भगवान झूलेलाल जंयती (चैत्र शुक्‍ल द्वि‍तीया) पर विशेष



क्या है भगवान झूलेलाल की कहानी
 
क्या है भगवान झूलेलाल की कहानी
Story of Lord Jhulelal
झूलेलाल को वेदों में वर्णित जल-देवता, वरुण देव का अवतार माना जाता है। वरुण देव को सागर के देवता, सत्य के रक्षक और दिव्य दृष्टि वाले देवता के रूप में सिंधी समाज भी पूजता है। उनका विश्वास है कि जल से सभी सुखों की प्राप्ति होती है और जल ही जीवन है। जल-ज्योति, वरुणावतार, झूलेलाल सिंधियों के ईष्ट देव हैं जिनके आगे दामन फैलाकर सिंधी यही मंगलकामना करते हैं कि सारे विश्व में सुख-शांति, अमन-चैन, कायम रहे और चारों दिशाओं में हरियाली और खुशहाली बने रहे।
 
चैत्र मास की प्रथम किरण के उदय होते ही विक्रम संवत का शंखनाद हो उठता है और इसी शंखनाद के गुंजन से गूंजती है- एकता व भाईचारे की आवाज़। यही आवाज़ न केवल सिंधी समुदाय को बल्कि समूचे राष्ट्र को एक नयी राह दिखलाती है। चंद्र मास की द्वितीय तिथि को सिंधी दिवस-‘चेटीचण्ड’ का महान पर्व मनाया जाता है। पाकिस्तान के ठट्टा शहर में जहाँ झूलेलाल जी ने जन्म लिया था, विस्थापन के बाद बिहार से गए याकूब भाई ने वहाँ कब्जा जमाया। संभवतः किसी अलौकिक चमत्कार को भाँपकर वे भी झूलेलाल जी का मुरीद बन गया। तब से उसने व उसके परिजनों ने झूलेललाजी की अखंड ज्योति को आज भी कायम रखा है। यहाँ के वर्तमान रह वासियों की आस्था भी परवान पर है। कुछ विद्वानों के अनुसार सिंध का शासक मिरखशाह अपनी प्रजा पर अत्याचार करने लगा था जिसके कारण सिंधी समाज ने 40 दिनों तक कठिन जप, तप और साधना की। तब सिंधु नदी में से एक बहुत बड़े नर मत्स्य पर बैठे हुए भगवान झूलेलाल प्रकट हुए और कहा मैं 40 दिन बाद जन्म लेकर मिरखशाह के अत्याचारों से प्रजा को मुक्ति दिलाऊंगा। चैत्र माह की द्वितीया को एक बालक ने जन्म लिया जिसका नाम उडेरोलाल रखा गया। अपने चमत्कारों के कारण बाद में उन्हें झूलेलाल, लालसांई, के नाम से सिंधी समाज और ख्वाजा खिज्र जिन्दह पीर के नाम से मुसलमान भी पूजने लगे। चेटीचंड के दिन श्रद्धालु बहिराणा साहिब बनाते हैं। शोभा यात्रा में ‘छेज’ (जो कि गुजरात के डांडिया की तरह लोक नृत्य होता है) के साथ झूलेलाल की महिमा के गीत गाते हैं। ताहिरी (मीठे चावल), छोले (उबले नमकीन चने) और शरबत का प्रसाद बांटा जाता है। शाम को बहिराणा साहिब का विसर्जन कर दिया जाता है। सिंधु नदी के किनारे जिंदपीर पर जहाँ झूलेलालजी ब्रह्मलीन हुए थे, वहाँ आज भी प्रतिवर्ष चालीस दिनों का मेला लगता है जिसे चालीहा कहा जाता है। इसी चालीहे के दौरान प्रत्येक सिंधी भाषी चाहे वह जहाँ भी हो, यथासंभव अपनी धार्मिक मर्यादाओं का पालन करता है।
 
