डाकू रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि (Maharishi Valmiki)





इंसान की अगर इच्छा शक्ति उसके साथ हो तो वह कोई भी काम बड़े आराम से कर सकता है। इच्छा शक्ति और दृढ़ संकल्प इंसान को रंक से राजा बना देती है और एक अज्ञानी को महान ज्ञानी। भारतीय इतिहास में आदि कवि महर्षि वाल्मीकि जी की जीवन कथा भी हमें दृढ़ संकल्प और मजबूत इच्छा शक्ति अर्जित करने की तरफ अग्रसर करती है। कभी रत्नाकर के नाम से चोरी और लूटपाट करने वाले वाल्मीकि जी ने अपने संकल्प से खुद को आदि कवि के स्थान तक पहुंचाया और “वाल्मीकि रामायण” के रचयिता बने। आइए आज इन महान कवि की जीवन यात्रा पर एक नजर डालें।

दस्यु (डाकू) रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि(Maharishi Valmiki)
पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय में एक रत्नाकर नाम का दस्यु था जो अपने इलाके से आने-जाने वाले यात्रियों को लूटकर अपने परिवार का भरण पोषण करता था। एक बार नारद मुनि भी इस दस्यु के शिकार बने। जब रत्नाकर ने उन्हें मारने का प्रयत्न किया तो नारद जी ने पूछा – तुम यह अपराध क्यों करते हो?
रत्नाकर: अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए? नारद मुनि: अच्छा तो क्या जिस परिवार के लिए तुम यह अपराध करते हो वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार है ?
इसको सुनकर रत्नाकर ने नारद मुनि को पेड़ से बांध दिया और प्रश्न का उत्तर जानने के लिए अपने घर चला गया। घर जाकर उसने अपने परिवार वालों से यह सवाल किया लेकिन उसे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कोई भी उसके पाप में भागीदार नहीं बनना चाहता।

घर से लौटकर उसने नारद जी को स्वतंत्र कर दिया और अपने पापों का प्रायश्चित करने की मंशा जाहिर की। इस पर नारद जी ने उसे धैर्य बँधाया और राम नाम जप करने का उपदेश दिया। लेकिन भूल वश वाल्मीकि राम-राम की जगह ‘मरा-मरा’ का जप करते हुए तपस्या में लीन हो गए। इसी तपस्या के फलस्वरूप ही वह वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुए और रामायण की महान रचना की।

संस्कृत का पहला श्लोक
महर्षि वाल्मीकि के जीवन से जुड़ी एक और घटना है जिसका वर्णन अत्यंत आवश्यक है। एक बार महर्षि वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेम करने में लीन था। पक्षियों को देखकर महर्षि वाल्मीकि न केवल अत्यंत प्रसन्न हुए, बल्कि सृष्टि की इस अनुपम कृति की प्रशंसा भी की। इतने में एक पक्षी को एक बाण आ लगा, जिससे उसकी जीवन -लीला तुरंत समाप्त हो गई। यह देख मुनि अत्यंत क्रोधित हुए और शिकारी को संस्कृत में कुछ श्लोक कहा। मुनि द्वारा बोला गया यह श्लोक ही संस्कृत भाषा का पहला श्लोक माना जाता है।

मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥
(अरे बहेलिये, तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है।जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पाएगी)

वाल्मीकि रामायण महर्षि वाल्मीकि ने ही संस्कृत में रामायण की रचना की। उनके द्वारा रची रामायण वाल्मीकि रामायण कहलाई। रामायण एक महाकाव्य है जो कि श्रीराम के जीवन के माध्यम से हमें जीवन के सत्य से, कर्तव्य से, परिचित करवाता है। वाल्मीकि रामायण में भगवान राम को एक साधारण मानव के रूप में प्रस्तुत किया गया है। एक ऐसा मानव, जिन्होंने संपूर्ण मानव जाति के समक्ष एक आदर्श उपस्थित किया। रामायण प्राचीन भारत का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है।


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बिल्वपत्र का महत्व एवं प्रयोग



बिल्व (बेल) पत्र का महत्व एवं प्रयोग
Bael (Aegle marmelos), also known as Bengal quince, golden apple, stone apple, wood apple, bili.


बिल्व (बेल )पत्र

बिल्व (बेल ) फल

मान्यता है कि शिव को बिल्व-पत्र चढ़ाने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। दरअसल बिल्व-पत्र एक पेड़ की पत्तियां हैं, जो आमतौर पर तीन-तीन के समूह में मिलती हैं। कुछ पत्तियां पांच के समूह की भी होती हैं लेकिन ये बड़ी दुर्लभ होती हैं। बिल्व को बेल भी कहते हैं। वास्तव में ये बिल्व की पत्तियां एक औषधि है। इसके औषधीय प्रयोग से हमारे कई रोग दूर हो जाते हैं। बिल्व के पेड़ का भी विशिष्ट धार्मिक महत्व है। कहते हैं कि इस पेड़ को सींचने से सब तीर्थो का फल और शिवलोक की प्राप्ति होती है।

महादेव का रूप है वृक्ष.बिल्व वृक्ष का धार्मिक महत्व है। कारण यह महादेव का ही रूप है। धार्मिक परंपरा में ऐसी मान्यता है कि बिल्व के वृक्ष के मूल अर्थात जड़ में लिंगरूपी महादेव का वास रहता है। इसीलिए बिल्व के मूल में महादेव का पूजन किया जाता है। इसकी मूल यानी जड़ को सींचा जाता है। इसका धार्मिक महत्व है। धर्मग्रंथों में भी इसका उल्लेख है-
बिल्वमूले महादेवं लिंगरूपिणमव्ययम्।
य: पूजयति पुण्यात्मा स शिवं प्राप्नुयाद्॥
बिल्वमूले जलैर्यस्तु मूर्धानमभिषिञ्चति।
स सर्वतीर्थस्नात: स्यात्स एव भुवि पावन:॥
शिव पुराण १३/१४
अर्थ- बिल्व के मूल में लिंगरूपी अविनाशी महादेव का पूजन जो पुण्यात्मा व्यक्ति करता है, उसका कल्याण होता है। जो व्यक्ति शिवजी के ऊपर बिल्वमूल में जल चढ़ाता है उसे सब तीर्थो में स्नान का फल मिल जाता है।

बिल्व-पत्र तोड़ने का मंत्रबिल्व-पत्र को सोच-विचार कर ही तोड़ना चाहिए। पत्ते तोड़ने से पहले यह मंत्र बोलना चाहिए-
"अमृतोद्भव श्रीवृक्ष महादेवप्रिय: सदा।
गृह्णामि तव पत्राणि शिवपूजार्थमादरात् ॥"
अर्थ- अमृत से उत्पन्न सौंदर्य व ऐश्वर्यपूर्ण वृक्ष महादेव को हमेशा प्रिय है। भगवान शिव की पूजा के लिए हे वृक्ष में तुम्हारे पत्र तोड़ता हूं।


पत्तियां कब न तोड़ें - विशेष दिन या पर्वो के अवसर पर बिल्व के पेड़ से पत्तियां तोड़ना मना है। शास्त्रों के अनुसार इसकी पत्तियां इन दिनों में नहीं तोड़ना चाहिए-

सोमवार के दिन
चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या की तिथियों को।
संक्रांति के पर्व पर।
अमारिक्तासु संक्रान्त्यामष्टम्यामिन्दुवासरे ।
बिल्वपत्रं न च छिन्द्याच्छिन्द्याच्चेन्नरकं व्रजेत ॥ - (लिंगपुराण)अर्थ - अमावस्या, संक्रान्ति के समय, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों तथा सोमवार के दिन बिल्व-पत्र तोड़ना वर्जित है।


क्या चढ़ाया गया बिल्व-पत्र भी चढ़ा सकते हैं-शास्त्रों में विशेष दिनों पर बिल्वपत्र चढ़ाने से मना किया गया है तो यह भी कहा गया है कि इन दिनों में चढ़ाया गया बिल्व-पत्र धोकर पुन: चढ़ा सकते हैं।

अर्पितान्यपि बिल्वानि प्रक्षाल्यापि पुन: पुन:।
शंकरायार्पणीयानि न नवानि यदि चित्॥ (स्कन्दपुराण, आचारेन्दु)
अर्थ- अगर भगवान शिव को अर्पित करने के लिए नूतन बिल्व-पत्र न हो तो चढ़ाए गए पत्तों को बार-बार धोकर चढ़ा सकते हैं।

विभिन्न रोगों की कारगर दवा :बिल्व-पत्र-बिल्व का वृक्ष विभिन्न रोगों की कारगर दवा है। इसके पत्ते ही नहीं बल्कि विभिन्न अंग दवा के रूप में उपयोग किए जाते हैं। पीलिया, सूजन, कब्ज, अतिसार, शारीरिक दाह, हृदय की घबराहट, निद्रा, मानसिक तनाव, श्वेतप्रदर, रक्तप्रदर, आंखों के दर्द, रक्तविकार आदि रोगों में बिल्व के विभिन्न अंग उपयोगी होते हैं। इसके पत्तो को पानी से पकाकर उस पानी से किसी भी तरह के जख्म को धोकर उस पर ताजे पत्ते पीसकर बांध देने से वह शीघ्र ठीक हो जाता है।

पूजन में महत्व- वस्तुत: बिल्व पत्र हमारे लिए उपयोगी वनस्पति है। यह हमारे कष्टों को दूर करती है। भगवान शिव को चढ़ाने का भाव यह होता है कि जीवन में हम भी लोगों के संकट में काम आएं। दूसरों के दुःख के समय काम आने वाला व्यक्ति या वस्तु भगवान शिव को प्रिय है। सारी वनस्पतियां भगवान की कृपा से ही हमें मिली हैं अत: हमारे अंदर पेड़ों के प्रति सद्भावना होती है। यह भावना पेड़-पौधों की रक्षा व सुरक्षा के लिए स्वतः प्रेरित करती है।

पूजा में चढ़ाने का मंत्र- भगवान शिव की पूजा में बिल्वपत्र यह मंत्र बोलकर चढ़ाया जाता है। यह मंत्र बहुत पौराणिक है।
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्।
त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥
अर्थ- तीन गुण, तीन नेत्र, त्रिशूल धारण करने वाले और तीन जन्मों के पाप को संहार करने वाले हे शिवजी आपको त्रिदल बिल्व पत्र अर्पित करता हूं।


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बेल पत्र का उपयोग शिव जी की आराधना में क्यों किया जाता है?



सावन महीने में भगवन शिव की आराधना की जाती है| सारे सनातनी गंगा की पवित्र जल से भगवन शिव का अभिषेक करते है| शिव की पूजा में गंगा जल, बेल पत्र, चन्दन, दूध, घतुरा अदि चीजो का इस्तेमाल किया जाता है| आज हमें जानने की जरुरत है की इन सबके पीछे कौन सी वैज्ञानिक सोच है|
बिल्व (बेल ) - Bael (Aegle marmelos)

बेल का पेड़ एक औषधि का वृक्ष है जिसमे अनेको ऐसे औशाधिये गुण है जो मानव को स्वस्थ तो रख ही सकते है साथ ही पर्यावरण को भी स्वच्क्ष रखा सकते है| बेल पर्त्रो में अनेको ऐसे तत्वा मिलते है जो की कीटाणु और विषाणु नाशक है जैसे की सल्फर, फास्फोरस आदि|अब हम बेल पत्र के उपयोग की पूरी प्रक्रिया को समझते है| सबसे पहले भक्त बेल पत्र को इकठ्ठा करने की लिए सुबह उठ कर आस पास के बगीचे में जाता है जहा उसे टहलने के क्रम में घास पर टहल कर जाना होता है जिससे उसे स्वस्थ लाभ मिलता है घास पर पारी ओस की बूंदों से वो काफी स्वस्थ महसूस करता है साथ ही उसके आँखों जी ज्योति भी बढती है|  इसके उपरत हाथो से जब वो बेल पत्रों को तोरता है तो ओस की बूंदों को स्पर्श करता है जिससे वो और भी तरोताजा महसूस करता है तिन पत्ती बेल पत्रों को को इकठ्ठा करने के क्रम में भी उसे अनेको लाभी मिलते है|

पूजा करते समय बेल पत्रों को जल के साथ शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है| और भक्त पुरे मन से शिव की आराधना करते है| जिससे की भक्त को एक अलोकिक सुख मिलता है| संध्या कल को मंदिर का पुजारी सारे पुष्प और बेल पत्रों को एकत्र करके पास के नदी या तालाब में ड़ाल देता है| जैसा की हम लोग जानते है सावन में जोरो की बारिश होती है और ये बारिश का पानी सभी जगह के गंदगियो को बहा कर अपने साथ नदियों और तालाब में ले आता है| इस गंदगी के वजह से सारे नदी और तलब गंदे हो जाते है और उसमे रहने वाले जीव जंतु मरने लगते है| इसलिए तालाब को साफ रखने के लिए कोई भी कारगर उपाय नहीं होता है| इसलिए उसमे बैल पत्र द्वारा साफ और स्वच्क्षा रखा जाता है|

बैल पत्रों में निहित तत्व गंदगियो को समेट कर नदी के किनारों पर जमा करने लगती और तालाब में इन गंदगियो को समेट कर तालाब के तली में और किनारों पर जमा करने लगती है जिससे की नदी और तालाब साफ हो जाते है| उसके दूषित तत्व पानी से अलग हो जाते है और उसका पानी निर्मल हो जाता है साथ है उसमें औषधीय गुण भी आ जाते है जो त्वचा रोग को ठीक कर सकता है|

अतः मुर्ख लोगों द्वारा कहा जाना की ये सिर्फ एक रूढ़िवादिता है एक बहुत बड़ी मूर्खता है| सनातन धर्म के विज्ञान को समझाने की जरूरत है जो की हमारे फायदे के लिए बनाया गया है| ताकि हम अपना जीवन स्वस्थ रख सके साथ ही वातावरण को भी स्वस्थ रख सके|



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हिन्दू धर्म की वर्णव्यवस्था एवं उसका समत्व मूलक सिद्धांत



हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था एवं उसका समत्व मूलक सिद्धांत

हिन्दू धर्म का सर्वोच्च सिद्धांत अहिंसा, दया, क्षमा, सत्य, समत्व, संयम, सहिष्णुता आदि के आचरण का है।
वेद कहते है-
सर्वं खल्विदं ब्रह्म= यह सब परमात्मा का ही रूप है।
सर्वे भवन्तु सुखिन:= सभी का कल्याण हो, सभी सुखी होवे।
सियाराम मय सब जग जानी= सम्पूर्ण जगत सीता राम मय समझो।

भगवान श्रीकृष्ण कहते है-
मयाततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना//
अव्यक्त मुर्ती मेरे द्वारा सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। सर्वत्र आत्म भाव, सर्वत्र परमात्मा हि हिन्दू धर्म का मूल मंत्र है।

भगवान श्री कृष्ण कहते है-
विद्याविनयसपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनी /
शुनिचैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन: // ५।१//
सम: सर्वेषु भूतेशु मद्भक्तिं लभते नर://१८।५४//

ज्ञान एवं ज्ञान जन्य विनय से संपन्न ब्राह्मन में, गाय में, हाथी में, कुत्ते में एवं हिंसा वृत्ति से जीवन जीने वाले लोगों में भी जो समत्व रूप भगवान के दर्शन करता है और जिनके दृष्टि में छोटा-बड़ा, उच्च- नीच, छूत- अछूत आदि का भेद नही है। यही ज्ञानी सर्वोच्च व्यक्ति है। वही मेरे भक्ति को प्राप्त करता है। यह हिन्दू धर्म का मूल सर्वोच्च सिद्धांत है।

विषमता, घृणा, उच्च नीच आदि की वर्तमान निम्न मानसिकता विकृत हुई वर्ण व्यवस्था का अंग है। यह प्राचीन समय में समत्व मूलक एवं लोकोपकारी व्यवस्था रही है। यह मनु से भी पहले वेदोक्त है। मनु उसके केवल योजनाकार है। पित्री पुरुष समदर्शी आदि मनु की वर्तमान मनुस्मृति भी कालांतर के स्वार्थ पूर्ण लोगों के द्वारा विकृत है। क्योंकि वर्त्तमान की मनुस्मृति में जो बाते लिखी है वह आदि मनु कह ही नही सकते। उनकी वह व्यवस्था पहले जन्म पर आधारित थी नकि कर्म पर। मनु का वचन है:-
जन्मना जायते शुद्र: संस्कारात द्विज उच्यते //
प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शुद्र= लघु, बिज की तरह पैदा होता है। परन्तु वह अपनी जैविक ऊर्जा, बौद्धिक क्षमता, अनुकूल शिक्षा एवं सम्यक दीक्षा के द्वारा समाज के योग्य बड़ा बनता है।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:// गुण= व्यक्ति का स्वभाव एवं कर्म= तत्तत कर्म, काम करने की योग्यता के अनुसार व्यक्ति का परिचय बनता है। आगे बढ़ने का जन्म तो एक प्रकार से अवसर है। जन्म के बाद व्यक्ति क्या बनेगा इसकी दिशा उसको तय करनी है।
मूल रूप में वर्ण व्यवस्था का प्राचीन रूप केवल योग्यता के अनुसार कार्य का नियोजन मात्र था। कर्म की योग्यता एवं बौद्धिक सूझबूझ पर आधारित सब के लिए समान काम का बंटवारा ही उसका मूल मंत्र था। उस में किसी भी प्रकार विषमता, घृणा, उच्च नीच भाव आदि निम्न मानसिकता नही थी।
व्यवस्था को कार्य की दृष्टि से ब्राह्मन= शिक्षक वर्ग, क्षत्रिय= सैनिक वर्ग, वैश्य= व्यापारी वर्ग और शुद्र= मजदूर वर्ग में विभक्त किया गया है। कुछ संयमी, तितिक्षु, अपरिग्रही, विनयी, त्यागी, विरागी, जिज्ञासु प्रवृति के लोग ब्राह्मण= शिक्षक बन जाते थे। उनका काम था स्वयं संयम, त्याग में रहते हुए ज्ञान को पाना और चारों वर्णों के हित में उन्हें ज्ञान देना, धार्मिक कर्म करना और कराना, भोगविलासी वस्तुओं के संग्रह से दूर रहना। वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को धन, संपत्ति आदि के संग्रह का अधिकार नही था।। वे संयमी, अपरिग्रही लोग आजीवन भिक्षावृत्ति से जीवन यापन किया करते थे|
जो लोग आस्तिक, बलिष्ठ, साहसी, उदार, समाज एवं राष्ट्र की रक्षा के लिए तत्पर थे वे क्षत्रिय= सैनिक बन एवं शासक बन जाते थे। उनका काम था जीवन को हथेली पर रखकर धर्म की, चारो वर्ण के लोगों की एवं अपने राष्ट्र की रक्षा करना। इनको भोग विलास की वस्तुएं रखने एवं धर्म, समाज एवं राष्ट्र रक्षा के लिए धन संग्रह करने का अधिकार था।
वैश्य= व्यापारी वह समुदाय था जो व्यापार के तत्व को समझने में समर्थ था। उसका काम था कृषि, गौ पालन एवं व्यापार के द्वारा चारों वर्णों की आवश्यकता की सभी वस्तुएं उत्पन्न करना और उसका सब जगह आवश्यकता के अनुसार समान रूप से वितरित करना। वह धर्म पूर्वक धन का संग्रह समाज एवं राष्ट्र की रक्षा के लिए कर सकता था।
शेष बचे हुए लोग शुद्र= मजदूर के रूप में समाज के दृढ़ अंग बन जाते थे। इनका कार्य था सर्विस=सेवा करना। इन्हें वेद में भगवान के पैरों से उत्पन्न कहा है।
पद्भ्यां शूद्रो अजायत// शुद्र= मजदूर भगवान के पैर से उत्पन्न हुए है क्योंकि वे सम्पूर्ण शरीर के आधार पैर की तरह समाज का आधार है।
ब्राह्मन शिक्षा का, क्षत्रिय रक्षा का और वैश्य व्यापार का काम भी मजदूर के बिना नही कर सकता है। इनका काम था शिक्षा, रक्षा एवं व्यापार में मदत करना और योग्यता के अनुसार उस भूमिका के लिए भी अपने को तयार करना। यह समाज अर्थ शास्त्र एवं सर्व समाज था आधार स्तम्भ था। इनका प्रमुख रूप से बारह बलौतदार के रूप में वर्णन है -

१) सूत्रकार= दरजी= वस्त्रों का निर्माण करना, वस्त्र सिलना आदि।
२) कुम्भकार= मिटटी, काष्ठ आदि के जीवनोपयोगी पात्र बनाना,
३) चर्मकार= चर्म सम्बन्धी काम करना। चमड़ी के जूते, चप्पल, बैग, पानी ले आने जाने वाले मशक, पात्र, वाद्य यन्त्र के उपकरण, तलवार की मेन आदि बनाना।
४) तेली= तिल, मूंगफली, सरसों, नारियल, चमेली आदि सभी प्रकार के तेलों को निकलना।
५) माली= फुल को पैदा करना, सूत, तुलसी, चन्दन, मोती आदि की मालाओंको बनाना एवं बुनना।
६) तम्बोली= सुपारी, पान, सौंप आदि मुख शुद्धी के साधन बनाना, ताम्बुल बनाकर लोगों को खिलाना।
७) लोहकार (लोहार)= लोहे के दैनिक उपयोग में आने वाले उपकरण, खेत में काम आने वाले औजार एवं सेना के उपयोगी अस्त्र-शस्त्र आदि बनाना,
८) सुवर्णकार= सुवर्ण के गले, नाक, कान, हाथ, पैर आदि में पहने जाने वाले अलंकार, मुकुट आदि बनाना।
९) सुतार = बड़ई= लकड़ी के घर, गृहोपयोगी सामान, रथ, बैलगाडी आदि बनाना।
१०) नाइ= सौन्दर्य प्रसादन की सामुग्री तयार करना एव केश को काटना, उसकी साज-सज्जा आदि करना।
११) मिस्त्री= घर, महल, मंदिर, धर्मशालाएं, कुंए, किल्ले आदि बनाना।
१२) धोबी= वस्त्रों को धुलाना, उनको रंग देना आदि काम करना।और भी बहुत से काम थे वे सब मिलजुलकर एक परिवार की तरह करते थे।

जीवनोपयोगी सामग्री को एवं युद्ध के सामुग्री को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने आने आदि का काम भी यहि समुदाय करता था। इन्हे काम के बदले पर्याप्त मात्रा में आजीविका की सामुग्री, जमीने, घर आदि उपहार के रूप में दिए जाते थे।
ब्राह्मन और शुद्र की सुरक्षा, आजीविका एवं जीवनोपयोगी सामुग्री का दायित्व क्षत्रिय और वैश्य का था। इनके भूखे रहने या मांग कर खाने से क्षत्रिय और वैश्य अपना अपमान, पाप समझते थे। भिक्षा केवल सभी वर्णों के साधु, गुरुकुल के सभी ब्रह्मचारी प्रशिक्षु एवं अपरिग्रही ब्राह्मन की आजीविका थी। जो उन्हें आत्मनिर्भर, निश्चिन्त और निरभिमान बनाती थी।
वे सनातन हिन्दू लोग अति तितिक्षु , सहनशील, धर्म परायण, संतुष्ट एवं अंतर्मुखी प्रवृत्ति के थे। वे असुविधाजनक स्थिति में होते हुए भी अपने अपने काम को पूर्ण समर्पण के साथ धर्म समझकर सम्पन्न किया करते थे। उन में परस्पर प्रेम था। विवाह, सुख दुःख आदि में वे एक दुसरे की मदत किया करते थे।
मैंने स्वयं अपने गाँव में देखा है। चारो वर्णों के लोग बड़े ही प्रेम से रहते थे। बड़े वृद्ध शुद्र जनों को भी हम कम उम्र वाले लोग प्रणाम करते थे। ज्ञान से ब्राह्मन, बल से क्षत्रिय, धन से वैश्य और उमर से शुद्र को पूज्य, बड़ा माना जाता है। साल के अंत में कुम्भार, चर्मकार, नाउ आदि सभी लोग अपना अपना हिस्सा लेने के लिए खेत में आ जाए करते थे। उन्हें खेत से ही किसानों से साल भर से भी ज्यादा अनाज, घास आदि मिल जाता था। वे व्रत, उत्सव, त्यौहार, उपवास, यज्ञ, विवाह, पम्पराएँ आदि सब मिलकर मनाते थे।
वे सभी लोग भगवान को सामने रखकर अर्थ और काम का धर्म पूर्वक उपयोग करते थे।। उनके लिए धर्म से बड़ी दूसरी कोई चीज नहीं थी। संसारिक संतोष एवं उससे पूर्ण वैराग्य के क्रमिक विकास हेतु शास्त्र ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ कहे है।ये चारो मानव मात्र के जीवन के समान उद्देश्य है। काम और अर्थ का मूल धर्म है।काम और अर्थ को धर्म,नीति सम्मत होना चाहिए। तभी वह मोक्ष के प्रति कारण बनेगा, समाज सुखी होगा।उसको मोक्ष मिलेगा।
मोक्ष अर्थात आत्मबोध के फलस्वरूप अज्ञान के साथ सम्पूर्ण मानवीय अज्ञान, जलन, घृणा, ईर्ष्या, राग द्वेष आदि कमियों का समूल उछेद।
धर्म के आश्रय से नैतिक नियमों के द्वारा लोग व्यवहार को नियमित, संयमित किया जाता है। अपने मन, वाणी, इंद्रियों आदि का संयम कर अपने अपने विश्वास के अनुसार भगवान, देवी, देवताओं आदि का पूजन, पाठ, यज्ञ, दान आदि क्रियाओं के द्वारा अपना भाव समर्पित करना धर्म है। यहाँ तक की भगवान का रूप समझकर पेड़ पौधों का पूजन, सब के साथ प्रेम पूर्वक आचरण भी एक धर्म की क्रिया का ही अंग है।
मानवीय संकृति उनके रहन सहन, खान पान, पहनावा, भाषा, व्यापार, कला, संगीत एवं तकनीकी आदि के रूप में झलकती है। एक समय यह भारतीय धर्म एवं संस्कृति अत्यधिक समृद्ध थी। उस समय यह देश सोने की चिड़िया कहलाता था। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी उन्नत परंपरा से जुड़ा हुआ था। गुरु नानक देव जी, गुरु रविदास जी, चैतन्य महाप्रभु। आदि शंकराचार्य, तुलसीदास जी, भगवान बुद्ध, भगवान रामकृष्ण, भगवान ऋषभदेव आदि महापुरुषों की अति समृद्ध परम्परा इस देश में प्रवाहित हो रही थी।
हमारे पूर्वजों की यह बात अत्यधिक प्रशंसनीय थी की वे एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति के सिद्धांत का अनुसरण करते हुए। विभिन्न विचारों पर एक जगह बैठकर विचार विमर्ष करते हुए दूसरे के सद विचारों का सम्मान करते थे। उनकी अनेकता में एकता ही सबसे बड़ी शक्ति थी। उनमें विपरीत विचारों को भी सुनने एवं उसको पचाने का सामर्थ्य था।एक ही घर में, एक ही परिवार में कोई रामकृष्ण को मानता तो कोई बुद्ध को,कोई शिव को मानता तो कोई महावीर को, कोई गुरु नानक को कोई कबीर को। सभी लोग इस सत्य को जानते थे की जाना वही है, पाना वही है, केवल रास्ते अलग दिख रहे है। उनके विभिन्न विचार भी उनके प्रेम को स्थाई रूप से तोड़ने में समर्थ नहीं थे। उन में मतभेद थे लेकिन मति भेद नहीं।
इसीलिए इस देव भूमि भारत में अनेको मत मतान्तर स्वतंत्र रूप में विकसित हो सके। इस देश के शांति प्रिय विवेकी मनीषियों ने राम, कृष्ण, शिव, बुद्ध, महावीर, गुरु नानक देव, संत कबीर, गुरु रविदास जी जैसे अवतारी महा पुरुषों को बड़े ही आदर से स्वीकार किया और उन के विचारों को आगे बढ़ाया। ईसा मसीह, सुकरात, मंसूर, हुसैन साहब जैसे महा पुरुष इस देश की हिन्दू आर्य भूमि में पैदा हुए होते तो यह देश उन्हें सूली पर नहीं चढ़ाता, अपितु उनको अति उल्लास से अपने शिर माथे पर बैठा कर उन के विचारों को आगे बढ़ता।
इतने महान विचारों एवं आचरण वाला महा पुरुषों का यह देश, समाज सामाजिक वैमनस्य पूर्ण भेदभाव एवं अपने लोगों के साथ असहिष्णुता को कैसे प्राप्त हुआ? संभवत: इसका प्रमुख कारण अपनी कमजोरी और बाहरी आक्रमण रहा है। बुद्ध, शंकर, महावीर का यह देश धर्म प्रधान हो गया था। शस्त्र का स्थान शास्त्र ले चुका था। यह देश बाहरी आक्रमण के लिए तैयार ही नहीं था। इस अहिंसा, करुणा, पवित्रता, तप, स्वाध्याय के देश भारत पर एक बहुत बड़ा कष्ट आ पड़ा, वह था बर्बर, असभ्य, प्राण पिपासु, असहिष्णु, लुटेरे लोगों का इस्लामी आक्रमण। तब यह देश बाहरी आक्रमण के लिए तैयार ही नहीं था। यहाँ तो अहिंसा, तप। दया, करूणा की साधना हो रही थी। सम्राट अशोक के बाद तो यहाँ सैन्य शक्ति को करीब करीब समाप्त कर दिया गया था। केवल व्यवस्था बनाये रखने लिए सेना काम कर रही थी। धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक रूप से समृद्ध भारत पर भूखे नंगे मुस्लिम लुटेरे इस देश पर लगातार आक्रमण करते रहे। उत्तरा पथ के सभी हिन्दू, जैन, बौद्ध मंदिर तोड़ डाले गए। पवित्र हरमंदिर साहिब को पवित्र करने की और पवित्र सरोवर को मिट्टी डालकर पाटने की कई बार कोशिश की गई। निरंतर इस्लामी आक्रमण और सात सौ साल की पराधीनता के कारण इस देश की आंतरिक शक्ति एकता, भाईचारा, सौहार्द आदि सामाजिक संस्थागत चीजें नष्ट हो गई।
उस समय चारों वर्ण एक शरीर की तरह प्रेम अपनत्व के साथ रहते थे। उन में ऊंच नीच, छुआछूत जैसी सामाजिक कुरीतियाँ भी नही थी। परन्तु सनातनी भारतीय विदेशी मुगल मुस्लिमों को गोमांस भक्षण अछूत यवन समझते थे और उनके वहाँ जो भी काम करता या उनके संपर्क में आ जाता उसको भी अछूत समझकर बहिष्कृत कर देते थे, उन्हें अछूत शूद्र बना दिया जाता था। चाहे वह ब्राह्मण हो, शूद्र हो, वैश्य हो या क्षत्रिय। आज जिन्हें हम दलित अथवा ओबीसी कहते है वे चारों वर्णों से उपेक्षित किये गए लोग है। इस निरंतर इस्लामी आक्रमण और सात सौ साल की पराधीनता के कारण इस देश का आंतरिक व्यवस्थागत ढांचा बिखर गया। दुर्भाग्य से सुविधा और समृधि, राज्य और राज्य की शक्तियाँ इस्लामी लुटेरों के हाथों में चली गई। भारतीयों की एकता, भाईचारा, सौहार्द आदि समत्वपूर्ण सामाजिक संस्थागत चीजें नष्ट हो गई। उसके जगह पर स्थान लिया छुआछूत, भाई भतीजावाद, पीड़ा, उत्पीड़न, विषमता आदि ने।
मुस्लिम सात सौ साल तक इस देश के शासक रहे। उन्होंने इस देश को लुटने, बड़े बड़े किले, महल, कबरे बनाने और नवाब बनने के अलावा कुछ नहीं किया। मुगल के आक्रमण से जितना नुकसान समत्वपूर्ण हिन्दू व्यवस्था को हुआ है उतना किसी से भी नहीं हुआ है।
अत: हमें आर्य हिन्दू संस्कृति की महान गौरवमयी संस्कृति के उद्धार के लिए अतीत की भूलों का परित्याग कर नए समत्वपूर्ण समाज की स्थापना का संकल्प लेना होगा। हमारी सबसे बड़ी शक्ति है- अनेकता में एकता, समता। इनमें विरुद्ध विचारों को भी पचाने का सामर्थ्य है। प्राचीन आर्य गौरव को प्राप्त करने के लिए वंचित किये गए बहुजन समाज के साथ समत्वपूर्ण व्यवहार के द्वारा उनके सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन स्तर को उठाने की भी अति आवश्यकता है।।।।।।।।।हरी ॐ।
~ Swami Pranavanand


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