ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित - क्षत्रियों की वंशावली



ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित - क्षत्रियों की वंशावली
Based on Historical Evidence - Genealogy of Kshatriyas
ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित -क्षत्रियों की वंशावली
भारत के चार क्षत्रिय वंशों को उनकी उत्पत्ति के अनुसार निम्न वंशों में विभाजित किया गया है। जो निम्न है - 1. सूर्य वंश, 2. चंद्र वंश, 3. नाग वंश और 4. अग्नि वंश

ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित -क्षत्रियों की वंशावली
सूर्यवंशी क्षत्रिय
प्राचीन पुस्तकों के अवलोकन से ऐसा ज्ञात होता है कि भारत में आर्य दो समूहों में आये। प्रथम लम्बे सिर वाले और द्वितीय चैडे़ सिर वाले। प्रथम समूह उत्तर-पश्चिम (ऋग्वेद के अनुसार) खैबरर्दरे से आये, जो पंजाब, राजस्थान, और अयोध्या में सरयू नदी तक फैल गये। इन्हें सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा गया है। प्रथम समूह के प्रसद्धि राजा भरत हुए। भरत की संताने और उनके परिवार को सूर्यवंशी क्षत्रिय का नाम दिया गया। यह 11 वें स्कन्ध पुराण अध्याय 1 में श्लोक 15, 16 और 17 में वर्णित है। रोमिला थापर ने पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर लिखा है कि महाप्रलय के समय केवल मनु जीवित बचे थे। भगवान विष्णु ने इस बाढ़ के संबंध में पहले ही चेतावनी दे दी थी, इसलिये मनु ने अपने परिवार और सप्तऋषियों को बचा ले जाने के लिये एक नाव बना ली थी। भगवान विष्णु ने एक बड़ी मछली का रूप धारण किया, जिससे वह नौका बाँध दी गयी। मछली जल-प्रवाह में तैरती हुई नौका को एक पर्वत शिखर तक ले गयी। यहाँ मनु उनका परिवार और सप्तऋषि प्रलय की समाप्ति तक रहे और पानी कम होने पर सुरक्षित रूप से पृथ्वी के रूप में मनु का उल्लेख है। पुराणों में 14 मनु वर्णित है जिसमें से स्वयंभुव मनु संसार के सर्वप्रथम मनु है। विवस्वान सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु सातवें मनु थे। इनके पहले के छः मनु स्वंयभुव वंश के थे।


Kshatriya Vanshavali


वैवस्वत मनु से त्रेता युग प्रारम्भ हुआ। श्रीमद् भागवत पुराण में वर्णित है कि महाप्रलय के समय केवल परम् पुरूष ही बचे, उनसे ब्राह्या जी उत्पन्न हुये। ब्रह्मा से मरीच, मरीच की पत्नी अदिति से विवस्वान (सूर्य) का जन्म हुआ तथा विवस्वान की पत्नी संज्ञा से मनु पैदा हुए। वसतुत वैवस्वत मनु भारत के प्रथम राजा थे, जो सूर्य से उत्पन्न हुये और अयोध्या नगरी बसाई। सबसे पहले मनु जिनको स्वयंभू कहते हुए इनके पुत्र प्रियावर्त और उनके पुत्र का नाम अग्निध्रा था, अग्निध्रा के पौत्र का नाम नाभि था और नाभि के पुत्र का नाम ऋषभ था। ऋषभ के 100 पुत्र हुए। जिसका वर्णन वेदों में मिलता है। इनमें से सबसे बड़ा पुत्र भरत था। जिसके नाम पर भरत हर्ष का नाम पड़ा और यह सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। इसका वर्णन स्कन्ध पुराण 5 और अध्याय 7 में मिलता है। भरत का परिवार तेजी से बढ़ा और उन्हें भारत जन कहा जाने लगा। जिसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। इस परिवार में भगवान मैत्रावरूण और अप्सरा उर्वशी के पेट से वशिष्ठ का जन्म हुआ। जो आगे चलकर भरत के पुरोहित हुए। वशिष्ठ ने इनको बलशाली औरवीरत्व प्रदान किया। इसी बीच विश्वामित्र जो जन्म से क्षत्रिय थे। अपने कठिन तपस्या से ऋषि का स्थान प्राप्त किया और क्षत्रियों के गुरू बन गए। इससे वशिष्ठ व विश्वामित्र दोनों एक दूसरे के दुश्मन बन गए। इस प्रकार वशिष्ठ एवं विश्वामित्र दोनों ने पुरोहित का पद पा लिया और इस वंश को सूर्यवंशी कहा जाने लगा। आर्यों की वर्ण व्यवस्था के पश्चात् ऋषियों ने मिलकर सूर्य नामक आर्य क्षत्रिय की पत्नी सरण्यू से उत्पन्न मनु को पहला राजा बनाया। वायु नामक ऋषि ने मनु का राज्याभिषेक किया। मनु ने अयोध्या नगरी का निर्माण किया और उसे अपनी राजधानी बनाई। मनु से उत्पन्न पुत्र सूर्यवंशी कहलाये। उस युग में सूर्यवंशियों के अयोध्या, विदेह, वैशाली आदि राज्य थे।
मनु के 9 पुत्र तथा एक पुत्री इला थी। मनु ने अपने राज को 10 भाग में बांट कर सबको दे दिया। अयोध्या का राज्य उनके बाद उनके 1. बडे़ पुत्र इक्ष्वाकु को मिला। उसके वंशज इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय कहलाये। राजा मनु का 2. दूसरा पुत्र नाभानेदिस्त था। जिसे बिहार का राज्य मिला और आजकल इस इलाके को तिरहुत कहते है। इनके 3. तीसरा पुत्र विशाल हुए। जिन्होंने वैशाली नगरी बसा कर अपनी राजधानी बनाई। मनु के 4. चौथा पुत्र करूष के वंशज करूष कहलाये। इनका राज्य बघेलखंड था। उस युग में यह प्रदेश करूष कहलाने लगा। 5. पाँचवा शर्याति नामक मनु के पुत्र को गुजरात राज्य मिला और उसका 6. छटा पुत्र आनर्त था। जिससे वह प्रदेश आनर्त कहलाया। आनर्त देश की राजधानी कुशस्थली वर्तमान में द्वारका थी। आनर्त के रोचवान, रेव और रैवत तीन पुत्र थे। रैवत के नाम पर वर्तमान गिरनार रैवत पर्वत राक्षसों ने समाप्त कर दिया। मनु के 7. सावतें पुत्र का राज्य यमुना के पश्चिमी तट तथा 8. आठवाँ पुत्र धृष्ट का राज्य पंजाब में था। जिसके वंशज धृष्ट क्षत्रिय कहलाये।
इक्ष्वाकु के कई पुत्र थे, परन्तु मुख्य दो थे, राजा की ज्येष्ठ संतान 1. विकुक्षी था, जिसे शशाद भी कहा जाता था। वह पिता के बाद अयोध्या का राजा बना। शशाद के पुत्र का नाम काकुत्स्थ था, जिसके वंशज काकुत्स्थी कहलाए। इक्ष्वाकु का 2. दूसरा पुत्र निर्मा था, उसका राज्य अयोध्या और विदेह के बीच स्थापित हुआ। इस वंश के एक राजा मिथि हुए, जिन्होनें मिथिला नगरी बसाई। इस वंश में राजा जनक हुए। इस राज्य और अयोध्या राज्य के बीच की रेखा सदानीरा (राप्ती) नदी थी।
Kshatriya Vanshavali

इस वंश की आगे चलकर अनेक शाखा-उपशाखा हुई और वे सब सूर्यवंशी कहलाए। इस वंश के महत्वपूर्ण नरेशों के नाम पर अनेक वंशों के नाम हुए, जैसे-इक्ष्वाकु काकुत्स्थ से काकुत्स्थ वंश कहलाया। रघु के वंशज रघुवंशी कहलाए। अयोध्या के महाराजा काकुत्स्थ का पौत्र पृथु हुआ। इसने शुरू में जमीन को नपवा कर हदबन्दी करवाई। उसके समय में कृषि की बड़ी उननति हुई थी। उसी वंश में चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता, सगर, भगीरथ, दिलीप, रघु, दशरथ और राम हुए।