भगवान झूलेलाल के अवतार-धारण की भी एक गाथा है। इतिहास में दर्ज है कि झूलेलालजी ने किसी भाषा या किसी धर्म की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव समाज के उत्थान के लिए जन्म लिया था। मिरख बादशाह के जनता पर अत्याचार तो उसी दिन बंद हो गए थे, जिस दिन बादशाह ने स्वयं ललसाईं की वाणी सुनी थी। तत्पश्चात लोगों में जल के प्रति आस्था बढ़ी और सिंधी भाषा में यह कहावत स्थापित हुई- 'जो बहू जल का महत्व नहीं समझे वह घी-मक्खन की कीमत भी नहीं समझेगी।' यही वजह है कि विश्व भर के तमाम दरवेशों, पीरों और मौलाओं में सर्वाधिक पूजे जाते हैं झूलेलालजी।
 
दमादम मस्त कलंदर... गीत को लोकप्रियता भले ही बांग्लादेश की गायिका रूना लैला द्वारा गाने के बाद मिली हो लेकिन सदियों से इस गीत के बोल झूलेलाल जी की अर्चना में समर्पित किए जाते रहे हैं। संपूर्ण विश्व में संभवतः यह एकमात्र गीत ऐसा है, जिसे पचासों नामचीन गायकों ने अपनी-अपनी शैली में प्रस्तुत किया है। आबिदा परवीन, अदनान सामी, साबरी ब्रदर्स, भगवंती नावाणी, लतिका सेन, विशाल-शेखर जैसे कई गायक इस कतार में हैं। चारई चराग तो दर बरन हमेशा, पंजवों माँ बारण आई आं भला झूलेलालण... अर्थात चारों दिशाओं में आपके दीप प्रज्वलित हैं। मैं पाँचवाँ चिराग लेकर आपके समक्ष हाजिर हूँ। माताउन जी जोलियूँ भरींदे न्याणियून जा कंदे भाग भला झूलेलालण... अर्थात हर माँ की आशाओं को पूरा करना और हर एक कन्या के भविष्य को सुनहरा बनाना। लाल मुहिंजी पत रखजंए भला झूलेलालण, सिंधुड़ीजा सेवण जा शखी शाहबाज कलंदर, दमादम मस्त कलंदर... अर्थात हे ईश्वर, मेरी लाज बचाए रखना, पीरों के पीर मैं सिर्फ आपके भरोसे हूँ। पूरे गीत का आशय यह है कि अपने पैदा किए हुए हर जीव को सुखी, संपन्न और शांति का जीवन देना ईश्वर।
 
इस गीत में सिंधी सभ्यता समाहित है। अपने जीवन के सरल बहाव के साथ-साथ परोपकार की भावना भी हर सिंधी भाषी में मिलती है। विस्थापन के बाद सिंधियों की पहली जरूरत थी अपना पैर जमाना। इस प्रारंभिक समस्या से काफी कुछ मुक्ति पाने के बाद सिंधी युवा परोपकार के कामों में लगातार आ रहे हैं। अब संस्थाओं का गठन केवल स्वभाषियों के विकास ही नहीं, बल्कि समस्त मानव समाज सेवा के लिए होने लगा है। विश्व इतिहास में यह एकमात्र सभ्यता ऐसी है, जो विस्थापन पश्चात अल्प समय में ही अपनी भाषा, भूषा, भोजन और भजन को कायम रख सकी है। विस्थापित से स्थापित हुआ यह समाज अब दूसरों की स्थापना का भी सहयोगी है।
 
Story of Lord Jhulelal

Story of Lord Jhulelal

Story of Lord Jhulelal
 Story of Lord Jhulelal


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6 टिप्‍पणियां:

सोमेश सक्सेना ने कहा…

अच्छी जानकारी है। धन्यवाद।

Abhishek ने कहा…

धन्यवाद इस जानकारी के लिये । मैने झूलेलाल जयंती मनाते तो देखा है लोगों को लेकिन इनके बारे मे कुछ नही पता था आज तक ।

vicky motwani ने कहा…

JAI JHULELAL

vicky motwani ने कहा…

jai jhulelal

Unknown ने कहा…

Jai jhulelal Ji

Unknown ने कहा…

Jai jhulelal Ji