की संतान थे। उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इसी वंश के एक व्यक्ति विनायक दीक्षित नासिक जिले के भगूर नामक गाँव में रहते थे, जिनके महादेव तथा दामोदर नामक दो पुत्र थे।
दामोदर पंत सावरकर की शिक्षा मैट्रिक तक हुई थी और इस शिक्षा की समाप्ति पर वह पास के ही किसी गाँव की पाठशाला में अध्यापक हो गए थे। तत्कालीन परंपरा के अनुसार उनका विवाह अठारह वर्ष की अल्पायु में ही हो गया था। उस समय उनकी जीवन संगिनी राधाबाई केवल दस वर्ष की अबोध बालिका थीं। दोनों ही पति-पत्नी अपने जीवन में अत्यंत धार्मिक प्रकृति के गृहस्थ थे। भगवान राम तथा कृष्ण उनके आराध्य थे और सिंहवाहिनी दुर्गा उनकी कुल देवी थीं। पारिवारिक वातावरण पूर्णतया हिन्दुत्व के विचारों से ओत-प्रोत था।

जन्म एवं बाल्यकाल
इन्हीं सावरकर दंपति के यहां वैशाख कृष्ण 6, संवत् 1940 तदनुसार, 28 मई सन् 1883 को एक बालक का जन्म हुआ और भारतीय इतिहास में यही बालक आगे चलकर वीर विनायक दामोदर सावरकर के नाम से विख्यात हुआ। कहा जाता है कि शिशु विनायक अभी कुछ ही महीनों के थे कि वह अत्यधिक रोने लगते थे और इसी तरह रोते-रोते मां का दूध पीना भी छोड़ देते थे। एक बार वह इसी तरह बार-बार रोये जा रहे थे। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। इस समय वह अपने ताऊजी महादेव सावरकर की गोद में थे। उनके लाख प्रयत्न करने पर भी शिशु सावरकर रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। सहसा ताऊजी के मुंह से निकल पड़ा— “यदि तू अपने पूर्वज विनायक दीक्षित का आकार है, तो तेरा भी यही नाम रख देंगे, तू चुप होकर दूध पी ले।“ इतना कहकर उन्होंने शिशु के माथे पर राख का टीका लगा दिया। आश्चर्य कि बालक चुप हो गया तथा उसने दूध पी लिया और बालक का नाम अपने पितामह के नाम पर विनायक ही रख दिया गया। दक्षिण भारत की परंपरा के अनुसार पुत्र के नाम के साथ पिता का नाम भी लिखा जाता है, अतः वह विनायक दामोदर सावरकर कहलाये।
इस पुस्तक के चरित नायक वीर विनायक सावरकर कुल पाँच भाई तथा दो बहिन थे जिनमें दो भाई तथा एक बहिन की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई थी। जीवित भाई बहिनों में विनायक सावरकर का क्रम दूसरा था। श्री गणेश सावरकर उनके बड़े भाई थे और मैना उनकी छोटी बहिन तथा नारायण दामोदर सावरकर उनके छोटे भाई थे। इस बात का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है कि सावरकर की माता राधाबाई एवं पिता दामोदर सावरकर दोनों ही धर्मनिष्ठ हिन्दू थे। माता-पिता दोनों ही अपने बच्चों को रामायण, महाभारत आदि की कथाओं के साथ ही महाराणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, छत्रपति शिवाजी आदि ऐतिहासिक महापुरुषों की वीरतापूर्ण गाथाएं भी सुनाते थे। इस सबका बालक सावरकर पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। बाल्यकाल से ही उनके हृदय में हिन्दुत्व के प्रति एक सम्मानपूर्ण भावना का उदय हो गया। वह हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का स्वप्न देखने लगे। उनकी यह भावना उनके परवर्ती जीवन में भी दिनों-दिन बलवती होती गयी।
विनायक को घर में स्नेह से तात्या कहा जाता था। अभी वह केवल नौ ही वर्ष के थे कि सन 1892 में उनकी मां का देहावसान हो गया। इसके पश्चात उनके पिता ने ही मां की भूमिका का निर्वाह किया। धर्म-प्रेमी पिता ने कुलदेवी दुर्गा की पूजा का कार्य बालक को सौंप दिया।
लगभग इसी समय सन् 1893-95 में समस्त देश में हिन्दू-मुसलिम दंगे भड़क उठे। इससे बालक तात्या के ह्रदय में हिन्दू जाति के प्रति सहानुभूति तथा प्रेम का उदय होना आरंभ हो गया। सन् 1897 में पूना में प्लेग का भयंकर प्रकोप हुआ। प्लेग के प्रसार को रोकने के नाम पर अंग्रेज भारतीयों के घरों में घुस कर दुर्व्यवहार करते थे। मिस्टर रैण्ड नामक अंग्रेज के दुर्व्यवहार से समस्त पूनावासी क्षुब्ध हो उठे। इसके विरोध में लोकमान्य तिलक ने अपने पत्र ‘केसरी’ में लेख लिखे।
इसी वर्ष 22 जून को महारानी विक्टोरिया के राज्य अभिषेक की हीरक जयंती मनाई जा रही थी। पूना में भी उत्सव हो रहा था। देश की दुर्दशा तथा इस प्रकार उत्सव मनाया जाना चाफेकर बंधुओं को सहन नहीं हुआ। उन्होंने मिस्टर रैण्ड और एयस्र्ट की हत्या कर दी।
12 जून 1897 को छत्रपति शिवाजी का अभिषेकोत्सव मनाया गया। इस उपलक्ष्य में 15 जून को तिलक ने केसरी में छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रशंसा तथा उनके कार्यों का औचित्य बताते हुए कुछ लेख लिखे। रैण्ड की हत्या होने पर लोकमान्य तिलक पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने राजनीतिक हत्या का समर्थन किया अतः उन्हें सजा हुई। इस समस्त घटनाचक्र ने बालक तात्या के देश प्रेम को अंकुरित होने में सहायता दी। वह ब्रिटिश राज का शीघ्र विध्वंस चाहने लगे।
इसी के लगभग दो वर्ष बाद विनायक को एक और भारी आघात का सामना करना पड़ा। सन् 1899 में उनके पिता दामोदर पंत का भी प्लेग से देहांत हो गया। पिता के देहांत के पश्चात परिवार का पूरा उत्तरदायित्व बड़े भाई गणेश सावरकर पर आ गया। वह अपने दोनों भाइयों तथा छोटी बहिन को लेकर नासिक आ गए। गणेश सावरकर का विवाह हो गया था। उनकी पत्नी यशोदा तथा वह स्वयं छोटे भाई बहिनों का स्नेहपूर्वक पालन-पोषण करने लगे।
पिता का देहांत हो जाने के बाद भी गणेश सावरकर ने छोटे भाइयों के प्रति अपने कर्तव्य का समुचित रूप में निर्वाह किया। यह उन्हीं के सुप्रयत्नों का परिणाम था कि विनायक सावरकर के अध्ययन में किसी भी प्रकार का व्यवधान नहीं आ पाया। विनायक भी जीवन पर्यन्त अपने बड़े भाई में पिता तथा भाभी में माता का प्रतिरूप देखते थे। विद्यार्थी जीवन में ही विनायक सावरकर का विवाह भी हो गया था उनकी पत्नी भाऊ साहब चिपलूणकर की पुत्री थीं। उनका वैवाहिक जीवन उन्हें उनके अध्ययन तथा देश प्रेम से किसी भी प्रकार विमुख नहीं कर पाया, अपितु हम देखते हैं कि उनकी सहधर्मिणी ने उन्हें जीवन में कर्तव्य निर्वाह की सदा एक आदर्श प्रेरणा दी।

शिक्षा

1889 में प्रारंभिक शिक्षा हेतु बालक तात्या को गांव की पाठशाला में प्रविष्ट कराया गया। इस पाठशाला में पाँचवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की। अपनी शिक्षा के इस प्रारंभिक चरण में भी बालक तात्या अपने समवयस्क बालकों के साथ युद्ध सम्बन्धी खेल ही खेलते रहते। बालकों के दो दल बनाए जाते, कृत्रिम दुर्ग रचना होती। फिर एक दल दूसरे दल पर आक्रमण करता।
इस पाठशाला में पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्हें आगे पढ़ने के लिए नासिक भेज दिया गया। अपने इस विद्यार्थी जीवन में भी तात्या का देशप्रेम निरंतर पल्लवित होता रहा। यहां भी वह अपने मित्र विद्यार्थियों को राष्ट्र प्रेम का पाठ पढ़ाते रहे। इसी समय से उन्होंने मराठी भाषा में कविताएं लिखनी भी प्रारंभ कर दी। उनकी ये देश भक्ति परक कविताएं मराठी के तत्कालीन मुख्य पत्रों में प्रकाशित हुई। यही नहीं वह राष्ट्र प्रेम से ओत-प्रोत साहित्य का भी अध्ययन करने लगे। राष्ट्रीय भावना युक्त समाचार पत्रों को पढ़ना भी उनके दैनिक जीवन का मुख्य कार्य बन गया।
1901 में सावरकर ने मैट्रिक परीक्षा में सफलता प्राप्त की। इसके बाद उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वह फग्यूर्सन कॉलेज पूना के छात्र बने। यहां भी उन्होंने समान विचारों वाले युवकों का एक दल बना लिया तथा उन्हें राष्ट्र प्रेम का पाठ पढ़ाने लगे।

विद्यार्थी जीवन के अध्ययनेतर क्रियाकलाप
सन् 1902 में फग्यूर्सन कॉलेज में जब विनायक सावरकर ने प्रवेश लिया, उस समय गणित के विद्वान सर जदुनाथ परांजपे इस कालेज के प्राचार्य थे। इस कॉलेज में प्रवेश लेने पर सावरकर को सबसे बड़ी प्रसन्नता इस बात की हुई कि यहां से उन्हें अपने विचारों को जनता तक पहुँचाने का अवसर मिलेगा। उनके लेखों एवं व्याख्यान से अल्प समय में ही वह कॉलेज ही नहीं, अपितु नगर के एक सुपरिचित व्यक्ति बन गए। यहीं वह लोकमान्य तिलक के संपर्क में भी आए, जिनकी प्रेरणा से उनका देशप्रेम और भी अधिक परिपुष्ट हुआ। यहां अध्ययन करते समय वह कॉलेज छात्रावास में रहते थे। छात्रावास में भोजन की व्यवस्था छात्र ही करते थे। सावरकर के आ जाने पर छात्रों को इस कार्य के लिए एक अच्छा व्यवस्थापक प्राप्त हो गया। सावरकर जिस कमरे में रहते थे, वहां प्रायः राजनीतिक आंदोलन पर परिचर्चाएं होती रहती थीं। प्रत्येक समय में कोई न कोई विद्यार्थी वहां विद्यमान रहता था। अतः सावरकर का कमरा ‘सावरकर कैम्प’ कहा जाने लगा।
पूना के ही डेक्कन कॉलेज के खापडें आदि कुछ विद्यार्थियों से भी सावरकर की अच्छी मित्रता थी। अतः आंदोलन के संबंध में होने वाली सभी सभाएँ या तो डेक्कन कॉलेज में होती थीं अथवा फग्यूर्सन कॉलेज के सामने स्थित पहाड़ी पर होती थीं।
फग्यूर्सन कॉलेज में प्रवेश लेते ही विनायक सावरकर ने एक पत्र निकालना भी आरंभ कर दिया। यह पत्र हाथ से लिखा होता था। अध्ययन के साथ ही साथ वह सांस्कृतिक, वाद-विवाद आदि कार्यक्रमों में भी सक्रिय भाग लेते थे। इतिहास उनका सर्वाधिक प्रिय विषय था। भारत ही नहीं, अपितु विश्व भर के इतिहास का उन्हें अगाध ज्ञान था। इसी कालेज में एक बार वहां इटली के इतिहास पर एक वाद-विवाद प्रतियोगिता हुई इस प्रतियोगिता में सावरकर ने भी भाग लिया। उनके व्याख्यान को सुनकर कॉलेज के तत्कालीन प्राचार्य आश्चर्य चकित रह गए। प्राचार्य महोदय स्वयं इतिहास पढ़ाते थे, किन्तु सावरकर के व्याख्यान को सुनकर उन्होंने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया कि वह स्वयं (प्राचार्य) इतिहास पढ़ाते थे और रात-दिन यही उनका कार्य था किन्तु सावरकर को उन से अधिक ज्ञान था।

राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कविताएं
अपने आरंभिक छात्र जीवन से ही विनायक सावरकर राष्ट्र-प्रेम से ओत-प्रोत कविताएं लिखने लगे। उनकी ये कविताएं (पोवाड़ों) स्वतंत्रता प्रेमी ऐतिहासिक वीरों महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह आदि से संबद्ध होती थीं। अपनी इन वीर रस की कविताओं से वह अपने मित्रों में देशप्रेम की भावना का समावेश करते थे। इन पोवाड़ों के प्रसंग में एक के स्थान पर छत्रपति शिवाजी के चचेरे भाई बाजी घोरपड़े (जो बीजापुर के सुल्तान का समर्थक था) के विषय में कहा है- “हाय वीर बाजी बीजापुर के यवन सुल्तान की सेवा में हैं। अपनी मातृभूमि की अधीनता के लिए यह विदेशी विधर्मी की सहायता कर रहा है।"
आगे छत्रपति शिवाजी का दूत बाजी के पास जाता है और उन्हें संदेश देता है – “हे बाजी तुम मलेच्छ कसाई की सेवा तथा जन्मभूमि की दासता के लिए उस विधर्मी का क्यों सहयोग कर रहे हो! स्वदेश एवं स्वराज से प्रेम न करने वाले व्यक्ति को धिक्कार है। यह धर्म का दोष नहीं की मलेच्छ की शक्ति प्रबल है। आज देशद्रोही चांडालों का बाजार लगा है। वीर बाजी इस दासता में क्यों व्यर्थ अपना जीवन गँवा रहे हो। गो-ब्राह्मण रक्षक, स्वतंत्रता को स्थित करने वाले शंकर जी के अवतार छत्रपति शिवाजी तुम्हें बुला रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम में तुम्हारा आवाहन कर रहे हैं। वहां चलो, देशभक्ति का अमृत पीकर प्रायश्चित करो। स्वतंत्रता प्रिय सेना के सेनापति बनो।"
इस संदेश का बाजी पर अनुकूल प्रभाव होता है। उसे अपने करनी पर ग्लानि होने लगती है। वह दूत से कहता है- “ भयंकर सांप को मित्र समझकर मैंने उसे अपने ही घर में शरण दे दी है। इस विदेशी, विधर्मी, हिन्दू द्रोही चोर को मैंने राजा माना तथा महान पराक्रमी छत्रपति शिवाजी का विरोध किया। अपनी पावन मात्रभूमि को अपवित्र करने वाले का ही मैं सेवक बना। स्वयं शिवाजी महाराज मुझ जैसे नीच राष्ट्रद्रोही को काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दें, मैं उस स्वतंत्रता प्रेमी हिन्दू वीर के हाथों से मुक्ति पाकर इस पावन भूमि में पुनः जन्म लेना चाहता हूँ।”
सावरकर की प्रथम कविता सन् 1894 में प्रकाशित हुई थी। उनकी ये कविताएं मराठी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती थीं। इन्हीं कविताओं को पढ़कर लोकमान्य तिलक तथा गोविन्द महादेव रानाडे उनसे परिचित हुए। दोनों महानुभावों ने इन कविताओं के लिए सावरकर को अपनी शुभकामनाएँ दी थीं। बाद में सरकार ने इन कविताओं को सरकार-विरोधी बताकर प्रतिबन्ध लगा दिया था। नासिक के एक पत्र 'नासिक वैभव' में सावरकर का 'हिन्दुस्थान गौरव' नामक लेख प्रकाशित होने पर उनके सभी अध्यापकों ने इस की प्रशंसा की थी।

मित्रमेला
1894 में चाफेकर बंधुओं ने हिन्दू धर्म संरक्षिणी सभा की स्थापना की थी। पूर्व वर्णित रैण्ड हत्याकांड में चाफेकर बंधुओं को फाँसी दे दी गई। इस घटना से समस्त देश में अंग्रेजों के विरुद्ध तीव्र रोष उत्पन्न हो गया। इसी घटना ने विनायक सावरकर को अंग्रेजी शासन का प्रबल शत्रु बना दिया और उन्होंने अपनी कुलदेवी के समक्ष मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहने की प्रतिज्ञा की। अपनी इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए उन्होंने छात्रों का 'मित्रमेला' नामक एक संगठन बनाया। मित्र मेला के माध्यम से उन्होंने 'शिवाजी महोत्सव', 'गणेश महोत्सव' आदि का आयोजन करना प्रारंभ कर दिया जिसमें युवकों को सशस्त्र क्रान्ति की शिक्षा दी जाती थी। शीघ्र ही सावरकर के व्याख्यानों से प्रभावित होकर अनेक युवक इसके सदस्य बन गए। 22 जनवरी,1901 ने इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया का देहावसान हो जाने पर समस्त भारत वर्ष में शोक सभाएं होने लगी। यह मानसिक दासता पूर्ण चाटुकारिता सावरकर को सहन नहीं हुई। मित्र मेला की बैठक में इन शोक सभाओं का विरोध करते हुए उन्होंने कहा- "इंग्लैण्ड की महारानी हमारे शत्रु देश की रानी है, अतः हम शोक क्यों मनाएं ? हमें दासता के बन्धनों में जकड़ने वाली रानी की मृत्यु पर शोक मनाना हमारी दासतापूर्ण मनोवृत्ति का ही परिचायक होगा। "
मित्र मेला के सभी कार्यक्रम चाफेकर बंधुओं की हिन्दू धर्म संरक्षिणी सभा के कार्यक्रमों के समान ही छत्रपति शिवाजी श्लोक और गणपति श्लोक गायन से आरंभ होते थे। इन श्लोकों में मात्र भूमि की स्वाधीनता के लिए छत्रपति शिवाजी के समान प्राणार्पण करने की शिक्षा दी जाती थी। जैसे - “मित्रों हम संकल्प करते हैं कि राष्ट्रीय रण भूमि में अपना जीवन बलिदान कर देंगे। जो लोग हमारे धर्म और मातृभूमि को नष्ट कर रहे हैं, इन पर आघात कर रहे हैं, उनके रक्त से पृथ्वी को रंग देंगे। हम शत्रुओं को मृत्युलोक पहुँचाकर ही मृत्यु को प्राप्त होंगे।”

विदेशी वस्त्रों की होली
1905 में जिस समय सावरकर बी.ए. अंतिम वर्ष की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, उसी समय उन्होंने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का निर्णय लिया। इस निर्णय पर नरम विचारों वाले कांग्रेसी नेताओं का स्पष्ट मत था कि इसका परिणाम शुभ नहीं होगा। इससे सरकार, शांतिप्रिय जनता तथा ऐंग्लो-इण्डियनों के विरोध का सामना करना पड़ेगा। इसके साथ ही साथ गरम विचारों वाले कांग्रेसी चाहते थे कि स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार-कार्य इन युवकों को अवश्य करना चाहिए किन्तु विदेशी वस्त्रों की होली न जला कर उन्हें निर्धनों में वितरित करना चाहिए। सावरकर का स्पष्ट मत था कि निर्धनों में स्वदेशी वस्त्रों का वितरण किया जाएगा परन्तु सरकार के विरुद्ध जनता में तीव्र आक्रोश उत्पन्न करने हेतु विदेशी वस्त्रों की होली जलाना परम आवश्यक है। अतः 22 अगस्त,1906 को उन्होंने पूना में पहली बार सार्वजनिक रूप में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वयं लोकमान्य तिलक ने की। सावरकर के इस ऐतिहासिक कार्य का समाचार समस्त विश्व में फ़ैल गया। यह घटना समाचार पत्रों में भी चर्चा का विषय रही। इसी घटना के परिणामस्वरूप उन्हें कॉलेज से भी निष्कासित कर दिया गया। इसके बाद उन्हें बम्बई कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा देने की अनुमति मिल गई थी और उन्होंने यह परीक्षा उत्तीर्ण कर ली।
होली जलाने से पूर्व सावरकर के उत्तेजक भाषणों से रुष्ट होकर अब फग्यूर्सन कॉलेज के प्राचार्य ने उन्हें 10 रुपयों का आर्थिक दण्ड भी दिया था। लोकमान्य तिलक ने केसरी के माध्यम से इस दण्ड का विरोध किया। सावरकर के मित्रों तथा शुभ चिन्तकों ने दण्ड का समाचार मिलते ही दण्ड से भी अधिक धनराशि उनके लिए भेज दी। दण्ड के बाद बची हुई धनराशि को सावरकर ने स्वदेशी प्रचार हेतु दान कर दिया। यहीं से वह सरकार के लिए एक भयंकर व्यक्ति बन गये।

अभिनव भारत
बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सावरकर ने एक गुप्त सभा में अभिनव भारत नामक संस्था का गठन किया। इस संस्था का उद्देश्य युवकों को सशस्त्र क्रांति के लिए तैयार करना था। इसकी सदस्यता प्राप्त करने से पूर्व प्रत्येक युवक को इस प्रकार शपथ लेनी पड़ती थी—“छत्रपति शिवाजी के नाम पर, अपने पावन धर्म के नाम पर तथा अपने प्रिय देश के नाम पर अपने पूर्वजों की शपथ लेते हुए मैं यह प्रतिज्ञा करता हूं कि अपने राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष करता रहूँगा। मैं ना तो आलस्य करूंगा और न ही अपने लक्ष्य से पीछे हटूंगा। मैं अभिनव भारत के नियमों का पूर्ण पालन करूंगा तथा संस्था के कार्यक्रमों को पूर्णतया गुप्त रखूंगा।"
इस उद्देश्य के लिए सावरकर ने अनेक स्थानों पर घूमकर युवकों को संगठित किया। इस कार्य के प्रसार में उनके भाषण अत्यंत देश भक्तिपूर्ण तथा ओजस्वी होते थे। उनके एक भाषण के कुछ अंश इस प्रकार हैं “छत्रपति शिवाजी की संतानों! जिस प्रकार छत्रपति शिवाजी ने मुग़ल साम्राज्य का विध्वंस किया, सदाशिवराव भाऊ ने मुगल सिंहासन को चकनाचूर कर दिया, उसी प्रकार अब तुम्हें भारतमाता को दासता के बंधनों में जकड़ने वाले अंग्रेजों के अत्याचारी साम्राज्य को चकनाचूर करके स्वतन्त्र हिन्दू साम्राज्य की स्थापना करनी है। सशस्त्र क्रान्ति से इस विदेशी साम्राज्य का तख्ता पलटना है।”
एडवर्ड सप्तम के अभिषेक के उपलक्ष्य में भारत में स्थान-स्थान पर उत्सव मनाए जा रहे थे। देश को दास बनाने वाली जाति के सम्राट के अभिषेक पर प्रसन्नता व्यक्त करने वाले भारतीयों को सावरकर दासता के समर्थक मानते थे। अतः इस अवसर पर उन्होंने पोस्टर लगाकर अपना आक्रोश व्यक्त किया था। इन पोस्टरों में लिखा था- "भारतीयों तुम लोग एक ऐसे राजा का अभिषेक उत्सव मना रहे हो, जिसने तुम्हारी भूमि को दास बनाया हुआ है। यह उत्सव दासता का उत्सव होगा। "

अगम्य गुरु परमहंस के संपर्क में
1905 में सावरकर एक महात्मा के संपर्क में आए, जिनका नाम अगम्य गुरु परमहंस था। परमहंस सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर चुके थे और स्थान-स्थान पर व्याख्यान दे चुके थे। इन भाषणों में वह सरकार के विरुद्ध प्रचार करते थे तथा जनता को सरकार से न डरने की शिक्षा देते थे। उन्होंने पूना में नौ व्यक्तियों की एक समिति बनाई थी, जिसके अधिकांश सदस्य फग्यूर्सन कालेज के छात्र रह चुके थे। इस समिति ने कुछ धन भी अग्रिम कार्यों के लिए एकत्र किया था। प्रतीत होता है, विनायक सावरकर के इंग्लैण्ड जाने पर यह समिति भी भंग हो गई। तब इसके कुछ सदस्य विनायक सावरकर के बड़े भाई गणेश सावरकर द्वारा गठित ‘तरुण भारत’ सभा में सम्मिलित हो गये। इस प्रकार गुरु परमहंस से विनायक सावरकर का परिचय अल्प समय के लिए ही रहा।
लन्दन प्रस्थान से पूर्व सावरकर ने महाराष्ट्र के लगभग सभी बड़े-बड़े नगरों का भ्रमण किया। इस भ्रमण में उन्होंने अपने क्रांतिकारी मित्रों से देश की स्वतंत्रता के विषय में विचार विमर्श किया तथा स्थान-स्थान पर जनता में जागृति उत्पन्न करने के लिए भाषण दिए। उनके सम्मान में एक विराट सभा की गई, जिसमें उनके लन्दन के अध्ययन के लिए शुभकामनाएँ व्यक्त की गई। इसके पश्चात वह लन्दन प्रस्थान की तैयारी करने लगे।

द्वितीय अध्याय : लन्दन के कार्यकलाप
प्रस्थान
बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात सावरकर बैरिस्टरी का अध्ययन करने हेतु इंग्लैण्ड जाना चाहते थे। इसके लिए उनके समक्ष आर्थिक समस्या प्रमुख थी। उनके श्वसुर भाऊराव चिपलूणकर ने उन्हें इंग्लैण्ड जाने के लिए दस हजार रुपए दिए, किन्तु इतने रुपयों से भी समस्या हल नहीं हो सकती थी। इन्हीं दिनों पंडित श्याम जी कृष्ण वर्मा लन्दन में रहकर भारत की स्वतंत्रता के लिए क्रान्ति का संचालन कर रहे थे। उन्होंने लन्दन में इंडिया हाउस की स्थापना की थी और ‘इंडियन सोशियोलाँजिस्ट’ नामक एक पत्र भी निकालते थे। पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लन्दन में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए कुछ छात्रवृत्तियां देने की व्यवस्था की थी। लोकमान्य तिलक ने वर्मा जी को एक पत्र लिखा था कि एक छात्रवृत्ति सावरकर को प्रदान की जाए। अतः छात्रवृत्ति सावरकर को मिल गई। आर्थिक समस्या का समाधान हो जाने पर 9 जून, 1906 को वह बम्बई बंदरगाह से लन्दन को चल पड़े। इस अवसर पर लोकमान्य तिलक भी उन्हें विदाई देने स्वयं बंदरगाह तक आए थे।

इंग्लैण्ड में सावरकर के क्रियाकलाप
लन्दन पहुँचने पर सावरकर श्यामजी कृष्ण वर्मा के इंडिया हाउस में रुके। वर्मा जी ने यहां उनकी सभी प्रकार की सहायता की। इंडिया हाउस देश भक्तों का ही केन्द्र था, अतः सावरकर को यहां अपने विचारों के अनुरूप वातावरण मिल गया। लन्दन पहुँचने के कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ की स्थापना की। भाई परमानंद, मदन लाल धींगरा, हरनामसिंह, कोरगांवकर, लाला हरदयाल आदि देशभक्त युवक इसके सदस्य बन गये। इस सोसायटी की सभाओं में भारत भूमि की स्वतंत्रता प्राप्ति पर विचार होता था। इसकी प्रथम सभा में अपने व्याख्यान में सावरकर ने कहा था - " अँग्रेजी साम्राज्य भारत से तभी समाप्त किया जा सकता है, जबकि भारतीय युवक हाथों में शस्त्र लेकर मरने-मारने पर कटिबद्ध हो जाएं। सशस्त्र क्रांति से ही भारत की स्वाधीनता संभव है। अतः हमें भारतीय युवकों को इसके लिए तैयार करना है। उनकी शस्त्रास्त्रों से सहायता करनी हैं। इसके लिए वह लन्दन में ‘अभिनव भारत’ के कार्य को भी आगे चलाते रहे। उनके लन्दन पहुंचने से पूर्व भारत की स्वाधीनता का कार्य केवल समाचार पत्रों के माध्यम से ही किया जाता था। सावरकर ने इस स्थिति को पूर्णतया बदल डालने का संकल्प किया।

महान कृति ‘1857 का स्वातन्त्र्य समर’
सावरकर भारत से गये तो थे बैरिस्टर बनने, किन्तु यहां पहुँचने पर उन्होंने इतिहास के अध्ययन को प्राथमिकता दी। वह विश्वविद्यालय में बहुत कम जाते थे, उनका अधिकांश समय ब्रिटिश लाइब्रेरी में व्यतीत होता था। इटली के प्रसिद्ध वीर मैजिनी से प्रभावित होकर उन्होंने ने मैजिनी की जीवनी लिखी तथा 1906 में सिखों का ‘स्फूर्तिदायक इतिहास’ नामक एक पुस्तक की रचना की। इसके बाद गंभीर अध्ययन के परिणामस्वरूप उन्होंने ‘1857 का स्वातन्त्र्य समर’ नामक ग्रंथ लिखा।
अंग्रेजी इतिहासकारों ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को एक विद्रोह, लूट अथवा गदर कहकर महत्वहीन सिद्ध करने का प्रयत्न किया था, किन्तु सावरकर ने इस ग्रंथ की रचना करके इसमें भारतीय वीरों द्वारा मात्र भूमि की स्वतंत्रता के लिए किया गया प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सिद्ध किया और अपने समर्थन में उन्होंने प्रबल प्रमाण दिए। 1907 में सर्वप्रथम यह पुस्तक मराठी में लिखी गई। इसके महत्वपूर्ण अंशों के अंग्रेजी अनुवाद को सावरकर ने अपने साथियों को सुनाया। इसकी सूचना मिलते ही इंग्लैण्ड में इसे जब्त कर लेने के आदेश हो गए, किन्तु अत्यन्त गुप्त रूप में पुस्तक की पाण्डुलिपि भारत भेज दी गई। भारत में इसे प्रकाशित करने के प्रयत्न हुए, किन्तु यहां भी पुलिस ने मुद्रणालयों में छापे मारे, अतः पुस्तक प्रकाशित न हो पाई और उसे पुनः सावरकर के पास भेज दिया गया। इसका अंग्रेजी अनुवाद सर्वप्रथम हाँलैण्ड से प्रकाशित हुआ। ब्रिटिश सरकार इससे पहले ही अवैध घोषित कर चुकी थी। अतः इसकी हजारों प्रतियां फ्रांस भेज दी गयीं। कुछ प्रतियां भारत तथा अन्य देशों में भी भेज दी गयीं। यह ग्रंथ क्रान्तिकारियों में अत्यंत लोकप्रिय हुआ। बाद में इसका दूसरा संस्करण मैडम भीखाजी कामा, लाला हर दयाल आदि क्रान्तिकारियों ने प्रकाशित कराया। इसके बाद भगत सिंह ने भी इसे गुप्त रूप में प्रकाशित कराया। अपनी लोकप्रियता के कारण इसकी एक-एक प्रति तीन-तीन सौ रुपयों में बिकी।
1907 में सावरकर ने लन्दन में 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अर्धशताब्दी मनाई। युवकों ने ‘1857 के शहीदों की जय’ लिखे बैज लगाए। इस पर अंग्रेज प्राध्यापकों ने अपनी घृणा का परिचय देते हुए इस संग्राम के बलिदानियों को डाकू और लुटेरा कहा। इस पर युवकों का उन से विवाद हो गया। फलतः छात्रों ने विश्वविद्यालय का बहिष्कार कर दिया। विश्व के सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने इस विषय की चर्चा की। इन घटनाओं से इंग्लैण्ड की पुलिस सतर्क हो गई। अतः सावरकर की प्रत्येक गतिविधि पर ब्रिटिश सरकार द्वारा दृष्टि रखी जाने लगी। उन्होंने विश्व भर के पत्रों में स्वाधीनता संग्राम के पक्ष में लेख लिखे। इनसे प्रभावित होकर अनेक अंग्रेज पत्रकारों ने भी सावरकर की मांगों का समर्थन किया।
श्यामजी कृष्ण वर्मा के इंग्लैण्ड से फ्रांस चले जाने पर इंडिया हाउस का संचालन सावरकर ने कुशलता से किया। उन्होंने जर्मनी में संपन्न होने वाली अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस में सरदार सिंह राणा और श्रीमती भीखाजी को भारत का प्रतिनिधि बनाकर भेजा, जहां पहली बार श्रीमती कामा ने, वन्दे मातरम् लिखित ध्वज को फहराया।
सावरकर ने रूसी क्रान्तिकारियों के पास दो भारतीय युवकों को बम बनाने की विधि सीखने के लिए भेजा। बाद में ये दोनों युवक बम बनाने की विधि, लिखित पुस्तक तथा कुछ पिस्तौल लेकर भारत भेजे गये।