सूर्यवंशी राजाओं की नामावली
क्षत्रियों की गणना करते हुए, सर्वप्रथम सूर्यवंश का नाम लिया जाता है। इसकी उत्पत्ति महापुरुष विवस्वान् (सूर्य) से मानी जाती है। ब्रह्मा के पुत्र मरिज के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप की रानी अदिती से "सूर्य" की उत्पत्ति हुई। जिसे विवस्वान् भी कहा जाता है। विवस्वान् के पुत्र "मनु" हुए। मनु के नव पुत्र एवं एक पुत्री ईला थी। जिनमें सबसे बडे़ इक्ष्वाकु थे। इसलिए सूर्य वंश को इक्ष्वाकु वंश भी कहा जाता है। मनु ने ही अयोध्या को बसाया था। भिन्न-भिन्न पुराणों में दी गई सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली इस प्रकार है:- 1.मनु 2. इक्ष्वाकु 3. विकुक्षि 4. परंजय 5. अनेना 6. पृथु 7. वृषदश्व 8. अन्ध्र 9. युवनाश्व 10. श्रावस्त 11. वृहदश्व 12. कुवलायाश्व 13. दृढाश्व 14. प्रमोढ 15. हर्रूश्व 16. निंकुभ 17. संहताश्व 18. कुशाश्व 19. प्रसेनजित 20. युवनाश्व (द्वितीय) 21. मान्धाता 22. पुरूकुतस 23. त्रसदस्यु 24. सम्भूल 25. अनरण्य 26. त्रसदश्व 27. हर्यस्व 28. वसुमान् 29. त्रिधन्वा 30. त्ररूयारूणि 31. सत्यव्रत 32. हरिश्चन्द्र 33. रोहिताश्व 34. हरित 35. चंचु 36. विजय 37. रूरूक 38. वृक 39. बाहु 40. सगर 41. असमंजस 42. अंशुमान 43. दिलीप 44. भागीरथ 45. श्रुत 46. नाभाग 47. अम्बरीष 48. सिन्धुद्वीप 49. अयुतायु 50. ऋतुपर्ण 51. सर्वकाम 52. सुदास 53. सोदास 54. अश्मक 55. मूलक 56. दशरथ 57. एडविड 58. विश्वसह 59. दिलीप (खटवाँग) 60. रघु 61. अज 62. दशरथ 63. रामचन्द्र 64. कुश 65. अतिथि 66. निषध 67. नल 68. नभ 69. पुण्डरीक 70. क्षेमधन्ध 71. देवानीक 72. पारियाग 73. दल 74. बल 75. दत्क 76. वृजनाभ 77. शंखण 78. ध्युपिताश्न 79. विश्वसह 80. हिरण्नाभ 81. पुष्य 82. धु्रवसन्धि 83. सुदर्शन 84. अग्निवर्ण 85. शीध्र्र 86. मरू 87. प्रसुश्रुत 88. सुसन्धि 89. अमर्ष 90. सहस्वान् 91. विश्वभन 92. वृहद्बल 93. वृहद्रर्थ 94. उरूक्षय 95. वत्सव्यूह 96. प्रतिव्योम 97. दिवाकर 98. सहदेव 99. वृहदश्व 100. भानुरथ 101. प्रतीतोश्व 102. सुप्रतीक 103. मरूदेव 104. सुनक्षत्र 105. किन्नर 106. अंतरिक्ष 107. सुपर्ण 108. अमित्रजित् 109. बहद्राज 110. धर्मी 111. कृतंजय 112. रणंजय 113. संजय 114. शाक्य 115. शुद्धोधन 116. सिद्धार्थ 117. राहुल 118. प्रसेनणित 119. क्षुद्रक 120. कुण्डक 121. सुरथ 122. सुमित्र

उपरोक्त नाम सूर्यवंशी मुख्य-मुख्य राजाओं के हैं, क्योंकि मनु से राम के पुत्र कुश तक केवल चैसठ राजाओं के नाम मिलते हैं। जबकि यह अवधि लगभग कई करोड़ वर्षों की है। अतः पुराणों में सभी राजाओं के नाम आना अंसभव भी हैं।

सूर्यवंश से निकली शाखाएँ
1. सूर्यवंशी 2. निमि वंश 3.निकुम्भ वंश 4. नाग वंश 5. गोहिल वंश, 6. गहलोत वंश 7. राठौड़ वंश 8. गौतम वंश 9. मौर्य वंश 10. परमार वंश, 11. चावड़ा वंश 12. डोड वंश 13. कुशवाहा वंश 14. परिहार वंश 15. बड़गूजर वंश, 16. सिकरवार 17. गौड़ वंश 18. चैहान वंश 19. बैस वंश 20. दाहिमा वंश, 21. दाहिया वंश 22. दीक्षित वंश

चन्द्रवंशी क्षत्रिय
द्वितीय आर्यों का समूह चंद्रवंशी क्षत्रियों के नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद के अनुसार यह समूह चंद्रवंशी क्षत्रिय के नाम से जाना जाता और यह हिमालय को गिलगिट के रास्ते से पार किया और मनासा झील के पास से होते हुए भारत आए। इनका सर सूर्यवंशीय के मुकाबले चौड़ा होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार चंद्रवंश के प्रथम राजा का नाम यायात्री था। यह आयु के पुत्र और पूर्वा के पौत्र थे, इनको चंद्रवंशीय कहा जाता है तथा इनके 5 पुत्र थे। यह गिलगिट होते हुए सरस्वती नदी के क्षेत्र में आए ओर सरहिन्द होते हुए दक्षिण पूर्व में बस गए। यह क्षेत्र सूर्यवंशियों के अधिकार में नहीं था। प्रारंभिक युग में चन्द्र क्षत्रिय का पुत्र बुद्ध था, जो सोम भी कहलाता था। बुद्ध का विवाह मनु की पुत्री इला से हुआ। उनसे उत्पन्न हुए पुत्र का नाम पुरूरवा था। इसकी राजधानी प्रयाग के पास प्रतिष्ठानपुर थी। पुरूरवा के वंशज चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहलाए। पुरूरवा के दो पुत्र आयु और अमावसु थे। आयु ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते राज्य का स्वमाी बना तथा अमावसु को कान्यंकुब्ज (कन्नौज) का राज्य मिला।
आयु के नहुष नामक पुत्र हुआ। नहुष के दो पुत्र हुए ययाति और क्षत्रबुद्ध। ययाति इस वंश में सर्वप्रथम चक्रवर्ती सम्राट बना और उसके भाई क्षत्रबुद्ध को काशी प्रदेश का राज्य मिला। उसकी छठी पीढ़ी में काश नामक राजा हुआ, जिसने काशी नगरी बसाई थी तथा काशी को अपनी राजधानी बनाई। सम्राट ययाति के यदु, द्रुह्य, तुर्वसु, अनु और पुरू पाँच पुत्र हुए। सम्राट ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरू को प्रतिष्ठानपुर का राज्य दिया, जिसके वंशज पौरव कहलाए। यदु को पश्चिमी क्षेत्र केन, बेतवा और चम्बल नदियों के काठों का राज्य मिला। तुर्वसु को प्रतिष्ठानपुर का दक्षिणी पूर्वी प्रदेश मिला, जहाँ पर तुर्वसु ने विजय हासिल कर अधिकार जमा लिया। वहाँ पहले सूर्यवंशियों का राज्य था। दुह्य को चम्बल के उत्तर और यमुना के पश्चिम का प्रदेश मिले और अनु को गंगा-यमुना के पूर्व का दोआब का उत्तरी भाग, यानी अयोध्या राज्य के पश्चिम का प्रदेश मिला। ये यादव आगे चलकर बडे़ प्रसिद्ध हुए। इनसे निकली हैहयवंशी शाखा काफी बलशाली साबित हुई। हैहयंवशजों ने आगे बढ़कर दक्षिण में अपना राज्य कायम कर लिया था। यादव वंश में अंधक और वृष्णि बडे़ प्रसिद्ध राजा हुए हैं।
जिनसे यादवों की दो शाखाएं निकली। प्रथम शाखा अंधक वंश में आगे चलकर उग्रसेन और कंस हुए, जिनका मथुरा पर शासन था। दूसरी शाखा वृष्णिवंश में कृष्ण हुए, जिसने कंस को मारकर उसके पिता उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया। आगे चलकर वृष्णिवंश सौराष्ट्र प्रदेेश स्थित द्वारका में चला गया।
दुह्य वंश में गांधार नामक राजा हुआ, उसने वर्तमान रावलपिंडी के उत्तर पश्चिम में जो राज्य कायम किया, वहीं गांधार देश कहलाया। अनु के वंशज आनय कहलाते है।
इस वंश में उशीनर नामक राजा बड़ा प्रसिद्ध हुआ है। उसके वंशज समूचे पंजाब में फैले हुए थे। उशीनर का पुत्र शिवि अपने पिता से अधिक प्रतापी शासक हुआ और चक्रवर्ती सम्राट कहलाया। दक्षिणी पश्चिमी पंजाब में शिवि के नाम पर एक शिविपुर नगर था, जिसे आजकल शेरकोट कहा जाता है। चन्द्रवंशियों में यौधेय नाम के बडे़ प्रसिद्ध क्षत्रिय हुए थे।
कन्नौज के चन्द्रवंशी राजा गाधी का पुत्र विश्वरथ था, जिसने राजपाट छोड़कर तपस्या की थी। वहीं प्रसिद्ध "ऋषि विश्वामित्र" हुआ। इन्हीं ऋषि विश्वामित्र ने "गायत्री मंत्र" की रचना की थी। यादवों की हैहय शाखा में कार्तवीर्य अर्जुन बड़ा शक्तिशाली शासक था, जो बाद में चक्रवर्ती सम्राट बन गया था, परन्तु अन्त में परशुराम और अयोध्या के शासक से युद्ध में परास्त होकर मारा गया।
पौरव वंश का एक बार पतन हो गया था। इस वंश में पैदा हुए दुष्यन्त ने बड़ी भारी शक्ति अर्जित कर अपने वंश को गौरवान्वित किया। दुष्यनत के बडे़ भाई एवं शकुन्तला का पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट बना। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि जिसके नाम पर यह देश भारत कहलाया। इसके वंशज हस्ती ने ही हस्तिनापुर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया। इसी वंश के शासकों ने पांचाल राज्य की स्थापना की, जो बाद में दो भागों में बंट गया। एक उत्तरी पांचाल ओर दूसरा दक्षिणी पांचाल। उत्तरी पांचाल की राजधानी का नाम अहिच्छत्रपुर था, जो वर्तमान में बरेली जिले में रामनगर नामक स्थान है। दक्षिण पांचाल में कान्यकुब्ज का राज्य विलीन हो गया था जिसकी राजधानी काम्पिल्य थी। पौरव वंश में ही आगे चलकर भीष्म पितामह, धृतराष्ट्र, पांडु, युधिष्ठिर, परीक्षित और अन्य राजा हुए।

