प्रेरक कहानी - कर्म की जड़ें



एक हरा-भरा चरागाह था, जहाँ भगवान श्री कृष्ण की गाय चरा करती थीं। आश्चर्य की बात यह थी कि उस चरागा हमें अन्य कोई अपने पशु लेकर नहीं जाता था। यदि कोई अपने पशु लेकर वहाँ जाता, तो वहाँ की सारी घास भूरी हो जाती और सूख जाती। फलत: ऐसी घास को पशु न खाते। इन पशुओं के स्वामी भी निराश होते, जब वे देखते कि हरी घास न मिलने के कारण उनके पशु दूध नहीं दे रहे हैं। एक दिन श्रीकृष्ण के गायों से ईर्ष्या रखने वाले कुछ लोग उनकी गायों के पीछे-पीछे चरागाह चले गये। वहाँ श्री कृष्ण अपने सखाओं के साथ बातचीत करते हुए एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे पशुओं के पीछे जाते हुए इन लोगों ने वहाँ एक चमत्कार देखा।

Krishna Balaram milking cows

उन्होंने देखा कि श्री कृष्ण की गौएँ घास की पत्तियों के साथ बातचीत कर रही हैं। घास की पत्तियाँ गायों से कह रही थीं-'प्यारी गायों, हमें खाओ, हमें चबाओ, हमारे दूध को मक्खन में बदल दो, ताकि यशोदा और गोपियाँ श्रीकृष्ण के सामने उसे खाने के लिये अर्पित करें। घास की पत्तियों की बातें सुनकर गौएँ भी बड़ी उत्सुक हुई और उनसे बोली 'हम कितनी घास खा सकती हैं, तुम तो बड़ी जल्दी उगती हो।' घास की पत्तियों ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा-'हम इस तरह उगकर अपनी जड़ तक पहुँचना चाहती हैं। हम इतनी जल्दी उगकर यह चाहती हैं कि श्रीकृष्ण के लिये हम अर्पित हो जाये। हमारा जीवन शीघ्र ही समाप्त हो जाय और फिर बाद में हमें जीने की आवश्यकता न हो। यही कारण है कि हम श्रीकृष्ण की गायों की प्रतीक्षा करती हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण गोशाला में अपनी प्रत्येक गाय का दूध पीते हैं।'

Sri Krishna Balaram

श्रीकृष्ण की गाय का पीछा करनेवाले लोग पहले स्तब्ध रह गये, किंतु बाद में उन्हें बोध हुआ। हे परमेश्वर! हमें भी घास की हरी-भरी पत्तियाँ बना दो। हम अपने को बिना किसी भेदभाव के आपके श्रीचरणों में पूर्णतया समर्पित कर देंगे। आप हमारे कर्मों की जड़ों पर इस तरह प्रहार करें कि जीवन के उपवन या चरागाह की हमें फिर कोई आवश्यकता न पड़े। आपके बिना हमारा जीवन नीरस है, निष्फल है, भूरा और सूखा है। जब आप हमारे साथ होंगे, तब हम हरे-भरे प्रकाश मान होकर आपके श्रीचरणों में विनयावनत हो जाएंगे।


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प्रेरक प्रसंग - माया का मुखौटा



रामपुर नामक गाँव नगर से कुछ मील की दूरी पर स्थित था। दिसंबर का उत्तरार्ध चल रहा था। हर साल की तरह इस साल भी हरि रामपुर में आया हुआ था। वह बहुरूपिये का काम करता था। प्रतिदिन अपराह्न का समय वह विभिन्न प्रकार के वेश धारण करके गांव में निकलता किसी दिन संन्यासी का, तो किसी दिन भिखारी का, किसी दिन राजा का तो किसी दिन सिपाही का विशेष कर बच्चों में उसका अभिनय बड़ा ही लोकप्रिय था। वह अपने पास तरह-तरह के पोशाक, मुखौटे तथा रंग रखता था। दिसम्बर माह के अंतिम रविवार को रामपुर के दो प्रमुख स्कूलों-मॉडल स्कूल और आदर्श स्कूल के बीच क्रिकेट-मैच आयोजित हुआ था। दोनों टीमें तगड़ी थीं और मैच के संभावित नतीजे को लेकर छात्रों में बड़ी उत्सुकता फैली हुई थी। मैच में बच्चों का इतना आकर्षण देखकर उस दिन हरि ने भी छुट्टी मनाने की सोची। आखिरकार मैच समाप्त हुआ। मॉडल स्कूल की जीत हुई थी। तब तक संध्या का धुंधलका भी घिरने लगा था। मॉडल स्कूल के छात्र अपनी टीम की सफलता पर फूले नहीं समा रहे थे। उनमें से कुछ लड़के अँधेरा हो जाने तक मैदान में खुशी मनाते रहे। विपिन बाकी बच्चों से थोड़ा बड़ा था। उसने बच्चों को घर लौट जाने की सलाह दी। बच्चे तब भी मैच की ही चर्चा में मशगूल होकर मैदान के कोने की एक झाड़ी के पास से होकर गुजर रहे थे।

सहसा विपिन ने देखा कि चमकीली आँखों और बड़े बड़े पंजों वाला एक धारी दार बाघ झाड़ियों में छिपा बैठा है। वह चिल्ला उठा-'ठहरो! बाघ है!' निश्चय ही वह किसी असावधान राहगीर को पकड़ने के लिये वहाँ घात लगाये बैठा है। कुछ लड़के सहमकर वहीं बैठ गये, कुछ भागने लगे और कुछ वहीं जड़ी भूत होकर खड़े रह गये। उस पूरी टोली में यतीन सबसे साहसी था। वह सबके पीछे-पीछे आ रहा था, इसलिये उसने थोड़ी दूरी से सारा वाक़या देखा। उसे सूर्यास्त के बाद इतनी जल्दी बाघ का निकलना थोड़ा अस्वाभाविक-सा लगा। अपनी सुरक्षित दूरी से उसने ध्यान पूर्वक उस जानवर का निरीक्षण किया। उसने देखा कि बाघ के पाँवों के पीछे मनुष्य के हाथ-पांव छिपे हुए हैं। साहस जुटा कर वह तत्काल झाड़ी के पास जा पहुँचा और हरि से अपना मुखौटा उतार देने को कहा। झाड़ी की ओर से जोरकी हँसी की आवाज आयी। अब सभी बच्चों ने हरि का खेल समझ लिया था। अब उन्हें पूरी घटना इतनी मजेदार लग रही थी कि हँसते-हँसते उनके पेट में बल पड़ गये। हरि का खेल पूरा हो चुका था। अब लड़कों को और डराना सम्भव नहीं था, इसलिये वह चलता बना। यही खेल माया का है, एक बार यदि हम माया का खेल समझ जायँ, तो वह हमें दोबारा बुद्धू नहीं बना सकती।


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एक तत्त्वबोधक प्रेरक कथा



 प्रतिष्ठानपुर नामक एक अत्यन्त विख्यात नगर था। वहॉ पर पृथ्वीरूप नामक एक अत्यन्त सुन्दर राजा था। एक बार वहाँ से कोई तत्त्वज्ञ भिक्षु जा रहा था। उसने पृथ्वीरूप राजा को देखा। उसको अत्यन्त सुन्दर देखकर उसने विचार किया कि इसके लायक ही कोई लड़की मिले और यह उससे ही विवाह करे तो ठीक होगा। उसने राजा के लोगों से कहा-'मैं राजा से मिलना चाहता हूँ, समय बता दिया जाय।' वह राजा से मिला तो राजा ने कहा- 'आपको क्या चाहिए?' उसने समझा कि भिक्षु है, कुछ लेने आया होगा। भिक्षु ने  कहा-'राजन्! मुझे तो कुछ नहीं चाहिए, परंतु तुम्हें कुछ बताने आया हूँ। तुम्हारे लायक एक कन्या है। उसका नाम है 'रूपलता' और वह अद्वितीय सुन्दरी है। वह मुक्तिपुर में रहती है। उसके पिता का नाम रूपधर' है और माता का नाम 'हेमलता' है वही तुम्हारी रानी बनने योग्य है; क्योंकि जैसी तुम्हारी सुन्दरता है, वैसी ही उसकी सुन्दरता है।'

राजा उसकी बात से प्रभावित हो गया। राजा ने मुक्तिपुर का पता लगाकर उस लड़की के साथ बात करने के लिये अपने मंत्रियों से कहा मुक्तिपुर  समुद्र का एक टापू था, अत: बहुत ढूँढ़ने के बाद ही उसका पता लग सका। उधर वह ज्ञानी भिक्षु विचारने लगा कि जैसे ही उस राजा की तरफ से मुक्तिपुर में विवाह-प्रस्ताव आयेगा तो क्या पता! रूप लता और यहाँ के लोग स्वीकार करें या न करें। वह भिक्षु एक सिद्धहस्त चित्रकार भी था। उसने राजा पृथ्वीरूप का बड़ा सुन्दर आकर्षक चित्र बनाया और मुक्तिपुर जाकर रूप लता को दिखा दिया और कह दिया-'यह प्रतिष्ठान पुरका राजा है और तुम्हारे लायक यही पति है।' इस पर रूपलता ने भी उससे ही विवाह करने की अपनी चाह माता-पिता को बता दी। इधर राजाने भी मुक्तिपुर का पता लगाकर अपने विवाह प्रस्ताव वहाँ भिजवाया। रूपलता तो उसका चित्र पहले ही देख चुकी थी। माता-पिता ने भी प्रस्ताव को स्वीकार कर रूपलता का विवाह पृथ्वीरूप राजा के साथ कर दिया। वहाँ से विवाह कर नवविवाहिता पत्नी को लेकर राजा जब प्रतिष्ठानपुर आया तो देखा कि प्रतिष्ठानपुर की जितनी युवतियाँ थीं, वे नाराज हुई बैठी हैं, वे कहती थीं कि क्या हमारे यहाँ कोई सुन्दर स्त्री नहीं है, जो हम सबको छोड़कर राजा दूर देश से विवाह करके आ रहे हैं?' परंतु हाथी पर बैठकर जब उसकी सवारी नवविवाहिता पत्नी के साथ निकली, तो सारी स्त्रियों का गर्व समाप्त हो गया और उन्होंने कहा कि राजा ने ठीक ही किया। तब दोनों सुख से रहने लगे।

प्रसंग का भावार्थ - इस दृष्टान्त का अर्थ यह है कि वह 'प्रतिष्ठानपुर' कोई नगर विशेष नहीं है, अपितु जिसमें सब चीजें प्रतिष्ठित हैं, उसका ही नाम प्रतिष्ठानपुर है और उसमें 'पृथ्वीरूप' राजा यह जीव है-यह पार्थिव देहवाला है। पृथ्वी के विकार का यह शरीर धारण किये हुए है, इसलिये यह पृथ्वीरूप राजा है। उससे वेदरूप भिक्षु जब मिलता है तो वह कहता है कि 'हे जीव! तेरे प्राप्त करने लायक पराविद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या ही है, वही तुम्हारी पत्नी (जीवनसंगिनी) बनने योग्य है। इस पृथ्वीलोक के अन्दर जितने भी पदार्थ हैं, पार्थिव पदार्थ हैं, वे तेरे योग्य नहीं हैं, क्योंकि तेरी सुन्दरता चेतन की सुन्दरता है, मुक्तिपुर में रहनेवाली रूपलता ही तुम्हारी पत्नी बनने के योग्य है। पराविद्या ही रूपलता है। तत्त्वज्ञ भिक्षु (सद्गुरु) दोनों को मिलाने का काम करता है, सो यह साधन स्वरूप बुद्धि ही तत्व वेत्ता भिक्षु है, जिससे वेद के अर्थ का ज्ञान होता है। बुद्धि के द्वारा जिसको समझा जाय अर्थात् शुद्ध बुद्धि के द्वारा प्राप्त किया जाय, वही शास्त्र ज्ञान है। ब्रह्मविद्या तो पहले से ही जानती है कि मैं किसका विषय हूँ अर्थात् चेतन का ही विषय हूँ, इसलिये यह कभी नहीं समझना चाहिये कि मैं तो ब्रह्मविद्या को चाहता हूँ, क्या पता वह मुझे वरण करे या न करे परंतु जब तक तुम उसके समक्ष नहीं जाओगे, तब तक विवाह तो होगा नहीं। रास्ते में अनेक विघ्न आयेंगे, जैसे प्रतिष्ठानपुर की कोई स्त्री नहीं चाहती कि राजा दूसरे देश में जाएँ और वहां की लड़की से विवाह करें। उसी प्रकार तुम्हारे अन्तःकरण में रहने वाले जितने काम, क्रोध, मोह, मद, मात्सर्य आदि विकार हैं, वे भी कोई नहीं चाहते कि तुम उनसे विमुख होकर शुद्ध ब्रह्मविद्या (पराविद्या) प्राप्त करो। परंतु एक बार पराविद्या आ गयी, तो ये काम, क्रोध, मोह, मद, मात्सर्य आदि जो विकृतियाँ हैं, उनका गर्व समाप्त हो जायगा अर्थात् ये विकृतियाँ म्लान हो जाएगी। आत्मज्ञान के उदय होने पर तो ये सारे विकार सर्वथा म्लान हो जाते हैं। इनमें फिर कोई सामर्थ्य नहीं रहती। एक बार जहाँ पराविद्या की प्राप्ति हो गयी, वहाँ हमेशा के लिये सारे दुःखों से निवृत्ति हो जाती है अर्थात् अन्त:करण निर्मल हो जाता है।

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