विवादों की लोकप्रियता खत्म होने का नाम ही नही ले रही है। आये दिन कोई न कोई नया महाभारत चिट्ठाकारी के इतिहास में जुड़ता चला जा रहा है। हाल में ही जारी हुई ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत के बीच जारी हुआ शीत युद्ध इस बात का गवाह है कि आने वाले समय में कई लोग अपने आपकों इस चिट्ठाकारी के भगवान सिद्ध करने में लगे होगें।
विवादों को चिट्ठाकारी में विवादों को तूल देना तो एक चलन जैसा बन गया है और कुछ लोग उसमें समर्थन और निन्दा के द्वारा अपनी आशाओं की रोटी सेकने में लगे रहते है। एक छोटी सी घटना से दो दिग्गजों को लड़ा बैठी, दिग्गजों की लड़ाई मलाई और मजा कोई और मार रहा है। मुझे यह कहने में कई संकोच नही है कि कुछ लोग ऐसे भी है जिन्हे इस प्रकार के काम में मजा आता है।
ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत प्रशासन के बीच में चल रहा यह शीत युद्ध न थमा तो न केवल उन दोनों की प्रतिष्ठा गर्त में जायेगी बल्कि काफी कुछ नुकसान भी होगा जो वे कभी भर नही पायेगें। यहॉं खेद आलोक जी या शिरिल जी के चिट्ठे के एक दूसरे के एग्रीगेटर पर होने या न होने की नही है, खेद तो इस बात है कि जब आप एक दूसरे के प्रतिस्पधी हो तो क्यो इच्छा करते हो कि आपका ब्लाग किसी के अन्य एग्रीगेटर पर रहे। अगर यह लड़ाई किसी एग्रीगेटर और ब्लागर के बीच होती तो मै समझ सकता था कि यह कुछ ठीक काम किया जा रहा है किन्तु जब यह युद्ध सीधे-सीधे एग्रीगेटर के मध्य है तो हंसी भी आती और दुख भी होता है। जहॉं तक मुझे याद है कि नारद की विफलता के परिणाम स्वरूप दो चिट्ठा एग्रीगेटरों का अवरतण हुआ था और दोनो ही अपने आपको श्रेष्ठ शिद्ध करना चाहते थे। सही कहूँ तो मुझे हंसी आती है कि कोई मकान मालिक दूसरे के घर में शरणार्थी बन कर रहने के लिये जंग लड़ रहा है। कहा जाता है कि आवाश्यकता अविष्कार की जननी होती है, दोनो ने अपने अपने अविष्कार स्वयं किये किन्तु दोनों ही चिन्ता कर रहे है कि मै क्यो नही हूँ उनके वाले में, ऐसा देखने को पहली बार मिल रहा है। मेरे ख्याल से सभी को अपनी ऊर्जा अपने आपने रचनात्मक कार्यो में लगानी चाहिए न कि इन प्रकार के लफड़ो में, लफड़ो को हमारे लिये ही छोड़ दिया करों भाई हमारा टाईम पास हो जाया करेगा।
मै मनता हूँ कि ब्लागवाणी ने अलोक जी के चिट्ठे को हटा कर ठीक नही किया किन्तु किसी भी ब्लाग को रखना या न रखना एग्रीगेटर नियत्रक के हाथ में है, ब्लागवाणी न कोई सरकारी या सामूहिक या धर्मार्थ संस्था है जो हर चिट्ठे को अपने यहॉ स्थान देने के लिये बाध्य है और न ही चिट्ठाजग़त। हर व्यक्ति अपने उद्देश्य से कोई काम शुरू करता है चूकिं ब्लाग़वाणी का भी अपना उद्देश्य रहा होगा। आलोक भाई ने जिस प्रकार व्यथा जाहिर की उनके ब्लाग को ब्लागवाणी से हटा दिया गया है वह अपने जगह पर ठीक हो सकता