चन्द्र-वंश से निकली शाखाएँ
1. सोमवंशी 2. यादव 3. भाटी 4. जाडे़दार 5. तोमर 6. हैहय, 7. करचुलिसया 8. कौशिक 9. सेंगर 10. चेन्दल 11. गहरवार 12. बेरूआर, 13. सिरमौर 14. सिरमुरिया 15. जनवार 16. झाला 17. पलवार 18. गंगावंशी 19. विलादरिया 20. पुरूवंशी 21. खातिक्षत्रिय 22. इनदौरिया 23. बुन्देला 24.कान्हवंशी, 25. रकसेल 26. कुरूवंशी 27. कटोच 28. तिलोता 29. बनाकर 30. भारद्वाज 31. सरनिहा 32. द्रह्युवंशी 33. हरद्वार 34. चैपटखम्भ 35. क्रमवार 36. मौखरी 37. भृगुवंशी 38. टाक

नागवंश क्षत्रिय
आर्यों में एक क्षत्रिय राजा शेषनाग था। उसका जो वंश चला, वह नागवंश कहलाया। प्रारम्भ में इनका राज्य कश्मीर में था। वाल्मीकि रामायण में शेषनाग और वासुकी नामक नाग राजाओं का वर्णन मिलता है। महाभारत काल में ये दिल्ली के पास खांडव वन में रहते थे, जिन्हें अर्जुन ने परास्त किया था। इनके इतिहास का वर्णन राजतरंगिणी में मिलता है।
विदिशा से लेकर मथुरा के अंचल तक का मध्यप्रदेश नागवंशियों की शक्ति का केंद्र होने से उन्होनें विदेशियों से जमकर लोहा लिया। ये लोग शिवोपासक थे, जो शिवलिंगों को कंधों और पगडि़यों में धारण किया करते थे। कुषाण साम्राज्य के अंतिम शासक वासुदेव के काल में भारशिवों (नागों) ने काशी में गंगा तक पर दस अश्वमेध यज्ञ किए जो दशाश्वमेध घाट के रूप में स्मृति स्वरूप आज भी विद्यमान हैं। पुराणों में भारशिवों का नवनागों के नाम से वर्णन है। धर्म विषयक आचार-विचार को समाज में स्थापित करने का श्रेय गुप्तों को न जाकर भारशिवों को जाता है। क्योंकि इसकी शुरूआत उनके शासन काल में ही हो चुकी थी। इतिहास के विद्वानों का मत है कि पंजाब पर राज्य करने वाले नाग 'तक' अथवा 'तक्षक' शाखा के नाग थे।
डॉ. जायसवाल मानते है कि पद्मावती वाले नाग भी तक्षक अथवा टाक शाखा के थे। इन नागों की शाखा कच्छप मध्यप्रदेश में थी। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर पश्चिमी भारत के गणतांत्रिक राज्यों का इन नागों को सहयोग रहा होगा। इस पारस्परिक सार्वभौमिकता को इन्होनें स्वीकारा। राजस्थान स्थित नागों के राज्यों को परमारों ने समाप्त कर दिया था। इनका गोत्र काश्यप, प्रवर तीन काश्यप, वत्सास, नैधुव वेद सामवेद, शाखा कौथुमी, निशान हरे झण्डे पर नाग चिन्ह तथा शस्त्र तलवार है।

अग्निवंश क्षत्रिय
भारत के राजकुलों में चार कुल चैहान, सोलंकी, परमार तथा प्रतिहार थे, जो अपने को अग्निवंशी मानते हैं। आधुनिक भारतीय व विदेशी विद्वान इस धारणा को मिथ्या मानते हैं। किन्तु इनमें से दो-तीन विद्वानों को छोड़कर सभी सभी अग्निकुल की धारणा को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार भी करते हैं, इसलिए यहाँ अग्निकुल की उत्पत्ति के प्रश्न पर विचार करना आवश्यक हैं। इन कुलों की मान्यता है कि अग्निकुंड से इन कुलों के आदि पुरूष, मुनि वशिष्ठ द्वारा आबू पर्तत पर उत्पन्न किए गए थे। डॉ. दशरथ शर्मा लिखते है कि असुरों का संहार करने के लिए वशिष्ठ ने चालुक्य, चैहान, परमार और प्रतिहार चार क्षत्रिय कुल उत्पन्न किए।
सोलंकियों के बारे मे पूर्व सोलंकी राजा, राजराज प्रथम के समय में वि.1079 (ई. 1022) के एक ताम्रपत्र के अनुसार भगवान पुरूषोत्तम की नाभि कमल से ब्रह्या उत्पन्न हुए, जिनेस क्रमशः सोम, बुद्ध व अन्य वंशजों में विचित्रवीर्य, पाण्ड, अर्जुन, अभिमन्यु, परीक्षित, जन्मेजय आदि हुए। इसी वंश के राजाओं ने अयोध्या पर राज किया था। विजयादित्य ने दक्षिण में जाकर राज्य स्थापित किया। इसी वंश में राजराज हुआ था।
सोलंकियों के शिलालेखों तथा कश्मीरी पंडित विल्हण द्वारा वि. 1142 में रचित 'विक्रमाक्ड़ चरित्र' में चालुक्यों की उत्पत्ति ब्रह्या की चुल्लु से उत्पन्न वीर क्षत्रिय से होना लिखा गया है जो चालुक्य कहलाया। पश्चिमी सोलंकी राजा विक्रमादित्य छठे के समय के शिलालेख वि. 1133 (ई.1076) में लिखा गया है कि चालुक्य वंश भगवान ब्रह्या के पुत्र अत्रि के नेत्र से उत्पन्न होने वाले चन्द्रवंश के अंतर्गत आते हैं।
अग्निकुल के दूसरे कुल चैहानों के विषय में वि. 1225 (ई.1168) के पृथ्वीराज द्वितीय के समय के शिलालेख में चैहानों को चंद्रवंशी लिखा है। 'पृथ्वीराज विजय' काव्य में चैहानों को सूर्यवंशी लिखा है तथा बीसलदेव चतुर्थ के समय के अजमेर के लेख में भी चैहानों को सूर्यवंशी लिखा है।
आबू पर्वत पर स्थित अचलेश्वर महादेव के मन्दिर में वि. 1377 (ई. 1320) के देवड़ा लुंभा के समय के लेख में चौहानों के बारे में लिखा है कि सूर्य और चंद्र वंश के अस्त हो जाने पर जब संसार में दानवों का उत्पात शुरू हुआ तब वत्स ऋषि के ध्यान और चंद्रमा के योग से एक पुरूष उत्पन्न हुआ।
ग्वालियर के वंतर शासक वीरम के कृपापात्र नयनचन्द्र सूरी ने 'हम्मर महाकाव्य' की रचना वि. 1460 (ई. 1403) के लगभग की, जिसमें उसने लिखा है कि पुष्कर क्षेत्र में यज्ञ प्रारम्भ करते समय राक्षसों द्वारा होने वाले विघ्रनों की आशंका से ब्रह्या ने सूर्य का ध्यान किया, इस पर यज्ञ के रक्षार्थ सूर्य मंडल से उतर कर एक वीर आ पहुँचा। जब उपरोक्त यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब ब्रह्मा की कृपा से वह वीर चाहुमान कहलाया।
अग्निकुल के तीसरे वंश प्रतिहारों के लेखों में मंडोर के शासक बाउक प्रतिहार के वि. 894 (ई. 837 ) के लेख में 'लक्ष्मण को राम का प्रतिहार लिखा है जैसा प्रतिहार वंश का उससे संबंध दिखाया है' इसी प्रकार प्रतिहार कक्कूक के वि. 918 (ई. 861) के घटियाला के लेख में भी लक्ष्मण से ही संबंध दिखाया है। कन्नौज के प्रतिहार सम्राट भोज की ग्वालियर की प्रशस्ति में प्रतिहार वंश को लक्ष्मण के वंश में लिखा है। चैहान विक्रहराज के हर्ष के वि. 1030 (ई. 973) के शिलालेख में भी कन्नौज के प्रतिहार सम्राट को रघुवंश मुकुटमणि लिखा है। इस प्रकार इन तमाम शिलालेखों तथा बालभारत से प्रतिहारों का सूर्यवंशी होना माना जाता है।
परमारों के वशिष्ठ के द्वारा अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने की कथा परमारों के प्राचीन से प्राचीन शिलालेखों और काव्यों में विद्यमान है। डॉ. दशरथ शर्मा लिखते हैं कि हम किसी अन्य राजपूत जाति को अग्निवंशी मानें या न मानें, परमारों को अग्निवंशी मानने में हमें विशेष दुविधा नहीं हो सकती। इनका सबसे प्राचीन वर्णन मालवा के परमार शासक सिन्धुराज वि. 1052-1067 के दरबारी कवि पदमगुप्त ने अग्निवंशी होने का तथा आबू पर वशिष्ठ के कुण्ड से उत्पन्न होने का लिखा है। इसी प्रकार परमारों के असनतगढ़, उदयपुर, नागपुर, अथुंणा, हाथल, देलवाड़ा, पाटनारायण, अचलेश्वर आदि के तमाम लेखों में इनकी उत्पत्ति के बारे में इसी प्रकार का वर्णन हैं परमार अपने को चन्द्रवंशी मानते है।
इस प्रकार इन तमाम साक्ष्यों द्वारा किसी न किसी रूप में इन वंशों को विशेष शक्तियों द्वारा उत्पन्न करने की मान्यता की पुष्टि 10 वीं सदी तक तो लिखित प्रमाण हैं। विद्वानों ने अग्निवंशी होने के मान्यता 16 वीं सदी से प्रारम्भ होती है तथा इसे प्रारम्भ करने वाला ग्रन्थ "पृथ्वीराज रासो" हैं। दूसरी ओर भ्ण्डारनक वाट्सन, फारबस, कैम्पबेल, जैक्सन, स्मिथ आदि विद्वानों ने अग्निवंशियों को गूर्जर और हूर्णों के साथ बाहर से आये हुए मानते है। दूसरा विचार इनकी उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। जिसमें यह सोचा गया है कि क्या किसी कारणवश इन वंशों को शुद्ध किया गया है और इस अग्निवंशियों द्वारा अग्नि से शुद्व करने की मान्यता को स्वीकार करते है। भारत में बुद्ध धर्म के प्रचार से बहुत से लोगों ने बुद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया।
शनैः शनैः सारा ही क्षत्रिय वर्ग वैदिक धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को अंगीकार करता चला गया। भारत में चारों तरफ बौद्ध धर्म का प्रचार हो गया। क्षत्रियों के बौद्ध धर्म में चले जाने के कारण उनकी वैदिक क्रियाएँ, परम्पराएँ समाप्त हो गई। जिससे इनके सामा्रज्य छोटे और कमजोर हो गए। तथा इनका वीरत्व जाता रहा। और तब क्षत्रियों को वापस वैदिक धर्म में पुनः लाने की प्रक्रिया शुरू हुई। और क्षत्रिय कुलों को बौद्ध धर्म से वापस वैदिक धर्म में दीक्षित किया गया और आबू पर्वत पर यह यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया तथा इन्हें अग्नि कुल का स्वरूप दिया गया।
अब्दुल फजल के समय तक प्राचीन ग्रन्थों से या प्राचीन मान्यताओं से यह तो विदित ही था कि यह चारों वंश बौद्ध धर्म से वापस वैदिक धर्म में आये। जिसका वर्णन अब्दुल फजल ने "आइने अकबरी" में किया है। कुमारिल भट्ट ने विक्रमी संवत् 756 (ई. 700 में) बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म को वापस वैदिक धर्म में लाने का कार्य प्रारम्भ किया। जिसे आदि शंकराचार्य ने आगे चलकर पूर्ण किया।
आबू पर्वत पर यज्ञ करके चार क्षत्रिय कुलों को वापस वैदिक धम्र में दीक्षा देने का यह एक ऐतिहासिक कार्यक्रम था, जो करीब छठी या 7 वीं सदीं में हुआ। यह कोई कपोल कल्पना नहीं थी, न कोई मिथ्या बात थी, अपितु वैदिक धर्म को पुनः सशक्त करने का प्रथम कदम था, जिसकी याद के रूप में बाद में ये वंश अपने को अग्नि वंशी कहने लगे।
क्षत्रिय व वैश्यों के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद वैदिक संस्कार तो लुप्त हो गए थे। यहाँ तक कि वे शनैः शनैः अपने गोत्र तक भी भूल चुके थे। जब वे वापस वैदिक धर्म में आए, तक क्षत्रियों तथा वैश्यों द्वारा नए सिरे से पुरोहित बनाए गए, उन्हीं के गोत्र, उनके यजमानों के भी गोत्र मान लिए गए। इसलिए समय-समय पर नए स्थान पर जाने पर जब पुरोहित बदले तो उनके साथ अनेक बार गोत्र भी बदलते चले गए। वैद्य और ओझा की भी यही मान्यता है।

अग्नि-वंश से निकली शाखाएँ
1. परमार 2. सोलंकी 3. परिहार 4. चैहान 5. हाड़ा 6. सोनगिरा 7. भदौरिया 8. बछगोती 9. खीची 10. उज्जैनीय 11. बघेल 12. गन्धवरिया 13. डोड 14. वरगया 15. गाई 16. दोगाई 17. मड़वार 18. चावड़ा 19. गजकेसर 20. बड़केसर 21. मालवा 22. रायजादा 23. स्वर्णमान 24. बागड़ी 25. अहबन 26. तालिया 27. ढेकहा 28. कलहंस 29. भरसुरिय 30. भुवाल 31. भुतहा 32. राजपूत माती

क्षत्रियों के 36 राजवंश (रॉयल मार्शल क्लेन ऑफ़ क्षत्रिय)
सभी लेखकों की यह मान्यता है कि क्षत्रियों के शाही कुलों (राजवंश) की संख्या 36 है। परन्तु कुछ इतिहासकारों ने इन की संख्या कम और कुछ ने ज्यादा लिखी है। कुछ इतिहासकारों ने शाही कुलों की शाखाओं को भी शाही कुल मान लिया। जिससे इनकी संख्या बढ़ गई है। प्रथम सूची चंद्रवर्दायी ने पृथ्वीराज राजसों में 12 वीं शताब्दी में वर्णित किया है।

क्षत्रियों की 36 रॉयल मार्शल क्लेन आफॅ क्षत्रिय (क्षत्रियों के 36 शाही कुल)
इन 36 शाही कुलों (रॉयल मार्शल क्लेन) में 10 सूर्यवंशी, 10 चंद्रवंशी, 4 अग्निवंशी, 12 दूसरे वंश । सभी लेखकों जैसे कर्नल जेम्स टॉड, श्री गौरीशंकर ओझा, श्री जगदीश सिंह परिहार, रोमिला थापर, स्वामी दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, राजवी अमर सिंह, बीकानेर शैलेन्द्र प्रताप सिंह-बैसवाड़े का वैभव, प्रो. लाल अमरेन्द्र-बैसवाड़ा एक ऐतिहासिक अनुशीलन भाग-1, रावदंगलसिंह-बैस क्षत्रियों का उद्भव एवं विकास, ठा. ईश्वरसिंह मडाढ़ - राजपूत वंशाली, ठा. देवीसिंह मंडावा इत्यादि ने यह माना है कि क्षत्रियों के शाही कुल 36 है लेकिन किसी ने सूची में इनकी संख्या बढ़ा दी है और किसी ने कम कर दी है।
  1. पहली सूची चंद्रवर्दायी जिन्होंने पृथ्वीराजरासो लिखा है बाद इन्होंने पृथ्वीराज रासो के छन्द 32 में छन्द के रूप में कुछ क्षत्रियों के कुल को लिखा है जो इस प्रकार है।
  2. पृथ्वीराज रासो में चंद्रवर्दायी ने कुछ कुलों को एक छन्द (दोहा) के रूप में लिखा है। जो द्वितीय सूची के रूप में प्रकाशित हुई
  3. तृतीय सूची में 36 क्षत्रिय कुल कर्नल टॉड ने नाडोल सिटी (मारवाड़) के जैन मंदिर के पुजारी से प्राप्त कर प्रकाशित किया
  4. चतुर्थ सूची में हेमचंद्र जैन ने "कुमार पालचरित्र" में 36 क्षत्रियों की सूची प्रकाशित की।
  5. पंचम सूची में मोगंजी खींचियों के भाट ने प्रकाशित की
  6. छठी सूची में नैनसी ने 36 शाही कुलों तथा उनके राजधानियों का वर्णन किया गया है
  7. सातवीं सूची में जो पद्मनाभ ने जारी की में प्रकाशित हुई
  8. आठवीं सूची में हमीरयाना जो भन्दुआ में प्रकाशित की।
इसमें 30 कुल का वर्णन है। इस प्रकार से कुल क्षत्रियों की 8 सूचियाँ प्रकाशित हुई। और करीब करीब सभी ने गणना में 36 शाही कुल माने है। प्रारम्भिक 36 कुलों की सूची में मौर्यवंशी तथा नाग वंश का स्थान न मिलना यही सिद्ध करता है कि ये प्रारम्भ में वैदिक धर्म में नहीं आये तथा बौद्ध बने रहे। तथा इतिहासकारों जैसे राजवी अमर सिंह, बीकानेर, प्रो. अमरेन्द्र सिंह, जगदीश सिंह परिहार, राव दंगल सिंह, शैलेन्द्र प्रतापसिंह, ठा. ईश्वरसिंह, ठा. देवी सिंह मंडावा, बीकानेर क्षत्रिय वंश का इतिहास आदि ने भी 36 कुल का वर्णन किया है।

प्रसिद्ध इतिहासकार श्री चिंतामणि विनायक वैद्य ने पृथ्वीराज रासो वर्णित पद्य को अपनी पुस्तक 'मिडाइवल हिन्दू इंडिया' में 36 शाखाओं का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि रवि, राशि और यादव वंश तो पुराणों में वर्णित वंश है, इनकी 36 शाखाएं हैं। एक ही शाखा वाले का उसी शाखा में विवाह नहीं हो सकता। इसे नीचे से ऊपर की ओर पढ़ने से क्रमशः निम्न शाखाएँ हैः 1. काल छरक्के 'कलचुरि' यह हैहय वंश की शाखा है। 2. कविनीश 3. राजपाल 4. निकुम्भवर धान्य पालक 6. मट 7. कैमाश 'कैलाश' 8. गोड़ 9. हरीतट्ट 10. हुल-कर्नल टॉड ने इसी शाखा को हुन लिख दिया है जिससे इसे हूणों की भा्रंति होती है। जबकि हुल गहलोत वंश की खांप है। 11. कोटपाल 12. कारट्टपाल 13. दधिपट-कर्नल टॉड साहब ने इसे डिडियोट लिखा है। 14. प्रतिहार 15. योतिका टॉड साहब ने इसे पाटका लिखा है। 16. अनिग-टॉड साहब ने इसे अनन्ग लिखा है। 17. सैन्धव 18. टांक 19. देवड़ा 20. रोसजुत 21. राठौड़ 22. परिहार 23. चापोत्कट 'चावड़ा' 24. गुहीलौत 25. गोहिल 26. गरूआ 27. मकवाना 28. दोयमत 29. अमीयर 30. सिलार 31. छदंक 32. चालुक्य 'चालुक्य' 33. चहुवान 34. सदावर 35. परमार 36. ककुत्स्थ ।

श्री मोहनलाला पांड्या ने इस सूची का विश्लेषण करते हुए ककुत्स्थ को कछवाहा, सदावर को तंवर, छंद को चंद या चंदेल, दोयमत को दाहिमा लिखा है। इसी सूची में वर्णित रोसजुत, अनंग, योतिका, दधिपट, कारट्टपाल, कोटपाल, हरीतट, कैमाश, धान्यपाल, राजपाल आदि वंश आजकल नहीं मिलते। जबकि आजकल के प्रसिद्ध वंश वैस, भाटी, झाला, सेंगर आदि वंशों की इस सूची में चर्चा ही नहीं हुई।

मतिराम के अनुसार छत्तीस कुल की सूची इस प्रकार है:-
1. सूर्यवंश 2. पेलवार 3. राठौड़ 4. लोहथम्भ 5. रघुवंशी 6. कछवाहा 7. सिरमौर 8. गहलोत 9. बघेल 10. काबा 11. श्रीनेत 12. निकुम्भ 13. कौशिक 14. चन्देल 15. यदुवंश 16. भाटी 17. तोमर 18. बनाफर 19. काकन 20.रहिहो वंश 21. गहरवार 22. करमवार 23. रैकवार 24. चंद्रवंशी 25. शकरवार 26. गौर 27. दीक्षित 28. बड़वालिया 29. विश्वेन 30. गौतम 31. सेंगर 32. उदय वालिया 33. चौहान 34. पड़िहार 35. सोलंकी 36. परमार। इन्होनें भी कुछ प्रसिद्ध वंशों को छोड़कर कुछ नये वंश लिख दिये है। इन्होंने भी प्रसिद्ध बैस वंश को छोड़ दिया है।

कर्नल टॉड के पास छत्तीस कुलों की पाँच सूचियाँ थी जो उन्होंने इस प्रकार प्राप्त की थी:-
  1. यह सूची उन्होंने मारवाड़ के अंतर्गत नाडौल नगर के एक जैन मंदिर के यती से ली थी। यह सूची यती जी ने किसी प्राचीन ग्रंथ से प्राप्त की थी।
  2. यह सूची उन्होंने अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंदबरदाई के महाकाव्य पृथ्वीराज रासो से ग्रहण की थी।
  3. यह सूची उन्होंने कुमारपाल चरित्र से ली थी। यह ग्रंथ महाकवि चंदबरदाई के समकालीन जिन मण्डोपाध्याय कृत हैं। इसमें अन्हिलवाड़ा पट्टन राज्य का इतिहास है।
  4. यह सूची खींचियों के भाट से मिली थीं
  5. पांचवीं सूची उन्हें भाटियों के भाट से मिली थी।

इन सभी सूचियों से सामग्री निकालकर उन्होंने यह सूची प्रकाशित की थी:-
1. ग्रहलोत या गहलोत 2. यादु (यादव) 3. तुआर 4. राठौर 5. कुशवाहा 6. परमार 7. चाहुवान या चौहान 8. चालुक या सोलंकी 9. प्रतिहार या परिहार 10. चावड़ा या चैरा 11. टाक या तक्षक 12. जिट 13. हुन या हूण 14. कट्टी 15. बल्ला 16. झाला 17. जैटवा, जैहवा या कमरी 18. गोहिल 19. सर्वया या सरिअस्प 20. सिलार या सुलार 21. डाबी 22. गौर 23. डोर या डोडा 24. गेहरवाल 25. चन्देला 26. वीरगूजर 27. सेंगर 28. सिकरवाल 29. बैंस 30. दहिया 31. जोहिया 32. मोहिल 33. निकुम्भ 34. राजपाली 35. दाहरिया 36. दाहिमा।किसी कवि ने राजपूतों के वंशों का विवरण निम्न दोहे में किया है:-
दस रवि स दस चंद्र से, द्वादस ऋषि प्रमान।
चारी हुताशन यज्ञ से, यह छत्तीस कुल जान।।

इस प्रकार इस दोहे में छः वंशों और छत्तीस कुलों की चर्चा की गयी है: राय कल्याणजी बड़वा जी का वास जिला जयपुर ने इसकी व्याख्या इस प्रकार से की है:
1. सूर्यवंश से ये है: 1. सूर्यवंशी (मौरी) 2. निकुम्भ (श्रीनेत) 3. रघुवंशी 4. कछवाहे 5. बड़गूजर (सिकरवार) 6. गहलोत (सिसोदिया) 7. गहरवार(राठौर) 8. रैकवार 9. गौड़ या गौर 10. निमि वंश (कटहरिया) इत्यादि हैं।
2. चंद्रवंश से ये है: 1. यदुवंशी (जादौन, भाटी, जाडे़चा) 2. सोमवंशी 3. तंवर (जंधारे, कटियार) 4. चन्देल 5. करचुल (हैहय) 6. बैस (पायड, भाले सुल्तान) 7. पोलच 8. वाच्छिल 9. बनाफर 10. झाला (मकवाना)
3. अग्निवंश से ये हैः 1. परिहार 2. परमार (उज्जेने, डोडे, चावड़ा) 3. सोलंकी (जनवार, बघेले, सुरखी) 4. चौहान (हाड़ा, खींची, भदौरिया)
4. ऋषिवंश से ये है: 1. सेंगर 2. कनपुरिया 3. बिसैन 4. गौतम 5. दीक्षित 6. पुंडीर 7. धाकरे भृगुवंशी 8. गर्गवंशी 9. पडि़पारिण देवल 10. दाहिमा
5. नागवंश से ये है: 1. टांक या तक्षक
6. भूमि वंश से ये है: 1. कटोच या कटोक्ष

उपरलिखित वंशों के संदर्भ में स्पष्ट किया है। राजपूतों में कोई भी अग्निवंशी नहीं है और न ही नागों या भूमि से उत्पन्न वंश ही हैं। ये सभी अलंकारिक नाम हैं। राजपूतों के सभी वंश ऋषियों की संतान हैं। इन्होंने सूर्यवंशी, बैस क्षत्रियों को चन्द्रवंश में लिखा है जो सही नहीं है, ये सूर्यवंशी है। भाले सुल्तान बैस वंश की एक शाखा है। जिसके नाम से सुल्तानपुर बसा है।

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क्षत्रियों/राजपूतों का ऐतिहासिक महत्व



भारत में वर्ण व्यवस्था की शुरूआत के पहले से ही क्षत्रियों के अस्तित्व की जानकारी उपलब्ध है। ऋग्वेद में अनेकों स्थान पर ‘‘क्षत्र‘‘ एवं क्षत्रिय शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद में क्षत्रिय शब्द का प्रयोग शासक वर्ग के व्यक्तित्व का सूचक है। यहां पर ‘‘क्षत्र‘‘ का प्रयोग प्रायः शूरता एवं वीरता के अर्थ में हुआ है। जिसका अभिप्राय लोगों की रक्षा करना था तथा गरीबों को सरंक्षण देना था। यहां क्षत्रिय शब्द का प्रयोग राजा के लिये किया गया है। अतः समाज में क्षत्रियों का एक समूह बन गया जो शूर, वीरता और भूस्ववामी के रूप में अपना आधिपत्य स्थापित किया और शासक के रूप में प्रतिष्ठत हुये।

 

उत्तर वैदिक काल तक क्षत्रियों को राजकुल से संबंधित मान लिया गया। इस वर्ग के व्यक्ति युद्ध कौशल और प्रशासनिक योग्यता में अग्रणी माने जाने लगे। यह समय क्षत्रियों के उत्कर्ष का समय था। इस काल में क्षत्रियों को वंशानुगत अधिकार मिल गया था तथा वे शस्त्र और शास्त्र के ज्ञाता भी बन गये थे। इस प्रकार राजा जो क्षत्रिय होता था वह राज्य और धर्म दोनों पर प्रभावी हुआ। पुरोहितों पर राजा का इतना प्रभाव पड़ा कि वे राजा का गुणगान करने लगे तथा उनको महिमा मंडित करने के लिये उन्हें दैवी गुणों से आरोहित किया और उन्हें देवत्तव प्रदान किया तथा अपनी शक्ति के प्रभाव से राजा को अदण्डनीय घोषित किया गया।

राजपद एवं राजा की प्रतिष्ठा के साथ क्षत्रियों की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई। वृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि क्षत्रिय से श्रेष्ठ कोई नहीं है। ब्राह्मण का स्थान उसके बाद आता है। इससे यह स्पष्ठ होता है कि राज्य शक्ति से सम्मलित क्षत्रिय जो ब्राह्मणों के रक्षक और पालक हैं सामाजिक क्षेत्र में श्रेंष्ठ स्वीकार किये गये। बा्रह्यण की श्रेष्ठता का आधार उनका बौद्धिक एवं दार्शनिक होना था। इसका हास हुआ और क्षत्रिय इन क्षेत्रों में भी अग्रणी हुये। राजा जनक, प्रवाहणजबलि, अवश्वपति, कैकेय और काशी नरेश अजातशत्रु ऐसे शासक थे, जिनसे शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने बा्रह्यण आते थे। पौरोहित्य, याज्ञिक क्रियाओं, दार्शनिक गवेषणाओं में भी क्षत्रियों ने ब्रह्यणों के एकाधिकर को चुनौती दी। इन परिस्थतियों में क्षत्रियों ने बा्रह्यणों की श्रेष्ठता को अस्वीकार किया। महाभारत में तो यहां तक कहा गया कि बा्रह्यणों को क्षति से बचाने के कारण ये ‘‘क्षत्रिय‘‘ कहे गये। इस प्रकार क्षत्रियों ने शस्त्र और शास्त्र दोनों के ज्ञाता हो अपनी श्रेष्ठता स्थापित की।

इस पूर्ण भू भारत के चप्पा-चप्पा भू को रक्त से सींचने वाले क्षत्रिय वंश के पूर्वज ही तो थे। इनकी कितनी सुन्दर समाज व्यवस्था, कितनी आदर्श परिवार व्यवस्था, कितनी निष्कपट राज व्यवस्था, कितनी कल्याणीकारी अर्थव्यवस्था और कितनी ऊँची धर्म व्यवस्था थी। आज भी क्षत्रिय वंश और भारत को उन व्यवस्थाओं पर गर्व है। यह व्यवस्थाएँ क्षत्रिय वंश द्वारा निर्मित, रक्षित और संचालित थीं। इसके उपरान्त विश्व साहित्य के अनुपम ग्रन्थ महाभारत और रामायण इसी काल में निर्मित हुए। गीता जैसा अमूल्य रत्न भी इसी वंश की कहानी कहता है। जिसका मूल्यांकन आज का विद्वान न कर सका है और न कर सकता है। इन दोनों में क्षत्रिय वंश के पूर्वजों की गौरव गाथएँ और महिमा का वर्णन है। जिन्होंने विश्व विजय किया था और इस भू-खण्ड के चक्रवर्ती समा्रट रहे थे। महाभारत का युद्ध दो भाईयों के परिवार का साधारण गृह युद्ध नहीं था। वह धम्र और अधर्म का युद्ध था। जो छात्र धर्म के औचित्य और स्वरूप को स्थिर रखने का उदाहरण था।

परम् ब्रह्य परमात्मा के रूप में जिस भगवान कृष्ण की भक्ति का भागवत में वर्णन किया गया है, वे 16 कलाओं से परिपूर्ण भगवान कृष्ण भी तो हमारे पूर्वज थे। यह जाति अति आदर्शवान, उच्च निर्भीक और अद्वितीय है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्य, और उत्पीड़न के सामने झुकना, नतमस्तक होना नहीं जानती तथा वह पराजय व पतन को भी विजय और उल्लास में बदलना जानती है। रघुवंशियों के गौरव गाथा और उज्जवल महिमा का वर्णन रघुवंश में दिया गया है। इसे पढ़ने पर मन आनन्दित और आत्मा पुलकित हो उठती है।

परम् श्रद्धेय अयोध्यापति श्री राम रघुवंशी भी तो हमारे पूर्वज थे। उनके गौरव व बड़प्पन की तुलना संसार में किसी से नहीं की जा सकी। यहीं नहीं बौद्व धर्म और जैन धर्म के प्रवर्तक और अंहिसा का पाठ पढ़ाने वाले क्षत्रिय पुत्र भगवान बुद्ध और क्षत्रिय पुत्र महावीर ही तो थे। जिन्होनें उस समय देश को अंहिसा का पाठ पढ़ाया। अतः इस वसुन्धरा में क्षत्रिय जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति विद्यमान नहीं है, जिसके पीछे इतना साहित्यिक बल, प्रेरणा के स्त्रोत और जिनकी गौरवमई गरिमा एवं शौर्य का वर्णन इतने व्यापक और प्रभाव पूर्ण ढंग से हुआ हो। अपने सम्मान और कुल गौरव की रक्षा के लिए वीरांगनाओं ने अग्नि स्नान (जौहर) और धारा (तलवार) स्नान किया है। मैं यह मानने के लिए कभी तैयार नहीं हूँ कि जिस जाति और वंश के पास इतनी अमूल्य निधि और अटूट साहित्यिक निधि हो वह स्वयं अपने पर गर्व नहीं कर सकती।

सतयुग का इतिहास हमें वैदिक वाग्ड.मय के रूप में देखने को मिलता है। वैदिक और उत्तर वैदिक साहित्य में तत्कालीन जीवन दर्शन समाज व्यवस्था आदि का सांगोपांग चित्रण मिलता है। त्रेता और द्वापर युगों के इतिहास पर समस्त पौराणिक सहित्य भरा पड़ा है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत उसी इतिहास के दो अमूल्य ग्रन्थ है। महाभारत काल के पूर्व का हजारों वर्षों का इतिहास क्षत्रिय इतिहास मात्र है। महाभारत काल के पश्चात् लगभग डेढ़ हजार वर्ष का इतिहास भारतीय इतिहास की दृष्टि से अंधकार का युग कहा जा सकता है, पर यह बताने में हमें तनिक भी संकोच नहीं है कि उस समय का समस्त भारत और आस-पास के प्रदेशों पर क्षतित्रों का सर्वभौम प्रभुत्व था।

मौर्यकाल का इतिहास तिथिवार, क्रमवार उपलब्ध है। मौर्यकाल से लगाकर मुसलमानों के आक्रमण तक भारत की क्षत्रिय जाति सर्वभौम प्रभुत्व सम्पन्न जाति रही है। इस्लामी प्रभुत्व के समय में भी जौहर और शाका करके जीवित रहने वाली मर-मर कर पुनः जीवित होने वाली क्षत्रिय जाति का इतिहास हिन्दु भारत का इतिहास है। अतः मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि संसार के प्राचीनतम सभ्य देश भारत में इतिहास में से क्षत्रिय इतिहास निकालने के उपरान्त कुछ भी नहीं बचता। अतः दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि मूल्यतः क्षत्रियों का इतिहास ही भारत का इतिहास है।

इस प्रकार महान ओर व्यापक हिन्दू संस्कृति के अन्तर्गत क्षत्रियों (राजपूतों) की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति रही है। यह विशिष्ट संस्कृति कालान्तर में विशिष्ट आचार-विचार, विशिष्ट भाषा, विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कला-कौशल, विशिष्ठ राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं के कारण ओर भी सबल बनी है।

