मुस्लिमों को अल्पसंख्यक न मानने का निर्णय आपके समक्ष



 मुस्लिमों को अल्पसंख्यक न मानने का निर्णय आपके समक्ष
उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों की अल्पसंख्यक मान्यता समाप्त करने के बारे में इलाहाबाद उच्‍च न्यायालय की एकल पीठ के न्यायाधीश माननीय शम्‍भू नाथ श्रीवास्तव ने 4 मई को 89 पृष्ठ का विस्तृत फैसला सुनाया है और मुस्लिम समुदाय को प्रदेश में अल्पसंख्यक न मानने के कई आधारों का खुलासा किया है। हालांकि मुस्लिमों को प्रदेश में अल्पसंख्यक न मानने के आदेश पर उच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की विशेष अपील खण्ड पीठ ने रोक लगा रखी है। चूंकि, एकल न्यायाधीश ने अपने पूर्व आदेश में कहा था कि वह बाद में विस्तृत आदेश देंगे, इस कारण उनके द्वारा अब विस्तृत आदेश पारित किया गया।
विस्तृत फैसला देते हुए माननीय न्यायमूर्ति एसएन श्रीवास्तव ने कहा है कि हिन्दू व मुस्लिम द्विराष्ट्र के सिद्धांत पर देश का विभाजन हुआ था और कहा गया कि राष्ट्रवादी मुसलमान जो भारत में रह रहे हैं, उनमें असुरक्षा भर गयी है उन्हें संरक्षण मिलना चाहिए। संविधान बनाते समय देश में भाषायी व धार्मिक अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने पर बहस हुई और आधार तय करते हुए तीन ग्रुप बनाये गये। प्रथम दशमलव पांच फीसदी आबादी दूसरे डेढ़ फीसदी आबादी व तीसरे डेढ़ फीसदी आबादी से अधिक को अल्पसंख्यक माना जाए। संविधान सभा ने मुस्लिमों को आरक्षण व विधायी सीटें सुरक्षित रखने के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया। हालांकि, अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए विधायी सीटें आरक्षित रखी गयी हैं।
न्यायालय ने कहा है कि 1951 की जनगणना व 2001 की जनगणना का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो एक तरफ जहां मुस्लिम आबादी में तीन फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी वहीं हिन्दू आबादी में नौ फीसदी की घटोतरी हुई है। आज की स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश की एक चौथायी आबादी मुस्लिम है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी टीएमएपई केस में नान डामिनेन्ट ग्रुप को अल्पसंख्यक माना है। जब हिन्दू कोई धर्म न होकर एक जीवन शैली है और सैकड़ों सम्प्रदायों से यह समुदाय बना है तो ऐसी दशा में यदि धार्मिक जनसंख्या को देखा जाय तो प्रदेश में लगभग 100 हिन्दू सम्प्रदायों की अलग-अलग आबादी पर एक चौथाई मुस्लिम आबादी डामिनेन्ट पोजीशन में है। वे अपनी पसंद की सरकार चुन सकते हैं। न्यायालय ने प्रदेश में मुस्लिम जनप्रतिनिधियों का जिक्र करते हुए कहा है कि 18 सांसद, 9 एमएलसी व 45 विधायक मुस्लिम समुदाय के हैं। राजनीति में अच्छी दखल है, अब इन्हें अल्पसंख्यक माना जाना उचित नहीं है।
न्यायालय ने पं. जवाहर लाल नेहरू के विचारों का भी उदाहरण दिया और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय तथा संविधान सभा की मंशा का जिक्र करते हुए कहा कि धार्मिक अल्पसंख्यकों की आबादी कुल आबादी से पांच फीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिए। भारत सरकार ने प्रदेश की एक चौथायी आबादी को अल्पसंख्यक का दर्जा देकर गलती की है, जिसमें सुधार होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने भी देश में बहुराष्ट्रवाद की चेतावनी दी है। न्यायालय ने कहा है कि 2001 की जनगणना में प्रदेश में मुस्लिम आबादी 18.5 फीसदी है, जो 2007 में काफी बढ़ चुकी है। हिन्दू कहे जाने वाले किसी भी सामुदायिक ग्रुप की अकेली आबादी मुस्लिम आबादी से अधिक नहीं है। उत्तर प्रदेश में आज जितनी आबादी मुस्लिमों की है, देश के विभाजन के बाद उतनी आबादी पूरे देश में मुस्लिमों की थी। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के तहत प्रदेश में मुस्लिम आबादी को नान डामिनेन्ट ग्रुप नहीं माना जा सकता है। कई जिले ऐसे हैं, जहां मुस्लिम आबादी कुल आबादी की 50 फीसदी से भी अधिक है। न्यायालय ने कहा है कि अनुच्छेद 29 व 30 में अल्पसंख्यकों को मिले संरक्षण को विशेषाधिकार के रूप में नहीं अपनाया जा सकता।
न्यायालय ने कहा है कि संविधान निर्माताओं ने कभी भी नहीं सोचा था कि पंथ निरपेक्ष राज्य में किसी धर्म को संरक्षण की जरूरत पड़ेगी। 1947 के विभाजन की स्थिति व आज की स्थिति में काफी बदलाव आया है। अब इस पर विचार किया जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम जनसंख्या व ताकत के हिसाब से धार्मिक अल्पसंख्यक नहीं माने जा सकते। आज मुस्लिम देश के बहुमुखी विकास में आम नागरिकों की तरह अहम भूमिका निभा रहे हैं, भारतीय समाज के अभिन्न अंग हैं। इन्हें अलग ग्रुप के रूप में देखना संविधान निर्माताओं की भावना के साथ खिलवाड़ है। संविधान निर्माताओं ने कभी भी नहीं सोचा था कि पंथ निरपेक्ष राज्य में किसी धर्म को संरक्षण की जरूरत पड़ेगी। 1947 के विभाजन की स्थिति व आज की स्थिति में काफी बदलाव आया है। अब इस पर विचार किया जाना चाहिये।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रदेश में मुसलिमों को अल्पसंख्यक न मानने का फैसला सुनाते हुए कहा है कि देश के सभी नागरिकों को संविधान के मूल कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। इसी के साथ कोर्ट ने केंद्र व प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि उत्तर प्रदेश में सत्र 2007-08 में मूल कर्तव्य व नैतिक शिक्षा अनिवार्य किया जाये। यह व्यवस्था मदरसों सहित सभी धार्मिक स्कूलों में भी लागू की जाये। ताकि भावी पीढ़ी संविधान निर्माताओं के सपनों के अनुरूप तैयार हो सके। न्यायालय ने उप्र माध्यमिक शिक्षा परिषद को निर्देश दिया है वह मूल कर्तव्य एक अनिवार्य विषय के रूप में सत्र 2007-08 में लागू करें। न्यायालय ने कहा है कि मुस्लिमों को धार्मिक समुदाय के बजाए भारतीय नागरिक के रूप में देश के विकास का सहयोगी माना जाये। महान राष्ट्र निर्माण के लिए मूल कर्तव्यों का पालन अनिवार्य किया जाये।
माननीय न्‍यायमूर्तियों के फैसले को आप यहॉं पढ़ सकते है।


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10 टिप्‍पणियां:

Arun Arora ने कहा…

अरे भाई क्या ले आये आरक्षण के अन्धो को क्या पढाना इन्हे तो कुछ समझाना भैस के आगे बीन बजाना

Raag ने कहा…

बढ़िया विश्लेषण ले कर आए आप। फैसले के पीछे का कारण भी साफ करने का शुक्रिया।

Udan Tashtari ने कहा…

क्या पता मगर विश्लेषण अच्छा किया है प्रमेन्द्र. लगे रहो.

बेनामी ने कहा…

आँखे खुले तो अच्छा है. बाकि.....

बेनामी ने कहा…

अच्छी जानकारी दी है।

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

इसका श्रेय मुझे न दीजियें।

यह माननीय न्‍यायमूर्ति जी के आदेश का विश्‍लेषण है। जो उन्‍होन दिया था। यह लेख विभिन्‍न जानकारियों व स्‍तोतों पर आधारित है।

स्‍नेह के लिये धन्‍यवाद

हरिराम ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हरिराम ने कहा…

समग्र संसार धर्मसत्ता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संचालित होता है। इस्लाम धर्म 4 विवाह की आज्ञा देता है। यदि एक पत्नी से सिर्फ 2 बच्चे ही हों तो 8+2=10 गुना जनसंख्या लगभग 18 वर्ष में, 10x10=100 गुना जनसंख्या लगभग 36 वर्ष में, 1000 गुना जनसंख्या लगभग 54 वर्ष में, 10000 गुना जनसंख्या लगभग 72 वर्ष तक में बढ़ सकती है, (यदि मानव की औसत आयु 72 वर्ष पकड़ें तो।) यदि एक-एक पत्नी से 3 या 4 बच्चे हों तो?? और फिर धर्मान्तरण द्वारा और कितने गुना? फिर भी अल्पसंख्यक कहलाएँगे?????

राकेश जैन-- ने कहा…

bilkul sahi param ji akhbaar vale aalochna to kar rahe he par fasale ke peeche ke tark nahi bata rahe ye saraasar bemaani he .dhynyvaad

Unknown ने कहा…

are bhai inko 4-5 shadi our 18-20-bachche peda karne ki shut hai nahi to islam khatre me pad jayega akhir ye hamare desh ke minority jo dahre