है किन्तु एक वरिष्ठ चिट्ठाकार और एक अन्य एग्रीगेटर के मुखिया होने नाते यह कहना ठीक नही था। मै अर्थशास्त्र का विद्यार्थी हूँ एक आलोचना अक्सर अर्थशास्त्र में की जाती है कि एडम स्मिथ ने धन को साध्य बना दिया है, जबकि साध्य तो मनुष्य और उसकी संतुष्टि है। इसी तरह प्रश्न उठता है कि चिट्ठा साध्य है या एग्रीगेटर। मेरी नज़र में तो साध्य तो चिट्ठा है किन्तु आलोक भाई के इस बात से कि ब्लागवाणी पर चिट्ठा यह दर्शाता है कि साध्य तो एग्रीगेटर है न कि ब्लाग।
आज हर ब्लागर एग्रीगेटर पर निर्भर करता है, पर मै यह नही मानता हूँ, कि आज के दौर में किसी भी पुराने ब्लागर के लिये एग्रीगेटर का महत्व है। अनूप शुक्ल, समीर लाल, मसिजीवी, अलोक पुराणिक, ज्ञानजी, तथा मेरा खुद का चिट्ठा किसी एग्रीगेटर का नही मोहताज है। एग्रीगेटर तो एक माध्यम है त्वरित भीड़ एकट्ठा करने कि जबकि भीड़ उतना मायने नही रखता है जितना कि आपका सच्चा पाठक रखता है। हर व्यक्ति का अपना दूसरे के चिट्ठे को पढ़ने का तरीका होता है, मेरा अपना तरीका है और ज्ञान जी का अपना हम दोनो ही चिट्ठा पढ़ने के लिये किसी एग्रीगेटर पर निर्भर नही है। समीर लाल, अनूप जी, सागर भाई, तथा और अन्य मनपंसद चिट्टे मै सप्ताह में एक दिन ही पढ़ता हूँ, और चाहे पोस्ट पुरानी हो या नई जो अच्छी लगती है उसी पर टिप्पणी करता हूँ।( अनूप जी, समीर लाल जी मेरी बात की पुष्टि करें :) ) ऐसे कई दर्जन से ज्यादा ब्लाग है जो मै सप्ताह में एक बार ही खोलता हूँ। जिसके लिये मुझे किसी एग्रीगेटर की जरूरत नही पड़ती है, ब्लाग लेखक का प्यार वहॉं तक अपने आप मुझे लेकर चला जाता है।
थोड़ा मै एग्रीगेटर की भूमिका पर आना चाहूँगा कि यह कितना जरूरी है, मै सिर्फ अपने चिट्ठे की बात करूँगा, मार्च माह में विभिन्न साईट से मेरे ब्लाग पर आने वाले लोगोंकी संख्य 350 के आस पास थी जिसमें एग्रीगेटर का प्रतिशत 75 के आस पास था, तब केवल नारद और हिन्दी ब्लाग्स का ही अस्तित्व था किन्तु आज अगस्त में कुछ ज्यादा सक्रिय था और मेरे ब्लाग पर आने वालों की संख्या करीब 1036 की थी जिसमें एग्रीगेटर का प्रतिशत 60 के आस पास था। किन्तु सितम्बर में अपनी असक्रियता के कारण कुल 650 के आस पास पाठक आये जिसमें सभी एग्रीगेटरों का प्रतिशत 55 से भी कम था। इस बात को बताने का मेरा उद्देश्य यही है कि पाठक संख्या के हिसाब से जब मै गर्त में था तो एग्रीगेटर का प्रतिशत ज्यादा था किन्तु जब अगस्त में मेरी पाठक संख्या मेरी ब्लागिंग इतिहास में सर्वाधिक हुई तो एग्रीगेटर का प्रतिशत सामान्य रहा और घटा भी, और सितम्बर में जब फिर पाठक कम आये एग्रीगेटर का प्रतिशत वही रहा।

मै मनता हूँ कि ब्लागवाणी ने अलोक जी के चिट्ठे को हटा कर ठीक नही किया किन्तु किसी भी ब्लाग को रखना या न रखना एग्रीगेटर नियत्रक के हाथ में है, ब्लागवाणी न कोई सरकारी या सामूहिक या धर्मार्थ संस्था है जो हर चिट्ठे को अपने यहॉ स्थान देने के लिये बाध्य है और न ही चिट्ठाजग़त। हर व्यक्ति अपने उद्देश्य से कोई काम शुरू करता है चूकिं ब्लाग़वाणी का भी अपना उद्देश्य रहा होगा। आलोक भाई ने जिस प्रकार व्यथा जाहिर की उनके ब्लाग को ब्लागवाणी से हटा दिया गया है वह अपने जगह पर ठीक हो सकता है किन्तु एक वरिष्ठ चिट्ठाकार और एक अन्य एग्रीगेटर के मुखिया होने नाते यह कहना ठीक नही था। मै अर्थशास्त्र का विद्यार्थी हूँ एक आलोचना अक्सर अर्थशास्त्र में की जाती है कि एडम स्मिथ ने धन को साध्य बना दिया है, जबकि साध्य तो मनुष्य और उसकी संतुष्टि है। इसी तरह प्रश्न उठता है कि चिट्ठा साध्य है या एग्रीगेटर। मेरी नज़र में तो साध्य तो चिट्ठा है किन्तु आलोक भाई के इस बात से कि ब्लागवाणी पर चिट्ठा यह दर्शाता है कि साध्य तो एग्रीगेटर है न कि ब्लाग।
आज हर ब्लागर एग्रीगेटर पर निर्भर करता है, पर मै यह नही मानता हूँ, कि आज के दौर में किसी भी पुराने ब्लागर के लिये एग्रीगेटर का महत्व है। अनूप शुक्ल, समीर लाल, मसिजीवी, अलोक पुराणिक, ज्ञानजी, तथा मेरा खुद का चिट्ठा किसी एग्रीगेटर का नही मोहताज है। एग्रीगेटर तो एक माध्यम है त्वरित भीड़ एकट्ठा करने कि जबकि भीड़ उतना मायने नही रखता है जितना कि आपका सच्चा पाठक रखता है। हर व्यक्ति का अपना दूसरे के चिट्ठे को पढ़ने का तरीका होता है, मेरा अपना तरीका है और ज्ञान जी का अपना हम दोनो ही चिट्ठा पढ़ने के लिये किसी एग्रीगेटर पर निर्भर नही है। समीर लाल, अनूप जी, सागर भाई, तथा और अन्य मनपंसद चिट्टे मै सप्ताह में एक दिन ही पढ़ता हूँ, और चाहे पोस्ट पुरानी हो या नई जो अच्छी लगती है उसी पर टिप्पणी करता हूँ।( अनूप जी, समीर लाल जी मेरी बात की पुष्टि करें :) ) ऐसे कई दर्जन से ज्यादा ब्लाग है जो मै सप्ताह में एक बार ही खोलता हूँ। जिसके लिये मुझे किसी एग्रीगेटर की जरूरत नही पड़ती है, ब्लाग लेखक का प्यार वहॉं तक अपने आप मुझे लेकर चला जाता है।
थोड़ा मै एग्रीगेटर की भूमिका पर आना चाहूँगा कि यह कितना जरूरी है, मै सिर्फ अपने चिट्ठे की बात करूँगा, मार्च माह में विभिन्न साईट से मेरे ब्लाग पर आने वाले लोगोंकी संख्य 350 के आस पास थी जिसमें एग्रीगेटर का प्रतिशत 75 के आस पास था, तब केवल नारद और हिन्दी ब्लाग्स का ही अस्तित्व था किन्तु आज अगस्त में कुछ ज्यादा सक्रिय था और मेरे ब्लाग पर आने वालों की संख्या करीब 1036 की थी जिसमें एग्रीगेटर का प्रतिशत 60 के आस पास था। किन्तु सितम्बर में अपनी असक्रियता के कारण कुल 650 के आस पास पाठक आये जिसमें सभी एग्रीगेटरों का प्रतिशत 55 से भी कम था। इस बात को बताने का मेरा उद्देश्य यही है कि पाठक संख्या के हिसाब से जब मै गर्त में था तो एग्रीगेटर का प्रतिशत ज्यादा था किन्तु जब अगस्त में मेरी पाठक संख्या मेरी ब्लागिंग इतिहास में सर्वाधिक हुई तो एग्रीगेटर का प्रतिशत सामान्य रहा और घटा भी, और सितम्बर में जब फिर पाठक कम आये एग्रीगेटर का प्रतिशत वही रहा।


समय सारणी
यहॉं मेरा कहने का उद्देश्य यही है कि एग्रीगेटर से लेख पढ़ने का काम 90 प्रतिशत से ज्यादा ब्लागर ही करते है, जो पहले नारद पर निर्भर करते थे आज चार अन्य पर निर्भर है। अर्थात चारों एग्रीगेटरों के आने से पाठकों के प्रतिशत में वृद्धि के बजाय गिरावट ही हुई। जो पाठक पाठक मेरे 75 प्रतिशत दो एग्रीगेटर से आते थे वही 60 प्रतिशत अब चार एग्रीगेटरों से आते है। ऐसा नही है कि मेरे पाठकों में गिरावट हुई है और इस कारण प्रतिशत गिर गया। मेरी पाठक संख्या मार्च के मुकाबले सितम्बर में 125 ज्यादा थी। अर्थात स्पष्ट होता है कि कुछ पाठको ने ब्लाग पढ़ने का माध्यम बदल लिया। और आज मै यह गर्व से कह सकता हूँ मेरे चिट्ठे को अगर एग्रीगेटर से हटा भी दिया जाये तो मेरे ब्लाग की सेहत पर कोई असर नही पडने वाला है। इसी तरह श्री समीर लाल जी, श्री अनूप शुक्ल जी व कई अन्य श्रीमान जी के ब्लाग के सेहत पर ज्यादा असर नही पड़ने वाला है।
हॉं एग्रीगेटर का उपयोग तो मसालेदार पोस्टों के लिये ही ज्यादा है जिसमें त्वरित टिप्पणी ही जायके दार तड़के काम करती है। सही कहूँ तो आलोक जी का ब्लाग ब्लागवाणी पर नही था किन्तु विवदित पोस्टों के होने से उनकी सेहत पर कोई असर नही पड़ा और एक एग्रीगेटर के बल बूते भरपेट पाठकों को खिलाया, तथा बहती गंगा में कई और भाई हाथ धो लिये जिसमें अब मै भी शामिल हो गया हूँ :) श्री आलोक जी की ब्लागवाणी के प्रति की गई पोस्ट वास्तव में मुझे कतई अच्छी नही लगी, जिसमें वे स्वर्ग से उतरी गंगा की तरह पूरे प्रंचड वेग में दिख रहे थे, जिस प्रकार उन्होने श्री अरूण जी की टिप्पणी को एक दर्जन बार से ज्यादा लिंकित किया वह ठीक नही था, उनके ब्लाग को पढ़ कर लगा रहा था कि अरूण जी अगर उन्हे मिल जाये, तो फ्री मे एक इन्टरटेनमेन्ट कार्यक्रम की शुरूवात हो सकती है। मुझे अफशोस की यह ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत की ओर से प्रयोजित कार्यक्रम अयोजित न हो सका। :)
आज मैने सुबह अनूप जी सही ही कहा था कि चिंगारी तो अरूण जी तो थे ही किन्तु ज्वनशील पदार्थ श्री आलोक जी में पहले से मौजूद था, जब उनका ब्लाग ब्लागवाणी पर आ गया था तो क्या पोल-खोल कार्यक्रम आयोजित करना जरूरी था :) मुझे आलोक जी के पोस्ट तमासे से ज्यादा कुछ नही लगी, और ऐसे तमासे की कोई जरूरत नही थी। यह मुझे जगता है कि एक ब्लागर नही एग्रीगेटर के स्वामी का स्वाभिमान सामने आ गया था। श्री आलोंक जी की वह पोस्ट कष्ट पहुँचाई है, क्योकि उनकी भाषा बिल्कुल बदल गई थी। आलोंक भाई मै आपसे निवेदन करूँगा कि इस प्रकार में पचड़े में पढ़ने से अच्छा है कि सार्थक कामों में समय दीजिए, आपका चिट्ठा किसी एग्रीगेटर की वजह से नही है बल्कि कई एग्रीगेटर आपके चिट्ठे की वजह से है।
यहॉं मेरा कहने का उद्देश्य यही है कि एग्रीगेटर से लेख पढ़ने का काम 90 प्रतिशत से ज्यादा ब्लागर ही करते है, जो पहले नारद पर निर्भर करते थे आज चार अन्य पर निर्भर है। अर्थात चारों एग्रीगेटरों के आने से पाठकों के प्रतिशत में वृद्धि के बजाय गिरावट ही हुई। जो पाठक पाठक मेरे 75 प्रतिशत दो एग्रीगेटर से आते थे वही 60 प्रतिशत अब चार एग्रीगेटरों से आते है। ऐसा नही है कि मेरे पाठकों में गिरावट हुई है और इस कारण प्रतिशत गिर गया। मेरी पाठक संख्या मार्च के मुकाबले सितम्बर में 125 ज्यादा थी। अर्थात स्पष्ट होता है कि कुछ पाठको ने ब्लाग पढ़ने का माध्यम बदल लिया। और आज मै यह गर्व से कह सकता हूँ मेरे चिट्ठे को अगर एग्रीगेटर से हटा भी दिया जाये तो मेरे ब्लाग की सेहत पर कोई असर नही पडने वाला है। इसी तरह श्री समीर लाल जी, श्री अनूप शुक्ल जी व कई अन्य श्रीमान जी के ब्लाग के सेहत पर ज्यादा असर नही पड़ने वाला है।
हॉं एग्रीगेटर का उपयोग तो मसालेदार पोस्टों के लिये ही ज्यादा है जिसमें त्वरित टिप्पणी ही जायके दार तड़के काम करती है। सही कहूँ तो आलोक जी का ब्लाग ब्लागवाणी पर नही था किन्तु विवदित पोस्टों के होने से उनकी सेहत पर कोई असर नही पड़ा और एक एग्रीगेटर के बल बूते भरपेट पाठकों को खिलाया, तथा बहती गंगा में कई और भाई हाथ धो लिये जिसमें अब मै भी शामिल हो गया हूँ :) श्री आलोक जी की ब्लागवाणी के प्रति की गई पोस्ट वास्तव में मुझे कतई अच्छी नही लगी, जिसमें वे स्वर्ग से उतरी गंगा की तरह पूरे प्रंचड वेग में दिख रहे थे, जिस प्रकार उन्होने श्री अरूण जी की टिप्पणी को एक दर्जन बार से ज्यादा लिंकित किया वह ठीक नही था, उनके ब्लाग को पढ़ कर लगा रहा था कि अरूण जी अगर उन्हे मिल जाये, तो फ्री मे एक इन्टरटेनमेन्ट कार्यक्रम की शुरूवात हो सकती है। मुझे अफशोस की यह ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत की ओर से प्रयोजित कार्यक्रम अयोजित न हो सका। :)
आज मैने सुबह अनूप जी सही ही कहा था कि चिंगारी तो अरूण जी तो थे ही किन्तु ज्वनशील पदार्थ श्री आलोक जी में पहले से मौजूद था, जब उनका ब्लाग ब्लागवाणी पर आ गया था तो क्या पोल-खोल कार्यक्रम आयोजित करना जरूरी था :) मुझे आलोक जी के पोस्ट तमासे से ज्यादा कुछ नही लगी, और ऐसे तमासे की कोई जरूरत नही थी। यह मुझे जगता है कि एक ब्लागर नही एग्रीगेटर के स्वामी का स्वाभिमान सामने आ गया था। श्री आलोंक जी की वह पोस्ट कष्ट पहुँचाई है, क्योकि उनकी भाषा बिल्कुल बदल गई थी। आलोंक भाई मै आपसे निवेदन करूँगा कि इस प्रकार में पचड़े में पढ़ने से अच्छा है कि सार्थक कामों में समय दीजिए, आपका चिट्ठा किसी एग्रीगेटर की वजह से नही है बल्कि कई एग्रीगेटर आपके चिट्ठे की वजह से है।
एक निवेदन मै श्री शिरिल गुप्त जी से भी करना चाहूँगा, कि आपने आपने पूज्य पिताजी के आदर्शो पर चलें, और उनके द्वारा बताये गये राह पर चलें। मुझे आदमी पहचानने में देर नही लगती है। जितना मैने मैथली जी को अकेले में (अरूण जी कुछ खाने पीने की सामग्री लेने चले गये थे) पॉंच मिनट में जाना है वह व्यक्ति किसी के लिये आदर्श हो सकते है। आये दिन मै भी नारद से नाराज रहा करता था किन्तु जब मैने दिल्ली में मैथली से मिला तो उनसे काफी कुछ सीखने को मिला, उनसे जब नारद विषय बात हुई तो उन्होने यही कहा कि नारद परिवार ने जो कुछ भी चिट्ठाकारी और हिन्दी के लिये किया वह किसी अन्य के लिये करना नामूमकीन है। इसलिये कभी भी अक्षरग्राम परिवार के खिलाफत मत किया करों, विरोध हो तो विरोध करो कभी प्रतिशोघ मत करना। इसलिये मै यह मानने को तैयार नही हूँ कि मैथली जी किसी के प्रति भेदभाव करेगें, उनके अन्दर हिन्दी और हिन्दुस्थान के प्रति काफी सम्मान है। मै उनके इस कार्य से अभिभूत हूँ मेरी एक इच्छा है कि एक बार फिर से ज्यादा से ज्यादा समय उनके साथ अकेले में बिताऊ। :) शिरिल जी मै आपसे भी मिला हूँ और चाहूँगा कि आप भी आपने पिताजी की तरह आदर्श बने, आप में क्षमता है, मुझे किसी प्रकार का संदेह नही है। आपका ब्लाग किसी एग्री पर है या नही है यह ज्यादा महत्व नही है, आप भी अपनी ऊर्जा सकारात्मक कार्यो में लगाईये।
एक व्यक्ति की बात किये बिना मेरी इस पोस्ट अधूरी रहेगी, वो व्यक्ति है श्री अरूण अरोड़ा जी। श्री आलोक जी ने अरूण जी कि टिप्पणी को काफी तबज्जों दी जो एक प्रकार से अनावाश्यक थी। श्री आलोक जी की यह बात कि मै भी पंजाबी हूँ, और मुझे भी बोलना आता है। श्री आलोक जी एक बात स्पष्ट कर दूँ, आप भी बोल सकते है किन्तु जो तोलती बोली बच्चों के मुँह से लगती है वह बड़ो के मुँह से नही। जो बाते अरूण जी की अच्छी लगती है वह आपसे नही लगेगी। और जो आप बोलेगे वह अरूण जी के मुँह से नही अच्छा लगेगा। जहॉं तक मै अरूण जी से मिला हूँ, वो एक अच्छे इन्सान है और स्वाभाव से भी बेहतरीन है। मै उनसे भी मिला था, कभी लगा ही नही कि वह मुझे अपना पराया मान रहे थे, हर व्यक्ति पर हक नही जताया जा सकता किन्तु मै उन पर हक जता सकता हूँ और जताया भी है, तब मै दिल्ली में था और अकेला महसूस कर रहा था तो मैने बड़ी गुस्से मै रौद्र रूप में उन्हे हड़काया था, शायद सुबह 6:00 रविवार के दिन उनकी नीद खुली रही होगी। पता नही मैने सुबह सुबह क्या क्या कहा होगा मुझे याद नही है। उन्होन फोन पर कहा कि भाई गलती हो गई माफ करों, बस तुरंत बदरपुर बार्डर पहुँचों मै तुम्हे लेने आ रहा हूँ, उसके बाद कई बार उन्होने मुझे फोन करके हाल चाल लेना लगे, पर उनकी काल रीसिव करने की बाजाय काट कर उन्हे खुद मिला देना था, उन्होने मुझे डाटा कि ये क्यो कर रहे हो ? हॉं उन्हे मेरे पैसों की चिन्ता थी, किन्तु मुझे अपने पैसों कि चिंता थी जब मैने उन्हे बातया कि उनकी काल रिसिव करने पर मुझे ज्यादा पैसे देने पढ़ रहे थे, बजाय करने के तो वे हँस पड़े :) मुश्किल से 3 घन्टे के अन्दर मै उनके साथ था। और काफी अच्छा महसूस कर रहा था। इसलिये श्री अरूण जी अखरोट की तरह है बाहर से बिल्कुल कड़क और अंदर से नरम। अरूण जी जैसे भी अच्छे है और मुझे उनमें कोई परिवर्तन नही चाहिऐ पर उनसे भी एक निवेदन करूँगा कि शंयत भाषा कभी कभी ज्यादा कड़क भाषा से ज्यादा कड़क हो जाती है। आप संयत का प्रयोग ज्यादा किया करें। :)
इस पोस्ट का उद्देश्य यही था कि आपस में प्यार बंटाने से भी प्यार बढ़ेगा, कभी आप लोग जो विवादों में फसे रहते है अगर गौर कीजिऐगा तो पायेगें कि जब आप अपनी दूरी को कम करेगें तो एक नये परिवार को पायेगें। सभी को शुभकामनाऐ सहित कामना करता हूँ कि विवादों का अंत करें।
आप सभी को सूचित करते हुऐ हर्ष हो रहा है कि 1 नवम्बर से महाशक्ति समूह सक्रिय हो जायेगा, और करीब 11 लेखक इस पर लेखन कार्य करेगें, हमारा उद्देश्य विद्यार्थियों को एकत्र करने का है, किन्तु हर किसी काम में बड़ो का मार्गदर्शन जरूरी होता है इसलिये कई अन्य बन्धु भी है, किन्तु पूरा का पूरा ब्लाग विद्याथी आधरित ही है। जैसा कि मैने पोस्ट मे कहा है कि नये ब्लाग को एग्रीगेटर की जरूरत होती है, और इसी लिये मै चाहता हूँ कि सभी एग्रीगेटर इस नये ब्लाग को अपने अपने जगह त्वरित स्थान देने का कष्ट करें। अगर भावना वश कुछ ज्यादा कह गया हूँ, तो सभी लोग अनुज समझ कर माफ कीजिऐगा। पर मेरी राय/इच्छा यही है कि शीत युद्ध बन्द होना चाहिऐं।
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6 टिप्पणियां:
महोदय आपके समूह को बधाई जो आप आज से सक्रिय हो रहे हैं. लेकिन एक बात और है, अन्यथा न लीजिएगा इस विवाद पर आपने पोस्ट लिख कर आपने खुद विवाद को हवा ही दी है. कई बार अपराध का बखान कर के अपराध व अपराधी को भी मार्ग मिल जाता है.
"मुझे आदमी पहचानने में देर नही लगती है।"
भाई प्रमेन्द्र जी,
अनुभव का महत्व है, ये बात आज साबित हो गई...आपने बड़े ही संयत तरीके से दोनों पक्षों की बातें रखीं...हम भी चाहते हैं की ये विवाद हल हो...आपका प्रयास सराहनीय है.
महाशक्ति समूह को मेरी शुभकामनाएँ ।
घुघूती बासूती
आपकी बात सत्य है. पर ज्ञान भइया ने जो कहा उसपर विचार कीजियेगा कि " विवाद विकास के वाहक होते है"
मेरे सवाल का जवाब दीजियेगा.
हम पुष्टि करते हैं। बड़ी समझदारी की पोस्ट लिखी। बधाई। महाशक्ति के शुरू होने की भी बधाई। :)
आपके नये समूह महाशक्ति का स्वागत करता हूँ, और उम्मीद करता हूँ कि आपका नया समूह बहुत सफल होगा।
... देखो आजकल मैने भी पचड़ों में पड़ना छोड़ दिया।
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