भारतीय सैनिकों में क्रांति का प्रचार
सावरकर भारतीय सैनिकों में भी क्रान्ति का प्रचार करना चाहते थे, अतः उन्होंने भारतीय सेना के सिख, जाट और डोगरा सैनिकों के घरों के पते ज्ञात किए और प्रत्येक माह में दो तीन बार उन्हें क्रान्ति के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से पत्र लिखे जाते थे। इन पत्रों को तैयार करने के बाद सिख युवक इनका हिन्दी तथा पंजाबी में अनुवाद करते थे। इन्हें मोमी कागज पर लकड़ी के एक डुप्लकेटर से मुद्रित कराकर भेजा जाता था। यह कार्य कई महीनों तक निर्बाध गति से चलता रहा। बाद में इसका रहस्य खुल गया। अतः सैनिकों को आदेश दिया गया कि इन पत्रों को पढ़ना तथा रखना अपराध माना जाएगा और जिसके पास भी ये पत्र हों, उन्हें अपने अधिकारियों को सौंप दें। रहस्य के खुल जाने पर सावरकर ने पत्र भेजना बंद कर दिया। सरदार अजीत सिंह (भगत सिंह के चाचा) आदि ने इन पत्रों की लाखों प्रतियाँ गुप्त रूप से छपवाकर पूरे देश में वितरित की थीं।

इंग्लैण्ड में राम जन्मोत्सव
सावरकर भगवान राम को मानव-मात्र का आदर्श मानते थे। इसलिए उन्होंने इंग्लैण्ड में राम जन्मोत्सव के अवसर पर कहा था- “यदि मैं इस देश का अधिनायक होता, तो सर्वप्रथम मैं वाल्मीकि रामायण को जब्त करने का आदेश देता, क्योंकि जब तक यह ग्रंथ हिन्दुओं के हाथों में रहेगा, तब तक न तो हिन्दू किसी दूसरे ईश्वर या सम्राट के समक्ष सिर झुका सकते हैं, न ही उनकी जाति का विनाश हो सकता है।... रामायण लोकतंत्र का आदि शास्त्र है, ऐसा शास्त्र, जो लोकतंत्र की कहानी ही नहीं, प्रहरी, प्रेरक और निर्माता भी है। जब तक रामायण यहां है, तब तक इस देश में कोई अधिनायक नहीं पनप सकता। क्या कहीं कोई ऐसा सम्राट, अवतार या पैगंबर दिखाई देता है जो राम के सामने टिक सके।”
इन ओजस्वी व्याख्यानों से भारतीय युवक स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए व्यग्र होने लगे थे।

धींगरा का बलिदान
मदनलाल धींगरा अध्ययन के लिए पंजाब से लन्दन गए थे। सावरकर के संपर्क में आने पर वह मात्र भूमि की सेवा के लिए तत्पर हो गए। उन्होंने सावरकर से अपनी इच्छा व्यक्त की। सावरकर ने परीक्षा लेने के लिए उनके हाथ में छुरी भोंक दी, किन्तु धींगरा ने उफ तक न की। अतः उन्हें शिष्य बना लिया गया।
इंग्लैण्ड में भारतीय युवकों की क्रांतिकारी गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए कर्जन वायली की अध्यक्षता में ‘इंडिया ऑफिस’ की स्थापना की गई। प्रकट में यह संस्था भारतीयों से सहानुभूति दिखाते थी किन्तु इसका उद्देश्य भारतीय क्रांतिकारियों पर जासूसी करना था। सावरकर का शिष्य बनने के बाद मदन लाल धींगरा कर्जन वायली के पास गए तथा इंडिया ऑफिस के सदस्य बन गए। उन्होंने इंडिया हाउस जाना छोड़ दिया। उनके साथी उन्हें देशद्रोही समझने लगे, किन्तु धींगरा के मन में तो कुछ और ही था। जुलाई 1909 को इम्पीरियल इंस्टीट्यूट के जहाँगीर हॉल में उन्होंने कर्जन वायली की गोली मारकर हत्या कर दी। अतः उन्हें बंदी बना लिया गया।
इस घटना से चारों ओर खलबली मच गई। धींगरा के पिता ने घबराकर तार भेजकर उनसे सम्बन्ध-विच्छेद की घोषणा कर दी। भारत में इस हत्या के विरोध में सभाएं हुईं। लन्दन में भी भारतीयों ने एक सभा की। सावरकर भी इस सभा में विद्यमान थे। सभी धींगरा के कृत्य की निंदा कर रहे थे, अंत में सभा के अध्यक्ष जैसे ही निंदा प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पास होने की घोषणा को उठे, (श्री मन्मथनाथ गुप्त के अनुसार इस सभा के अध्यक्ष विपिन पाल थे, किन्तु सावरकर की जीवनी के लेखक श्री शिव कुमार गोयल ने आगा खां को इस सभा का अध्यक्ष बताया है। ) सावरकर ने गरजते हुए इस प्रस्ताव का विरोध किया। उनका कहना था कि धींगरा का मामला सभी न्यायालय में विचाराधीन होने से इस प्रकार की कार्यवाही मुकदमे को प्रभावित कर सकती थी। जहां सब एक स्वर में बोल रहे थे, वहां सावरकर के इस अप्रत्याशित विरोध से अंग्रेज तिलमिला उठे। एक अंग्रेज ने ‘जरा अंग्रेजी घूंसे का मजा ले लो, देखो कैसा ठीक बैठता है’ कहते हुए सावरकर पर घूंसा दे मारा, जिससे सावरकर की ऐनक टूट गई और उनकी आंखों से रक्त बहने लगा। घूंसा मारकर वह अंग्रेज रुक भी नहीं पाया था इससे पहले ही एक युवक एम.टी.टी. आचार्य ने ‘जरा इसका भी तो मजा लो, यह हिन्दुस्तानी डंडा है’ कहते हुए अपनी छड़ी उस अंग्रेज के सिर पर दे मारी, जिससे वह भी घायल हो गया। फलतः सभा में निंदा प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। सावरकर गिरफ़्तार कर लिए गए, किन्तु प्रमाण के अभाव में उन्हें शीघ्र ही छोड़ दिया गया।
धींगरा ने अदालत में अपराध स्वीकार करते हुए कहा—“जो अमानवीय फांसी तथा काले पानी की सज़ा हमारे सैकड़ों देशभक्तों को हो रही है, मैंने उसी का एक सामान्य-सा बदला उस अंग्रेज के रक्त से लेने की चेष्टा की है। मैंने इस विषय में अपने विवेक के अतिरिक्त किसी से परामर्श नहीं लिया है।... ईश्वर से मेरी केवल यही प्रार्थना है कि मैं फिर उसी माता के गर्भ से जन्म लूँ और फिर उसी पावन उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर सकूं। मैं यह तब तक चाहूंगा, जब तक भारत स्वाधीन न हो जाए, ताकि मानवजाति का कल्याण हो तथा ईश्वर की महिमा का विस्तार हो सके। वन्दे मातरम्।”
वेस्ट मिनिस्टर अदालत में धींगरा को मृत्यु दंड सुनाया और 16 अगस्त 1909 को उन्हें फांसी दे दी गई। इससे पूर्व 22 जुलाई को सावरकर ने ब्रिस्टन जेल में उनसे भेंट की और कहा, “मैं तुम्हारे दर्शनों के लिए आया हूँ।”
धींगरा की फाँसी के बाद सावरकर ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देते हुए कहा था—“हुतात्मा धींगरा का वक्तव्य ही क्रांतिकारियों के अभिप्राय को व्यक्त करने वाला बहुमूल्य प्रलेखीय प्रमाण है।... धींगरा एक महास्वाभिमानी हिन्दू थे। उनके मत में राष्ट्रशत्रु का वध भगवान श्री राम, श्री कृष्ण, छत्रपति शिवाजी महाराज, वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप आदि हिन्दू स्वाभिमानियों की वीर परम्परा का एक अंग था, वह ईश्वरीय कृत्य था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ज्योति प्रज्वलित करने वाला एक निनाद था, उनका वक्तव्य।”

बन्दी बनाया जाना
उपर्युक्त घटना के बाद इंग्लैण्ड की पुलिस हाथ धोकर सावरकर के पीछे पड़ गई। अतः उनके मित्रों ने उन्हें पेरिस जाने का परामर्श दिया। वह पेरिस चले गए। किन्तु पेरिस में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध क्रान्ति के कार्यों को आगे बढ़ाना सम्भव नहीं था अतः वहां उनका मन नहीं लगा। यद्यपि इन दिनों श्याम जी कृष्ण वर्मा भी पेरिस में ही थे और उन्होंने भी सावरकर को पेरिस में ही रहने का परामर्श दिया, किन्तु वह न माने और इंग्लैण्ड को लौट पड़े। 13 मार्च,1910 को लन्दन पहुंचते ही उन्हें बंदी बना लिया गया। उन पर निम्नलिखित अभियोग लगाए गए-
1. भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध षड्यंत्र।
2. ब्रिटिश सम्राट की सम्प्रभुता को नष्ट करना।
3. अवैध आयुधों का संग्रह, वितरण तथा जैक्सन एवं कर्जन वायली की हत्या के लिए युवकों को प्रेरित करना।
4. लन्दन में शस्त्र-संग्रह एवं उनका भारत को निर्यात।
5. भारत तथा लन्दन में राजद्रोहात्मक भाषण।
इन आरोपों की पृष्ठभूमि में भारत की घटनाओं, अर्थात जैक्सन की हत्या गणेश सावरकर तथा नारायण सावरकर को बंदी बनाए जाने की घटनाओं पर दृष्टिपात करना भी अप्रासंगिक न होगा। विनायक सावरकर कि इस गिरफ़्तारी से पूर्व 1908 ने उनके बड़े भाई गणेश सावरकर ने लघु अभिनव भारत मेला नामक एक कविता संग्रह प्रकाशित कराया। सरकार ने इस की कविताओं को भड़काने वाली माना और उन पर धारा 121 के अंतर्गत अभियोग चलाया गया। फलस्वरूप 9 जून, 1909 को उन्हें आजीवन काले पानी का दण्ड दिया गया। निम्न न्यायालय में इस अभियोग पर जज जैक्सन ने विचार किया। अतः 21 दिसम्बर 1909 को 16 वर्षीय किशोर कान्हेरे ने जैक्सन को उसके विदाई समारोह में गोली मार दी। कहा जाता है कि जिस पिस्तौल से यह हत्या की गई, वह सावरकर द्वारा लन्दन से भेजा गया था। जिसका भेजे जाने का उल्लेख हो चुका है। जैक्सन हत्याकांड में सात व्यक्तियों पर मुकदमा चला, जिनमें कान्हेरे आदि तीन व्यक्तियों को फांसी दे दी गई।
अपने बड़े भाई की सज़ा की सूचना वीर सावरकर को लन्दन में भेज दी गई थी। कहा जाता है कि इस सूचना को मिलने के बाद वह इंडिया हाउस में जोर-जोर से बोले थे कि इसका बदला लिया जाएगा।
इसके कुछ ही दिनों के बाद उनके छोटे भाई नारायण सावरकर को भी बंदी बना लिया गया। उन पर क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न होने का आरोप था। इस समाचार के मिलने पर वीर सावरकर को अपने भाइयों के प्रति अभिमान की अनुभूति हुई और उनके मुंह से निकल पड़ा- “चलो इससे अधिक गौरव की क्या बात हो सकती है कि हम तीनों ही भाई स्वातन्त्र्य श्री की आराधना में लीन है।“
अपने बड़े भाई की गिरफ़्तारी पर वीर सावरकर ने अपनी भाभी को सांत्वना देने के लिए एक पत्र लिखा था, जो कविता में निबद्ध था। इस पत्र की कतिपय पंक्तियों का भावार्थ प्रस्तुत है-
‘गजेंद्र की सूंड से भगवान के चरणों में समर्पित कमल जड़ से उखड़ जाने पर भी अमर हो जाता है। इसी प्रकार हम तीनों भाई जन्मभूमि के चरणों में समर्पित होकर मोक्ष को प्राप्त हो जाएंगे।’
ब्रिस्टन जेल से भी सावरकर ने अपनी पूज्या भाभी को पत्र लिखा। यह पत्र मराठी भाषा में था और इसे उन्होंने अपनी मृत्यु-पत्र के रूप में लिखा क्योंकि उन्होंने समझ लिया था कि उन्हें फांसी दे दी जाएगी। इस पत्र की कुछ पंक्तियां निम्नलिखित थीं-
‘मात्रभूमि! तेरे चरणों में मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। मेरा वक्तृव्य, वाग्वैभव, मेरी नई कविता सभी कुछ तेरे चरणों में समर्पित है।... वंश चाहे अखंड हो या न हो, परन्तु मात्रभूमि हमारे उद्देश्य पूर्ण हों। माता के बंधन तोड़ने के लिए हम प्रज्वलित अग्नि में अपना सर्वस्व जलाकर कृतार्थ हो गए। पूज्या भाभी! समझ लो इसी में हमारे वंश की सफलता है। पार्वती ने हिमालय की चोटियों पर तप किया तथा कई राजपूत रमणियों ने हंसते-हंसते प्राणों की आहुति दे दी है। भारतीय ललनाओं में वह तेज-बल आज भी नष्ट नहीं हुआ है...।’

समुद्र संतरण
सावरकर को बंदी बनाकर ब्रिस्टन जेल में रखे जाने पर उनके मित्र समझ रहे थे कि उन पर लन्दन में ही अभियोग चलाया जाएगा। कदाचित ब्रिटिश सरकार को भय था कि इससे सावरकर को ब्रिटिश न्याय की धज्जियां उड़ाने का अवसर मिल जाएगा। इससे उन्हें अनायास ही प्रसिद्धि मिल जाती, अतः उन्हें इंग्लैण्ड से भारत ले जाकर उन पर अभियोग चलाने का निर्णय लिया गया। इंग्लैण्ड की सरकार के इस निर्णय से अवगत होने पर उन्होंने वहां सक्रिय भारतीय क्रांतिकारियों के पास अपना निम्नलिखित संदेश भेजा-
“जिस प्रकार किसी भी भारतीय नाटक के जीवित अथवा मरते सभी पात्र अंत में मिलते हैं। उसी प्रकार संघर्ष रूपी इस नाटक के हम सभी असंख्य पात्र भी इतिहास के रंग वंचित पर कभी अवश्य मिलेंगे और मानवता रूपी दर्शक हमारा सहर्ष स्वागत करेंगे। मित्रों! तब तक के लिए विदा।
मेरा शव चाहे कही और गिरे, अन्डमान की अंधेरी ताल कोठरी में अथवा गंगा की परम पवित्र धारा में वह हमारे संघर्ष को गति ही देगी। युद्ध में लड़ना और गिर पड़ना भी एक विजय ही है अतः प्रिय मित्रों! विदा-विदा।”
1 जुलाई, 1910 को मोरिया नामक जलयान वीर सावरकर को लेकर इंग्लैण्ड से भारत की और चल पड़ा। जलयान में कठोर पहरा था।
उधर पेरिस स्थित क्रांतिकारियों श्यामजी कृष्ण वर्मा, लाला हरदयाल आदि ने पहले ही योजना बना ली थी कि जब सावरकर को लेकर जलयान फ्रांस के तट पर पहुंचे, तो उन्हें मुक्त करा लिया जाए। इसकी सूचना सावरकर को भी मिल चुकी थी। निश्चय किया गया कि यहां पहुँचने पर सावरकर यान से कूद पड़ें और टैक्सी उन्हें लेकर पेरिस की और चल पड़े।
सावरकर को लेकर मोरिया जलयान 8 जुलाई, 1910 को फ्रांस के मार्सेल्स बंदरगाह पर पहुँचा। सावरकर शौचालय में आ गए और उछलकर खिड़की को पकड़ते हुए समुद्र में कूद पड़े। उनके पहरेदार देखते रह गए। वे चेतावनी देते हुए गोली चलाते रहे, किन्तु सावरकर ने इसकी परवाह न की और वे तैरते हुए किनारे पहुंच गए। सामने ऊँची दीवार थी। उन्होंने उस पर चढ़ने का प्रयत्न किया, किन्तु नीचे गिर पड़े। पुनः प्रयत्न करने पर बड़ी कठिनाई से वह दीवार पर चढ़ पाने में सफ़ल हो गए और फ्रांस की भूमि पर उतर गए। वह आगे भागने लगे, तब तक पहरा देने वाले भी नावों में बैठकर वहां तक पहुंच चुके थे। श्याम जी कृष्ण वर्मा आदि क्रांतिकारियों को पहुंचने में के बल 15 मिनट का विलम्ब हो गया। फ्रांस की पुलिस ने अंतर्राष्ट्रीय नियमों की अवहेलना करके वीर सावरकर को पकड़ कर पुनः इंग्लैण्ड की पुलिस को सौंप दिया। दुर्भाग्य से यह प्रयत्न सफल न हो सका। इस रोमांचकारी घटना का समाचार बिजली की तरह सम्पूर्ण विश्व में फैल गया। सभी समाचारपत्रों ने इसे प्रमुखता के साथ छापा और फ्रांस की पुलिस के कार्य की निन्दा की।

सावरकर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में
स्वतंत्र राष्ट्र फ्रांस की भूमि में आकर एक बंधन मुक्त नागरिक को बलात् उठा ले जाना एक अंतर्राष्ट्रीय अपराध था। जागरूक फ्रांसीसी नागरिकों ने भी इंग्लैण्ड की पुलिस के कृत्य की आलोचना की तथा वीर सावरकर को वापस लाने के लिए सरकार पर दबाव डाला। उस समय जर्मनी के विरुद्ध आत्मरक्षा के लिए इंग्लैण्ड और फ्रांस निकट आ रहे थे, अतः फ्रांस की सरकार इस कार्य के लिए इंग्लैण्ड पर दबाव नहीं डाल सकी। अतः दोनों देशों ने इस मामले को हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंप दिया।
इस न्यायालय की प्रथम बैठक 16 फरवरी, 1911 को हुई। बाद में 24 फरवरी को ही न्यायालय ने निर्णय दे दिया कि सावरकर को फ्रांस को सौंपने की कोई आवश्यकता नहीं। इस पक्षपात पूर्ण निर्णय की भी विश्व भर में आलोचना की गई।

भारत में न्याय का नाटक
भारत लाकर वीर सावरकर को यरवदा जेल में रखा गया। उन पर मुकदमा चलाने के लिए सरकार ने एक विशेष न्यायालय की स्थापना की, जिनमें तीन न्यायाधीश थे- सर बेसिल स्कॉट (मुख्य न्यायाधीश), सर एन. जी. चंद्रावरकर तथा हीटन। श्यामजी कृष्ण वर्मा, श्रीमती कामा आदि क्रांतिकारियों ने वीर सावरकर की पैरवी के लिए प्रसिद्ध अंग्रेजी वकील जोसेफ वेपतिस्ता को नियुक्त किया। वेपतिस्ता के अतिरिक्त श्री गोविन्दराव गाडगिल, श्री रंगनेकर तथा चितरे ने इस मुकदमे में स्वेच्छा से वीर सावरकर की कानूनी सहायता की।
यहां सावरकर पर दो अभियोग लगाए गए-
1. 36 अन्य व्यक्तियों के साथ ब्रिटेन के सम्राट के विरुद्ध षड्यंत्र।
2. नासिक के कलेक्टर जैक्सन की हत्या की प्रेरणा देना।
15 दिसम्बर 1910 से यह मुकदमा बम्बई में प्रारंभ हुआ। सावरकर की और से प्रार्थना पत्र देते हुए उनके वकील जोसेफ वेपतिस्ता ने अदालत में कहा कि यह है गिरफ़्तारी फ्रांस की भूमि से अवैध रूप से हुई थी। इस अवैध गिरफ़्तारी पर अभी विवाद चल रहा था। अतः विवाद के निर्णय तक इस मुकदमे को स्थगित करने की प्रार्थना की, किन्तु यह प्रार्थना अस्वीकार कर दी गई।

दो जीवन पर्यन्त कारावास
25 दिसम्बर, 1910 को न्यायालय ने वीर सावरकर को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह की प्रेरणा देने, बम आदि बनाने का प्रशिक्षण देने के आरोप में धारा 121-अ के अंतर्गत जीवन पर्यन्त कारावास तथा सम्पत्ति की जब्ती का दण्ड सुनाया। उनके साथ अन्य 25 युवकों को विभिन्न अवधि के कारावास का दण्ड मिला
प्रथम मुकदमे के बाद जैक्सन हत्याकांड पर दूसरा मुकदमा 23 जनवरी, 1911 से चला तथा एक सप्ताह के अंदर ही 30 जनवरी को इसका निर्णय भी सुना दिया गया। इस निर्णय में भी उन्हें पुनः जन्म भर कारावास का दण्ड दिया गया। निर्णय सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश बेसिल स्कॉट में स्पष्ट रूप से कहा—“सावरकर जैसे भयंकर अपराधी को दो आजन्म, अर्थात् पचास वर्ष तक काले पानी में रखा जाए।”
दो जीवन पर्यन्त कारावास का दण्ड निश्चय ही एक अभूतपूर्व निर्णय था। इस निर्णय से सारे देश में क्षोभ की लहर दौड़ गई। वीर सावरकर के इस दण्ड के विरोध में भारतीयों ने हजारों पत्र सरकार को भेजे, किन्तु परिणाम शून्य ही रहा।

तृतीय अध्याय : अन्डमान में
दो काले पानी उतना दण्ड सुना दिए जाने के बाद अन्डमान भेजने से पूर्व वीर विनायक सावरकर को डोंगरी जेल में रखा गया। यहां उन्हें रस्सी के लिए नारियल के रेशे कूटने का काम दिया गया। इसी जेल में इन दिन उनकी पत्नी उनसे मिलने पहुँचीं, जिनकी अवस्था इस समय केवल उन्नीस वर्ष थी। पति को इस रूप में देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गए। वीर सावरकर ने अपनी अद्भुत वीरता का परिचय देते हुए पत्नी का साहस बढ़ाया। एक आदर्श पति का कर्तव्य निर्वाह करते हुए उन्होंने कहा—“चिन्ता न करो। यदि ईश्वर की कृपा हुई तो पुनः अवश्य भेंट होगी। तब तक यदि सामान्य संसार का भय सताने लगे, तो ऐसा विचार करो की बेटे-बेटियों की संख्या बढ़ाना तथा चार तिनके जमा करके घर बांधना ही यदि संसार कहलाता है, तो ऐसा संसार तो कौए, चिड़ियां भी बसाती रहती हैं। परन्तु यदि परिवार का उदार अर्थ ‘मानव परिवार’ लेना हो, तो उस से सजाने में तो हम पूर्ण सफल हुए हैं। माना कि अपना सुखी जीवन हमने अपने ही हाथों से ध्वस्त कर डाला। परन्तु भविष्य में सहस्त्रों घरों में सुख की वर्षा होगी। क्या तब हमें अपना बलिदान सार्थक न लगेगा? सुखी संसार की कल्पना करने वाले अनेक लोग प्लेग का शिकार बन जाते हैं, उनका घर दीपक विहीन हो जाता है। विवाह मंडप तक से पति-पत्नी को काल दबोच ले जाता है। अतः संकटों का सामना करना सीखो और धैर्य रखो।”
श्रीमती माई ने एक वीर पत्नी का परिचय दिया और बोलीं—“आप चिन्ता न करें। मेरे लिए क्या यही कम सुख की बात है कि मेरा वीर पति मातृभूमि की सेवा के लिए कठोर साधना कर रहा है।”
डोंगरी जेल के बाद सावरकर को भायखला जेल भेजा गया और यहां भी पूर्व जेल के समान कठोर परिश्रम के कार्य कराये गए। भायखला, के बाद उन्हें ठाणे जेल स्थानान्तरित कर दिया गया। इस जेल के कष्टों का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है—“ठाणे बन्दीगृह में मुझे जिस काम में रखा गया, उसमें कुख्यात दुष्ट मुसलमान वार्डर रखे गए थे। एकदम एकांत। भोजन आया, कौर भी न निगल सका। बाजरे की बेकार रोटी, न जाने कैसी खट्टी सब्जी। मुंह में रखना भी कठिन। रोटी का टुकड़ा काटा जाए, थोड़ा चबाया जाए, घूँट भर पानी पिया जाए और उसी के साथ कौर निगल लिया जाए।”
इस जेल में एक दिन वार्डर ने उन्हें सूचना दी की उनके छोटे भाई डॉ. नारायण दामोदर सावरकर को भी इसी जेल में रखा गया है। 20 वर्षीय नारायण सावरकर को लॉर्ड मिंटो पर बम फेंकने के आरोप में बंदी बनाया गया था। स्मरणीय है कि सबसे बड़े भाई सावरकर पहले ही कालेपानी की सज़ा भुगतने के लिए अन्डमान भेजे जा चुके थे।
उसी वार्डर के हाथों वीर सावरकर ने छोटे भाई नारायण को एक पत्र भेजा। पत्र के माध्यम से उन्होंने छोटे भाई को कष्टों से विचलित न होने की शिक्षा दी थी—
“तुम मेरे विषय में बिलकुल चिन्ता न करना, और न मन को खिन्न करना। वाष्पयंत्र को प्रेरणा देने के लिए अपने देह का ईंधन बनाकर यदि किसी को जलते रहना है, तो वह स्थान हमें ही क्यों न प्राप्त हो। जलते रहना भी तो एक कर्म है। इतना ही नहीं एक महान कर्म है।”
कहने की आवश्यकता नहीं कि इस पत्र से नारायण सावरकर को एक आदर्श आत्मबल की प्राप्ति हुई होगी।
न्यायालय के निर्णय के बाद वीर सावरकर लगभग चार माह तक इन जेलों में रहे।

अन्डमान को प्रस्थान
चार माह तक उपर्युक्त जेलों में रहने के बाद अंत में एक दिन महाराजा नामक जलयान उन्हें लेकर अन्डमान की और चल पड़ा और 4 जुलाई, 1911 को वह अन्डमान पहुंच गए। अन्डमान जेल का जेलर एक आयरिश था, जिसका नाम बारी था। पहली बार सामना होते ही बारी बोला—“यदि तुम मार्सेल्स की तरह भागने का प्रयास करोगे, तो भयंकर संकट में पड़ जाओगे। जेल के चारों और गहन वन हैं, और उनमें भयंकर वनवासी लोग रहते हैं। तुम जैसे युवकों को वे ककड़ी की तरह खा जाते हैं।”
यह सुनकर सावरकर बोले—“गिरफ्तार होते ही मैंने अपने भावी निवास स्थान अन्डमान की जानकारी के लिए यहां के इतिहास का अध्ययन कर लिया है। अतः आपको इस विषय में अधिक बताने की आवश्यकता नहीं।”

अन्डमान का बन्दी जीवन
वीर विनायक सावरकर को अन्डमान जेल में सातवीं बैरक की 123वीं कोठरी में रखा गया था। इस जेल में भारत से हत्या, डकैती आदि गंभीर अपराधों में दण्डित अपराधी रखे जाते थे। साथ ही राजनीतिक मामलों में जीवन पर्यन्त कारावास मिलने पर भी कैदियों को यहां भेज दिया जाता था। यहां कैदियों का जीवन एक दम निम्न स्तर का था और जेलर, और वार्डर आदि का व्यवहार पूर्णतया अमानवीय। वीर सावरकर ने अपने इस जीवन के प्रारंभिक दिनों का वर्णन करते हुए लिखा है—
“जमादार अब मुझे लेकर सात नंबर बैरक की और चल पड़ा। मार्ग में पानी का एक हौज मिला। जमादार बोला—‘इसमें नहाओ।’ मैंने कई दिनों से स्नान नहीं किया था। समुद्र यात्रा से शरीर मलिन और पसीने से तर हो गया था, अतः स्नान की अनुमति मिलते ही अपूर्व आनंद प्राप्त हुआ। मुझे लंगोट दे दी गई और कहा कि इसे पहन कर स्नान करो। लंगोट पहन कर ज्यों ही पानी लेना चाहा कि इस बीच जमादार ने चिल्लाकर कहा—‘ऐसा नहीं करना यह कालापानी है। जब मैं आज्ञा दूंगा कि पानी लो तब तुम झुककर एक कटोरा पानी लेना। फिर मैं कहूंगा ‘अंग मलो’ तो उससे अंग मलना। फिर जब मैं कहूंगा और पानी लो, तब तुम और दो कटोरे पानी लोगे। बस कुल तीन कटोरों में स्नान होगा।’
“स्वभावानुसार जैसे ही चुल्लू भर पानी से कुल्ला किया कि खारे पानी से जीभ का स्वाद बिगड़ गया। पूरा शरीर कसमसा गया। लगा कि इससे तो स्नान न करना ही अच्छा रहता, किन्तु फिर विचार किया कि इसकी आदत तो डालनी ही होगी। लन्दन तथा पेरिस के टर्किशी बाथ का आनंद लिया तो, अण्डमानीश बाथ का आनंद लेना चाहिए।
दूसरी प्रातः जेल का वार्डन पठान दौड़ता हुआ सावरकर के पास आया और उसने कहा—“साहब आता है, खड़े रहो।” सावरकर दरवाजे की सलाखों के पास खड़े हो गए। तभी कुछ अन्य गोरों के साथ जेलर बारी वहां आया। उसने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को गदर सिद्ध करने के लिए चर्चा छेड़ दी। सावरकर ने निर्भीकता के साथ प्रबल प्रमाण देकर इसे स्वतंत्रता संग्राम सिद्ध किया।
जेल में कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार होता था। जेलर बारी का व्यवहार पूर्णतया एक असभ्य व्यक्ति के जैसा था। यदि वीर सावरकर को संबोधन में कोई बाबू कह देता, तो वह बारी चिल्ला पड़ता—‘कौन साला बाबू है? यहां सब साले कैदी हैं।’ वह सावरकर को राजनीतिक बंदी मानने को भी तैयार नहीं था। उन्हें खतरनाक अपराधी का वार्ड ‘डी.’ दिया गया, जिसे उन्हें अपने कपड़ों पर लगाना पड़ता था।

