शिक्षाप्रद बाल कहानी - अनोखी तरकीब





बहुत पुरानी बात है। एक अमीर व्यापारी के यहाँ चोरी हो गई। बहुत तलाश करने के बावजूद सामान न मिला और न ही चोर का पता चला। तब अमीर व्यापारी शहर के काजी के पास पहुँचा और चोरी के बारे में बताया।

सबकुछ सुनने के बाद काजी ने व्यापारी के सारे नौकरों और मित्रों को बुलाया। जब सब सामने पहुँच गए तो काजी ने सब को एक-एक छड़ी दी। सभी छडि़याँ बराबर थीं। न कोई छोटी न बड़ी।

सबको छड़ी देने के बाद काजी बोला, इन छडि़यों को आप सब अपने-अपने घर ले जाएँ और कल सुबह वापस ले आएँ। इन सभी छडि़यों की खासियत यह है कि चोर के पास जा कर यह एक उँगली के बराबर अपने आप बढ़ जाती है। जो चोर नहीं होता, उस की छड़ी ऐसी की ऐसी रहती है। न बढ़ती है, न घटती है। इस तरह मैं चोर और बेगुनाह की पहचान कर लेता हूँ।

काज़ी की बात सुन कर सभी अपनी-अपनी छड़ी ले कर अपने-अपने घर चल दिए।

उन्हीं में व्यापारी के यहाँ चोरी करने वाला चोर भी था। जब वह अपने घर पहुँचा तो उसने सोचा, अगर कल सुबह काजी के सामने मेरी छड़ी एक उँगली बड़ी निकली तो वह मुझे तुरंत पकड़ लेंगे। फिर न जाने वह सबके सामने कैसी सज़ा दें। इसलिए क्यों न इस विचित्र छड़ी को एक उँगली काट दिया जाए, ताकि काज़ी को कुछ भी पता नहीं चले।

चोर यह सोच बहुत खुश हुआ और फिर उस ने तुरंत छड़ी को एक उँगली के बराबर काट दिया। फिर उसे घिसघिस कर ऐसा कर दिया कि पता ही न चले कि वह काटी गई है।

अपनी इस चालाकी पर चोर बहुत खुश था और खुशी-ख्ाुशी चादर तान कर सो गया। सुबह चोर अपनी
छड़ी ले कर खुशी-खुशी काज़ी के यहाँ पहुँचा। वहाँ पहले से काफी लोग जमा थे।

काज़ी १-१ कर छड़ी देखने लगे। जब चोर की छड़ी देखी तो वह १ उँगली छोटी पाई गई। उसने तुरंत चोर को पकड़ लिया। और फिर उस से व्यापारी का सारा माल निकलवा लिया। चोर को जेल में डाल दिया गया। सभी काज़ी की इस अनोखी तरकीब की प्रशंसा कर रहे थे।

अन्य शिक्षाप्रद कहानियां 


Share:

शिक्षाप्रद बाल कहानी - एक और एक ग्यारह



बनगिरी के घने जंगल में एक हाथी ने भारी उत्पात मचा रखा था। वह अपनी ताकत के नशे में चूर होने के कारण किसी को कुछ नहीं समझता था।

बनगिरी में एक पेड पर एक चिडि़या व चिड़े का छोटा-सा सुखी संसार था। चिडिया अंडों पर बैठी नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चों के निकलने के सुनहरे सपने देखती रहती। एक दिन क्रूर हाथी गरजता, चिंघाडता पेडों को तोड़ता-मरोड़ता उसी ओर आया। देखते ही देखते उसने चिडि़या के घोंसले वाला पेड़ भी तोड़ डाला। घोंसला नीचे आ गिरा। अंडे टूट गए और ऊपर से हाथी का पैर उस पर पड़ा।

चिडि़या और चिड़ा चीखने चिल्लाने के सिवा और कुछ न कर सके। हाथी के जाने के बाद चिडि़या रोने लगी। तभी वहाँ कठफोड़वी आई। वह चिडि़या की अच्छी मित्र थी। कठफोड़वी ने उनके रोने का कारण पूछा तो चिडि़या ने अपनी सारी कहानी कह डाली। कठफोड़वी बोली “इस प्रकार दुखी रहने से कुछ नहीं होगा। उस हाथी को सबक सिखाने के लिए हमे कुछ करना होगा।”

 चिडि़या ने निराशा दिखाई “हम छोटे-मोटे जीव उस बलशाली हाथी से कैसे टक्कर ले सकते हैं?”

कठफोड़वी ने समझाया “एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। हम अपनी शक्तियाँ जोड़ेंगे।”

“कैसे?” चिडि़या ने पूछा।

“मेरा एक मित्र भंवरा है। हमें उससे सलाह लेना चाहिए।” चिडि़या और कठफोड़वी भंवरे से मिली। भंवरा
गुनगुनाया “यह तो बहुत बुरा हुआ। मेरा एक मेंढक मित्र है, आओ, उससे सहायता माँगे।”

अब तीनों उस सरोवर के किनारे पहुँचे, जहाँ वह मेढ़क रहता था। भंवरे ने सारी समस्या बताई। मेंढक भर्राए स्वर में बोला “आप लोग धैर्य से ज़रा यहीं मेरी प्रतीक्षा करें। मैं गहरे पानी में बैठकर सोचता हूँ।”

ऐसा कहकर मेंढक जल में कूद गया। आधे घंटे बाद वह पानी से बाहर आया तो उसकी आखें चमक रही थीं। वह बोला “दोस्तों ! उस हाथी को सबक सिखाने के लिए मेरे दिमाग में एक अच्छी योजना आई हैं। उसमें सभी का योगदान होगा।”

मेंढक ने जैसे ही अपनी योजना बताई, सब खुशी से उछल पडे़। योजना सचमुच ही अद्भुत थी। मेंढक थी। मेंढक थी। मेंढक थी। मेंढक ने दोबारा बारी-बारी सबको अपना-अपना कायर समझाया।

कुछ ही दूर वह उन्मत्त हाथी तोड़फोड़ मचा कर व पेट भरकर कोंपलों वाली शाखाएँ खाकर मस्ती में खड़ा झूम रहा था। पहला काम भंवरे का था। वह हाथी के कानों के पास जाकर मधुर राग गुँजाने लगा। राग सुनकर हाथी मस्त होकर आँखें बंद करके झूमने लगा।

तभी कठफोड़वी ने अपना काम कर दिखाया। वह आई और अपनी सुई जैसी नुकीली चोंच से उसने तेज़ी से हाथी की दोनों आँखें बींध डाली। हाथी की आँखें फूट गईं। वह तड़पता हुआ अंधा होकर इधर-उधर भागने लगा। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, हाथी का क्रोध बढ़ता जा रहा था।

चिडि़या कृतज्ञ स्वर में मेढ़क से बोली भैया मैं आजीवन तुम्हारी आभारी रहूँगी। तुमने मेरी इतनी सहायता कर दी। मेंढक ने कहा “आभार मानने की जरुरत नहीं। मित्र ही मित्रों के काम आते हैं।”

 एक तो आँखों में जलन और ऊपर से चिल्लाते-चिंघाड़ते हाथी का गला सूख गया। उसे तेज़ प्यास लगने लगी। अब उसे एक ही चीज़ की तलाश थी, पानी।

मेढ़क ने अपने बहुत से बंधु-बांधवों को इकट्ठा किया और उन्हें ले जाकर दूर बहुत बड़े गड्ढे के किनारे बैठकर टर्राने के लिए कहा। सारे मेंढक टर्राने लगे।

मेंढक की टर्राहट सुनकर हाथी के कान खड़े हो गए। वह यह जानता था कि मेंढक जल स्त्रोत के निकट ही वास करते हैं। वह उसी दिशा में चल पड़ा।

टर्राहट और तेज़ होती जा रही थी। प्यासा हाथी और तेज़ भागने लगा।

जैसे ही हाथी गड्ढे के निकट पहुँचा, मेढ़कों ने पूरा ज़ोर लगाकर टर्राना शुरु किया। हाथी आगे बढ़ा और विशाल पत्थर की तरह गड्ढे में गिर पड़ा, इस प्रकार उस अहंकार में डूबे हाथी को सबक मिल गया। उसने सभी से क्षमा माँगी और जंगल छोड़कर चला गया।

कहानी से हमें शिक्षा मिलती है

  1. एकता में बल है।
  2. अहंकार का देर या सबेर अंत होता ही है।


अन्य शिक्षाप्रद कहानियां

  1. शिक्षाप्रद बाल कहानी - स्वप्न महल
  2. शिक्षाप्रद बाल कहानी - तीन सवाल-अकबर बीरबल
  3. शिक्षाप्रद बाल कहानी - बीरबल की खिचड़ी
  4. शिक्षाप्रद बाल कहानी - गोलू-मोलू और भालू
  5. शिक्षाप्रद बाल कहानी - कौवे की परेशानी
  6. शिक्षाप्रद बाल कहानी - राजा की तीन सीखें
  7. शिक्षाप्रद बाल कहानी-कितने सेब हैं?
  8. शिक्षाप्रद बाल कहानी - ईमानदारी
  9. शिक्षाप्रद बाल कहानी - अनोखी तरकीब


Share:

पुराणों में उपलब्ध है अनेक नाग देवताओं का वर्णन



वेद एवं पुराणों के अनुसार नागों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू से हुई है। इसलिए इन्हें ‘काद्रवेया महाबलाः’ भी कहा गया है। ये अदिति देवी के सौतेले पुत्र और आदित्यों के भाई हैं। अतएव सुस्पष्टतः नाग देवताओं में परिगणित हैं। इनका निवास स्थान पाताल कहा गया है। इसे ही नागलोक भी कहा जाता है। नागलोक की राजधानी के रूप में भोगवतीपुरी का उल्लेख मिलता है। कथासरित्सागर का प्रायः एक चतुर्थांश इस नागलोक और वहां के निवासियों की कथाओं से संबद्ध है। नाग कन्याओं का सौन्दर्य देवियों एवं अप्सराओं के समान ही कहा गया है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने बल देकर रावण की स्त्रियों के निर्देशक दोहे का अंत नाग कुमारि पर ही किया है।

Nag Devta

भगवान विष्णु की शैय्या नागराज अनंत की बनी हुई है। भगवान शंकर एवं श्री गणेश जी भी सितसर्पविभूषित हैं। भगवान सूर्य के रथ में बारहों मास बारह नाग बदल-बदलकर उनके रथ का वहन करते हैं। ऐसा प्रायः सभी पुराणों में निर्दिष्ट है। इस प्रकार से देवताओं ने भी सर्प नाग को धारण किया है, जिससे वे देवरूप हैं। सर्प-नाग वायु-पान ‘नीलमतपुराण’ और कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार कश्मीर की संपूर्ण भूमि नीलनाग की ही देन है। अब भी वहां के अनंतनाग आदि शहर इस तथ्य को पुष्ट करते हैं। यहां नाग देवता का सर्वाधिक सम्मान होता है। प्रारंभिक प्रातः स्मरणीय पवित्र नागों की गणना इस प्रकार है-

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शंखपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।।
सायंकाले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः।
तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।

अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक और कालिय- ये नाग देवता हैं। ये प्रातः सायं नित्य स्मरणीय हैं। इनका स्मरण करने से मनुष्य को नाग विष का भय नहीं रहता और सर्वत्र विजय प्राप्त होती है। भारतीय ऋषि-मुनियों ने नागोपासना पर अनके व्रत-पूजा आदि निबंध ग्रंथों की रचना की है। प्रत्येक ग्राम-नगर में नाग का स्थान होता है। श्रावण मास में नागपंचमी व्रत किया जाता है। संध्या पूजा के उपरांत नागों के नमस्कार करने की परम्परा इस प्रकार है-

जरत्कारुर्जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी।
वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा।।
जरात्कारुप्रियास्तीकमाता विषहरेति च।
महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता।।
द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु यः पठेत्।
तस्य नागभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।

उपर्युक्त पौराणिक मंत्र परम उपयोगी एवं उपादेय है। समस्त प्राणियों के कुलकुण्डहर में निवास करने वाली कुण्डलिनी शक्ति को भी सर्पिणी का ही रूप बताया गया है। भारत में शयनकाल के समय नाग देवताओं के स्मरण करने की प्रथा है। इन नाग देवता के उच्चारण मात्र से सर्प और उपसर्प भी घर में नहीं रहते। वे जनमेजय के यज्ञ में आस्तीक मुनि से वचनबद्ध हैं। आज भी इस मंत्र जप से सर्प-नाग देवता चारपाई पर नहीं चढ़ते। उनके मंत्र से सर्प का विष उतर जाता है और मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। मंत्र इस प्रकार है-

सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष।
जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर।।
आस्तीकस्य वचः श्रुत्वा यः सर्पो न निवर्तते।
शतधा भिधते मूर्ध्नी शिंशपावृक्षको यथा ।।

नाग देवता की पूजा का प्रत्यक्ष प्रमाण तथा उसके महत्व के संदर्भ में एक सत्कथा उद्धृत की जाती है- राजस्थान के बाड़मेर जिला के अन्तर्गत बायतु ग्राम है। वहां एक खीमसींग नाम के राजपूत सपत्नीक रहते थे। वहां रहते हुए उन्हें चालीस वर्ष बीत गये। संतान प्राप्ति न होने के कारण वे ग्राम का परित्याग कर अपने खेत में झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। एक दिन खीमसींग को अपने घर के पीछे एक श्वेत नाग दिखाई दिया। पहले तो उन्हें कुछ घबराहट हुई, फिर बाद में उनके मन में आया कि यह सफेद नाग कोई देवता है, अतएव इसका स्वागत करना चाहिए। उन्होंने एक दूध भरा कटोरा नाग के समीप रखा। नाग देवता सब दूध पी गये। बाद में अपने बिल में प्रवेश कर गये। दूसरे दिन भी ऐसा हुआ। इस प्रकार पूरा वर्ष बीत गया। एक दिन नाग देवता ने स्वप्न में प्रकट होकर कहा- तुम लोग चिंतित न हो। मेरी उपासना से तुम्हारा उभय लोकों में कल्याण होगा। तत्पश्चात सभी प्रकार से संपन्न खीमसींग विधिवत् नाग देवता की उपासना में लग गये।

इधर तेजोशाह नाम का एक संतानहीन धनवान व्यापारी मैत्री के कारण वहां खीमसींग से मिलने के लिये आया करता था। प्रसंगवशात् संततिहीनता की चर्चा चलने पर खीमसींग ने उसे भी नाग देवता की उपासना करने का परामर्श दिया। तेजोशाह ने नाग के निवास स्थान पर जाकर निवेदन किया कि यदि उसे पुत्र होगा तो वह खीमसींग और उसके अतिथियों के भोजन वस्त्र आदि का आजीवन व्यय करेगा और नाग देवता का एक सुंदर मंदिर भी बनवाएगा। यह बात उसने अपनी पत्नी से कही और उसे नित्य नागदेव को दूध भोग लगाने का निर्देश दिया। वह वैसा ही करने लगी।

एक दिन संयोग से 200 वैरागी वैष्णव खीमसींग की कुटिया पर आये। पूर्वप्रतिज्ञा के अनुसार जब उनके भोजन आदि की व्यवस्था के लिये वे तेजोशाह के पास गये और अन्न आदि की व्यवस्था करने के लिये उचित द्रव्य मांगा, किंतु तेजोशाह ने कुछ कृपणता दिखलायी। निराश होकर खीमसींग अपनी पत्नी सहित आत्महत्या के विचार से नाग से डंसवाने के लिए उसके बिल के पास गये। संयोगवश उन्हें वहां से एक सुवर्णवलय प्राप्त हो गया। उसे लेकर वे पुनः सेठ के पास गये तथा समुचित भोजनोपयोगी अन्न एवं दक्षिणा द्रव्य को लाकर वैष्णवों को पास उपस्थित किया। वैष्णव समुदाय भी भोजन आदि से संतुष्ट हो यथास्थान चला गया। कुछ दिनों के पश्चात ही नाग देवता की कृपा से तेजोशाह को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात प्रसन्न होकर उसने नाग देवता के स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया। इस मंदिर में जाने पर अब भी सर्वविष शांत हो जाता है और भक्तों की अभिलाषा पूर्ण होती है।

इस प्रकार की अनेक घटनाएं अन्य देश-प्रदेशों में भी होती रहती हैं। नागों की पूजा प्रायः सभी पर्वतीय क्षेत्रों में विशेष रूप से होती है। इनमें कश्मीर प्रधान है। भारत वर्ष में नागों से संबंधित विस्तृत साहित्य प्राप्त होता है। गरुडपुराण, भविष्यपुराण, आयुर्वेद के चरक, सुश्रुत, भावप्रकाश आदि ग्रंथों में एतत्संबंधी सभी प्रकार के विषयों का संग्रह हुआ है। समग्र भारत में इनकी पूजा एक विशिष्ट देवता के रूप में किये जाने की सुदीर्घ परम्परा है।



Share: