सरदार पटेल के नेतृत्व में हैदराबाद का विलय और नेहरू द्वारा जनित कश्मीर समस्या



Merger of Hyderabad led by the Sardar Pateland Kashmir problem generated by Jawaharlal Nehru
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सरदार पटेल के नेतृत्व में हैदराबाद का विलय
भारतीय शासकों में सबसे अधिक महात्वाकांक्षी हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली खां बहादुर थे। जिन्होनें 12 जून 1947 को घोषित किया कि निकट भविश्य में ब्रिटिश सर्वोच्च सत्ता के हटने के साथ हैदराबाद एक स्वतन्त्र राज्य की स्थिति प्राप्त कर लेगा। उन्होनें 15 अगस्त 1947 के पश्चात् एक तीसरे अधिराज्य की कल्पना की जो ब्रिटिश कामनवेल्थ का सदस्य होगा। ब्रिटिश सरकार के राजनीतिक सलाहकार सर कानरेड कारफील्ड उन्हें लगातार प्रोत्साहित कर रहे थें।
15 अगस्त 1947 के पूर्व हैदराबाद के प्रतिनिधियों एवं भारत के राज्य विभाग के मध्य कोई समझौता न हो सका। लार्ड माउण्टबैटन वार्ता भंग नहीं करना चाहते थे। अतः उन्होनें सरकार तथा निजाम के मध्य वार्तालाप दो माह का और समय दिया। वार्ता के उपरान्त भारत सरकार तथा हैदराबाद के निजाम के बीच 29 नवम्बर 1947 को एक ‘‘यथास्थिति समझौता‘‘ हुआ जिसके अनुसार यह हुआ कि-‘‘15 अगस्त 1947 के पूर्व तक हैदराबाद से पारस्परिक सम्बन्ध की जो व्यवस्था थी। वह बनी रहेगी सुरक्षा वैदेशिक सम्बन्ध और परिवहन की कोई नई व्यवस्था नहीं की जायेगी। इस समझौते से सम्प्रभुता के प्रश्न पर कोई प्रभाव नहीं पडे़गा।’’
29 नवम्बर, 1947 को उपनिवेश संसद 41 में समझौता की चर्चा करते हुए रियासती विभाग के मंत्री के रूप में सरदार पटेल ने उन परिस्थितियों का वर्णन किया जिसके परिणामस्वरूप ‘‘यथास्थिति समझौता हुआ।’’ सरदार पटेल ने आशा व्यक्त की कि ‘‘एक वार्ता के काल में हम दोनों के बीच निकट सम्बन्ध स्थापित हो जायेंगे और आशा हैं कि इसके परिणामस्वरूप स्थायी रूप से भारतीय संघ में शामिल हो जायेगा 42 पटेल को विश्वास था कि इस समझौते से नया वातावरण उत्पन्न होगा तथा यह‘ मित्रता और सद्भावना के साथ क्रियान्वित होगा।’’

यथास्थिति समझौते की स्याही सूख भी न पाई थी कि निजाम की सरकर ने दो अध्यादेषों को जारी करके समझौते का उल्लंघन किया। भारत सरकार को सूचना मिली की हैदराबाद सरकार ने पाकिस्तान को 20 करोड़ रुपये का ऋण दिया। हैदराबाद सरकार विदेशों में अपने प्रतिनिधि नियुक्त करना चाहती थी तथा उसमें बिना भारत सरकार को सूचित किये पाकिस्तान में एक जनसम्पर्क अधिकारी भी नियुक्त कर दिया सरदार पटेल के अस्वस्थ्य होने के कारण 15 मार्च 1948 को एन0 वी0 गाडगिल ने संसद को सूचित किया की हैदराबाद समझौते की शर्तों का पालन नहीं कर रहा हैं तथा सीमावर्ती घटनाओं से पूरा दक्षिण और मध्य पश्चिमी भारत संकटापन्न बन गया है।