अमानवीय यन्त्रणाएं
कैदियों को नारियल का रेशा कूटकर निकालने का काम दिया गया। इस काम को करते हुए कैदी आपस में बोलते भी रहते थे। एक बार कलकत्ता से कोई अधिकारी इस जेल में देखने आया, उसे कैदियों का आपस में बोलना भी सहन नहीं हुआ। आदेश दिए गए कि कैदियों से अधिक कठोरता से काम लिया जाए। अतः उन्हें कोल्हू में जोता जाने लगा। आपस में बातें करने पर एक सप्ताह तक हाथकड़ी डाल दी जाती थी। कोल्हू में जोतने के लिए राजनीतिक कैदियों के स्वास्थ्य की चिंता नहीं की जाती थी। कोठरी में बंद होकर कैदी कोल्हू पेरते, भोजन के समय उन्हें खोला जाता। इस समय भी उन्हें हाथ तक नहीं धोने दिया जाता। हाथ धोने पर अथवा क्षण भर के लिए धूप में खड़े हो जाने पर नम्बरदार भद्दी गालियां देने लगता। पीने के पानी के लिए भी उसकी मिन्नतें करनी पड़तीं। दो से तीसरा कटोरा पानी पीने को नहीं मिलता। नहाना वर्षा के अतिरिक्त हो ही नहीं पाता था। खाना मिलते ही कैदी को पुनः बंद कर दिया जाता था। उसने खाया या नहीं, इस की कोई परवाह नहीं थी। कोठरी में जाते ही बाहर से आवाज आने लगती—“बैठो मत, शाम को तेल पूरा हो, नहीं तो पीटे जाओगे और जो सज़ा मिलेगी सो अलग।”
बहुधा कैदी कोल्हू में जुते-जुते ही खाना खाते जाते। कम तेल निकालने पर डंडों, लातों, घूसों से पशुओं की तरह पीटा जाता। बुखार 102 डिग्री से कम होने पर बारी कोई छूट नहीं देता। सिर दर्द, पेट दर्द आदि रोग जो दिखाई नहीं देते, उनकी शिकायत करने पर तो कैदी की दुर्गति ही कर दी जाती। कैदी द्वारा रोग की शिकायत करने पर डॉक्टर थर्मामीटर लगाता, किन्तु इन रोगों में कोई पता न लगता। डॉक्टर हिन्दू था। बारी उसके साथ भी दुर्व्यवहार करता और कहता—“देखो डाक्टर! तुम हिन्दू हो, वह राजनीतिक कैदी भी हिन्दू है इस की मीठी बातों से कहीं तुम खटाई में न पड़ जाओ, हमें ऐसा डर है। कोई जाकर शिकायत कर दे कि तुम इन से बोलते रहते हो तो तुम्हें लेने के देने पड़ जाएंगे। इसलिए संभल जाओ। समझे? नौकरी करो। माना कि तुम डॉक्टरी पढ़े हो, परन्तु हम भी उन गुणवान है। कौन बीमार है कौन नहीं, मैं देखते ही ताड़ लेता हूँ।’
वीर सावरकर के बड़े भाई भी श्री गणेश सावरकर भी इसी जेल में थे। एक बार उनके माथे में भयंकर दर्द था। डॉक्टर ने उन्हें अस्पताल ले जाने की अनुमति दे दी। उन्हें अस्पताल में ले जाने की समस्त कार्यवाही भी पूरी हो चुकी थी। इतने में वहां बारी पहुँच गया और आते ही बिगड़ उठा—“मुझसे क्यों नहीं पूछा? वह डॉक्टर कौन होता है? साले ले जाओ इसे वापस। काम में लगाओ। मैं समझ लूंगा डॉक्टर को। बिना मुझसे पूछे इसे कोठरी से बाहर क्यों निकाला? ओ साले! जेलर मैं हूँ कि वह डॉक्टर। परिणामस्वरूप रोगी को अस्पताल नहीं ले जाया जा सका।
भोजन-वस्त्र, मार-पीट, गाली-गलौच यह सब तो था ही इसके अतिरिक्त कैदियों को उनकी प्राकृतिक आवश्यकताओं (मल-मूत्र परित्याग) की भी स्वतंत्रता नहीं थी। प्रातः, सायं और दोपहर के अतिरिक्त कैदी अपनी इन अनिवार्य क्रियाओं को भी नहीं कर सकते थे। रात्रि में इन क्रियाओं की आवश्यकता होने पर प्रातः सफ़ाई कर्मचारी का सामना करना पड़ता था और पेशी लग जाती थी। खड़ी हथकड़ी लग जाती थी और आठ घंटे खड़ा रहना पड़ता था। अन्य अपराधी कैदी तो यदा-कदा दीवार पर ही पेशाब कर लेते थे किन्तु राजनीतिक कैदी ऐसा भी नहीं कर पाते थे।
पुस्तकें पढ़ना और लेना-देना भी अपराध माना जाता था। पुस्तकें पढ़ने के विषय में बारी का दृष्टिकोण एकदम मूर्खतापूर्ण था। वह प्रायः कहता था नान्सेन्स! शट्! यह कैण्ट-वैण्ट की किताबें मैं नहीं देना चाहता। इन्हीं किताबों को पढ़कर ये लोग हत्यारे हो जाते हैं और यह योग-वोग, थियोसोफी की पुस्तकें बेकार हैं, किन्तु अधीक्षक इन बातों को सुनता ही नहीं, मैं करूं तो क्या करूं! मैंने आज तक कोई किताब नहीं पढ़ी, फिर भी एक जिम्मेदार व्यक्ति हूं। किताबें पढ़ना औरतों का काम है।”
एक बार एक राजनीतिक बंदी भूगर्भ शास्त्री की कोई पुस्तक पढ़ रहा था। उसने अपनी कॉपी में कुछ उतारा था, तब बारी ने उसे देख लिया और चिल्लाया—“पकड़ लिया। यह गुप्त लिपि क्या है? उसने इस विषय में सावरकर से भी पूछा। उन्होंने बताया कि वह बंदी भूगर्भ शास्त्र पढ़ रहा था। किन्तु बारी के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। आयरिश होने के कारण वह अंग्रेजी नहीं समझता था। दूसरे दिन दण्डस्वरूप दो सप्ताह के लिए उसकी पुस्तकें छीन ली गईं।

राजनीतिक बंदियों के बलिदान
बंगाल के कुछ क्रांतिकारियों कि पुलिस ने मुठभेड़ हो गई थी। इन्हीं क्रांतिकारियों में ज्योतिषचन्द्र पाल नामक एक युवक घायल हो कर पकड़ लिया गया। उसे जन्म कैद का दण्ड मिला और अन्डमान भेज दिया गया। यहां उसे शाम को खाना देने के बाद उसे कोठरी में बंद हो जाने का आदेश मिला। जब सिपाही उसकी कोठरी का दरवाजा बंद करने लगे, तो उसने कहा कि पहले उसकी कोठरी से शौच का बर्तन बाहर जाए, वह तभी भोजन करेगा। सिपाही ऐसा नहीं कर रहे थे। ज्योतिषचन्द्र पाल भी अपनी बात पर अड़ गया। सिपाही बल पूर्वक उसे बंद करके चले गए। शौच का पात्र रात्रिभर उसके सिरहाने पड़ा रहा। उसने खाना फेंक दिया और अनशन प्रारम्भ कर दिया। कुछ ही दिनों में उसे खूनी अतिसार हो गया। उसे अस्पताल में भर्ती कर दिया गया। वीर सावरकर तथा अन्य सभी राजनीतिक बंदियों ने उसे अनशन त्याग देने का परामर्श दिया, किन्तु वह न माना। अंततः भयंकर मानसिक यंत्रणाओं ने उसे पागल बना दिया। कुछ दिन पागलखाने में रहने के बाद उसे बंगाल भेज दिया गया, किन्तु इससे भी कोई लाभ न हुआ। एक दिन समाचारपत्र में उसकी दारुण मृत्यु का समाचार देखने में आया।
रामरक्खा नामक पंजाबी ब्राह्मण को क्रांति के प्रचार में बंदी बनाया गया, जिसे कालेपानी का दण्ड मिला था। उसे अन्डमान लाया गया। यहां कैदियों के जनेऊ निकाल दिए जाते थे। रामरक्खा चीन, जापान आदि अनेक देशों का भ्रमण कर चुका था, किन्तु इस प्रकार कैदियों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं होता था। उसने जनेऊ उतारने का विरोध किया। उसका जनेऊ बलपूर्वक निकाला जाने लगा, उसने ऐसा नहीं होने दिया। अतः उसका जनेऊ तोड़ दिया गया। उसने नया जनेऊ न मिलने तक भोजन पानी न लेने का संकल्प कर डाला। पंद्रह दिन तक भोजन न मिलने से उसकी हालत गंभीर हो गयी, अतः उसकी नाक से नली डालकर आहार दिया गया। यह क्रिया 15 दिन तक चलने पर भी वह टस-से-मस न हुआ। उसके सीने में भयंकर दर्द होने लगा। डॉक्टरी जांच से पता लगा कि उसे तपेदिक हो चुकी थी। इससे सभी राजनीतिक बंदी चिंतित हो उठे। सभी ने उसे अनशन तोड़ने का आग्रह किया, परंतु वह मानता ही नहीं था। अंत में वीर सावरकर ने उसका अनशन तुड़वाया, किन्तु इससे कोई लाभ न हुआ उसकी हालत बिगड़ती चली गई और अंततः वह इस संसार से चल बसा। यह समाचार किसी तरह भारत के समाचार पत्रों तक चला गया। समाचार पत्रों ने इस विषय में आवाज उठाई। अतः सरकार को नियम बनाना पड़ा कि अन्डमान में कैदियों के जनेऊ आदि धार्मिक चिन्ह नहीं उतारे जाएंगे।
कठोर परिश्रम से कई बंदियों का स्वास्थ्य भी चौपट हो गया। कई बन्दी तपेदिक के कारण मृत्यु के मुख में समा गए। वीर सावरकर का शरीर और भी क्षीण होने लगा, अतः उन्हें भी तपेदिक के अस्पताल में भर्ती किया गया।

बारी की पिटाई
जेल के पठान वार्डरों का व्यवहार भी बंदियों के साथ असभ्यतापूर्ण था। एक बार कुछ नये राजनीतिक बन्दी इस जेल में लाए गए। वार्डरों के असभ्य व्यवहार का इन बंदियों ने तीव्र विरोध किया। यह मामला जेलर बारी तक पहुँचा। इन बंदियों में परमानन्द नामक एक महान क्रान्तिकारी थे, वे झाँसी जिले के रहने वाले थे। जेलर ने उन्हें अपने कार्यालय बुला भेजा। उसने परमानन्द जी को किसी के साथ बोलते देखा तो अपने स्वभावानुसार गाली दे बैठा। युवक परमानन्द जी को यह सहन नहीं हुआ। उन्होंने स्वयं को वार्डरों से मुक्त कराकर दो झापड़ बारी के मुंह पर दे मारे। बारी पकड़ो-पकड़ो कहता हुआ बाहर को भागा। इसके बाद परमानन्द जी को निर्दयता के साथ पीटा गया। वह लहूलुहान हो गये। पिटाई के बाद उनकी मरहम-पट्टी की गयी तथा पुनः उसी कमरे में बंद कर दिया गया।
बारी की पिटाई के बाद पूरे अन्डमान में राजनीतिक कैदियों का आतंक जैसा व्याप्त हो गया। बारी ने परमानन्द जी को गालियां दी थीं, अतः इसके विरोध में कुछ राजनीतिक कैदियों ने हड़ताल कर दी। अब बारी तथा पर्यवेक्षक, सभी को होश आया। वे सभी बंदियों को समझाने लगे। पर्यवेक्षक ने बारी को सलाह दी कि वह बन्दियों को गाली न दे। बन्दियों से भी कहा गया कि जितना हो सके, उतना ही कार्य करें। इस घटना के पश्चात् राजनीतिक बन्दियों को अधिक कार्य करने के लिए फिर कभी प्रताड़ित नहीं किया गया।
निःसंदेह परमानंद जी ने बारी को पीट कर सभी राजनीतिक बंदियों की यंत्रणाओं का अंत कर दिया। यद्यपि इस पिटाई के बदले में उन्हें उससे कहीं अधिक पीटा गया, परन्तु इससे जो उपलब्धि हुई, वह उस दुःख को पूर्णतया विस्मृत कर देने में समर्थ थी।
जेल के पठान बार्डर हिन्दू कैदियों के साथ पूर्ण तया पशुवत् व्यवहार करते थे। अतः वीर सावरकर ने हिन्दू कैदियों को संगठित करके इसका सामना करने की सलाह दी थी। एक दिन एक पठान वार्ड ने एक तमिल हिन्दू बन्दी को गाली देते हुए कहा—“यह साला काफिर है, इसकी चोटी उखाड़नी चाहिए।” इतना कहकर उसने हिन्दू बन्दी की चोटी पकड़ ली। वह बन्दी इस दुर्व्यवहार को सहन नहीं कर सका। उसने इस वार्डर को भूमि पर गिरा दिया तथा उसकी छाती पर चढ़ बैठा और लगा उसे घूंसे मारने। वार्डर घबरा गया और बोला—“माफ करो।” तमिल बन्दी हिन्दी नहीं जानता था। वह समझा वार्डर मां की गाली दे रहा है। वह और अधिक क्रोधित हो उठा। उसने वार्डर को मारते-मारते बेहोश कर दिया। इस पर वीर सावरकर ने वार्डर को छुड़ाया अन्यथा उसकी हत्या हो सकती थी। इसके बाद इस साहस पूर्ण कार्य के लिए सावरकर ने उस बंदी को बधाई दी।

जेल के अत्याचारों का भंडाफोड़
जेल में राजनीतिक बंदियों पर असहनीय अत्याचार होते थे, किन्तु भारत की जनता इन से सर्वथा अनभिज्ञ थी। अतः विचार किया गया कि अत्याचारों के विषय में जनता तथा भारत सरकार को अवगत कराया जाए, किन्तु यह कार्य कठिन ही नहीं दुष्कर भी था। इस दुष्कर कार्य को संभव कर दिखाया श्री होती लाल वर्मा ने। श्री वर्मा इलाहाबाद के क्रांतिकारी पत्र ‘स्वराज’ के सम्पादक रह चुके थे। उनके एक सम्पादकीय को सरकार ने ‘राजद्रोहपूर्ण’ माना था। फलतः उन्हें दस वर्ष के कालेपानी का दण्ड दिया गया था। किसी प्रकार कागज की व्यवस्था करके उन्होंने जेल के अत्याचारों का वर्णन करते हुए एक पत्र लिखा। उन पर सबसे कठोर पहरा था। फिर भी उन्होंने यह पत्र जेल से बाहर भेज दिया।
यह पत्र राजनीतिक बंदियों से सहानुभूति रखने वाले किसी सरकारी अधिकारी द्वारा कलकत्ता में श्री सुरेन्द्रनाथ के पास पहुँचा दिया गया। इस पत्र को सुरेन्द्र बाबू ने अपने समाचार पत्र में प्रकाशित किया। इसके साथ ही उन्होंने एक निर्भीक सम्पादक के कर्तव्य का पालन करते हुए भी और इस विषय पर सम्पादकीय भी लिखा। बाद में कई अन्य समाचारपत्रों ने भी इस पत्र को प्रकाशित किया।
बन्दी पत्र के प्रकाशित हो जाने के विषय में पूर्णतया अनभिज्ञ थे। एक दिन बारी ने अपनी मूर्खता के कारण स्वयं ही इस रहस्य को कैदियों के समक्ष प्रकट कर दिया। इस घटना का वर्णन करते हुए वीर सावरकर ने लिखा है—
एक दिन उस पत्र के भारत पहुँचने का समाचार जाने-अनजाने स्वयं बारी ने ही दे डाला। अभी भोर हुआ था कि बारी आग बबूला होता हुआ आया और जो सामने मिला उसी को गालियां बकने लगा। साथ ही अपने हाथ का काला डंडा जमीन पर पटकता-मारता जाता था। हम समझ नहीं सके कि क्या बात है। बारी सब तरफ़ घूम-घूमकर चिल्ला रहा था और वार्डरों को डांटता जा रहा था कि साला तुम लोग, तुम क्या बंदोबस्त करता है ? हम को मिट्टी में मिला देगा?
अन्डमान में एक विषैला कनखजूरा होता है, जिसके काटने से आदमी दर्द से चिल्लाने लगता है। बारी की यह हालत देखकर बंदी आपस में धीरे-धीरे कहने लगे—“संभवतः इसे कनखजूरे ने काट लिया है।” फिर बारी होतीलाल वर्मा की और गया तथा अकारण ही जोर-जोर से कहने लगा—“खड़े रहो, जल्दी क्यों नहीं करता? तुम बड़ा झूठ बोलने वाला है।” अन्य लोग भले ही उसके इस व्यवहार का कारण नहीं समझ पा रहे थे, किन्तु होतीलाल ने इसका कारण जान लिया कि पत्र प्रकाशित हो चुका होगा। बारी का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वह न जाने क्या-क्या बकता जा रहा था। फिर कहने लगा—“यदि कोई कैदी एक-दूसरे से दस कदम पर भी दीख पड़े, तो उन्हें ठीक करो। राजनीतिक बंदी अब दूर-दूर बैठकर भोजन करेंगे। कोई कैदियों की और जाता दिखाई देगा, तो उसे सज़ा मिलेगी।”
इसके बाद सफ़ेद झूठ का सहारा लेता हुआ कहने लगा—“इस पत्र को भेजने जैसी मूर्खता आज तक किसी ने नहीं की। जानते हो इससे क्या हुआ? उस पत्र के छपते ही समाचार पत्र पर मुकदमा हो गया। छापाखाना भी जब्त हो गया। होतीलाल वर्मा ने अपनी मूर्खता से जो छोटा सा-पत्र भेजा, वह प्रेस वालों को दो-तीन लाख रुपयों की हानि कर गया और यहां अब कैदियों पर और भी अभिक सख्ती की जायेगी। झूठा पत्र लिखने के कारण होतीलाल का दण्ड बढ़ जाएगा। वास्तव में उसने घटिया काम किया है।”
बारी के सफेद झूठ का रहस्य भी शीघ्र ही खुल गया भी। धीरे-धीरे उसकी उद्दंडता बनावटी नम्रता में बदल गयी। दो ही सप्ताह बाद वह होतीलाल से बोला—“हम क्या कर सकते हैं। भारत सरकार के आदेश से ही सब कुछ होता है।”
इसके बाद वह वीर सावरकर से बोला देखो—“सावरकर तुम्हारे इस पागल बाबू ने बंगला समाचार पत्र का गला घोंट दिया। पूरा छापाखाना ही जब्त हो गया।”
वीर सावरकर निर्भीकता से बोले किन्तु मैं नहीं समझ सका कि ऐसा क्यों हो रहा है ? यह समाचार पत्र गलत होगा और यदि सत्य भी हो, तो राज बंदियों के कष्ट दूर करने के प्रयास में यदि एक नहीं, अनेक छापेखाने भी जब्त कराने पड़ें, तो चिंता नहीं।”

एकान्तवास
बंदियों के भोजन में सुधार की माँग करने पर वीर सावरकर तथा उनके बड़े भाई गणेश सावरकर को शेष राजनीतिक बंदियों से पृथक् कर दिया गया। फिर भी कुछ ही दिनों बाद बंदियों ने इसी मांग को लेकर भूख हड़ताल कर दी। इसका कारण भी जेल के अधिकारियों ने सावरकर बन्धुओं को ही माना। अतः दोनों भाइयों को पूर्ण तया एकान्तवास का दण्ड दिया गया। 13 महीने का एकान्तवास भी उन्हें किसी प्रकार भी विचलित नहीं कर सका। एकान्तवास का दण्ड सर्वाधिक कठोर माना जाता था। इसमें प्रायः बन्दी की मनःस्थिति विक्षिप्त जैसी हो जाती थी।
इस एकान्तवास में अनेक कैदियों से विचार विमर्श के लिए वीर सावरकर ने एक सांकेतिक की लिपि बनाई थी, जिससे पहले ही सभी बंदियों को समझा दिया गया था। एक के जंजीर को दूसरी जंजीर से टकरा कर विभिन्न प्रकार के गुप्त संकेतों को बना लिया गया था। एकान्तवास में जब सावरकर बंधु किसी भी बन्दी से नहीं मिल सकते थे, उस समय इसी प्रकार की ध्वनि के संकेतों से ही उनका अन्य बंदियों से विचार विमर्श हो पाता था।

बंदी और समाचार पत्र
अन्डमान के कैदियों को भारत के किसी भी प्रकार के समाचार पत्र से अवगत नहीं होने दिया जाता था। उन्हें इन समाचार पत्र के किसी टुकड़े में हिन्दुस्तान शब्द लिखा हुआ देखना भी दूभर हो गया था। यदि कहीं ऐसा टुकड़ा मिल जाता तो कैदी उस पर झपट पड़ते। एक बार एक समाचार पत्र का टुकड़ा किसी गंदी नाली में बहता हुआ जा रहा था। इसमें गोखले जी का एक भाषण प्रकाशित हुआ था, जो सरकार की शिक्षा नीति के प्रति उनकी निराशा को व्यक्त करता था। बंदियों ने उस बहते टुकड़े को तिनकों की सहायता से बाहर निकाला तथा फिर तिनकों की सहायता से ही उस से फैलाया। इसके बाद सभी ने उसे अत्यंत रुचि से पढ़ा।
बंदियों की इस व्यवस्था का वर्णन करते हुए वीर सावरकर ने लिखा है—“भारत में कोई नया कारखाना खुला हो या कोई रद्द कर दिया गया हो, मुकदमे चल रहे हों या दंगा हुआ हो या क्रांतिकारी क्रियाकलापों का कोई नया विस्फोट हुआ हो, अथवा कोई नया कवि उदित हुआ हो— गरज यह की छोटी-बड़ी, कैसी ही खबर हो, जिसे अपनी चिरविरहित मातृभूमि की प्रकृति या प्रगति की जानकारी हो, उसे सुनने के लिए सभी राजबंदी लालायित रहा करते थे। हे हिंदुस्तान! तुम्हारी गोद से छीने गए तुम्हारे तरुण निरंतर तुम्हारी चिंता में ही संलग्न में रहते हैं। अपने शारीरिक कष्ट तो वे भूल ही जाते हैं। विप्लवी राजबन्दी अन्डमान में रहकर भी अपनी मातृभूमि की नाड़ी के स्पन्दनों की परीक्षा करते रहते थे और उसी से देश के स्वास्थ्य का अनुमान करके चिन्तातुर हर्ष- विषाद का अनुभव करते हुए दिन बिता रहे थे...।”

दोनों भाइयों का मिलन
अन्डमान कि एक ही जेल में वीर विनायक सावरकर तथा उनके अग्रज गणेश सावरकर, दोनों कई वर्षों तक रहे, किन्तु उन्हें प्रारंभ से ही पृथक-पृथक रखा गया। अतः दोनों भाई एक-दूसरे को देख भी नहीं सकते थे। बड़े भाई के इस दण्ड का समाचार वीर सावरकर को लन्दन में मिल गया था। परंतु छोटे भाई के विषय में बड़े भाई को कुछ भी ज्ञात नहीं था। दोनों भाई छोटे भाई के लन्दन प्रस्थान करने के दिन से एक-दूसरे से कभी नहीं मिले थे। वीर विनायक सावरकर को बड़े भाई से मिलने की तीव्र लालसा थी। इसके लिए उन्होंने वार्डरों से प्रार्थना की थी, परंतु बारी के आतंक के कारण कोई भी ऐसा करने के लिए तत्पर नहीं हुआ। एक दिन दिनभर पेरा हुआ तेल नपवाकर वीर सावरकर अपनी कोठरी की ओर लौट रहे थे, अनायास ही दोनों भाइयों की भेंट हो गयी। सहसा बड़े भाई के मुंह से निकल पड़ा—“ तात्या तुम!”
तात्या ( वीर सावरकर ) ठहर पड़े, वह अपने अग्रज से कुछ बातें करना चाहते थे, किन्तु वार्डरों ने ऐसा नहीं करने दिया। विवशता के कारण दोनों भाई अपनी-अपनी कोठरियों की ओर चल पड़े।
दूसरे दिन वीर सावरकर को अग्रज का एक पत्र वार्डर द्वारा प्राप्त हुआ। पत्र में लिखा था—
“प्रिय तात्या!
तुम बहार रहकर मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए कार्य करोगे, मुझे ऐसी आशा थी। उस आशा के बल पर मैं अपने कालापानी के दंड को प्रसन्नता से भोग रहा था। मन उन कष्टों को तुच्छ मानता था। हम दोनों भाई तो जेलों में बंद कर दिए गए और केवल तुम ही बाहर रहकर मात्रभूमि की आराधना में लीन हो, यही कल्पना मुझे धीरज देती थी। कष्ट की सफलता का साकार करती थी। किन्तु तुम पेरिस में कार्य करते-करते इन के हाथों न जाने कैसे पड़ गये। अब उस क्रांति ज्योति को कौन जलाएगा? और ‘बाल’ अपना ‘बाल’ अब किसका मुंह ताकेगा? मैंने तुम्हें प्रत्यक्ष देखा है, फिर भी विश्वास नहीं होता—हाय! ओह! तुम यहां कैसे आए?...”
इस पत्र को पढ़कर उन्हें अपनी कर्तव्य के प्रति विफलता के कारण आत्मिक वेदना हुई। उन्होंने भी बड़े भाई के लिए वार्डन के माध्यम से एक पत्र भेजा। इस पत्र के मुख्य अंश अधोलिखित हैं—
“लौकिक तथा भाग्योदय की राख शरीर में मल कर जूझते रहना, यही तो अलौकिक भाग्य है। तो फिर दुःख क्यों? यदि मैं परीक्षा में ही असफल सिद्ध होता, तो मेरी योग्यता तथा कर्तव्य मिट्टी में मिल जाते। यदि ‘सीदन्ति मम गोत्राणि मूर्ख च परिशुष्यति। गाण्डीवं स्रंसते हस्तात् त्वक् चैव परिदह्राते ( मेरे समस्त अंगों जड़ हो रहे हैं, मुख सूख रहा है, गाण्डीव हाथ से गिर रहा है तथा त्वचा जल रही है।) इस स्थिति में होकर मैं कर्तव्यच्युत हो जाता, तो किसे मुंह दिखाता? परन्तु इस प्रकार की कुछ भी घटना न होकर तथा प्राप्त संकटों का सामना करने हेतु सिद्ध हुआ हूं। मैंने भारतीय जनता को जो संकटों का सामना करने का उपदेश दिया है, यदि मैं स्वयं उन संकटों से डरकर भागने लगता, तो क्या मैं कर्तव्यभ्रष्ट न हो जाता? वास्तव में संकट को झेलने में ही हम सब की योग्यता है, कर्तव्यनिष्ठा समाविष्ट है। यश-अपयश केवल योग-अयोग की बात है। इसी प्रकार स्वातन्त्र्य युद्ध में लक्ष्मीबाई तलवार के एक भाव से स्वर्ग सिधार जाती हैं। कोई सैनिक केवल प्रथम बार से मृत्यु को प्राप्त करता है। उनका कर्तव्य योग-अयोग पर प्रायः निश्चित नहीं होता! मैं युद्ध में पीछे रहकर, छिप कर जीवित रह जाऊं और अन्य आगे बढ़कर युद्ध जीतें और जीतते-जीतते मर जाएं, तो फिर उस जीत का उपभोग करने के लिए मैं पीछे रह जाऊं? ऐसी दुष्ट तथा कायर इच्छा मन में धारण न करते हुए, वह सैनिक जब आवश्यकता पड़ी, तब अन्यों के साथ-साथ अविचल भाव से सैन्य के अग्र में जूझता रहा या नहीं, इसी पर उसकी सच्ची योग्यता और कर्तव्यनिष्ठा निर्भर करती है। मैं समझता हूं कि उसी कसौटी पर हम सब खरे उतरे हैं। संकटों का सामना करना, कारागृह में सड़ते रहना, जिनके लिए इतने कष्ट सहन किए, उनके श्राप से मरते रहना, यही सब अपने जीवन का ध्येय है। यह उतना ही महान है, जितना कि बाहर रहकर की कीर्ति तथा दुन्दुभियों के ताल पर जूझते रहना महान माना जाता है, क्योंकि अंतिम विजय प्राप्ति में ज्ञात रूप से जूझते रहना तथा दुन्दुभियों की ध्वनि का निनादित होना जितना आवश्यक माना जाता है, उतना ही कन्दराओं में, बन्दीगृह में कराहते रहना तथा अज्ञात स्वरूप में प्राणोत्क्रमण करना आवश्यक माना जाता है।
इस पत्र को पाकर गणेश सावरकर को अपने भाई के श्रेष्ठ देशप्रेम से गौरव की अनुभूति हुई। उन्हें एक दिव्य आत्म सन्तोष हुआ। छोटे भाई के अदम्य मनोबल को समझकर वह अपने कष्टों को भी भूल गये।

जेल में शुद्धि
जेल में मुसलमान वार्डर नवयुवक हिन्दू बंदियों को इतना आतंकित कर देते कि ये बंदी अपने जीवन से निराश हो जाते और आत्महत्या के विषय में सोचने लगते। इस प्रकार आतंकित करने के बाद फिर उनके साथ दया एवं सहानुभूति दिखाकर उन्हें इस्लाम स्वीकार करने को बाध्य करते। वीर सावरकर ने लिखा है—‘अन्डमान में हम हिन्दू राज बंदियों पर पापी, कुकर्मी तथा चुगलखोर जो तीन वार्डर रखे गए थे, वे तीनों के तीनों पठान, बलूचिस्तानी और पंजाबी मुसलमान थे। वे तीनों क्रूर मुसलमान वार्डर हिन्दुओं पर दबदबा जमाने की नीति रखते थे। हिन्दुओं को त्रस्त करने से ‘सर्वपापं विनश्यति’ का पाठ जन्म से ही पढ़े हुए वे कुकर्मी मुसलमान वार्डर हिन्दू राजबंदियों को तरह-तरह से पीड़ा देते थे। आयरिश बारी उन पापी मुसलमानों का ही पक्ष लेता था। अतः सभी सिन्धी मुसलमान, पठान मुसलमान, पंजाबी मुसलमान एक होकर हिन्दुओं को परेशान करते थे।”
वीर सावरकर ने देखा कि इन वार्डरों की धूर्तता से दो हिन्दुओं ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। अतः उन्होंने इसके प्रत्युत्तर में शुद्धि करने का निश्चय किया। उनके इस कार्य से उन वार्डरों के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने वीर सावरकर को उनकी हत्या कर देने की धमकी दी, किन्तु वीर सावरकर की दृढ़ता के कारण वे उनका कुछ भी अहित न कर सके।
इस प्रकार बलपूर्वक मुसलमान बने युवकों को वीर सावरकर ने उनकी शुद्धि करके पुनः हिन्दू बनाना प्रारंभ कर दिया। एक बार वार्डरों ने मुल्लू अहीर नामक एक हिन्दू युवक को इस्लाम ग्रहण करने के लिए सहमत कर लिया था। वीर सावरकर को इसका पता लग गया। अतः उन्होंने इसे रोकने का संकल्प किया। उन्होंने सिख बंदियों से परामर्श किया और उन्हें सिख गुरुओं के हिन्दू धर्म की रक्षार्थ किए गए बलिदानों का स्मरण कराया। सिख बंदी इस धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए तैयार हो गए।
मुसलमानों ने पूरी तैयारी कर ली थी। सभी मुसलमान बंदी इस धर्मान्तरण के स्थान पर एकत्र हो गए थे। मुल्लू अहीर को कलमा पढ़ाया जाने वाला था कि सिखों सहित सावरकर वहां पहुंच गए। उन सब ने उसे (मुल्लू अहीर को) बलपूर्वक वहां से उठा लिया और चलते बने। इस प्रकार एक हिन्दू विधर्मी होने से बच गया। इसके बाद सावरकर ने उसे हिन्दू धर्म की महानता से अवगत कराया, तब उसकी हिन्दू धर्म में गहरी आस्था हो गयी।

सावरकर द्वारा कारागार में प्रौढ़ शिक्षा
इस कारावास में वीर सावरकर ने प्रौढ़-शिक्षा कार्यक्रम का संचालन भी किया। बंदियों में ज्ञान का प्रचार करके बह उनमें के नवीन जागृति उत्पन्न करना चाहते थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अन्डमान के कारागार ने ही स्वाध्याय मण्डल का संगठन किया। अन्डमान के काला पानी की सज़ा प्राप्त बंदियों को साहित्य, राजनीति, इतिहास, दर्शन, हिन्दू धर्म आदि विषयों की शिक्षा देते थे। दो महान विभूतियां श्री आशुतोष लाहिड़ी तथा भाई परमानंद, वीर सावरकर के इस कार्य में सहयोग देती थीं। वीर सावरकर केवल भारतीय ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के इतिहास का अध्ययन करने पर बल देते थे।
प्रथम विश्व युद्ध छिड़ जाने पर बन्दियों के साथ कुछ अच्छा व्यवहार होने लगा था। उन्हें पुस्तकें मंगाने की सुविधा दे दी गई थी, अतः किसी भी परिचित को पत्र लिखने पर वह पुस्तकें भेजने का आग्रह अवश्य करते थे। अल्प ही समय में उन्होंने अण्डमान जेल में पच्चीस हजार पुस्तकों की व्यवस्था कर ली थी। इस स्वाध्याय मण्डल को वह नालंदा विश्वविद्यालय कहते थे।
इससे विश्वविद्यालय का अध्ययन रस्सियां बटते समय ही संपन्न होता था। आशुतोष लाहिड़ी पुस्तक पढ़ते जाते तथा शेष बन्दियों को समझाते जाते। इस प्रकार अध्ययन तथा रस्सी बटने का कार्य साथ-साथ चलता जाता। सावरकर इस विश्वविद्यालय के उपकुलपति थे तथा इन श्री आशुतोष लाहिड़ी रीडर।
वीर सावरकर बंदियों को इटली के प्रसिद्ध वीर मेजिनी, गैरीबाल्डी तथा गुरु गोविन्दसिंह की जीवनी पढ़ने का परामर्श देते थे। पूर्व उल्लिखित परमानंद जी ( जिन्होंने बारी को पीटा था ) ने इस विश्वविद्यालय में पूर्ण शिक्षा प्राप्त की थी। वह स्वयं को इस विश्वविद्यालय का स्नातक मानते थे। यहां शिक्षा प्राप्त करके कालान्तर में वह अध्यापक बने थे। उन्होंने अपने अध्ययनकाल के एक प्रसंग का उल्लेख निम्नलिखित शब्दों में किया है—
“एक बार उन्होंने मुझे ‘राइज ऑफ डच रिपब्लिक’ पढ़ने को दी। मैंने पढ़ने का बहुत प्रयास किया, किन्तु उसका मर्म अच्छी तरह ह्रदयंगम नहीं कर सका। अपनी इस दुर्बलता से उन्हें अवगत कराया, तो वह बोले—‘अरे एक वह था, जो यह सुन्दर पुस्तक लिख गया और तुम हो की उसे समझ भी नहीं पा रहे हो। क्या इसी बुद्धि और अल्पज्ञान से तुम ब्रिटिश सत्ता से लड़ोगे? पढ़ो, फिर पढ़ो।’ उन्होंने मुझे अध्ययन का गुण बताया—‘रात में के नींद लेकर उठ जाया करो। पढ़ने और लिखने के लिए वही समय सबसे उपयुक्त है। हमारे ऋषि-मुनि इसी बेला में साधना करते थे। चिंतन करते थे। इसे ही ब्रह्रा-आकाश मुहूर्त कहा गया है। सर्वत्र शान्ति रहती है। निविड़ निस्तब्धता। उस समय आकाश अनन्त बन जाता है। पृथ्वी माता उस अनन्त के रहस्य को प्रकृति का रूप धारण करके सामने आ खड़ी होती हैं।”

