इस्लाम की आस्था और वन्देमातरम्, कितना उचितऔर कितना अनुचित?



वन्देमातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में अंगीकार किये जाने के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में चल रहे समापन समारोह के अवसर पर देशभर में शैक्षणिक संस्थानों में सात सितम्बर को सामूहिक वन्देमातरम् गाए जाने के सम्बंध में केन्द्र सरकार ने जो आदेश जारी किया है, उस के विरूद्ध कुछ अलगाववादी मुसलमानों ने बवाल मचा दिया है। इन तत्वों का यह कहना है कि यह गीत इस्लाम विरोधी है। अलगाववादी ताकतों का लक्ष्य 1905 में कुछ दूसरा था और लगता है आज भी दूसरा है। केवल राष्ट्रीय प्रवाह के विरूद्ध अपनी सोच को मान्यता दिलाना उनकी नियत है। नाम इस्लाम का है लेकिन काम राजनीति और कुटिल कूटनीति का है। इस्लाम के नाम पर आजादी से पहल और आजादी के बाद अनेक फतवे जारी हुए हैं। उन में वन्दे मातरम् का विरोधी भी उनका मुख्य लक्ष्य रहा है। सवाल यह उठता है कि वन्देमातरम् विरोधी जो ताकतें इस प्रकार की बातें कर रही है उनमें कितनी सच्चाई है उसका इस्लामी दृष्टिकोण से जायजा लेना अनिवार्य है। यदि ऐसा नहीं है तो फिर इन तत्वों के विरूद्ध कानूनी कार्यवाही होनी चाहिये। आतंकवाद को ताकत पहुचाने वाली ऐसी हरकतें सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए घातक है अतएव उस पर गहराई से विचार होना चाहिये।

वन्देमातरम् की हर पंक्ति मां भारती का गुणगान करती है। न केवल वसुंधरा की प्रशंसा है बल्कि कवि एक जीती जागती देवी के रूप में भारत को प्रस्तुत कर रहा है। उसकी शक्ति क्या है और वह अपने शत्रु को किस प्रकार पराजित करने की क्षमता रखती है इसका रोमांचकारी वर्णन है। वन्देमातरम् केवल गीत नहीं बल्कि भारत के यथार्थ को प्रस्तुत करने वाला एक दस्तावेज है। भारत को पहचानने के लिये बंकिम अपनी मां को पहचाने का आह्वान कर रहे हैं। इसका सम्पूर्ण उद्देश्य अपने देश की धरती को स्वतंत्र करवाना है। इसलिये यहां जो भी सांस लेता है उसका यह धर्म है कि वह अपना सर्वस्व अर्पित कर दे।

कोई यह सवाल उठा सकता है कि भारत में कोई एक धर्म, एक जाति, एक आस्था के व्यक्ति नहीं है जो इस देश को माता के समान पूज्यनीय माने। एकेश्वरवादी इसके लिये कह सकते हैं कि यह हमारी आस्था और विचारधारा के विरूद्ध है। लेकिन जिस निर्गुण निराकार में उन्हें विश्वास है वह भी तो अपार शक्ति का मालिक है। किसी के गुण अथवा ताकत को स्वीकार करना या उस का आभास होना कोई एकेश्वरवाद के सिद्धांत को ठुकराना नहीं है।

वन्देमातरम् पर सबसे अधिक विरोध मुठ्ठीभर मुस्लिम बंधुओं को है। वे यह सवाल कर सकते हैं कि यहां तो इसका वर्णन कुछ इस प्रकार से किया जा रहा है कि मानो वह साक्षात देवी है और जिन अलंकारों का हम उपयोग कर रहे हैं वह केवल उसकी पूजा करने के समान है। जब इस बहस को शुरू करते हैं तो इस्लाम के सिद्धांतों पर वन्देमातरम् खरा उतरता है। क्या इस्लाम में मां को पूज्यनीय नहीं कहा गया है? पैगम्बर मोहम्मद साहब की हदीस है-- मां के पैर के नीचे स्वर्ग है’ यदि इस्लाम सगुण साकार के विरूद्ध है तो फिर मां और उसके पांव की कल्पना क्या किसी चित्र को हमारी आंखों के सामने नहीं उभारती। अपनी मां का तो शरीर है लेकिन वन्देमातरम् में जिस मां की वंदना की बात की जाती है उसका न तो शरीर है, न रंग है और न रूप है फिर उसे देवी के रूप में पूजने का सवाल कहां आता है? यहां तो केवल अलंकार है और विशेषण हैं इसलिये उसका आदर है। इस आदर को पूज्यनीय शब्द में व्यक्त किया जाए तो क्या उसकी पूजा किसी मूर्ति की पूजा के समान हो सकता है। भारत में जब बादशाहत का दौर था उस समय हर शहंशाह को ‘जिल्ले इलाही’ (उदाहरण के लिये मुगले आजम फिल्म) कहा जाता था। इस का अर्थ होता है ईश्वर का दिव्य प्रकाश। क्या यह शब्द किसी मूर्ति की प्रशंसा को प्रकट नहीं करता। यहां तो साक्षात् हाड़ मांस के आदमी के लिये इस शब्द का उपयोग किया जा रहा है। दूसरे शब्दों में इस शब्द के माध्यम से तो आप पत्थर या देश की ही नहीं अपितु एक इंसान को ईश्वर रूप में मान रहे हैं। इस तर्क के आधार पर तो तो यह कहना होगा कि वन्देमातरम् से अधिक इस्लाम के अनुयाइयों के लिये जिल्ले इलाही शब्द आपत्तिजनक होना चाहिये। यदि वे इसे विशेषण मानते हैं तो भारत के विशेषणों को स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये। व्यक्ति के चेहरे पर ईश्वरीय प्रकाश हो सकता है तो फिर किसी मां की प्रशंसा करने के लिये उसे सहस्त्र हाथों वाली भी कहा जा सकता है जो अपने बाहुबल से शत्रु का नाश करने वाली है। इस्लाम अपने झंडे में चांद और तारे को महत्व देता है। उस झंडे को सलामी दी जाती है। उस का राष्ट्रीय सम्मान होता है। ध्वज का अपमान करने वाले को दंडित किया जाता  है। क्या हरा रंग और यह चांद सितारे इस ब्रह्मांड के अंग नहीं है। यदि ध्वज को सलामी दी जा सकती है तो फिर धरती माता को प्रणाम क्यों नहीं किया जाता। यह प्रणाम ही तो इसकी वंदना है। इसलिये सलामी के रूप में आकाश के चांद तारे पूज्यनीय है तो फिर धरती की अन्य वस्तुओं को पूज्यनीय माने जाने से कैसे इंकार किया जा सकता है? भारतीय परिवेश में भक्ति प्रदर्शन का अर्थ पूजा होता है। पूजा इबादत का समानार्थी शब्द है इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा। बंगला भाषा के अनेक मुसलमान कवि और लेखकों ने इंसान के बारे में वंदना शब्द का प्रयोग किया है। कोई भी बंगाली मुसलमान वंदना शब्द से परहेज नहीं करता। लेकिन उसे अरबी के माध्यम से प्रयोग किया जाएगा तो मुसलमान उस पर अवश्य आपत्ति उठाएगा। क्योंकि समय, काल और देश के अनुसार हर स्थान पर अपने-अपने शब्द हैं और उनका उपयोग भी अपने-अपने परिवेश में होता है।

प्रसिद्ध बंगाली विद्वान मौलाना अकरम खान साहब की मुख्य कृति ‘मोस्तापाचरित’ में पृष्ठ 1575 पर जहां अरब देश का भौगोलिक वर्णन किया है वहां वे लिखते हैं.... अर्थात कवि ने अरब को ‘मां’ कह कर सम्बोधित किया है।

देश को जब हम मां कहते हैं तब रूपक अर्थ में ही कहते हैं। देश को मां के रूप में सम्बोधन करने का मूल उद्देश्य है। यहां हम देश को ‘खुदा’ नहीं कहते। यदि हमारी मां को मां कह कर पुकारने में कोई दोष नहीं होता तो रूपक भाव से देश को मां कहने में भी कोई दोष नहीं हो सकता। देश भक्ति, देश-पूजा, देश वंदना, देश-मातृका एक ही प्रकार के विभिन्न शब्द हैं जो इस्लाम की दृष्टि में पूर्णतया मर्यादित हैं। इसलिये वंदेमातरम् गीत को गाना न तो ‘बुतपरस्ती’ है और न ही इस्लाम विरोधी।

देश को मां कहकर सम्बोधित करने की प्रथा अरबी और फारसी में बहुत पुरानी है। ‘उम्मुल कोरा’ (ग्राम्य जननी) उम्मुल मूमिनीन (मूमिनों की जननी) उम्मुल किताब (किताबों की जननी) यानी यह सभी मां के रूप में है तो फिर वन्देमातरम् शब्द का विरोध कितना हास्यास्पद है।

वन्देमातरम् यदि इसलिये आपत्तिजनक है क्योंकि इस में देश का गुणगान है तो फिर अरब भूखंड के अनेक देशों का भी उन के राष्ट्रगीत में वर्णन है। उजबिकिस्तान हो या फिर किरगिस्तान सभी स्थान पर उनके राष्ट्रगीत में उनके खेत, उनके पशु पक्षी और उन के नदी पहाड़ का सुन्दर वर्णन मिलता है। यमन अपने खच्चर को इसी प्रकार प्यार करता है जिस तरह से कोई हिन्दू गाय को। यमन के राष्ट्रगीत में कहा गया है कि खच्चर उसके जीवन की रेखा है। नंगे पर्वत दूर-दूर तक फैले हुए हैं जिनमें कोई स्थान पर झरने फूटते हुए दिखलाई पड़ते हैं। जिस तरह किसी माता के स्तन से ममता फूट रही हो। इजिप्ट के राष्ट्र गीत में तो लाल सागर, भूमध्य सागर और स्वेज का वर्णन पढ़ने को मिलता हैं नील नदी उनके लिये गंगा के समान पवित्र है। इजिप्टवासी की यह इच्छा है कि मरने के पश्चात स्वर्ग में भी उसे नील का पानी पीने को मिले। पिरामिड को अपनी शान और पुरखों की विरासत के रूप में अपने राष्ट्रगीत में याद करता है।

डाक्टर इकबाल ने अपनी कविता ‘नया शिवालय’ में लिखा है...... पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है.... खाके वतन का मुझको हर जर्रा देवता है। डाक्टर इकबाल केवल पत्थर से बनी मूर्तियों में ईश्वर का प्रतिबिम्ब नहीं देखते हैं उनके लिये तो सारे देश हिन्दुस्तान का हर कण देवता है। क्या वन्दे मातरम् का विरोध करने वाले यह कह सकते हैं कि इकबाल ने भारत को देवता कहकर इस्लाम विरोधी भावना व्यक्त की है? वन्दे मातरम् में भारत की हर वस्तु की प्रशंसा ही इस गीत की आत्मा है। पाकिस्तान में प्रथम राष्ट्र गीत मोहम्मद अली जिन्ना ने लाहौर के तत्कालीन प्रसिद्ध कवि जगन्नाथ प्रसाद आजाद से लिखवाया था। डेढ़ साल के बाद लियाकत ने उसे बदल दिया। राष्ट्रगीत पाकिस्तान में तीन बार बदला गया है। दुनिया के हर देश की जनता जब अपने देश के बखान करती है और उसे अपना ईमान मानती है तब ऐसी स्थिति में भारत की कोटि-कोटि जनता कलकल निनाद करते हुए वन्देमातरम् को अपने दिल की धडकने बनाए रखे तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिये। क्योंकि राष्ट्र की वंदना हमारा धर्म भी है, कर्म भी और जीवन का मर्म भी।

श्री मुजफ्फर हुसैन, प्रख्यात देशभक्त मुस्लिम पत्रकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन)


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सरफरोशी की तमन्ना का मंत्र बना वन्देमातरम्



सन् 1905 में बंग भंग आंदोलन प्रारंभ होने के साथ ही बंगाल सचिव लाइल का यह आदेश लागू हो गया कि जो भी वंदेमातरम का उद्घोष करेगा उसे कोड़े लगाए जाएंगे, जुर्माना होगा और स्कूल से निकाल दिया जाएगा। इसके बाद स्थिति यह हो गई कि ढाका के एक स्कूल में छात्रों से पांच सौ बार लिखवाया गया- वंदेमातरम् कहना सबसे बड़ा पाप हैं पर अधिकतर छात्र लिखते थे- वंदेमातरम् कहना सबसे बड़ा धर्म है। कोलकाता में नेशनल कालेज के एक छात्र सुशील सेन को वंदेमातरम् कहने पर पंद्रह बेंत मारने की सजा मिली और उसके अगले दिन स्टेटसमैन अखबार ने लिखा कि प्रत्येक बेंत की मार पर सुशील सेन के मुख से एक ही नारा निकलता था- वंदेमातरम्। तब काली प्रसन्न जैसे कवि गा उठे-
बेंत मेरे कि मां भुलाबि। आमरा कि माएर सेई छेले
मोदेर जीवन जाय जेन चले वंदेमातरम् बोले।
अर्थात बेंत मारकर क्या मां को भुलाएगा, क्या हम मां की ऐसी संतान हैं? वंदेमातरम् बोलते हुए हमारा जीवन भले ही चला जाए पर वंदेमातरम् बोलेंगे।

इसकी गूंज सात समुद्र पार करके लंदन की धरती पर पहुंची, जहां मदन लाल ढींगरा ने अपना अंतिम वक्तव्य वंदेमातरम् के साथ ही पूरा किया। उसने कहा- भारत वर्ष की धरती को एक ही बात सीखनी है कि कैसे मरना है और यह स्वयं मरकर ही सीखा जा सकता है। इसलिए मैं मर रहा हूँ-वंदेमातरम्।

आखिर क्या है वंदेमातरम् जिसकी चोट अंग्रेज की छाती पर गोली से भी गहरी होती थी। बंगाल के बंकिम चंद्र ने अपने उपन्यास‘आनंद मठ’ में भारत माता को मानो साकार रूप ही दे दिया। बंकिम ने एक वक्तव्य में कहा था- मेरा आनंद मठ कभी सारे देश में एक सच्चाई के रूप में प्रकट होगा। भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक मात्र जयघोष वंदेमातरम् था।

हम नहीं जानते कि भारत सरकार के गणित का आधार क्या है पर हमारी सरकार की इच्छा है कि वर्ष 2007 को वंदेमातरम् की शताब्दी के रूप में मनाया जाए। वैसे सारा देश एक बार 1996 में वंदेमातरम् की शताब्दी मना चुका है। वर्ष 1882 में श्री बंकिम चंद्र के आनंद मठ उपन्यास का प्रकाशन हुआ। यह गीत उसी का भारतग है। फिर 1896 में पहली बार यह गीत कोलकाता में श्री बाल गंगाधर तिलक की उपस्थिति में कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया और स्वयं श्री टैगोर ने इस गीत का गायन किया। कांग्रेस के नेतृत्व में चल रही सरकार को यह भी याद नहीं कि इसके अनुसार सन 1996 वंदेमातरम का सौवां वर्ष था। 7 अगस्त 1905 का दिन तो भुलाया ही नहीं जा सकता, जब बंग-भंग आंदोलन के विरोध में  पूरा बंगाल ही गरज उठा था और कोलकाता के कालेज चैक में पचास हजार से भी ज्यादा भारत के बेटे-बेटियां वंदेमारतम् कहकर स्वतंत्रता के लिए बलिपथ पर चल पड़े । इन्हीं दिनों मैडम भीका जी कामा ने एमस्र्डम में वंदेमातरम् वाला भारत का ध्वज फहराया। फिर भी भारत सरकार 2007 को ही शताब्दी मना रही है।

भारत के मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने यह घोषण की कि सभी स्कूलों में वंदेमातरम गाया जाए और साथ ही सांप्रदायिक शक्तियों के आगे घुटने टेकते हुए यह भी कह दिया कि जो इसे नहीं गाना चाहता, न गाए। अफसोस तो यह है कि देश के गृह राज्य मंत्री श्री जायसवाल भी राष्ट्रीय गान के गौरव का सम्मान रक्षण नहीं कर पाए। कौन नहीं जानता कि बंग-भंग में धर्म, संप्रदाय, जाति का भेद भुलाकर वंदेमातरम के साथ ही अंग्रेजों से लोहा लिया गया था और अब एक शाही इमाम के विरोध को पूरे मुस्लिम समाज का विरोध मानकर सरकार ने यह निंदनीय-लज्जाजनक आदेश दिया है।

प्रसिद्ध लेखक एवं क्रांतिकारी हेम चंद ने कहा था- पहले हम इस बात को समझ नहीं पाए थे कि वंदेमातरम गीत में इतनी शक्ति और भारतव छिपा है। अरविंद ने सत्य ही कहा था कि वंदेमातरम् के साथ सारा देश देशभक्ति को ही धर्म मानने लगा है। यह मंत्र भारत में ही नहीं सारे विश्व में फैल गया। 7 अगस्त 1905 को जब बंग भंग के विरोध में पचास हजार देशभक्त कोलकाता में इकट्ठे हुए तो अचानक ही एक स्वर गूंजा- वंदेमातरम और इसके साथ ही वंदेमातरम् क्रांति का प्रतीक बन गया। इस आंदोलन के मुख्य नेता सुरेंन्द्र नाथ बनर्जी ने कहा हमारे अंतर्मन की भारतवनाएं वंदेमातरम् के भारतव के साथ जुड़ जानी चाहिए।

आज स्वतंत्रता के साठवें वर्ष में वंदेमातरम् गीत गाना सांप्रदायिक माना जाने लगा है। जिस वंदेमातरम् के साथ क्रांतिकारी देशभक्त हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ जाते थे उसे ही स्वतंत्र भारत की सरकार एक संप्रदाय विशेष को न गाने की छूट दे रही है। दुर्भारतग्य से भारत के विभारतजन के साथ ही वंदेमातरम् का भी विभारतजन कर दिया गया। स्वतंत्र भारत के कुछ नेताओं को इस गीत के प्रथम भारतग में तो देशभक्ति दिखाई देती है, पर पिछले हिस्से में सांप्रदायिकता लगती है। आखिर क्या बुरा लिखा है इसमें? भारत की संतान भारत मां से यही तो कहती है न कि भारत मां तू ही मेरी भुजाओं की शक्ति है, तू ही मेरे हृदय की भक्ति है, तू धरनी है, भरनी है, सुंदर जल और सुंदर फल फूलों वाली है, तेरे करोड़ों बच्चे हैं, फिर तू कमजोर कैसी? हमें याद रखना होगा कि 15 अगस्त 1947 की सुबह आकाशवाणी से प्रसारित होने वाला पहला गीत वंदेमातरम था, जो पंडित ओंकार नाथ ने पूरा गाया था।

आज तो भारत स्वतंत्र है, पर जिस समय वंदेमातरम कहना अपराध माना जाता था उस समय राष्ट्र के महान नेता सुरेंद्र नाथ बनर्जी, विपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष वंदेमातरम के बैज सीने में लगाकर निकलते थे। अमृत बाजार पत्रिका के संपादक मोतीलाल घोष ने सिंह गर्जना करते हुए कहा था- चाहे सिर चला जाए मैं वंदेमातरम गाऊंगा। वीर सावरकर ने 1908 में इंग्लैंड में वंदेमातरम गुंजाया। मार्च 1907 को युगांतर दैनिक ने यह लिखा कि वंदेमातरम की गूंज ने शत्रु की हिम्मत छीन ली है, वे अब परास्त हो रहे हैं और भारत मां मुस्कुरा रही है। डा. हेगेवार बचपन से ही राष्ट्रभक्ति में रंगे हुए थे। नागपुर के नील सिटी स्कूल में पढ़ते समय उन्होंने सारे स्कूल में ही वंदेमातरम का जयघोष करवा दिया और दंडित हुए। वाराणसी की जेल में जब चंद्रशेखर आजाद को कोड़े मारे गए, तब भी वह वंदेमातरम ही बोलते रहे। 29 दिसंबर 1927 को जब अशफाख उल्ला खां को फांसी पर रबाया गया तब भी वह वंदेमातरम का नार ही लगाते रहे। कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन में श्री विष्णु दिगंबर पालुसकर ने वंदेमातरम का गीत गाकर ही सम्मेलन का प्रारंभ करवाया।

कौन नहीं जानता कि स्वतंत्रता की बेदी पर प्राण देने वाले हरेक देशभक्त ने वंदेमातरम् से ही प्रेरणा ली थी। यह तो अंग्रेजों की कुटिल नीति थी, जिसने देश के हिंदू-मुसलमानों को अलग कर दिया। सच यह है कि बंग-भंग आंदोलन के समय मुस्लिम छात्र नेता लियाकत हुसैन कोलकाता के कालेज चैक में हर शाम को अपने साथियों सहित वंदेमातरम् के नारे लगाता और बेंत भी खाता था।

अब प्रश्न यह है कि जो वंदेमातरम् राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम का मंत्र बन गया था उसे स्वतंत्र भारत में सम्मान क्यों नहीं? बड़ी कठिनाई से वह दिन आया जब भारत सरकार ने स्कूलों में वंदेमातरम् गाने का संदेश दिया। आश्चर्य है कि राष्ट्रीय गीत गाने के लिए भी आदेश देना पड़ता है, पर साथ ही एक बार फिर विभारतजन कर दिया कि जो गाना चाहे वही गाए। जो लोग यह कहते हैं कि इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मां को प्रणाम नहीं किया जा सकता वह हजरत मुहम्मद साहब का यह वाक्य कैसे भूल गए कि दुनिया में अगर कही जन्नत है तो मां के चरणों में ही है और ए.आर.रहमान ने मां तुझे सलाम गाकर भारत संतान की रगों में एक नया जोश भर दिया। आश्चर्य यह है कि जहां जन-गण-मन के किसी अधिनायक की बात की गई है वह तो सबको स्वीकार है, पर जहां भारत भक्ति का स्वर है उस गीत को सांप्रदायिक कहा जाता है। अच्छा हो देश के यह तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता अपनी आंखों से संकीर्ण राजनीति का चश्मा उतारकर अपनी आत्मा को जरा उनके नजदीक ले जाएं जो एक बार वंदेमातरम् कहने के लिए फांसी चढ़ते थे, कोड़े खाते थे, रक्त की नदी पर करके भी राष्ट्रीय ध्वज फहराना चाहते थे, तब उन्हें अहसास होगा कि वंदेमातरम् के साथ भारत की आत्मा जुड़ी है, सांप्रदायिकता नहीं। यह भारत भक्ति का मंत्र है, किसी संप्रदाय विशेष का नहीं। जो आज इस गीत को न गाने की छूट देते हैं हो सकता है कल को वे तुष्टीकरण करते हुए राष्ट्र के अन्य प्रतीकों का भी अपमान करने की छूट दे दें। अभी से सावधान होना होगा।
लक्ष्मी कांता चावला, प्रसिद्ध स्तंभकार
(महाशक्ति वंदेमातरम् समग्र - एक प्रयास वंदेमातरम् विशिष्ट लेख संकलन) 


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