प्रेरक प्रसंग - सच्ची कृपा



एक निर्धन ब्राह्मण के मन में धन पाने की तीव्र कामना हुई। वह सकाम यज्ञ की विधि जानता था, किंतु धन ही नहीं तो यज्ञ कैसे हो? वह धन की प्राप्ति के लिये देवताओं की पूजा और व्रत करने लगा। कुछ समय एक देवता की पूजा करता, परंतु उससे कुछ लाभ नहीं दिखायी पड़ता तो दूसरे देवता की पूजा करने लगता और पहले को छोड़ देता। इस प्रकार उसे बहुत दिन बीत गये। अंत में उसने सोचा-'जिस देवता की आराधना मनुष्य ने कभी न की हो, मैं अब उसी की उपासना करूँगा। वह देवता अवश्य मुझपर शीघ्र प्रसन्न होगा।'


ब्राह्मण यह सोच ही रहा था कि उसे आकाश में कुण्डधार नामक मेघ के देवता का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ। ब्राह्मण ने समझ लिया कि 'मनुष्य ने कभी इनकी पूजा न की होगी। ये बृहदाकार मेघ देवता देव लोक के समीप रहते हैं, अवश्य ये मुझे धन देंगे।' बस, बड़ी श्रद्धा-भक्ति से ब्राह्मण ने उस कुंड धार मेघ की पूजा प्रारम्भ कर दी।

ब्राह्मण की पूजा से प्रसन्न होकर कुण्डधारने देवताओं की स्तुति की, क्योंकि वह स्वयं तो जल के अतिरिक्त किसी को कुछ दे नहीं सकता था। देवताओं की प्रेरणा से यक्ष श्रेष्ठ मणिभद्र उसके पास आकर बोले-'कुंड धार! तुम क्या चाहते हो?'

कुण्डधार - 'यक्षराज! देवता यदि मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे उपासक इस ब्राह्मण को वे सुखी करें।'

मणिभद्र-'तुम्हारा भक्त यह ब्राह्मण यदि धन चाहता हो तो इसकी इच्छा पूर्ण कर दो। यह जितना धन माँगेगा, वह मैं इसे दे दूंगा।'

कुण्डधार - 'यक्षराज! मैं इस ब्राह्मण के लिये धन की प्रार्थना नहीं करता। मैं चाहता हूँ कि देवताओं की कृपा से यह धर्मपरायण हो जाए। इसकी बुद्धि धर्म में लगे।'

मणिभद्र-'अच्छी बात ! अब ब्राह्मण की बुद्धि धर्म में ही स्थित रहेगी।' उसी समय ब्राह्मण ने स्वप्न में देखा कि उसके चारों ओर कफन पड़ा हुआ है। यह देखकर उसके । हृदय में वैराग्य उत्पन्न हुआ।वह सोचने लगा - 'मैंने इतने । देवताओं की और अंत में कुण्डधार मेघ की भी धन के लिये आराधना की, किंतु इनमें कोई उदार नहीं दिखता। इस प्रकार धन की आस में ही लगे हुए जीवन व्यतीत करने से । क्या लाभ! अब मुझे परलोक की चिंता करनी चाहिये।'

ब्राह्मण वहां से वन में चला गया। उसने अब तपस्या करना प्रारम्भ किया। दीर्घकाल तक कठोर तपस्या करने के कारण उसे अद्भुत सिद्धि प्राप्त हुई। वह स्वयं आश्चर्य करने लगा-'कहाँ तो मैं धन के लिये देवताओं की पूजा करता था और उसका कोई परिणाम नहीं होता था और कहाँ अब मैं स्वयं ऐसा हो गया कि किसी को धनी होने का आशीर्वाद दे दूँ तो वह नि:संदेह धनी हो जाएगा!'

ब्राह्मण का उत्साह बढ़ गया। तपस्या में ही उसकी श्रद्धा बढ़ गयी। वह तत्परतापूर्वक तपस्या में ही लगा रहा। एक दिन उसके पास वही कुण्डधार मेघ आया। उसने कहा ब्रह्मन् ! तपस्या के प्रभाव से आपको दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी है। अब आप धनी पुरुषों तथा राजाओं की गति देख सकते हैं।' ब्राह्मण ने देखा कि धन के कारण गर्व से आकर लोग नाना प्रकार के पाप करते हैं और घोर नरक में गिरते हैं।

कुण्डधार बोला-'भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करके आप यदि धन पाते और अंत में नरक की यातना भोगते तो मुझसे आपको क्या लाभ होता? जीव का लाभ तो कामनाओं का त्याग करके धर्माचरण करने में ही है। उन पर सच्ची कृपा तो उन्हें धर्म में लगाना ही है। उन्हें धर्म में लगाने वाला ही उनका सच्चा हितैषी है।'

ब्राह्मण ने मेघ के प्रति कृतज्ञता प्रकट की और कामनाओं का त्याग करके अंत में मुक्त हो गया।

(महाभारत के शान्तिपर्व से)


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प्रदोष व्रत की महिमा



विदर्भ-देश में सत्यरथ नाम के एक परम शिवभक्त, पराक्रमी और तेजस्वी राजा थे। उन्होंने अनेक वर्षां तक राज्य किया, परंतु कभी एक दिन भी शिव पूजा में किसी प्रकार का अंतर न आने दिया।
प्रदोष व्रत की महिमा

एक बार शाल्व देश के राजा ने दूसरे कई राजाओं को साथ लेकर विदर्भ पर आक्रमण कर दिया। सात दिन तक घोर युद्ध होता रहा, अंत में दुर्दैव वश सत्यरथ को पराजित होना पड़ा, इससे दुखी होकर वे देश छोड़कर कहीं निकल गये। शत्रु नगर में घुस पड़े। रानी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह भी राजमहल से निकलकर सघन वन में प्रविष्ट हो गयी। उस समय उसके नौ मास गर्भ था और वह आसन्नप्रसवा ही थी। अचानक एक दिन अरण्य में ही उसे एक पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। बच्चे को वहाँ ही अकेला छोड़कर वह प्यास के मारे पानी के लिये वन में एक सरोवरके पास गयी और वहाँ एक मगर उसे निगल गया।

उसी समय उमा नाम का एक ब्राह्मणी विधवा अपने शुचिव्रत नामक एक वर्ष के बालक को गोद में लिये उसी रास्ते से होकर निकली। बिना नाल कटे उस बच्चे को देखकर उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगी कि यदि इस बच्चे को अपने घर ले जाऊँ तो लोग मुझपर अनेक प्रकारकी शंका करेंगे और यदि यहीं छोड़ देती हूँ तो कोई हिंस्र पशु भक्षण कर लेगा। वह इस प्रकार सोच ही रही थी कि उसी समय यती वेष में भगवान शंकर वहां प्रकट हुए और उस विधवा से कहने लगे-'इस बच्चे को तुम अपने घर ले जाओ, यह राजपुत्र है। अपने ही पुत्र के समान ही इसकी रक्षा करना और लोगों में इस बात को प्रकट न करना, इससे तुम्हारा भाग्योदय होगा।' इतना कहकर शिवजी अंतर्धान हो गये। ब्राह्मणी ने उस राजपुत्र का नाम धर्म गुप्त रखा।

वह विधवा दोनों को साथ लेकर उस बच्चे के माता-पिता को ढूंढने लगी। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते शांडिल्य ऋषि के आश्रम में पहुँची। ऋषि ने बताया कि 'यह राजा राजा का देहांत हो पूर्व जन्म में क्रोधवश प्रदोष व्रत को अधूरा छोड़ने के कारण ही उसकी ऐसी गति हुई है तथा रानी ने भी पूर्व जन्म में अपनी सपत्नी को मारा था, उसने इस जन्म में मंगर के रूप में इससे बदला लिया।'

ब्राह्मणी ने दोनों बच्चों को ऋषि के पैरों पर डाल दिया। ऋषि ने उन्हें शिव पंचाक्षरी मंत्र देकर प्रदोष व्रत करने का उपदेश दिया। इसके बाद उन्होंने ऋषि का आश्रम छोड़कर एकचक्रा नगरी में निवास किया और वहाँ वे चार महीने तक शिवाराधना करते रहे। दैवात् एक दिन शुचिव्रत को नदी के तट पर खेलते समय एक अशर्फियों से भरा स्वर्ण कलश मिला, उसे लेकर वह घर आया। माताको यह देखकर अत्यन्त ही आनन्द हुआ और इसमें उसने प्रदोष की महिमा देखी। 

इसके बाद एक दिन वे दोनों लड़के वन विहार के लिये एक साथ निकले, वहाँ अंशुमती नाम की एक गन्धर्व कन्या क्रीडा करती हुई उन्हें दीख पड़ी। उसने धर्मगुप्त से कहा कि 'मैं एक गन्धर्वराज की कन्या श्री शिव ने मेरे पिता से कहा है कि अपनी कन्या को सत्यरथ राजा के पुत्र धर्मगुप्तको प्रदान करना।' गन्धर्व कन्या की ‘यही धर्मगुप्त है' ऐसी जानकारी होने पर उसने विवाह का प्रस्ताव रखा।

धर्मगुप्त ने वापस आकर अपनी माता से यह बात कही। ब्राह्मणी ने इसे शिव पूजा का फल और शांडिल्य मुनि का आशीर्वाद समझा। बड़े ही आनंद से अंशुमती के साथ धर्मगुप्त का विवाह हो गया। गन्धर्वराज ने बहुत-सा धन और अनेकों दास-दासी उन्हें प्रदान किये। इसके पश्चात धर्मगुप्त ने अपने पिता के शत्रुओं पर आक्रमण कर विदर्भ-राज्य को प्राप्त किया। वह सदा प्रदोष-व्रत में शिवाराधना करते हुए उस ब्राह्मणी और उसके पुत्र शुचिव्रत के साथ जीवन पर्यन्त सुख से राज्य करता रहा और अंत में शिव लोक को प्राप्त हुआ।

(स्कन्द पुराण से)


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