कारागार में कविता सृजन
अन्डमान का कठोर कारावास भी भीड़ सावरकर के कवि हृदय को मूक नहीं कर सका। कोल्हू में बैल की तरह जुतकर भी वह कविता से विमुख नहीं हुए। उनके मन में उत्कट अभिलाषा थी कि वह महाकाव्य की रचना करें। अतः वह महाकाव्य के सृजन में लग गए। यहां के मानसिक एवं शारीरिक कष्टों की उपेक्षा करते हुए उन्होंने जो काव्य रचना की है। वह प्रशंसनीय ही नहीं अपितु सराहनीय भी हैं।
इसी समय कविवर रविन्द्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ, वह विश्व कवि बन गए। अन्डमान कारागार में ही यह समाचार वीर सावरकर को भी प्राप्त हुआ। एक भारतीय को यह महनीय सम्मान प्राप्त हुआ, अतः सावरकर ने इसे भारतीयों के लिए गौरव की बात समझा। इस अवसर पर उन्होंने कविवर टैगोर को बधाई देने के लिए एक कविता भी लिखी थी। अन्डमान जेल में उन्होंने ‘कमला, गोमान्तक तथा विरहोच्छ्वास’, इन तीन काव्यों की सर्जना की। लेख सामग्री का सर्वथा अभाव होने पर भी इस जेल में सावरकर द्वारा काव्य रचना निश्चय ही एक असम्भव को सम्भव कर दिखाने वाला कार्य था। ‘जहां चाह वहां राह’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए वह स्वरचित कविताओं को वह कोयले, पत्थर, कांटे और कील की सहायता से रगड़कर कोठरी की दीवारों पर लिख देते थे, इन सब के अभाव में उन्होंने नाखूनों का उपयोग करते हुए भी कवितायेँ लिखी थी, कवितायेँ लिखने के पश्चात वे उन्हें कंठस्थ कर लेते थे।

संस्कृति आस्था के प्रतीक-मूर्ति एवं गंगा
भारत भारतीय संस्कृति इसकी उद्धत परम्पराएं अथवा भारत का कण-कण वीर सावरकर के लिए एक मूर्तिमान आराध्य के समान था। यहां के प्रत्येक मंदिर, तीर्थ अथवा नदी को वह भारतीय संस्कृति का वक्षस्थल समझते थे। झांसी के पंडित परमानंद प्रगतिशील आर्य समाजी विचारधारा से प्रभावित थे। एक दिन उन्होंने वीर सावरकर के समक्ष मूर्तिपूजा के विरोध में विचार व्यक्त कर दिए। तब सावरकर ने उनके मन्तव्य पर विचार करते हुए उन से पूछा—“परमानंद जी क्या आपने कभी काशी में भगवान विश्वनाथ जी के दर्शन किए हैं ?” नहीं मैं तो मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करता, पंडित परमानंद ने उत्तर दिया। इस पर अत्यंत स्नेह के साथ वीर सावरकर बोले—“परमानंदजी! क्या आप नहीं जानते की काशी लाखों वर्ष पुरानी नगरी है। वह प्राचीन भारतीय संस्कृति, सभ्यता तथा इतिहास का प्रतीक है। काशीपुरी के भगवान विश्वनाथ की यह प्रतिमा हजारों वर्ष प्राचीन है। हजारों वर्षों से हिन्दुओं ने अपनी आस्था, त्याग तपस्या के बल पर उस प्रतिमा एवं मंदिर की रक्षा के लिए बड़े-बड़े बलिदान किये हैं। उस ऐतिहासिक मूर्ति की पूजा में हजारों वर्षों से हिन्दू जाति की श्रद्धा, आस्था निष्ठा, राष्ट्र एवं धर्म प्रेम की भावना प्रज्वलित होती रही है जिस मूर्ति का अभिषेक हजारों वर्षों तक छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, महारानी अहिल्याबाई नाना साहब, छत्रसाल आदि अनेक वीर पुरुषों ने अपने रक्त से, अपने हृदय की श्रद्धांजलियों से, स्तुतियों से किया हो, क्या वह मूर्ति अब भी साधारण पत्थर ही रह गई?”
“गंगा मां तो अपने हिन्दुस्तान की ऐसी अमूल्य धरोहर हैं कि यहां सतयुग से कलियुग तक के महापुरुषों के अस्थि फूल संचित किए हैं। उसमें स्नान करते ही हृदय में राष्ट्र एवं धर्म की भावना साकार हो उठती है। उसके तट पर बैठकर वैदिक ऋषियों ने हिन्दू संस्कृति का उद्घोष किया था। सारे देश की भावनात्मक एकता की पोषक उद्घोषक हैं, हमारी गंगा माता।”
पंडित परमानंद इस व्याख्यान से अत्यंत प्रभावित हुए।

क्रान्तिकारी पत्र
अपने घर परिवार एवं परिचितों से दूर होने पर उनके एवं स्वयं के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान का सर्वाधिक सुविधाजनक माध्यम पत्र लेखन ही है। जन्म भूमि से दूर अन्डमान के कारावास में निर्वासित होने पर वीर सावरकर ने अपनी पूज्या भाभी तथा अन्य परिचितों को पत्र लिखे थे। इस अवधि में उन्हें केवल एक वर्ष में केवल एक ही पत्र लिखने की अनुमति थी। फिर भी पत्र कोई सामान्य पत्र न होकर मात्रभूमि की सेवा में सर्वात्मना बलिदान हो जाने का संदेश देने वाला पत्र है। इसमें से कुछ विशेष पत्रों के कुछ अंश यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
प्रिय बाल,
तुम देख रहे हो कि हमारी पीढ़ी ऐसे समय में और ऐसे देश में पैदा हुई है, जबकि प्रत्येक उदार एवं सच्चे ह्रदय के लिए यह बात आवश्यक हो गई है कि वह अपने लिए उस मार्ग को चुने, जो आहों, सिसकियों और वियोग के बीच गुजरता है। यही मार्ग, कर्म का मार्ग है। जो ह्रदय वज्र जैसा बन चुका है, जो भाग्यचक्र के निर्दयतापूर्ण प्रहारों का अनुभव कर चुका है, वह संकटों तथा निराशाओं की सृष्टि का दैनिक क्रम समझता है, कम से कम प्रकृति की योजना में मेरे लिए तो यही क्रम निश्चित सा प्रतीत होता है, तब ह्रदय इस बात को अधिक देखता है कि वहां सद्भाव कितना अनित्य और स्थाई है, इस की तुलना में कि वह कितना अच्छा है। मैं आँसुओं को सदा प्रसन्नता का कारण मानता हूं। जो भी हो समय बदल रहा है और भाग्य के बदलने के साथ ही मित्र भी फिर से मिल रहे हैं। एक दिन जब हम दोनों बड़े भाई और मैं कुछ समय के लिए मिले, तब बड़े भाई से मैंने कहा—“शास्त्रों में देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण की बातें लिखी है। इसी तरह पुत्रऋण भी संसार में है। तुम्हारा पत्र पाकर मैंने अनुभव किया कि मैं उस ऋण से पूर्णतया मुक्त हो गया हूँ। क्योंकि अब तुम पूर्णतया शिक्षित एवं संसारोपयोगी शक्ति से संपन्न हो गए हो।... मैडम कामा हम पर अनावृत्त रूप से प्रेम रखती आई हैं। लड़ाई भी उनका ध्यान तुम से न हटा सकी। कई बार सम्बन्धियों की अपेक्षा चुने हुए व्यक्ति अधिक काम आते हैं। संसार में ऐसा भी स्नेह होता है, जिसे श्रेष्ठ ह्रदय ही अनुभव कर सकता है, जिसे रक्त का सम्बन्ध अथवा विशेष लाभ का होना भी समाप्त नहीं कर सकता। वह आदर्श भूमि में उत्पन्न होता है और उसका पोषण उन सूक्ष्म शक्तियों द्वारा होता है, जिससे सांसारिक व्यक्ति न तो देख सकते हैं, न समझ सकते हैं।”
प्रिय बंधु
आन्ध्र परिषद का प्रस्ताव निश्चित एवं व्यापक रूप से लिखा गया था जिससे ज्ञात होता था कि आन्ध्र प्रांत के निवासियों के ह्रदय में पूर्ण एवं सच्ची सहानुभूति उन लोगों के अनुसार अच्छे या बुरे साधनों से, किन्तु सम्पूर्ण सच्ची लगन से स्वार्थ का पूर्णतया त्याग कर, माता को बंधन मुक्त करने का प्रयत्न किया और जो उसी के कारण जेलों में सड़-गल कर मर रहे हैं। तुमने लिखा है कि कई समाचार पत्र राजनीतिक बंदियों की मुक्ति के लिए लगातार लिख रहे हैं कि राजनीतिक बंदियों को मुक्त करने से देश की अशान्ति कुछ घट सकती है। यदि यह सब ठीक है, तो मेरी समझ में नहीं आता कि कांग्रेस अब भी क्यों संकोच कर रही है। आज वह क्यों एक भी शब्द, जिससे सहानुभूति नहीं, अपितु साधारण मानवता की गंध आए, कहने से डरती है, सहानुभूति भी किसके लिये ?
उन लोगों के राजनीतिक कैदियों के लिए, जिनकी प्रतिनिधि होने का दावा कांग्रेस करती है। गत वर्ष कांग्रेस ने प्रांतों में स्थानबद्ध किए गए लोगों की मुक्ति के लिए प्रस्ताव भी पास किया जिनका कार्य और बलिदान कम से कम हमारे स्थानबद्ध भाइयों से कम नहीं है और जिनका दुःख युद्ध की समाप्ति के साथ स्वतः समाप्त नहीं हो सकता, जैसा की नजरबंद लोगों के संबंध में होगा। इसलिए उन लोगों को, जो जनता के जिम्मेदार नेता कहे जाते हैं, अधिक शक्तिशाली आंदोलन करना चाहिए... उस देश में रहना हमारे लिए असहृय होगा, जहां उन्नति के प्रत्येक मार्ग पर इस पथ पर जाने वाले दण्डित होंगे, ऐसा लिखा हुआ है, जहां संदेह भरे मार्ग पर पांव रखे बिना चलना कठिन है। जहां आगे बढ़ाए हुए प्रत्येक पग के साथ आगे बैठे सुल्तान को नाराज की होती है और पीछे हटाए हुए पग के लिए व्यक्ति की आत्म प्रतिष्ठा और विवेक बुद्धि नाराज होती है। जो अपने स्थान पर किसी सुल्तान से कम नहीं है। क्रोध, धमकी और आहों ने, मन को दुर्बल करने वाली और हृदय को बेचैन करने वाली वायु की दुर्गन्ध ने मेरे जीवन की श्रेष्ठ श्वास को रुंधना चाहा, किन्तु परमात्मा ने मुझे सहने की दृढ़ता के साथ सहने की शक्ति दी और इन आठ वर्षों तक मैं उनका सामना करता रहा। मुझे लगता है कि शरीर को ऐसा घाव पहुंचा है, जिसका सुधार कठिन है और जिसके कारण शरीर धीरे-धीरे घुल रहा है।
परंतु सब बातें शरीर के लिए ही हैं। जलती हुई ज्वालाओं के एक ढेर पर रहकर कोई मानव, उन ज्वालाओं के भय से मुक्त नहीं रह सकता। फिर भी मेरी आत्मा आज भी कांपने वाले शरीर पर शासन चला सकती है। वह आज भी अधिक कष्ट सहने के लिए प्रसन्नता से एक पग भी पीछे हटाए बिना तैयार है। भाई का स्वास्थ्य मुझसे अच्छा है। यद्यपि सिर दर्द के कारण उसका भार भी कम हो गया है।
—तुम्हारा भाई तात्या
(वि.दा.सावरकर)
प्रिय बाल तथा सौ. शान्ता,
तुम्हारे जीवन की दूसरी अवस्था अर्थात् दाम्पत्य जीवन में प्रवेश करने के उपलक्ष्य में मैं तथा बड़े भाई तुम दोनों को हार्दिक बधाई देते हैं।
तुमने अपनी प्रथम अवस्था के कर्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों का पूर्णतया निर्वाह किया है। जब हमारी मातृभूमि पर तूफान उमड़ रहा था, तब तुम अपने निश्चित स्थान पर निश्चल और निर्विकार डटे रहे। तूफ़ान आया, किन्तु तो तुम निर्भय और सच्चे रहे। कई द्रोहियों के बीच रहकर भी तुम सत्यपरायण बने रहे। जिसे अपने नवयुवकों में जागृत करने के लिये यूरोप ने भी ‘आयरन क्रॉस’ और 'विक्टोरिया क्रॉस’ आदि सम्मानों का प्रलोभन रखा था, उस उत्साह और विश्वास का तुमने परिचय दिया। तुमने जनता द्वारा मिलने वाली प्रशंसा के पुरस्कार को त्याग दिया, अतः मैं कहता हूँ कि तुमने जीवन की प्रथम अवस्था पूर्ण एवं श्रेष्ठ प्रकार से व्यतीत की। प्रिय बाल! और शान्ता! अब तुम जीवन की सुखमय और श्रेष्ठ अवस्था दाम्पत्य जीवन में पदार्पण कर रहे हो! प्रिय बाल! तुम्हारा पथ गुलाबों से आच्छादित रहे और प्रिय शान्ता तेरा यौवन अमर चरण में विकसित हो। तुम्हारे दाम्पत्य जीवन स्वर्ग का वह सुख, जो स्वर्ग के नाश के बाद भी जीवित है, सुखमय बनाए। उषा, संध्या तथा पृथ्वी के कण तुम्हारे लिए मधुमय हों।
अन्ततः अपेक्षित बात लगभग हो ही गई। मैं वह देखने का अभिलाषी हूँ, जब हिन्दुओं में अंतर प्रान्तीय विवाह होने लगेंगे तथा पन्थों और जातियों की दीवार टूट जाएगी। हमारे हिन्दू जीवन की विशाल सरिता समस्त दल दलों एवं मरुस्थलों को पार करके सदा शक्तिमान एवं पवित्र प्रवाह से प्रवाहित होगी। उसके प्रवाह में बाधाएं नहीं आएंगी और न आ सकेंगी। तथापि इस संबंध में सर्वप्रथम जो कुछ करना है, वह है प्रेम को विवाह संबंध में सर्वोपरि विशेष स्थान और अधिकार देना। इस तथ्य से हमें आंखें नहीं मूंदनी चाहिए कि इस समय हम लोग पशुओं और पक्षियों की नस्ल सुधारने के लिए तो विशेष ध्यान देते हैं, किन्तु मनुष्य की सुप्रजा जनन की ओर नहीं। सैकड़ों वर्षों से हम छोटे-छोटे बच्चों के विवाह करते आए हैं और वह भी मध्यस्थों द्वारा। सैकड़ों वर्षों से प्रेम अपने उचित प्रभाव स्थान से हटा दिया गया है। इसी कारण शरीर, आत्मा और मन की उन्नति करने वाले तत्व नहीं बढ़ पाते। इसका अवश्यंभावी परिणाम हुआ है हमारी छोटी कमजोर जाति, जिसकी जीवन शक्ति तथा पौरुष शक्ति नष्ट हो चुकी है। इस परिणाम के हजारों कारणों में हमारी विवाह पद्धति भी एक प्रमुख कारण है। प्रेम को पवित्र करने के लिए लोग आगे आएं, न कि उसे रोकने के लिए। तुमने लिखा है कि महायुद्ध के कारण तुम्हारी दुनिया में हलचल मच गई है। किन्तु मुझे तथा मेरे पोर्टब्लेयर को उसने छुआ तक नहीं। हमारा यह छोटा-सा राज्य अपने वार्षिक भाषण में उचित गर्व के साथ कह सकता है कि इस विश्वव्यापी भूचाल से हमारे हित-अहित पूर्णतया अछूते रहे। हमारे आयात एवं निर्यात में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। जब मनुष्य संसार में युद्धों का अंत कर देगा, तब भी हम यहीं जीवित रहेंगे, नहीं नहीं अपना अस्तित्व बनाए रखेंगे, इतनी शक्ति और स्थिरता के साथ कि स्वयं मृत्यु के संसार को भी लज्जा आ जाए।... इस बात के लिए दुखी मत होओ कि मैं अंधेरे में रहता हूं। और जब अन्य स्त्री पुरुष मनुष्य जाति के मार्ग पर अपनी बुद्धि के अनुसार प्रकाश डाल रहे हैं, तब मैं यहां केवल प्रतीक्षा ही कर रहा हूं। क्या तुम्हें प्रसिद्ध कवि मिल्टन की इस कविता का भाव याद नहीं है कि “जिसकी अवस्था रानी जैसी है, हजारों इसके नियोजित स्थान पर डटे हैं। वे भी सेवा कर रहे हैं, जो प्रतीक्षा कर रहे हैं।” और वे लोग भला कितनी सेवा कर सकते हैं जो केवल प्रतीक्षा ही नहीं करते, वरन कष्ट भी उठाते हैं और फिर भी डटे रहते हैं। काम करने वाला श्रेष्ठ है, क्योंकि वह एक पत्थर पर दूसरा पत्थर रखता है और उसे गढ़ता है, किन्तु देव मंदिर के सीमेंट और चूने का क्या कोई मूल्य नहीं। कष्ट सहने वाला वही तो है। वही कदाचित सीमेंट है, जो खून से नहाया हुआ है।
प्रेमपूर्वक तुम्हारा-तात्या (वि.दा. सावरकर)

अन्डमान से वापसी
अंग्रेज शासन का विचार था कि काले पानी के दण्ड से वीर सावरकर टूट जाएंगे और अपने क्रांतिकारी विचारों को त्याग देंगे, किन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। शेर पिंजरे में बंद हो जाने पर भी शेर ही रहता है। अन्डमान की काल कोठरी में उन्हें भयंकर शारीरिक एवं मानसिक कष्ट दिए गए, जिनके परिणामस्वरूप उनका स्वास्थ्य बिलकुल चौपट हो गया. उनकी स्थिति को देखकर डॉक्टरों को भी शंका होने लगी कि कहीं उनकी तपेदिक भयंकर न हो जाए। पूरे एक वर्ष तक वह केवल दूध का ही आहार करते रहे . प्रसिद्ध क्रान्तिकारी भाई परमानन्द भी उन दिनों इसी कारागार में थे। 1920 में मुक्त होकर भारत लौटने पर वह वीर सावरकर की मुक्ति के प्रयासों में जुट गए। इन्हीं दिनों ब्रिटिश संसद सदस्य काल वेजवुड का भारत आगमन हुआ। वह लाला लाजपत राय के मित्र थे, अतः लाहौर आने पर वह लालजी के अतिथि बने। लालजी के सौजन्य से भाई परमानन्द वेजवुड से मिले। उन्होंने वेजवुड से वीर सावरकर की मुक्ति के विषय में वार्तालाप किया। वेजवुड ने इस विषय में प्रयत्न करने का वचन दिया, स्वदेश वापस जाते समय वह बम्बई प्रान्त के गवर्नर से मिले तथा उनसे सावरकर की मुक्ति के लिए प्रार्थना की। गवर्नर ने बताया कि उनका कार्यकाल पूरा होने वाला था और अल्प ही समय में पदभार ग्रहण करने के लिए अन्य गवर्नर आने वाला था। अतः वेजवुड लन्दन जाने पर नये गवर्नर से मिले और उससे भी यही निवेदन किया। गवर्नर ने उनकी बात स्वीकार कर ली तथा बम्बई में पदभार ग्रहण करते ही स्वास्थ्य के आधार पर सावरकर बन्धुओं को वापस लाने के आदेश दे दिए।
21 जनवरी, 1921 को वीर सावरकर का डी.कार्ड (डैंजरस-खतरनाक का प्रतीक) निकाल दिया गया। इस पर उन्हें आश्चर्य तो अवश्य हुआ, किन्तु यह ज्ञात न हो सका कि वह भारत लौट रहे हैं। कुछ ही दिन बाद एक वार्डर ने उन्हें एक पत्र दिया, जिसमें लिखा था—“अब आपको बम्बई जेल में रखा जाएगा।" मात्रभूमि के दर्शनों की प्रसन्नता में वह अपने लौटने की तैयारी करने लगे।
10 फरवरी 1921 को वीर सावरकर तथा उनके बड़े भाई गणेश सावरकर दोनों ने मातृभूमि भारत को प्रस्थान किया। कारागार से विदा होते समय अन्य बन्दियों ने उन्हें पुष्पाहार पहनकर शुभकामनाएं दीं। दोनों भाई महाराजा नामक जलयान से भारत को चल पड़े। यान में स्थान कम होने के कारण पहले उन्हें पागलों के कमरे में रखा गया। बाद में ये कमरे बदल दिए गए, किन्तु फिर भी दोनों भाइयों को एक ही कमरे में नहीं रखा गया। अन्डमान से चलने के चौथे दिन दोनों भाई मात्रभूमि भारत पहुंच गये।

चतुर्थ अध्याय : रत्नगिरि में स्थानबद्धता
अन्डमान से भारत पहुंचने पर वीर सावरकर को पहले कलकत्ते के अलीराजपुर कारागार में रखा गया। लगभग तीस वर्ष तक इस कारागार में रहने के बाद जनवरी 1924 में उन्हें रत्नगिरि भेज दिया गया।
रत्नगिरि उस समय एक छोटा सा ही गांव था। 6 जनवरी, 1924 से वीर सावरकर इस स्थान पर स्थानबद्ध (नजरबंद) कर दिए भी गये। कलकत्ता से यहां भेजते समय उनकी स्थानबद्धता की अवधि केवल पाँच वर्ष बताई गई थी, किन्तु इस अवधि के बीत जाने पर, सरकार ने यह कहकर कि उनके कार्य शासन के लिए हानिकारक हैं, उनकी स्थानबद्धता की अवधि अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दी। हाँ, इतना अवश्य हुआ कि यहां उन्हें कुछ स्वतंत्रता दे दी गई। वह पूरे जिले में घूम सकते थे तथा उनसे मिलने में भी छूट दे दी गई थी। इस अल्प स्वतंत्रता का उन्होंने पर्याप्त सदुपयोग किया। पूरे जिले में हिन्दू महासभा को संगठित करना, हिन्दू-धर्म, संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार का कोई भी अवसर उन्होंने हाथ से नहीं जाने दिया। हिन्दुत्व, हिन्दूपद पादशाही, उत्तर क्रिया आदि पुस्तकें उन्होंने इसी काल में लिखीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने इस अवधि में शुद्धि आंदोलन आदि महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कार्यों का भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष में संचालन किया।

शुद्धि कार्य में योगदान
रत्नगिरि में स्थानबद्धता के समय वीर सावरकर ने देखा, सुना और अनुभव किया कि भारत में पुर्तगाल शासित गोवा में छल, बल अथवा लालच से हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन किया जा रहा था। रत्नगिरि में हिन्दू महासभा की स्थापना करके तेरह वर्षों तक उन्होंने शुद्धि आंदोलन को उत्साह एवं सफलता से चलाया।
गोवा में हजारों हिन्दुओं को इसी प्रकार ईसाई बना दिया गया था। वहाँ धर्म-परिवर्तित हिन्दुओं की शुद्धि का संचालन विनायक महाराज मसूरकर नाम के महात्मा कर रहे थे, जो अपने विद्यार्थी जीवन में वीर सावरकर की अभिनव भारत नामक संस्था के सदस्य रह चुके थे और उनका मूल नाम श्री विनायक जोशी था। उनके बड़े भाई ज्योतिषी बनकर तीन वर्षों तक अपने शिष्यों के साथ गुप्त रूप में गोवा की परिस्थितियों का निरीक्षण करते रहे। सन् 1928 में स्वामी मसूरकर ने वहां दस हजार व्यक्तियों की शुद्धि करके, उन्हें हिन्दू बनाया। फलस्वरूप वहाँ के ईसाई धर्म प्रचारकों में खलबली मच गई। स्वामी मसूरकर तथा उनके शिष्यों को गोवा सरकार ने बंदी बना लिया। यह समाचार वीर सावरकर को रत्नगिरि में प्राप्त हुआ। इससे उन्हें अत्यंत क्लेश हुआ। उन्होंने दूसरे ही दिन आठ सौ रुपए एकत्र करके स्वामीजी की सहायता के लिए भेजे और हिन्दू महासभा के नेता डॉ. मुंजे तथा श्री केलकर आदि को गोवा की सरकार से बात करने को भेजा। स्वामी मसूरकर की गिरफ़्तारी के विषय में बम्बई की विधानसभा, भारत की केंद्रीय धारा सभा, ब्रिटिश तथा पुर्तगाली संसद में प्रश्न पूछे गए। अंततः स्वामी मसूरकर और उनके शिष्य मुक्त हुए। स्वामी मसूरकर के प्रयासों से ही गोवा हिन्दू बहुल द्वीप बना और अंततः भारतीय संघ में सम्मिलित हुआ।
वीर सावरकर के रत्नगिरि आने के कुछ ही समय बाद वहाँ भयंकर प्लेग का प्रकोप हुआ, फ़लतः उन्हें नासिक भेज दिया गया। नासिक के महार उस समय आगाखानी मुसलमान बनने जा रहे थे। सावरकर के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप वह विधर्मी होने से बच गए। इसी प्रकार का कार्य उन्होंने रत्नगिरि में भी किया। वहां के दीवार, भंडारी तथा वैश्यवाणी जाति के हिन्दू समुद्री व्यापार करते थे। छत्रपति शिवाजी के समय में इनके पूर्वज मराठा नौका दल में कार्य करते थे। इस समय धीवर धीरे-धीरे मुसलमान बन रहे थे। वीर सावरकर ने इस कार्य को रोकने के लिए उन्हें उनके पूर्वजों की महान परम्पराओं का स्मरण कराया तथा विधर्मी बने धीवरों को शुद्धि आंदोलन चलाकर पुनः हिन्दू बनाया।
1926 के लगभग इंदौर के शासक तुकोजी राव होलकर एक ईसाई युवती कुमारी मिलर से विवाह करना चाहते थे, किन्तु रूढ़िवादी हिन्दू समाज इसका विरोध कर रहा था। वीर सावरकर ने महाराज होलकर को पत्र लिखा की वह (सावरकर) उनके इस कार्य का पूर्ण समर्थन करेंगे। यदि कुमारी मिलर की शुद्धि तथा उनके साथ विवाह कराने के लिए कोई पंडित सहमत न हो, तो इसके लिए पंडित वह स्वयं भेज देंगे।
रत्नगिरि में अनेक विधर्मी युवतियों को भी हिन्दू धर्म की दीक्षा दी गई थी। वीर सावरकर की प्रेरणा से अनेक हिन्दू युवकों ने उन युवतियों से विवाह किये। बहुधा इन विवाहों में वर वधू के अथवा दोनों के माता-पिता नहीं आते थे, अतः ऐसे अवसरों पर सावरकर ही उनके पिता का स्थान ग्रहण करते थे।
वीर सावरकर के शुद्धि आंदोलन का ईसाई मिशनरियों ने प्रबल विरोध किया। उन लोगों ने बम्बई के राज्यपाल के पास इसके विरोध में कई पत्र भेजे। अंग्रेजी सरकार भी उनके इस कार्य से रुष्ट हो गई। फलतः सरकार ने इस विषय में उनसे स्पष्टीकरण माँगा। इस पर उन्होंने सरकार से स्पष्ट शब्दों में कहा—“जब आपके राज्य में धर्मपरिवर्तन की स्वतंत्रता है तो हिन्दुओं पर शुद्धि कार्य के लिए प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। पहले इन हिन्दुओं को ईसाई बनाना बंद करो, तत्पश्चात् शुद्धि कार्य बंद करने पर विचार किया जाएगा।
ईसाईयों के अतिरिक्त मुसलमान भी शुद्धिकरण से अत्यधिक चिढ़ गये, यही नहीं उन रूढ़िवादी हिन्दुओं ने भी उनके इस कार्य का विरोध किया, किन्तु वीर सावरकर ने किसी की परवाह नहीं की। वह जीवन पर्यन्त इस आंदोलन को चलाते रहे उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा (वसीयत) में भी स्पष्ट उल्लेख किया था कि उन के देहांत के बाद उनकी धनराशि में से पाँच हजार रुपये शुद्धि कार्य में व्यय किया जाएं।

अस्पृश्यता निवारण
अस्पृश्यता हिन्दू समाज का कलंक है, जिसके कारण हिन्दू समाज का सदियों से विघटन हुआ है। वीर सावरकर एक ब्राह्मण थे। एक ब्राह्मण इस प्रकार मिथ्या परम्पराओं का कदापि समर्थन नहीं कर सकता। अतः उन्होंने हिन्दू समाज के इस कलंक को धोने के लिए अथक प्रयत्न किया।
हिन्दुओं को संगठित करके एकता के सूत्र में बाँधने के लिए वीर सावरकर ने सवर्णों तथा असवर्णों के सहभोजों का आयोजन किया। उनके इस कार्य में उनके एक शिष्य स्वामी समतानंद (मूल नाम अनंत हरि गद्रे) ने प्रशंसनीय सहयोग दिया। स्वामी समतानंद सत्यनारायण की पूजा का संपादन अस्पृश्य समझे जाने वाले लोगों के हाथों से कराते थे। पूजनोपरांत प्रसाद का वितरण भी अस्पृश्य ही करते थे तथा सवर्ण स्त्रियां उन्हें तिलक लगाती थीं। महाराष्ट्र में इन कार्यों का आयोजन बृहद् स्तर पर किया गया। यदा-कदा और रूढ़िवादी सवर्ण हिन्दू इस कार्य का विरोध भी करते थे, किन्तु हिन्दू समाज के उद्धारक वीर सावरकर ने इस की किंचित भी चिंता नहीं की।
गांधीजी हरिजनों के प्रति सहानुभूति रखते थे। डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने भी दलितों के उद्धार हेतु आंदोलन का सूत्रपात किया। उनका उद्देश्य हरिजनों को सामाजिक एवं राजनीतिक अधिकार दिलाकर सम्मान पूर्ण जीवन प्राप्त करना था। उन्होंने हरिजनों को हिन्दू धर्म का परित्याग कर देने की प्रेरणा दी थी और स्वयं उनके ही नेतृत्व में अनेकानेक हरिजनों ने हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्धमत की दीक्षा ग्रहण की। वीर सावरकर का दृष्टिकोण गाँधीजी और अम्बेडकर से सर्वथा भिन्न था, वह हरिजनों के प्रति सहानुभूति अथवा उनके धर्मपरिवर्तन को इस समस्या का समाधान नहीं मानते थे। केवल सहानुभूति अथवा वर्ग संघर्ष को वह उचित नहीं समझते थे। उन्होंने डॉक्टर भीमराव के हरिजनों के, धर्मों परिवर्तन के प्रस्ताव की कटु आलोचना की थी। वह हिन्दू-समाज के सभी वर्गों में समाज सुधार से समानता लाने के पक्ष में थे। वह हिन्दू धर्म को कालान्तर में उत्पन्न होने वाली रूढ़ियों से मुक्त एक विज्ञान सम्मत धर्म के रूप में स्थापित करना चाहते थे।अपने इस विचार को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने समय-समय पर सुधारों के प्रचार हेतु आंदोलनों का सूत्रपात किया।
तत्कालीन समाज में हरिजन बच्चों को प्राथमिक पाठशालाओं में प्रवेश नहीं मिलता था, फलतः ये बच्चे ईसाई मिशनरियों के स्कूलों में पढ़ते थे, जहाँ मिशनरी इन्हें सरलता से हिन्दूधर्म से विमुख कर ईसाई बना लेते थे। वीर सावरकर ने हरिजन बच्चों को सवर्ण बच्चों के साथ पाठशालाओं में प्रवेश दिलाने के लिए एक आंदोलन चलाया इस आंदोलन में उन्हें सफलता मिली तथा हरिजन बच्चे भी सवर्ण बच्चों के साथ पढ़ने लगे।
कांग्रेस के कोकनाडा अधिवेशन के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अली ने अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए हरिजनों को हिन्दुओं और मुसलमानों में आधा-आधा बांट लेने का प्रस्ताव रखा। कहा जाता है कि इसकी प्रेरणा मुसलिम लीग के नेता आगा खां से प्राप्त हुई थी। मौलाना के इस प्रस्ताव का गांधी जी भी विरोध नहीं कर सके थे। वीर सावरकर ने इस वक्तव्य पर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा—
“कांग्रेसी हिन्दुओं की सहायता से सात करोड़ों अछूत भाइयों को खा जाने की इच्छा रखने वाले मोहम्मद अली तथा भोलेपन के कारण उनकी सहायता करने वाले गांधीजी हिन्दू-समाज के मित्र नहीं हो सकते”।
अस्पृश्यता को हिन्दू-समाज से दूर करने में हिन्दू धर्म के आचार्य, महात्मा आदि भी अपना योगदान दें, वीर सावरकर का यही मत था। जब वह रत्नगिरि में थे, उस समय जगद्गुरु शंकराचार्य भी एक वहां आये। सावरकर की प्रेरणा से शंकराचार्य ने भंगी तथा महर जाति के लोगों से पुष्पमालाएं ग्रहण की।
इन सब तथ्यों से इस स्पष्ट है कि वीर सावरकर असवर्णों अथवा हिन्दू समाज के सच्चे शुभचिंतक थे। वह असवर्णों को हिन्दू-समाज का अभिन्न अंग मानते थे तथा उन्हें सवर्णों के समान ही सम्मानजनक स्थान देना चाहते थे।

महत्वपूर्ण व्यक्तियों से भेंट
रत्नगिरि में स्थानबद्धता के समय वीर सावरकर से कई राष्ट्रीय स्तर के नेता, समाज-सुधारक आदि व्यक्ति मिलने आए थे, जिन से उनकी तत्कालीन भारत की राजनीति, धर्मों, संस्कृति आदि विषयों पर वार्ता हुई। 1924 में जब रत्नगिरि में प्लेग के प्रकोप के कारण सावरकर कुछ समय के लिए नासिक ले जाए गए, तो वहां डॉक्टर मुंजे, जगद्गुरु शंकराचार्य आदि ने उनका स्वागत किया। उनका यह स्वागत-समारोह कालेराम मंदिर में संपन्न हुआ। उक्त महानुभावों के अतिरिक्त अनेकानेक नागरिकों ने भी इसमें भाग लिया। केसरी के संपादक प्रख्यात पत्रकार नरसिंह चिंतामणि केलकर ने उन्हें अभिनंदन पत्र भेंट किया। इस अभिनंदन पत्र का उत्तर देते हुए वीर सावरकर ने कहा—“आप लोगों ने जिस तरह मेरा सम्मान किया है, उसका मैं क्या उत्तर दूँ अन्डमान की काल कोठरी में रहते हुए भी मैं संतुष्ट था। मैं समझता था कि मेरी मृत्यु वहीं होगी। मैंने जो कुछ किया, निरपेक्ष बुद्धि से किया और इसलिए मुझे दुःख नहीं होता था। मेरा आज इस तरह सम्मान किया जाएगा, यह बात मेरे मन में कभी नहीं आयी। आज की सभा में कई नवयुवक होंगे। मेरा सम्मान देखकर वे यह न समझें कि समाज सेवा, जातिसेवा या धर्म सेवा सम्मान प्राप्ति के लिए करनी चाहिए।
‘नवयुवकों! जिन लोगों ने धर्म प्रचार के लिए शरीर धारण किया और आज जो बलिदानी माने जाते हैं, उनकी तरफ़ देखो। बन्दी होने के बाद अभिषेक का स्वप्न छत्रपति शिवाजी महाराज ने कभी नहीं देखा था। अपने धर्म को करते हुए मरो। कार्य आरंभ करते समय ही समझ लो कि तुम्हारा पथ कांटों से भरा हुआ है।
स्पार्टा का एक वीर युद्ध क्षेत्र में आहत हुआ था। लोगों ने पूछा—“तुम्हारे कारण ही स्पार्टा की विजय हुई। बताओ तुम्हारा स्वागत किस तरह किया जाए?” तब उस वीर ने कहा था मेरी समाधि पर लिख देना—“ स्पार्टा के पास उसके योग्य पुत्र हैं तथा आने वाली पीढ़ी और भी श्रेष्ठ होगी”। मैं भी वही कहता हूं। मुझ से हजार गुना तेजस्वी, वीर्यशाली वीर आज भी देश में हैं और आगे भी पैदा होंगे”।
1925 में डॉक्टर केशवराम बलिराम हेडगेवार शिरगांव, रत्नगिरि में वीर सावरकर से मिले। इस समय तक उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गठन नहीं किया था। डॉक्टर हेडगेवार ने सावरकर से हिन्दुओं का कोई राष्ट्रीय संगठन बनाने के विषय में विचार विमर्श किया। सावरकर इस योजना से अत्यंत प्रसन्न हुए तथा उन्होंने डॉक्टर हेडगेवार को इस कार्य के लिए अपना पूर्ण समर्थन देने का वचन दिया। रत्नगिरि से मुक्ति के तुरंत बाद उन्होंने 12 दिसंबर, 1937 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपेक्षा की कि हिन्दू युवकों को संस्कृति के साथ ही शस्त्रास्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाये। इसके बाद उन्होंने संघ के विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लिया।
1924 में कांग्रेस के नेता मौलाना मोहम्मद अली ने भी वीर सावरकर से भेंट की। उन्होंने सावरकर की देश भक्ति, त्याग-भावना आदि की मुक्त कंठ से प्रशंसा की, किन्तु शुद्धि आन्दोलन का विरोध किया। इस पर सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि—“पहले मुल्ला और मौलवियों द्वारा हिन्दुओं को मुसलमान बनाने से रोका जाए, इसके बाद ही शुद्धि आंदोलन को रोकने पर विचार किया जाएगा”। कांग्रेस के खिलाफ़ आंदोलन में भी वीर सावरकर ने विरोध में अपने विचार व्यक्त किये। इससे मौलाना मोहम्मद अली रुष्ट हो गया और अनायास ही उसके मुंह से निकल गया—“यदि मुसलमानों के ये सुझाव न माने गए, तो उनके विश्व में अनेक देश हैं, वे वहां चले जाने के लिए विवश हो जाएंगे।”
एक के राष्ट्रीय स्तर के नेता के मुंह से ऐसी बातें सुनकर सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में उत्तर दिया आप पूर्ण तया स्वतंत्र हैं, फ्रण्टियर मेल प्रतिदिन भारत से बाहर जाती है। आप प्रतीक्षा क्यों करते हैं, बोरिया-बिस्तर लेकर तत्काल भारत से विदा हो जाइए।”
मौलाना मोहम्मद अली को आशा भी नहीं थी कि उसे ऐसा उतर मिलेगा। खीझकर उसने कहा—“आप मुझ से बहुत बौने हैं, अतः मैं आपको दबोच सकता हूँ।”
वीर सावरकर भी तत्काल ही बोल पड़े मैं आप की चुनौती स्वीकार करता हूँ, किन्तु आप यह नहीं जानते कि छत्रपति शिवाजी अफजल खान के समक्ष बहुत बौने थे, किन्तु उस नाटे कद वाले मराठा ने कद्दावर पठान का पेट फाड़ डाला था। यह सुनकर मौलाना मोहम्मद अली को अपना सा मुंह लेकर रह जाना पड़ा।
महात्मा गाँधी भी मार्च, 1927 में स्थानबद्ध वीर सावरकर से मिलने रत्नगिरि गए। इन दोनों महापुरुषों की विचारधाराओं में असमानता होते हुए भी गांधीजी सावरकर के ज्ञान, देशभक्ति, त्याग आदि गुणों के प्रशंसक थे। गांधीजी ने भी सावरकर के शुद्धि आंदोलन की आलोचना करनी प्रारंभ कर दी। इस पर वीर सावरकर निर्भीक स्वर में बोले मुसलमानों ने भारत में एक हाथ में कुरान तथा दूसरे हाथ में तलवार लेकर हिन्दुओं का बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन किया। ऐसी स्थिति में उन हिन्दुओं को उनके धर्म के महत्व से अवगत करा कर पुनः उनके धर्म में वापस लाना एक राष्ट्रीय कार्य है”।
इसके साथ ही उन्होंने गांधी जी को सावधान किया कि मुसलिम लीग के नेता वास्तव में भारत को एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में बदल देना चाहते हैं।
भारत के क्रांतिकारी युवक सावरकर के ‘1857 के स्वातंत्र्य समर’ से अत्यधिक प्रभावित थे इस ग्रंथ को क्रांतिकारियों की गीता कहा जाने लगा था। महान क्रान्तिकारी भगत सिंह जी ने इस ग्रंथ को गुप्त रूप में प्रकाशित कराकर क्रांतिकारिओं को दिया था। वह वीर सावरकर से अत्यंत प्रभावित थे। 1928 में वह गुप्त रूप में रत्नगिरि जाकर सावरकर से मिले। वस्तुतः इस ग्रंथ को प्रकाशित करने की आज्ञा उन्होंने इसी भेंट में ले ली थी। दोनों वीरों के बीच मातृभूमि की स्वतंत्रता के विषय में दीर्घ-विचार विमर्श हुआ।
उपर्युक्त व्यक्तियों के अतिरिक्त क्रांतिकारी बलिदानी सुखदेव, वैशम्पायन, हडसन कांड के क्रांतिकारी वासुदेव बलवंत गोगटे, डॉक्टर अम्बेडकर, श्री अच्युत पटवर्धन, सेनापति वापट, क्रांतिकारी वी.एस. अय्यर, नानी गोपाल, प्रसिद्ध इतिहासकार गोविन्द सखाराम सरदेसाई, मराठी ज्ञानकोष के रचयिता डॉक्टर केलकर, मराठी कवि डॉक्टर पटवर्धन, समाजवादी नेता युसूफ मेहर अली, नेपाली गोरखा सभा के अध्यक्ष ठाकुर चन्दन सिंह आदि अनेक व्यक्ति रत्नगिरि में वीर सावरकर से मिले और उनसे विचार-विमर्श किया।
नेपाली गोरखा सभा के अध्यक्ष ठाकुर चन्दन सिंह एक शिष्टमंडल के साथ आए थे। वीर सावरकर के व्यक्तित्व एवं विचारों से वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने वीर सावरकर की तुलना नेपोलियन से की थी। उन्होंने इस भेंट के बाद कहा था—“अब मुझे ज्ञात हो गया है कि फ्रांस का सेनापति नेपोलियन कैसे प्रभावशाली व्यक्तित्व का पुरुष रहा होगा।

हिन्दी भाषा शुद्धि का कार्य
मातृभाषा मराठी होते हुए भी वीर सावरकर राष्ट्रीय एकता के लिए हिन्दी भाषा तथा देवनागरी लिपि को एक महत्वपूर्ण माध्यम मानते थे। अतः अन्डमान के बंदी जीवन में भी उन्होंने हिन्दी तथा देवनागरी के प्रचार का कार्य किया। तत्पश्चात रत्नगिरि की स्थानबद्धता में भी उन्होंने इसके लिए आंदोलन चलाया। इसके लिए उन्होंने ‘भाषा शुद्धि’ नाम से एक लेख लिखा। इस लेख के माध्यम से उन्होंने विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन किया तथा इससे उर्दू एवं अँग्रेजी आदि भाषाओं के शब्दों के बहिष्कार का प्रस्ताव रखा। मुद्रण एवं टंकण के लिए नागरी लिपि को उपर्युक्त बनाने के विषय में अपने विचारों को उन्होंने समाचार पत्रों में प्रकाशित कराया। इस विषय पर बाद में उन्होंने ‘नागरी लिपि सुधार’ नामक एक पुस्तक भी लिखी। ‘अ’ की बारह खड़ी (अ, आ, इ, ई इत्यादि) का प्रचलन भी सर्वप्रथम उन्होंने ही किया। उनके इस मत को राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने भी अपनाया।
उनका स्पष्ट मत था कि भारत कि के सभी भाषा भाषी यदि अपनी भाषाओं को नागरी लिपि में लिख्नना प्रारंभ कर दें तो भारत की भाषा समस्या सरलता से हल हो जाएगी। प्रख्यात साहित्यकार व राजनीतिक नेता राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन वीर सावरकर के संस्कृतनिष्ठ हिंदी के प्रस्ताव से अत्यंत प्रभावित हुए। उनका कहना था कि विशुद्ध संस्कृतनिष्ठ हिन्दी की प्रेरणा उन्हें वीर सावरकर से ही प्राप्त हुई थी। वीर सावरकर की प्रेरणा से ही उनके क्रांतिकारी मित्र श्री गणेश रघुनाथ वैशम्पायन ने पूना में ‘हिंदी प्रचारक सभा’ की स्थापना की तथा महाराष्ट्र में हिन्दी प्रचार का आंदोलन चलाया। श्री वैशम्पायन ने सावरकर के ग्रंथ में ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ का हिंदी अनुवाद भी किया।
गांधी जी उर्दू मिश्रित ‘हिन्दुस्तानी’ के समर्थक थे। उन्होंने भगवान राम को ‘शहजादा राम’, राजा दशरथ को ‘बादशाह दशरथ’, माता सीता को ‘बेगम सीता’, महाऋषि वाल्मीकि को ‘मौलाना वाल्मीकि’ इत्यादि शब्दों के व्यवहार का प्रस्ताव रखा। सावरकर इस प्रस्ताव के सर्वथा विरुद्ध थे। श्री वैशम्पायन के प्रयत्नों से पूना में हिंदी राष्ट्रभाषा सम्मेलन हुआ, जिसकी अध्यक्षता राजर्षि टंडन ने की। इस सम्मेलन में गांधी जी का उक्त प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया गया।
विशेष उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि वीर सावरकर ने हिन्दी में अनेक नवीन शब्दों की रचना भी की थी। उदाहरण के लिए ‘मेयर’ के लिए महापौर, ‘प्रूफ’ के लिए ‘उपमुद्रित’, मोनोपोली के लिये ‘एकत्व’, आदि शब्द वीर सावरकर की ही खोज हैं। उन्होंने बाहरी शब्दों के बहिष्कार के लिए समाचार पत्रों के माध्यम से तथा भाषा विषयक सभाओं और सम्मेलनों में भी अपने विचार प्रकट किये थे।
स्वामी श्रद्धानंद की स्मृति में पत्र
1926 में जिस समय वीर सावरकर रत्नगिरि से शुद्धि आंदोलन का सूत्रपात कर रहे थे, उसी समय उत्तरी भारत में स्वामी श्रद्धानंद भी इसी कार्य को अपने प्रबल मनोयोग से चला रहे थे। 1926 को एक हत्यारे अब्दुल रशीद ने स्वामीजी की हत्या कर दी। इस घटना से सारा देश शोक के सागर में डूब गया।
शुद्धि आंदोलन, हिन्दू संस्कृति, राष्ट्र प्रेम आदि विषयों में वीर सावरकर तथा स्वामीजी के विचारों में समानता थी। स्वामीजी की हत्या हो जाने पर सारे देश की तरह रत्नगिरि में भी शोकसभा हुई, जिसमें वीर सावरकर ने मर्मस्पर्शी भाषण दिया। इसके कुछ दिनों बाद 1927 में उन्होंने अपने छोटे भाई डॉक्टर नारायण सावरकर को रत्नगिरि बुलाया और उन्हें दो पत्र निकालने की प्रेरणा दी। इसमें से एक पत्र श्रद्धानंद का था, जो स्वामी श्रद्धानंद की पावन स्मृति में था। दूसरे पत्र का नाम ‘हुतात्मा’ था। इन दोनों ही पत्रों के सम्पादक डॉक्टर नारायण राव सावरकर थे। साप्ताहिक पत्र ‘श्रद्धानंद’ के प्रथम अंक में वीर सावरकर का लेख ‘श्रद्धानंद जी की हत्या’ भी प्रकाशित हुआ, जो उन दिनों पर्याप्त चर्चा का विषय बना। इस पत्र के लिए वीर सावरकर अपने परामर्श समय-समय पर देते रहते थे। इसमें उनके लेख किसी अन्य नाम से अथवा डॉक्टर नारायण राव सावरकर के नाम से प्रकाशित होते रहते थे।
रत्नगिरि से मुक्ति
पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि रत्नगिरि में वीर सावरकर पहले केवल पाँच वर्षों के स्थानबद्ध किए गए थे, किन्तु बाद में यह अवधि अनिश्चितकाल के लिए बढ़ा दी गई थी।
1937 में एक नया नियम बना, जिसके अधीन प्रान्तीय सरकार के संचालन का कार्य जनप्रतिनिधियों को दिया जाना था, किन्तु शासन संचालन के लिए उनके अधिकार सीमित थे। इस नियम के अनुसार इसी वर्ष सारे देश में चुनाव हुए, इन चुनावों में बम्बई राज्य सहित सात राज्यों में कांग्रेस को बहुमत मिला, किन्तु कांग्रेस ने सरकार बनाना अस्वीकार कर दिया, अतः गवर्नरों द्वारा अस्थायी मंत्रिमंडलों का गठन किया गया। इसी प्रकार बम्बई प्रांत में अल्पमत वाले श्री धनजी शा कपूर ने सरकार बनाने का निमंत्रण स्वीकार किया उन्होंने लोकशाही राज्य और दल के नेता श्री जमनादास नेता को भी अपने मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया। श्री मेहता वीर सावरकर के परम मित्र थे। उन्होंने सरकार में सम्मिलित होने के लिए वीर सावरकर की मुक्ति की शर्त रख दी। श्री कपूर ने शर्त स्वीकार कर ली। अतः श्री मेहता के मंत्री बन जाने पर 10 मई 1937 को वीर सावरकर रत्नगिरि से मुक्त कर दिए गए।

पंचम अध्याय : मुक्ति के बाद
वीर सावरकर की रत्नगिरि से मुक्ति के बाद समस्त देश में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। सर्वप्रथम रत्नगिरि में ही एक विराट सभा हुई। इसके बाद कोल्हापुर जाने पर भी ऐसी ही सभा का आयोजन हुआ। उनकी अनुपस्थिति में भी देश के अन्य स्थानों पर इस प्रसन्नता के अवसर पर सभाएं हुईं। इसके बाद वीर सावरकर अपने अग्रिम कार्यक्रमों पर विचार करने लगे।

देश भ्रमण
स्थानबद्धता से मुक्ति के पश्चात् 1937 से 1943 तक वीर सावरकर ने भारत वर्ष के विभिन्न राज्यों में अनेक महत्वपूर्ण स्थानों का भ्रमण किया। सर्वप्रथम, 1938 में वह दिल्ली पहुँचे, जहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ। उनके आगमन की प्रसन्नता में मिठाइयाँ बाँटी गईं। लोगों ने उन पर पुष्पवर्षा की।
1857 के स्वतंत्रता संग्राम का मुख्य केंद्र उत्तर प्रदेश ही था। 3 अप्रैल 1938 के दिन वीर सावरकर कानपुर पहुँचे। उनके आगमन की प्रसन्नता में लोगों ने उनका हृदय से सम्मान किया। अपने सम्मान में आयोजित एक सभा में सावरकर बोले—“यह वही कानपुर है, जिसने ब्रिटिश सेना की पराजय देखी। जहाँ सेनापति तात्या टोपे ने अंग्रेजों को परास्त किया। कानपुर तथा बनारस को देखने की मेरे मन में बचपन से ही तीव्र इच्छा थी। आज भाग्य से वह दिन आया। नाना साहब और तात्या टोपे की सेना के नारों तथा उनकी तोपों की ध्वनि मैं बचपन से ही अपने स्वप्नों में सुना करता था। आज वह भूमि मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ।
इसके बाद वह कानपुर के प्रसिद्ध गंगा घाट देखने गए, जहाँ अंग्रेजों की बलि दी गई थी। तत्पश्चात वह उस शिव मंदिर के दर्शन करने गए, जहाँ शंख बजाकर तात्या टोपे ने युद्ध की घोषणा की थी। कानपुर के बाद वह बाराबंकी फ़ैजाबाद, से पुनः लखनऊ पहुँचे। यहाँ उनकी आचार्य नरेन्द्रदेव से भेंट हुई। लखनऊ से वह आगरा गये।
अप्रैल, 1938 में उन्होंने सोलापुर का दौरा किया तथा इसी वर्ष 10 मई को पूना में हिन्दू युवक परिषद् का उद्घाटन किया। इस अवसर पर उनके बड़े भाई गणेश सावरकर, डाक्टर हेडगेवार, स्वामी मसूरकर आदि भी उपस्थित थे। इसके कुछ ही दिनों बाद वह पंजाब गए। पंजाब में लाहौर के बाद वह अमृतसर स्वर्ण मंदिर गये, जहाँ उनके सम्मान स्वरूप उन्हें एक कृपाण भेंट की गई। वहाँ से बम्बई जाते हुए वह अजमेर पहुँचे और अजमेर से जोधपुर, नासिक, ग्वालियर होते हुए सिन्ध पहुँच गये। सिन्ध से कराची, हैदराबाद, सक्खर आदि नगरों में उनका भव्य स्वागत हुआ।
सक्खर में हिन्दू परिषद के मंच से उन्होंने पाकिस्तान बन जाने पर सिन्ध के हिन्दुओं के अंधकारमय भविष्य के दुष्परिणामों के विषय में सूचित किया तथा कांग्रेस की दब्बू नीति का विरोध करने का परामर्श दिया। मार्च, 1939 में मुंगेर में बिहार हिन्दू परिषद् में भाग लेकर उन्होंने उत्साहवर्धक भाषण दिया। जून प्रथम सप्ताह में महा कोशल हिन्दू सभा सम्मेलन में भाग लेने पर वहां की नगर पालिका ने वीर सावरकर को मानपत्र भेंट किया। सितम्बर मास में उन्होंने धाखड़, होसूर, बैलहोंगल आदि कर्नाटक के नगरों तथा गाँवों का भ्रमण किया। अक्तूबर मास में वह मेरठ पहुँचे, वहां कुछ समाज विरोधियों ने उनके जुलूस पर आक्रमण किया। संयुक्त प्रांत की सरकार ने उनके जुलूस पर रोक लगा दी। उस समय संयुक्त प्रांत के मुख्यमंत्री, पंडित गोविन्दवल्लभ पंत थे।
दिसंबर, 1939 में कलकत्ता में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का वार्षिक सम्मेलन हुआ। बम्बई से यहाँ पहुँचने पर वीर सावरकर का जनता ने बड़े हर्ष और उत्साह से सम्मान किया। यह इतिहास में हिन्दू महासभा का सबसे बड़ा सम्मेलन था। सावरकर जहाँ भी जाते वहीं अपार भीड़ उनका स्वागत करने के लिए उमड़ पड़ती। दो दिन तक वह सो भी नहीं पाये। उन पर गुलाब जल तथा फूल बरसाए गए। इस अधिवेशन में उन्होंने नेपाल नरेश को भोज दिया, किन्तु भोज के समय सावरकर अस्वस्थ हो गए। अतः नेपाल नरेश अस्वस्थ सावरकर का कुशल-क्षेम पूछने स्वयं उनके पास गए। दोनों में एक घंटे तक राजनीतिक विषयों पर वार्तालाप होता रहा। इस अवसर पर वाइसराय के कर्मचारी मण्डल के सदस्य श्री एन.आर. सरकार भी सावरकर से मिलने आये।
मार्च, 1940 में वीर सावरकर ने कर्नाटक के विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया। सालम नगर में वह कर्नाटक विश्व हिन्दू परिषद के सम्मेलन में अध्यक्ष बनें। वहां से वह मद्रास पहुँचे। यहाँ की एक सभा में उन्होंने पाकिस्तान की मांग का विरोध किया। दूसरे दिन एक सभा में उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज की जीवन-गाथा पर दिया। मद्रास से वह केवल केरल भ्रमण के लिए गए। क्विलोन में वह त्रावणकोर (केरल) के राजा के अतिथि बने। चंगनचेरी नगर पालिका द्वारा उन्हें मानपत्र दिया गया। वहां हरिजन तथा ईसाई प्रतिनिधियों ने उनसे भेंट की। चंगनचेरी में भाषण देते हुए वीर सावरकर ने हिन्दू महासभा की देशी नरेश नीति के संबंध में हिन्दू महासभा के दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला तथा केरल में शुद्धि कार्य की आवश्यकता पर बल दिया। तिनवेली, कोलीपाटी, सातूर, विरुद्ध नगर इत्यादि स्थानों पर उनका भव्य स्वागत हुआ। मदुरै में मीनाक्षी मंदिर में आचार्यों ने उनका स्वागत किया तथा भगवा ध्वज से सुशोभित हाथी पर बैठा कर उनकी शोभायात्रा निकाली गई।
निरंतर भ्रमण से 1940 के उत्तरार्द्ध में वीर सावरकर का स्वास्थ्य गिरने लगा। फिर भी दिसंबर मास में उन्होंने मदुरै में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष पद से भाषण दिया। जनवरी, 1941 में नासिक वाचनालय की शताब्दी में भी उन्होंने भाग लिया। जुलाई, 1941 में कलकत्ता में उनके कर-कमलों से आशुतोष मुखर्जी सभागृह की नींव डाली गयी। इसी महीने श्री सप्रू की अध्यक्षता में एक सभा पुणे में हुई। इस सभा में वीर सावरकर ने भाषण देते हुए अखण्ड भारत का नारा लगाया। इसके बाद सांगली में उनका स्वागत किया गया तथा पाकिस्तान के विरोध में एक सभा हुई। नवंबर 1941 में सावरकर आसाम पहुँचे। शिलांग में जनता ने उनका भव्य स्वागत किया। उस समय आसाम में भारी संख्या में मुसलमानों का प्रवेश हो रहा था। वीर सावरकर ने इसके दूरगामी भयंकर परिणामों की चेतावनी दी। इसके प्रत्युत्तर में जवाहर लाल नेहरू ने अपने एक भाषण में कहा आसाम में खाली जगह पड़ी है। प्रकृति नहीं चाहती कि कहीं खाली जगह पड़ी रहे।’ इसका विरोध करते हुए अपने भाषण में सावरकर ने कहा—‘नेहरू न तो दार्शनिक हैं न शास्त्रज्ञ, उन्हें नहीं मालूम कि प्रकृति विषाक्त वायु को दूर हटाना चाहती हैं”।
दिसंबर, 1942 में वीर सावरकर कानपुर में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा अधिवेशन में अध्यक्ष बने।

वाइसराय से भेंट
सितंबर, 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध का आरंभ हो गया। तब 9 अक्टूबर 1939 को वाइसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने वीर सावरकर को बड़े सम्मान से मिलने के लिए बुलाया। वाइसराय का मुख्य उद्देश्य ऐसे समय में सावरकर के विचार जानना था। वीर सावरकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा—“मैं एक क्रांतिकारी हूँ, अतः देश हित में सैनिकीकरण का समर्थन करता हूँ। सीमाओं पर हिन्दू हित के लिए सिख तथा गोरखा टुकड़ियां रखना आवश्यक है, किन्तु वास्तव में भारत पर आक्रमण पूर्व दिशा से होगा”। लॉर्ड लिनलिथगो वीर सावरकर के निर्भीक व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उसने पत्रकारों से वार्तालाप करते हुए बताया “दीर्घ समय तक कारावास तथा स्थानबद्धता में रहने पर भी सावरकर का तेज कम नहीं हुआ तथा न उनके विचारों में ही कोई परिवर्तन आया। युद्ध के प्रश्न पर भारतीय हित को दृष्टि में रहने वाला केवल एक ही नेता है वह हैं — वीर विनायक दामोदर सावरकर”।
गवर्नर जनरल से उनकी दूसरी भेंट 5 जुलाई, 1940 को शिमला में हुई। इस भेंट में उन्होंने अखंड भारत के संकल्प को दोहराया।

सुभाषचन्द्र बोस से भेंट
सुभाषचन्द्र बोस वीर सावरकर के क्रान्तिकारी विचारों से प्रभावित हुए। अतः प्रथम विश्व युद्ध के दिनों में 22 जून,1940 को सहसा वह सावरकर के दर्शनों के लिए सावरकर सदन बम्बई पहुँच गए और उन्होंने कलकत्ता में हालवेल एवं अन्य अंग्रेजों की प्रतिमाओं को तोड़ने के अपने भावी निर्णय से सावरकर को अवगत कराया। इस पर भी गंभीरता के साथ सावरकर बोले—“वर्तमान महायुद्ध में जब इंग्लैण्ड संकट में फंसा है, ऐसे समय में कलकत्ते में हालवेल की मूर्तियां उखाड़ने जैसे अत्यन्त सामान्य आंदोलन के कारण आप जैसे महान तेजस्वी और समर्थ नेता अंग्रेजों की जेलों में सड़े, यह मैं उचित नहीं समझता”।
अपने कार्य के औचित्य का स्पष्टीकरण देते हुए सुभाष ने कहा—“मेरा लक्ष्य अंग्रेजों के विरुद्ध जनभावनाएँ जागृत करते रहना है”।
सुभाष बाबू मैं आपके ह्रदय की तड़पन को समझता हूं, किन्तु मूर्ति उखाड़ने जैसे इस साधारण कार्य के लिए जेल में सड़ना मुझे सर्वथा व्यर्थ प्रतीत होता है। सच्ची राजनीति है स्वयं बचते हुए शत्रु को दबोचे रखना। आप भले ही सक्रिय सशस्त्र क्रांतिकारी न हों, किन्तु आप की मनोवृत्ति क्रांतिकारी से कम नहीं हैं। आप तेजस्वी हैं और अहिंसा आदि के भ्रम से दूर रहते हैं। इसलिए गांधीजी आदि से आपके विचार नहीं मिलते। मैंने हिन्दू महासभा की ढाल के नीचे ब्रिटिश और भारतीय सेना में अधिकाधिक हिन्दुओं की भर्ती के लिए जो आंदोलन चलाया है वह मूलतः क्रांतिकारी आंदोलन है”।
दोनों महापुरुषों में विस्तृत वार्तालाप हुआ। सावरकर ने बोस को परामर्श दिया कि उन्हें ऐसे साधारण कार्यों में न पड़ कर देश से बाहर चले जाना चाहिए तथा रासबिहारी बोस की तरह जर्मनी और इटली में फंसी भारतीय सेनाओं का मार्गदर्शन करते हुए समस्त भारत को स्वतंत्र कराने का परामर्श दिया। कदाचित सुभाष चन्द्र बोस की जर्मनी पहुँचने तथा उसके बाद आजाद हिन्द फौज की संगठन की प्रेरणा वीर सावरकर से ही प्राप्त हुई थी।
वीर सावरकर से इस भेंट में सुभाषचन्द्र बोस ने अपनी जिन्ना के साथ हुई एक भेंट का भी वर्णन किया। इस भेंट में जिन्ना ने स्वीकार किया था कि सावरकर ही हिन्दुओं के नेता हैं। सुभाष बाबू ने जिन्ना के समक्ष हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रस्ताव रखा। इस पर जिन्ना ने प्रश्न किया आप किसके प्रतिनिधि के रूप में समझौते के लिए आए हैं ?
‘कांग्रेस की ओर से’। सुभाष चन्द्र बोस बोले।
‘कांग्रेस से तो आपको निकाल दिया गया है।’
‘फॉरवर्ड ब्लॉक की ओर से समझ लीजिए।’
‘क्या फॉरवर्ड ब्लॉक अपने को हिन्दू संगठन मानता हैं ?’
‘नहीं, किन्तु में एक हिन्दू के रूप में आप से हिन्दू-मुस्लिम एकता के विषय पर बात करना चाहता हूँ।’
‘हिन्दुओं के नेता इस समय सावरकर हैं। आप उन्हें वार्ता के लिए तैयार करें। हिन्दुओं की ओर से है वार्ता करने के वास्तविक अधिकारी वही हैं। व्यर्थ में आप से चर्चा का क्या लाभ?’ गम्भीरता से जिन्ना ने कहा।
स्मरणीय है कि 1937 में वीर सावरकर की रत्नगिरि से मुक्ति के बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हें बधाई संदेश भेजा था। इस संदेश में उन्होंने वीर सावरकर के सामने कांग्रेस में सम्मिलित हो जाने का निवेदन भी किया था, किन्तु सावरकर ने इसके उत्तर में लिखा था—‘मैं अहिंसा के सिद्धांतों में विश्वास नहीं करता मैं सशस्त्र क्रांति द्वारा ही स्वतंत्रता प्राप्त करने का समर्थक हूं। अतः मैं ऐसे किसी दल से संबंध नहीं रखना चाहता जो मेरे सिद्धांतों के विरुद्ध हो।