16 अप्रैल 1948 को लायक अली ने सरदार पटेल से भेंट की। सरदार ने कासिम रिजवी के उस भाषण पर आपत्ति की जिसमें रिजवी ने कहा था कि ‘‘यदि भारतीय संघ हैदराबाद में हस्तक्षेप करेगा तो उसे वहाँ 150 हिन्दुओं की हड्डियों और राख के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा।’’ चेतावनी देते पटेल ने कहा-‘‘मैं आपको असमंजस की स्थिति में नहीं रखना चाहता। हैदराबाद की समस्या उसी प्रकार हल होगी जैसी कि अन्य रियासतों की। कोई दूसरा विकल्प नहीं हैं। हम कभी भारत के अन्दर एक अलग स्वतन्त्र स्थान के लिए सहमत नहीं हो सकते जिससे भारतीय संघ की एकता भंग हो जिसे हमने अपने खून तथा पसीने से बनाया है। हम मैत्रीपूर्ण ढंग से रहना तथा समस्याओं को सुलझाना चाहते हैं, पर इसका अभिप्राय यह नहीं है कि हम कभी भी हैदराबाद की स्वतन्त्रता पर सहमत हो जायेगें। हैदराबाद का स्वतन्त्र अस्तित्व प्राप्त करने का प्रत्येक प्रयास असफल होगा।’’

जून 1948 में निजाम के संवैधानिक सलाहकार सर वाल्टर मांकटन तथा लार्ड माउण्टबैटन के मध्य समझौते का प्रारूप तैयार हुआ जिसे निजाम के प्रधान मंत्री लायक अली की भी स्वीकृति प्राप्त थी। इस समझौते से सरदार पटेल सहमत न थे पर माउण्टबैटन की सलाह पर पटेल ने अपनी स्वीकृति दे दी। निजाम ने उस समझौते को भी अस्वीकार कर दिया। ब्रिटिश कामन सभा में विरोधी दल के नेता चर्चिल ने हैदराबाद के समर्थन तथा भारत विरोधी बयान दिये। 29 जून 1948 को पटेल ने संसद में चर्चिल पर सदैव भारत विरोधी प्रचार करने का आरोप लगाया। सरदार पटेल ने कहा-‘‘चर्चिल एक निर्लज्ज साम्राज्यवादी हैं और उस समय जब साम्रज्यावाद अपनी अन्तिम सांसे ले रहा हैं उनकी हठधर्मीपूर्ण, बुद्धिहीनता, तर्क ,कल्पना या विवेक की सीमा को पार कर रही है।’’ सरदार पटेल के अनुसार इतिहास साक्षी है कि ‘‘भारत तथा ब्रिटेन के बीच मैत्री के अनेक प्रयास चर्चिल की अडिग नीति के कारण असफल रहे।’’

ब्रिटिश नेताओं को भारत के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के विरूद्ध चेतावनी देते हुए सरदार ने कहा-‘‘हैदराबाद का प्रश्न शान्ति के साथ सुलझ सकता हैं। यदि निजाम अल्पसंख्यक लड़ाकू वर्ग में से चुने गये शासक वर्ग द्वारा राज्य करने की मध्यकालीन प्रथा को त्याग दें। जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों के सुझावों और परामर्श पर प्रजातंत्रात्मक रीति से चले और हैदराबाद तथा भारत की भौगोलिक, आर्थिक तथा अन्य बाध्यकारी शक्तियों द्वारा दोनों पर पड़ने वाले अनिवार्य प्रभाव को समझे।’’

हैदराबाद की समस्या दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी। पाकिस्तान से चोरी छिपे शस्त्र आ रहे थे, सीमाओं पर गड़बड़ी पैदा की जा रही थी तथा रेलगाड़ियों को लूटा जा रहा था। हजारों कांग्रेस कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया तथा कांग्रेस संगठन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। रजाकारों ने साम्यवादियों से सांठ-गाँठ कर ली। 28 अगस्त, 1948 को दिल्ली में हैदराबाद समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने की सूचना दी।

अगस्त के अन्त तक हैदराबाद की स्थिति इतनी विस्फोटक हो गई थी कि सरदार पटेल ने निश्चय किया कि यह उचित होगा कि निजाम को आभास करा दिया जाए कि भारत सरकार के धैर्य की सीमा समाप्त हो गई है। 09 सितम्बर 1948 को यह तय हुआ कि शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने तथा सीमावर्ती राज्यों में सुरक्षा की भावना पैदा करने हेतु हैदराबाद में पुलिस कार्यवाही की जाये। अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार मेजर जनरल जे0 एन0 चैधरी के कमान में सेनाओं ने हैदराबाद की ओर कूँच किया जिसे ‘‘आपरेशन पोलो‘‘ का नाम दिया गया। 17 सितम्बर 1948 को हैदराबाद की सेनाओं ने आत्मसमर्पण कर दिया तथा 18 सितम्बर को भारतीय सेनाओं ने हैदराबाद नगर में प्रवेश किया। पुलिस कार्यवाही के नियत समय के पूर्व भी ब्रिटिश सेना उच्च अधिकारी द्वारा प्रयास हुआ कि कार्यवाही को स्थगित कर दिया जाये पर सरदार पटेल अपने निर्णय पर अडिग रहे।

1 अक्टूबर 1948 को भारती सेना अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए सरदार पटेल ने इस आरोप से इन्कार किया कि भारत सरकार ने हैदराबाद पर आक्रमण किया। सरकार का तर्क था कि इस प्रकार की भ्रान्ति फैलाने वाले आक्रमण शब्द के सही अर्थ नहीं जानते हैं। ‘‘हम अपने ही लोगों पर कैसे आक्रमण कर सकते हैं?.........हैदराबाद की जनता भारत का हिस्सा हैं।’’ हैदराबाद में पुलिस कार्यवाही के नेहरू पक्ष में न थे। उन्होनें एक बैठक में अपना रोष भी प्रकट किया। के0 एम0 मुंशी ने लिखा हैं-‘‘यदि जवाहरलाल की इच्छानुसार कार्य होता, तो हैदराबाद एक अलग राज्य के रूप में भारत के पेट पर दूसरा पाकिस्तान होता, एक पूर्ण भारत विरोधी राज्य जो उत्तर और दक्षिण को अलग करता, यद्यपि पुलिस कार्यवाही की सफलता के पश्चात् जवाहरलाल प्रथम व्यक्ति थे जो हैदराबाद मुक्तिदाता के रूप में स्वागत हेतु गये।’’
नेहरु द्वारा जनित कश्मीर समस्या
यदि शेख अब्दुल्ला के प्रभाव से जवाहरलाल नेहरू कश्मीर विभाग सरदार पटेल के रियासत विभाग से न ले, तो कश्मीर कभी भी एक समस्या न बनती जैसा कि अब बन गयी। कश्मीर की समस्या भारत-पाकिस्तान के मध्य सबसे अधिक उलझी समस्या रही है। भारत के उत्तर-पष्चिम सीमा पर स्थित यह राज्य भारत तथा पाकिस्तान दोनों को जोड़ता है। सामरिक दृष्टि से कश्मीर की सीमा अफगानिस्तान तथा चीन से मिलती है तथा सोवियत रूस की सीमा कुछ ही दूरी पर है कश्मीर का बहुसंख्य भाग लगभग 79 प्रतिशत मुस्लिम धर्मी था पर वहां के अनुवांषिक शासक हिन्दू थे।32 कैबिनेट मिषन के जाने के बाद पटेल ने कश्मीर समस्या पर विशेष रुचि ली। 03 जुलाई 1947 को कश्मीर के महाराजा हरीसिंह को पत्र लिखकर सरदार ने नेहरू की कश्मीर में गिरफ्तारी तथा शेख अब्दुल्ला व नेशनल कान्फ्रेंस के कार्यकताओं को लगातार बन्दी बनाये रखने पर क्षोभ प्रकट किया। अपने पत्र में सरदार पटेल ने कहा- ‘‘मैं आपकी रियासत की भौगोलिक दृष्टि से नाजुक स्थिति को समझता हूँ कि कश्मीर का हित अविलम्ब भारतीय संघ तथा संविधान सभा में सम्मिलित होने में ही है।’’ सरदार पटेल ने निराशा प्रकट की कि लार्ड माउण्टबैटन को समय देकर भी महाराजा ने बीमारी का सन्देश भेजकर उनसे भेंट नहीं की। 4 व 5 जुलाई को पटेल की कश्मीर के प्रधानमंत्री पं0 रामचन्द्र किंकर से भेंट हुई।

ब्रिटिश सत्ता के स्थानान्तरण के समय कश्मीर नरेश महाराजा हरीसिंह ने एक स्वतंत्र कश्मीर राष्ट्र की कल्पना की थी तथा दुविधापूर्ण नीति अपनाकर भारत तथा पाकिस्तान दोनों से ‘‘यथास्थिति समझौता‘‘ करना उचित समझा। पाकिस्तान ने कश्मीर में सरकार के ‘‘यथास्थिति समझौता‘‘ को स्वीकार कर लिया तथा यातायात, डाक और तार व्यवस्था को ज्यों का त्यों बनाये रखने का वचन दिया। इसके पूर्व की भारत से वार्तालाप हो सके, पाकिस्तान कश्मीर पर शक्ति के बल पर सम्मिलित होने के दबाव डालने लगा, कबायलियों को बहुत बड़ी जनसंख्या को कश्मीर में घुसपैठ के लिए प्रोत्साहन करने लगा। पाकिस्तान ने अन्न, पेट्रोल व अन्य आवश्यक वस्तुओं का कश्मीर भेजा जाना बन्द कर दिया तथा कश्मीर जाने के मार्ग भी बन्द कर दिये। रेडक्लिफ एबार्ड के पूर्व भारत से कश्मीर जाने का स्थल मार्ग भी पाकिस्तान होकर ही था। कश्मीर रियासत के सेनापति मेजर जनरल स्काट की रिपोर्ट: दिनांक 31 अगस्त, 4 व 12 सितम्बर 1947 रियासत की परिस्थिति तथा पाकिस्तान द्वारा हस्तक्षेप की विस्तृत जानकारी देती है। सितम्बर तथा अक्टूबर 1947 की घटनाओं से स्पष्ट था कि बड़ी संख्या में आधुनिक षस्त्रों से लैस कबायली कश्मीर में हस्तक्षेप कर रहे थे। श्रीनगर में महोरा बिजली घर जला दिया गया। समस्त राज्य पर अधिकार करने के उदेश्य से आक्रमणकारी श्रीनगर पर कब्जा करना चाहते थे।

24 अक्टूबर 1947 को कश्मीर रियासत ने प्रथम बार भारत सरकार से सहायता की मांग की। उसी दिन भारत सरकार को ज्ञात हुआ कि मुजफ्फराबाद छिन गया है। 24 अक्टूबर को प्रातः ही लार्ड माउण्टबैटन की अध्यक्षता में सुरक्षा समिति की बैठक हुर्ह। तथा वास्तविक जानकारी हेतु वी0 पी0 मेनन को श्रीनगर भेजा गया। 26 अक्टूबर को महाराजा हरी सिंह ने लार्ड माउण्टबैटन को पत्र भेजा जिसमें कश्मीर की विस्फोटक स्थिति की चर्चा करते हुए कहा-‘‘राज्य की वर्तमान स्थिति तथा संकट को देखते हुए मेरे सामने इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है कि भारतीय अधिराज्य से सहायता माँगू। यह स्वभाविक है कि जब तक कश्मीर भारतीय अधिराज्य में शामिल नहीं हो जाता भारत सरकार मेरी सहायता नहीं करेगी। अतएव मैने भारत संघ में शामिल होने का निर्णय कर लिया है और मैं प्रवेश पत्र को आपकी सरकार की स्वीकृति हेतु भेज रहा हूँ।’’ पत्र मे अन्त में महाराजा ने कहा कि -‘‘यदि राज्य को बचाना है कि श्रीनगर में तत्काल सहायता पहुँच जानी चाहिए।

श्री वी0 पी0 मेनन स्थिति की गम्भीरता को भलि-भांति जानते थे। मेनन ने लिखा था कि "पटेल हवाई अड्डे पर मेरी प्रतिक्षा कर रहे थे। उसी दिन सायंकाल सुरक्षा समिति की बैठक हुई। लम्बी वार्तालाप के पश्चात् यह तय हुआ कि जम्मू कश्मीर के महराजा की प्रार्थना को इस शर्त के साथ स्वीकार कर लिया जाये कि शान्ति और व्यवस्था स्थापित होने को बाद जम्मू कश्मीर में विलय पर जनमत संग्रह कराया जाये।"

27 अक्टूबर को तत्काल सेनायें जहाजों के द्वारा कश्मीर भेज दी गयी। उस समय आक्रमणकारी श्रीनगर से मात्र 17 मील की दूरी पर थे। श्रीनगर पहुचते ही भारतीय सैनिकों ने श्रीनगर के आसपास से आक्रमणकारी को खदेड़ दिया। 3 नवम्बर को सरदार पटेल तथा रक्षामंत्री बलदेव सिंह श्रीनगर गये। उन्होनें वहाँ राजनितिक स्थिति की समीक्षा की तथा कश्मीर मंत्री और ब्रिगेडियर एल0 पी0 सेन से सैनिक स्थिति के बारे में जानकारी ली। 8 नवम्बर को भारतीय सेनाओं ने बारामूला पर अधिकार कर लिया।

28 नवम्बर को सरदार पटेल स्वयं जम्मू गये। जनता को सांत्वना देते हुए उन्होनें कहा-‘‘मै आपको आश्वासन देता हूँ। कि हम कश्मीर को बचाने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति भर सब कुछ करेगें।’’ जनता के निडर होकर स्थिति का सामना करने की सलाह देते हुए सरदार ने कहा-‘‘मृत्यु निश्चित है वह शीघ्र या विलम्ब से अवश्य आयेगी। परन्तु लगातार भय में रहना प्रतिदिन मरने के समान है। अतः हमें निडर व्यक्ति के समान रहना है।’’

1 जनवरी 1948 को भारत सरकार ने कश्मीर का प्रश्न संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् के समक्ष प्रस्तुत किया। सरदार पटेल इससे सहमत न थे। उस काल के पत्र व्यवहार से स्पष्ट हैं कि सरदार पटेल जम्मू कश्मीर में संवैधानिक रूप से कार्य करने वाली सरकार के पक्ष में थे। साथ ही वे शेख अब्दुल्ला का महाराजा के प्रति व्यवहार तथा नेहरू द्वारा शेख अब्दुल्ला को आवश्यकता से अधिक महत्व देने से सन्तुट नहीं थे।
8 जून 1948 को नेहरू के पत्र में सरदार ने कहा -‘‘हमें महाराजा तथा शेख अब्दुल्ला के बीच मतभेदों की खाई को पाटने का प्रयास करना चाहिए।’’ हरि विष्णु कामथ के अनुसार -‘‘पटेल ने अत्यन्त दुःख के साथ उनसे कहा कि ‘‘यदि जवाहरलाल और गोपालस्वामी आयंगर ने कश्मीर को अपना व्यक्तिगत विषय बनाकर मेरे गृह तथा रियासत विभाग से अलग न किया होता तो कश्मीर की समस्या उसी प्रकार हल होती जैसे कि हैदराबाद की।’’

वास्तव में कश्मीर समस्या पर नेहरू तथा सरदार पटेल में मतभेद थे। सरदार के अनुसार "कश्मीर समस्या विभाग का अंग था, जबकि नेहरू के अनुसार उसमें अन्तराष्ट्रीय प्रश्न सम्मिलित थे। इसी पर दोनों में मतभेद थें। दिसम्बर 1947 के पश्चात् कश्मीर मामले पर सरदार का हस्तक्षेप बहुत कम हो गया।’’


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सरदार वल्लभ भाई पटेल और जूनागढ़ का भारत संघ में विलय



काठियावाढ के दक्षिण-पश्चिम में स्थित तथा कराँची से 300 किमी0 दूर जूनागढ़ ऐसी रियासतों के मध्य बसा था जो सभी भारतीय अधिराज्य में सम्मिलित हो चुकी थी और उनकी सीमायें भी जूनागढ़ से मिली थी। जूनागढ़ की सीमा में ही ऐसी रियासतों की सीमाएं फंसी हुई थी जो भारतीय संघ में मिल चुकी थी। उदाहरण स्वरूप जूनागढ़ की रियासतों के भीतर भावनगर, नवागर, गोडल और बड़ौदा की रियासतें थी तथा कुछ स्थानों पर जूनागढ़ होकर ही पहुंचना सम्भव था। रेलवे, पोस्ट तथा टेलीग्राफ सेवायें जो जूनागढ़ में थी, भारतीय संघ द्वारा संचालित होती थी। 1941 की जनगणना के अनुसार रियासत की जनसंख्या 6,70,719 थी, जिसमें 80 प्रतिशत हिन्दू थे। जूनागढ़ के शासक नवाब महावत खां को कुत्ते पालने का इतना शौक था कि निर्धन जनता को भूखा रखकर नवाब कुत्तों के लिए विशेष भोजन तथा गोश्त आयात करते थे। कुत्तों की शादी कराने के लिए सरकारी खजाने का प्रयोग होता था तथा सरकारी अवकाश घोषित किया जाता था। अतः रियासत का बस कार्य उनके दिवान सर शहनवाज भुट्टो पर था जो जिन्ना तथा मुस्लिम लीग के प्रभाव में थे।18 नवाब तथा उनके दीवान द्वारा भारत से चुपचाप भाग जाने के पश्चात् मिले। पत्र व्यवहार से उनकी मानसिकता का पता चलता है। दीवान के अनुसार-‘‘जूनागढ़ काशी (बनारस ) के बाद हिन्दुओं का सबसे प्रसिद्ध स्थान है। सोमनाथ का मन्दिर भी वहाँ हैं जिसे महमूद गजनवी ने लूट लिया था। जिन्ना को लिखे गये अपने पत्र में दीवान ने कहा था-‘‘अकेला जूनागढ़ हिन्दू शासकों तथा ब्रिटिश भारत के कांग्रेसी प्रान्तों से घिरा है। वास्तव में हम समुद्र द्वारा पाकिस्तान से जुड़े है। यद्यपि जूनागढ़ में मुस्लिम संख्या 20 प्रतिशत और गैर मुस्लिम 80 प्रतिशत हैं, काठियावाढ़ के सात लाख मुसलमान जूनागढ़ के कारण जीवित है। मैं समझता हूँ कि कोई भी बलिदान इतना महत्वपूर्ण नहीं होगा जितना की शासक के समान को बचाना तथा इस्लाम और काठियावाढ़ के मुसलमानों की रक्षा करना।’’
जूनागढ़ की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति को देखते हुए भारत के राज्य विभाग ने प्रवेश लिखित पूर्ति हेतु भेजा। 13 अगस्त 1947 को सर शहनवाज भुट्टो ने उत्तर दिया कि वह विचाराधीन है। परन्तु 15 अगस्त को गुप्त रूप से जुनागढ़ पाकिस्तान में शामिल करने के लिए आन्तरिक रूप से बाध्य करने लगा। वास्तव में यह नवाब और जिन्ना का एक षड़यंत्र था तथा भारत सरकार को जान-बूझकर अन्धकार में रखा गया। जूनागढ़ के इस निर्णय की काठियावाढ़ की अन्य रियासतों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई नवाब नगर के जाम साहब ने अपने वक्तव्यों में इसकी भर्त्सना की तथा काठियावाढ़ की अखण्डता पर बल दिया। भावनगर, मोरवी, गोंडल, पोरबन्दर तथा वनकानकर के शासकों ने जूनागढ़ के नवाब की आलोचना की परन्तु नवाब का तर्क था-‘‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम में एक शासक के लिए विलय सम्बन्धी निर्णय के पूर्व जनता से परामर्श लेने का प्राविधान नहीं है।
नवाब ने भौगोलिक बाध्यता के तर्क का खण्डन किया तथा समुद्र द्वारा पाकिस्तान से सम्पर्क बनाये रखने की चर्चा की। जाम साहब दिल्ली आये और उन्होनें सरदार पटेल तथा राज्य विभाग को जनता की भावनाओं, जूनागढ़ में हिन्दुओं पर अत्याचार तथा हिन्दुओं के वहाँ पलायन से अवगत कराया। जाम साहब का सुझाव था कि यदि शीघ्र कार्यवाही न की गयी तो काठियावाढ़ क्षेत्र में शांति और व्यवस्था बनाये रखना कठिन हो जायेगा।
17 सितम्बर 1947 को केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने तय किया कि काठियाबाढ़ में शांति व व्यवस्था बनाये रखने के लिए भारतीय सेनायें जूनागढ़ को चारों ओर से घेर लें पर जूनागढ़ में प्रवेश न करे। इस बीच बम्बई में जूनागढ़ राज्य के लिए एक छः सदस्यीय अस्थाई सरकार गठित हो गई जिसके प्रधानमंत्री सामलदास गाँधी थे। काठियाबाढ़ की अनेक रियासतों ने इस अस्थायी सरकार को मान्यता दे दी। 28 सितम्बर को अस्थायी सरकार ने अपना मोर्चा बम्बई से हटाकर राजकोट में स्थापित कर लिया।


इधर जूनागढ़ में बाबरियाबाढ़ में सेना भेजकर हस्तक्षेप किया तथा 51 ग्रामों के मलगिरासियों को पाकिस्तान में सम्मिलित होने के लिए बाध्य किया। मंगरोल के शेख जो पहले भारतीय संघ में सम्मिलित हो चुके थे उन्हें बाध्य किया गया कि तार द्वारा भारत को सूचित करें कि उन्होनें संघ से समझौता भंग कर दिया है। जूनागढ़ के दीवान ने एक तार भेजकर भारत सरकार को सूचित किया कि बाबरियाबाढ़ तथा मंगरोल जूनागढ़ के अभिन्न भाग हैं और उनका भारत संघ में प्रवेश अवैधानिक था दीवान ने बाबरियाबाढ़ से अपनी सेनाओं केा वापस बुलाने से इन्कार कर दिया।
सरदार पटेल ने जूनागढ़ तथा बाबरियाबाढ़ में सेना भेजने तथा उसे वापस न करने की कार्यवाही को आक्रामक की संज्ञा दी तथा उसके विरूद्ध शक्ति के प्रयोग करने का परामर्श दिया। 27 सितम्बर 1947 को एक बैठक में सरदार पटेल ने अपने उपरोक्त मत पर विशेष बल दिया। इस बैठक में माउण्टबैटन, नेहरू, मोहनलाल सक्सेना व एन0 गोपालास्वामी आयंगर उपस्थित थे। संयुक्त राष्ट्र संघ में विचारार्थ भेजा जाये।
जूनागढ़ में स्थिति तेजी से बिगड़ रही थी। हजारों की संख्या में हिन्दू भाग रहे थे। मन्त्रिमण्डल के निर्णयानुसार भारत सरकार ने अपनी सेनायें कमाण्डर गुरदयालसिंह के नेतृत्व में जूनागढ़ के समीप भेज दी। संचार व्यवस्था को विच्छेद कर दिया गया तथा आर्थिक नाकेबन्दी कर दी गयी, 25 अक्टूबर 1947 तक अस्थायी सरकार की सेना की चार टुकड़ियों ने अमरपुर गाँव पर अधिकार कर लिए । दूसरे दिन अमरपुर के समीप के 23 गाँवों पर अस्थाई सरकार का अधिकार हो गया। स्थिति को नियन्त्रण से बाहर देखते हुए नवाब अपने परिवार, कुत्तों तथा पारिवारिक गहने आदि लेकर अपने व्यक्तिगत हवाई जहाज से कराची भाग गये।
13 नवम्बर, 1947 को सरदार जूनागढ़ गये जहाँ उनका भव्य स्वागत किया गया। अपने भाषण में सरदार पटेल ने उन परिस्थितियों की चर्चा की जिनके कारण भारत सरकार को जूनागढ़ में सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी। काठियाबाढ़ के हिन्दुओं और मुसलमानों को परामर्श देते हुए उन्होनें स्पष्ट कहा कि जो लोग अब भी दो राष्ट्र के सिद्धान्तों को मानते हैं और वाह्य शक्ति की ओर सहायता के लिए देखते है, उनके लिए काठियाबाढ़ में कोई स्थान नहीं है। ‘‘जो लोग भारत के प्रति निष्ठा नहीं रखते या पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति रखते हैं उन्हें नवाब का रास्ता अपनाना चाहिए। उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। जो अनुभव करते है कि भारत की अपेक्षा वे पाकिस्तान के अधिक निकट हैं। सरदार ने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि वह भारत के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करें।
प्रारम्भ में सरदार पटेल जूनागढ़ में जनमत संग्रह के पक्ष में न थे परन्तु वी0 पी0 मेनन से विचार-विमर्ष के उपरान्त सहमत हो गये। 20 फरवरी 1948 को जूनागढ़ में जनमत संग्रह हुआ, जिसमे भारत के पक्ष में 1,19,719 मत तथा पाकिस्तान के पक्ष में 91 मत पड़े। इसी प्रकार मंगरोल, मानवदार, भातवा बड़ा व छोटा सरदार गढ़ तथा बाबरियाबाढ़ में जनमत संग्रह से भारत के पक्ष में 31,395 तथा पाकिस्तान के पक्ष में केवल 29 मत पड़े । 24 फरवरी 1949 को यह रियासते सौराष्ट्र संघ के अधीन हो गयी।


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