अतः राजपूत एक ऐसा वंश है, जिसके स्वयं के राजनियम, राजविधान, शासन प्रणाली, सभ्य संसार के इतिहास में सबसे अधिक समय तक प्रचलित रहे हैं तथा सबसे अधिक कल्याणकारी और सफल सिद्ध हुई है। बीच-बीच में कुछ राजाओं द्वारा अपने अलग के नियम और प्रजा के अमंगलकारी कार्यों से पूरे क्षत्रिय वंश को बुरा नहीं कहा जा सकता। जहां राजपूतों ने एक ओर भारतीय संस्कृति की रक्षा की, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी स्वयं की विशिष्ट संस्कृति का निर्माण किया। यह विशिष्ट राजपूत संस्कृति आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होती है। यहां मैं कहना चाहूँगा कि सभी क्षत्रिय शासक निरंकुश नहीं थे, बल्कि इनके समय में शिक्षा, कला, संगीत और संस्कृति की अद्भुत उननति हुई थी। कई तो स्वयं इसके पारखी भी थे, कई तो गरीबों के मित्र एवं सरंक्षक थे। उन्हें सहायता एवं भोजन देते थे। इसमें महाराज हर्ष सबसे अग्रणी थे। ये बैस क्षत्रिय ही तो थे ओर अपनी बहन से मांगकर कपडे़ पहनते थे। बैसवाडे़ में गंगा तट पर बहुत से महत्वपूर्ण स्थान हैं। जिनकी खुदाई कर हम अपने प्राचीन इतिहास को उजागर कर सकते है। यहां समय-समय पर प्राचीन तथा पुरातत्व महत्व की वस्तुओं, सिक्के, बर्तन, हथियार मिलते रहते हैं। जिससे हमारी प्राचीन सभ्यता का ज्ञान होता है। बैसवाड़ा का गंगा तटीय इलाका इस प्राचीन एवं पुरातत्व की वस्तुओं की खान है।

निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि कितने लाख वर्ष पहले हमारे पूर्वजों ने इस वर्ण व्यवस्था को अपना कर सामाजिक जीवन में एक महत्वशाली अनुशासन की व्यवस्था की थी। अतैव अतीत के उस सुदूर प्रभात में भी मानवता के लक्षण, पौषण और उसके लौकिक और परलौकिक उत्कर्ष के लिए यदि कोई वर्ण उत्तरदायी था तो वह वर्ण मुख्य रूप से क्षत्रिय ही तो था ओर यदि कोई जाति और व्यक्ति उत्तरादायी था तो वह क्षत्रिय ही तो था।

पौराणिक काल के जम्बूदीप पर एकछत्र राज की यदि किसी जाति ने स्थापना की तो वह एक मात्र क्षत्रिय ही तो थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पृथ्वी को वर्तमान आकार और स्वरूप देने वाले और इसका दोहर कर समस्त जीवनोपयोगी सामग्री उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति क्षत्रिय राजा पृथु ही थे। हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण और प्रशान्त महासागर से लगाकर ईरान के अति पश्चिमी भाग के भू-खण्ड के अतिरिक्त पूर्वी भाग में तथा आसाम पर क्षत्रियों का ही तो शासन था। यहाँ तक कि देवासुर संगा्रम में देवताओं ने क्षत्रियों का तेज, छात्र शक्ति अन्तर्दृष्टि देखकर ही इनसे सहायता प्राप्त की। एक ओर क्षत्रियों द्वारा रक्षित शान्ति के समय वेदों की रचना हुई तथा सर्वभौमिक सिद्धान्तों के प्रणेता उपनिषेदों के अधिकांश आचार्य क्षत्रिय ही तो थे। कोई आज बता सकता है कि संसार में वह कौनसी जाति है जिसमें अवतरित मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम की भारत के आधी से ज्यादा नर-नारी, परमेश्वर के रूप में उसकी उपासना करते हैं तथा कोई बता सकता है कि वह कौनसी जाति है जिसमें पुरूषोत्तम योगी राज भगवान कृष्ण अवतरित हुए हैं। क्या कोई बता सकता है कि वह कौनसी जाति थी जिसके काल में वाल्मीकि रामायण, महाभारत एवं गीता की रचना हुई। क्या कोई बता सकता है कि सर्वप्रथम शान्ति और अंहिसा का पाठ पढ़ाने वाले बौद्व धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध और जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर किस जाति के थे। इन सब प्रश्नों का उत्तर है "क्षत्रिय"।

जिस समय संसार की अन्य जातियाँ अपने पैरों पर लड़खड़ाते हुई उठने का प्रयास कर रही थी, उस समय भारत वर्ष में क्षत्रिय महान सामा्रज्यों के अधिष्ठाता थे:- साहित्य, कला, वैभव, ऐश्वर्य, सुख, शानित के जन्मदाता थे। स्वर्णयुग भारत ज्ञान गुरू भारत और विश्व विजयी भारत के शासक क्षत्रिय ही तो थे। विदेशी आक्रमणकारी यवन, शक, हुर्ण, कुशान जातियों को क्षत्रियों के बाहुबल के सामने नतमस्तक होना पड़ा था। यह क्षत्रिय ही तो थे, जिन्होनें इन आक्रमणकारी जातियों के अस्तित्व तक को भारत में आज ऐतिहासिक खोज बना दिया है। हम उन पूर्वजों को कैसे भूला सकते हैं, जिन्होनें देश भर में शौर्य और तेज के बल से प्रबल राज्यों का निर्माण कर इतिहास में राजपूत काल को अमर कर दिया। इसके बाद इस्लाम धर्म का प्रबल तूफान उठा और भारत की प्राचीन संस्कृतियों, सुव्यवस्थित सामा्रज्यों, दीर्घकालीन व्यवस्थाओं को एक के बाद एक करके धराशायी कर दिया। भारत में इन आक्रमणकारियों का सामना मुख्य रूप से क्षत्रियों को ही करना पड़ा। सामा्रज्य नष्ट हुए, जातियाँ समाप्त हुई, स्वतंत्रता विलुपत हुई पर संघर्ष बन्द नहीं हुआ।

क्या कोई इतिहासकार बता सकता है कि राजपूतों के अतिरिक्त संसार में कोई भी अन्य जाति हुई हैं, जिसने धर्म और सम्मान की रक्षा के लिए सैकडों शाके कियें हो। वे राजपूत नारियों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसी नारियाँ संसार में हुई, जिन्होनें हँसते-हँसते जौहर कर प्राणों की आहूति दी हो व धारा (तलवार) स्नान किया हो। इसका उदाहरण इतिहास में अन्यथा नहीं मिलेगा।

इस्लाम धर्म का प्रभाव सैकेड़ों वर्षों तक क्षत्रियों से टकराकर निश्तेज होकर स्वतः शानत हो गया। कितने आश्चर्य की बात है कि क्षत्रिय राज्यों के पश्चात् स्थापित होने वाला मुस्लमानी राज्य क्षत्रिय राज्यों से पहले ही समाप्त हो गया।

महात्मा बुद्व के प्रभाव से अधिकांश क्षत्रियों ने बौद्व धर्म स्वीकार कर लिया और अंहिसा पर विश्वास करने लगे। अशोक महान एक शक्तिशाली राजा के रूप में उदित हुए। उसके बाद महाराजा हर्षवर्धन जो कि एक बैस क्षत्रिय राजा थे, जो शीलादित्य के नाम से प्रसिद्व हुए और एक चक्रवर्ती राजा का रूप लिया। जिनका शासन नर्मदा के उत्तर से नेपाल तक तथा अफगानिस्तान, ईरान से लेकर पूर्व में आसाम तक था और जिसके सम्मुख कोई भी राजा सर नहीं उठा सकता था। इन्होनें भी अन्त में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। साथ ही अधिकतर क्षत्रिय जाति ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और इनके बाद कोई प्रभावशाली उत्तराधिकारी न होने के कारण इनका राज्य छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। बौद्व धर्म समाज की शााश्वत आवश्यकता, सुरक्षा के लिए अनुपयोगी सिद्ध हुआ। उसने राष्ट्र की स्वभाविक छात्र शक्ति को निश्तेज, पंगु और सिद्धान्त हीन बना दिया। वह राष्ट्र पर बाहरी आक्रमणों के समय असफल सिद्ध होने लगा। अतैव क्षत्रियों ने छात्र धर्म के प्रतिपादक वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की, परन्तु शक्तिशाली केन्द्रिय शासन के अभाव में राजपूत राजा आपस में युद्ध करते-करते छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गए। जिसका लाभ मुस्लिम काल में मुस्लिम आक्रान्ताओं को मिला और क्षत्रिय अपनी शक्ति को क्षीण करते रहे तथा अपने अस्तित्व के लिये लड़ते रहे और भगवान कृष्ण के उपदेशों की पालन करते रहे, परंन्तु संघर्ष को कभी विराम नहीं दिया। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि वास्तव में धर्म युद्ध से बढ़कर कल्याणकारक कत्र्तव्य क्षत्रिय के लिए और कुछ नहीं।
  स्वधर्ममपि चावेक्ष्यण् न विकम्पितुमर्हसि।
धम्र्याद्धि युद्धाच्दे, योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।
और यदि धर्म युद्ध, संगा्रम को क्षत्रिय नहीं करता तो स्वधर्म, कीर्ति को खोकर पाप का भागी होता।
 अथ चेत्वमिमं धम्यं, संगा्रमं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्म कीर्ति च, हित्वा पापमवाप्स्यसि।।

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क्षमामूर्ति संत एकनाथ जी महाराज



भारत की संत परम्परा में एकनाथ जी महाराज का अपना विशेष स्थान है। भक्त श्रेष्ठ भानु प्रताप के पुत्र चक्रपाणि और चक्रपाणि के पुत्र सूर्यनारायण के घर लगभग 1590 संवत में एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम एकनाथ रखा गया। इनकी माता का नाम रुक्मणी था। बालक के जन्म के समय मूल नक्षत्र था जिसके प्रभाव से बालकपन में ही इनके माता पिता का देहांत हो गया। जब बालक एकनाथ अनाथ हो गया, तब इनका लालन-पालन इनके पितामह ने किया। 12 वर्ष की आयु में बालक एकनाथ के जीवन में घटना घटित होती है जब वे एक शिवालय में कीर्तन कर रहे थे तो रात्रि के अन्तिम पहर में आकाशवाणी होती है, ‘‘जाओ! देवगढ़ में जनार्दन पंत के दर्शन करो।’’ आकाशवाणी को सुनकर एकनाथ जी देवगढ़ की ओर चल पड़े और वहाँ उन्हें संवत् 1602 में जनार्दन पंत के दर्शन हुए। गुरुदेव श्री जनार्दन पंत ने एकनाथ जी को आश्रम की भोजन व्यवस्था का कार्य सौंप दिया। एक दिन एक पाई का हिसाब न मिलने के कारण वे पूरी रात हिसाब मिलाने में लगे रहे और जैसे ही उन्हें अपनी भूल ज्ञात हुई, वे अत्यधिक प्रसन्न होकर गुरुजी के पास आये। गुरुजी बोले, पुत्र! जब तुम एक पाई की भूल ज्ञात होने पर इतने प्रसन्न हो, तो जीवन की भूल जान लेने पर कितने प्रसन्न होंगे? कहा जाता है कि गुरुदेव जनार्दन पंत साक्षात् भगवान दत्तात्रेय थे।
 

एकनाथ जी के जीवन में बहुत से चमत्कार देखने एवं सुनने को मिलते हैं। कहा जाता है कि कृष्णा एवं गोदावरी नदियाँ भी मनस्वी रूप धारण कर आपकी कथा सुनने को आती थीं। एकनाथ जी महाराज दृढ़ विश्वास के साथ कथा का वर्णन करते थे। आपके जीवन की एक घटना इस प्रकार है- एक बार वे रामकथा कह रहे थे- प्रसंग था अशोक वाटिका में सीता जी एवं हनुमान का संभाषण। इसमें एकनाथ जी महाराज बोले कि अशोक वाटिका में सफेद रंग के पुष्प थे, इस पर श्री हनुमान जी ने प्रकट हो कर कहा कि वाटिका के पुष्प लाल रंग के थे। इस पर एकनाथ जी ने कहा, नहीं! पुष्प सफेद रंग के थे। श्री हनुमान जी ने कहा कि आप माँ जानकी जी से पूछ लीजिए। श्री जानकी जी ने कहा कि वत्स हनुमान ठीक कह रहे हैं, वाटिका के पुष्प लाल रंग के ही थे। पुनः एकनाथ जी ने अपने पक्ष पर जोर देकर कहा कि अशोक वाटिका में पुष्प सफेद रंग के ही थे, लाल रंग के नहीं। अब ये तीनों वादी भगवान श्री रामचंद्र जी के पास आये और भगवान के सम्मुख अपना पक्ष रखा। तब भगवान ने विवाद को निपटाते हुए कहा कि अशोक वाटिका के पुष्प सफेद रंग के थे परन्तु हनुमान जी एवं जानकी जी को क्रोध के कारण सफेद रंग के पुष्प लाल रंग के दिखाई पड़ रहे थे। यह एकनाथ जी महाराज का दृढ़ विश्वास था। इस संदर्भ में गोस्वामी जी कहते हैं-
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु।। मानस उत्तर. दो.-10

दूसरी घटना
एक बार एकनाथ जी महाराज अपनी संत मण्डली के साथ गोमुख से गंगा जल लेकर सेतुबंध रामेश्वरम की ओर जा रहे थे, रामेश्वरम के निकट समुद्र के रेत में एक गधा प्यास से व्याकुल होकर कातर दृष्टि से देख रहा था। एकनाथ जी ने अपनी काँवर में उपस्थित जल पिलाकर संत मण्डली से कहा कि यदि आप अपनी काँवर का जल भी इस गधे को पिला दें तो इसके प्राण बच सकते हैं। इस पर संत मण्डली ने विरोध तो प्रकट किया परन्तु एकनाथ जी महाराज के निवेदन को टाल न सके जैसे ही गधे ने गंगाजल ग्रहण किया, साक्षात भगवान गौरी शंकर प्रकट हो गये।

तीसरी घटना
एक बार एकनाथ जी महाराज ने अपने पितरों को श्राद्ध करने के लिए बहुत स्वादिष्ट भोजन बनवाया तथा श्राद्ध का भोजन ग्रहण करने के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित किया। ब्राह्मणों के आने से पूर्व ही कुछ महर जाति के लोग वहाँ से गुजर रहे थे, भोजन की सुगंध से प्रभावित होकर उन्होने कहा कि अहा! कितने सुंदर एवं स्वादिष्ट व्यंजनों की सुगंध आ रही है। एकनाथ जी के इतना सुनने पर आपने महर जाति के लोगों को रोक कर भोजन करवाया। इसके पश्चात् ब्राह्मणों ने जब यह सुना तो वे बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने श्राद्ध ग्रहण करने से इनकार कर दिया तत्पश्चात् घटना कहती है कि पितरों ने साक्षात प्रकट होकर श्राद्ध ग्रहण किया।
 
चौथी घटना
एक बार कुछ चोरों ने चोरी करने के उद्देश्य से एकनाथ जी के घर में प्रवेश किया, घर का सम्पूर्ण सामान इकट्ठा कर, जब वे चलने लगे तो अंधे हो कर सामान से टकराकर गिरने लगे। इसी समय एकनाथ जी महाराज की समाधि टूटी तो इन्होंने चोरों को दृष्टि देकर सामान भी साथ दे दिया।

पाँचवी घटना
एक बार पैथड़ में एक वेश्या रहती थी। वेश्या के विषय में तो सभी लोग जानते ही हैं। एक दिन वेश्या एकनाथ जी महाराज से मिलने गयी और महाराज श्री से निवेदन भी किया कि आप मेरा स्थान भी पवित्र कीजिए। इस पर एकनाथ जी ने कहा, ‘‘अवश्य। एकनाथ जी महाराज ने समाज की संकीर्ण रूढि़ को तोड़कर वेश्या के घर जाकर, उसे परम पवित्र कर दिया। घटना कहती है कि उसी दिन से वेश्या भगवद्भजन करने लग गयी।

छटी घटना
एक दिन अत्यधिक वर्षा हो रही थी। अर्द्धरात्रि के समय चार ब्राह्मण एकनाथ जी महाराज के घर पहुंचे। कई दिनों से लगातार वर्षा के कारण घर पर सूखे ईंधन का अभाव था। एकनाथ जी को ब्राह्मणों की सेवा के लिए सूखे ईंधन की आवश्यकता थी, तो इन्होंने अपने पलंग को तोड़कर सूखे ईंधन की व्यवस्था करके, ब्राह्मणों की यथा योग्य सेवा की।

सातवीं घटना
एकनाथ जी महाराज का गोदावरी स्नान करने का नित्य का नियम था। एक दिन प्रातः जब महाराज जी गोदावरी स्नान करके लौट रहे थे, तब सराय के पास रहने वाले एक मुसलमान युवक ने उनके ऊपर कुल्ला कर दिया। महाराज श्री पुनः गोदावरी स्नान के लिए चल पड़े, लौटने पर मुसलमान युवक ने पुनः अपनी करतूत दोहरा दी। यह क्रम 108 वार तक चला। 108 वीं बार युवक का हृदय द्रवीभूत हो गया। उसने एकनाथ जी महाराज के चरण पकड़कर क्षमा याचना की। इस पर महाराज जी ने कहा, ‘‘बेटा! तू धन्य है, तेरी कृपा से आज एकादशी के दिन मेरा 108 बार गोदावरी स्नान हो गया। इसी परिप्रेक्ष्य में संत कवि कहते हैं-
जो सहि दुख परछिद्र दुुरावा। बंदनीय जेंहि जग जस पावा।।
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू।। मानस बाल. दो. 01-06,07

आठवीं घटना
एक बार कुछ असामाजिक तत्वों ने मिलकर प्रस्ताव बनाया कि एकनाथ जी महाराज को क्रोधित किया जाए। उनमें से एक युवक ने अपने सभी साथियों के समक्ष संकल्प किया कि वह एकनाथ जी को क्रोधित कर सकता है। युवक ने योजनानुसार कार्य करना शुरू किया। वह जूते पहन कर एकनाथ जी महाराज की रसोई में घूमने लगा और घर को दूषित करने का प्रयोजन करने लगा। एकनाथ जी महाराज की धर्मपत्नी घर को बुहार रहीं थीं, तो वह उछल कर उनकी पीठ पर बैठ गया। एकनाथ जी ने उसे ऐसा करते देखकर अपनी पत्नी से कहा, ‘‘बच्चा आपकी पीठ पर बैठा है, उसे चोट नहीं लगनी चाहिए।’’ तब उनकी पत्नी ने कहा, ‘‘यह तो मेरे बच्चे जैसा है। मैं इसे अपने बच्चे की तरह रखूँगी तथा दुलार करूँगीं।’’ इतना सुनते ही युवक की सम्पूर्ण शरारत सिर के बल दौड़ गयी। उसने दोनों से क्षमा माँगी।


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