रासबिहारी बोस का संदेश
जिन दिनों प्रसिद्ध देश भक्त रास बिहारी बोस जापान में भारतीय स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील थे, उन्हीं दिनों उन्होंने वीर सावरकर को एक बौद्ध भिक्षु के हाथों एक पत्र भेजा। वह इटली और जर्मनी द्वारा प्राप्त धन से तथा शस्त्रों से एक सेना का संगठन कर रहे थे। इस पत्र में उन्होंने सावरकर से भी इस कार्य में सहयोग करने का निवेदन किया। सावरकर को यह प्रस्ताव देश हित का लगा, अतः उन्होंने हिन्दू युवकों को अधिकतम संख्या में सेना में भर्ती होने का आवाहन किया। उन्होंने मित्र राष्ट्रों तथा धुरी राष्ट्रों दोनों को साम्राज्यवादी बताकर आलोचना की। किन्तु देश हित में सैन्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए युवकों से सेना में भर्ती होने को कहा। इस विषय में अपने प्रस्ताव को उन्होंने इस प्रकार रखा—‘ हमें अपने देश की स्वाधीनता के हित को दृष्टि में रखते हुए ही नीति निर्धारित करनी चाहिए इस दृष्टि से आज भारत की रक्षा और स्वराज्य की इच्छा पूर्ण करने के लिए जो अत्यंत उपर्युक्त और व्यावहारिक साधन है, वह सैनिकीकरण का आंदोलन ही है। अतः ब्रिटिश भारतीय सेना में हिन्दुओं को अधिकतम संख्या में सम्मिलित होना चाहिए। हिन्दू यूरोपीय युद्ध-क्षेत्रों में युद्ध की शिक्षा लें और शस्त्रों सज्जित हों।
लॉर्ड लिनलिथगो से भेंट के समय इस हित को दृष्टि में रखकर उन्होंने हिन्दुओं को कमीशन देने से प्रतिबन्ध हटाने तथा सभी हिन्दू जातियों को सेना में लिए जाने की माँग की थी। ध्यान रहे तब तक अनेक हिन्दू जातियों को सैनिक बनने के अयोग्य माना जाता था। वाइसराय ने इन मांगों को पूर्ण करने का आश्वासन दिया था।
वह हिन्दुओं को सैनिक बनाने के प्रबल समर्थक थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि इस नीति से भारत का हित होगा। अतः 1940 के अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए उन्होंने अहिंसा, चर्खा, सत्याग्रह आदि गाँधीवादी नीति का विरोध किया था। उनके मत में यह नीति की से किले को बारूद के स्थान पर फूंक से उड़ा देने की कल्पना के समान निरर्थक थी। उन्होंने भारत को खण्डित करने की कांग्रेसी नीति से सावधान रखने का भी अनुरोध किया।

हैदराबाद सत्याग्रह और सावरकर
निजाम के राज्य हैदराबाद में हिन्दुओं पर अमानवीय अत्याचार हो रहे थे। उन्हें मन्दिर और हवनकुंड तक नहीं बनाने दिए जाते थे। उनके जनेऊ तोड़ डाले जाते थे और उन्हें कोई भी पर्व, त्योहार अथवा उत्सव नहीं मनाने दिया जाता था। हिन्दुओं की हत्या कर देना, उनकी संपत्ति लूट लेना आदि की घटनाएं वहां एक सामान्य सी बात थी। मंदिरों में गीता, रामायण की तथा, शंख, घंटा, नाद आदि अवैध घोषित कर दिए गए थे।
निजाम के इन अत्याचारों से सारे देश की हिन्दू जनता में आक्रोश व्याप्त हो गया। अतः सर्वप्रथम आर्य समाज ने इन अत्याचारों के विरोध में आवाज उठाई। इससे पूर्व वहाँ तीन आर्यसमाजी वीरों की (आर्य वीर वेदप्रकाश, धर्म प्रकाश तथा महादेव) हत्या की जा चुकी थी। अक्टूबर, 1938 में वीर सावरकर दिल्ली पहुँचे और उन्होंने सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के अधिकारियों से उक्त समस्या पर विचार-विमर्श किया। इसके बाद हैदराबाद के अत्याचारों के विरोध में इसी वर्ष दिसंबर में शोलापुर में आर्य सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन के अध्यक्ष बापूजी आणे तथा मुख्य कार्यकर्ता नारायण स्वामी थे। वीर सावरकर ने भी इस सम्मेलन में भाग लिया। अपना भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि हैदराबाद के निजाम के अमानवीय अत्याचारों के विरुद्ध समस्त देश की हिन्दू जनता को एक सूत्र में संगठित होकर इस धर्म युद्ध में कूद पड़ना चाहिए। यदि निजाम की धर्मान्धता का विषैला फन न कुचला गया, तो भोपाल और अन्य मुस्लिम बहुल स्थानों पर हिन्दुओं पर अत्याचार किए जाएंगे।
सावरकर ने आर्य समाज को विश्वास दिलाया कि निजाम के अत्याचारों के विरुद्ध उसके संघर्ष में हिन्दू महासभा आर्य समाज का पूरा साथ देगी। इस सम्मेलन में पहले निजाम को चेतावनी दी गई कि वहां अत्याचार बंद करे। चेतावनी की अवधि समाप्त हो जाने पर निजाम के विरुद्ध संघर्ष प्रारंभ हो गया। अनेक स्थानों पर अनेक हिन्दू मारे गए तथा जेलों में बंद कर दिए गए।
22 जनवरी,1939 को निजाम निषेध दिवस के रूप में मनाने के लिए वीर सावरकर ने एक वक्तव्य प्रकाशित कराया। उन्होंने आवाहन किया कि इस दिन समस्त भारत में आम हड़ताल रखी जाए, प्रदर्शन किए जाएं, मांगों के समर्थन में प्रस्ताव पास किए जाएं तथा प्रत्येक सभा से हिन्दू अधिकार संघर्ष के लिए एक ही आवाज लगाई जाए। फलतः 22 जनवरी को पूरे भारत में निजाम निषेध दिवस मनाया गया तथा संघर्ष चलने तक प्रत्येक मास की 22 तारीख को यह दिवस मनाया जाता रहा।
हिन्दू महासभा के नागपुर अधिवेशन के अध्यक्ष पद से भी वीर सावरकर ने निजाम कि अत्याचारी नीतियों की आलोचना करते हुए हिन्दुओं से लक्ष्य प्राप्ति तक संघर्ष करते रहने का आवाहन किया। आर्य समाज तथा हिन्दू महासभा का संयुक्त सत्याग्रह चलता रहा। वीर सावरकर के विचारों से प्रभावित होकर हजारों वीरों ने इसमें भाग लिया। अंततः निजाम को समझौता करना पड़ा।

भागलपुर संघर्ष
हिन्दू महासभा के अखिल भारतीय मदुरा अधिवेशन में निर्णय लिया गया कि अगला अधिवेशन भागलपुर, बिहार में दिसम्बर 1941 में बड़े दिन की छुट्टियों में होगा। इस निर्णय के समय किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि यह अधिवेशन एक ऐतिहासिक घटना सिद्ध होगा।
इस अधिवेशन के लिए तैयारियाँ होने लगीं। सहसा 19 मई, 1941 को बिहार सरकार ने भागलपुर के कमिश्नर को लिखा कि उन हिन्दू नेताओं को बता दिया जाए कि बिहार सरकार हिन्दू महासभा के वार्षिक अधिवेशन को भागलपुर में करने के विरुद्ध है, क्योंकि 21 दिसंबर को मुसलमानों की बकरा ईद है। अतः भय है कि कहीं हिन्दू-मुस्लिम दंगा न हो जाए। भागलपुर में इस अधिवेशन के लिए गठित स्वागतकारिणी समिति के मंत्री को यह सूचना मिलने पर उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि उनकी समिति को इस संबंध में किसी भी प्रकार का निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। अतः यह मामला अखिल भारतीय हिन्दू महासभा की कलकत्ता में होने वाली बैठक को सौंप दिया गया। यह बैठक जून में हुई। इसमें सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि अधिवेशन में 25 से 27 दिसंबर तक भागलपुर में ही हो। 26 सितम्बर को बिहार सरकार ने घोषणा कि भारतीय सुरक्षा अधिनियम के नियम 56 के अंतर्गत बिहार सरकार ने निश्चित कर लिया है कि हिन्दू महासभा का कोई भी अधिवेशन 1 दिसंबर, 1941 से 10 जनवरी, 1942 तक भागलपुर ही नहीं मुंगेर, पटना, गया, शाहाबाद तथा मुजफ्फरपुर इन छः जिलों के किसी भी स्थान पर नहीं हो सकता है। सावरकर बिहार सरकार से पत्र-व्यवहार करते रहे कि सम्भवतः सरकार अपना निर्णय वापस ले ले। हिन्दू महासभा की केन्द्रीय कार्यकारिणी ने दिल्ली में निर्णय लिया कि यह अधिवेशन निश्चित समय पर 23 से 27 दिसंबर तक होगा।
वीर सावरकर और बिहार सरकार के बीच पत्र-व्यवहार 06 दिसम्बर 1941 तक चलता रहा। कोई भी पक्ष अपने निर्णय से पीछे हटने को तैयार नहीं था, महासभा अधिवेशन की तैयारी में थी और सरकार इसे रोकने के लिए कटिबद्ध थी। प्रांतीय सभाएं एस बार भी वीर सावरकर को ही अध्यक्ष चुन चुकी थी। यद्यपि सावरकर त्याग-पत्र देकर किसी अन्य व्यक्ति को ही अध्यक्ष बनाना चाहते थे, किन्तु बिहार सरकार की चुनौती के कारण उन्होंने अपना यह विचार त्याग दिया। सावरकर के आवाहन पर 14 दिसंबर को भारत भर में ‘भागलपुर’ दिवस मनाया गया। उसी दिन कई स्थानों से बिहार सरकार के इस निर्णय को रद्द करवाने के लिए वाइसराय को पत्र भेजे गए। किन्तु वाइसराय ने ‘शान्ति स्थापित करना बिहार सरकार का कार्य है’ कहते हुए हस्तक्षेप करना अस्वीकार कर दिया।
हिन्दू महासभा अधिवेशन की तैयारियों में जुट गई। अधिवेशन स्थल पर पंडाल बन ही रहा था कि पुलिस ने उसे तहस-नहस कर डाला। प्रांतीय महासभा के कार्यालय पर पुलिस ने छापा मारा और अधिवेशन से संबद्ध सभी कागज-पत्रों को उठा ले गई। अनेक कार्यकर्ताओं के घरों की तलाशी ली गई। फलतः भागलपुर में हड़ताल कर दी गई। प्रान्तीय हिन्दू महासभा ने पंडित और राघवाचार्य की अध्यक्षता में एक संघर्ष समिति का गठन कर दिया। पंडित राघवाचार्य को पटना से भागलपुर जाते समय 17 दिसंबर को मार्ग में ही बंदी बना लिया गया। कई लोगों ने सरकार से समझौते के प्रयास किए, किन्तु अधिवेशन की तिथि ज्यों-त्यों समीप आ रही थी, बिहार सरकार का व्यवहार उतना ही कठोर होता गया। पुलिस का भी भारी प्रबंध था। 23 दिसंबर को भागलपुर में धारा 144 लगा दी गई। अतः जनता ने पूर्ण हड़ताल रखी। यह हड़ताल 27 दिसंबर तक चलती रही। गिरफ्तारियों का सिलसिला जोरों पर था। सरकार का दमन चक्र अपनी चरम सीमा पर था। प्रत्येक हिन्दू घर पर हिन्दू महासभा की ध्वजा फहरा रहा था। पुलिस की उपस्थिति में भी प्रतिनिधियों के आगमन पर जय-जय की ध्वनि से आकाश गूँज उठता। पुलिस लाठीचार्ज करती, किन्तु जनता के उत्साह में कोई कमी नहीं आती। स्वागताध्यक्ष कुमार गंगानन्द सिंह 23 दिसम्बर को अपने निवास स्थान पर ही स्थानबद्ध का लिए गये। हिन्दू महासभा के कई कार्यकर्ता भागलपुर पहुंचते ही बंदी बना लिए गए, तथापि अनेक प्रतिनिधि भागलपुर पहुँच गए। वीर सावरकर बम्बई मेल से 25 दिसंबर को अनेक प्रतिनिधियों के साथ बम्बई से चल पड़े। मार्ग में अनेक स्थानों पर उनका भव्य स्वागत हुआ। रात्रि में वह गया रेलवे स्टेशन’ पर उतरे। यहाँ से उन्हें गाड़ी बदलना थी। गाड़ी के आने से पूर्व ही वहाँ विशाल जनसमुदाय उनके स्वागत में जय-जयकार करने लगा। स्टेशन पर पहले से ही ‘गया’ का पुलिस उपाधीक्षक अपने दल-बल के साथ उन्हें बंदी बनाने के लिए आया हुआ था। वारंट दिखा कर उन्हें बंदी बना लिया गया। पुलिस कार में बैठाकर उन्हें केंद्रीय कारागार ले जाया गया। बंदी बना लिए जाने पर वीर सावरकर ने हिन्दू महासभा के नाम अपने संदेश में कहा—“हम सम्मान के साथ शांति चाहते हैं। भागलपुर अधिवेशन अवश्य किया जाए और जो कार्यक्रम पहले निर्धारित किया गया था, उससे व्यवहार में परिणत किया जाए।”
इस समाचार के भागलपुर पहुँचने पर धारा 144 की परवाह न करते हुए जनता देखते-ही-देखते विशाल जुलूस के रूप में परिवर्तित हो गई। यह जुलूस नगर के सभी प्रमुख स्थानों से गुजरा, जो “वीर सावरकर की जय” तथा “हिन्दू महासभा की जय” तथा “हिन्दुस्थान हिन्दुओं के लिए” नारे लगा रहा था। शुजागंज तथा लाजपत पार्क में विशाल सभाएँ हुईं। पुलिस ने पुनः लाठियाँ बरसाईं और गिरफ्तारियां की। डाक्टर नायडू, डाक्टर मुंजे, भाई परमानंद, आशुतोष लहरी, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, एन.सी. चटर्जी, राजा महेश्वर दयाल आदि प्रमुख नेता गिरफ़्तार कर लिए गए। 24 दिसंबर को भागलपुर में अनेक स्थानों पर सभाएं हुईं। केवल इसी स्थान पर एक हजार से अधिक व्यक्ति बंदी बनाए गए।
डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी को अनेक प्रतिनिधियों के साथ आते हुए मार्ग में ही पुलिस ने रोक कर कलकत्ता लौट जाने का आदेश दिया, किन्तु उन्होंने इस आदेश की अवहेलना कर दी। अतः उन्हें 25 से 27 दिसम्बर तक बिहार में न रह सकने की बिहार सरकार की आज्ञा सुनाई गई। डॉक्टर मुखर्जी ने इस आज्ञा को मानना अस्वीकार कर दिया। इस पर पुलिस ने मार्ग में ही उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। पंजाब के प्रसिद्ध नेता सर गोकुलचन्द्र नारंग भी 25 दिसंबर को भागलपुर में गिरफ़्तार कर लिए गए।
सभी प्रमुख नेताओं को बंदी बना लिए जाने पर अधिवेशन को संपन्न करने का भार दिल्ली के वयोवृद्ध लाला नारायण दत्त ने अपने ऊपर लिया। लालाजी के प्रयत्नों से नियत समय पर भागलपुर में तीन विशाल सभाएँ इन संपन्न हुई। इन सभाओं के अतिरिक्त कई अन्य छोटी-छोटी सभाएँ भी हुईं। मुख्य सभाओं में स्वागत समिति के अध्यक्ष तथा अधिवेशन के अध्यक्ष के भाषण भी पढ़े गए। इसके बाद अधिवेशन के अध्यक्ष के भेजे हुए प्रस्ताव पारित किए। पुलिस को इसकी सूचना मिल गई तथा उसने इन सभाओं को भंग कर दिया। इन सभाओं के नेता भी पुलिस द्वारा बंदी बना लिए गए।
26 एवं 27 से दिसंबर के दिन भी सभाओं, जुलूसों तथा उन पर पुलिस के लाठीचार्ज के बाद बंदी बनाए जाने का यह सिलसिला चलता रहा। 27 दिसंबर को एक अंतिम सभा गुप्त रूप में एक धर्मशाला में हुई, जिसमें बीस हजार व्यक्तियों ने भाग लिया। इस प्रकार बिहार सरकार ने अपने विरोध तथा उसकी पुलिस के अत्याचारों ने हिन्दू महासभा के इस भागलपुर अधिवेशन को न चाहते हुए भी इतिहास में प्रसिद्ध कर दिया।

‘सत्यार्थप्रकाश’ पर प्रतिबंध का विरोध
मुस्लिम लीग के कराची अधिवेशन में आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती विरचित ग्रंथ ‘सत्यार्थप्रकाश’ पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव पारित किया गया। जिन्ना ने इस पुस्तक के विषय में, विशेषकर इसके चौदहवें समुल्लास को इस्लाम मजहब के विरुद्ध बताते हुए पुस्तक को प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव रखा। 15 तथा 16 नवंबर को 1943 को मुस्लिम लीग की एक सभा दिल्ली में हुई। इसमें भी भारत सरकार से इस पुस्तक के उक्त्त समुल्लास में भी ‘सत्यार्थप्रकाश’ पर प्रतिबंध लगाने की बात व्यक्त की गयी, किन्तु हिन्दुओं के विरोध को देखते हुए इस प्रश्न को भारत सरकार के पास भेज दिया गया। इन सब विरोधों के विरोध में आर्यसमाज भी उठ खड़ा हुआ। उसने भी अपने धार्मिक ग्रंथ के समर्थन में प्रदर्शन किए, प्रस्ताव पारित किये तथा वाइसराय के पास प्रार्थना पत्र भेजे। 19 एवं 20 फ़रवरी को 1944 को दिल्ली में अखिल भारतीय सम्मेलन हुआ। इसमें सत्यार्थप्रकाश की रक्षा तथा प्रचार का संकल्प लिया गया। इसके साथ ही तीन लाख रुपए की राशि इस कार्य के लिए एकत्रित की गई तथा सरकार को चेतावनी दी गई कि इस पवित्र पुस्तक के विरुद्ध कोई भी निर्णय लेने पर उसके गंभीर परिणाम होंगे। इस विरोध को देखकर सिंध सरकार ने घोषणा कर दी की वह ‘सत्यार्थप्रकाश’ के विरुद्ध कोई कार्य नहीं करेगी। किन्तु आर्यसमाजियों को उदासीन देखकर उसने 4 नवंबर को एक आदेश निकाल दिया कि जब तक चौदहवां समुल्लास हटा न लिया जाए, तब तक सत्यार्थ प्रकाश की एक भी प्रति न छापी जाए।
इससे आर्य समाज के अनुयायियों में रोष उत्पन्न होना स्वाभाविक ही था। अतः 20 नवंबर को सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने इस आज्ञा का विरोध तथा अपने अधिकारों की रक्षा के लिए एक समिति गठन करने का पूर्ण अधिकार श्री घनश्यामदास गुप्त को प्रदान कर दिया। इसके साथ ही उन्हें सभी आवश्यक कार्यवाहियों के लिए भी अधिकार दे दिए गए।
भाई परमानंद ने इस प्रश्न को केंद्रीय धारा सभा में भी उठाया कि सिंध सरकार का उक्त्त निर्णय अन्यायपूर्ण है। जब भाई परमानंद के स्थगन प्रस्ताव पर बहस हो रही थी, तो कांग्रेसी नेता अपनी ढुल-मुल नीति के कारण वहाँ से कन्नी काट गए। यद्यपि यह प्रस्ताव पारित न हो सका, किन्तु इससे लोगों तथा भारत सरकार का ध्यान इस ओर अवश्य आकर्षित हुआ। महात्मा गाँधी के साथ ही कुछ अन्य कांग्रेसी नेताओं तथा कुछ निष्पक्ष मुसलमानों ने भी सिन्ध सरकार के इस आदेश की आलोचना की।
हिन्दू समाज के अभिन्न अंग आर्यसमाज का सिंध सरकार द्वारा किया गया यह अपमान वीर सावरकर के लिए असहाय था। उन्होंने एक सार्वजनिक सभा में उद्घोष किया—“जब तक सत्यार्थप्रकाश पर सिंध में प्रतिबंध नहीं हटता, तब तक कांग्रेस शासित प्रदेशों में कुरान पर प्रतिबंध लगाने की प्रबल माँग करनी चाहिए।“
इसके बाद उन्होंने सिंध प्रांत के गवर्नर तथा भारत के वाइसराय को भी तार भेजे। इन तारों में उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया कि सिंध में सत्यार्थप्रकाश से प्रतिबंध न हटाया गया तो हिन्दू कुरान पर प्रतिबंध लगाने के लिए आंदोलन आरंभ कर देंगे। अतः सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबंध अविलम्ब हटा लिया जाए। इसके साथ ही वीर सावरकर ने इस उद्देश्य के लिए 27 नवंबर, 1944 को वाइसराय से भेंट की।

पाकिस्तान योजना का विरोध
कांग्रेस के नेताओं को यह भ्रान्ति हो गई थी कि मुसलमानों के सहयोग के बिना भारत को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो सकती। महात्मा गाँधी ने अपने इस विचार को सार्वजनिक रूप में व्यक्त भी कर दिया था जिससे जिन्ना की पृथकतावादी नीति को बल मिला। अंततः वह पाकिस्तान की माँग पर उतर आया। 1944 में कांग्रेस ने पाकिस्तान की मांग का डटकर विरोध किया। महात्मा गाँधी ने इस माँग को पाप बताते हुए कहा कि यदि पाकिस्तान बनेगा, तो मेरी लाश पर बनेगा। 1944 में राजगोपालाचार्य ने गांधी जी को सहमत करके कुछ शर्तों के साथ भारत विभाजन का प्रस्ताव तैयार कर लिया। राजगोपालाचार्य पाकिस्तान के प्रस्ताव को लेकर जिन्ना से मिला, किन्तु अब जिन्ना की माँगे और अधिक हो गई थीं। बह इन शर्तों को मानने के लिए तैयार नहीं हुआ तथा पूर्ण विभाजन की माँग करने लगा। वीर सावरकर कांग्रेस की इस नीति तथा जिन्ना के अड़ियलपन की भविष्यवाणी पहले ही कर चुके थे। उन्होंने हिन्दुओं से इन दोनों से सावधान रहने को कह दिया था—“पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा की घोषणा करने वाले नेता एक दिन मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए पाकिस्तान की योजना स्वीकार कर लेंगे। अतः इन लोगों को इन के आश्वासनों में नहीं फंसना चाहिए।
गांधी जी द्वारा पाकिस्तान की मांग के लिए अपनी सहमति दे दिए जाने से देश की हिन्दू जनता क्षुब्ध हो उठी। कुछ राष्ट्रभक्त कांग्रेसी नेताओं ने भी गांधी जी के इस निर्णय की आलोचना की। हिन्दू महासभा के नेता डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी गांधी जी से मिले और उनके निर्णय के दूरगामी भयंकर परिणामों से उन्हें अवगत कराया साथ ही हिन्दुओं के आक्रोश की सूचना भी उन्हें दी, किन्तु कुछ भी परिणाम नहीं निकला। वीर सावरकर के आवाहन पर सारे देश में पाकिस्तान-योजना का विरोध हुआ। गांधी जी ने जिन्ना से इस विषय में विचार करने के लिए मिलने का समय माँगा। हिन्दुओं ने गांधी जी से ऐसा न करने को कहा तथा इसके लिए अपना विरोध प्रकट किया। गांधी जी ने हिन्दुओं के विरोध की परवाह नहीं की तथा बम्बई जाकर जिन्ना से मिले। जिन्ना ने उनका कोई भी प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया।
अखण्ड भारत को अपने प्राणों से भी प्रिय मानने वाले वीर सावरकर ने पाकिस्तान की योजना का विरोध करने के लिए ‘अखण्ड भारत नेता सम्मेलन’ का आयोजन किया। यह सम्मेलन 7 एवं 8 अक्टूबर,1944 को डाक्टर राधाकुमुद मुखर्जी के नेतृत्व में उत्साहपूर्वक नई दिल्ली में हुआ। इसमें भारत भर के सैकड़ों लोगों ने भाग लिया, जिनमें वीर सावरकर,, जगद्गुरु शंकराचार्य (पुरी), श्री जमुनादास मेहता, डॉक्टर गोकुलचंद नारंग, मास्टर तारासिंह, डॉक्टर नायडू, एन. सी. चैटर्जी, श्री खापर्डे, श्री आशुतोष लहरी, श्री भोपटकर, श्री वीरूमल आदि नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इस सम्मेलन में वीर सावरकर ने सभी प्रतिनिधियों से अनुरोध किया कि वे अपने विचार पूरी स्वतंत्रता के साथ व्यक्त करें, भले ही उनका मत कैसा ही क्यों न हो, किन्तु सभी ने गांधी, जिन्ना तथा राजगोपालाचार्य की नीतियों की आलोचना की तथा भारत की अखण्डता के पक्ष में विचार व्यक्त किये। अंत में भारत की अखण्डता के विषय में अधोलिखित प्रस्ताव पारित—
“यह सम्मेलन घोषणा करता है कि भारत का भावी विधान उसकी अखंडता और स्वतंत्रता के आधार पर ही बनाया जाए। यह भी घोषित करता है कि यदि भारत की अखण्डता की धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और भाषा-सम्बन्धी किसी भी प्रकार से नष्ट करने का कोई प्रयत्न होगा, तो प्रत्येक प्रकार का बलिदान और मूल्य देकर उसका विरोध किया जाएगा।”
यह सम्मेलन भारत की एकता और अखण्डता पर पूर्ण विश्वास व्यक्त करता है और अपना दृढ़ विश्वास व्यक्त करता है कि भारत के विभाजन से देश की घातक हानि होगी। सम्मेलन प्रत्येक देश भक्त से अनुरोध करता है कि वह भारत की अखण्डता को नष्ट करने के किसी भी प्रयास का प्रत्येक प्रकार से सामना करें।”
इस सम्मेलन में हिन्दुओं में व्यापक प्रभाव हुआ। 1946 में आम चुनाव के समय कांग्रेसी पाकिस्तान योजना का विरोध करने लगे। तब वीर सावरकर ने हिन्दुओं को सावधान किया—“कांग्रेसी नेता चुनाव में आपके मत प्राप्त करने के लिए ही अखंड भारत का नारा लगा रहे हैं। चुनाव के बाद ये पुनः पाकिस्तान का समर्थन करके देश के साथ विश्वासघात करेंगे, कांग्रेस को वोट पाकिस्तान को वोट है। हिन्दुओं के प्रबल विरोध को देखते हुए जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट रूप में पुनः कहा—“कांग्रेस का सदा विरोध करने वाली मुस्लिम लीग सांप्रदायिक दल है। हम उसके साथ कभी समझौता नहीं करेंगे और न भारत के टुकड़े ही होने देंगे।”
वीर सावरकर ने फिर चेतावनी दी—“ये कांग्रेसी नेता हिन्दुओं को अपने चंगुल में फंसाने के लिए ही मुस्लिम लीग को सांप्रदायिक बता रहे हैं। यह इनकी चाल है कांग्रेसी नेता गांधी की ही तरह अपने आश्वासनों के पक्के नहीं हैं। गांधी जी स्वयं मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए अपने आश्वासनों की बलि चढ़ा रहे हैं।”
वीर सावरकर ने पाकिस्तान की मांग का सदा विरोध किया। जिन दिनों पाकिस्तान की मांग जोर पकड़ रही थी, उन्हीं दिनों अमेरिका से एक प्रख्यात पत्रकार लुई फिशर भारत आया हुआ था और भारत विभाजन के विषय में लोगों की प्रतिक्रियाएँ एकत्र कर रहा था। जिन्ना से मिलने के पश्चात वह वीर सावरकर से मिला। उसने वीर सावरकर से पूछा—“आपको मुसलमानों को अलग राष्ट्र पाकिस्तान देने में क्या आपत्ति है?
उत्तर में तत्काल वीर सावरकर ने प्रश्न पूछ डाला कि ‘आप लोग भारी मांग होने पर भी नीग्रो लोगों को अलग देश ‘नीग्रोस्थान’ देना क्यों नहीं स्वीकार कर लेते?’
क्योंकि देश का विभाजन करना एक राष्ट्रीय अपराध होगा। लुई फिशर का उत्तर था।
इस पर वीर सावरकर बोले आपका उत्तर राष्ट्र भक्ति से परिपूर्ण तथा तथ्यपूर्ण हैं। प्रत्येक राष्ट्र भक्त अपने देश के टुकड़े होना सहन नहीं कर सकता। देश के टुकड़े चाहने वाले कदापि देश भक्त नहीं कहे जा सकते। अतः हम भारत विभाजन की योजना को राष्ट्र विरोधी बताकर उसका विरोध कर रहे हैं, जबकि मुस्लिम लीग जो इस देश को ही ‘नापाक’ मानते हैं और उसके टुकड़े करने पर तुले हैं।
इन विचारों से लुई फ़िशर बड़े प्रभावित हुए। बाद में उन्होंने वीर सावरकर तथा जिन्ना की तुलना करते हुए लिखा—
जहां मैंने सावरकर के हृदय में राष्ट्र भक्ति की असीम संभावनाएं देखी वहीं जिन्ना के ह्रदय में भारत और भारतीय संस्कृति के प्रति घोर घृणा के बीजों के दर्शन हुए।”
वीर सावरकर द्वारा बार-बार चेतावनी दिए जाने पर भी हिन्दू मतदाता कांग्रेस की धूर्त चालों के बहकावे में आ गए। कांग्रेस चुनाव जीत गई, किन्तु समय ने सिद्ध कर दिया कि कांग्रेस के आश्वासन झूठे थे और वीर सावरकर की चेतावनी सत्य थी। चुनाव जीतने पर कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग स्वीकार कर ली। 3 जून,1947 को जवाहर लाल नेहरू ने घोषणा कर दी कि हिन्दू-मुस्लिम समस्या के स्थाई समाधान हेतु भारत का विभाजन स्वीकार किया जा रहा है, और 14 अगस्त,1947 को पाकिस्तान का निर्माण हो गया।

षष्ठ अध्याय : स्वतन्त्र भारत में
15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, किन्तु कैसी स्वतंत्रता! किस मूल्य पर! और क्या इसे वास्तविक अर्थों में स्वतंत्रता कहा जा सकता है। कारागार से यदि किसी अंग को काट देने की शर्त पर स्वतंत्रता प्राप्त हो तो ऐसी स्वतंत्रता का क्या महत्व। भारत को भारत तथा पाकिस्तान दो भागों में विभक्त कर दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्त होने पर जिस समय कांग्रेसी नेता सत्ता प्राप्ति की प्रसन्नता में आनंद मग्न होकर झूम रहे थे, उसी समय सम्पूर्ण भारत में विशेषकर बंगाल और पंजाब में खून की होली खेली जा रही थी। पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान में हिन्दू और सिखों की निर्मम हत्या की जा रही थी, महिलाओं के साथ बर्बर अत्याचार हो रहे थे। लाखों की संख्या में लोग अपने घरों को छोड़कर हिन्दुस्तान से पाकिस्तान तथा पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आ जा रहे थे।
इन समस्त घटनाओं को देखकर भारत माता के सच्चे उपासक के वीर सावरकर का ह्रदय चीत्कार कर उठा। ऐसी विषम परिस्थिति में जब शरणार्थी बनकर लाखों व्यक्ति पाकिस्तान से भारत आ रहे थे, कितने ही लोग अपनी संपत्ति के साथ ही अपने परिवार के सदस्यों से भी वंचित हो गए थे। परिणामस्वरूप हिन्दू और सिखों में भी प्रतिशोध की भावना जाग पड़ना अस्वाभाविक नहीं था।

गांधी हत्याकांड में बन्दी
देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान में बीस लाख हिन्दू और सिख मारे गए। चार हजार करोड़ रुपयों की संपत्ति लूट ली गई। लाखों की संख्या में शरणार्थी दिल्ली भी पहुंचे। गांधीजी नित्य-प्रति प्रार्थना सभा में प्रवचन देते थे। ये शरणार्थी उनके पास भी पहुँचे और उन्हें अपनी आप बीती की दर्द भरी कहानी सुनानी चाही, किन्तु गाँधीजी ने उन्हें सांत्वना अथवा सहानुभूति देने के स्थान पर दुत्कार दिया, कहा—“तुम यहां से चले जाओ। उधर पाकिस्तान में ही मुसलमान बनकर क्यों नहीं रहते”। शरणार्थी अपना सा मुंह लेकर लौट आए, किन्तु मुसलमानों के साथ गांधीजी का व्यवहार बड़ा सहानुभूतिपूर्ण था। अलवर में भी इस हिंसा की प्रतिक्रिया हुई। वहाँ से कुछ मुसलमान गांधी जी के पास आए। गांधी जी ने उनकी बातें सुनी और आश्वासन दिया— ‘आपको अलवर राज्य में फिर से बसाया जाएगा। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो मैं आमरण अनशन कर दूंगा।’
स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ ही समय बाद पाकिस्तानी गुण्डों ने अकस्मात कश्मीर पर हमला कर दिया। इस समय केन्द्रीय सरकार ने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि यदि उसने इस कार्यवाही को बंद नहीं किया, तो भारत द्वारा उसे दिए जाने वाले पचपन करोड़ रूपये नहीं दिए जाएंगे। इस घोषणा पर गाँधीजी आमरण अनशन पर बैठ गए। गांधी जी की इस पक्षपात पूर्ण नीति से स्वराष्ट्र और स्वधर्म पर विश्वास करने वाले कुछ युवक क्रोधित हो गए। पाकिस्तान से आए शरणार्थी भी इससे रुष्ट थे। शरणार्थियों की दशा ने इन युवकों के रोष को और भी अधिक बढ़ा दिया। अकस्मात 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे नामक एक युवक ने दिल्ली की प्रार्थना सभा में गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी। नाथूराम गोडसे महाराष्ट्र की हिन्दू महासभा का एक प्रमुख कार्यकर्ता था और एक साप्ताहिक पत्र ‘अग्रणी’ का सम्पादन करता था।
गांधी की हत्या के बाद दूसरे ही दिन कांग्रेसियों तथा कम्युनिस्टों की अपार भीड़ ने बम्बई में वीर सावरकर के घर ‘सावरकर सदन’ पर हमला कर दिया। श्री भास्कर राव शिन्दे तथा एक अन्य युवक पाठक उस समय वीर सावरकर के पास थे। वीर सावरकर उस समय अस्वस्थ चल रहे थे। हमला करने बालों की अपार भीड़ को देखकर उन्होंने एक मात्र पुत्र विश्वास राव को परामर्श दिया कि वह वहां से सुरक्षित निकल जाएँ, किन्तु पिता को विपत्ति में अकेले ही छोड़ कर जाने से उन्होंने इनकार कर दिया। रुग्ण होने पर भी वीर सावरकर हमला करने वालों का सामना करने को तत्पर हो गए। इस पार शिन्दे तथा पाठक ने उन्हें ऐसा करने से रोका और स्वयं आतताइयों का सामना करने लगे। इससे आततायी ‘सावरकर सदन’ से भाग गए।
बम्बई के शिवाजी पार्क में ही वीर सावरकर के छोटे भाई डाक्टर नारायण सावरकर का घर भी था। सावरकर सदन के बाद गुंडों की अपार भीड़ डॉक्टर नारायण सावरकर के निवास पर चली गई और वहां पर हमला कर दिया। इसके बाद डॉक्टर नारायण राव को घेर लिया। उन पर तब तक पथराव किया गया, जब तक लहूलुहान होकर वह बेहोश न हो गए। इस घटना के कारण कुछ ही दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गई।
इस घटना के दिन 31 जनवरी को पुलिस ने सावरकर सदन की तलाशी ली तथा वीर सावरकर को उनकी सुरक्षा के लिए किसी अन्य स्थान पर ले जाने का प्रस्ताव रखा, किन्तु सावरकर ने ‘मैं अपनी सुरक्षा करने में स्वयं समर्थ हूँ’ कहकर इसे अस्वीकार कर दिया।
इसके बाद 1 से 5 फ़रवरी तक पूरे देश में गांधी हत्याकांड में गिरफ़्तारियों का सिलसिला चलता रहा। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा हिन्दू महासभा के लगभग पच्चीस हजार सदस्य गिरफ़्तार किए गए। 5 फ़रवरी को प्रातः नाथूराम गोडसे को प्रेरणा देने के आरोप में वीर सावरकर को भी बंदी बना लिया गया। पुलिस उन्हें गाड़ी में बैठाकर ले जाने लगी, तभी सावरकर ने शौचालय में जाना चाहा। पुलिस अधिकारी को मार्सेल्स की वह घटना याद आ गई, जब वीर सावरकर लन्दन से बंदी बना कर भारत लाए जा रहे थे, तो वहाँ शौचालय की खिड़की से समुद्र में कूद कर भाग खड़े हुए थे। पुलिस अधीक्षक हाँ या ना कुछ नहीं कह पाया। सावरकर उसके मन की बात समझ गए। उन्होंने उससे कहा आप घबराएँ नहीं, अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ, मार्सेल्स की पुनरावृत्ति की भी आवश्यकता नहीं समझता।”
बंदी बनाकर उन्हें बम्बई की आर्थर रोड़ जेल ले जाया गया। इस समय कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट समाचार पत्रों ने दुर्भावनावश प्रचार करना प्रारंभ कर दिया कि नाथूराम गोडसे को गांधी जी की हत्या के लिए वीर सावरकर ने ही प्रेरित किया था। इस हत्याकांड का मुकदमा दिल्ली के लालकिले में चलाने का निर्णय किया गया, अतः 24 मई को वीर सावरकर को दिल्ली के लालकिले में लाकर बंद कर दिया गया, वहीं नाथूराम गोडसे, मदनलाल पाहवा, डाक्टर दत्तात्रेय परचुरे, गोपाल गोडसे, आप्टे करकरे आदि भी बंद थे।
गाँधी हत्याकांड पर विचार करने के लिए सरकार ने विशेष जज श्री आत्माचरण की नियुक्ति की। गिरफ़्तार किए गए व्यक्तियों में श्री वडगे को डरा-धमकाकर पुलिस ने मुखबिर बना लिया। उसने बयान दिया कि गांधी जी की हत्या से पूर्व 17 जनवरी के दिन गोडसे तथा आप्टे सावरकर से मिलने सावरकर सदन गए थे तथा सावरकर ने इन दोनों को गाँधी जिन्ना और सुहरावर्दी की हत्या करने में सफ़ल होने का आशीर्वाद दिया था, जबकि गोडसे तथा आप्टे ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया कि वह इस बात पर विश्वास नहीं करते कि उन्हें किसी कार्य के लिए किसी का आशीर्वाद लेने की आवश्यकता पड़े। इस हत्या में वीर सावरकर का किसी प्रकार का हाथ नहीं है। उन्होंने हिन्दुओं की दुरवस्था तथा पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपए दिलाने के कारण ही गाँधीजी की हत्या की।

निर्दोष सिद्ध
जनता इस तथ्य से परिचित थी कि इस हत्याकांड में वीर सावरकर को अकारण ही फंसाया गया है। अतः उनका मुकदमा लड़ने के लिए एक लाख रुपए एकत्र हो गए। महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब, राजस्थान, बिहार तथा गुजरात के अनेक वकील, जिसमें अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष श्री भोपटकर, लाला गणपतराय, श्री जमनादास मेहता, श्री एन पी अध्यर के नाम मुख्य हैं, यह मुकदमा लड़ने के लिए आये।
यह मुकदमा लाल किले में, 1948 के अंत में प्रारंभ हुआ। 20 नवंबर को वीर सावरकर ने अपना 52 पृष्ठों बयान दिया। इस बयान में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि उन्हें इस हत्याकांड में जान बूझकर झूठे मामले में फंसाया गया था। जहां तक गाँधीजी की नीतियों का प्रश्न तथा, वह उन के कटु आलोचक थे किन्तु मतभेद होते हुए भी वह उनकी (गांधी जी) की हत्या कदापि नहीं करना चाहते थे।
पुलिस ने कुछ भी झूठे गवाह भी बना लिए थे, पुलिस की इस धूर्तता की जज के सामने ही पोल खुल गई, एक झूठा गवाह न्यायालय में वीर सावरकर की पहचान करने के लिए लाया गया, किन्तु वह उन्हें पहचान ही नहीं सका, जब उसे पहचानने को कहा गया, तो उसने ग्वालियर के डाक्टर परचुरे को वीर सावरकर बताया। वस्तुतः उनकी गिरफ़्तारी के समय पुलिस अधिकारी ने सरकार के समक्ष स्पष्ट मत व्यक्त किया था कि उन्हें बिना कारण भी झूठा फंसाया जा रहा था।
वह मुकदमा लगभग नौ महीने चला और अंत में, 10 फरवरी, 1949 को इसका निर्णय सुनाते हुए जज ने वीर सावरकर को निरपराध घोषित करते हुए ससम्मान मुक्त कर दिया। नाथूराम गोडसे तथा आप्टे को मृत्युदण्ड तथा गोपाल गोडसे को आजीवन कारावास का दंड दिया।
निर्णय सुनने पर गोडसे तथा अन्य अभियुक्तों ने किसी भी प्रकार का भय व्यक्त नहीं किया उन्होंने वीर सावरकर के पाँव छुए तथा अखंड भारत अमर रहे, एक धक्का और दो, पाकिस्तान तोड़ दो के नारों का उद्घोष किया।
मुकदमे का निर्णय सुनने के लिए लालकिले के बाहर विशाल जनसमुदाय प्रतीक्षा कर रहा था वीर सावरकर की ससम्मान मुक्ति का समाचार सुनते ही जनता प्रसन्नता से झूम उठी। हिन्दू महासभा उन्हें शोभायात्रा निकालकर ले जाना चाहती थी। तभी उनके तीन महीनों तक दिल्ली प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिए जाने की सूचना मिली। अतः उन्हें सुरक्षित ट्रेन से बम्बई भेज दिया गया। वहाँ पहुँचने पर लोगों ने उनका भव्य स्वागत किया। उनकी मुक्ति की प्रसन्नता में लोगों ने उस दिन दीपावली मनाई।

पुनः क्रियाशील
गांधी हत्याकांड में ससम्मान मुक्ति के बाद वीर सावरकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पुनः क्रियाशील हो गए। 1949 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से प्रतिबंध हटा लिए जाने पर वीर सावरकर को हार्दिक प्रसन्नता हुई। इस अवसर पर उन्होंने 15 जुलाई को सरसंघ चालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर को अपना बधाई संदेश भेजा तथा संघ के कार्यों को निरंतर गतिशील बनाए रखने की इच्छा व्यक्त की।
1940 में हिन्दू महासभा का अधिवेशन 21 दिसंबर को कलकत्ता में हुआ। डाक्टर नारायण भास्कर खरे इसके अध्यक्ष निर्वाचित किए गए। यद्यपि सावरकर इन दिनों अस्वस्थ चल रहे थे, फिर भी वह इसमें सम्मिलित हुए। इस अधिवेशन में वीर सावरकर, डॉक्टर खरे तथा श्री भोपटकर का जुलूस निकाला गया। यह जुलूस कलकत्ता के इतिहास में अपूर्व माना जाता है। इस अधिवेशन में वीर सावरकर ने राजनीति का हिन्दूकरण तथा हिन्दुओं के सैनिकीकरण के विषय में अपने विचार प्रकट किये।

पुनः बंदी
मार्च, 1950 में पूर्वी पाकिस्तान के नोआखाली, ढाका, नारायणगंज आदि स्थानों में हिन्दुओं का भयंकर नरसंहार प्रारंभ हो गया। सावरकर अत्यंत चिंतित हुए। उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा—“पाकिस्तान भारत का सदा-सदा के लिए सिरदर्द बन गया है। यह भारत की शांति तथा सुरक्षा के लिये घातक सिद्ध होगा।”
इसी समय भारत तथा पाकिस्तान के अपने-अपने क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों की पूर्ण सुरक्षा के लिए जवाहर लाल नेहरू तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाबजादा लियाकत अली के बीच एक समझौते की योजना बनी। समझौते के लिए लियाकत अली भारत आने वाला था। वह पहले ही पाकिस्तान की संसद में वीर सावरकर के पूर्वोक्त भाषण तथा सरदार वल्लभ भाई पटेल द्वारा पूर्वी पाकिस्तान की घटनाओं के विषय में दिए गए भाषणों की कटु आलोचना कर चुका था। लियाकत अली के भारत पहुँचने से पूर्व ही प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने वीर सावरकर को बंदी बनाने का आदेश दे दिया। सावरकर इस समय बंबई में थे। वहीं 4 अप्रैल, 1950 को उन्हें बंदी बना लिया गया। बंदी बनाने के बाद उन्हें बेलगाँव की जिला जेल भेज दिया गया। सावरकर के अतिरिक्त हिन्दू महासभा के पूर्व अध्यक्ष श्री एल.बी. नलवाडे के साथ ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कुछ सदस्य भी बंदी बनाए गए। इन गिरफ़्तारियों की देश की कई संस्थाओं तथा समाचार पत्रों ने निंदा की। कुछ ही दिनों बाद ये सभी व्यक्ति मुक्त कर दिए गए।

‘अभिनव भारत’ का समापन
‘अभिनव भारत’ नामक क्रांतिकारी संस्था की स्थापना वीर सावरकर ने बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद की थी। भारत की स्वतंत्रता के बाद इस संस्था की कोई आवश्यकता न समझ कर, 1952 को इस संस्था का समापन समारोह पूना में मनाया गया। इसमें देश के सभी पुराने क्रांतिकारिओं को आमंत्रित किया गया। समारोह में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अपना बलिदान देने वाले सभी ज्ञात और अज्ञात वीरों को श्रद्धांजलि समर्पित की गई। वीर सावरकर ने इस समारोह में बढ़ा ही मर्मस्पर्शी भाषण दिया उन्होंने कहा—“कि स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हुई इसे बड़े-बड़े बलिदान देकर प्राप्त किया गया है। स्वतंत्रता प्राप्त हुई, यह कहना बिलकुल अनुचित है। देश की सैन्यशक्ति बढ़ाना हमारा प्रथम कर्तव्य है। तीन चौथाई भारत स्वतंत्र हुआ है इसलिए मेरे मन में आनंद है। एक चौथाई भारत अभी मुक्त करना है। यह कार्य नवयुवकों का है। मेरी सिंधु नदी तथा सिंध प्रांत हमसे छीन लिए गए हैं। जिस सिंधु नदी का हम अपने प्रातः काल के मंत्रों में उच्चारण करते हैं, उस सिंधु को हम नहीं भूल सकते। सम्पूर्ण विश्व का विद्वेष लेकर भी हम अपनी सिंधु में सम्बन्ध विच्छेद सहन नहीं करेंगे। उसे मुक्त कराना हमारा कर्तव्य है।
सिंधु रहित हिन्दू, अर्थ रहित शब्द, प्राण रहित देह, यह असंभव है, व्यर्थ है। ऐ सिंधु नदी! महाराष्ट्र एक अन्तराल से तेरे अमित प्रेम में मोहित है। एक समय था, जब तू हमसे बिछुड़ गई थी। तब परतंत्रता के बंदी बास से तुझे मुक्त कराने के लिए महाराष्ट्र की चतुरंगिणी सेना उत्तर दिशा पर चढ़ आई थी। उत्तर दिग्विजय प्राप्त करने के लिए बाजीराव नर्मदा पार कर चंबल तक जा पहुंचे थे। वह दिल्ली पर भी चढ़ बैठे। हमारे जयिष्णु अश्वों ने माँ यमुना का जल पिया था, गंगा का पावन-पवित्र पय पान किया था, जिसके बल पर वे आगे बढ़ पाए थे। वे सतलुज पार कर गए, झेलम तैर गए, मलेच्छों को पदाक्रान्त करके कटक पार पहुँचे और वहां भगवा हिन्दू ध्वज लहरा दिया। तेरी तीर पर तेरा पावन पवित्र पथ आकंठ प्राशन करने पर ही उनकी विजय तृष्णा क्षण-भर शांत हुई।
“ए सिंधु! माँ सुरसेविनी सिंधु! तेरे पवित्र तट पर हमारे प्राचीनतम वैदिक ऋषियों ने वेदों की प्रथम ऋचा का साम गायन किया था। जिसके पुण्य सलिल से हमने संध्या वन्दना की, अध्र्य दिया और असीम आदर से देवताओं को स्थान दिया, उस पर सुन्दर-सुन्दर काव्यों सुमनों के अंजलि अर्पण की, ऐसी पुन्यसलिला माँ सिंधु! तुझे हम कैसे विस्मृत कर दें? तुझे अन्य लोग भले ही विस्मृत कर दें, किन्तु यह महाराष्ट्र, अकेला महाराष्ट्र, फिर एक बार उठ कर तुझे विमुक्त करके ही रहेगा। इसलिए मैं कहता हूँ
“ऐ सिंधु! मुक्त करेगी तुझे
महाराष्ट्र की रक्तबिंदु!”
इस भाषण में भारत विभाजन का प्रसंग आने पर वीर सावरकर भावुक होकर रो पड़े थे तथा सिंधु नदी को स्मरण करते हुए उनका वियोगजन्य आवेग फूट-फूटकर रोने से सहसा ही एक विचित्र रूप में अभिव्यक्त हुआ था। यह देखकर अनेक श्रोताओं का भी अश्रु प्रवाह उमड़ पड़ा।
समारोह के अंत में अनेक क्रांतिकारियों ने अखंड भारत की स्थापना का संकल्प लिया। इस समारोह के बाद एक वर्ष तक महाराष्ट्र के सभी प्रमुख नगरों का भ्रमण किया गया तथा व्याख्यान दिए। इन व्याख्यानों में जनता स्वेच्छा से जो चंदा देती थी, उस धनराशि को क्रांतिकारी स्मारक निधि में जमा कर दिया जाता था। बाद में इस धन से नासिक में अभिनव भारत मंदिर का निर्माण हुआ।

हिन्दू का सैनिकीकरण व राजनीतिकरण हो
भारत की स्वतंत्रता हेतु सावरकर के संघर्ष का मुख्य लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना था। वह अहिंसा में कदापि विश्वास नहीं करते थे। उन का एक दृढ़ मत था कि सम्मानपूर्ण जीवन तथा स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हिन्दुओं को युद्ध शिक्षा में निपुण होना चाहिए। हिन्दू महासभा का वर्ष 1955 का अधिवेशन जोधपुर में हुआ। अस्वस्थ होते हुए भी वीर सावरकर ने इस अधिवेशन में भाग लिया इसमें उन्होंने अपने उक्त सिद्धांत को दोहराते हुए कहा—“जब तक देश की राजनीति का हिन्दूकरण तथा हिन्दू का सैनिकीकरण नहीं होगा, तब तक भारत की स्वाधीनता, उसकी सीमाएं, उसकी सभ्यता एवं संस्कृति कदापि सुरक्षित नहीं रह सकेगी। मेरी हिन्दू नवयुवकों से यही प्रार्थना है, आदेश है कि वे अधिकाधिक संख्या में सेना में भर्ती होकर शस्त्र-विद्या का ज्ञान प्राप्त करें, जिससे वे समय पड़ने पर अपनी स्वाधीनता में योगदान दे सकें।”

गोवा-मुक्ति और वीर सावरकर
भारत की स्वतंत्रता के कई वर्षों बाद तक गोवा पर पुर्तगाल सरकार का अधिकार रहा। वीर सावरकर को यह बात सदा काँटे की तरह खटकती थी कि भारत गोवा पर अधिकार क्यों नहीं करता गोवा की मुक्ति के लिए सर्वप्रथम आवाज सावरकर ने ही उठाई थी उन्होंने अहमदाबाद के हिन्दू महासभा अधिवेशन में कहा था— “हम हिन्दुस्तान की पूर्ण स्वाधीनता चाहते हैं। ‘फ्रैंच हिन्दुस्तान’, ‘पोर्चुगीज हिन्दुस्तान’, इन नामों का उच्चारण भी हमारे कानों के लिए असहाय एवं हमारी मूर्खता का प्रतीक है। इस कृत्रिम और बलपूर्वक किये हुए राजकीय विभाजन को हमें पूर्णतया समाप्त करके अखंड हिन्दुस्तान बनाने की शपथ लेनी चाहिए। हम हिन्दुओं को दृढ़ता के साथ घोषित करना चाहिए कि कश्मीर से लेकर रामेश्वरम तक सिंधु से आसाम तक एक अखंड, संयुक्त एवं अभिन्न ने हिन्दुस्तान ही हमें मान्य होगा। हमें गोवा, पांडिचेरी आदि को पुर्तगाली दासता से मुक्त कराने के लिए भी संघर्ष करना चाहिए।”
गोवा की मुक्ति के लिए एक बार 1946 में भी आंदोलन हो चुका था। 1955 में हिन्दू महासभा के जोधपुर अधिवेशन के कुछ ही दिनों गोवा-मुक्ति आंदोलन प्रारंभ हो गया। सारे देश से सत्याग्रहियों के दल गोवा जाने लगे। हिन्दू महासभा, जनसंघ, रामराज्य परिषद् आदि इस आंदोलन में सम्मिलित हुए। मेरठ से गोवा जाने बाला हिन्दू महासभा का एक दल बम्बई रुका वीर सावरकर का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उनसे मिला। इस दल में दैनिक ‘प्रभात’ (मेरठ) के सम्पादक श्री विनोद भी थे। उन्होंने सावरकर से विचार-विमर्श किया। इस पर सावरकर ने कहा— “आप क्रान्ति भूमि मेरठ से इतनी दूर गोवा की मुक्ति की अभिलाषा से गोलियाँ खाने, बलिदान देने आए हो, यह आप लोगों की देश भक्ति का परिचायक है, किन्तु सशस्त्र पुर्तगाली दानवों अनुभव के समक्ष आप निशस्त्र खाली हाथ मरने को जाओ, इससे नीति को न मैंने कभी ठीक समझा और न अब समझता हूं। जब आप लोगों के ह्रदय में बलिदान देने की महान भावना है, तो आप लोग हाथ में राइफ़लें लेकर क्यों नहीं जाते शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर जाओ और शत्रु को मार कर ही मृत्यु को प्राप्त करो। गोवा-मुक्ति का कार्य सरकार को सेना को सौंप देना चाहिए। सशस्त्र सैनिक कार्यवाही से ही गोवा मुक्त होगा। सत्याग्रह के स्थान पर शास्त्राग्रह से ही सफलता प्राप्त होगी।
वीर सावरकर की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। सत्याग्रही दल वहां बार-बार गए, किन्तु अंत में भारत सरकार को सेना भेजनी पड़ी तथा इस कार्रवाई के परिणाम स्वरूप जनवरी 1961 में गोवा स्वतंत्र हुआ। इस समाचार को सुनकर वीर सावरकर अत्यंत प्रसन्न हुए अस्वस्थ होने पर भी उन्होंने स्वयं उठकर अपने निवास स्थान पर भगवा पताका फहराई।
कश्मीर की मुक्ति के आंदोलन में भी वीर सावरकर ने योगदान दिया था। जब डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में यह आंदोलन चला, तो उन्होंने हिन्दू महासभा की कार्यकारिणी को आदेश दिया था कि इस आंदोलन में डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की सहायता की जाए। परिणामस्वरूप इस आंदोलन में हिन्दू महासभा ने अपने छः सौ कार्यकर्ताओं भेजे थे। इस आंदोलन में डाक्टर मुखर्जी बंदी बना लिए गए थे तथा कारागार में ही उनका देहांत हो गया था। डॉक्टर मुखर्जी की इस अकाल मृत्यु से वीर सावरकर को अत्यंत दुःख हुआ है। स्पष्ट है कि वीर सावरकर जीवन पर्यन्त अखंड भारत के लिए प्रयत्नशील रहे।

तिलक जन्म शताब्दी समारोह
1956 में तिलक की जन्म शताब्दी समग्र भारत में अत्यंत श्रद्धा तथा उत्साह से मनाई गई। इस उपलक्ष्य में सभी स्थानों पर समारोह हुए। पूना में तिलक जन्म शताब्दी समारोह में वीर सावरकर ने भी भाषण दिया। इस भाषण का ध्वनि मुद्रण ( टेपरिकार्डिंग ) किया गया।
लोकमान्य तिलक कांग्रेस की दब्बू नीति के प्रबल विरोधी थे। वह व्यर्थ में मुसलिम तुष्टिकरण की नीति से भी सर्वथा असहमत थे। इससे पूर्व 28 मई, 1946 को अमरावती ने भी हिन्दू महासभा ने उत्साह के साथ उनकी 90 वीं जन्मतिथि का समारोह मनाया था। इस अवसर पर वीर सावरकर को तीन लाख रुपयों की थैली भेंट स्वरूप प्रदान की थी। इस अवसर पर किसी ने उनसे प्रश्न किया था—“आपने कांग्रेस में सम्मिलित होना क्यों अस्वीकार कर दिया? जबकि आपके प्रेरणा स्रोत लोकमान्य तिलक कांग्रेस में थे।”
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वीर सावरकर ने कहा था—“यह बात सत्य है कि महात्मा तिलक कांग्रेस में थे, किन्तु यह भी सही है कि महात्मा तिलक की कांग्रेस ने किसी पक्ष के साथ पक्षपात नहीं किया। जब समय को ‘वेटेज’ नहीं दिया गया और न देश भक्ति का बाजारू रूप। ‘बिना अहिंसा के स्वाधीनता असम्भव है’, इस पर मूर्खतापूर्ण भाषा का उच्चारण तक उन दिनों किसी ने नहीं किया था। महात्मा तिलक कांग्रेस में थे और मैंने तिलक जी से देश भक्ति की शिक्षा-दीक्षा ली है तथा उन्हीं की शिक्षा-दीक्षा पर मैं आज तक चल रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि उनके सिद्धांतों से मैंने कभी वे व्यभिचार नहीं किया। मैं सदा निष्पक्ष और वे निर्भीक विचारों के पक्ष में रहा हूँ। हिन्दू महासभा तो पूर्णरूप से महात्मा तिलक की ही नीति पर चल रही है। यदि कांग्रेस महात्मा तिलक की नीति पर चलती रहती, तो मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ उसमें सम्मिलित हो जाता। “
1857 स्वतंत्रता संग्राम शताब्दी समारोह
10 मई, 1957 को भारत में 1857 की स्मृति में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी मनाई गई। इस अवसर पर दिल्ली में आर्य समाज की ओर से आर्य समाज मंदिर दीवना हॉल में विशेष समारोह हुआ। इस समारोह के संयोजक तत्कालीन आर्य समाज सार्वदेशिक सभा के मंत्री ( वर्तमान में प्रधान ) लाला रामगोपाल शालवाले थे। इसमें वीर सावरकर का श्रद्धा सहित अभिनंदन किया गया। उस दिन व रामलीला मैदान में आयोजित एक विशाल सार्वजनिक सभा में अपने नागरिक अभिनंदन का उत्तर देते समय उन्होंने सैन्य शक्ति के महत्व का प्रतिवाद करते हुए कहा— हमारे सम्मुख और दो आदर्श हैं एक आदर्श हैं। एक बुद्ध का, दूसरा है युद्ध का। हमें बुद्ध या युद्ध में से एक को अपनाना होगा। वह हमारी दूरदर्शिता पर निर्भर है कि हम बुद्ध की आत्मघाती नीति अपनाएं या युद्ध की विजयप्रदायिनी नीति को।”
इस भाषण में उन्होंने एक स्थान पर निम्नलिखित उद्गार व्यक्त किए—“आज तक किसी जिस किसी व्यक्ति ने मेरा साथ दिया है, उसे या तो कालापानी, देश निर्वासन या फाँसी मिली है। इससे अधिक मैं किसी को कुछ दिला भी नहीं सका। आप लोग मेरा विचार करके मुझसे क्या आशा करते हैं, मैं नहीं जानता। मुझे तो इस बात की प्रसन्नता है कि मेरे जीवन में ही मेरा लक्ष्य पूरा हो गया पूर्ण गया अंग्रेज यहाँ से चले गए और भारत स्वतंत्र हो गया। देश की स्वतंत्रता को अवश्य अक्षुण्ण रखना और इसे समृद्धि के शिखर पर पहुँचाना आप लोगों का काम है। जहां तक मेरा संबंध है, मैं इतना ही कह सकता हूं कि मुझे अपने भाग्य पर कोई पश्चाताप नहीं है।
दूसरे दिन 11 मई को वीर सावरकर ने हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं को जलपान के लिए आमंत्रित किया। इस अवसर पर उन्होंने भयंकरतम परिस्थितियों में भी अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने वाले उन कार्यकर्ताओं के कार्यों की प्रशंसा की तथा उन्हें विश्वास के साथ अखंड भारत की स्थापना हेतु आगे बढ़ते रहने का संदेश दिया—“...आप लोग धन्यवाद के पात्र हैं, जो आज की विषम एवं विपरीत परिस्थितियों में भी हिन्दू ध्वज के नीचे में डटे हुए खड़े हैं। विगत गत 20 वर्षों में जिन्होंने मुझे नेता मानकर अपमान और दरिद्रता को सहकर भी हिन्दू समाज को बलवान बनाने हेतु कष्ट उठाए, उन्हें में कुछ भी नहीं दे सका। अपना सब कुछ बलिदान करके भी आप मेरे साथ है आपकी दृढ़ता, अडिगता और सिद्धांतनिष्ठा देखकर मैं प्रसन्न हूं। इस हिन्दू ध्वज को कंधे पर रख कर आगे बढ़िये। मैं जानता हूँ कि यह संघर्ष सरल नहीं है, किन्तु मैं पूर्ण आशावादी हूँ, निराशावादी नहीं। आप लोग पूर्ण आशा और विश्वास के साथ आगे बढ़िएगा। अंतिम विजय हमारी है। मैं केवल यह चाहता हूँ कि आप में से प्रत्येक व्यक्ति केवल एक बात का चिंतन करता रहे कि यदि मैं अकेला रहूंगा तब भी अपने अखंड हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए अंत तक संघर्षरत रहूंगा।

वीर सावरकर मृत्युन्जय समारोह
दिसम्बर, 1910 तथा जनवरी, 1911 में वीर सावरकर को दो जन्म कारावास का दंड मिला था। इस घटना को 50 वर्ष पूर्ण हो चुके थे। उस समय जब यह दंड सुनाया गया था, किसी को भी आशा नहीं की कि वह पुनः अण्डमान की कालकोठरी से लौटकर भारत आएंगे। सौभाग्य से वह भारत लौट आए और उन्हें स्वतंत्र और भारत को देखने का अवसर भी मिला। इस सुखद विषय के उपलक्ष्य में 24 दिसम्बर, 1960 को सम्पूर्ण भारत में तथा इसके बाद, 1961 को हिन्दू महासभा ने पूना में भी वीर सावरकर मृत्युन्जय समारोह आयोजन किया। इस समारोह में आपसी मतभेदों तथा सिद्धांत भिन्नता भुलाकर सभी राजनीतिक दलों ने भाग लिया।
इस समारोह में प्रसिद्ध क्रांतिकारी नेता श्री एस. एस. जोशी, सेनापति वापट, श्री भाऊराव मोडक, श्री केलकर, लोकमान्य तिलक के पौत्र श्री जयंतराव तिलक आदि ने वीर सावरकर के व्यक्तित्व तथा उनके कार्यों की प्रशंसा में व्याख्यान दिए। सभी व्यक्तियों ने अपने व्याख्यानों में वीर सावरकर को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अपराजित सेनानायक बताया तथा उनके दीर्घजीवन की कामना की। अन्य स्थानों पर भी लोगों ने अपने भाषणों में वीर सावरकर के कार्यों की प्रशंसा की।

चीन के आक्रमण पर प्रतिक्रिया
वीर सावरकर बार-बार सैन्यीकरण का उद्घोष करते रहे, किन्तु भारत के राजनीतिक कर्णधारों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पंचशील और विश्व शांति का राग अलापने में लगे रहे। उन्होंने चीन से मित्रता करके समझ लिया कि भारत जैसे शांति प्रिय देश पर कोई भी देश आक्रमण नहीं करेगा। वीर सावरकर ने भारत सरकार को सूचित किया कि चीन पर इतना भरोसा करना नहीं चाहिए। इसके साथ ही 1960 में पूना की एक सभा में भी उन्होंने भारत सरकार को चीन से सावधान रहने की चेतावनी दी थी। उनका यह वक्तव्य हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठी के प्रमुख समाचार पत्रों में ‘उपेक्षित वाणी’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ, किन्तु सत्ता के मद में अंधे सत्ताधारियों ने इसकी पूर्णतया उपेक्षा कर दी, और अंत में 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया।
वयोवृद्ध क्रांतिकारी वीर सावरकर इस समय अस्वस्थ थे। इसी युद्ध का समाचार सुनकर उनका हृदय व्यतीत हो उठा। इस अवसर पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा– “काश, अहिंसा पंचशील एवं विश्व शांति के भ्रम में फंसे ये सत्ताधारी मेरे परामर्श को मानकर सर्वप्रथम राष्ट्र का सैनिकीकरण कर देते, तो आज हमारी वीर एवं पराक्रमी सेना चीनियों को पीकिंग तक खदेड़ कर उनका मद चूर-चूर कर देती। किन्तु अहिंसा और विश्व शांति की काल्पनिक उड़ान भरने वाले ये ‘महापुरुष’ न जाने कब तक देश के सम्मान को अहिंसा की कसौटी पर कसकर परीक्षण करते रहेंगे।
व्यर्थ के आदर्शवाद से वीर सावरकर को घृणा थी। अतः उन्होंने भारत सरकार के ‘परमाणु बम न बनाएंगे’ नीति की तीव्र आलोचना की थी। इस नीति को देश के भविष्य के लिए घातक बताते हुए उन्होंने कहा था—“भारत के शासनाधिकारियों को यह अच्छी प्रकार से समझ लेना चाहिए कि आज के युग में ‘जिसकी सेना (शक्ति) सुदृढ़ हैं, उसका राज सुरक्षित है’ का सिद्धांत ही व्यवहारिक है। यदि हमारे शत्रु चीन के पास अणुबम है, हाइड्रोजन बम है, तो हमने उसका सामना करने के लिए उससे भी अधिक शक्तिशाली बमों के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। ‘हम अणुबम कदापि न बनाएंगे’ की घोषणा मूर्खता और कायरता की परिचायक है।
चीन के आक्रमण के समय श्री कृष्णमेनन भारत के रक्षामंत्री थे। उनके विषय में कहा जाता है कि वह छिपे हुए कम्युनिस्ट थे। इस आक्रमण में भारत को पराजय का सामना करना पड़ा। चीन की सेना भारतीय सीमा में काफ़ी आगे बढ़ा आई थी, अतः उन्हें इस पद से हटाकर श्री यशवंतराव बलवंतराव चह्वाण रक्षामंत्री बनाए गए थे। उन्हें बधाई संदेश भेजते हुए वीर सावरकर ने लिखा था— “आप वीर भूमि महाराष्ट्र के निवासी हैं, अतः मुझे दृढ़ विश्वास है कि आपके नेतृत्व में हमारा रक्षा विभाग अविलंब शक्तिशाली एवं दृढ़ नीति अपनाकर राष्ट्र की स्वाधीनता की रक्षा में पूर्ण समर्थ होगा।“
चीन के आक्रमण के बाद भारत सरकार की आँखें खुली। भारत सरकार ने सैन्य शक्ति बढ़ाने का निर्णय लिया। वीर सावरकर को इस निर्णय से प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा कम से कम पच्चीस लाख सैनिकों की नियमित सेना बनाओ और उसे आधुनिकतम शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित करो। इसके साथ ही उन्होंने सरकार को प्रत्येक युवक को अनिवार्य शिक्षा देने का परामर्श दिया।
इस युद्ध के छिड़ जाने पर कुछ कांग्रेसी नेताओं को वीर सावरकर द्वारा इससे पूर्व बार-बार दी गई चेतावनी का महत्व ज्ञात हुआ। उनके पूर्वलेख उपेक्षित वाणी की चेतावनी से प्रभावित होकर महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल श्री प्रकाश ने युद्ध आरम्भ होने के कुछ ही दिन बाद केंद्रीय नेतृत्व के कोप की चिन्ता न करते हुए वीर सावरकर से मिलने उनके पास आए। उन्होंने उक्त लेख के महत्व को स्वीकार किया तथा वीर सावरकर की दूरदर्शिता की प्रशंसा की।

सरकार द्वारा आर्थिक सहायता
वीर सावरकर ने मातृभूमि को स्वाधीन कराने के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। मात्रभूमि की स्वाधीनता ही उनका एक मात्र लक्ष्य था, इसके बदले में उन्होंने कभी कोई अपेक्षा नहीं की, वस्तुतः वह एक निष्काम कर्मयोगी थे। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात भी देश की सत्ताधारियों ने उन्हें वह स्थान नहीं दिया, जिसके वे सर्व प्रकारेण अधिकारी थे। सन् 1965 में जाकर महाराष्ट्र तथा केंद्र की सरकारों ने उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान की, जबकि अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को, जिनका त्याग एवं बलिदान वीर सावरकर की तुलना में बिलकुल ही नगण्य था, बहुत पहले ही पेंशन तथा अन्य प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की जा चुकी थीं। उनमें से कई तो छोटे बड़े पदों पर सत्ता का सुख भोग रहे थे। इतने वर्षों के पश्चात आर्थिक सहायता देने पर अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचय देते हुए संसद सदस्य आबिद अली जाफ़र ने संसद में इस विषय पर आपत्ति करते हुए प्रश्न उठाया कि ‘सावरकर को सरकार द्वारा आर्थिक सहायता क्यों दी जा रही है।‘ इस पर सरकार को स्वीकार करना पड़ा कि ‘हम उन्हें स्वतंत्रता सेनानी मानते हैं।‘

पाकिस्तानी आक्रमण पर प्रतिक्रिया
सन् 1962 में चीनी आक्रमण के बाद 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। रोग शय्या पर पड़े वीर सावरकर का ह्रदय कांग्रेस की तुष्टीकरण तथा पाक के प्रति असावधानी की नीति के इस परिणाम से चीत्कार कर उठा। उस समय श्री लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे। उनकी कुशल युद्ध नीति के कारण युद्ध में भारतीय सेना को अच्छी सफलता मिली। वह पाकिस्तानी सेना को डोगराई, कारगिल तथा हाजीपीर के दर्रे से पीछे खदेड़ की हुई लाहौर तक पहुँच गई।
इस आक्रमण के समय प्रायः 82 वर्षीय रुग्ण सावरकर नियमित रूप से समाचार पढ़ते रहते थे। भारतीय सेना की विजयों का समाचार प्राप्त होने पर वह हर्षित हो उठते। अपनी शय्या पर लेटे-लेटे बाद दीवार पर टंगे मानचित्र की ओर संकेत करते हुए कहते— “इस स्थान पर शत्रु हमारे जाल में गिर जाएगा। यदि थोड़ी ही तेजी से हमारी विजयवाहिनी सेना आगे बढ़ी, और एक बार लाहौर हाथ में आ गया, तो फिर रावलपिंडी क्या हम काबुल तक जीत सकते हैं।
इस विजय से अखंड भारत के इस साधक को अपनी साधना पूर्ण होती दिखाई देने लगी। उन्हें प्रतीत होने लगा कि उनकी ‘मेरी अंत्येष्टि सिन्धु नदी के तट पर हो’ इच्छा पूर्ण हो जाएगी, अतः उस समय उन्होंने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को बधाई देते हुए भारत विभाजन की भूल का प्रतिकार कर लेने का परामर्श दिया— “अब समय आ गया है कि हम सन् 1947 में भारत और पाकिस्तान के विभाजन को स्वीकार करने की भूल को सुधार लें।”
भारतीय सेना निरन्तर विजयश्री प्राप्त करती हुई आगे बढ़ती जा रही थी कि उसे युद्ध विराम का आदेश दिया गया। भारतीय वीरों के आगे बढ़ते चरण रुक गए। भारत सरकार का यह निर्णय वीर सावरकर को आत्मघाती तथा मूर्खतापूर्ण लगा। उनकी सारी प्रसन्नता लुप्त हो गई। उन्हें गहरा मानसिक आघात लगा। उनका विषाद उनकी इस प्रतिक्रिया में अभिव्यक्त हो उठा— “हजारों हिन्दू युवकों ने अपना बलिदान देकर जो विजयश्री प्राप्त की थी, ये गाँधीवादी नेता उसे गंवा देंगे। अब इनसे किंचित भी आशा करना व्यर्थ है।“
इस निराशा से वीर सावरकर को जो आघात लगा, वह उनकी वृद्धावस्था तथा उनके जीवन के लिए घातक सिद्ध हुआ।
सप्तम अध्याय : चिर-निद्रा
अस्वस्थता
वृद्ध शरीर, कई वर्षों से अनवरत अस्वस्थता तथा विजय की ओर अग्रसर होने पर भी भारतीय सैनिकों को रोक दिया जाना और ताशकन्द समझौता इन सब घटनाओं ने वीर सावरकर को गंभीर रूप से अस्वस्थ कर दिया। मृत्यु अवश्यम्भावी है यह विचार कर इस अस्वस्थता में उन्होंने ताशकंद समझौते के पश्चात दबा लेना भी छोड़ दिया। इस पर परिवार जनों का चिंतित होना स्वाभाविक ही था। उन्होंने हर संभव प्रयत्न किया कि वीर सावरकर दवा ले लें, किन्तु सफलता नहीं मिली। डॉक्टर साठे उनके परम मित्र और निजी चिकित्सक थे। वही इस समय चिकित्सा कर रहे थे। वीर सावरकर का औषधि न लेने का हठ देखकर परिवार के सभी सदस्यों को बड़ी निराशा हुई। सभी असमंजस में थे कि किस युक्ति से औषधि दी जाए। वीर सावरकर के पुत्र श्री विश्वास सावरकर, भतीजे विक्रम सावरकर तथा निजी सचिव श्री बाल सावरकर ने विचार किया कि चाय में मिलाकर औषधि दे दी जाए। अतः डॉक्टर से परामर्श लेकर चाय में मिलाकर औषधि दी गई किन्तु वीर सावरकर को संदेह हो गया कि ऐसा किया जा रहा है अतः उन्होंने चाय लेना भी अस्वीकार कर दिया और कहा— “चाय में औषधि देते हो, तो चाय भी नहीं लूंगा। मैं जीवित ही नहीं रहना चाहता। अब मुझे जीवित रहकर करना ही क्या है मेरा जो कर्तव्य था, उसे निभा चुका हूँ।”
फिर भी डॉक्टर साठे बाह्य परीक्षण नियमित रूप से करते रहते थे। एक दिन वीर सावरकर उन से बोले—“ साठे! अब औषधोपचार की कोई आवश्यकता नहीं। तुम मेरे परम स्नेही मित्र तथा चिकित्सक हो। आज तक मैं तुम्हारी सभी बातें मानता आया हूं, अब तुम मेरी एक अंतिम बात मान लो। मुझे कोई ऐसी दवा दे दो जिसके बाद मुझे फिर न बोलना पड़े।
अखंड भारत के उपासक वीर सावरकर के इन शब्दों को सुनकर डॉक्टर साठे अवर्णनीय वेदना हुई। वीर सावरकर की अस्वस्थता का समाचार सुनकर द्वारिका पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य उनके दर्शन के लिए स्वयं सावरकर सदन पधारे। शय्या पर लेटे-ही-लेटे इस परमस्वतंत्रवीर ने शंकराचार्य का अभिवादन तथा अभिनंदन किया। उनके हजारों प्रशंसक तथा मित्र उनका कुशलक्षेम पूछने आते रहते थे। शय्या पर लेटे वीर को देखकर सभी का ह्रदय भर आता था।

महाप्रयाण
वीर सावरकर की स्थिति निरंतर बिगड़ती गई और 26 फरवरी 1966 की प्रातः स्पष्ट प्रतीत होने लगा कि उनका अंतिम समय समीप ही आ गया है। चिकित्सक अपना कर्तव्य निभाने में लग गये। आक्सीजन दी गई तथा सुइयां लगीं, किन्तु सब व्यर्थ रहा। दिन में 11 बजे वीर सावरकर अपनी अनंत यात्रा के लिए महाप्रयाण कर गये, चिरनिंद्रा में सो गये।
स्वतंत्रता का आलोक बिखेरने वाले इस ज्योतिपुंज के अवसान का समाचार सुनकर सम्पूर्ण जगत शोक के समुद्र में डूब गया। विश्व की एक निरुपम विभूति जिसने समस्त सांसारिक सुखों को तुच्छ मानकर उनका परित्याग कर दिया था, जिसने मात्रभूमि के गौरव को सुरक्षित करने के लिए कंटकाकीर्ण पथ का वरण किया था, जिसके अदम्य राष्ट्र प्रेम तथा उत्साह के समक्ष विश्व की सभी बाधाएँ हारकर नतमस्तक हो गईं थीं। उस परमवीर पुरुष को चिर निंद्रा में सोया देख निश्चित ही भारत माँ मूक स्वर में चीत्कार कर उठी होगी। जो सदा सिंध प्रांत तथा सिंधु नदी की मुक्ति का संकल्प करता और कराता था, उस सपूत के शोक में निःसन्देह पुण्यसलिला सिंधु ने अपने अव्यक्त कलकल निनाद में करुण क्रन्दन किया होगा। सावरकर ने अपने जीवनकाल में स्पष्ट निर्देश दिए गए थे कि उनकी मृत्यु पर हड़ताल अथवा काम बंद, कुछ भी न किया जाए, क्योंकि इन सब से राष्ट्र को हानि होती है।

अंतिम दर्शनों के लिए अपार भीड़
वीर सावरकर का पुष्पों से ढका हुआ पार्थिव शरीर दर्शनार्थियों के लिए ‘सावरकर सदन’ के एक कक्ष में रख दिया गया। आज शिवाजी पार्क क्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को ‘सावरकर सदन’ कहां है?’ यह पूछने की भी आवश्यकता नहीं थी। लगता था, समस्त मुंबई शहर ही वहीं उमड़ता हुआ चला आ रहा है। अपार जनसमूह नितांत शांत और अनुशासित रूप में अपने प्रिय स्वतंत्रता सेना नायक के दर्शनों के लिए आ रहा था। लगभग आधी मील एक लंबी पंक्ति में स्वतंत्रता सेनानी थे। इन दर्शनार्थियों में वृद्ध भी थे, प्रौढ़ भी, युवक भी, किशोर भी, बच्चे भी तथा स्त्री पुरुष सभी थे। सभी शोकाकुल थे, ह्रदयों में असीम वेदना थी, मन में अपार श्रद्धा की भावना थी। सभी की आँखों में अपने प्रिय वीर सावरकर के स्थाई वियोग के आंसू थे कोई आंसू पोंछ रहा था, कोई सुबकता हुआ दिखाई दे रहा था, उनके पार्थिव शरीर को देखकर कोई चिन्तन में डूब जाता, तो किसी के रुदन का वेग रोकने पर भी नहीं रुक पाता था। कैसी विडम्बना है, स्वतंत्रता की सिंह गर्जना करने वाला अद्वितीय वीर आज सदा-सर्वदा के लिए मौन हो गया था। जो अपने जीवन में सदा क्रान्ति के कांटों भरे रास्तों पर चलता रहा, आज उसी का पार्थिव शरीर पुष्पमंडित पड़ा था।

शवयात्रा
26 फ़रवरी की दोपहर से 27 फ़रवरी के दोपहर बाद लगभग तीन बजे तक पार्थिव शरीर दर्शनार्थियों के लिए रखा रहा। 27 फ़रवरी दोपहर के तीन बजे के पश्चात शवयात्रा का उपक्रम होने लगा। विशेष रूप से सुसज्जित एक ट्रक, जिसकी छत पर सामने एक पुरानी तोप रखी थी और उन दोनों ओर एक-एक अन्य तोपें थीं, सावरकर सदन लाया गया। इसके बाद वीर सावरकर का पार्थिव शरीर इस ट्रक में रख दिया। इस समय उपस्थित दर्शनार्थियों ने ‘वीर सावरकर अमर रहें’ ‘स्वातन्त्र्य लक्ष्मी की जय’ और ‘हिन्दू राष्ट्र की जय’ के नारों का उद्घोष किया। हिन्दू महासभा के दरवाजे में लिपटे पार्थिव शरीर को ट्रक में रखते समय एक बम्बई के महापौर माधवन ने उन पर पुष्पमालाएं चढ़ाईं। निवास स्थान सावरकर सदन से शवयात्रा प्रारम्भ हुई, तब वहां कई क्षेत्रों के अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति को उपस्थित थे जिनमें प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक निर्देशक व्ही. शान्ताराम, महाराष्ट्र विधानसभा के विपक्ष के नेता श्री गोमटे, आचार्य पी.के. अत्रे आदि के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। इससे पूर्व सुबह से दर्शन करने के लिये भी कई प्रसिद्ध राजनेता बुद्धिजीवी तथा अन्य क्षेत्रों के व्यक्ति आ चुके थे। इनमें महाराष्ट्र प्रदेश के एक मंत्री बालासाहेब, मुम्बई विश्वविद्यालय के कुलपति डॉक्टर आर.वी. साठे, महाराष्ट्र प्रचार विभाग के निदेशक डॉक्टर पिटके, पी.के. सावंत, केसरी के ट्रस्टी, भाऊराव मोडक रख तथा प्रसिद्ध समाजवादी नेता जार्ज फ़र्नांडिस के नाम उल्लेखनीय हैं।
शवयात्रा प्रारंभ हुई। पार्थिव शरीर वाहक ट्रक में वीर सावरकर का विशाल तैलचित्र भी लगाया गया था। दो लाख लोगों का विशाल समूह चल पड़ा। ट्रक के आगे-पीछे, दाहिने बाएं चारों ओर ‘वीर सावरकर अमर रहें’, ‘हिन्दू धर्म की जय’, ‘हिन्दू राष्ट्र की जय’ इत्यादि लिखे हुए पोस्टर लगे हुए थे। शवयात्रा में चलने वाले लोग भी गगनभेदी स्वरों में इन नारों का उद्घोष कर रहे थे। ट्रक में लगा हुआ ध्वनि प्रसारक ( लाउडस्पीकर ) इन नारों को द्विगुणित कर रहा था। शवयात्रा के सबसे आगे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष नित्यनारायण बनर्जी, भारतीय जनसंघ के नेता श्री बच्छराज व्यास तथा कम्युनिस्ट नेता श्री डांगे चल रहे थे। शवयात्रा ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती जा रही थी, उसमें सम्मिलित होने वाले लोगों कि संख्या भी बढ़ती जा रही थी। मार्ग में दिवंगत वीर सावरकर के अंतिम दर्शनों के लिए लोग पहले से ही अपेक्षा कर रहे थे। सड़क के दोनों और हर धर्म के, हर आस्था के व्यक्ति फुटपाथों पर, दुकानों में, छतों पर, जिसे जहाँ सुलभ था, जमे हुए थे। शवयात्रा में दोनों और व्यवस्था बनाए रखने के लिये बाँहों में स्वास्तिक चिह्नयुक्त भगवा पट्टियाँ बाँधे स्वयं सेवक कतारबद्ध होकर चल रहे थे। शवयात्रा शिवाजी पार्क क्षेत्र से आरंभ होकर रानाडे रोड, केलकर रोड, तिलक पुल होती हुई लाल बाग़ पहुंची फिर वहां से मुंबई सेन्ट्रल, ग्रांड रोड, ओपेरा हाउस, निरगांव रोड़ होती हुई चन्दनवाडी शवदाहगृह गई।

अंत्येष्टि
चन्दनवाड़ी पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई थी। यहां सावरकर का पार्थिव शरीर शवदाह ट्रक से उतारा गया और श्री नित्य नारायण बनर्जी, आचार्य पी.के. अत्रे, श्री बच्छराज, जी.एस. सरदेसाई आदि ने दिवंगत क्रान्तिवीर को अपनी श्रद्धांजलि समर्पित की। इसके पश्चात वीर सावरकर का पार्थिव शरीर बिजली की चिता पर रख दिया गया। थोड़ी ही देर बाद बिजली के प्रचण्ड तेज ने इस अनुपम तेजस्वी व्यक्ति के पार्थिव शरीर को अपने में विलीन कर लिया।
शवयात्रा में सम्मिलित जनसमुदाय भारी मन और अश्रुपूरित आँखों से वापस लौट आया। इस प्रकार एक युगपुरुष अथवा एक इतिहास निर्माता का भौतिक शरीर पंचभूतों में विलीन हो गया।

वीर सावरकर का मृत्यु पत्र
वीर सावरकर की किसी अन्य से तुलना करना, उनके महत्व को कम कर देने के समान होगा। उनका सब कुछ अपने राष्ट्र को समर्पित था। वह राष्ट्र प्रेम के पर्याय हैं। उनका मृत्यु पत्र ( वसीयत ) इस बात को और भी अधिक पुष्ट करता है कि वह अपनी हानि सहर्ष रह सकते थे, किन्तु राष्ट्र की थोड़ी से भी हानि उन्हें असहाय थी। उन्हें विश्वास था कि उनकी मृत्यु के पश्चात लोग बंद का आवाहन करेंगे अथवा हड़ताल करेंगे। इस सब से राष्ट्र को आर्थिक हानि होगी। अतः उन्होंने अपने निकटस्थ व्यक्तियों से स्पष्ट कह दिया था कि उनकी मृत्यु के पश्चात बंद अथवा हड़ताल न की जाए। इसके साथ ही श्रद्धा में अपव्यय को भी उन्होंने निषेध कर दिया था। अपने श्राद्ध की अपेक्षा उन्हें हिन्दू धर्म के प्रचार की चिंता थी, अतः इस कार्य के लिए भी वह कुछ धनराशि की व्यवस्था कर गए। उनके मृत्यु पत्र के महत्वपूर्ण अंश निम्नलिखित हैं— मेरी मृत्यु पर हड़ताल न की जाए, न किसी भी कार्यक्रम में बाधा डाली जाए, जिससे देश की हानि हो। मेरे श्राद्ध का धन बचाकर हिन्दू धार्मिक संस्थाओं को दान में दिया जाए, मैं अपने निजी कोष से पाँच हजार रुपए शुद्धि आंदोलन के लिये भेंट करता हूँ। हिन्दुओं को शुद्धि आंदोलन को सुचारु रूप से चलाते रहना चाहिए।
अपनी मृत्यु के पश्चात भी व राष्ट्र की हानि न हो, ऐसे उदात्त विचार वीर सावरकर जैसे महान पुरुषों के ही हो सकते हैं यदि वह ऐसा निर्देश न दे जाते तो संभव था कि उनकी मृत्यु के पश्चात भारत सरकार द्वारा उनके प्रति किए गए व्यवहार के विरोध में युवकों का आक्रोश व्यक्त हो जाता। ऐसे महान “स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर” को शत-शत नमन।


Share:

Shri Tulsi Chalisa and Aarati in Hindi & English श्री तुलसी चालीसा और आरती हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में



  
॥दोहा॥
जय जय तुलसी भगवती सत्यवती सुखदानी।
नमो नमो हरि प्रेयसी श्री वृन्दा गुन खानी॥
श्री हरि शीश बिरजिनी, देहु अमर वर अम्ब।
जनहित हे वृन्दावनी अब न करहु विलम्ब॥

॥चौपाई॥
धन्य धन्य श्री तुलसी माता। महिमा अगम सदा श्रुति गाता॥
हरि के प्राणहु से तुम प्यारी। हरीहीँ हेतु कीन्हो तप भारी॥
जब प्रसन्न है दर्शन दीन्ह्यो। तब कर जोरी विनय उस कीन्ह्यो॥
हे भगवन्त कन्त मम होहू। दीन जानी जनि छाडाहू छोहु॥
सुनी लक्ष्मी तुलसी की बानी। दीन्हो श्राप कध पर आनी॥
उस अयोग्य वर मांगन हारी। होहू विटप तुम जड़ तनु धारी॥
सुनी तुलसी हीँ श्रप्यो तेहिं ठामा। करहु वास तुहू नीचन धामा॥
दियो वचन हरि तब तत्काला। सुनहु सुमुखी जनि होहू बिहाला॥
समय पाई व्हौ रौ पाती तोरा। पुजिहौ आस वचन सत मोरा॥
तब गोकुल मह गोप सुदामा। तासु भई तुलसी तू बामा॥
कृष्ण रास लीला के माही। राधे शक्यो प्रेम लखी नाही॥
दियो श्राप तुलसिह तत्काला। नर लोकही तुम जन्महु बाला॥
यो गोप वह दानव राजा। शङ्ख चुड नामक शिर ताजा॥
तुलसी भई तासु की नारी। परम सती गुण रूप अगारी॥
अस द्वै कल्प बीत जब गयऊ। कल्प तृतीय जन्म तब भयऊ॥
वृन्दा नाम भयो तुलसी को। असुर जलन्धर नाम पति को॥
करि अति द्वन्द अतुल बलधामा। लीन्हा शंकर से संग्राम॥
जब निज सैन्य सहित शिव हारे। मरही न तब हर हरिही पुकारे॥
पतिव्रता वृन्दा थी नारी। कोऊ न सके पतिहि संहारी॥
तब जलन्धर ही भेष बनाई। वृन्दा ढिग हरि पहुच्यो जाई॥
शिव हित लही करि कपट प्रसंगा। कियो सतीत्व धर्म तोही भंगा॥
भयो जलन्धर कर संहारा। सुनी उर शोक उपारा॥
तिही क्षण दियो कपट हरि टारी। लखी वृन्दा दुःख गिरा उचारी॥
जलन्धर जस हत्यो अभीता। सोई रावन तस हरिही सीता॥
अस प्रस्तर सम ह्रदय तुम्हारा। धर्म खण्डी मम पतिहि संहारा॥
यही कारण लही श्राप हमारा। होवे तनु पाषाण तुम्हारा॥
सुनी हरि तुरतहि वचन उचारे। दियो श्राप बिना विचारे॥
लख्यो न निज करतूती पति को। छलन चह्यो जब पारवती को॥
जड़मति तुहु अस हो जड़रूपा। जग मह तुलसी विटप अनूपा॥
धग्व रूप हम शालिग्रामा। नदी गण्डकी बीच ललामा॥
जो तुलसी दल हमही चढ़ इहैं। सब सुख भोगी परम पद पईहै॥
बिनु तुलसी हरि जलत शरीरा। अतिशय उठत शीश उर पीरा॥
जो तुलसी दल हरि शिर धारत। सो सहस्त्र घट अमृत डारत॥
तुलसी हरि मन रञ्जनी हारी। रोग दोष दुःख भंजनी हारी॥
प्रेम सहित हरि भजन निरन्तर। तुलसी राधा में नाही अन्तर॥
व्यन्जन हो छप्पनहु प्रकारा। बिनु तुलसी दल न हरीहि प्यारा॥
सकल तीर्थ तुलसी तरु छाही। लहत मुक्ति जन संशय नाही॥
कवि सुन्दर इक हरि गुण गावत। तुलसिहि निकट सहसगुण पावत॥
बसत निकट दुर्बासा धामा। जो प्रयास ते पूर्व ललामा॥
पाठ करहि जो नित नर नारी। होही सुख भाषहि त्रिपुरारी॥



॥दोहा॥
तुलसी चालीसा पढ़ही तुलसी तरु ग्रह धारी। दीपदान करि पुत्र फल पावही बन्ध्यहु नारी॥
सकल दुःख दरिद्र हरि हार ह्वै परम प्रसन्न। आशिय धन जन लड़हि ग्रह बसही पूर्णा अत्र॥
लाही अभिमत फल जगत मह लाही पूर्ण सब काम। जेई दल अर्पही तुलसी तंह सहस बसही हरीराम॥
तुलसी महिमा नाम लख तुलसी सूत सुखराम। मानस चालीस रच्यो जग महं तुलसीदास॥


Shri Tulsi Chalisa in English
(श्री तुलसी चालीसा अंग्रेजी में)

॥Doha॥
jay jay tulasee bhagavatee satyavatee sukhadaanee.
namo namo hari preyasee shree vrnda gun khaanee.
shree hari sheesh birajinee, dehu amar var amb.
janahit he vrndaavanee ab na karahu vilamb.

॥Chaupai॥
dhany dhany shree tulasee maata. mahima agam sada shruti gaata.
hari ke praanahu se tum pyaaree. hareeheen hetu keenho tap bhaaree.
jab prasann hai darshan deenhyo. tab kar joree vinay us keenhyo.
he bhagavant kant mam hohoo. deen jaanee jani chhaadaahoo chhohu.
sunee lakshmee tulasee kee baanee. deenho shraap kadh par aanee.

us ayogy var maangan haaree. hohoo vitap tum jad tanu dhaaree.
sunee tulasee heen shrapyo tehin thaama. karahu vaas tuhoo neechan dhaama.
diyo vachan hari tab tatkaala. sunahu sumukhee jani hohoo bihaala.

samay paee vhau rau paatee tora. pujihau aas vachan sat mora.
tab gokul mah gop sudaama. taasu bhee tulasee too baama.

krshn raas leela ke maahee. raadhe shakyo prem lakhee naahee.
diyo shraap tulasih tatkaala. nar lokahee tum janmahu baala.
yo gop vah daanav raaja. shankh chud naamak shir taaja.
tulasee bhee taasu kee naaree. param satee gun roop agaaree.
as dvai kalp beet jab gayoo. kalp trteey janm tab bhayoo.

vrnda naam bhayo tulasee ko. asur jalandhar naam pati ko.
kari ati dvand atul baladhaama. leenha shankar se sangraam.
jab nij sainy sahit shiv haare. marahee na tab har harihee pukaare.
pativrata vrnda thee naaree. kooo na sake patihi sanhaaree.
tab jalandhar hee bhesh banaee. vrnda dhig hari pahuchyo jaee.

shiv hit lahee kari kapat prasanga. kiyo sateetv dharm tohee bhanga.
bhayo jalandhar kar sanhaara. sunee ur shok upaara.
tihee kshan diyo kapat hari taaree. lakhee vrnda duhkh gira uchaaree.
jalandhar jas hatyo abheeta. soee raavan tas harihee seeta.
as prastar sam hraday tumhaara. dharm khandee mam patihi sanhaara.
yahee kaaran lahee shraap hamaara. hove tanu paashaan tumhaara.
sunee hari turatahi vachan uchaare. diyo shraap bina vichaare.
lakhyo na nij karatootee pati ko. chhalan chahyo jab paaravatee ko.
jadamati tuhu as ho jadaroopa. jag mah tulasee vitap anoopa.
dhagv roop ham shaaligraama. nadee gandakee beech lalaama.
jo tulasee dal hamahee chadh ihain. sab sukh bhogee param pad paeehai.
binu tulasee hari jalat shareera. atishay uthat sheesh ur peera.
jo tulasee dal hari shir dhaarat. so sahastr ghat amrt daarat.
tulasee hari man ranjanee haaree. rog dosh duhkh bhanjanee haaree.
prem sahit hari bhajan nirantar. tulasee raadha mein naahee antar.
vyanjan ho chhappanahu prakaara. binu tulasee dal na hareehi pyaara.
sakal teerth tulasee taru chhaahee. lahat mukti jan sanshay naahee.
kavi sundar ik hari gun gaavat. tulasihi nikat sahasagun paavat.
basat nikat durbaasa dhaama. jo prayaas te poorv lalaama.
paath karahi jo nit nar naaree. hohee sukh bhaashahi tripuraaree.


॥Doha॥
tulasee chaaleesa padhahee tulasee taru grah dhaaree.
deepadaan kari putr phal paavahee bandhyahu naaree.
sakal duhkh daridr hari haar hvai param prasann.
aashiy dhan jan ladahi grah basahee poorna atr.
laahee abhimat phal jagat mah laahee poorn sab kaam.
jeee dal arpahee tulasee tanh sahas basahee hareeraam.
tulasee mahima naam lakh tulasee soot sukharaam.
aanas chaalees rachyo jag mahan tulaseedaas.


जय जय तुलसी माता
सब जग की सुख दाता, वर दाता
जय जय तुलसी माता ।।

सब योगों के ऊपर, सब रोगों के ऊपर
रुज से रक्षा करके भव त्राता
जय जय तुलसी माता।।

बटु पुत्री हे श्यामा, सुर बल्ली हे ग्राम्या
विष्णु प्रिये जो तुमको सेवे, सो नर तर जाता
जय जय तुलसी माता ।।

हरि के शीश विराजत, त्रिभुवन से हो वन्दित
पतित जनो की तारिणी विख्याता
जय जय तुलसी माता ।।

लेकर जन्म विजन में, आई दिव्य भवन में
मानवलोक तुम्ही से सुख संपति पाता
जय जय तुलसी माता ।।

हरि को तुम अति प्यारी, श्यामवरण तुम्हारी
प्रेम अजब हैं उनका तुमसे कैसा नाता
जय जय तुलसी माता ।।


Share: